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काली नीयत के तोहफे-हिंदी कविता


तोहफे देने वालों की
नीयत पर भला कौन शक करता है,
बंद हो जाते हैं अक्ल के दरवाजे
इंसान हाथ में लेते हुए आहें भरता है।
कहें दीपक बापू
आम आदमी के दिल से खेलने का
तरीका है तोहफे देना
जिसे पाने की करता है वह जद्दोजेहद
खोने की बात सोचने से भी डरता है।
——–
तोहफों का जाल बुनते हैं वह लोग
जिनके दिल मतलबी ओर तंग हैं,
कहें दीपक बापू
नीयत है जिनकी काली
बाहर दिखाते  वह तरह तरह के रंग हैं
——————
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’’,
ग्वालियर, मध्यप्रदेश

Deepak raj kureja “”BharatDeep””

Gwalior madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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क्रांति का इंतजार-हिंदी कविता


सावधान!
क्रांति आ रही है
डरना नहीं
तुम्हें कुछ नहीं होगा
क्योंकि तुम आदमी हो
तुम्हारे पास खोने के लिये कुछ नहीं है,
मगर खुश भी न होना
तुम्हारे लिये पाने को भी कुछ नहीं ह
—————-
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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अन्ना हजारे (अण्णा हज़ारे) का जनलोकपाल और देश के धनपाल-हिन्दी व्यंग्य (anna hazare ka janlopal aur desh ke dhanpal-hindi vyangya


           जनलोकपाल कानून बनेगा या नहीं, यह एक अलग प्रश्न है। जहां तक इस कानून से देश में भ्रष्टाचार रुकने का प्रश्न है उस पर अनेक लोग के मन में संशय बना हुआ है। मूल बात यह है कि देश की व्यवस्था में सुधार लाने के मसले कभी नारों से नहीं सुलझते। एक जनलोकपाल का झुनझुना आम जनमानस के सामने प्रायोजित रूप से खड़ा किया गया है ऐसा अनेक लोगों का मत है। हम देख रहे हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरु होने वाले लोग अब कमजोर होते जा रहे हैं। वह दो भागों में विभक्त हो गया है। पहले यह आंदोलन बाबा रामदेव के नेतृत्व में चला पर बाद में अन्ना हजारे आ गये। बाबा नेतृत्व ने योग शिक्षा के माध्यम से जो ख्याति अर्जित की है उसके चलते उनको किसी अन्य प्रचार की आवश्यकता नहीं रहती। इसलिये जब आंदोलन चरम पर होता है तब भी चमकते हैं और जब मंथर गति से चलता है तब भी उनका नाम छोटे पर्दे पर आता रहता है। अन्ना हजारे आंदोलन के थमने पर अन्य काम कर प्रचार करते हैं। कभी मौन रखकर तो कभी कोई भ्रष्टाचार से इतर विषय पर बयान देकर वह प्रचार में बने रहने का फार्मूला आजमाते हैं। अभी उन्होंने अपने मोम के पुतले के साथ अपना फोटो खिंचवाया तो विदेश की एक पत्रिका के साक्षात्कार के लिये फोटो खिंचवाये। तय बात है कि कहीं न  कहीं उनके मन में प्रचार पाने की चाहत है। जहां तक उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का सवाल है तो ऐसा लगता है कि कुछ अदृश्य आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक शक्तियों ने उनकी जिस तरह सहायता की उससे प्रतीत होता है कि प्रायोजित समाज सेवकों ने उनको आंदोलन के शीर्ष पर लाकर अपने मुद्दे को आगे बढ़ाया। पहले वही लोग बाबा रामदेव का दामन थामे थे पर चूंकि उनका योग दर्शन भारतीय अध्यात्म पर आधारित है इसलिये उसमें कहीं न कहीं भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की धर्मनिरपेक्ष छवि ध्वस्त होने का भय था इसलिये एक धर्मनिरपेक्ष समाज सेवक अन्ना हजारे को लाया गया। अन्ना का देश के भ्रष्टाचार पर उतना ही अनुभव है जितना किसी आम आदमी का होता है। इस भ्रष्टाचार की जड़ में क्या है? इसे कैसे रोका जाये अगर हमसे कोई बहस