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कुछ शोक कुछ विज्ञापन-हिंदी हास्य व्यंग्य


                     दो प्रचार प्रबंधक एक बार में सोमरस का उपभोग करने के लिये   गये। बैरा उनके कहे अनुसार सामान लाता और वह उसे उदरस्थ करने के बाद इशारा करके पास दोबारा बुलाते तब फिर आता। दोनों आपस में अपने व्यवसाय से संबंधित बातचीत करते रहे।  एक प्रचार प्रबंधक ने दूसरे से कहा‘-‘‘यार, मेरे चैनल का मालिक विज्ञापनों का भूखा है।  कहता है कि तुम समाचार अधिक चलाते हो विज्ञापन कम दिखाते हो।’’

दूसरा बोला-‘‘यार, मेरे चैनल पर तो समाचारों का सूखा है।  इतने विज्ञापन आते हैं कि समझ में नहीं आता कि समाचार चलायें कि नहीं। जिन मुद्दों पर पांच मिनट की बहस होती है  हम पच्चपन मिनट के विज्ञापन चलाते हैं।  हालांकि इस समय मुसीबत यह है कि हर रोज कोई मुद्दा मिलता नहीं है।’’

पहला बोला-‘‘अरे, इसकी चिंता क्यों करते हो? हम और तुम मिलकर कोई कार्यक्रम बनाते हैं। राई को पर्वत और रस्सी को सांप बना लेंगे। अरे दर्शक जायेगा कहां? मेरे चैनल  या तुम्हारे चैनल पर जाने अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है।

इतने में बैरा उनके आदेश के अनुसार सामान ले आया।  उसकी आंखों में आंसु थे। यह देखकर पहले प्रचार प्रबंधक ने उससे पूछा कि ‘‘क्या बात है? रो क्यों रहे हो? जल्दी बताओ कहीं हमारे लिये जोरदार खबर तो नहीं है जिससे हमारे विज्ञापन हिट हो जाये।’’

बैरा बोला-‘‘नहीं साहब, यह शोक वाली खबर है।  वह मर गयी।’’

दोनों प्रबंधक उछलकर खड़े हुए पहला बोला-‘‘अच्छा! यार तुम यह पैसा रख लो। सामान वापस ले जाओ। हम अपने काम पर जा रहे है। आज समाचार और बहसों के लिये ऐसी सामग्री मिल गयी जिसमे हमारे ढेर सारे विज्ञापन चल जायेंगे।’’

दूसरा बोला-‘‘यार, पर शोक और उसकी बहस में विज्ञापन! देखना लोग बुरा न मान जायें।’’

पहला बोला-‘‘नहीं यार, लोग आंसु बहायेंगे। विज्ञापन देखकर उनको राहत मिलेगी। हम फिर उनको रुलायेंगे। देखा नहीं उसके  बस से लेकर उसके अस्पताल रहने तक  हमने समाचार और बहस में कितने विज्ञापन चलाये।’’

दूसरा बोला-‘‘पहले यह तो इससे पूछो मरी कौन है?’’

पहले ने बैरे से पूछा-‘‘यह तो बताओ मरी कौन है?’’

बैरा रोता रहा पर कुछ बोला नहीं। दूसरे ने कहा-‘‘यार, यह तो मौन है।’’

पहला बोला-‘‘चलो यार, अपने विज्ञापन का काम देखो।  यह हमारा कौन है?’’

दोनों ही बाहर निकल पड़े। पहले ने एक विद्वान को मोबाइल से फोन किया और बोला-‘‘जनाब, आप जल्दी आईये।  अपने साथ अपनी मित्र मंडली भी लाना। सभी अच्छा बोलने वाले हों ताकि दर्शक अधिक से अधिक हमने चैनल पर बने रहें। हमारा विज्ञापन का समय निकल सके।’’

दूसरे ने भी मोबाईल निकाला और अपने सहायक से बोला-‘‘सुनो, जल्दी से विज्ञापन की तैयारी कर लो। एक खबर है जिस पर लंबी बहस हो सकती है। इसमें अपनी आय का लक्ष्य पूरा करने में मदद मिलेगी।’’

दोनों अपने लक्ष्यों की तरफ चल दिये। उन्होंने यह जानने का प्रयास भी नहीं किया कि ‘मरी कौन है’। इससे उनका मतलब भी नहीं था।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश 

poet and writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

गरीबी महफिल में खूब फबती-हिन्दी शायरी (garibi aur mahfil-hindi shayri)


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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वफा हम सभी से निभाते रहे

क्योंकि गद्दारी का नफा पता न था।

सोचते थे लोग तारीफ करेंगे हमारी

लिखेंगे अल्हड़ों में नाम, पता न था।

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राहगीरों को दी हमेशा सिर पर छांव

जब तक पेड़ उस सड़क पर खड़ा था।

लोहे के काफिलों के लिये कम पड़ा रास्ता

कट गया, अब पत्थर का होटल खड़ा था।

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जुल्म, भूख और बेरहमी कभी

इस जहां से खत्म नहीं हो सकती।

उनसे लड़ने के नारे सुनना अच्छा लगता है

गरीबी बुरी, पर महफिल में खूब फबती।

——–

हमारे शब्दों को उन्होंने अपना बनाया

बस, अपना नाम ही उनके साथ सजा लिया।

उनकी कलम में स्याही कम रही हमेशा

इसलिये उससे केवल दस्तखत का काम किया।

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यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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लोग अपने से बात करते हुए पाठ अंतर्जाल पर पढ़ना चाहते हैं-संपादकीय


