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गरीबी महफिल में खूब फबती-हिन्दी शायरी (garibi aur mahfil-hindi shayri)


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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वफा हम सभी से निभाते रहे

क्योंकि गद्दारी का नफा पता न था।

सोचते थे लोग तारीफ करेंगे हमारी

लिखेंगे अल्हड़ों में नाम, पता न था।

——

राहगीरों को दी हमेशा सिर पर छांव

जब तक पेड़ उस सड़क पर खड़ा था।

लोहे के काफिलों के लिये कम पड़ा रास्ता

कट गया, अब पत्थर का होटल खड़ा था।

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जुल्म, भूख और बेरहमी कभी

इस जहां से खत्म नहीं हो सकती।

उनसे लड़ने के नारे सुनना अच्छा लगता है

गरीबी बुरी, पर महफिल में खूब फबती।

——–

हमारे शब्दों को उन्होंने अपना बनाया

बस, अपना नाम ही उनके साथ सजा लिया।

उनकी कलम में स्याही कम रही हमेशा

इसलिये उससे केवल दस्तखत का काम किया।

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यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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किसका हुआ कभी कोहिनूर-व्यंग्य कविता (kiska hua kohinoor-vyangya kavita)


चंद खोये सिक्के ढूंढने के लिए
पूरा घर का सामान बिखेर डाला
मिले पलंग के नीचे गिरे हुए
पहले तो खुशी मिली, फिर हुई काफूर।
बिखरी हुई शयों को समेटने के
ख्याल ने कर दिया बदन पहले ही चूर।
खोये पाये के हिसाब में
पूरी जिंदगी हो जाती है बेनूर।
सिक्के इतने जमा कर लिये संभाले नहीं जाते
गिनती में भूल जायें
तो देखते हैं उनको घूर।
सोचते कौन कम हुआ चश्मेबद्दूर।
खोये हुए सिक्के मिल गये
पर चले जायेंगे हाथ से
बनेंगे किसी दूसरे हाथ का नूर।
जिंदगी में गमों का सिलसिला भी आता है
खुशियां भी साथ चलती थोड़ी दूर।
अपना कितनों ने माना होगा
पर किसका हुआ कभी कोहिनूर।

…………………….
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सविता भाभी पर प्रतिबन्ध -आलेख (hindi article ben on savita bhabhi)


सविता भाभी नाम की एक पौर्न साईट को बैन कर दिया गया है। बैन करने वालों का इसके पीछे क्या ध्येय है यह तो पता नहीं पर बैन के बाद इसे समाचार पत्र पत्रिकाओं में खूब स्थान मिला उससे तो लगता है कि इसके चाहने वालों की संख्या बढ़ेगी। पता नहीं इस पर बैन का क्या स्वरूप है पर कैसे यह संभव है कि बाहर लोग इससे भारत में न देख पायें।
यह साइट कैसे है यह तो पता नहीं पर अनुमान यह है कि यह किसी विदेशी साईट का देसी संस्करण होगी। गूगल, याहू, अमेजन और बिंग आदि सर्च इंजिनों तो सर्वव्यापी हैं और इन पर जाकर कोई भी इसे ढूंढ सकता है। यह अलग बात है कि इनके पास कोई ऐसा साफ्टवेयर हो जो भारतीय प्रयोक्ताओं को इससे रोक सके। तब भी सवाल यह है कि अगर विदेशों में अंग्रेजी में जो पोर्न वेबसाईटें हैं उनसे क्या भारतीय प्रयोक्ताओं को रोकना संभव होगा।
इस लेखक को तकनीकी जानकारी नहीं है इसलिये वह इस बात को नहीं समझ सकता है कि आखिर इस पर यह बैन किस तरह लगेगा?
लोगों को कैसे रहना है, क्या देखना है और क्या पहनना है जैसे सवालों पर एक अनवरत बहस चलती रहती है। कुछ बुद्धिजीवी और समाज के ठेकेदार उस हर चीज, किताब और विचार प्रतिबंध की मांग करते हैं जिससे लोगों की कथित रूप से भावनायें आहत होती हैं या उनके पथभ्रष्ट होने की संभावना दिखती है। अभी कुछ धर्माचार्य समलैंगिकता पर छूट का विरोध कर रहे हैं। कभी कभी तो लगा है इस देश में आवाज की आजादी का अर्थ धर्माचार्यों की सुनना रह गया है। इस किताब पर प्रतिबंध लगाओ, उस चीज पर हमारे धर्म का प्रतीक चिन्ह है इसलिये बाजार में बेचने से रोको।
हमारा धर्म, हमारे संस्कार और हमारी पहचान बचाने के लिये यह धर्माचार्य जिस तरह प्रयास करते हैं और जिस तरह उनको प्रचार माध्यम अपने समाचारों में स्थान देते हैं उससे तो लगता है कि धर्म और बाजार मिलकर इस देश की लोगों की मानसिक सोच को काबू में रखना चाहते है।

भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में वह शक्ति है जो आदमी को स्वयं ही नियंत्रण में रखती है इसलिये जो भी व्यक्ति इसका थोड़ा भी ज्ञान रखता है वह ऐसे प्रयासों पर हंस ही सकता है। दरअसल धर्म, भाषा, जाति, और नस्ल के आधार पर बने समूहों को ठेकेदार केवल इसी आशंका में जीते हैं कि कहीं उनके समूह की संख्या कम न हो जाये इसलिये वह उसे बचाने के लिये ऐसे षडयंत्र रचाते हैं जिनको वह आंदोलन या योजना करार देते हैं। सच बात तो यह है कि अधिक संख्या में समूह होने का कोई मतलब नहीं है अगर उसमें सात्विकता और दृढ़ चरित्र का भाव न हो।
इस लेखक ने कभी ऐसी साईटें देखने का प्रयास नहीं किया पर इधर उधर देखकर यही लगता है कि लोगों की रुचि इंटरनेट पर भी इसी प्रकार के साहित्य में है। इंटरनेट पर ही नहीं बल्कि कहीं भी यौन साहित्य से मस्तिष्क और देह में विकास उत्पन्न होते हैं यह बात समझ लेना चाहिये। ऐसा साहित्य वैसे भी बाजार में उपलब्ध है और इंटरनेट पर एक वेबसाईट पर रोक से कुछ नहीं होगा। फिर दूसरी शुरु हो जायेगी। समाज के कथित शुभचिंतक फिर उस पर उधम मचायेंगे। इस तरह उनके प्रचार का भी काम चलता रहेगा। समस्या तो जस की तस ही रह जायेगी। इस तरह का प्रतिबंध दूसरे लोगों के लिये चेतावनी है और वह ऐसा नहीं करेंगे पर भारत के बाहर की अनेक वेबसाईटें इस तरह के काम में लगी हुई हैं उनको कैसे रोका जायेगा?
इसलिये प्रयास यह होना चाहिये कि समाज में चेतना लायी जाये पर ऐसा कोई प्रयास नहीं हो रहा है। इसके बनिस्बत केवल नारे और वाद सहारे वेबसाईटें रोकी जा रही है पर लोगों की रुचि सत्साहित्य की तरफ बढ़े इसके लिये कोई प्रयास नहीं हो रहा है।