करे तो उसकी आंखें और कान फटे की फटे रह जायेंगे। यह अलग बात है कि चूंकि हम बाज़ार और प्रचार समूहों के स्थापित चर्चा करने योग्य विद्वान न होकर एक इंटरनेट प्रयोक्ता ही है इसलिये ऐसी अनेक ऐसी बातें कह जाते हैं जो वाकई दूसरों के समझ में नहीं आ सकती। हमारे कुछ विरले पाठक और मित्र हैं वही वाह वाह कर सकते हैं। असली बात कहें तो यह तो सभी जानते हैं कि देश में भ्रष्टाचार है। इसलिये उसे हटाने के तमाम तरह के रास्ते बता रहे हैं पर इसके मूल में क्या है, यह कोई हमसे आकर पूछे तो बतायें।
          जब अन्ना हजारे रामलीला मैदान पर अनशन पर बैठे थे तब उनके अनुयायी और सहायक सगंठन जनलोकपाल बिल पर बहस कर रहे थे। अन्ना खामोश थे। दरअसल बिल बनाने में उनकी स्वयं की कोई भूमिका नहीं दिखाई दी। सीधी बात यह है कि एक मुद्दे पर चल रहे आंदोलन और उस संबंध में कानून के तय प्रारूप के लिये वह अपना चेहरा लेकर आ गये या कहें कि प्रायोजित समाज सेवकों को एक अप्रायोजित दिखने वाला चेहरा चाहिए था वह मिल गया। यह अलग बात है कि उस चेहरे पर भी कहीं न कहंी प्रायोजन का प्रभाव था। अब यह बात साफ लगने लगी है कि इस देश में कुछ आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक शक्तियां थीं जो एक प्रभावी लोकपाल बनाने की इच्छुक थीं पर प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय होने कोे लेकर उनकी कुछ सीमायें थीं इसलिये स्वयं सामने न आकर अन्ना हजारे को आगे कर दिया। इन शक्तियों को यह सोच स्वाभाविक था कि प्रत्यक्ष रूप से सक्रियता पर उनको गैरों का ही नहीं बल्कि अपने लोगों का भी सामना करना पड़ सकता है। इसी मजबूरी का लाभ अन्ना हजारे को मिला।
             अब मान लीजिये जनलोकपाल बन भी गया तो अन्ना हजारे का नाम हो जायेगा। सवाल यह है कि जनलोकपाल से समस्या हल हो जायेगी। हल हो गयी तो ठीक वरना पासा उल्टा भी पड़ सकता है। जैसा कि कुछ लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं कि वह भी अगर भ्रष्ट या उदासीन भाव तो निकला तो क्या होगा?
            अभी तो भ्रष्टाचार विरोधी कानून के तहत प्रचार माध्यमों के हो हल्ला मचाने पर कार्यवाही हो जाती है और न करने पर संविधानिक संस्थाओं से सवाल पूछा जा सकता है। फिर कई जगह संविधानिक संस्थाऐं स्वयं भी सक्रिय हो उठती हैं। अगर जनलोकपाल बन गया तो फिर प्रचार माध्यम क्या करेंगे जब संविधानिक एजेंसियां अपनी जिम्मेदारी से परे होती नजर आयेंगी। फिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध बाकी कानूनों का क्या होगा? क्या वह ठंडे बस्ते में पड़े रहेंगे। कहीं ऐसा तो नहीं प्रचार माध्यमों के हल्ले को थामने तथा संविधानिक एजेंसियों की सक्रियता को रोकने के लिये कथित रूप से एक स्वतंत्र जन लोकपाल की बात होती रही। अभी प्रचार माध्यम वर्तमान व्यवस्था के पदाधिकारियों पर बरस जाते हैं पर जनलोकपाल होने पर वह ऐसा नहीं कर पायेंगे। जनलोकपाल भ्रष्टाचार नहीं रोक पाया तो प्रचार माध्यम केवल उसका नाम लेकर रोते रहेंगे और व्यवस्था के पदाधिकारी जिम्मेदारी न निभाने के आरोप से बचे रहेंगे। जब प्रचार माध्यमा किसी के भ्रष्टाचार पर शोर मचायेंगे तो उनसे कहा जायेगा कि जाओ लोकपाल के पास, अगर उसने नहीं सुनी तो भी शोर मचाना मुश्किल होगा क्योंकि तब कहा जायेगा कि देखो उसे लोकपाल ने नहंी पकड़ा है। भगवान ही जानता है सच क्या है? अलबत्ता जिस तरह लग रहा है कि जनलोकपाल बनने के बाद भ्रष्टाचार पर प्रचार माध्यमों में मच रहा ऐसा शोर अधिक नहीं दिखाई देगा। ऐसे में यह पता लगाना मुश्किल होगा कि किसने किसके हित साधे?