आज यह ब्लाग/पत्रिका की पाठ पठन/पाठक संख्या एक लाख को पार कर गयी। इस ब्लाग/पत्रिका के साथ इसके लेखक संपादक के दिलचस्प संस्मरण जुड़े हुए हैं। यह ब्लाग जब बनाया तब लेखक का छठा ब्लाग था। उस समय दूसरे ब्लाग/पत्रिकाओं पर यूनिकोड में न रखकर सामान्य देव फोंट में रचनाएं लिख रहा था। वह किसी के समझ में नहीं आते थे। ब्लाग स्पाट के हिंदी ब्लाग से केवल शीर्षक ले रहा था। इससे हिन्दी ब्लाग लेखक उसे सर्च इंजिन में पकड़ रहे थे पर बाकी पाठ उनकी समझ में नहीं आ रहा था। यूनिकोड में रोमन लिपि में लिखना इस लेखक के लिये कठिन था। एक ब्लाग लेखिका ने पूछा कि ‘आप कौनसी भाषा में लिख रहे हैं, पढ़ने में नहीं आ रहा।’ उस समय इस ब्लाग पर छोटी क्षणिकायें रोमन लिपि से यूनिकोड में हिन्दी में लिखा इस पर प्रकाशित की गयीं। कुछ ही मिनटों में किसी अन्य ब्लाग लेखिका ने इस पर अपनी टिप्पणी भी रखी। इसके बावजूद यह लेखक रोमन लिपि में यूनिकोड हिंदी लिखने को तैयार नहीं था। बहरहाल लेखिका को इस ब्लाग का पता दिया गया और उसने बताया कि इसमें लिखा समझ में आ रहा है। उसके बाद वह लेखिका फिर नहीं दिखी पर लेखक ने तब यूनिकोड हिन्दी में लिखना प्रारंभ किया तब धीरे धीरे बड़े पाठ भी लिखे।

उसके बाद तो बहुत अनुभव हुए। यह ब्लाग प्रारंभ से ही पाठकों को प्रिय रहा है। यह ब्लाग तब भी अधिक पाठक जुटा रहा था जब इसे एक जगह हिन्दी के ब्लाग दिखाने वाले फोरमों का समर्थन नहीं मिलता था। आज भी यहां पाठक सर्वाधिक हैं और एक लाख की संख्या इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी अपनी गति से अंतर्जाल पर बढ़ रही है। मुख्य बात है विषय सामग्री की। इस ब्लाग पर अध्यात्मिक रचनाओं के साथ व्यंग, कहानी, कवितायें भी हैं। हास्य कवितायें अधिक लोकप्रिय हैं पर अध्यात्मिक रचनाओं की तुलना किसी भी अन्य विधा से नहीं की जा सकती। लोगों की अध्यात्मिक चिंतन की प्यास इतनी है कि उसकी भरपाई कोई एक लेखक नहीं कर सकता। इसके बाद आता है हास्य कविताओं का। यकीनन उनका भाव आदमी को हंसने को मजबूर करता है। हंसी से आदमी का खून बढ़ता है। दरअसल एक खास बात नज़र आती है वह यह कि यहां लोग समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा किताबों जैसी रचनाओं को अधिक पसंद नहीं करते। इसके अलावा क्रिकेट, फिल्म, राजनीति तथा साहित्य के विषय में परंपरागत विषय सामग्री, शैली तथा विधाओं से उन पर प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपने से बात करती हुऐ पाठ पढ़ना चाहते हैं। अंतर्जाल पर लिखने वालों को यह बात ध्यान रखना चाहिये कि उनको अपनी रचना प्रक्रिया की नयी शैली और विधायें ढूंढनी होंगी। अगर लोगों को राजनीति, क्रिकेट, फिल्म, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर परंपरागत ढंग से पढ़ना हो तो उनके लिये अखबार क्या कम है? अखबारों जैसा ही यहां लिखने पर उनकी रुचि कम हो जाती है। हां, यह जरूर है कि अखबार फिर यहां से सामग्री उठाकर छाप देते हैं। कहीं नाम आता है कहीं नहीं। इस लेखक के गांधीजी तथा ओबामा पर लिखे गये दो पाठों का जिस तरह उपयेाग एक समाचार पत्र के स्तंभकार ने किया वह अप्रसन्न करने वाला था। एक बात तय रही कि उस स्तंभकार के पास अपना चिंतन कतई नहीं था। उसने इस लेखक के तीन पाठों से अनेक पैरा लेकर छाप दिये। नाम से परहेज! उससे यह लिखते हुए शर्म आ रही थी कि ‘अमुक ब्लाग लेखक ने यह लिखा है’। सच तो यह है कि इस लेखक ने अनेक समसामयिक घटनाओं पर चिंतन और आलेख लिखे पर उनमें किसी का नाम नहीं दिया। उनको संदर्भ रहित लिखा गया इसलिये कोई समाचार पत्र उनका उपयोग नहीं कर सकता क्योंकि समसामयिक विषयों पर हमारे प्रचार माध्यमों को अपने तयशुदा नायक और खलनायकों पर लिखी सामग्री चाहिये। इसके विपरीत यह लेखक मानता है कि प्रकृत्तियां वही रहती हैं जबकि घटना के नायक और खलनायक बदल जाते हैं। फिर समसामयिक मुद्दों पर क्या लिखना? बीस साल तक उनको बने रहना है इसलिये ऐसे लिखो कि बीस साल बाद भी ताजा लगें-ऐसे में किसी का नाम देकर उसे बदनाम या प्रसिद्ध करने
से अच्छा है कि अपना नाम ही करते रहो।
मुख्य बात यह है कि लोग अपने से बात करते हुऐ पाठ चाहते हैं। उनको फिल्म, राजनीति, क्रिकेट तथा अन्य चमकदार क्षेत्रों के प्रचार माध्यमों द्वारा निर्धारित पात्रों पर लिख कर अंतर्जाल पर प्रभावित नहीं किया जा सकता। अपनी रचनाओं की भाव भंगिमा ऐसी रखना चाहिये जैसी कि वह पाठक से बात कर रही हों। यह जरूरी नहीं है कि पाठक टिप्पणी रखे और रखे तो लेखक उसका उत्तर दे। पाठक को लगना चाहिये कि जैसे कि वह अपने मन बात उस पाठ में पढ़ रहा है या वह पाठ पढ़े तो वह उसके मन में चला जाये। अगर वह परंपरागत लेखन का पाठक होता तो फिर इस अंतर्जाल पर आता ही क्यों? अपने मन की बात ऐसे रखना अच्छा है जैसे कि सभी को वह अपनी लगे।
इस अवसर पर बस इतना ही। हां, जिन पाठकों को इस लेखक के समस्त ब्लाग/पत्रिकाओं का संकलन देखना हो वह हिन्द केसरी पत्रिका को अपने यहां सुरक्षित कर लें। इस पत्रिका के पाठकों के लिये अब इस पर यह प्रयास भी किया जायेगा कि ऐसे पाठ लिखे जायें जो उनसे बात करते हुए लगें।