कुतर्कों को तर्क से काटना चाहिये। एक दूसरी बात यह भी है कि जब आप कोई सार्वजनिक रूप से किसी व्यक्ति, किताब, दृश्य या किताब को बहुत अच्छा कहकर प्रस्तुत करते हैं तो उसके विरुद्ध तर्क सुनने की शक्ति भी आप में होना चाहिये। न कि उन पर की गयी प्रतिकूल टिप्पणियों से अपनी भावनायें आहत होने की बात की जानी चाहिये। इस मामले में राज्य का हस्तक्षेप होना ही नहीं चाहिये क्योंकि यह उसका काम नहीं है। अगर ऐसी टिप्पणियों पर उत्तेजित होकर कोई व्यक्ति या समूह हिंसा पर उतरता है तो उसके विरुद्ध कार्यवाही होना चाहिये न कि प्रतिकूल टिप्पणी देने वाले को दंडित करना चाहिये। हमारा स्पष्ट मानना है कि या तो आप अपने धर्म, जाति, भाषा या नस्ल की प्रशंसा कर उसे सार्वजनिक मत बनाओ अगर बनाते हो तो यह किसी भी व्यक्ति का अधिकार है कि वह कोई भी तर्क देकर आपकी तारीफ की बखिया उधेड़ सकता है।
यह लेखक शायद ऐसी बातें नहीं कहता पर अंतर्जाल पर लिखते यह एक अनुभूति हुई है कि लोग पढ़ते और लिखते कम हैं पर ज्ञानी होने की चाहत उन्हें इस कदर अंधा बना देती है कि वह उन किताबों के लिखे वाक्यों की निंदा सुनकर उग्र हो जाते हैं। इस लेखक द्वारा लिखे गये अनेक अध्यात्म पाठों पर गाली गलौच करती हुई टिप्पणियां आती हैं पर उनमें तर्क कतई नहीं होता। हैरानी तो तब होती है कि विश्व की सबसे संपन्न भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा से जुड़े होने का दावा करने वाले लोग भी पौर्न साईटों, बिना विवाह साथ रहने तथा समलैंगिकता का विरोध करते हैं। बिना विवाह के ही लड़के लड़कियों के रहने में उनको धर्म का खतरा नजर आता है। यह सब बेकार का विरोध केवल अपनी दुकानें बचाने का अलावा कुछ नहीं है। ईमानदारी की बात तो यह है कि समाज में चेतना बाहर से नहीं आयेगी बल्कि उनके अंदर मन में पैदा करने लगेगी। कथित पथप्रदर्शक अपने भाषणों के बदल सुविधायें और धन लेते हैं पर जमीन पर उतर कर आदमी से व्यक्तिगत संपर्क उनका न के बराबर है।
कहने को तो कहते हैं कि आजकल की युवा पीढ़ी इनको महत्व नहीं देती पर वास्तविकता यह है कि लड़के लड़कियां विवाह करते ही इसी सामजिक दबाव के कारण हैं। कई लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताती हैं। कई लड़के और लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताते हैं। धर्म बदलकर विवाह करने पर उनको ससुराल पक्ष के संस्कार मानने ही पड़ते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि उन संस्कारों को उसकी ससुराल में ही बाकी लोग महत्व नहीं देते पर उसे मनवाकर अपनी धार्मिक विजय प्रचारित किया जाता है। विवाह एक संस्कार है इसे आखिर नई पीढ़ी तिलांजलि क्यों नहीं दे पाती? इसकी वजह यही है कि जाति, धर्म, भाषा और नस्ल के आधार पर बने समाज ठेकेदारों के चंगुल में इस कदर फंसे हैं कि उनसे निकलने का उनके पास कोई चारा ही नहीं है। आप अगर देखें। किस तरह लड़का प्यार करते हुए लड़की को उसके जन्म नाम को प्यार से पुकारता है और विवाह के लिये धर्म के साथ नाम बदलवाकर फिर उसी नाम से बुलाता है। इतना ही नहीं बाहर समाज में अपनी पहचान बचाने रखने के लिये लड़की भी अपना पुराना नाम ही लिखती है। समाज से इस प्रकार का समझौता एक तरह से कायरता है जिसे आज का युवा वर्ग अपना लेता है।

बात मुद्दे की यह है कि मनुष्य का मन उसे विचलित करता है तो नियंत्रित भी। उसे विचलित वही कर पाते हैं जो व्यापार करना चाहते हैं। फिर मनुष्य को एक मित्र चाहिये और वह ईश्वर में उसे ढूंढता है। अभी हाल ही में पश्चिम के वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य जब ईश्वर की आराधना करता है तो उसके दिमाग की वह नसें सक्रिय हो जाती हैं जो मित्र से बात करते हुए सक्रिय होती हैं। इसका मतलब साफ कि दिमाग की इन्हीं नसों पर व्यापारी कब्जा करते हैं। ईश्वर के मुख से प्रकट शब्द बताकर रची गयी किताबों को पवित्र प्रचारित किया जाता है। इसकी आड़ में कर्मकांड थोपते हुए धर्माचार्य अपने ही धर्म, जाति और समूहों की रक्षा का दिखावा करते हुए अपना काम चलाते हैं। मजे की बात है कि आधुनिक युग के समर्थक बाजार भी अब इनके आसरे चल रहा है। वजह यह है कि धर्म की आड़ में पैसे का लेनदेन बहुत पवित्र माना जाता है जो कि बाजार को चाहिये।
निष्कर्ष यह है कि कथित पवित्र पुस्तकों के यह कथित ज्ञानी पढ़ते लिखते कितना है यह पता नहीं पर उनकी व्याख्यायें लोगों को भटकाव की तरफ ले जाती हैं। आम व्यक्ति को समाज के रीति रिवाजों और कर्मकांडों का बंधक बनाये रखने का प्रयास होता रहा है और अगर कोई इनको नहीं मानता तो उसकी इसे आजादी होना चाहिये। यह आजादी कानून के साथ ही निष्पक्ष और स्वतंत्र बुद्धिजीवियों द्वारा भी प्रदान की जानी चाहिये।
किसी को बिना विवाह के साथ रहना है या समलैंगिक जीवन बिताना है या किसी को नग्न फिल्में देखना है यह उसका निजी विचार है। यह सब ठीक नहीं है और इसके नतीजे बाद में बुरे होते हैं पर इस पर कानून से अधिक समाज सेवी विचारक ही नियंत्रण कर सकते हैं। धर्म भी नितांत निजी विषय है। जन्म से लेकर मरण तक धर्म के नाम पर जिस तरह कर्मकांड थोपे जाते हैं अगर किसी को वह नापसंद है तो उसे विद्रोही मानकर दंडित नहीं करना चाहिये। कथित रूप से पवित्र पुस्तक की आलोचना करने वालों को अपने तर्कों से कोई धर्मगुरु समझा नहीं पाता तो वह राज्य की तरफ मूंह ताकता है और राज्य भी उसके द्वारा नियंत्रित समूह को अपनी हितैषी मानकर इन्हीं धर्माचार्यों को संरक्षण देता है और यही इस देश के मानसिक विकास में बाधक है।
इस लेखक का ढाई वर्ष से अधिक अंतर्जाल पर लिखते हुए हो गया है पर पाठक संख्या नगण्य है। देश में साढ़े सात करोड़ इंटरनेट प्रयोक्ता है फिर भी इतनी संख्या देखकर शर्म आती है क्योंकि अधिकतर लोग इन्हीं पौर्नसाईटों पर अपना वक्त बिताते हैं पर फिर भी अफसोस जैसी बात नहीं है। एक लेखक के रूप में हम यह चाहते हैं कि लोग हमारा लिखा पढ़ें पर स्वतंत्रता और मौलिकता के पक्षधर होने के कारण यह भी चाहते हैं कि वह स्वप्रेरणा से पढ़ें न कि बाध्य होकर। अपने प्राचीन ऋषियों. मुनियों, महापुरुषों तथा संतों ने जिस अक्षुण्ण अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन किया है वह मनुष्य मन के लिये सोने या हीरे की तरह है अगर उसे दिमाग में धारण किया जाये तो। अपनी बात कहते रहना है। आखिर आदमी अपने दैहिक सुख से ऊब जाता है और यही अध्यात्मिक ज्ञान उसका संरक्षक बनता है। हमने कई ऐसे प्रकरण देखे हैं कि आदमी बचपन से जिस संस्कार में पला बढ़ा और बड़े होकर जब भौतिक सुख की वजह से उसे भूल गया तब उसने जब मानसिक कष्ट ने घेरा तब वह हताश होकर अपने पीछे देखने लगता है। उसे पता ही नहीं चलता कि कहां से शुरु हुआ और कहां पहुंचा ऐसे में सब कुछ जानते हुए भी वह लौट नहीं पाता। जैसे कर्म होते हैं वैसे ही परिणाम! अगर देखा जाये तो समाज को डंडे के सहारे चलाने वाले कथित गुरु या धर्माचार्यों से बचने की अधिक जरूरत है क्योंकि वह तो अपने हितों के लिये समाज को भ्रमित करते हैं। मजे की बात यह है कि यह बाजार ही है जो कभी नैतिकता, धर्म और संस्कार की बात करता है और फिर लोगों के जज्बात भड़काने का काम भी करता है।
यह आश्चर्य की बात है कि इस देश के शिक्षित वर्ग का मनोरंजन से मन नहीं भरता। दिन भर टीवी पर अभिनेता और अभिनेत्रियों को देखकर वह बोर होता है तो कंप्यूटर पर आता है पर फिर वहां पर उन्हीं के नाम डालकर सच इंजिन में डालकर खोज करता है। यही हाल यौन साहित्य का है। टीवी और सीडी में चाहे वह कितनी बार देखता है पर कंप्यूटर में भी वही तलाशता है। ऐसे समाज से क्या अपेक्षा की जा सकती है। बाजार फिर उसका पैसा बटोरने के लिये कोई अन्य वेबसाईट शुरु कर देगा। इसलिये सच्चे समाज सेवी यह प्रयास प्रारंभ करें जिससे लोगों के मन में सात्विकता के भाव पुनः स्थापित किये जा सकें। शेष फिर कभी।
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यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