          जहां तक भ्रष्टाचार खत्म होने का प्रश्न है उसको लेकर व्यवस्था के कार्य में गुणवत्ता तथा संचार तकनीकी की उपयोगिता को बढ़ाया जाना चाहिए। देखा यह जा रहा है कि व्यवसायिक क्षेत्र में कंप्यूटर का प्रयोग बढ़ा है पर समाज तथा व्यवस्था में उसे इतनी तेजी से उपयोग में नहीं लाया जा रहा है। इसके अलावा अन्य भी उपाय है जिन पर हम लिखते रहते हैं और लिखते रहेंगे। जैसा कि हम मानते हैं कि जनलोकपाल पर आंदोलन या बहस के चलते लोग अपनी परेशानियों के हल होने की आशा पर शोर मचाने की बजाय खामोश होकर बैठे हैं और यही बाज़ार तथा उसके प्रायोजित लोग चाहते हैं। कहीं परेशान लोगों के समय पास करने के लिये ऐसा किसी सीधे प्रसारित मनोरंजक धारावाहिक की पटकथा का हिस्सा तो नहीं है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
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पहाड़ से टूटे पत्थर-हिन्दी व्यंग्य कविता


पहाड़ से टूटा पत्थर
दो टुकड़े हो गया,
एक सजा मंदिर में भगवान बनकर
दूसरा इमारत में लगकर
गुमनामी में खो गया।
बात किस्मत की करें या हालातों की
इंसानों का अपना नजरिया ही
उनका अखिरी सच हो गया।
जिस अन्न से बुझती पेट की
उसकी कद्र कौन करता है
रोटियां मिलने के बाद,
गले की प्यास बुझने पर
कौन करता पानी को याद,
जिसके मुकुट पहनने से
कट जाती है गरदन
उसी सोने के पीछे इंसान
पागलों सा दीवाना हो गया।
अपने ख्यालों की दुनियां में
चलते चलते हर शख्स
भीड़ में यूं ही अकेला हो गया।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
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कागज के दाम-हिन्दी व्यंग्य कविता (kabaj ke dam-hindi satire poem)


रोज खाते हैं धोखा
फिर भी विश्वास किये जाते हैं,
क्या करें
चारों तरफ घिरे हैं ऐसे इंसानी जिस्मों से
कागज के दाम लेकर
पत्थर के बुत की तरह चलते हैं
इसलिये किराये पर लिये जाते हैं।
बिना विश्वास के इंसान नहीं रह सकता जिंदा
यह इबारत लिखी है सामने
इसी सलाह पर हम भी जिये जाते हैं।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बदनामी की भी फिक्सिंग-हिन्दी व्यंग्य चित्तन तथा हास्य कविताएँ


धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की निष्पक्षता का पता नहीं हमारे देश के बुद्धिजीवी लोग क्या अर्थ निकालते हैं पर सच बात यह है कि इससे व्यवसायिक क्षेत्र के लोगों को उद्दण्डता दिखाने की छूट मिल गयी है। देशभक्ति, समाज कल्याण, गरीबों की आवाज बुलंद करने तथा लोगों का स्वस्थ मनोरंजन से प्रतिबद्धता जताने वाले हमारे देश के प्रचार माध्यम अपने व्यवसायिक हितों के लिये ऐसे कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं जिससे उनकी बौद्धिक क्षमताओं पर संदेह होता हैं। ऐसा लगता है कि देशभक्ति, समाज कल्याण तथा