लेखक संपादक दीपक भारतदीप,ग्वालियर 

सहानुभूति का व्यापार -हिंदी आलेख


पश्चिम जगत में उसे एक पॉप गायक कलाकार के रूप में प्रसिद्ध हासिल थी। उसकी धुन और नृत्य पर लोग नाचते थे। उसके चाहने वाले भारत में भी थे पर इतने नहीं जितना कि प्रचार किया जाता रहा है। वह अंग्रेजी में गाता था जो कि यहां केवल दो प्रतिशत लोग जानते हैं-इसमें भी कितने लोग समझते हैं यह अलग बात है।
उसकी मौत पर भारतीय प्रचार माध्यम शोकाकुल हैं। हैरानी होती है यह देखकर कि मौत पर संवेदनायें प्रकट करना भी अब व्यवसाय हो गया है-पहले तो दिखावा भर था। जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि देह का विनाश होता है पर आत्मा अमर है-यही आत्मा हम हैं। अतः जन्म पर प्रसन्नता और मरण पर शोक अज्ञानता का परिचायक है।
वह एक गायक कलाकार था और पश्चिम में उसने मनोरंजन के अलावा कोई अन्य कार्य नहीं किया। उसने पैसे कमाये और जीवन को भरपूर ढंग से जिया। भौतिक जीवन की जो सर्वोच्च सीमा होती है उसे उसने छू लिया। एक आम काले परिवार मे जन्मे उस कलाकार ने दौलत और शौहरत के उस शिखर पर जाकर झंडा फहराया जिसकी कल्पना कर लाखों युवक अपना जीवन बरबाद कर देते हैं। पश्चिम के व्यवसायिक प्रचार माध्यमों द्वारा व्यवसायिक संवेदनायें देना कोई बड़ी बात नहीं है पर भारत में एक तरह से पाठकों और दर्शकों के साथ जोर जबरदस्ती लगती है।
आज एक वाचनलय में अखबार पढ़ते हुए एक आदमी ने अखबार दिखाते हुए पूछा-‘यह कौन था।’
हमने कहा-‘गायक कलाकार था।’
उसने पूछा-‘भारत का था।’
हमने कहा-‘नहीं।’
उसने कहा-‘फिर यहां पर इतनी तवज्जो क्यों दे रहे हैं? क्या कोई दूसरी खबर नहीं है।’
हमने कहा-पता नहीं।
उसने कहा-‘टीवी पर भी यही आ रहा था। वह तो अंग्रेजी में गाता था। कितनों को समझ में आती है?’
उसके वार्तालाप से दूसरे लोग हमारी तरफ देखने लगे। हमने जगह बदल दी।
दरअसल अंग्रेजी आपके समझ में नहीं आये तो भी स्वीकार करने में कठिनाई होती है। हम तो शान से कहते हैं कि अंग्रेजी हमें नहीं आती इसलिये ही हिंदी ने हमारी खोपड़ी में पूरी जगह घेर ली है। कहना चाहिये कि अंग्रेजी को जगह बनाने का अवसर नहीं मिला इसलिये ही हिंदी ने यह सुअवसर प्राप्त किया। एक बार हमने प्रयास किया था कि अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करें-इसके लिये एक शिक्षक के यहां केवल अंग्रेजी पढ़ने भी जाते थे-पर हिंदी ने जगह देने से इंकार कर दिया।
एक बार वह गायक कलाकर भारत भी आया था। स्टेडियम पर भारी भीड़ थी। लोग उसे सुनने आये थे या देखने कहा नहीं जा सकता-संभव है वह एक दूसरे को दिखाने आये हों कि उनको अंग्रेजी के गानों से कितना रस मिलता है। अंग्र्रेज चले गये पर अंग्रेजी अब भी गुलामी करा रही है। हालत यह है कि हिंदी प्रचार माध्यमों, फिल्मों और अन्य स्त्रोंतो से धन कमाने वाले अपने को अंग्रेजी का ज्ञानी साबित करते हैं। कई तो ऐसे हैं जिन्हें हिंदी ही नहीं आती बल्कि चेहरा उनका और सुर किसी अन्य का होता है।
हिंदी और अंग्रेजी का समान ज्ञान रखने वाले एक मित्र से हमने पूछा था कि-‘तुम अंग्रेजी में पढ़ते के साथ ही कार्यक्रम भी देखते हो। क्या बता सकते हो कि अंग्रेजी वापरने वाले कितने लोग उसका सही उपयोग करते हैं।’
उसने कहा कि चूंकि भाव समझ में आता है इसलिये हम ध्यान नहीं देते पर अंग्रेजी के हिसाब से गलतियां ढूंढने बैठोगे तो अधिकतर लोग गलतियां करते हैं।