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कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

इश्तिहार और दर्शक-त्रिपदम (hindi tripadam)


इश्तिहार
प्यारे मजमून
धोखे से भरे।

अनजाने में
सामने आ जाये तो
दिल में भरे।

कामयाबी के
ढेर सारे सपने
सोने से भरे।

झूठे हों तो भी
देखने की कीमत
दर्शक भरे।

तस्वीर में
चमकते चेहरे
रंग से भरे।

अलसुबह
देख वह चेहरे
आईना डरे।

मेला या खेल
नट और खिलाड़ी
पैसे से भरे।

पैसे के लिये
इश्तिहारी खेल
सच से परे।

खामोश देखो
जब सिक्के न हों
जेब में भरे।

इश्तिहार
पढ़कर करना
याद से परे।

……………………..

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जिंदगी में ‘शार्टकट’ रास्ता मत ढूंढो यार-vyangya kavita


जीवन में कामयाबी के लिये
शार्टकट(छौटा रास्ता) के लिये
मत भटको यार
भीड़ बहुत है सब जगह
पता नहीं किस रास्ते
फंस जाये अपनी कार
तब सोचते हैं लंबे रास्ते
ही चले होते तो हो जाते पार
…………………………
धरती की उम्र से भी छोटी होती हमारी
फिर भी लंबी नजर आती है
जिंदगी में कामयाबी के लिये
छोटा रास्ता ढूंढते हुए
निकल जाती है उमर
पर जिंदगी की गाड़ी वहीं अटकी
नजर आती है
…………………..
जिंदगी मे दौलत और शौहरत
पाने के वास्ते
ढूंढते रहे वह छोटे रास्ते
खड़े रहे वहीं का वहीं
नाकाम इंसान की सनद
बढ़ती रही उनके नाम की तरफ
आहिस्ते-आहिस्ते

………………….

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कबीर के दोहे-दैहिक शिक्षा देने वाले शिक्षक अध्यात्मिक गुरू नहीं कहे जा सकते


पंख होत परबस पयों, सूआ के बुधि नांहि।
अंकिल बिहूना आदमी, यौ बंधा जग मांहि।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं बुद्धिमान पक्षी जिस तरह पंख होते हुए भी पिंजरे में फंस जाता है वैसे ही मनुष्य भी मोह माया के चक्क्र में फंसा रहता है जबकि उसकी बुद्धि में यह बात विद्यमान होती है कि यह सब मिथ्या है।

शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो गुरु जीवन रहस्यों का शब्द ज्ञान दे वही गुरु है। जो गुरु केवल भौतिक शिक्षा देता है उसे गुरु नहीं माना जा सकता। गुरु तो उसे ही कहा जा सकता है जो भगवान की भक्ति करने का तरीका बताता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान शिक्षा पद्धति में विद्यालयों और महाविद्यालयों में अनेक शिक्षक छात्रों को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार पाठ्यक्रमों का अध्ययन कराते हैं पर उनको गुरु की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वर्तमान शिक्षा के समस्त पाठयक्रम केवल छात्र को नौकरी या व्यवसाय से संबंधित प्रदान करने के लिये जिससे कि वह अपनी देह का भरण भोषण कर सके। अक्सर देखा जाता है कि उनकी तुलना कुछ विद्वान लोग प्राचीन गुरुओं से करने लगते हैं। यह गलत है क्योंकि भौतिक शिक्षा का मनुष्य के अध्यात्मिक ज्ञान से कोई संबंध नहीं होता।
उसी तरह देखा गया गया है कि अनेक शिक्षक योगासन, व्यायाम तथा देह को स्वस्थ रखने वाले उपाय सिखाते हैं परंतु उनको भी गुरुओं की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। हां, ध्यान और भक्ति के साथ इस जीवन के रहस्यों का ज्ञान देने वाले ही लोग गुरु कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि जिनसे अध्यात्मिक ज्ञान मिलता है उनको ही गुरु कहा जा सकता है। वैसे आजकल तत्वज्ञान का रटा लगाकर प्रवचन करने वाले भी गुरु बन जाते हैं पर उनको व्यापारिक गुरु ही कहा जाना चाहिये। सच्चा गुंरु वह है जो निष्काम और निष्प्रयोजन भाव से अपने शिष्य को अध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करता है।
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इन्टरनेट पर यौन साहित्य पढने की इच्छा-आलेख


‘आपके लिखने की शैली दीपक भारतदीप से एकदम मिलती जुलती है’-हिंदी के ब्लाग एक ही जगह दिखाने वाले वेबसाईट संचालक ने यह बात मुझे तब लिखी जब मैंने अपने छद्म नाम के दूसरे ब्लाग को अपने यहां दिखाने का आग्रह किया। इस बात ने मुझे स्तब्ध कर दिया। इसका सीधा आशय यह था कि मेरे लिये यहां छद्म नाम से लिखने का अवसर नहीं था। दूसरा यह कि उस समय तक मैं इतना लिख चुका था कि अधिकतर ब्लाग लेखक मेरी शैली से अवगत हो चुके थे। छद्म नाम के उस ब्लाग पर मैंने महीनों से नहीं लिखा पर ब्लाग स्पाट पर वह मेरा सबसे हिट ब्लाग है। सुबह योगसाधना से पहले कभी कभी ख्याल आता है तो मैं अपने ब्लाग के व्यूज को देखता हूं। रात 10 बजे से 6 बजे के बीच उन्हीं दो ब्लाग पर ही पाठक आने के संकेत होते हैं बाकी पर शून्य टंगा होता है। अपने लिखने पर मैं कभी आत्ममुग्ध नहीं होता पर इतना अनुभव जरूर हो गया है कि कुछ लोग ऐसे हैं जो मुझे पढ़ने से चूक नहीं सकते। यही कारण है कि छद्म ब्लाग पर लिखना करीब करीब छोड़ दिया क्योंकि वहां मेरे परिचय का प्रतिबिंब मुझे नहीं दिखाई देता-आर्थिक लाभ तो खैर होना संभव ही नहीं है।