गरीबों की आवाज बुलंद करने वाले उनके कार्यकर्ता इनको बेचने वाले नारों से अधिक नहीं समझते। यही कारण है कि समाचार और मनोरंजन के के नाम पर ऐसे कार्यक्रम बन रहे हैं जिनमें फूहड़ता तो होती है उसके लिये बदनाम लोगों को भी नायक की तरह प्रतिष्ठित किया जाता है। बॉस तथा इंसाफ जैसे आकर्षक शब्दों वाले कार्यक्रमों में बदनाम लोगों को जिस तरह नायक बनाया गया यह उसका प्रमाण है। अब तो हद ही हो गयी है जब उन्हीं बदनाम लोगों को एक कॉमेडी धारावाहिक में लाया गया।
कॉमेडी में उन लोगों को देखकर यह विश्वास हो गया कि धनपति और उनके प्रचार भोंपू हम नये नायकों का निर्माण कर उन्हें समाज पर थोप रहे हैं। यह पक्रिया भी इस तरह चलती है कि पता ही नहीं चलता।
पहले कोई नशे के आरोप में जेल गया। उस समय वह सारे देश में खलनायक बनाया गया। कोई यकीन नहीं कर सकता था कि प्रचार माध्यमों में का यह महान खलनायक कुछ दिन बाद मनोरंजन के क्षेत्र में नायक बनकर आयेगा। फिर कुछ दिन बाद वह स्वयंवर नामक धारावाहिक में आया। फिर बिगबॉस में आया। अब वह कॉमेडी के एक कार्यक्रम में भी आ गया। अपनी अदाओं के लिये अच्छी छवि न रखने वाली एक गायिका भी उस कॉमेडी कार्यक्रम में आ गयी। इससे एक बात लगती है कि समाचार और मनोरंजन के क्षेत्र में फिक्सिंग चल रही है। अच्छे काम से किसी की छवि नहीं बन सकती और बदनाम होना इस संसार में आसान है। इसलिये बाजार तथा उसके भौंपूओं ने बदनामी का संक्षिप्त मार्ग लोगों में नये नायकों और नायिकाओं को स्थापित करने के लिये कर रहे हैं। मतलब आजकल के जमान में बदनामी की भी फिक्सिंग होती है।
बाज़ार और उसके प्रचार भोंपू बकायदा योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे हैं। भले ही दोनों अलग दिखते हैं पर ऐसा लगता है कि जिस तरह उनके विज्ञापन देने वाले लोग एक ही होते हैं वैसे ही उनके मालिक भी एक हैं। जैसा कि पहले लोगों ने देखा कि सास बहु के धारावाहिक चल रहे थे। उससे लोग उकता गये। उसके बाद रियल्टी शो की असलियत लोगों को समझ में आ गयी तब उससे भी लोग मुंह फेरने लगे। अब कॉमेडी लोगों को भाने लगी। कॉमेडी के नाम चाहे पर भले ही फूहड़ता दिखाई जा रही है पर कथित टीआरपी रेटिंग के भ्रम ने ऐसा माहौल बना दिया है कि कॉमेडी इस देश में पसंद की जा रही है। हालत यह हो गयी है कि अभी हाल ही में संपन्न फिल्मी पुरस्कार समारोह में बड़े बड़े अभिनेताओं ने मंचों पर कॉमेडी की। इससे बाज़ार तथा उसके मातहत प्रचारतंत्र के साथ ही पूरे मनोरंजन क्षेत्र का चाल, चरित्र तथा चिंतन का रूप समझा जा सकता है जो कि केवल पैसा कमाने तक ही सीमित है।