शायद भारतीय प्रचार माध्यम नहीं चाहते कि वह विश्व की मुख्य धारा से कट जायें इसलिये ही वह विदेशी सरोकारों की खबरें जबरन प्रस्तुत करते हैं जिनके प्रति उनके 98 प्रतिशत उपभोक्ता उदासीनता का भाव अपनाये रहते हैं।
हमें उस गायक कलाकर के गायन, सुर और संगीत की समझ में नहीं थी। हमारी क्या इस देश के वह लोग ही नहीं जानते जो उसके प्रशंसक होने का दावा करत हैं कि उसने गाया क्या था? बस वह गाता और यहां लोग लहराते। 110 करोड़ के इसे देश में ऐसे बहुत कम लोग होंगे जो उसके दो चार गीत याद रखते होंगे। हमारे देश के गायक कलाकारों-किशाोर कुमार, महेंद्र कपूर, मुकेश, मोहम्मद रफी और मन्ना डे- ने अपने सुर से अमरत्व प्राप्त कर लिया। उन्होंने देह त्यागी पर वह आज भी लोगों के हृदय में कानों के माध्यम से जिंदा हैं। उनके गाये अनेक गााने बरबस ही मूंह में आते हैं।
उस पश्चिमी गायक कलाकार का जीवन वृतांत हमें बहुत भाता है और सच बात तो यह है कि वह अपने आप में एक जीवंत फिल्म था। उसकी मृत्यु पर हमें भी अफसोस है पर उसे व्यक्त करते हुए ऐसा लगता है जैसे कि ‘बेगानी मौत पर अब्दुल्ला गमगीन’। यह वाक्य हम वाचनालय में उस चर्चा करने के बाद उस आदमी से दूर जाते समय कहना चाहते थे पर वहां लोगों की नाराजगी देखकर खामोश रहे। किसी के साथ या हादसे होेने पर अफसोस होता है। ऐसे अवसर पर मृतक या पीड़ित के प्रतिकूल बात कहना हमारी संस्कृति के विरुद्ध है पर उनके और परिवार के साथ सहानुभूति या संवेदना जताने वालों की भाव भंगिमा और इरादे तो चर्चा का विषय बनते ही हैं। यही कारण है कि उस गायक कलाकार की मृत्यु से हमारे मन में कुछ देर अफसोस हुआ पर बाद में जिस तरह देश में उसकी प्रतिक्रिया इस तरह व्यक्त की गयी जैसे कि उसके साथ वाकई उनकी हमदर्दी है-इस दिखावे पर वाचनालय में उस आदमी से हुई बातचीत ने हमें अपने हिसाब से इसपर सोचने को मजबूर कर दिया।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

विदुर नीतिः गरीब हमेशा ही कमअक्ल नहीं होते


असंविभागो दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।
तादृंनारिधपो लोके वर्जनीवो नारधिपः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने व्यक्ति अपने आश्रितां में अपनी धन संपत्ति को ठीक से बंटवारा नहंी कर तो दुष्ट कृतघ्न और निर्लज्ज है उसे इस लोक में त्याग देना चाहिए।

न बुद्धिर्धनलाभाय न जाह्यमसद्धये।
लोकपर्यावृतांत प्राज्ञो जानाति नेतरः।।
हिंदी में भावार्थ-
धन केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है या मूर्खता के कारण आदमी दरिद्र रहता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस संसार के नियमों को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिन लोगों के पास धन नहीं है या अल्पमात्रा में है उन्हें धनवान लोग मूर्ख और अज्ञानी मानते हैं। अक्सर धनवाल लोग कहते हैं कि ‘अक्ल की कमी के कारण लोग गरीब होते हैं।’

उनका यह तर्क गलत और बेहूदा है। अगर ऐसा है तो अनेक धनवान गरीब क्यों हो जाते हैं? जिनके पास धन और संपत्ति विपुल मात्रा में वह अपने व्यवसाय में हानि उठाने या अपने बच्चों की गलत संगत के कारण उनके द्वारा किये जा रहे अपव्यय के से संकटग्रस्त हो जाने से निर्धनता को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके बारे में क्या यह कहना चाहिये कि ‘वह अक्ल के कारण ही अमीर हुए और अब उसके न रहने से गरीब हो गये।’ या ‘अब धन नहीं है तो उनके पास अक्ल भी नहीं होगी।’

