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फरिश्तों का राज, प्रजा इंसान-हिन्दी लधु कथा व्यंग्य (farishton ka rajya, praja insan-hindi laghkatha vyangya)


          एक इंसान ने पर्वत की ऊंचाई की तरफ कई पत्थर उछाल कर फैके। उस पर्वत पर फरिश्तों का समूह बैठता था जो नीचे रहने वाले इंसानों के भाग्यविधाता थे। यह अलग बात है कि वह जुटाता ते मक्खन खाने का सामान था पर नीचे इंसानों के पास सूखी रोटी भेजता था ।
          उस इंसान ने कई पत्थर फैंके तो एक पत्थर फरिश्तों की सभा के बीच गिर ही गया। इस पर वहां हाहाकार मच गया। हमेशा वाह वाह सुनने और गपशप के आदी फरिश्तों को ऐसे पत्थर झेलने की आदत नहीं थी। उनको यह पता था कि नीचे से किसी इंसान की इतनी न हिम्मत है न औकात कि उन पर पत्थर तो क्या लकड़ी का टुकड़ा भी फैंक सके। इंसान को भूखा रखा तो ठीक और रोटी का झूठा टुकड़ा तो भी ठीक! अगर वह फरिश्ता जाति का नहीं है तो जिंदा क्या मरा क्या?
           पत्थर के टुकड़े इस तरह गिरना वहां सनसनीखेज खबर जैसा था। सारे फरिश्ते टीवी के सामने चिपक गये कि देखें आगे क्या होता है? यहां तक कि इंसानों में भी ब्रेकिंग खबर फैल गयी तो वह भी ऊपर ताक रहे थे कि कहीं से कोई फरिश्ता तो पत्थर की चोट खाकर नीचे तो नहीं टपक रहा।
          फरिश्तों ने आकाश की तरफ देखा। वहां ऐसा कोई संकेत मौजूद नहंी था कि पत्थर वहां से फैंका गया हो। फरिश्तों ने जांच शुरु की। खुफिया एजेंसी के मुखिया को तलब किया गया। फरिश्तों के प्रधान ने इस पर चिंता जताई। खुफिया संस्था के मुखिया ने बताया कि यह अंतरिक्ष के जीवों की साजिश का परिणाम है। कुछ एलियन धरती पर घूमते हैं तो कभी पर्वत पर भी चले आते हैं। इनमें कोई मौका मिलते ही पत्थर फैंक गया होगा।
           जांच जारी थी कि एक पत्थर फिर आ गिरा। अब नीचे झांका गया तो एक आदमी पर्वत की तरफ पत्थर उछाल रहा था।
          एक फरिश्ते ने जाकर अपने प्रधान को बताया कि-‘‘साहब, एक इंसान हमारी तरफ पत्थर फैंक रहा है। वह कह रहा है कि ‘तुम फरिश्ते इसलिये कहलाते हो क्योंकि मेरे जैसे इंसान नीचे रहते हैं। अगर हम न हों तुम फरिश्ते नहीं कहला सकते। आखिर हमारी तरह तुम्हें भी तो दो पांव, दो हाथ, दो आंख, एक नाक, एक मुख और दो कान हैं। अब तुम कर्तव्य विमुख हो रहे हो। हमारे साथ न्याय नहंी कर रहे हो’ इसलिये हम तुम्हें पहाड़ से उतारकर अपनी जमात में बिठायेंगे।’’
            फरिश्तों के प्रधान ने अपने सचिव से कहा-‘‘जाओ, उसे लाकर कहीं अपने पर्वत पर बसा दो। अपनी बिरादरी में शामिल करने से वह हमारी लिये वफादार हो जायेगा।’’
           सचिव ने कहा-‘‘महाराज! इस तरह हम अनेक इंसानों को ऊपर ला चुके हैं। सभी के सभी हरामखोर हैं। हमने जब उनसे कहा कि इस इंसान को रोको तो कोई मधुमेह की बीमारी का बहाना कर घर में घुस गया तो कोई दिल के दौरे की नाम लेकर अस्पताल में दाखिल हो गया। अब यह इंसान यहां मत लाईये।’
          फरिश्तों के प्रधान ने कहा‘‘मूर्ख! यह बगावत रोकने का तरीका है। इस समय वह एक इंसान पत्थर फैंकता रहा तो दूसरे भी फैंकने लगेंगे। धरती पर बरसों में कोई एक क्रांतिकारी पैदा होता है। जो इंसान पहले आये वह सब बूढें हो गये हैं। यह जवान है इसलिये उसे बुलाकर बसा लो। सुरा, सुंदरी और संपत्ति की चाशनी में डुबो दो। फिर कोई दूसरा करता है तो यह उसे कुचलने के काम आयेगा।’
           सचिव उस इंसान को पर्वत पर ले आया। एक फरिश्ते ने उससे कहा कि ‘‘अब तुम हमारे आदमी हो। यहां कोई बगावत मत करना।’
           उस इंसान ने कहा-‘मेरा काम हो गया। अब क्या मैं पागल हूं कि बगावत करूंगा। इस पर्वत पर और नीचे प्रचार में मेरा नाम आ गया। यहां सुरा और सुंदरी के साथ संपत्ति मिलेंगे। तब काहे की बगावत!’’
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

रौशनी और अंधेरे की जंग-लघुकथा (roshni aur andher ke jang-hindi laghu katha)


वैसे तो उन सज्जन की कोई इतनी अधिक उम्र नहीं थी कि दृष्टिदोष अधिक हो अलबत्ता चश्मा जरूर लगा हुआ था। एक रात को वह स्कूटर से एक ऐसी सड़क से निकले जहां से भारी वाहनों का आवागमन अधिक होता था। वह एक जगह से निकले तो उनको लगा कि कोई लड़की सड़क के उस पार जाना चाहती है। इसलिये उन्होंने अपने स्कूटर की गति धीमी कर ली थी। जब पास से निकले तो देखा कि एक श्वान टांग उठाकर अपनी गर्दन साफ कर रहा था। उन्हें अफसोस हुआ कि यह क्या सोचा? दरअसल सामने से एक के बाद एक आ रही गाड़ियों की हैडलाईट्स इतनी तेज रौशन फैंक रही थी कि उनके लिये दायें बायें अंधेरे में हो रही गतिविधि को सही तरह से देखना कठिन हो रहा था।
थोड़ी दूर चले होंगे तो उनको लगा कि कोई श्वान वैसी ही गतिविधि में संलग्न है पर पास से निकले तो देखा कि एक लड़की सड़क पार करने के लिये तत्पर है। अंधेरे उजाले के इस द्वंद्व ने उनको विचलित कर दिया।
अगले दिन वह नज़र का चश्मा लेकर बनाने वाले के पास पहुंचे और उसे अपनी समस्या बताई। चश्में वाले ने कहा‘ मैं आपके चश्में का नंबर चेक कर दूसरा बना देता हूं पर यह गारंटी नहीं दे सकता कि दोबारा ऐसा नहीं होगा क्योंकि कुछ छोटी और बड़ी गाड़ियों की हैड्लाईटस इतनी तेज होती है जिन अंधेरे वाली सड़कों से गुजरते हुए दायें बायें ही क्या सामने आ रहा गड्ढा भी नहीं दिखता।’
वह सज्जन संतुष्ट नहीं हुए। दूसरे चश्मे वाले के पास गये तो उसने भी यही जवाब दिया। तब उन्होंने अपने मित्र से इसका उपाय पूछा। मित्र ने भी इंकार किया। वह डाक्टर के पास गये तो उसने भी कहा कि इस तरह का दृष्टिदोष केवल तात्कालिक होता है उसका कोई उपाय नहीं है।
अंततः वह अपने गुरु की शरण में गये तो उन्होंने कहा कि ‘इसका तो वाकई कोई उपाय नहीं है। वैसे अच्छा यही है कि उस मार्ग पर जाओ ही नहीं जहां रौशनी चकाचौध वाली हो। जाना जरूरी हो तो दिन में ही जाओ रात में नहीं। दूसरा यह कि कोई दृश्य देखकर कोई राय तत्काल कायम न करो जब तक उसका प्रमाणीकरण पास जाकर न हो जाये।
उन सज्जन ने कहा‘-ठीक है उस चकाचौंध रौशनी वाले मार्ग पर रात को नहीं जाऊंगा क्योंकि कोई राय तत्काल कायम न करने की शक्ति तो मुझमें नहीं है। वह तो मन है कि भटकने से बाज नहीं आता।’
गुरुजी उसका उत्तर सुनकर हंसते हुए बोले-‘वैसे यह भी संभव नहीं लगता कि तुम चका च ौंधी रौशनी वाले मार्ग पर रात को नहीं जाओ। वह नहीं तो दूसरा मार्ग रात के जाने के लिये पकड़ोगे। वहां भी ऐसा ही होगा। सामने रौशनी दायें बायें अंधेरा। न भी हो तो ऐसी रौशनी अच्छे खासे को अंधा बना देती है। दिन में भला खाक कहीं रौशनी होती है जो वहां जाओगे। रौशनी देखने की चाहत किसमें नहीं है। अरे, अगर इस रौशनी और अंधेरे के द्वंद्व लोग समझ लेते तो रौशने के सौदागर भूखे मर गये होते? सभी लोग उसी रौशनी की तरफ भाग रहे हैं। जमाना अंधा हो गया है। किसी को अपने दायें बायें नहीं दिखता। अरे, अगर तुमने तय कर लिया कि चकाचौंध वाले मार्ग पर नहीं जाऊंगा तो फिर जीवन की किसी सड़क पर दृष्टिभ्रम नहीं होगा।सवाल तो इस बात का है कि अपने निश्चय पर अमल कर पाओगे कि नहीं।’’
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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नापसंद लेखक, पसंदीदा आशिक-हिन्दी हास्य कविता (rejected writer-hindi hasya kavita)


आशिक ने अपनी माशुका को
इंटरनेट पर अपने को हिट दिखाने के लिये लिए
अपने ब्लाग पर
पसंद नापसंद का स्तंभ
एक तरफ लगाया।
पहले खुद ही पसंद पर किल्क कर
पाठ को ऊपर चढ़ाता था
पर हर पाठक मूंह फेर जाता था
नापसंद के विकल्प को उसने लगाया।
अपने पाठों पर फिर तो
फिकरों की बरसात होती पाया
पसंद से कोई नहीं पूछता था
पहले जिन पाठों को
नापसंद ने उनको भी ऊंचा पहुंचाया।
उसने अपने ब्लाग का दर्शन
अपनी माशुका को भी कराया।
देखते ही वह बिफरी
और बोली
‘‘यह क्या बकवाद लिखते हो
कवि कम फूहड़ अधिक दिखते हो
शर्म आयेगी अगर अब
मैंने यह ब्लाग अपनी सहेलियों को दिखाया।
हटा दो यह सब
नहीं तो भूल जाना अपने इश्क को
दुबारा अगर इसे लगाया।’’

सुनकर आशिक बोला
‘‘अरे, अपने कीबोर्ड पर
घिसते घिसते जन्म गंवाया
पर कभी इतना हिट नहीं पाया।
खुद ही पसंद बटन पर
उंगली पीट पीट कर
अपने पाठ किसी तरह चमकाये
पर पाठक उसे देखने भी नहीं आये।
इस नपसंद ने बिना कुछ किये
इतने सारे पाठक जुटाये।
तुम इस जमाने को नहीं जानती
आज की जनता गुलाम है
खास लोगों के चेहरे देखने
और उनका लिखा पढ़ने के लिये
आम आदमी को वह कुछ नहीं मानती
आम कवि जब चमकता है
दूसरा उसे देखकर बहकता है
पसंद के नाम सभी मूंह फुलाते
कोई नापसंद हो उस पर मुस्कराते
पहरे में रहते बड़े बड़े लोग
इसलिये कोई कुछ नहीं कर पाता
अपने जैसा मिल जाये कोई कवि
उस अपनी कुंठा हर कोई उतार जाता
हिट देखकर सभी ने अनदेखा किया
नापसंद देखकर उनको भी मजा आया।
ज्यादा हिट मिलें इसलिये ही
यह नापसंद चिपकाया।
अरे, हमें क्या
इंटरनेट पर हिट मिलने चाहिये
नायक को मिलता है सब
पर खलनायक भी नहीं होता खाली
यह देखना चाहिये
मैं पसंद से जो ना पा सका
नापसंद से पाया।’’

इधर माशुका ने सोचा
‘मुझे क्या करना
आजकल तो करती हैं
लड़कियां बदमाशों से इश्क
मैंने नहीं लिया यह रिस्क
इसे नापसंद देखकर
दूसरी लड़कियां डोरे नहीं डालेंगी
क्या हुआ यह नापसंद लेखक
मेरा पसंदीदा आशिक है
इसमें कुछ बुरा भी समझ में नहीं आया।’
……………………………..