मुझे याद है कि मैंने यह ब्लाग केवल बेकार के विषयों पर लिखने के लिये बनाया था। इस ब्लाग पर पहली रचना के साथ ही यह टिप्पणी मिली थी कि ‘हम तो इसे ऐसा वैसा ब्लाग समझ रहे थे पर आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं।’
उस समय इस टिप्पणी पर लिखी बात मेरे समझ में नहीं आयी पर धीरे धीरे यह पता लग गया कि ब्लाग नाम लोकप्रियता के शिखर से जुड़ा था।
उस दिन अखबार में पढ़ा हिंदी भाषी क्षेत्रों मेें 4.2 करोड़ इंटरनेट कनेक्शन हैं। इस लिहाज से हिंदी में सात्विक विषयों के ब्लाग पढ़ने की संख्या बहुत कम है। ऐसा नहीं है कि हिंदी के ब्लाग लोग पढ़ नहीं रहे पर उनको तलाश रहती है ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने की। जिन छद्म ब्लाग की बात मैंने की उन पर ऐसा वैसा कुछ नहीं है पर वह उनके नाम में से तो यही संकेत मिलता है। यही कारण है कि लोग उसे खोलकर देखते हैं। मैंने उन ब्लाग पर अपने सामान्य ब्लाग के लिंक लगा दिये हैं पर लोग उनके विषयों में दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि वहां से पाठक दूसरे विषयों की तरफ जाते ही नहीं जबकि दूसरे सामान्य ब्लाग पर इधर से उधर पाठकों का आना जाना दिखता है। मैंने उन दोनों ब्लाग से तौबा कर ली क्योंकि उन पर लिखना बेकार की मेहनत थी। न नाम मिलना न नामा।
वर्डप्रेस पर भी दो ब्लाग है जिन पर मैंने अपने नाम के साथ मस्तराम शब्द जोड़ दिया। तब दोनों ब्लाग अच्छे खासे पाठक जुटाने लगे। तब एक से हटा लिया और उस पर पाठक संख्या कम हो गयी पर दूसरे पर बना रहा। वह ब्लाग भी प्रतिदिन अच्छे खासे पाठक जुटा लेता है। तब यह देखकर आश्चर्य होता है कि लोग ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने को बहुत उत्सुक हैं और उनकी दिलचस्पी सामान्य विषयों में अधिक नहीं हैं। अभी हाल ही में एक सर्वे में यह बात कही गयी है कि इंटरनेट पर यौन संबंधी साहित्य पढ़ना अधिक घातक होता है बनिस्बत सामान्य स्थिति में। एक तो यौन संबंधी साहित्य वैसे ही दिमागी तौर पर तनाव पैदा करता है उस पर कंप्यूटर पर पढ़ना तो बहुत तकलीफदेह होता है। इस संबंध में हानियों के बारे में खूब लिखा गया था और उनसे असहमत होना कठिन था।
उन ब्लाग की पाठक संख्या अन्य ब्लाग की संख्या को चिढ़ाती है और अपने ब्लाग होने के बावजूद मुझे उन ब्लाग से बेहद चिढ़ है। वह मुझे बताते हैं कि मेरे अन्य विषयों की तुलना में तो यौन संबंधी विषय ही बेहद लोकप्रिय है। सच बात तो यह है कि पहले जानता ही नहीं था कि मस्तराम नाम से कोई ऐसा वैसा साहित्य लिखा जाता है। मेरी नानी मुझे मस्तराम कहती थी इसलिये ही अपने नाम के साथ मस्तराम जोड़ दिया। इतना ही नहीं अपने एक दो सामान्य ब्लाग पर पाठ लिखने के एक दिन बाद-ताकि विभिन्न फोरमों पर तत्काल लोग न देख पायें’-मस्तराम शब्द जोड़कर दस दिन तक फिर कुछ नहीं लिखा तो पता लगा कि उस पर भी पाठक आ रहे हैं। तब बरबस हंसी आ जाती है। अनेक मिलने वाले ऐसी वैसी वेबसाईटों के बारे में पूछते हैंं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों के इंटरनेट कनेक्शन लेने वाले शायद इस उद्देश्य से लेते हैं कि ‘ऐसा वैसा’ पढ़े और देख सकें।

उस दिन एक जगह अपने कागज की फोटो स्टेट कराने गया। वह दुकानदार साइबर कैफे भी चलाता है। उस दिन वह अपने बिल्कुल अंदर के कमरे में था तो मैं इंटरनेट के केबिनों के बीच से होता हुआ वहां तक गया। धीरे धीरे चलते हुए मैं काचों से केबिन में झांकता गया। आठ केबिन में छह को देख पाया और उनमें तीन पर मैंने लोगों को ‘ऐसे वैसे‘ ही दृश्य देखते पाया और बाकी क्या पढ़ रहे थे यह जानने का अवसर मेरे पास नहीं था।

सामान्य रूप से भी यौन संबंधी मनोरंजन साहित्य और सीडी कैसिट उपलब्ध हैं पर इंटरनेट भी एक फैशन हो गया है सो लोग सक्रिय हैं पर उनकी मानसिकता में भी एसा वैसा ही देखने और पढ़ने की इच्छा है। यह कोई शिकायत नहीं है क्योंकि लोगों की ‘यौन संबंधी मनोरंजन साहित्य’ पढ़ने की इच्छा बरसों पुरानी है पर सात्विक साहित्य पढ़ने वालों की भी कोई कमी नहीं है-यह अलग बात है कि वह अभी समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों को ही देखने में सक्रिय हैं और इंटरनेट पर देखने और पढ़ने की उनमें इच्छा अभी बलवती नहीं हो रही है। जिनमें ऐसा वैसा पढ़ने की इच्छा होती है उनके लिये इंटरनेट खोलने की तकलीफ कुछ भी नहीं है पर सात्विक पढ़ने वालों के लिये अभी भी बड़ी है। कहते हैं कि व्यसन और बुरी आदतें आदमी का आक्रामक बना देती हैं पर सात्विक भाव में तो सहजता बनी रहती है।
ऐसा नहीं है कि सामान्य ब्लाग@पत्रिकाओं पर पाठक कोई कम हैं पर उनमें बढ़ोतरी अब नहीं हो रही है। ब्लागस्पाट के ब्लाग तो वैसे ही अधिक पाठक नहीं जुटाते पर वर्डप्रेस के ब्लाग पर नियमित रूप से उनकी संख्या ठीकठाक रहती है। सामान्य विषयों में भी अध्यात्म विषयों के साथ हास्यकवितायें, व्यंग्य और चिंतन के पाठकों की संख्या अच्छी खासी है-कुछ पाठ तो दो वर्ष बाद भी अपने लिये पाठक जुटा रहे हैं। यह कहना भी कठिन है कि ऐसा वैसा पढ़ने वालों की संख्या अधिक है या सात्विक विषय पढ़ने वालों की। इतना जरूर है कि ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने पर जो हानियां होती हैं उनके बारे में पढ़कर उन लोगों के प्रति सहानुभूति जाग उठी जो उसमें दिलचस्पी लेते हैं।
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जिंदा रहे पब हो या मधुशाला-व्यंग्य कविता


शराब की बूंदों में जो संस्कृति ढह जाती है
ढह जाने दो, वह भला किसके काम जाती हैे
ऐसी आस्था
जो शराब की बोतल की तरह टूट जाती है
उसके क्या सहानुभूति जतायें
लोहे की बजाय कांच से रूप पाती है
…………………………..
नशा कोई और करे
झगड़ा कोई और
क्यों कर रहा है पूरा जमाना उस पर गौर
संस्कृति के झंडे तले शराब का विज्ञापन
अधिकारों के नाम पर
नशे के लिये सौंप रहे ज्ञापन
जिंदा रहे पब और मधुशाला
इस मंदी के संक्रमण काल में
मुफ्त के विज्ञापन का चल रहा है
शायद यह एक दौर

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‘भ्रष्टाचार’ किसी कहानी का मुख्य विषय क्यों नहीं होता -आलेख


स्वतंत्रता के बाद देश का बौद्धिक वर्ग दो भागों में बंट गया हैं। एक तो वह जो प्रगतिशील है दूसरा वह जो नहीं प्रगतिशील नहीं है। कुछ लोग सांस्कृतिक और धर्मवादियों को भी गैर प्रगतिशील कहते हैं। दोनों प्रकार के लेखक और बुद्धिजीवी आपस में अनेक विषयों पर वाद विवाद करते हैं और देश की हर समस्या पर उनका नजरिया अपनी विचारधारा के अनुसार तय होता है। देश में बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकटों पर पर ढेर सारी कहानियां लिखी जाती हैं पर उनके पैदा करने वाले कारणों पर कोई नहीं लिखता। अर्थशास्त्र के अंतर्गत भारत की मुख्य समस्याओं में ‘धन का असमान वितरण’ और कुप्रबंध भी पढ़ाया जाता है। बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकट कोई समस्या नहीं बल्कि इन दोनों समस्याओं से उपजी बिमारियां हैं। जिसे हम भ्रष्टाचार कहते हैं वह कुप्रबंध का ही पर्यायवाची शब्द है। मगर भ्रष्टाचार पर समाचार होते हैं उन पर कोई कहानी लिखी नहीं जाती। भ्रष्टाचारी को नाटकों और पर्दे पर दिखाया जाता है पर सतही तौर पर।