कहने का तात्पर्य है कि यह धारणा भ्रांत है कि बुद्धि या अक्ल के कारण कोई अमीर या गरीब बनता है। संसार का अपना एक चक्र है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता पर माया तो महाठगिनी है। आज इस घर में सुशोभित है तो कल वह किसी दूसरे दरवाजे पर जायेगी। लक्ष्मी के नाम का एक पर्यायवाची शब्द ‘चंचला’ भी है। वह हमेशा भ्रमण करती हैं। अतः हमेशा ही अमीरों को बुद्धिमान और गरीबों को बुद्धिहीन मानने वालों को अपने विचार बदलना चाहिए।
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ब्रेकिंग न्यूज (हास्य व्यंग्य)


चंदा लेकर समाज सेवा करने वाली उस संस्था के समाजसेवी बरसों तक अध्यक्ष रहे। पहले जब वह युवा थे तब उनके बाहूबल की वजह से लोग उनको चंदा खूब देते थे। समाज सेवा के नाम पर वह कहीं मदद कर फोटो अखबारों में छपवाते थे। वैसे लोगों को मालुम था कि समाज सेवा तो उनका बहाना है असली उद्देश्य कमाना है मगर फिर भी कहने की हिम्मत कोई नहीं करता था और हफ्ता वसूली मानकर दान देते थे। समाजसेवी साहब अब समय के साथ वह बुढ़ाते जा रहे थे और इधर समाज में तमाम तरह के दूसरे बाहूबली भी पैदा हो गये थे तो चंदा आना कम होता जा रहा था। समाजसेवी के चेले चपाटे बहुत दुःखी थे। उनकी संस्था के महासचिव ने उनसे कहा कि ‘साहब, संस्था की छबि अब पुरानी पड़ चुकी है। कैसे उसे चमकाया जाये यह समझ में नहीं आ रहा है।’

सहसचिव ने कहा कि -‘इसका एक ही उपाय नजर आ रहा है कि अपने संगठन में नये चेहरे सजाये जायें। अध्यक्ष, सचिव और सहसचिव रहते हुए हमें बरसों हो गये हैं।

महासचिव घबड़ा गया और बोला-‘क्या बात करते हो? तुम समाजसेवी साहब को पुराना यानि बूढ़ा कह रहे हो। अरे, हमारे साहब कोई मुकाबला है। क्या तुम अब अपना कोई आदमी लाकर पूरी संस्था हड़पना चाहते हो?’
समाज सेवी ने महासचिव को बीच में रोकते हुए कहा-‘नहीं, सहसचिव सही कह रहा है। अब ऐसा करते हैं अपनी जगह अपने बेटों को बिठाते हैं।
महासचिव ने कहा-‘पर मेरा बेटा अब इंजीनियर बन गया है बाहर रहता है। वह भला कहां से आ पायेगा?
सहसचिव ने कहा-‘मेरा बेटा तो डरपोक है। उसमें किसी से चंदा वसूल करने की ताकत नहीं है। फिर लिखते हुए उसे हाथ कांपते हैं तो खाक लोगों को रसीद बनाकर देगा?’
समाजसेवी ने कहा-‘ इसकी चिंता क्यों करते हो? मेरा बेटा तो बोलते हुए हकलाता है पर काम तो हमें ही करना है। हां, बस नाम के लिये नया स्वरूप देना है।’
सहसचिव ने कहा-‘पर लोग तो आजकल सब देखते हैं। प्रचार माध्यम भी बहुत शक्तिशाली हैं। किसी ने संस्था के कार्यकलापों की जांच की तो सभी बात सामने आ जायेगी।’

समाजसेवी ने कहा-‘चिंता क्यों करते हो? यहां के सभी प्रचार माध्यम वाले मुझे जानते हैं। उनमें से कई लोग मुझसे कहते हैं कि आप अब अपना काम अपने बेटे को सौंपकर पर्दे के पीछे बैठकर काम चलाओ। वह चाहते हैं कि हमारी संस्था पर समाचार अपने माध्यमों में दें लोग पूरानों को देखते हुए ऊब चूके हैं। उल्टे प्रचार माध्यमों को तो हमारी संस्था पर कहने और लिखने का अवसर मिल जायेगा। इसलिये हम तीनों संरक्षक बना जाते हैं और अपनी नयी पीढ़ी के नाम पर अपनी जिम्मेदारी लिख देते है। अरे, भले ही महासचिव का लड़का यहां नहीं रहता पर कभी कभी तो वह आयेगा। मेरा लड़का बोलते हुए हकलता है तो क्या? जब भी भाषण होगा तो संरक्षक के नाम पर मैं ही दे दूंगा। सहसचिव के लड़के का लिखते हुए हाथ कांपता है तो क्या? उसके साथ अपने क्लर्क भेजकर काम चलायेंगे लोगों को मतलब नयी पीढ़ी के नयेपन से है। काम कैसे कोई चलायेगा? इससे लोग भी कहां मतलब रखते हैं? जाओ! अपनी संस्था के सदस्यों को सूचित करो कि नये चुनाव होंेगे। हां, प्रचार माध्यमों को अवश्य जानकारी देना तो वह अभी सक्रिय हो जायेंगे।’