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आपरेशन तो आसान है -हास्य व्यंग्य


सरकारी अस्पताल में एक सफाई कर्मचारी ने एक तीन साल के बच्चे के गले का आपरेशन कर दिया। उस बच्चे के गले में फोड़ा था और उसके परिवारजन डाक्टर के पास गये। वहां खड़े सफाई कर्मचारी ने उसका आपरेशन कर दिया। टीवी पर दिखी इस खबर पर यकीन करें तो समस्या यह नहीं है कि आपरेशन असफल हुआ बल्कि परिवारजन चिंतित इस बात से हैं कि कहीं बच्चे को कोई दूसरी बीमारी न हो जाये।
स्पष्टतः यह नियम विरोधी कार्य है। बावेला इसी बात पर मचा है। अधिकृत चिकित्सक का कहना है कि ‘मैंने तो सफाई कर्मचारी से कहा था कि बच्चा आपरेशन थियेटर में ले जाओ। उसने तो आपरेशन ही कर दिया।’
सफाई कर्मचारी ने कहा कि ‘डाक्टर साहब ने कहा तो मैंने आपरेशन कर दिया।’
संवाददाता ने पूछा कि ‘क्या ऐसे आपरेशन पहले भी किये हैं?’
सफाई कर्मचारी खामोश रहा। उसकी आंखें और उसका काम इस बात का बयान कर रहे थे कि उसने जो काम किया उसमें संभवतः वह सिद्ध हस्त हो गया होगा। यकीनन वह बहुत समय तक चिकित्सकों की ंसंगत में यह काम करते हुए इतना सक्षम हो गया होगा कि वह स्वयं आपरेशन कर सके। वरना क्या किसी में हिम्मत है कि कोई वेतनभोगी कर्मचारी अपने हाथ से बच्चे की गर्दन पर कैंची चलाये। बच्चे के परिवारजन काफी नाराज थे पर उन्होंने ऐसी चर्चा नहीं कि उस आपरेशन से उनका बच्चा कोई अस्वस्थ हुआ हो या उसे आराम नहीं है। बावेला इस बात पर मचा है कि आखिर एक सफाई कर्मचारी ने ऐसा क्यों किया?
इसका कानूनी या नैतिक पहलू जो भी हो उससे परे हटकर हम तो इसमें कुछ अन्य ही विचार उठता देख रहे हैं। क्या पश्चिमी चिकित्सा पद्धति इतनी आसान है कि कोई भी सीख सकता है? फिर यह इतने सारे विश्वविद्यालय और चिकित्सालय के बड़े बड़े प्रोफेसर विशेषज्ञ सीना तानकर दिखाते हैं वह सब छलावा है?
अपने यहां कहते हैं कि ‘करत करत अभ्यास, मूरख भये सुजान’। जहां तक काम करने और सीखने का सवाल है अपने लोग हमेशा ही सुजान रहे हैं। सच कहें तो उस सफाई कर्मचारी ने पूरी पश्चिमी चिकित्सा पद्धति की सफाई कर रखी दी हो ऐसा लग रहा है। इतनी ढेर सारी किताबों में सिर खपाते हुए और व्यवहारिक प्रयोगों में जान लगाने वाले आधुनिक चिकित्सक कठिनाई से बनते हैं पर उनको अगर सीधे ही अभ्यास कराया जाये तो शायद वह अधिक अच्छे बन जायें। इससे एक लाभ हो सकता है कि बहुत पैसा खर्च बने चिकित्सक और सर्जन अपनी पूंजी वसूल करने के लिये निर्मम हो जाते हैं। इस तरह जो अभ्यास से चिकित्सक बनेंगे वह निश्चित रूप से अधिक मानवीय व्यवहार करेंगे-हमारा यह आशय नहीं है कि किताबों से ऊंची पदवियां प्राप्त सभी चिकित्सक या सर्जन बुरा व्यवहार करते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने इसे बदनाम किया है।
पश्चिम विज्ञान से परिपूर्ण कुछ लोग ऐसे व्यवहार करते हैं गोया कि वह कोई भारी विद्वान हों। हमारे देश में लगभग आधी से अधिक जनसंख्या तो स्वयं ही अपना देशी इलाज करती है इसलिये इस मामले में बहस तो हो ही नहीं सकती कि यहां सुजान नहीं है। कहते हैं कि सारा विज्ञान अंग्रेजी में है इसलिये उसका ज्ञान होना जरूरी है। क्या खाक विज्ञान है?
अरे भई, किसी को को जुकाम हो गया तो उससे कहते हैं कि तुलसी का पत्ते चाय में डालकर पी लो ठीक हो जायेगा। ठीक हो भी जाता है। अब इससे क्या मतलब कि तुंलसी में कौनसा विटामिन होता है और चाय में कौनसा? अगर हम जुकाम से मुक्ति पा सकते हैं तो फिर हमें उसमें शामिल तत्वों के ज्ञान से क्या मतलब? अंग्रेजी की किताबों में क्या होता होगा? बीमारियां ऐसी होती है या इस कारण होती हैं। उनके अंग्रेजी नाम बता दिये जाते होंगे। फिर दवाईयों में कौनसा तत्व ऐसा होता है जो उनको ठीक कर देता है-इसकी जानकारी होगी। इस अभ्यास में पढ़ने वाले का वक्त कितना खराब होता होगा। फिर सर्जन बनने के लिये तो पता नहीं चिकित्सा छात्र कितनी मेहनत करते होंगे? उस सफाई कर्मचारी ने अपना काम जिस तरह किया है उससे तो लगता है कि देखकर कोई भी प्रतिभाशाली आदमी ध्यानपूर्वक काम करते हुए ही चिकित्सक या सर्जन बन सकता है।
चिकित्सा शिक्षा का पता नहीं पर इस कंप्यूटर विधा में हम कुछ पांरगत हो गये हैं उतना तो वह छात्र भी नहीं लगते जो विधिवत सीखे हैं। वजह यह है कि हमें कंप्यूटर और इंटरनेट पर काम करने का जितना अभ्यास है वह केवल अपने समकक्ष ब्लाग लेखकों में ही दिखाई देता है। संभव है कि हम कभी उन धुरंधर ब्लाग लेखकों से मिलें तो वह चक्करघिन्नी हो जायें और सोचें कि इसने कहीं विधिवत शिक्षा पाई होगी। अनेक छात्र कंप्यूटर सीखते हैं। उनको एक साल से अधिक लग जाता है। कंप्यूटर वह ऐसे सीखते हैं जैसे कि भारी काम कर रहे हों। हां, यह सही है कि उनकी कंप्यूटर की भाषा में कई ऐसे शब्द हैं जिनका उच्चारण भी हमसे कठिन होता है पर जब वह हमें काम करते देखते हैं तो वह हतप्रभ रह जाते हैं।
हमने आज तक कंप्यूटर की कोई किताब नहीं पढ़ी। हम तो कंप्यूटर पर आते ही नहीं पर यह शुरु से चिपका तो फिर खींचता ही रहा। सबसे पहले एक अखबार में फोटो कंपोजिंग में रूप में काम किया। उस समय पता नहीं था कि यह अभ्यास आगे क्या गुल खिलायेगा।
चिकित्सा विज्ञान की बात हम नहीं कह सकते पर जिस तरह कंप्यूटर लोग सीखते हुए या उसके बाद जिस तरह सीना तानते हैं उससे तो यही लगता है कि उनका ज्ञान भी एक छलावा है। अधिकतर कंप्यूटर सीखने वालों से मैं पूछता हूं कि तुम्हें हिंदी या अंग्रेजी टाईप करना आता है।
सभी ना में सिर हिला देते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि ‘कंप्यूटर का ज्ञान तुम्हारे लिये तभी आसान होगा जब तुम्हें दोनों प्रकार की टाईप आती होगी। कंप्यूटर पर तुम तभी आत्मविश्वास से कर पाओगे जब की बोर्ड से आंखें हटा लोगे।’
वह सुनते हैं पर उन पर प्रभाव नहीं नजर आता। वह कंप्यूटर का कितना ज्ञान रखते हैं पता नहीं? शायद लोग माउस से अधिक काम करते हैं इसलिये उन्हें पता ही नहीं कि इसका कोई रचनात्मक कार्य भी हो सकता है। यह आत्मप्रवंचना करना इसलिये भी जरूरी था कि आपरेशन करने वाले उस सफाई कर्मचारी के चेहरे में हमें अपना अक्स दिखाई देगा।
हमें याद उस अखबार में काम करना। वहां दिल्ली से आये कर्मचारियों ने तय किया कि हमें कंप्यूटर नहीं सिखायेंगे। मगर हमने तय किया सीखेंगे। दोनों प्रकार की टाईप हमें आती थी। हम उनको काम करते देखते थे। उनकी उंगलियों की गतिविधियां देखते थे। जब वह भोजनावकाश को जाते हम कंप्यूटर पर काम करते थे क्योंकि प्रबंधकों अपनी सक्रियता दिखाना जरूरी था। एक दिन हमने अपनी एक कविता टाईप कर दी। वह छप भी गयी। हमारे गुरु को हैरानी हुई। उसने कहा-‘तुम बहुत आत्मविश्वासी हो। कंप्यूटर में बहुत तरक्की करोगे।’
उस समय कंप्यूटर पर बड़े शहरों में ही काम मिलता था और छोटे शहरों में इसकी संभावना नगण्य थी। कुछ दिन बाद कंप्यूटर से हाथ छूट गया। जब दोबारा आये तो विंडो आ चुका था। दोबारा सीखना पड़ा। सिखाने वाला अपने से आयु में बहुत छोटा था। उसने जब देखा कि हम इसका उपयोग बड़े आत्मविश्वास से कर रहे हैं तब उसने पूछा कि ‘आपने पहले भी काम किया है।’
हमने कहा-‘तब विंडो नहीं था।’
कंप्यूटर एक पश्चिम में सृजित विज्ञान है। जब उसका साहित्य पढ़े बिना ही हम इतना सीख गये तो फिर क्या चिकित्सा विज्ञान में यह संभव नहीं है। पश्चिम का विज्ञान जरूरी है पर जरूरी नहीं है कि सीखने का वह तरीका अपनायें जो वह बताते हैं। खाली पीली डिग्रियां बनाने की बजाय तो छोटी आयु के बच्चों को चिकित्सा, विज्ञान, इंजीनियरिंग तथा कंप्यूटर सिखाने और बताने वाले छोटे केंद्र बनाये जाना चाहिये। अधिक से अधिक व्यवहारिक शिक्षा पर जोर देना चाहिये। हमारे देश में ‘आर्यभट्ट’ जैसे विद्वान हुए हैं पर यह पता नहीं कि उन्होंने कौनसे कालिज में शिक्षा प्राप्त की थी। इतने सारे ऋषि, मुनि और तपस्वियों ने वनों में तपस्या करते हुए अंतरिक्ष, विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र में सिद्धि प्राप्त की। पहले यकीन नहीं होता था पर अब लगता है कि इस देश में उड़ने वाले पुष्पक जैसे विमान, दूर तक मार करने वाले आग्नेयास्त्र और चक्र रहे होंगे। बहरहाल उस घटना के बारे में अधिक नहीं पता पर इससे हमें एक बात तो लगी कि पश्चिम विज्ञान हो या देशी सच बात तो यह है कि उनका सैद्धांतिक पक्ष से अधिक व्यवहारिक पक्ष है। कोई भी रचनाकर्म अंततः अपने हाथों से ही पूर्ण करना होता है। अतः अगर दूसरे को काम करते कोई प्रतिभाशाली अपने सामने देखे तो वह भी सीख सकता है जरूरी नहीं है कि उसके पास कोई उपाधि हो। वैसे भी हम देख चुके हैं कि उपाधियों से अधिक आदमी की कार्यदक्षता ही उसे सम्मान दिलाती है।
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नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