मतलब कॉमेडी हिट हो गयी। बाज़ार और उसके प्रचारक भोंपूओं के पास जो अपने बदनाम फिक्स नायक नायिका हैं वह खाली बैठे थे। उनके नाम का उपयोग करने के लिये अब उनसे कॉमेडी करवाई जा रही है। वैसे हमारे मनोरंजन क्षेत्र के लोगों के कार्यक्रम देखें तो एक बात लगती है कि एक दूसरे का अपमान करना, इशारों में मां बहिन की गालियों का भाव का निर्माण तथा अस्वाभाविक यौन क्रीड़ाओं की चर्चा करना ही कॉमेडी है। हिन्दी में कथाओं और पटकथाओं का रोना अक्सर रोया जाता है पर मनोरंजन के व्यापारी ही इसके लिये जिम्मेदार हैं। वह चाहती हैं कि हिन्दी कहानीकार उनके घर आये। वह यह नहीं जानते कि हिन्दी का कहानीकार लिखने पर जिंदा नहंी रहता। लिखने वाले बहुत हैं पर उनके पास न पैसा है न समय कि वह चप्पले चटखाते हुए उनके दरवाजे खटखटायें। मनोरंजन के शहंशाहों को पैसा देने वाले धनपतियों को भी हिन्दी से अधिक मतलब नहीं है। यही कारण है कि हिन्दी में अच्छा लिखने के बावजूद स्तरीय लेख उन तक नहीं पहुंच पाता। हिन्दी में लेखक नहीं है यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। मनोरंजन के क्षेत्र के शिखर पुरुष हिन्दी लेखक को लिपिक की तरह उपयोग करना चाहते है जो कि संभव नहीं है। उनको लिपिक तो मिल जायेंगे पर वह इसी तरह का सतही लेखन ही कर पायेंगे जैसा वह दिखा रहे हैं।
हिन्दी में हास्य व्यंग्य लिखने वाले बहुत हैं। यह सही है कि फिल्मी या टीवी धारावाहिक की पटकथा या नाटक लिखने की अलग से कोई विधा हिन्दी में नहीं पढ़ाई जाती पर सच यह है कि हिन्दी में कहानी लेखन ही इस तरह का होता है कि उससे पटकथा और नाटक की आवश्यकता पूरी हो जाती है। अगर पूरा पैसा मिले तो इस देश में सैंकड़ों लेखक ऐसा मिल जायेंगे जो गज़ब की कहानियाँ   लिखकर दे सकते हैं कि पटकथा या नाटक के रूप में उसे लिखने की आवश्यकता ही नहीं रहे। यह सब होना नहीं है क्योंकि भारत के धनपति और उनके भोंपू पैसा कमाना जानते हैं पर व्यवसायक करने का कौशल उनमें नहीं है। किसी नये समाज का निर्माण करने की क्षमता उनमें नहीं बल्कि जो मौजूद है उसका दोहन करना ही उनको आता है।
इस विषय पर प्रस्तुत है हास्य व्यंग्य कवितायें
—————
टीवी धारावाहिकों में
कॉमेडी के नाम पर उनकी मूर्खताओं पर भी हसंकर
हम अपना दिल खुश करते हैं,
विज्ञापन वाली चीजों पर खर्च किये हैं
उनका खर्च जो अपनी जेब से भरते हैं।
हंसने जैसा कुछ नहीं होता उनमें
पर रोकर क्यों करें जी खराब
नहीं हंसें तो
अपना ही पैसा जायेगा बेकार
इसलिये मन ही मन डरते हैं।
—————
पति ने अपनी रोती पत्नी से कहा
‘चिंता क्यों करती हो भागवान,
लड़का नशे के आरोप में जेल गया
तुम क्या जी खराब किये जाती हो,
देखना
बहुत जल्दी शान से लौटकर आयेगा।
दोस्त लोग पहनायेंगे फूल मालायें
वह शहर का बिग बॉस बन जायेगा
फिर अपना स्वयंवर भी रचायेगा।
भगवान की कृपा रही तो
कामेडी किंग भी बन जायेगा।
—————–
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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विशिष्टता और लालबत्ती-हिन्दी व्यंग्य (v.ip. and red light-hindi vyangya)