सहसचिव ने कहा-‘यह नयी पीढ़ी के नाम जिम्मेदारी लिखने की बात मेरे समझ में तो नहीं आयी।’
महासचिव ने कहा-‘इसलिये तुम हमेशा सहसचिव ही रहे। कभी महासचिव नहीं बना पाये।’
समाजसेवी ने महासचिव को डांटा-‘पर तुम भी तो कभी अध्यक्ष नहीं बन पाये। अब यह लड़ना छोड़ो। अपनी नयी पीढ़ी को एकता का पाठ भी पढ़ाना है भले ही हम आपस में लड़ते रहे।’
सहसचिव ने कागज उठाया और लिखने बैठ गया। महासचिव ने फोन उठाया और बात करने लगा-‘यह टूटी फूटी खबर है ‘मदद संस्था में नयी पीढ़ी को जिम्मेदारी सौंपी जायेगी।’
समाजसेवी ने पूछा-‘यह टूटी फूटी खबर क्या है?‘
महासचिव ने कहा-‘ब्रेकिंग न्यूज।’
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कही पर अनसुनी बात भी अपना काम कर जाती-हिंदी शायरी


कभी-कभी उदास होकर
चला जाता हूँ भीड़ में
सुकून ढूँढने अपने लिए
ढूँढता हूँ कोई हमदर्द
पर वहाँ तो खडा रहता है
हर शख्स अपना दर्द साथ लिए
सुनता हूँ जब सबका दर्द
अपना तो भूल जाता हूँ
लौटता हूँ अपने घर वापस
दूसरों का दर्द साथ लिए

कोई नहीं सुनता पर फिर भी सुनाकर
दिल को तसल्ली तो हो जाती
दूसरे के दर्द की बात भला
अपने दिल में कहां ठहर पाती
कही पर अनसुनी बात भी अपना काम कर जाती
कभी सोचता हूँ कि
अगर इस जहाँ में दर्द न होता
तो हर शख्स कितना बेदर्द होता
फिर क्यों कोई किसी का हमदर्द होता
कौन होता वक्ता, कौन श्रोता होता
तब अकेला इंसान जीवन गुजारता
अपना दर्द पीने के लिए

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सही पता बताने वाले बहुत कम हैं-हिंदी शायरी


निभाने के वादे तो बहुत उन्होंने किये

पर जब आया मौका साथ देने का

कई बहाने सुना दिये

हम आसरा फिर भी करते रहे

यही सोचकर कि कभी तो

उनके बहाने खत्म हो जायेंगे

और वह काम आयेंगे

इस इंतजार में कितने बरस गुजार दिये
……………………………………………………………..

आहिस्ता चलो

राहों पर फिसलन बहुत है

गिरने पर संभालने वाले कम हैं

अपनी मंजिल और राहों को खुद चुनो

भटकाने वाले बहुत हैं

सही पता बताने वाले बहुत बहुत कम हैं
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अहिंसा का व्रत पालन करने का यही तरीका समझ में आया-व्यंग्य कविता


किसी ने उनसे पूछा उनसे
‘आप अब अपने कंधे पर
बंदूक लेकर नहीं निकलते
साथ रख लिया सुरक्षा कर्मी
वही रहता उसे थामे
इसका मतलब हमारे समझ में नहीं आया’

जवाब दिया उन्होंने
‘अब आम लोगों को भी है रिझाना
इसलिये हमने अहिंसा का व्रत लिया है
इसलिये बदूक थमा दी है
अपने सुरक्षाकर्मी को
हम खून खराबा नहीं कर सकते
पर अपना धंधा भी नही ठप कर सकते
हम करते हैं इशारा
यह साधता है निशाना
आदमी तो आजकल
डर जाता है बंदूक देखकर
कभी कभी ऐसी नौबत आती है
जब गोली पड़ती है चलाना
अपने व्रत का पालन करने का
यही तरीका हमारे समझ में आया’
………………………..

पर मजबूरियाँ इसकी इजाजत नहीं देतीं=हिन्दी शायरी


कभी सोचते हैं कि दिमाग का बोझ उठाकर
जमीन पर फैंक दें
पर मजबूरियाँ इसकी इजाजत नहीं देतीं

कई जगहों पर खडे होने का मन नहीं करता
उकता जाते हैं मिलने वाले लोगों से
सोचते हैं चले जाएं परे वहाँ से
पर मजबूरियाँ इसकी इजाजत नहीं देतीं

हम बोलते हैं, पर सुनता कोई नहीं
बहरे कानों को सुनाते हैं दुखडा
न देख रही आंखों को दिखा रहे
अपना दिल, जो हो चुका टुकडा-टुकडा
कोई हमदर्दी नहीं दिखा रहा
सोचते हैं अकेले में अपने को समझाएं
पर मजबूरियाँ इसकी इजाजत नहीं देतीं

अपनी मजबूरियों के ढोने की ऐसी आदत है
उतारने पर हल्का हो जाने का डर होता है
उनसे मुक्ति की बहुत चाह है
पर मजबूरियाँ इसकी इजाजत नहीं देतीं

चाणक्य नीति:जिससे कुछ मिलने की आशा हो उससे मधुर व्यवहार करें


1.जिसके मन में पाप है, वह सौ बार तीर्थ स्नान करने के बाद भी पवित्र नहीं हो सकता, जिस प्रकार मदिरा का पात्र जल पर भी शुद्ध नहीं होता.
*यहाँ चाणक्य के कथन का आशय यह है कि बाहरी स्नान करने से मन मन शुद्ध नहीं होता, जब तक मन में पवित्रता नहीं हो.
2.जिसके प्रति सच्चा प्रेम हैं वह दूर रहते हुए भी समीप रहता है। इसके विपरीत जिससे लगाव नहीं है वह आदमी पास रहते हुए भी दूर रहता है। यह एक वास्तविकता है कि मन के लगाव के बिना आत्मीयता का भाव बन ही नहीं सकता है।
3.जिस किसी व्यक्ति से मिलने की संभावना है उससे सदैव मधुर व्यवहार करना चाहिऐ। उदाहरण के लिए मृग का शिकार करने की इच्छा रखने वाला चालाक शिकारी उसके आसपास रहकर मधुर स्वर में गीत गाता रहता है ।
4.अगर तुम्हें लोगों में अपना सम्मान बनाए रखना है तो किसी के सामने किसी की बुराई नहीं करो .