आओ बकवास लिखें -हास्य व्यंग्य


अगर यह पहले पता होता कि इंटरनेट पर लिखते हुए पाठकों को त्वरित प्रतिक्रिया का अधिकार देना पड़ेगा और उसका वह उपयोग अपना गुस्सा निकालने के लिये कर सकते हैं तो शायद ब्लाग/पत्रिका पर लिखने का विचार ही नहीं करते-मन में यह डर पैदा होता कि कहीं ऐसा वैसा लिख तो लोग अंटसंट सुनाने लगेंगे। कुछ अनाम टिप्पणीकार हैं जो लिख ही देते हैं बकवास या फिर यह सब बकवास।
रोमन लिपि में उनके लिये यह लिखना कोई कठिन काम नहीं होता। एक दो नाम जेहन में हैं। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया दोहराई है। तब मन में सवाल आता है कि एक बार जब पता चल गया कि यह लेखक बकवास लिखता है तो पढ़ने आते ही क्यों हो? अरे, भई हमने तो अपने ब्लाग पर ही अपना नाम लिख दिया ताकि नापसंद करने वालों को मूंह फेरने में असुविधा न हो। उस पर हर पाठ के साथ लिख देते हैं कविता, कहानी, आलेख और हास्य व्यंग्य ताकि जिनको उनसे एलर्जी हो वह भी मूंह फेर ले। फिर काहे चले आते हो यह बताने के लिये कि यह सब बकवास है।’
हम भी क्या करें? प्रति महीने सात सौ रुपये का इंटरनेट का बिल भर रहे हैं। अपने अंदर बहुत बड़े साहित्यकार होने का बरसों पुराना भ्रम है जब तक वह नहीं निकलेगा लिखना बंद नहीं करेंगे। फिर पैसा भी तो वसूल करना है।
उस पर हमने बकवास लिखा है तो तुम ही कुछ ऐसा लिखो कि हम लिखना छोड़ पढ़ना शुरु कर दें। हम भी क्या करें? डिस्क कनेक्शन और समाचार पत्र पत्रिकाओं पर भी बराबर पैसा खर्च करते हैं पर उनमें भी मजा नहीं आता। हम लिखते कैसा हैं यह तो बता देते हो कि वह बकवास है पर हम भी यह बता दें कि मनोरंजन और साहित्य पाठन की दृष्टि से हमारी पंसद बहुत ऊंची है। टीवी में हमारी पसंद कामेडी धारावाहिक ‘यस बोस’ और ताड़क मेहता का उल्टा चश्मा है तो किताबों की दृष्टि से अन्नपूर्णा देवी का स्वर्णलता प्रेमचंद का गोदान और श्री लालशुक्ल का राग दरबारी उपन्यास हमें बहुत पंसद है। उसके बाद हमारी पसंद माननीय हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी और नरेंद्र कोहली हैं। जब पढ़ने का समय मिलता है तब समाचार पत्र और पत्रिकाओं में अच्छी सामग्री ढूंढते हैं। नहीं मिलती तो गुस्सा आता है इसलिये ही लिखने बैठ जाते हैं तब बकवास ही लिखी जा सकती है यह हमें पता है।
हो सकता है कुछ लोग न कहें पर देश में आम आदमी की मानसिकता की हमें समझ है। पहले थोड़ा कम थी पर इंटरनेट पर लिखते हुए अधिक ही हो गयी है। सर्च इंजिनों में हिंदी फिल्म के अभिनेता और अभिनेत्रियों की अधिक तलाश होती है। उसके बाद पूंजीपति और किकेट खिलाड़ी भी अधिक ढूंढे जाते हैं। अगर हम क्रिकेट खिलाड़ी होते तो हमारा ब्लाग लाखों पाठक और हजारों टिप्पणियां जुटा लेता। फिल्मों में होते तो ब्लाग पर दस लाख पाठक और दस बीस हजार कमेंट एक पाठ पर आ जाते। क्रिक्रेट या फिल्मों पर गासिप लिखते पर क्या मजाल कोई लिख जाता कि बकवास। वहां तो लोग ऐसे कमेंट लगाते हैं जैसे कि उनके श्रद्धेय खिलाड़ी या अभिनेता की नजरें अब इनायत होती हैं। किसी पूंजीपति का ब्लाग होता तो प्रशंसा वाली कमेंट भी डालने में घबड़ाते कि कहीं लिखते हुए गलती होने पर फंस न जायें क्योंकि तब तो माफी की गुंजायश भी नहीं होती।

लब्बोलुआब यह है कि अधिकतर हिंदी पाठक केवल इसी बात की ताक में रहते हैं कि खास आदमी ने क्या लिखा है। उसका गासिप भी उनके लिये पवित्र संदेश होता है। जिनके पहनने, ओढ़ने, बाल रखने के तरीके के साथ चलने और नाचने की अदाओं को नकल करते हैं उनके बारे में ही पढ़ने में उनकी रुचि है। दोष भी किसे दें। पौराणिक हों या नवीन कथाओं में हमेशा ही माया के शिखर पर बैठने वालों को ही नायक बनाकर प्रस्तुत किया गया या फिर ऐसे लोगों को ही त्यागी माना गया जिन्होंने घरबार छोड़कर समाज की सेवा के लिये तपस्या की। पहले मायावी शिखर पुरुषों की संख्या कम थी इसलिये उनके किस्से पवित्र बन गये पर अब तो जगह जगह माया के शिखर और उस पर बैठे ढेर सारे लोग। पहले तो शिखर पुरुषों को आदमी अपने पास ही देख लेता था क्योंकि आतंकवाद का खतरा नहीं था। अब तो शिखर पुरुषों के आसपास कड़ी सुरक्षा होती है और द्वार के बाहर खड़ा उनका सेवक भी सम्मान पाता है। आम आदमी की हिम्मत नहीं होती कि उनके घर के सामने से निकल जाये।

इतने सारे आधुनिक शिखर पुरुषों की सफलता की कहानी पढ़ने के लिये समय चाहिये। उनके चेहरे टीवी, फिल्म, और पत्र पत्रिकाओं में रोज दिखते हैं। लोग देखते ही रह जाते हैं ऐसे में उनके बोले या लिखे शब्दों पर लोग मर मिटने को तैयार हैं। किसी समय आम आदमियों में चर्चा होती तो कुछ ज्ञानी लोग रहीम,कबीर तंुलसीदास के दोहे आपसी प्रसंगों में सुनाते थे अब धारावाहिकों और फिल्मों के डायलोग सुनाते हैं-वह आधुनिक विद्वान भी है जो फिल्म और क्रिकेट पर गासिप लिख और सुना सकता है। ‘जय श्री राम’ के मधुर उद्घोष से अधिक ‘अरे, ओ सांभा’ जैसा कर्णकटु शब्द अधिक सुनाई देता है।
हम ठहरे आम आदमी। आम आदमी होना ही अपने आप में बकवास है। न बड़ा घर, न कार, न ही कोई प्रसिद्धि-ऐसे में संतोष के साथ जीना कई लोगों को पड़ता है पर उसमें चैन की सांस लेकर मजे से लिखें या पढ़ें यह हरेक का बूता नहीं है। हर आम आदमी की आंख खुली है कि कहीं से माल मिल जाये पर उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो कभी कभी अपनी आंख वहां से हटाकर सृजनात्मक काम में लगाते हैं तब उनको भी यह पता होता है कि वह कोई खास आदमी नहीं बनने जा रहे। हम ऐसे ही जीवों में हैं।

पहले लिखते हुए कुछ मित्र मिले जो आज तक निभा रहे हैं। अब अंतर्जाल पर भी बहुत सारे मित्र हैं। हम सोचते हैं कि इस तरह उनसे संपर्क बना रहे इसलिये लिखते हैं। हो सकता है कि वह भी यही सोचते हों कि ‘सब बकवास है’ पर कहते नहीं । इससे हमारा भ्रम बना हुआ है और दोस्ती बनी रहे इसलिये वह ऐसी बात लिखते भी नहीं।
सच बात तो कहें कि हम लिखते हैं केवल अपने जैसे आम आदमी के लिये जो खास आदमी के सामने पड़कर अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहता या फिर उन तक पहुंचने का अवसर उसे नहीं मिलता। ऐसे में वह स्वयंभू लेखक होने का भ्रम पाकर लिखता चला जाता है। वैसे भ्रम में तो वह लोग भी है जो खास आदमी को अवतारी पुरुष समझकर उसकी तरफ झांकते रहते हैं कि कब उसकी दृष्टि पड़े तो हम अपने को धन्य समझें। उसकी दृष्टि पड़ जाये तो क्या हो जायेगा? सभी की देह पंचतत्वों से बनी है और एक दिन उसको मिट्टी में मिलना है।
सो जब तक जीना है तब तक अपने स्वाभिमान के साथ जियो। एक लेखक होने पर कम से कम इतना तो आदमी ही करता ही है कि वह अपने आसपास से जो आनंद प्राप्त करता है उसके बदले में वह अपने शब्द दाम के रूप में चुकाता है भले ही वह कुछ को विश्वास तो कुछ को बकवास लगते हैं पर बाकी दूसरे लोग तो बस जुटे हैं आनंद बटोरने में। कहीं उसकी कीमत नहीं चुकानी। कभी क्रिकेट तो कभी फिल्म-धारावाहिक की कल्पित कहानियों में मनोरंजन ढूंढता है अपने अंदर कुब्बत पैदा कर दूसरे का मनोरंजन करे ऐसा साहस कितने कर पाते है। बस अब इतनी ही बकवास ठीक है क्योंकि लिखने वालों को तो बस एक ही शब्द लिखना है तो हम क्यों इससे अधिक शब्द प्रस्तुत करें।
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स्वर्ग पाने के लिए संघर्ष-हिंदी लघुकथा