अनेक बार व्यक्तियों के आचरण और कृतित्व पर दोनों प्रकार के बुद्धिजीवी आपस में बहस करते है। अपनी विचारधाराओं के अनुसार वह समय समय गरीबों और निराश्रितों के मसीहाओं को निर्माण करते हैं। एक मसीहा का निर्माण करता है दूसरा उसके दोष गिनाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सतही बहसें होती हैं पर देश की समस्याओं के मूल में कोई झांककर नहीं देखता। फिल्म,पत्रकारिता,नाटक और समाजसेवा में सक्र्रिय बुद्धिजीवियों तंग दायरों में लिखने और बोलने के आदी हो चुके हैं। लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिसमें स्वयं की चिंतन क्षमता तो किसी मेें विकसित हो ही नहीं सकती और उसमें शिक्षित बुद्धिजीवी अपने कल्पित मसीहाओं की राह पर चलते हुए नारे लगाते और ‘वाद’गढ़ते जाते हैं।

साहित्य,नाटक और फिल्मों की पटकथाओं में भुखमरी और बेरोजगारी का चित्रण कर अनेक लोग सम्मानित हो चुके हैं। विदेशों में भी कई लोग पुरस्कार और सम्मान पाया है। भुखमरी, बेरोजगारी,और गरीबी के विरुद्ध एक अघोषित आंदोलन प्रचार माध्यमों में चलता तो दिखता है पर देश के भ्रष्टाचार पर कहीं कोई सामूहिक प्रहार होता हो यह नजर नहंी आता। आखिर इसका कारण क्या है? किसी कहानी का मुख्य पात्र भ्रष्टाचारी क्यों नहीं हेाता? क्या इसलिये कि लोगों की उससे सहानुभूति नहीं मिलती? भूखे,गरीब और बेरोजगार से नायक बन जाने की कथा लोगों को बहुत अच्छी लगती है मगर सब कुछ होते हुए भी लालच लोभ के कारण अतिरिक्त आय की चाहत में आदमी किस तरह भ्रष्ट हो जाता है इस पर लिखी गयी कहानी या फिल्म से शायद ही कोई प्रभावित हो।
भ्रष्टाचार या कुप्रबंध इस देश को खोखला किये दे रहा है। इस बारे में ढेर सारे समाचार आते हैं पर कोई पात्र इस पर नहीं गढ़ा गया जो प्रसिद्ध हो सके। भ्रष्टाचार पर साहित्य,नाटक या फिल्म में कहानी लिखने का अर्थ है कि थोड़ा अधिक गंभीरता से सोचना और लोग इससे बचना चाहते हैं। सुखांत कहानियों के आदी हो चुके लेखक डरते हैं कोई ऐसी दुखांत कहानी लिखने से जिसमें कोई आदमी सच्चाई से भ्रष्टाचार की तरफ जाता है। फिर भ्रष्टाचार पर कहानियां लिखते हुए कुछ ऐसी सच्चाईयां भी लिखनी पड़ेंगी जिससे उनकी विचारधारा आहत होगी। अभी कुछ दिन पहले एक समाचार में मुंबई की एक ऐसी औरत का जिक्र आया था जो अपने पति को भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित करती थी। जब भ्र्रष्टाचार पर लिखेंगे तो ऐसी कई कहानियां आयेंगी जिससे महिलाओं के खल पात्रों का सृजन भी करना पड़ेगा। दोनों विचारधाराओं के लेखक तो महिलाओं के कल्याण का नारा लगाते हैं फिर भला वह ऐसी किसी महिला पात्र पर कहानी कहां से लिखेंगे जो अपने पति को भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित करती हो।
फिल्म बनाने वाले भी भला ऐसी कहानियां क्यों विदेश में दिखायेंगे जिसमें देश की बदनामी होती हो। सच है गरीब,भुखमरी और गरीबी दिखाकर तो कर्ज और सम्मान दोनों ही मिल जाते हैं और भ्रष्टाचार को केंदीय पात्र बनाया तो भला कौन सम्मान देगा।
देश में विचारधाराओं के प्रवर्तकों ने समाज को टुकड़ों में बांटकर देखने का जो क्रम चलाया है वह अभी भी जारी है। देश की अनेक व्यवस्थायें पश्चिम के विचारों पर आधारित हैं और अंग्रेज लेखक जार्ज बर्नाड शा ने कहा था कि ‘दो नंबर का काम किये बिना कोई अमीर नहीं बन सकता।’ ऐसे में अनेक लेखक एक नंबर से लोगों के अमीर होने की कहानियां बनाते हैं और वह सफल हो जाते हैं तब उनके साहित्य की सच्चाई पर प्रश्न तो उठते ही हैं और यह भी लगता है कि लोगा ख्वाबों में जी रहे। अपने आसपास के कटु सत्यों को वह उस समय भुला देते हैं जब वह कहानियां पढ़ते और फिल्म देखते हैं। भ्रष्टाचार कोई सरकारी नहीं बल्कि गैरसरकारी क्षेत्र में भी कम नहीं है-हाल ही में एक कंपनी द्वारा किये घोटाले से यह जाहिर भी हो गया है।

आखिर आदमी क्या स्वेच्छा से ही भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित होता है? सब जानते हैं कि इसके लिये कई कारण हैं। घर में पैसा आ जाये तो कोई नहीं पूछता कि कहां से आया? घर के मुखिया पर हमेशा दबाव डाला जाता है कि वह कहीं से पैसा लाये? ऐसे में सरकारी हो या गैरसरकारी क्षेत्र लोगों के मन में हमेशा अपनी तय आय से अधिक पैसे का लोभ बना रहता है और जहां उसे अवसर मिला वह अपना हाथ बढ़ा देता है। अगर वह कोई चोरी किया गया धन भी घर लाये तो शायद ही कोई सदस्य उसे उसके लिये उलाहना दे। शादी विवाहों के अवसर पर अनेक लोग जिस तरह खर्चा करते हैं उसे देखा जाये तो पता लग जाता है कि किस तरह उनके पास अनाप शनाप पैसा है।
कहने का तात्पर्य है कि हर आदमी पर धनार्जन करने का दबाव है और वह उसे गलत मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है। जैसे जैसे निजी क्षेत्र का विस्तार हो रहा है उसमें भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। नकली दूध और घी बनाना भला क्या भ्रष्टाचार नहीं है। अनेक प्रकार का मिलावटी और नकली सामान बाजार में बिकता है और वह भी सामाजिक भ्रष्टाचार का ही एक हिस्सा है। ऐसे में भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर उस पर कितना लिखा जाता है यह भी देखने की बात है? यह देखकर निराशा होती है कि विचारधाराओं के प्रवर्तकों ने ऐसा कोई मत नहीं बनाया जिसमें भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर लिखा जाये और यही कारण है कि समाज में उसके विरुद्ध कोई वातावरण नहीं बन पाया। इन विचाराधाराओं और समूहों से अलग होकर लिखने वालों का अस्तित्व कोई विस्तार रूप नहीं लेता इसलिये उनके लिखे का प्रभाव भी अधिक नहीं होता। यही कारण है कि भ्रष्टाचार अमरत्व प्राप्त करता दिख रहा है और उससे होने वाली बीमारियों गरीबी,बेरोजगारी और भुखमरी पर कहानियां भी लोकप्रिय हो रही हैं। शेष फिर कभी
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वफ़ा के भी होते हैं रस और रंग अलग अलग-व्यंग्य कविता