लालबत्ती वाली गाड़ियों को देखते ही आम आदमी की आंखें फटी और कान खड़े हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि कोई विशिष्ट व्यक्ति उस वाहन में है जिसका मार्ग रोकना या बाधा डालना खतरे से खाली नहीं है। आधुनिक राजशाही में यह लालबत्ती विशिष्टता का प्रतीक बन गयी है। आजकल के युवा वर्ग न पद देखते है न वेतन बस उनकी चाहत यही होती है कि किसी तरह से लालबत्ती की गाड़ी में चलने का सौभाग्य मिल जाये। कुछ लोग तो मजाक मजाक में कहते भी हैं कि‘अमुक आदमी पहले क्या था? अब तो लालबत्ती वाली गाड़ी में घूम रहा है।’
मगर कुछ यह कुदरत का नियम ऐसा है कि सपने भले ही सभी के एक जैसे हों पर भाग्य एक जैसा नहीं होता। अनेक लोग लालबत्ती की गाड़ी की सवारी के योग्य हो जाते हैं तो कुछ नहीं! मगर सपना तो सपना है जो आज की राजशाही जिसे हम लोकतंत्र भी कहते हैं, यह अवसर कुछ लोगो को सहजतना से प्रदान करती है।
उस दिन एक टीवी चैनल पर लालबत्ती के दुरुपयोग से संबंधित एक कार्यक्रम आ रहा था। पता लगा कि ऐसे अनेक लोग अपनी गाड़ियों पर लालबत्ती लगाते हैं लालबत्ती लगी गाड़ियों का दुरुपयोग कर रहे हैं जिनको कानूनन यह सुविधा प्राप्त नहीं है। यहां यह बात दें कि लालबत्ती का उपयोग केवल सरकारी गाड़ियों में ही किया जाता है जो कि संविधानिक पदाधिकारियों को ही प्रदान की जाती हैं। मगर लालबत्ती का मोह ऐसा है कि अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपनी गाड़ियों पर बिना नियम के ही इसको लगवा रहे हैं। ऐसे लोग भी हैं जिनको लालबत्ती लगाकर चलने का अधिकार तभी है जब वह कर्तव्य पर हों पर वह तो मेलों में अपने परिवार को लेकर जाते हैं। अनेक जनप्रतिनिधियों को लालबत्ती के उपयोग की अनुमति नहीं हैं पर जनसेवा के लिये वह उसका उपयोग करने का दावा करते हैं।
चर्चा मज़ेदार थी। एक पूर्व पुलिस अधिकारी ने बताया कि सीमित संवैधानिक पदाधिकरियों को ही इसका अधिकार है। सामान्य जनप्रतिनिधियों को इसके उपयोग का अधिकारी नहीं है। ऐसे में कुछ जनप्रतिनिधियों से जब इस संबंध में सवाल किया गया तो उनका जवाब ऐसा था कि उस पर यकीन करना शायद सभी के लिये संभव न हो। उनका कहना था कि
‘‘जिस तरह एंबूलैंस को लालबत्ती लगाने का अधिकार है उसी तरह हमें भी है। आखिर हमारा चुनाव क्षेत्र है जहां आये दिन परेशान लोगों की सूचना पर हमें जाना पड़ता है। ऐसी आपातस्थिति में ट्रैफिक में फंसने के लिये लालबत्ती का होना अनिवार्य है।’’
एक ने कहा कि
‘‘इससे सुरक्षा मिलती है। इस समय कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है और आम आदमी पर खतरा बहुत है। लालबत्ती देखकर कोई उस वक्र दृष्टि नहीं डालता। फिर टेªफिक में फंसने पर समय खराबा होगा तो हम जनसेवा कब करेंगे?’’