वहां सीधा शिखर था जिस पर आदमी सीधे स्वर्ग में पहुंच सकता था। शर्त यही थी कि उस शिखर पर बने उसी मार्ग से पैदल जाये तभी स्वर्ग का दरवाजा दिखाई देगा। ऐसा कहा जाता था कि उसी मार्ग से -जहां तक पहुंचना आसान नहीं था- जाने पर ही स्वर्ग का दरवाजा दिखाई देता है। उस शिखर पर कोई नहीं चढ़ सकता था। आसपास गांव वालों ने कभी कोशिश भी नहीं की क्योंकि उस शिखर पर चढने के लिये केवल जो इकलौता चढ़ाई मार्ग था उस तक पहुंचने के लिये बहुत बड़ी सीढ़ी चाहिये थी जो उनके लिये बनाना मुमकिन नहीं था। उसके बाद ही उसकी चढ़ाई आसान थी। उन ग्रामीणों ने अनेक लोगों को उनकी लायी सीढ़ी से ऊपर इस आशा में पहुंचाया था कि उसके बाद वह स्वयं भी चढ़ जायेंगे पर सभी लोग ऊपर पहुंचते ही सीढ़ी खींच लेते थे और ग्रामीण निराश हो जाते थे।
एक दिन एक बहुत धनीमानी आदमी सीधे स्वर्ग जाने के लिये वहां आया। उसके पास बहुत बड़ी सीढ़ी थी। इतनी लंबी सीढ़ी टुकड़ों में बनवायी और फिर वहां तक लाने के जाने के लिये उसने बहुत सारे वाहन भी मंगवाये। वहां पहुंचकर उसने उस सीढ़ी के सारे टुकड़े जुड़वाये। । वहां लाकर उसने गांव वालों से कहा-‘तुम लोग इसी सीढ़ी को पकड़े रहो। मैं तुम्हें पैसे दूंगा।’
गांव वालों ने कहा कि -‘पहले भी कुछ लोग आये और यहां से स्वर्ग की तरफ गये पर लौटकर मूंह नहीं दिखाया। इसलिये पैसे अग्रिम में प्रदान करो।’
उसने कहा कि‘पहले पैसे देने पर तुमने कहीं ऊपर चढ़ने से पहले ही गिरा दिया तो मैं तो मर जाऊंगा। इसलिये ऊपर पहुंचते ही पैसे नीचे गिरा दूंगा।’
तब एक वृद्ध ग्रामीण ने उससे कहा-‘मैं तुम्हारे साथ सीढ़ी चढ़ूंगा। जब तुम वहां उतर जाओगे तो पैसे मुझे दे देना मैं नीचे आ जाऊंगा।’
उस धनीमानी आदमी ने कहा-‘पर अगर तुम वहां उतर गये तो फिर नीचे नहीं आओगे। वैसे ही तुम मेरी तरह बूढ़े हो और स्वर्ग पाने का लालच तुम्हारी आंख में साफ दिखाई देता है। कहीं तुम उतर गये तो मुझे स्वर्ग जाने का दरवाजा नहीं मिलेगा। मैंने पढ़ा है कि आदमी को अकेले आने पर ही वहां पर स्वर्ग का दरवाजा मिलता है।
दूसरे ग्रामीण ने कहा-‘नहीं, यह हमारा सबसे ईमानदार है और इसलिये वैसे भी इसको स्वर्ग मिलने की संभावना है क्योंकि उस स्वर्ग के लिये कुछ दान पुण्य करना जरूरी है और वह कभी इसने नहीं किया। आप तो हमें दान दे रहे हो और इसलिये स्वर्ग का द्वारा आपको ही दिखाई देगा इसको नहीं। इसलिये यह पैसे लेकर वापस आ जायेगा।’
उस धनीमानी आदमी ने कुछ सोचा और फिर वह राजी हो गया।
जब वह वृद्ध ग्रामीण उस धनीमानी आदमी के पीछे सीढ़ी पर चढ़ रहा था तब दूसरा ग्रामीण जो सिद्धांतवादी था और उसने सीढ़ी पकड़ने से इंकार कर दिया था, वह उस वृद्ध ग्रामीण से बोला-‘शिखर यह हो या कोई दूसरा, उस पर केवल ढोंगी पहुंचते हैं। तुम इस आदमी को पक्का पाखंडी समझो। कहीं यह तुम्हें ऊपर से नीचे फैंक न दे। वैसे भी जो लोग यहां से गये हैं वह अपनी सीढ़ी भी खींच लेते हैं ताकि कोई दूसरा न चढ़ सके। यही काम यह आदमी भी करेगा।’
एक अन्य ग्रामीण ने कहा-‘यह आदमी भला लग रहा है, फिर बूढ़ा भी है। इसलिये सीढ़ी नहीं खींच पायेगा। फिर जब पैसे नीचे आ जायेंगे तब हम भी जाकर देखेंगे कि स्वर्ग कैसा होता है।’
वृद्ध ग्रामीण और वह धनीमानी आदमी सीढ़ी पर चलते रहे। जब वह धनीमानी आदमी ऊपर पहुंचा तो उसने तत्काल उस सीढ़ी को हिलाना शुरु किया तो वह वृद्ध ग्रामीण चिल्लाया‘यह क्या क्या रहे हो? मैं गिर जाऊंगा।’
वह धनीमानी आदमी बोला-‘तुम अगर बच गये तो यहां आने का प्रयास करोगे। यह सीढ़ी मुझे ऊपर खींचनी है ताकि कोई दूसरा न चढ़ सके। यह भी मैं किताब में पढ़कर आया हूं। तुम पैसे लेने के लिये ऊपर आओगे पर फिर तुम्हें नीचे फैंकना कठिन है। इसलिये भाई माफ करना अपने स्वर्ग के लिये तुम्हें नीचे पटकना जरूरी है बाकी सर्वशक्तिमान की मर्जी। वह बचाये या नहीं।’
बूढ़ा चिल्लाता रहा पर धनीमानी सीढ़ी को जोर से हिलाता रहा। जिससे वह नीचे गिरने लगा तो सीढ़िया पकड़े ग्रामीणों ने उसे बचाने के लिये वह सीढ़ी छोड़ दी और धनीमानी ने उसे खींच लिया। वह ग्रामीण नीचे आकर गिरा। गनीमत थी कि रेत पर गिरा इसलिये अधिक चोट नहीं आयी।’
वह चिल्ला रहा था‘सर्वशक्तिमान उसे स्वर्ग का रास्ता मत दिखाना। वह ढोंगी है।’
दूसरे समझदार वृद्ध ग्रामीण ने कहा-‘तुम लोग भी निरे मूर्ख हो। आज तक तुम्हें यह समझ में नहीं आयी कि जितने भी स्वर्ग चाहने वाले यहां आये कभी उन्होंने अपनी सीढ़ी यहां छोड़ी या हमें पैसे दिये? दरअसल ऊपर कुछ नहीं है। मेरे परदादा एक बार वहां से घूम आये थे। वह एक धनीमानी आदमी को लेकर वहां गये जो चलते चलते मर गया। मेरे परदादा ने यह बात लिख छोड़ी है कि उस शिखर पर स्वर्ग का कोई दरवाजा वहां नहीं है जहां यह रास्ता जाता है। बल्कि उसे ढूंढते हुए भूखे प्यासे लोग चलते चलते ही मर जाते हैं और हम यहां भ्रम पालते हैं कि वह स्वर्ग पहुंच गये। कुछ तो इसलिये भी वापस लौटने का साहस नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि हमारा पैसा नहीं दिया और हम उनको मार न डालें।’

चोट खाने और पैसा न मिल पाने के बावजूद वह वृद्ध ग्रामीण उस समझदार से कहने लगा-‘तुम कुछ नहीं जानते। ऊपर स्वर्ग का दरवाजा है। आखिर लोग यहां आते हैं। जब ऊपर पहुंचकर लौटते ही नहीं है तो इसका मतलब है कि स्वर्ग ऊपर है।’
एक अन्य ग्रामीण बोला-‘ठीक है। इंतजार करते हैं कि शायद कोई भला आदमी यहां आये और हमें सीढ़ी नसीब हो।’
समझदार ग्रामीण ने कहा-‘भले आदमी को तो स्वर्ग बिन मांगे ही मिल जाता है इसलिये जो यहां स्वर्ग पाने आता है उसे ढोंगी ही समझा करो।’
मगर ग्रामीण नहीं माने और किसी भले आदमी की बाट जोहने लगे।
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बदलाव कौन लाएगा-हास्य व्यंग्य


वहां महफिल जमी हुई थी। अनेक विद्वान समाज की समस्याओं पर विचार करने के लिये एकत्रित हो गये थे। एक विद्वान ने कहा-हम चलते तो रिवाजों की राह है पर बदलाव की बात करते हैं। यह दोहरा चरित्र छोड़ना पड़ेगा।’
दूसरे ने पूछा-‘क्या हमें शादी की प्रथा छोड़ देना चाहिए। यह भी एक रिवाज है जिसे छोड़ना होगा।
तीसरे विद्वान ने कहा-‘नहीं यह जरूरी रिवाज है। इसे नहीं छोड़ा जा सकता है।’
दूसरे ने कहा-‘तो हमें किसी के मरने पर तेरहवीं का प्रथा तो छोड़नी होगी। इस पर अमीर आदमी तो खर्च कर लेता है पर गरीब आदमी नहीं कर पाता। फलस्वरूप गरीब आदमी के मन में विद्रोह पनपता है।’

पहले ने कहा-‘नहीं! इसे नहीं छोड़ा जा सकता है क्योंकि यह हमारे समाज की पहचान है।’
दूसरे ने कहा-‘पर फिर हम समाज में बदलाव किस तरह लाना चाहते हैं। आखिर हम रीतिरिवाजों की राह पर चलते हुए बदलाव की बात क्यों करते हैं। केवल बहसों में समय खराब करने से क्या फायदा?’
वहां दूसरे विद्वान भी मौजूद थे पर बहस केवल इन तीनों में हो रही था और सभी यही सोच रहे थे कि यह चुप हों तो वह कुछ बोलें। उनके मौन का कारण उन तीनों की विद्वता नहीं बल्कि उनके पद, धन और बाहूबल थे। यह बैठक भी पहले विद्वान के घर में हो रही थी।
पहले ने कहा-‘हमें अब अपने समाज के गरीब लोगों का सम्मान करना शुरु करना चाहिये। समाज के उद्योगपति अपने यहां कार्यरत कर्मचारियों और श्रमिकों, सेठ हैं तो नौकरों और मकान मालिक हैं तो अपने किरायेदारों का शोषण की प्रवृत्ति छोड़कर सम्मान करना चाहिये। घर में नौकर हों तो उनको छोटी मोटी गल्तियों पर डांटना नहीं चाहिये।’