ऊंचे सिंहासन पर
बैठे इतना न इतराओ
अपने पास लगी भीड़ को
अपना भक्त न बताओ
जब गिरोगे वहाँ से
सब पास खड़े लोग, दूर हो जायेंगे
यह पूज रहे हैं उस सिंहासन को
जिस पर तुम बैठे हो
दिखा रहे हैं जैसे तुम ही भगवान् हो
पर तुम्हारे बाद भी दूसरे लोग
इस आसन पर बैठने आयेंगे
यही भक्त
तुम्हारा नाम भूलकर
उनको पूजने लग जायेंगे
लोग खेलते हैं अपनी भावनाओं से
तुम मत बहलना
खेलती हैं माया
लोग ख़ुद खेलने का वहम पाल लेते हैं
दिखावे के रिश्ते में वफ़ा का रस भर देते हैं
जुबान पर कुछ और है और दिल में कुछ और
इस जहाँ में झूठ ही बनता है सिरमौर
जिन्दगी का सत्य समझ जाओ
————————————–
अपनी जेब में पैसा हो तो
अनजान भी जोड़ने लग जाते हैं रिश्ते
अगर नहीं हो अपने पास कौडी
तो करीब के भी लोग भूल जाते हैं
वफ़ा बिकती है बाज़ार में
सस्ती या महंगी हो
उसके रस और रंग भी अलग अलग दिखते

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‘एक स्कूटर ब्लागर के ऊपर’-हास्य व्यंग्य


ब्लागर सड़क पर अपने स्कूटर से जा रहा था। सड़क ऊबड़ खाबड़ थी और ब्लागर और स्कूटर दोनों ही हांफते हुए बढ़ रहे थे कि अचानक एक गड्ढा आया और स्कूटर ने झटका खाया और अब वह आधा जमीन पर आधा अपने सवार ब्लागर के ऊपर था।

वह सड़क मुख्य सड़क से दूर थी इसलिये वहां अधिक भीड़ भाड़ नहीं थी। जमीन पर गिरे ब्लागर ने अपने ऊपर से स्कूटर उठाने का प्रयास करने से पहले अपने अंगों का अध्ययन किया तो पाया कि कहीं कोई चोट नहीं थी। अब वह जल्दी जल्दी अपने ऊपर से स्कूटर उठाने का प्रयास करने लगा कि कहीं कोई आदमी उसे गिरा हुआ देख न ले। अपने गिरने के दर्द से अधिक आदमी को इस बात की चिंता सताती है कि कोई उसे संकट में पड़ा देखकर हंसे नहीं।

ब्लागर ने अपने ऊपर से स्कूटर का कुछ भाग हटाया ही था कि उसके कानों में आवाज गूजी-‘क्या यहां रास्तें बैठकर स्कूटर पर कोई कविता या चिंतन लिख रहे हो?’
ब्लागर ने पलटकर देखा तो उसके होश हवास उड़ गये। एक तरह से उसके लिये यह दूसरी दुर्घटना थी। दूसरा ब्लागर खड़ा था। गिरे हुए पहले ब्लागर ने कहा-‘यार, यह गड्ढा सामने आ गया था तो मेरे स्कूटर का संतुलन बिगड़ गया।

दूसरे ब्लागर ने हाथ नचाते हुए कहा-‘स्कूटर का संतुलन बिगड़ा कि तुम्हारा? स्कूटर के पास दिमाग नहीं होता जो उसका संतुलन बिगड़े। तुम्हारे दिमाग का संतुलन बिगड़ा तो ही तुम यहां गिरे। अपना दोष स्कूटर पर मत डालो

पहले ब्लागर ने कहा-‘यार, तुम्हें शर्म नहीं आती। इस हालत में स्कूटर मेरे ऊपर से हटाने की बजाय अपनी कमेंट लगाये जा रहे हो।’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘वैसे तो मेरा काम कमेंट लगाना है तुम्हारे ऊपर से स्कूटर हटाने का नहीं। अब हटा ही देता हूं पर इस बारे में तुम अपने ब्लाग पर लिखना जरूर कि मैंने तुम्हारी मदद की! हां पर कमेंट का आग्रह नहीं करना।’
इस बात पर पहले ब्लागर को गुस्सा आ गया और उसने उसकी सहायता के बिना ही स्कूटर अपने ऊपर से हटा लिया और खड़ा हो गया और बोला-‘तुम्हें तो मजाक ही सूझता है।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘देखो मुझे कभी मजाक करना तो आता ही नहीं वरना मैं तुम्हारी तरह फूहड़ हास्य कवितायें लिखता। बहुत गंभीरता से कह रहा हूं कि तुम स्कूटर चलाना पहले सीख लो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘तुम मुझे स्कूटर सीखने के लिये कह रहे हो। दस वर्ष से यह स्कूटर चला रहा हूं। यह गड्ढा ऐसी जगह हो गया है कि इससे दूर निकलना कठिन था। इसलिये गिर गया, समझे।
दूसरा ब्लागर ने कहा-‘पर यह गड़ढा तो कई दिनों से है और तुम और हम कितनी बार यहां से निकल जाते हैं। वैसे तुम्हारा स्कूटर पुराना है इसलिये गिर गया उसे भी सड़क पर चलते हुए शर्म आती होगी। इतनी नयी और प्यारी गाडि़यां सड़क पर चलती हैं तो इस बूढ़े स्कूटर को शर्म आती ही होगी। कोई नया स्कूटर खरीद लो! क्यों पैसे की बचत कर अपने को कष्ट पहुंचा रहे हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘नया स्कूटर क्या गड्ढे में नहीं गिरेग?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘तो कोई कार खरीद लो। अरे ,भई अपने आपको दुर्घटना से बचाओ। कहीं अधिक चोट लग गयी तो परेशान हो जाओगे। अच्छा अब मैं चलता हूं। ध्यान से जाना आगे और भी गड्ढे हैं। अभी तो तुम्हारी किस्मत अच्छी थी जो मैं आ गया। और हां इस दुर्घटना पर अगर लिखो तो यह जरूर लिखना कि मैंने आकर तुम्हें बचाया।’
पहले ब्लागर ने गुस्से में पूछा-‘तुमने आकर मुझे बचाया। क्या बकवाद करते हो?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-’अगर मैं आकर तुम्हें गुस्सा नहीं दिलवाता तो शायद तुम पूरी ताकत से स्कूटर को नहीं हटा पाते।‘
दूसरा ब्लागर चला गया। पहले ब्लागर ने स्कूटर पर किक लगायी पर वह शुरू नहीं हुआ। तब वह उसे घसीटता हुआ मरम्मत की दुकान तक लाया। वहां उसका परिचित एक डाक्टर भी अपनी मोटर साइकिल की मरम्मत करवा रहा था। ब्लागर को देखते हुए बोला-‘क्या बात है? ऐसे स्कूटर खींचे चले आ रहे हो?’
ब्लागर ने कहा-‘खराब हो गया है।’
डाक्टर ने कहा-’स्कूटर पुराना हो गया। कोई नया खरीद लो।’
ब्लागर ने कहा-‘नया स्कूटर क्या खराब नहीं होगा? तुम्हारी यह दो साल पुरानी मोटर साइकिल भी तो आज खराब हुई। वैसे मैं इसे तुम्हें दूसरी या तीसरी बार बनवाते हुए देख रहा हूं।’
डाक्टर से बातचीत हो ही रही थी कि दूसरा ब्लागर किसी दूसरे के साथ उसके स्कूटर पर बैठ कर वहां से निकल रहा था। उसने जब पहले ब्लागर को वहां देखा तो उसने अपने साथी को वही रुकने के लिये कहा और उसे दूर खड़ाकर वहां आया जहां डाक्टर और पहला ब्लागर खड़े थे। डाक्टर भी उसे जानता था। उसने डाक्टर को देखकर कहा-’सर, आप अपनी गाड़ी बनवा रहे हैं उसमें समय लगेगा। यह मेरा मित्र है स्कूटर समेत एक गड्ढे में गिर गया था। यह घसीटता हुआ स्कूटर यहां तक लाया है। आप जरा इसके अंगों का निरीक्षण करें और देखें कि कहीं कोई गंभीर चोट तो नहीं आयी। यह सड़क पर गिरा हुआ था। स्कूटर इसके ऊपर था। मैंने उसे हटाया और फिर इसे उठाया। वहां से चला गया पर मेरा मन नहीं माना। अपने इस पड़ौसी से अनुरोध कर उसे स्कूटर पर ले आया कि देखूं कहीं कोई बड़ी अंदरूनी चोट तो नहीं है। आप थोड़ा इस दुकान के अंदर जाकर देख लेंे तो मुझे तसल्ली हो जाये।’
डाक्टर हंस पड़ा और बोला-‘तुम अपनी हरकत से बाज नहीं आओगे। यह तुम्हारा नहीं मेरा भी दोस्त है। यहां तुम इसका हालचाल पूछने नहीं आये बल्कि मुझे बताने आये हो कि यह कहीं गिर गये हो। अब तुम जाओ। तुम्हें अब इसकी दुर्घटना की बात हजम हो जायेगी। मुझे पता है कि तुम्हारा हाजमा बहुत खराब है जब तक कोई आंखों देखी घटना या दुर्घटना पांच दस लोग को बताते नहीं हो तब तक पेट में दर्द होता है।’