5.विद्या की शोभा उसकी सिद्धि में है । जिस विद्या से कोई उपलब्धि प्राप्त हो वही काम की है।
6.धन की शोभा उसके उपयोग में है । धन के व्यय में अगर कंजूसी की जाये तो वह किसी मतलब का नहीं रह जाता है, अत: उसे खर्च करते रहना चाहिऐ

चाणक्य नीति:बेमौसम राग अलापना हास्यास्पद


1.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।

2.समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं।
3.मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।जब तक बारिश नहीं आती कोयल नहीं गाती, वह समयानुकूल स्वर निकालती है।

4.पशु-पक्षी समय के अनुसार अपने क्रियाएँ करते हैं और जो मनुष्य समय का ध्यान नहीं रखते वह पसु-पक्षियों से भी गए गुजरे हैं।
5.उसी कवि की शोभा और उपयोगिता होती है जो समयानुकूल होता है। बेमौसम राग अलापना जग हँसाई कराना है।

संत कबीर वाणी:सिद्ध से साधू श्रेष्ठ


जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय
नाता तोड़े गुरू भजै, भक्त कहावै सोय

कविवर कबीर दास जी कहते हैं कि जाति-पांति का अभिमान है तब तक भक्ति नहीं हो सकती। अहंकार और मोह को त्यागा कर, सभी नाते-रिश्तों को तोड़कर भक्ति करो तभी भक्त कहला सकते हो।

भक्ति बिना नहिं निस्तरै, लाख कराइ जो कोय
शबद हृँ सनेही रहै, घर को पहुंचे सोय

भक्ति के बिना उद्धार नहीं हो सकता, चाहे लाख प्रयत्न करो, वे सब व्यर्थ ही सिद्ध होंगे, जो केवल सदगुरु के प्रेमी हृँ, उनके सत्य-ज्ञान का आचरण करने वाले हैं वही अपने उद्देश्य को पा सकते हैं, अन्य कोई नहीं।

मुख आवै सोई कहै, बोलै नहीं विचार
हते पराई आतमा, जीभ बाँधि तलवार

कुछ नासमझ लोग ऐसे हैं, जो विचारकर नहीं बोलते। बस अपनी मनमर्जी से उलटा -सीधा जो भी मुहँ में आया बोलने लग जाते है। ऐसे लोग अपनी जीभ में कड़वे और कठोर वचन रूपी तलवार बांधकर दूसरों की आत्मा को कष्ट देते रहते हैं। ऐसे लोगों को अमानवीय प्रवृति का ही कहा जा सकता है।

साधू सिद्ध बहु अंतरा, साधू मता प्रचंड
सिद्ध जू बारे आपको, साधू तारे नौ खण्ड

संत शिरोमणि कबीरदास जीं कहते हैं कि साधू और सिद्ध में अन्तर है, दोनों में साधू ही श्रेष्ठ है। सिद्ध तो केवल अपना ही कल्याण करता है लेकिन साधू लोग पूरे विश्व का उद्धार करते हैं।

चाणक्य नीति:विवशता में करते हैं भक्ति का नाटक


    1.भंवर जब तक कमल दल के बीच रहता है तो उसके फूल का मजा लेता है पर अगर उसे वहां से दूर तौरिया का फूल भी उसे बहुत आनन्द देता. इसी कारण मनुष्य को भूखे रहने की बजाय कुछ खा लेना चाहिए. अगर अपनी मनपसंद का भोजन नहीं मिले तो जो मिले उसे खा लेना चाहिए-भूखा रहना ठीक नहीं है.

    2. जब कोई शक्तिहीन साधू, धनहीन ब्रह्मचारी और रोगी किसी देवता का भक्त बनता है तो उसे ढोंगी कहा जा सकता है. वास्तविकता यह है कि बलवान कभी साधू, धनवान कभी ब्रह्मचारी नहीं बनता. सब लोग विवशता के कारण नाटक करते हैं और कुछ नहीं.

    3. अगर आदमी का स्वयं का मन ठीक है तो उसे भक्ति का पाखंड करने की जरूरत नहीं पड़ती! लोभी को दूसरे के दोषों से क्या? चुगली और परनिन्दा करने वाले को दूसरे के पापों से सत्यवादी को तपस्या से हृदय की स्वच्छता वाले को तीर्थ यात्रा से, सज्जन को दूसरे के गुणों से क्या वास्ता? अगर अपना प्रभाव है तो भूषन से, विधा है तो धन से और अगर अपयश है तो मृत्यु से क्या लाभ?

    4.मनुष्य की चार चीजों की भूख कभी नहीं बुझती. धन, जीवन स्त्री और भोजन. इसके लिए वह हमेशा लालायित रहता है.