पहले विद्वान के घर पर बैठक हो रही थी वहां पर उनका एक घरेलू नौकर सभी को पानी और चाय पिला रहा था। वह ट्रे में रखकर अपने मालिक के पास पानी ले जा रहा था तो उसका पांव वहां कुर्सी से टकरा गया और उसके ग्लास से पानी उछलता हुआ एक अन्य विद्वान के कपड़ों पर गिर गया। उसकी इस गलती पर वह पहला विद्वान चिल्ला पड़ा-अंधा है! देखकर नहीं चलता। कितनी बार समझाया है कि ढंग से काम किया कर। मगर कभी कोई ढंग का काम नहीं करता।
नौकर झैंप गया। वहां एक ऐसा विद्वान भी बैठा था जो स्वभाव से अक्खड़ किस्म का था। उसने उस विद्वान से कहा-‘आखिर कौनसे रिवाजों की राह से पहले उतरे कौन?’
पहला विद्वान बोला-‘इसका मतलब यह तो बिल्कुुल नहीं है कि अपने से किसी छोटे आदमी को डांटे नहीं।’
चौथे विद्वान ने कहा-‘सभी के सामने इसकी जरूरत नहीं थी। वैसे मेरा सवाल तो यह है कि आपने यह बैठक बुलाई थी समाज में बदलाव लाने के विषय पर। बिना रिवाजों की राह से उतर वह संभव नहीं है।’
पहले विद्वान ने कहा-‘हां यह तो तय है कि पुराने रिवाजों के रास्ते से हटे बिना यह संभव नहीं है पर ऐसे रिवाजों को नहीं छोड़ा जा सकता है जिनसे हमारी पहचान है।’
चौथे ने कहा-‘पर कौनसे रिवाज है। उनके रास्ते से पहले हटेगा कौन?
पहले ने कहा-‘भई? पूरो समाज के लोगों को उतरना होगा।
दूसरे ने कहा-‘पहले उतरेगा कौन?’
वहां मौन छा गया। कुछ देर बाद बैठक विसर्जित हो गयी। वह नौकर अभी भी वहां रखे कप प्लेट और ग्लास समेट रहा था। बाकी सभी विद्वान चले गये पर पहला और चैथा वहीं बैठे थे। चौथे विद्वान ने उस लड़के हाथ में पचास रुपये रखे और कहा-‘यह रख लो। खर्च करना!’
पहला विद्वान उखड़ गया और बोला-‘मेरे घर में मेरे ही नौकर को ट्रिप देता है। अरे, मैं इतने बड़े पद पर हूं कि वहां तेरे जैसे ढेर सारे क्लर्क काम करते हैं। वह तो तुझे यहां इसलिये बुला लिया कि तू अखबार में लिखता है। मगर तू अपनी औकात भूल गया। निकल यहां से!’
उसने नौकर से कहा-‘इसका पचास का नोट वापस कर। इसकी औकात क्या है?’
उस नौकर ने वह नोट उस चैथे विद्वान की तरफ बढ़ा दिया। चैथे विद्वान ने उससे वह नोट हाथ में ले लिया और जोर जोर से हंस पड़ा। पहला बोला-‘देख, ज्यादा मत बन! तु मुझे जानता नहीं है। तेरा जीना हराम कर दूंगा।’
चैथे ने हंसते हुए कहा-‘कल यह खबर अखबार में पढ़ना चाहोगे। यकीनन नहीं! तुम्हें पता है न कि अखबार में मेरी यह खबर छप सकती है।’
पहला विद्वान ढीला पड़ गया-‘अब तुम जाओ! मुझे तुम्हारे में कोई दिलचस्पी नहीं है।’
चौथे ने कहा-‘मेरी भी तुम में दिलचस्पी नहीं है। मैं तो यह सोचकर आया कि चलो बड़े आदमी होने के साथ तुम विद्वान भी है, पर तुम तो बिल्कुूल खोखले निकले। जब तुम रिवाजों की राह से पहले नहीं उतर सकते तो दूसरों से अपेक्षा भी मत करो।’
चौथा विद्वान चला गया और पहला विद्वान उसे देखता रहा। उसका घरेलू नौकर केवल मौन रहा। वह कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं सका। उसका मौन ही उसके साथ रहा।
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क्रिकेट मैच में रीटेक-हास्य व्यंग्य


वह अभिनेता अब क्रिकेट टीम का प्रबंधक बन गया था। उसकी टीम में एक मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी भी था जो अपनी बल्लेबाजी के लिये प्रसिद्ध था। वह एक मैच में एक छक्के की सहायता से छह रन बनाकर दूसरा छक्का लगाने के चक्कर में सीमारेखा पर कैच आउट हो गया। अभिनेता ने उससे कहा-‘ क्या जरूरत थी छक्का मारने की?’
उस खिलाड़ी ने रुंआसे होकर कहा-‘पिछले ओवर में मैने छक्का लगाकर ही अपना स्कोर शुरु किया था।
अभिनेता ने कहा-‘पर मैंने तुम्हें केवल एक छक्का मारकर छह रन बनाने के लिये टीम में नहीं लिया है।’
दूसरे मैच में वह क्रिकेट खिलाड़ी दस रन बनाकर एक गेंद को रक्षात्मक रूप से खेलते हुए बोल्ड आउट हो गया। वह पैवेलियन लौटा तो अभिनेता ने उससे कहा-‘क्या मैंने तुम्हें गेंद के सामने बल्ला रखने के लिये अपनी टीम में लिया था। वह भी तुम्हें रखना नहीं आता और गेंद जाकर विकेटों में लग गयी।’
तीसरे मैच में वह खिलाड़ी 15 रन बनाकर रनआउठ हो गया तो अभिनेता ने उससे कहा-‘क्या यार, तुम्हें दौड़ना भी नहीं आता। वैसे तुम्हें मैंने दौड़कर रन बनाने के लिये टीम में नहीं रखा बल्कि छक्के और चैके मारकर लोगों का मनोरंजन करने के लिये टीम में रखा है।’
अगले मैच में वह खिलाड़ी बीस रन बनाकर विकेटकीपर द्वारा पीछे से गेंद मारने के कारण आउट (स्टंप आउट) हो गया। तब अभिनेता ने कहा-‘यार, तुम्हारा काम जम नहीं रहा। न गेंद बल्ले पर लगती है और न विकेट में फिर भी तुम आउट हो जाते हो। भई अगर बल्ला गेंद से नहीं लगेगा तो काम चलेगा कैसे?’
उस खिलाड़ी ने दुःखी होकर कहा-‘सर, मैं बहुत कोशिश करता हूं कि अपनी टीम के लिये रन बनाऊं।’
अभिनेता ने अपना रुतवा दिखाते हुए कहा-‘कोशिश! यह किस चिड़िया का नाम है? अरे, भई हमने तो बस कामयाबी का मतलब ही जाना है। देखो फिल्मों में मेरा कितना नाम है और यहां हो कि तुम मेरा डुबो रहे हो। मेरी हर फिल्म हिट हुई क्योंकि मैंने कोशिश नहीं की बल्कि दिल लगाकर काम किया।’
उस क्रिकेट खिलाड़ी के मूंह से निकल गया-‘सर, फिल्म में तो किसी भी दृश्य के सही फिल्मांकन न होने पर रीटेक होता है। यहां हमारे पास रीटेक की कोई सुविधा नहीं होती।’
अभिनेता एक दम चिल्ला पड़ा-‘आउठ! तुम आउट हो जाओ। रीटेक तो यहां भी होगा अगले मैच में तुम्हारे नंबर पर कोई दूसरा होगा। नंबर वही खिलाड़ी दूसरा! हुआ न रीटेक। वाह! क्या आइडिया दिया! धन्यवाद! अब यहां से पधारो।’
वह खिलाड़ी वहां से चला गया। सचिव ने अभिनेता से कहा-‘आपने उसे क्यों निकाला? हो सकता है वह फिर फार्म में आ जाता।’
अभिनेता ने अपने संवाद को फिल्मी ढंग से बोलते हुए कहा-‘उसे सौ बार आउट होना था पर उसकी परवाह नहीं थी। वह जीरो रन भी बनाता तो कोई बात नहीं थी पर उसने अपने संवाद से मेरे को ही आउट कर दिया। मेरे दृश्यों के फिल्मांकन में सबसे अधिक रीटेक होते हैं पर मेरे डाइरेक्टर की हिम्मत नहीं होती कि मुझसे कह सकें पर वह मुझे अपनी असलियत याद दिला रहा था। नहीं! यह मैं नहीं सकता था! वह अगर टीम में रहता तो मेरे अंदर मेरी असलियत का रीटेक बार बार होता। इसलिये उसे चलता करना पड़ा।’
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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वफ़ा के भी होते हैं रस और रंग अलग अलग-व्यंग्य कविता


ऊंचे सिंहासन पर
बैठे इतना न इतराओ
अपने पास लगी भीड़ को
अपना भक्त न बताओ
जब गिरोगे वहाँ से
सब पास खड़े लोग, दूर हो जायेंगे
यह पूज रहे हैं उस सिंहासन को
जिस पर तुम बैठे हो
दिखा रहे हैं जैसे तुम ही भगवान् हो
पर तुम्हारे बाद भी दूसरे लोग
इस आसन पर बैठने आयेंगे
यही भक्त
तुम्हारा नाम भूलकर
उनको पूजने लग जायेंगे
लोग खेलते हैं अपनी भावनाओं से
तुम मत बहलना
खेलती हैं माया
लोग ख़ुद खेलने का वहम पाल लेते हैं
दिखावे के रिश्ते में वफ़ा का रस भर देते हैं
जुबान पर कुछ और है और दिल में कुछ और
इस जहाँ में झूठ ही बनता है सिरमौर
जिन्दगी का सत्य समझ जाओ
————————————–
अपनी जेब में पैसा हो तो
अनजान भी जोड़ने लग जाते हैं रिश्ते
अगर नहीं हो अपने पास कौडी
तो करीब के भी लोग भूल जाते हैं
वफ़ा बिकती है बाज़ार में
सस्ती या महंगी हो
उसके रस और रंग भी अलग अलग दिखते

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ब्लागर सरकार पर एसा वैसा मत लिख देना-हास्य व्यंग्य


सर्दी की सुबह चाय पीने के बाद ब्लागर कोहरे में घर से बाहर निकला। उसका शरीर ठंड से कांप रहा था पर चाय पीने से जो पेट मं गैस बनती है उससे निपटने का ब्लागर के पास यही एक नुस्खा था कि वह बाहर टहल आये। वह थोड़ा दूर चला होगा तो उसे कालोनी के नोटिस बोर्ड पर एक पर्चा चिपका दिखाई दिया। वह उसे देखकर कर अनेदखा कर निकल जाता पर उसे लगा कि कहीं ब्लागर शब्द लिखा हुआ है। वह सोच में पड़ गया कि यह आखों का वहम होगा। भला यहां कौन जानता है ब्लागर के बारे में। फिर वह रुककर उस पर्चे के पास गया और उसे पढ़ने लगा। उस पर लिखा था कि

‘आज ब्लागर सरकार की दरबार पर विशेष कार्यक्रम होगा। सभी इंटरनेट धार्मिक बंधुओं से निवेदन है कि वहां पहुंचकर लाभ उठावें । इस अवसर पर ब्लागर सरकार की विशेष आरती होगी उसके बाद समस्त धार्मिक बंधुओं को ज्योतिष,विज्ञान,तकनीकी तथा वैवाहिक ब्लाग तथा वेबसाईटों की जानकारी दी जायेगी। ब्लागर सरकार की पूजा से अनेक लोगों ने इंटरनेट पर हिट पाये हैं और उनके प्रवचन भी इस अवसर पर आयोजित किये जायेंगे। स्थान-नीली छतरी, दो पुलों के बीच, घाटी के बगल में। निवेदक ब्लागर स्वामी।