इतने में दूसरे ब्लागर का स्कूटर वाला साथी वहां आया और उससे बोला-‘भाई साहब, जल्दी चलो। बातें तो होती रहेंगी। मुझे अस्पताल अपनी मां के पास नाश्ता जल्दी लेकर पहुंचारा है। अगर मेरी मां को देखने चलना है तो जल्दी चलो। नहीं तो पीछे से आते रहना।’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘चलो चलते हैं।’फिर वह पहले ब्लागर को दूर लेजाकर बोला-‘डाक्टर साहब को दिखा देना कि कहीं अंदरूनी चोट तो नहीं है। हां, इस घटना पर रिपोर्ट जरूर लिखना ‘एक स्कूटर ब्लागर के ऊपर’।
वह चला गया तो ब्लागर अपने स्कूटर के पास लौटा तो डाक्टर ने उससे पूछा-‘यह तुम्हारा दोस्त कब से बन गया? मैं तो तुम्हें बचपन से जानता हूं इससे कैसे परिचय हुआ?’
ब्लागर ने कहा-‘बस ऐसे ही। मुझे भी याद नहीं कब इससे मुलाकात हुई। आप तो जानते हैं कि मैं एक लेखक हूं लोगों से मिलना होता है। सभी के साथ मिलने का सिलसिला चलता है। यह याद कहां रहता है कि किससे कब मुलाकात हुई?‘
डाक्टर ने कहां-‘ यह तुम्हें जाते जाते क्या कहा रहा था? एक स्कूटर! किसके ऊपर कह रहा था? यह मैं सुन नहीं पाया!’
इसी बीच में मैकनिक ने आकर डाक्टर से कहा-’लीजिये साहब, आपकी मोटर साइकिल बन गयी।’
पहले ब्लागर से विदा ले डाक्टर चला गया। दूसरे मैकनिक ने स्कूटर भी बना दिया था। पहले मैकनिक ने ब्लागर से पूछा‘-स्कूटर किसके ऊपर था? डाक्टर साहब क्या पूछ रहे थे? वह आपके दूसरे साथी क्या कह गये थे?’
ब्लागर आसमान में देखते धीरे धीरे बुदबुदाया-‘एक स्कूटर, ब्लागर के ऊपर!
मैकनिक ने कहा-‘यह ब्लागर कौन?’
पहले ब्लागर ने कहा-‘जो ब्लाग पर लिखता है?’
मैकनिक ने पूछा-‘यह ब्लाग क्या होता है?’
पहले ब्लागर ने कंधा उचकाते हुए कहा-‘मुझे नहीं मालुम?’
इधर दूसरा मैकनिक स्कूटर बनाकर पहले ब्लागर के पास लाया और पहले मैकनिक से बोला-‘तुम्हें नहीं मालुम ब्लाग क्या होता है? अरे, बड़े बड़े हीरो ब्लाग लिख रहे हैं। तू मुझसे कहता है न कि अखबार क्यों पढ़ता है? मैंने अखबार में पढ़ा है अरे, अखबार पढ़ने से नालेज मिलता है। देख तुझे और साहब दोनों का पता नहीं कि ब्लाग क्या होता है? वह जो डाक्टर साहब के पास जो दूसरे सज्जन आये थे और साहब की चैकिंग करने को कह रहे थे वह भी बहुत बड़े ब्लागर हैं। कितनी बार कहता हूं कि तुम भी अखबार पढ़ा करो।’

पहले ब्लागर ने मैकनिक को पैसे दिये और स्कूटर शुरू किया तो पहने मैकनिक ने पूछा-‘यह स्कूटर क्या उन सज्जन के ऊपर था।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘नहींं।
वह वहां से चला गया तो पहले मैकनिक ने दूसरे से पूछा-‘अगर यह दूसरे सज्जन ब्लागर थे और स्कूटर उनके ऊपर नहीं था तो फिर यह स्कूटर किसके ऊपर था? घसीटते हुए तो यह सज्जन ले लाये थे तो वह ब्लागर कौन था।’
दूसरे मैकनिक-‘इसका ब्लाग से क्या संबंध?’
दूसरे ने अपना सिर पकड़ लिया और कहा-‘चलो यार, अब अपना काम करें।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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ऐसा ज्ञान भी किस काम का-व्यंग्य कविता


पुराने बुद्धिजीवियों ने बना लिया
भाषा सम्मेलन को अखाड़ा
होना ही था कबाड़ा
एक ने कहा
‘पुराने विचारों को नये संदर्भ में
देख कर आग बढ़ते जायें
अपनी परंपराओं के सहारे ही
आधुनिक संसार में अपनी भूमिका बनाये’।

दूसरे ने कहा
‘भूल जाओ अपना पुराना ज्ञान
नये ख्याल से जुड़कर करो अभिमान
चलो पश्चिम की राह
भले ही सूरज वहां डूबता हो
पूर्व में हैं पौंगा पंथ
ऐसा ज्ञान भी किस काम का
जिसमें आदमी ऊबता हो
इसलिये हमने बनाये हैं नये देवता
जो गरीबों और कमजोरों के गुण गायें
नारे लगाते और वाद गाते
आप सभी नये भी उसी राह चले जायें।’

नये लोग हैरान और परेशान थे
तभी एक आया और पुराना बुद्धिजीवी
और बोला-
न इसकी सुनो
न उसकी बात गुनो
जहां मन हो वहीं चलते जाओ
नशे में न होश खोना
अपने लिये आगे संकट हो
कभी ऐसे बीज न बोना
आंखें रखना खुली
अपनी अक्ल से अपना बोझा ढोना
एक की राह पर चलकर
पौंगा पंथी बन जाओगे
दूसरे की राह चले
तो पढ़े लिखे गुलाम बनकर
विदेशी बोझा उठाओगे
आजादी से अपनी सांस लेना
कोई और बताये राह
इससे अच्छा है अपने विवेक से चुन लेना
देख कर भी सीखा जाता है बहुत कुछ
जरूरी नहीं है हर बात तुम्हें सिखायें।’

नये युवक खड़े सम्मेंलन के अखाड़े में
शब्दिक युद्ध देख रहे थे
तय नहीं कर पाये कि
‘कहा से चलें और कहां जायें
आखिरं एक सोकर उठे बुद्धिजीवी ने कहा
‘चलो अब सभी घर जायें
हम तो सोते रहे पूरे कार्यक्रम में
यहां क्या हुआ
कल अखबार मिले तो
इस अखाड़े की खबर पढ़ पायें।’

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ऊपरी आय से रिश्ता-हास्य व्यंग्य