विवाद से बचने के लिए व्यंजना विधा में लिखें


हिंदी भाषा में लिखने की तीय विधाएं हैं-शाब्दिक, लाक्षणिक और्र्र व्यंजना. इसमें सबसे बेहतर विधा व्यंजना मानी जाती है और पंचतंत्र की कहानिया इसका सबसे बड़ा अच्छा उदाहरण है. जो लोग व्यंजना विधा के ज्ञाता नहीं है तो यही कहेंगे कि उसमें तो मनुष्यों की कहानिया न होकर पशुओं की हैं. उन्हें पहली बट तो यह समझना चाहिए कि पशु कहानिया नहीं पढते दूसरे कि हमारे दर्शन के अनुसार समस्त जीवों में मूल गुण और स्वभाव एक ही जैसे होते हैं. काम,क्रोध, भोजन ग्रहण, निद्रा और बिमारी आदि सभी में होती है, पर मनुष्य में बुद्धि के साथ और विवेक भी होता है. आदमी जिस तरह प्रसन्न और अप्रसन्न होता है वैसे ही पशु भी होते हैं. पंचतंत्र की कहानिया मनुष्यों को जीवन का स्वरूप समझाने के लिक्ये ही लिखीं गईँ है.

शाब्दिक विधा में हम जिस व्यक्ति के बारे में लिख रहे हैं उसके बारे में सीधा लिख देते हैं. लाक्षणिक में हम उस व्यक्ति के लक्षणों को इंगित करने वाला पात्र गढ़ लेते हैं, और व्यंजना में हम उसके लिए कोई प्रतीक गढ़ते हैं. जैसे कोई पशु, खंबा, ट्यूब लाईट या कोई वाहन आदि. और उस पर लिखते ऐसे है कि पढने वाले को लगे कि किस तरफ इशारा किया जा रहा है. अक्सर लोग व्यंजना में लिखे गए विषयों को समझ नहीं पाते और जो समझते हैं वह ख़ूब मजा लेते हैं. हिंदी में भाषा में उसी लेखक को श्रेष्ठ मना जाता है जो व्यंजना में लिखते हैं. जो इस विधा में लिखते हैं वह निश्चिंत होकर लिखते हैं क्योंकि उन्हें संबंधित व्यक्ति जानते हुए भी कुछ नहीं कह सकता.

मैं व्यंग्य लिखता हूँ तब इसी विधा में लिखने का प्रयास करता हूँ-क्योंकि यह विधा उसकी मूल प्रकृति है. मैं अपनी सफलता और असफलता पर विचार का बोझ अब नहीं उठाता पर मुझे पढने वाले कुछ लोग हैं जो इशारा समझ जाते हैं. कुछ हास्य कवितायेँ जो वाकई काल्पनिक होती हैं और मैं उन पर कोई प्रमाण पत्र नहीं लगाता तो उस पर मेरे एक मित्र मजाक में लिख जाते हैं कि इस पर आपने डिसक्लैमर भी नहीं लगाया और हमारा सीधे नाम भी नहीं लिखा, इसे हम क्या समझें. कुछ में इशारा होता लगता है तो मैं प्रमाणपत्र लगा ही देता हूँ पर पढने वालों की तेज नजरें उसे पढ़ ही लेतीं हैं और वह कह भी जाते हैं कि इस पर क्या जरूरत थी जो डिसक्लैमर लगाया. जब कभी किसी पूरे समूह पर लिख रहे हैं तो यह विधा बहुत काम देती है और व्यंग्य का मतलब भी यही है कि वह व्यंजना विधा में होना चाहिए- नहीं तो उसे हास्य कहा जाता है.

जो लोग डरते हैं या वाद-विवाद से दूर रहना चाहिते हैं उनके लिए यह विधा ब्रह्मास्त्र का काम करती है. मैं इस विधा में लिखने को हमेशा लालायित रहता हूँ क्योंकि इससे आप अपनी बात कह भी जाते हैं और किसी विवाद भी नहीं होता. इसलिये जो लोग डरते हैं या विवाद से बचना चाहते हैं उन्हें इस व्यंजना विधा में काम करना चाहिए. एसा नहीं है कि लोगों को इसकी समझ नहीं है, यह अलग बात है कि अप लिखते किस तरह हैं और आपका प्रभाव कैसा है. मान लीजिये के मैं आज कंगारुओं और शेर के बीच मैच पर लिख दूं तो लोग हाल समझ जायेंगे कि यह भारत और आस्ट्रेलिया के बीच मैच के बारे में लिखा गया है पर उस पर लिखने से कोई प्रभाव नहें छोडेगा क्योंकि उसमें लेखक के लिए विवाद का कोई खतरा नहीं है इसलिये पाठक स्वीकार नहीं करेगा पर जहाँ किसी बड़ी ताक़त पर लिख रहे हैं और प्रतीक का इस्तेमाल करे तो पाठक उसे स्वीकार कर लेगा बशर्ते कि उसकी भाषा और प्रस्तुति प्रभावपूर्ण हो. वैसे आप व्यंजना विधा में लिखे या नहीं पर इस की जानकारी रखना चाहिए तो कई बेहतर सामग्री पढने को मिल जाती हैं जो लिखने का अच्छा अवसर प्रदान करती हैं. मेरा मानना है कि आप तब तक अच्छा नहीं लिख सकते जब तक आप पढेंगे नहीं.

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