ब्लागर का माथा ठनका। वह भागा हुआ घर लौटा। गृहस्वामिनी ने कहा-‘क्या बात है इतनी जल्दी लौट आये। क्या सर्दी सहन नहीं हुई। मैंने पहले ही कहा था कि बाहर मत जाओ।’
ब्लागर ने कहा-‘यह बात नहीं हैं। मैं साइकिल पर जा रहा हूं थोड़ा दूर जाना होगा। वह जो दूसरा ब्लागर है न! उसने शायद कोई ब्लागर सरकार का दरबार के नाम से कुछ बनाया है। इतने दिन से आया नहीं हैं। मैं समझ गया था कि वह कुछ न कुछ करता होगा।
गृहस्वामिनी ने कहा-‘वह क्यों ब्लागर सरकार का दरबार बनायेगा। उसके सामने तो वैसे ही सर्वशक्तिमान का पुराना बना बनाया दरबार है जहां उसकी महफिल जमती है।’
ब्लागर ने कहा-‘पर ठिकाना वही है। जरूर वह कुछ गड़बड़ कर रहा है। मैं जाता हूं। यह दरबार उसी का होना चाहिये। उसने कोई नया बखेड़ा खड़ा किया होगा। वह बहुत दिनों से उस दरबार में भक्तों के जमावड़े और चढ़ावा बढ़ाने की योजनायें बन रहा है।
गृहस्वामिनी ने कहा-‘तो फिर स्कूटर ले जाओ।’
ब्लागर अपने पुराने स्कूटर की तरफ झपटा तो गृहस्वामिनी ने कहा-‘अब इस पुराने स्कूटर को मत ले जाओ। नया स्कूटर ले जाओ। वैसे ही वहां भीड़ होगी और वह मजाक बनायेगा। उसके नये दरबार में अपनी भद्द मत पिटवाओ।
ब्लागर ने अपना नया स्कूटर लिया। रास्ते में उसका कालोनी का एक मित्र टिप्पणी स्वामी मिल गया। उसे जब ब्लागर ने अपनी बात बताई तो वह भी उसके साथ हो लिया। स्कूटर पर बैठते हुए वह बोला-‘वैसे तो वह तुम और वह दोनों फालतू हो पर क्योंकि स्कूटर तुम्हारा है और पेट्रोल भी तो साथ चलता हूं। मेरा घूमना फ्री में हो जायेगा इसलिये साथ चल रहा हूं।’
दोनों स्कूटर पर सवाल होकर साढ़े तीन मिनट में-टिप्पणी स्वामी की वहां पहुंचते ही दी गयी टिप्पणी के अनुसार-वहां पहुंच गये। ब्लागर का संदेह ठीक था। दूसरे ब्लागर ने अपने सामने बने पुराने दरबार पर पहले ही कब्जा कर रखा था और उसके आंगन में खाली पड़ी जमीन पर बना दिया था ‘ब्लागर सरकार का दरबार’।
ब्लागर अपना स्कूटर सीधे अंदर ले गया। वहां एक आदमी तौलिया पहने दांतुन कर रहा था। उसने सिर से ठोढ़ी तक टोपा तथा शरीर पर भारीभरकम पुराना स्वेटर पहनकर रखा था। मूंह में दातुन रखे ही उसने ब्लागर की तरफ उंगली उठाकर कहा-‘उधर रखो। इधर स्कूटर कहां रख रहे हो। यह ब्लागर सरकार का दरबार है।’
ब्लागर उसे घूर कर देख रहा था। टिप्पणी स्वामी ने उससे कहा-‘अरे, भाई यह ब्लागर सरकार का दरबार है और हमारे यह मित्र ब्लागर हैं। इस दरबार का जो स्वामी है वह इनका खास मित्र है। जाओ उसे बुलाओ। ब्लागरों का स्कूटर भी खास होता है।’

जानता हूं। जानता हूं। इसका नया स्कूटर तो क्या पुरानी साइकिल भी खास होती है।’ यह कहकर वह आदमी कुल्ला करने गया। इधर पहले ब्लागर ने टिप्पणी स्वामी से कहा-‘अरे, तुमने पहचाना नहीं यही है वह ब्लागर स्वामी। अब लौटते ही शाब्दिक आक्रमण करेगा।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘अरे, यार मैंने उसे एक बार ही देखा है। तुम तो अक्सर उससे मिलते हो।’

उधर से दूसरा ब्लागर लौटा और पहले ब्लागर से बोला-‘यह कौन कबूतर पकड़ लाये? जो मुझे बता रहा है कि तुम्हारा स्कूटर खास है?
पहले ब्लागर ने कहा-‘यह टिप्पणी स्वामी है। कभी कभार टिप्पणी देता है। हालांकि जबसे इसके मकान की उपरी मंजिल बनना शुरू हुई तब से इसकी पत्नी इसे इंटरनेट पर काम नहीं करने देती इसलिये वह भी अब बंद है। बहरहाल यह ब्लागर सरकार के दरबार का क्या चक्कर है।’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘चक्कर क्या है? अधार्मिक कहीं के। तुम अपनी टांग क्यों फंसाने आ गये? तुम तो अध्यात्मिक ज्ञान और धर्म को अलग अलग मानते हो न! क्या जानो धर्म के बारे में। चक्कर नहीं है। यह मेरीे श्रद्धा और आस्था है। उस दिन रात को सपने में ब्लागर सरकार के दर्शन हुए और उन्होंने बताया कि उनकी स्थापना करूं! आजकल इंटरनेट के समय लोग सर्वशक्तिमान के सभी नाम और स्वरूपों को पुराना समझते हैं इसलिये उन्होंने मुझे इस नये स्वरूप की स्थापना का संदेश दिया। वैसे तुम यहां निकल लो क्योंकि तुम अपने ब्लाग पर मूर्तिपूजा के विरुद्ध लिखते रहते हो जबकि चाहे जिस दरबार में मूंह उठाये पहुंच जाते हो। हमारा चरित्र तुम्हारी तरह दोहरा नहीं है।’
टिप्पणी स्वामी ने पहले ब्लागर से कहा-‘यार, यह तो तुम्हें काटने दौड़ रहा है। इसे मालुम नहीं कि तुम अध्यात्म के विषय पर लिखते हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘कोई बात नहीं। इस बिचारे का दोष नहीं है। बहुत व्यस्त आदमी है इसलिये इसे पढ़ने का अवसर नहीं मिलता।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-वैसे तुम पढ़ने लायक लिखते क्या हो जिसे मैं पढ़ूं। वैसे इस नये स्कूटर का मुहूर्त करने यहां आये हो क्या? यह केवल खाली हाथ मुझे दिखाकर क्या दिखाना चाहते होे। वैसे मैंने तुम्हें उस दिन नये स्कूटर पर देख लिया था। अब बताओ यहां किसलिये आये हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘तुम्हारे इस दरबार का पर्चा अपनी कालोनी में पढ़ा। मुझे लगा कि यह तुम्हारा कोई नया स्वांग है जिसे देखने चला आया।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘हां, तुमसे यही उम्मीद थी। तुम मेरी धार्मिक भावनाओं को आहत कर रहे हो। वैसे तुम चाहे कितना भी लिखो जब तक ब्लाग स्वामी की कृपा नहीं होगी तब तक तुम हिट नहीं हो सकते।’
पहला ब्लागर-‘ठीक है पहले तुम्हारे ब्लागर सरकार की मूर्ति अंदर चलकर देख लें।’
दूसरा ब्लागर बोला-नहीं। तुम जैसे नास्तिकों का अंदर प्रवेश वर्जित है।’
टिप्पणीकार बोला-‘मैं तो अस्तिक हूं। अंदर जाकर देख सकता हूं न!
दूसरा ब्लागर बोला-‘नहीं! तुम इसके साथी हो। नास्तिक का साथी भी नास्तिक ही होता है मेरे सामने तुम्हारा यह पाखंड नहीं चल सकता।’
पहला ब्लागर बोला-‘ठीक है। अंदर क्या जाना? यहीं से पूरी तस्वीर दिख रही है। यह पत्थर की है न!
दूसरा ब्लागर-‘नहीं प्लास्टिक की है। आर्डर देकर बनवाई है।
पहला ब्लागर बोला-‘यार, फिर तुम मुझसे नाराज क्यों होते हो? मैंने तो कभी प्लास्टिक की मूर्तियों की पूजा करने से तो रोका नहीं है। वैसे यह डिजाइन तो ठीक है।’
दूसरा ब्लागर-‘‘हां, डिजाइन पर अधिक पैसा खर्च हुआ है जो भक्तों के चंदे से मिले हैं। जैसे सपने में डिजाईन जैसी देखी थी वैसी ही बनवाई है।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘यह डिजाईन तो शायद मैंने किसी पत्रिका में देखा था। फिर पैसे किस पर खर्च हुए। लगता है किसी ने ठग लिया।’
दूसरा ब्लागर-टिप्पणी स्वामी! तुम अपनी बेतुकी टिप्पणियां करने बाज आओ। कहीं ब्लागर सरकार नाराज हो गये तो तुम्हारा इस दोस्त को एकाध टिप्पणी मिलती है उससे भी तरस जायेगा। मकान बनने के बाद भी तुम्हारी पत्नी तुम्हें इंटरनेट पर काम करने नहंी देगी।
दोनों मूर्तियां देखने लगे। कंप्युटर के उपर रखे कीबोर्ड पर अपने दोनों हाथों की उंगलियां रख ेएक चूहा बैठा मुस्कराने की मुस्कराने की मुद्रा में था। कंप्यूटर से जुड़ी हर सामग्री को वहां दिखाया गया था। कंप्यूटर की स्क्रीन पर लिखा था ब्लागर सरकार।

टिप्पणीकार ने धीरे से कहा-‘यह चूहा और कीबोर्ड कंप्यूटर के ऊपर क्यों रखा हुआ है।’
दूसरा ब्लागर चीखा-‘चूहा! अरे, यही तो हैं ब्लागर स्वामी! तुम कुछ तो सोचकर बोला करो। अपने इस दोस्त के चक्कर में तुम भी वैसी ही बेहूदा टिप्पणियां कर रहे हो जैसे यह पाठ लिखता है।’
पहला ब्लागर अभी प्लास्टिक की मूर्ति को घूर रहा था। फिर बोला-‘मैंने अपनी कालोनी में एक पहचान वाले के यहां ऐसी ही मूर्ति देखी थी। वह बता रहे थे कि उन्होंने यह कबाडी को बेची थी।’
दूसरा ब्लागर’-‘तुम क्या कहना चाहते हो कि मैंने यह कबाड़ी से खरीदी थी। अब तुम जाओ। यार, तुम मेरा समय खोटी कर रहे हो। अब यहां भक्तों के आने का समय हो गया है। यहां पर मैंने लोगों को ज्योतिष,चैट,विवाह तथा नौकरी में मदद देने के लिये असली कंप्यूटर लगा रखे हैं। वह भक्त आते होंगे।
पहले ब्लागर ने देखा कि टीन शेड से बने केबिन थे जहां कंप्यूटर रखे दिख रहे थे। दूसरा ब्लागर बोला-‘जैसे जैसे भक्तों के कमेंट आते जायेंगे वैसे वैसे दरबार का विकास होता जायेगा।’
ब्लागर और टिप्पणी स्वामी ने आश्चर्य से पूछा-‘कमेंट!
दूसरा ब्लागर बोला-‘कमेंट यानि चढ़ावा। अरे, इतने दिन से ब्लागिंग कर रहे हो तुम्हें मालुम नहीं कि कमेंट भी चढ़ावे की तरह होता है और प्रसाद भी! वैसे तुम क्या समझोगे? तुम्हारे पाठ पढ़ता कौन है? जो कमेंट लगायेगा।’
दूसरा ब्लागर मूर्ति तक गया और वहां से लड्ड्ओं की थाली ले आया। उस एक लड्ड् के दो भाग किये। एक भाग अपने मूंह में रख गया। फिर दूसरे भाग के दो भाग कर उसका एक भाग अपने मूंह में रख लिया और बाकी के दो भागों में एक पहले ब्लागर को दूसरा टिप्पणी स्वामी को देते हुए बोला-तुम दोनों तो हो नास्तिक। फिर भी यह थोड़ा थोड़ा प्रसाद खा लो। कल हमारे यहां एक लड़के को इंटरनेट पर चैट करते समय अपनी गर्लफ्रैंड का पहला ईमेल मिला तो उसने मन्नत पूरी होने पर यह लड्डूओं की कमेेंट चढ़ा गया।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘इसकी क्या जरूरत थी। हम तो ब्लागर सरकार के दर्शन कर वैसे ही बहुत खुश हो गये।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘चुपचाप खालो टिप्पणी स्वामी! वरना इससे भी जाओगे।
फिर उसने दूसरे ब्लागर से पूछा-‘वह तुम्हारा विशेष कार्यक्रम कब है?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘परसों हो गया। क्या तुमने उस पर्चे में तारीख नहीं पढ़ी थी।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘यार, जोश में होश नहीं रहा। अच्छा हम दोनों चलते हैं।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘बहुत मेहरबानी! अब मैं ब्लाग सरकार की विशेष आरती करूंगा। ब्लाग सरकार की मेहरबानी हो तो अच्छा अच्छे कमेंट आयेंगे तो तुम दोनों की शक्लें देखने से जो बुरा टोटका हो गया उसको मिटाने के लिये यह जरूरी है। और हां! ब्लागर सरकार पर कुछ एैसा-वैसा मत लिख देना।’