संभावित दूल्हे के माता पिता के साथ लड़की के माता पिता वार्तालाप कर रहे थे। वहां मध्यस्थ भी मौजूद था और उसने लड़की के पिता से कहा
‘आपने घर और वर देख लिया। आपकी लड़की भी इनको पसंद है पर आज यह बताईये दहेज में कुल कितना देंगे?’
लड़की के पिता ने कहा-‘पांच लाख।’
मध्यस्थ ने लड़के के पिता की तरफ देखा। उसने ना में सिर हिलाया।
लड़की के पिता ने कहा-‘छह लाख।‘
लड़के पिता ने फिर ना में सिर हिलाया।
लड़की के पिता ने कहा-‘सात लाख’
वैसा ही जवाब आया। बात दस लाख तक पहुंच गयी पर मामला नहीं सुलझा। अचानक मध्यस्थ को कुछ सूझा उसने लड़की के पिता को बाहर बुलाया।
अकेले में उसने कहा-‘क्या बात है? आपने लड़के के पिता से अकेले में बात नहीं की थी। मैंने आपको बताया था कि नौ लाख तक मामला निपट जायेगा। एक लाख अलग से लड़के के पिता को देने की बात कहना।’
लड़की के पिता ने कहा-‘यह भला कोई बात हुई। लड़के के पिता से अलग क्या बात करना?’
मध्यस्थ ने कहा-‘आदत! लड़के के पिता ने कई जगह नौकरी की है। सभी जगह से उसे अपनी इसी आदत के कारण हटना पड़ा। अरे, वह किसी भी काम के अलग से पैसे लेने का आदी है। जहां उसका काम चुपचाप चलता है कुछ नहीं होता। जब कहीं पकड़ा जाता है तो निकाल दिया जाता है। उस्ताद आदमी है। एक जगह से छोड़ता है दूसरी जगह उससे भी बड़ी नौकरी पा जाता है।’

लड़की के बाप ने कहा-‘ठीक है। उसे बाहर बुला लो।’

मध्यस्थ ने उसे बाहर बुलाया और उससे कहा-‘आप चिंता क्यों करते हैं? आपको यह अलग से एक लाख दे देंगे और किसी को बतायेंगे भी नहीं।’

लड़के के पिता ने कहा-‘हां, यह बात हुई न! मैंने तो पहले ही नौ लाख की मांग की थी। अगर यह पहले से ही तय हो जाता तो फिर इनको एक लाख की चपत नहीं लगती!
लड़की के बाप ने आश्चर्य से पूछा-‘कैसे?’
लड़के के पिता ने कहा-‘अरे, भई आपने मेरी पत्नी के सामने दस लाख दहेज की बात कर ली तो वह कम पर थोड़े ही मानेगी। अगर आप पहले ही अलग से मामला तय कर लेते तो मैं नौ लाख पर अपनी मोहर लगा देता। मैंने आज तक अपने काम में कभी बेईमानी नहीं की। जिससे पैसा लिया है उसका काम किया है।’
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लड़का घोड़े से उतर नहीं रहा था। घोड़ी से उतरने के लिये उसे पंद्रह सौ रुपये देने की बत कही गयी। उसने ना कहा। उससे सोलह सौ रुपये फिर सत्रह सो रुपये। तीन हजार तक प्रस्ताव नहीं दिया गया पर बात नहीं बनी।

आखिर दूल्हे का दोस्त दुल्हन के पिता को अलग ले गया और बोला-‘आप भी कमाल करते हो। आपको मालुम नहीं कि लड़का ऊपरी कमाई का आदी है। आप जो घोड़ी से उतरने के पैसे देंगे वह तो अपनी मां को देगा। आप सौ पचास चाय पानी का पहले उसके जेब में डाल दीजिये। मैं उसको बता दूंगा तो वह उतर आयेगा।

दुल्हन के पिता ने पूछा-‘यह भी भला कोई बात हुई?’

दूल्हे के दोस्त ने कहा-‘आप भी कमाल करते हो। जब रिश्ता तय हो रहा था तो आपने पूछा था कि नहीं कि लड़के को उपरी कमाई है कि नहीं। कहीं हमारी लड़की की जिंदगी तन्ख्वाह में तो नहीं बंधी रह जायेगी।’

दुल्हन के पिता को बात समझ में आ गयी। उन्होंने सौ रुपये दूल्हे की जेब में डाल दिये और जब उसके दोस्त ने बताया तो वह नीचे उतर आया।
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संभावित दूल्हा दुल्हन के परिवार वालों के बीच मध्यस्थ की उपस्थिति में बातचीत चल रही थी। दूल्हे की मां ने बताया कि ‘लड़का एक कंपनी में बड़े पद पर है उसका वेतन तीस हजार रुपये मासिक है। आगे वेतन और बढ़ने की संभावना है।’
लड़की की मां ने कहा-‘तीस हजार से आजकल भला कहां परिवार चलता है? हमने अपनी लड़की को बहुत नाजों से पाला है। नहीं! हमें यह रिश्ता मंजूर नहीं है।’
लड़के के माता पिता का चेहरा फक हो गया। मध्यस्थ लड़के के माता पिता को बाहर ले गया और बोला-आपने अपने लड़के की पूरी तन्ख्वाह क्यों बतायी।’
लड़के के पिता ने कहा-‘ भई, पूरी तन्ख्वाह सही बतायी है। चाहें तो पता कर लें।
मध्यस्थ ने कहा-‘‘मेरा यह मतलब नहीं है। आपको कहना चाहिये कि पंद्रह हजार तनख्वाह है और बाकी पंद्रह हजार ऊपर से कमा लेता है।’

लड़के की मां कहा-‘पर हम तो सच बता रहे हैं। उसकी तन्ख्वाह तीस हजार ही है।’
मध्यस्थ ने कहा-‘आप समझी नहीं। ईमानदारी की तन्ख्वाह आदमी सोच समझकर कर धर चलाता है जबकि ऊपरी कमाई से दिल खोलकर खर्च करता है। आपने अपने लड़के की पूरी आय तन्ख्वाह के रूप में बतायी तो लड़की वाले सोच रहे हैं कि ऊपर की कमाई नहीं है तो हमारी लड़की को क्या ऐश करायेगा? केवन तन्ख्वाह वाला लड़का है तो वह सोच समझकर कंजूसी से खर्चा करेगा न!’

लड़के के माता पिता अंदर आये। सोफे पर बैठते हुए लड़के की मां ने कहा-‘बहिन जी माफ करना। मैंने अपने लड़के की तन्ख्वाह अधिक बताई थी। दरअसल उसकी तन्ख्वाह तो प्रद्रह हजार है और बाकी पंद्रह हजार ऊपर से कमा लेता है। मैंने सोचा जब आप रिश्ता नहीं मान रहे तो सच बताती चलूं।’

लड़की की मां एकदम उठकर खड़ी हो गयी-‘नहीं बहिन जी! आप कैसी बात करती है? आपने ऊपरी कमाई की बात पहले बतायी होती तो भला हम कैसे इस रिश्ते के लिये मना कर देते? आप बैठिये यह रिश्ता हमें मंजूर है।’
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यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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रिश्ते हो जाते हैं बासी-हिन्दी शायरी


कभी कभी मन को घेर लेती है उदासी
दिन भर गुजरता है
जाने पहचाने लोगों के बीच
फ़िर भी अजनबीपन का अहसास साथ रहता है
जुबान से निकलते जो शब्द निकलते हैं
आदमी के दिल से उपजे नही लगते
उनका अंदाज़-ऐ-बयाँ साफ़ कहता है
सुबह जो बनते हैं रिश्ते
दोपहर तक हो जाते हैं बासी

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जहां ख्वाहिश है महल पाने की-हिंदी शायरी


चले थे हम अपने इस अनजान पथ पर
न मंजिल का पता था
न मकसद का
लोगों ने किये कई सवाल
जिनका जवाब नहीं था
क्योंकि जहां जिंदगी चलती है
दौलत कमाने के वास्ते
वहां बिकते है सभी रास्ते
जहां चाहता है इंसान शौहरत अपने लिये
वहां तैयार हो जाता है समझौतों के लिये
जहां ख्वाहिश है महल पाने की
वहां भला कौन करता है फिक्र करता जमाने की
जिसके दिल में ख्याल है
खुली आंखों से देखना जिंदगी को
वह जमाने से अलग हो जाते
चलते लगते हैं सबके साथ रास्ते पर
पर जमीन की हर चीज में अपन ख्याल नहीं लगाते
पत्थर और पैसों में जज्बात ढूंढने वाले
भला कब खुश रह पाते
हमने भी देख लिया
छूकर हर शय को
जिन पर मर मिटता है जमाना
कोशिश करता है हर चीज में खुद ही समाना
चमकती लगी हर शय
जिसमें दिल लगा लिया लोगों ने
हम दूर होकर चलते रहे अपने रास्ते पर
क्योंकि उनमें धड़कनों और जज्बातों का अहसास न था

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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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