पहला ब्लागर और टिप्पणी स्वामी स्कूटर से वापस लौटने लगे। टिप्पणी स्वामी ने पहले ब्लागर से पूछा-‘तुम इस पर कुछ लिखोगे।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘हां, हास्य व्यंग्य!
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘पर उसने मना किया था न! कहा था कि ब्लागर सरकार पर कुछ एैसा-वैसा मत लिख देना।’
पहले ब्लागर ने स्कूटर रोक दिया और बोला-‘यार, उसने हास्य व्यंग्य लिखने से मना तो नहीं किया था! चलो लौटकर फिर भी पूछ लेते हैं।’
टिप्पणीकार हैरान होकर उसकी तरफ देखने लगा। फिर पहले ब्लागर ने कहा-‘अगली बार पूछ लूंगा।
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‘एक स्कूटर ब्लागर के ऊपर’-हास्य व्यंग्य


ब्लागर सड़क पर अपने स्कूटर से जा रहा था। सड़क ऊबड़ खाबड़ थी और ब्लागर और स्कूटर दोनों ही हांफते हुए बढ़ रहे थे कि अचानक एक गड्ढा आया और स्कूटर ने झटका खाया और अब वह आधा जमीन पर आधा अपने सवार ब्लागर के ऊपर था।

वह सड़क मुख्य सड़क से दूर थी इसलिये वहां अधिक भीड़ भाड़ नहीं थी। जमीन पर गिरे ब्लागर ने अपने ऊपर से स्कूटर उठाने का प्रयास करने से पहले अपने अंगों का अध्ययन किया तो पाया कि कहीं कोई चोट नहीं थी। अब वह जल्दी जल्दी अपने ऊपर से स्कूटर उठाने का प्रयास करने लगा कि कहीं कोई आदमी उसे गिरा हुआ देख न ले। अपने गिरने के दर्द से अधिक आदमी को इस बात की चिंता सताती है कि कोई उसे संकट में पड़ा देखकर हंसे नहीं।

ब्लागर ने अपने ऊपर से स्कूटर का कुछ भाग हटाया ही था कि उसके कानों में आवाज गूजी-‘क्या यहां रास्तें बैठकर स्कूटर पर कोई कविता या चिंतन लिख रहे हो?’
ब्लागर ने पलटकर देखा तो उसके होश हवास उड़ गये। एक तरह से उसके लिये यह दूसरी दुर्घटना थी। दूसरा ब्लागर खड़ा था। गिरे हुए पहले ब्लागर ने कहा-‘यार, यह गड्ढा सामने आ गया था तो मेरे स्कूटर का संतुलन बिगड़ गया।

दूसरे ब्लागर ने हाथ नचाते हुए कहा-‘स्कूटर का संतुलन बिगड़ा कि तुम्हारा? स्कूटर के पास दिमाग नहीं होता जो उसका संतुलन बिगड़े। तुम्हारे दिमाग का संतुलन बिगड़ा तो ही तुम यहां गिरे। अपना दोष स्कूटर पर मत डालो

पहले ब्लागर ने कहा-‘यार, तुम्हें शर्म नहीं आती। इस हालत में स्कूटर मेरे ऊपर से हटाने की बजाय अपनी कमेंट लगाये जा रहे हो।’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘वैसे तो मेरा काम कमेंट लगाना है तुम्हारे ऊपर से स्कूटर हटाने का नहीं। अब हटा ही देता हूं पर इस बारे में तुम अपने ब्लाग पर लिखना जरूर कि मैंने तुम्हारी मदद की! हां पर कमेंट का आग्रह नहीं करना।’
इस बात पर पहले ब्लागर को गुस्सा आ गया और उसने उसकी सहायता के बिना ही स्कूटर अपने ऊपर से हटा लिया और खड़ा हो गया और बोला-‘तुम्हें तो मजाक ही सूझता है।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘देखो मुझे कभी मजाक करना तो आता ही नहीं वरना मैं तुम्हारी तरह फूहड़ हास्य कवितायें लिखता। बहुत गंभीरता से कह रहा हूं कि तुम स्कूटर चलाना पहले सीख लो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘तुम मुझे स्कूटर सीखने के लिये कह रहे हो। दस वर्ष से यह स्कूटर चला रहा हूं। यह गड्ढा ऐसी जगह हो गया है कि इससे दूर निकलना कठिन था। इसलिये गिर गया, समझे।
दूसरा ब्लागर ने कहा-‘पर यह गड़ढा तो कई दिनों से है और तुम और हम कितनी बार यहां से निकल जाते हैं। वैसे तुम्हारा स्कूटर पुराना है इसलिये गिर गया उसे भी सड़क पर चलते हुए शर्म आती होगी। इतनी नयी और प्यारी गाडि़यां सड़क पर चलती हैं तो इस बूढ़े स्कूटर को शर्म आती ही होगी। कोई नया स्कूटर खरीद लो! क्यों पैसे की बचत कर अपने को कष्ट पहुंचा रहे हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘नया स्कूटर क्या गड्ढे में नहीं गिरेग?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘तो कोई कार खरीद लो। अरे ,भई अपने आपको दुर्घटना से बचाओ। कहीं अधिक चोट लग गयी तो परेशान हो जाओगे। अच्छा अब मैं चलता हूं। ध्यान से जाना आगे और भी गड्ढे हैं। अभी तो तुम्हारी किस्मत अच्छी थी जो मैं आ गया। और हां इस दुर्घटना पर अगर लिखो तो यह जरूर लिखना कि मैंने आकर तुम्हें बचाया।’
पहले ब्लागर ने गुस्से में पूछा-‘तुमने आकर मुझे बचाया। क्या बकवाद करते हो?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-’अगर मैं आकर तुम्हें गुस्सा नहीं दिलवाता तो शायद तुम पूरी ताकत से स्कूटर को नहीं हटा पाते।‘
दूसरा ब्लागर चला गया। पहले ब्लागर ने स्कूटर पर किक लगायी पर वह शुरू नहीं हुआ। तब वह उसे घसीटता हुआ मरम्मत की दुकान तक लाया। वहां उसका परिचित एक डाक्टर भी अपनी मोटर साइकिल की मरम्मत करवा रहा था। ब्लागर को देखते हुए बोला-‘क्या बात है? ऐसे स्कूटर खींचे चले आ रहे हो?’
ब्लागर ने कहा-‘खराब हो गया है।’
डाक्टर ने कहा-’स्कूटर पुराना हो गया। कोई नया खरीद लो।’
ब्लागर ने कहा-‘नया स्कूटर क्या खराब नहीं होगा? तुम्हारी यह दो साल पुरानी मोटर साइकिल भी तो आज खराब हुई। वैसे मैं इसे तुम्हें दूसरी या तीसरी बार बनवाते हुए देख रहा हूं।’
डाक्टर से बातचीत हो ही रही थी कि दूसरा ब्लागर किसी दूसरे के साथ उसके स्कूटर पर बैठ कर वहां से निकल रहा था। उसने जब पहले ब्लागर को वहां देखा तो उसने अपने साथी को वही रुकने के लिये कहा और उसे दूर खड़ाकर वहां आया जहां डाक्टर और पहला ब्लागर खड़े थे। डाक्टर भी उसे जानता था। उसने डाक्टर को देखकर कहा-’सर, आप अपनी गाड़ी बनवा रहे हैं उसमें समय लगेगा। यह मेरा मित्र है स्कूटर समेत एक गड्ढे में गिर गया था। यह घसीटता हुआ स्कूटर यहां तक लाया है। आप जरा इसके अंगों का निरीक्षण करें और देखें कि कहीं कोई गंभीर चोट तो नहीं आयी। यह सड़क पर गिरा हुआ था। स्कूटर इसके ऊपर था। मैंने उसे हटाया और फिर इसे उठाया। वहां से चला गया पर मेरा मन नहीं माना। अपने इस पड़ौसी से अनुरोध कर उसे स्कूटर पर ले आया कि देखूं कहीं कोई बड़ी अंदरूनी चोट तो नहीं है। आप थोड़ा इस दुकान के अंदर जाकर देख लेंे तो मुझे तसल्ली हो जाये।’
डाक्टर हंस पड़ा और बोला-‘तुम अपनी हरकत से बाज नहीं आओगे। यह तुम्हारा नहीं मेरा भी दोस्त है। यहां तुम इसका हालचाल पूछने नहीं आये बल्कि मुझे बताने आये हो कि यह कहीं गिर गये हो। अब तुम जाओ। तुम्हें अब इसकी दुर्घटना की बात हजम हो जायेगी। मुझे पता है कि तुम्हारा हाजमा बहुत खराब है जब तक कोई आंखों देखी घटना या दुर्घटना पांच दस लोग को बताते नहीं हो तब तक पेट में दर्द होता है।’

इतने में दूसरे ब्लागर का स्कूटर वाला साथी वहां आया और उससे बोला-‘भाई साहब, जल्दी चलो। बातें तो होती रहेंगी। मुझे अस्पताल अपनी मां के पास नाश्ता जल्दी लेकर पहुंचारा है। अगर मेरी मां को देखने चलना है तो जल्दी चलो। नहीं तो पीछे से आते रहना।’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘चलो चलते हैं।’फिर वह पहले ब्लागर को दूर लेजाकर बोला-‘डाक्टर साहब को दिखा देना कि कहीं अंदरूनी चोट तो नहीं है। हां, इस घटना पर रिपोर्ट जरूर लिखना ‘एक स्कूटर ब्लागर के ऊपर’।
वह चला गया तो ब्लागर अपने स्कूटर के पास लौटा तो डाक्टर ने उससे पूछा-‘यह तुम्हारा दोस्त कब से बन गया? मैं तो तुम्हें बचपन से जानता हूं इससे कैसे परिचय हुआ?’
ब्लागर ने कहा-‘बस ऐसे ही। मुझे भी याद नहीं कब इससे मुलाकात हुई। आप तो जानते हैं कि मैं एक लेखक हूं लोगों से मिलना होता है। सभी के साथ मिलने का सिलसिला चलता है। यह याद कहां रहता है कि किससे कब मुलाकात हुई?‘
डाक्टर ने कहां-‘ यह तुम्हें जाते जाते क्या कहा रहा था? एक स्कूटर! किसके ऊपर कह रहा था? यह मैं सुन नहीं पाया!’
इसी बीच में मैकनिक ने आकर डाक्टर से कहा-’लीजिये साहब, आपकी मोटर साइकिल बन गयी।’
पहले ब्लागर से विदा ले डाक्टर चला गया। दूसरे मैकनिक ने स्कूटर भी बना दिया था। पहले मैकनिक ने ब्लागर से पूछा‘-स्कूटर किसके ऊपर था? डाक्टर साहब क्या पूछ रहे थे? वह आपके दूसरे साथी क्या कह गये थे?’
ब्लागर आसमान में देखते धीरे धीरे बुदबुदाया-‘एक स्कूटर, ब्लागर के ऊपर!
मैकनिक ने कहा-‘यह ब्लागर कौन?’
पहले ब्लागर ने कहा-‘जो ब्लाग पर लिखता है?’
मैकनिक ने पूछा-‘यह ब्लाग क्या होता है?’
पहले ब्लागर ने कंधा उचकाते हुए कहा-‘मुझे नहीं मालुम?’
इधर दूसरा मैकनिक स्कूटर बनाकर पहले ब्लागर के पास लाया और पहले मैकनिक से बोला-‘तुम्हें नहीं मालुम ब्लाग क्या होता है? अरे, बड़े बड़े हीरो ब्लाग लिख रहे हैं। तू मुझसे कहता है न कि अखबार क्यों पढ़ता है? मैंने अखबार में पढ़ा है अरे, अखबार पढ़ने से नालेज मिलता है। देख तुझे और साहब दोनों का पता नहीं कि ब्लाग क्या होता है? वह जो डाक्टर साहब के पास जो दूसरे सज्जन आये थे और साहब की चैकिंग करने को कह रहे थे वह भी बहुत बड़े ब्लागर हैं। कितनी बार कहता हूं कि तुम भी अखबार पढ़ा करो।’

पहले ब्लागर ने मैकनिक को पैसे दिये और स्कूटर शुरू किया तो पहने मैकनिक ने पूछा-‘यह स्कूटर क्या उन सज्जन के ऊपर था।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘नहींं।
वह वहां से चला गया तो पहले मैकनिक ने दूसरे से पूछा-‘अगर यह दूसरे सज्जन ब्लागर थे और स्कूटर उनके ऊपर नहीं था तो फिर यह स्कूटर किसके ऊपर था? घसीटते हुए तो यह सज्जन ले लाये थे तो वह ब्लागर कौन था।’
दूसरे मैकनिक-‘इसका ब्लाग से क्या संबंध?’
दूसरे ने अपना सिर पकड़ लिया और कहा-‘चलो यार, अब अपना काम करें।
………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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दर्द और मदद की कोई जाति नहीं होती-लघु कहानी


वह हादसे में घायल होकर सड़क पर गिर पड़ा ह था। उसके चारों और लोग आकर खड़े हो गये। वह चिल्लाया-‘मेरी मदद करो। मुझे इलाज के लिये कहीं ले चलो।’
लोग उसकी आवाज सुन रहे थे पर बुतों की तरह खड़े थे। उनमें चार अक्लमंद भी थे। एक ने कहा-‘पहले तो तुम अपना नाम बताओ ताकि धर्म,जाति और भाषा से तुम्हारी पहचान हो जाये।

वह बोला-‘मुझे इस समय कुछ याद आ नहीं आ रहा है। मैं तो केवल एक घायल व्यक्ति हूं और अपने होश खोता जा रहा हूं। मुझे मदद की जरूरत है।
एक अक्लमंद बोला-‘नहीं! तुम्हारो साथ जो हादसा हुआ है वह केवल तुम्हारा मामला नहीं है। यह एक राष्ट्रीय मसला है और इस पर बहस तभी हो पायेगी जब तुम्हारी पहचान होगी। तुम्हारा संकट अकेले तुम्हारा नहीं बल्कि तुम्हारे धर्म, जाति और भाषा का संकट भी है और तुम्हें मदद का मतलब है कि तुम्हारे समाज की मदद करना। इसके लिये तुम्हारी पहचान होना जरूरी है।’

यह सुनते हुए उस घायल व्यक्ति की आंखें बंद हो गयीं। कुछ लोगों ने उसकी तरफ मदद के लिये हाथ बढ़ाने का प्रयास किया तो उनमें एक अक्लमंद ने कहा-‘नहीं, जब तक यह अपना नाम नहीं बताता तब तक इसकी मदद करो। हम मदद करें पर यह तो पता लगे कि किस धर्म,जाति और भाषा की मदद कर रहे हैं। ऐसी मदद से क्या फायदा जो किसी व्यक्ति की होती लगे पर उसके समाज की नहीं।

उसी भीड़ को चीरता हुए एक व्यक्ति आगे आया और उस घायल के पास गया और बोला-‘चलो घायल आदमी! मैं तुम्हें अपनी गाड़ी में बिठाकर अस्पताल लिये चलता हूं।’
उस घायल ने आंखें बंद किये हुए ही उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा और उठ खड़ा हुआ। अक्लमंद ने कहा-‘तुम इस घायल की मदद क्यों कर रहे हो? तुम कौन हो? क्या इसे जानते हो?’

उस आदमी ने कहा-‘मैं हमदर्द हूं। कभी मैं भी इसी तरह घायल हुआ था तब सारे अक्लमंद मूंह फेर कर चले गये थे पर तब कोई हमदर्द आया था जो कहीं इसी तरह घायल हुआ था। घायल की भाषा पीड़ा है और जाति उसकी मजबूरी। उसका धर्म सिर्फ कराहना है। इसका इलाज कराना मुझ जैसे हमदर्द के लिये पूजा की तरह है। अब हम दोनों की पहचान मत पूछना। घायल और हमदर्द का समाज एक ही होता है। आज जो घायल है वह कभी किसी का हमदर्द बनेगा यह तय है क्योंकि जिसने पीड़ा भोगी है वही हमदर्द बनता है। भलाई और मदद की कोई जाति नहीं होती जब कोई करने लगे तो समझो वह सौदागर है।’
ऐसा कहकर उसको चला गया।
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फ्री में विलेन बनाया-हास्य कविता



उदास होकर फंदेबाज घर आया
और बोला
‘दीपक बापू, बहुत मुश्किल हो गयी है
तुम्हारे भतीजे ने मेरे भानजे को
दी गालियां और घूंसा जमाया
वह बिचारा तुम्हारी और मेरी दोस्ती का
लिहाज कर पिटकर घर आया
दुःखी था बहुत तब एक लड़की ने
उसे अपनी कार से बिठाकर अपने घर पहुंचाया
तुम अपने भतीजे को कभी समझा देना
आइंदा ऐसा नहीं करे
फिर मुझे यह न कहना कि
पहले कुछ न बताया’

सुनकर क्रोध में उठ खड़े हुए
और कंप्यूटर बंद कर
अपनी टोपी को पहनने के लिये लहराया
फिर बोले महाकवि दीपक बापू
‘कभी क्या अभी जाते हैं
अपने भाई के घर
सुनाते हैं भतीजे को दस बीस गालियां
भले ही लोग बजायें मुफ्त में तालियां
उसने बिना लिये दिये कैसे तुम्हारे भानजे को दी
गालियां और घूंसा बरसाया
बदल में उसने क्या पाया
वह तो रोज देखता है रीयल्टी शो
कैसे गालियां और घूंसे खाने और
लगाने के लिये लेते हैं रकम
पब्लिक की मिल जाती है गालियां और
घूसे खाने से सिम्पथी
इसलिये पिटने को तैयार होते हैं
छोटे पर्दे के कई महारथी
तुम्हारा भानजा भी भला क्या कम चालाक है
बरसों पढ़ाया है उसे
सीदा क्या वह खाक है
लड़की उसे अपनी कार में बैठाकर लाई
जरूर उसने सलीके से शुरू की होगी लड़ाई
सीदा तो मेरा भतीजा है
जो मुफ्त में लड़की की नजरों में
अपनी इमेज विलेन की बनाई
तुम्हारे भानजे के प्यार की राह
एकदम करीने से सजाई
उस आवारा का हिला तो लग गया
हमारे भतीजा तो अब शहर भर की
लड़कियों के लिये विलेन हो गया
दे रहे हो ताना जबकि
लानी थी साथ मिठाई
जमाना बदल गया है सारा
पीटने वाले की नहीं पिटने वाले पर मरता है
गालियां और घूंसा खाने के लिये आदमी
दोस्त को ही दुश्मन बनने के लिये राजी करता है
यह तो तुम्हारे खानदान ने
हमारे खानदान पर एक तरह से विजय पाई
हमारे भतीजे ने मुफ्त में स्वयं को खलनायक बनाया

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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्द प्रकाश-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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हर जगह बैठा है सिद्ध की खाल में गिद्द-हास्य व्यंग्य कविता


हर जगह सर्वशक्तिमान के दरबार में
बैठा कोई एक सिद्ध

आरजू लिए कोई वहां
उसे देखता है जैसे शिकार देखता गिद्द
लगाते हैं नारा
“आओ शरण में दरबार के
अपने दु:ख दर्द से मुक्ति पाओ
कुछ चढ़ावा चढ़ाओ
मत्था न टेको भले ही सर्वशक्तिमान के आगे
पर सिद्धों के गुणगान करते जाओ
जो हैं सबके भला करने के लिए प्रसिद्ध

इस किनारे से उस किनारे तक
सिद्धो के दरबार में लगते हैं मेले
भीड़ लगती है लोगों की
पर फिर भी अपना दर्द लिए होते सब अकेले
कदम कदम पर बिकती है भलाई
कहीं सिद्ध चाट जाते मलाई
तो कहीं बटोरते माल उनके चेले
फिर भी ख़त्म नहीं होते जमाने से दर्द के रेले
नाम तो रखे हैं फरिश्तों के नाम पर
फकीरी ओढे बैठे हैं गिद्द
उनके आगे मत्था टेकने से
अगर होता जमाने का दर्द दूर
तो क्यों लगते वहां मेले
ओ! अपने लिए चमत्कार ढूँढने वालों
अपने अन्दर झाँक कर
दिल में बसा लो सर्वशक्तिमान को
बन जाओ अपने लिए खुद ही सिद्ध

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शेर ने कहा-‘हमें मारकर सनसनी फैलायेंगे’-व्यंग्य कविता


शेरनी ने शेर से कहा
‘सुना है तू नरभक्षी हो गया है
शर्म नहीं तुझे ऐसा करने में
अब लोग झूंड बनाकर ढूंढ रहे है
हथियार लेकर
तुझे डर नहीं लगता मरने में
अगर तू इंसान के हाथ से नहीं मरा
तो भी उसका मांस खाकर
बहुत बड़े पाप का भागी हो जायेगा
उसके जहर से जल्दी मर जायेगा
कई जन्म तक चूहे और बकरी
जैसी पिटने वाली यौनियों में
जन्म पायेगा
इससे बहुत समय लगेगा तुझे उबरने में’

शेर ने कहा
‘यह मुझे हमारे खानदान को मिटाने के लिये
इंसानों का रचा गया प्रोपेगंडा
जंगल के सभी जानवरों को नष्ट करना
उनका खास एजेंडा है
इस समय टीवी चैनलों पर कोई
खास प्रोग्राम नहीं है
खबर बनाना है,ढूंढने का काम नहीं है
निगाहें कहीं
निशाना और कहीं है
पहले खलनायक बनाते हैं
फिर नायक बताते है
पर हम इंसान नहीं है
जो उनकी भाषा बोल पायेंगे
पहले वह हमें नरभक्षी बताकर
सभी की सहानुभूति जुटायेंगे
फिर आकर हमें मार जायेंगे
खबर सुनाकर सनसनी फैलायेंगे
इसलिये यह जगह छोड़ कर चलते हैं अन्यत्र
यहां का पानी की बूंदें पीने का
अपना हो गया कोटा पूरा
चलते है दूर यहां से
पानी पियेंगे अब दूसरे झरने में

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यह आलेख ‘दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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