एक अन्य ने कहा कि
‘‘हम जनप्रतिनिधि हैं और लालबत्ती हमारी इसी विशिष्टता का बयान करती है।’
पूर्व पुलिस अधिकारी ने इस हैरानी जाहिर करते हुए कहा कि‘‘चाहे कुछ भी हो जनप्रतिनिधि को कानून का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। अगर वह जरूरत समझते हैं तो ऐसे नियम क्यों नहीं बना लेते जिससे उन पर उंगली न उठे।’’
बात लाजवाब थी। अगर जनप्रतिनिधियों को लालबत्ती का अधिकार चाहिए तो वह अपने मंचों पर जाकर अपनी बात क्यों नहीं रखते? वह कानून बनाने का हक रखते हैं तब कानून क्यों नहीं बनवाते?
मगर अपने देश की स्थिति यह है कि विशिष्ट होने या दिखने की चाहत सभी में है पर उसके दायित्वों का बोध किसी को नहीं है। जब विशिष्ट हो गये तो कुछ करने को नहीं रह जाता। बस, अपने मोहल्ले, रिश्तेदारों और मित्रों में विशिष्ट दिखो। लोग वाह वाह करें! करना कुछ नहीं है क्योंकि विशिष्ट बनते ही इसलिये हैं कि आगे कुछ नहीं करना! मेहनत से बच जायेंगे! कानून क्यों बनवायें? वह तो वह पैसे ही इशारों पर चलता है! भला विशिष्ट कभी इसलिये बना जाता है कि दायित्व निभाया जाये? विशिष्ट होने का मतलब तो अपने दायित्व से मुक्त हो जाना है बाकी काम तो दूसरे करेंगे! कानून बनाने का काम तो तभी करेेंगे जब कोई दूसरा सामने रखेगा। मगर रखेगा कौन? सभी तो विशिष्टता का सुख उठा रहे हैं। जब सुख ऐसे ही मिल रहा है तो उसके लिये कानून बनाने की क्या जरूरत?
मगर लालबत्ती का शौक ऐसा है कि अनेक लोग तो ऐसे ही लगवा लेते हैं। लालबत्ती का खौफ भी ऐसा है कि दिल्ली में एक डकैत गिरोह के लोग पकड़े गये जो लालबत्ती लगी गाड़ी का उपयोग पड़ौसी शहर से आने के लिये करते थे। लालबत्ती देखकर उनको कहीं रोका नहीं जाता था। पकड़े जाने पर पुलिस के कान खड़े हुए पर फिर भी यह संभव नहीं है कि कोई किसी लालगाड़ी लगी गाड़ी को रोकने का साहस कर सके। सरकारी हो या निजी लोग लालगाड़ी पर सवार होने के बाद विशिष्टता की अनुभूति साथ लेकर चलते हैं। सरकारी आदमी तो ठीक है पर निजी लोग तो रोकने पर ही कह सकते हैं-‘ए, तुम मुझे जानते नहीं। अमुक आदमी का अमुक संबंधी हूं।’
मुद्दा यह है कि आदमी की विशिष्टता केवल लालबत्ती के इर्दगिर्द आकर सिमट गयी है। हम कहीं भी सिग्नल पर लालबत्ती देखकर रुक जाते हैं क्योंकि अपने आम आदमी होने का अहसास साथ ही रहता है। यह अहसास ऐसा है कि अगर खुदा न खास्ता कहीं लालगाड़ी वाली गाड़ी में बेठने लायक योग्यता भी मिल जाये तो अपने चालक से-अपुन को गाड़ी न चलाना आती है न सीखने का इरादा है-सिग्नल पर लाल बत्ती देखकर कहेंगे कि ‘रुक जा भाई, क्या चालाना करवायेगा?’
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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बरसात का पानी और पैसे का खेल-हास्य कविताएँ (barsat ka pani aur paise ka khel-hasya kavitaen))


बच्चे को मैदान पर हॉकी खेलते देख
पुराने एक खिलाड़ी ने उससे कहा
‘‘बेटा, बॉल से हॉकी कुछ समय तक
तक खेलना ठीक है,
फिर कुछ समय बाद पैसे का खेल भी सीख,
अगर केवल हॉकी खेलेगा  तो
बाद में मांगेगा भीख।’’
———-
बरसात के पानी से मैदान भर गया
खिलाड़ी दुःखी हो गये
पर प्रबंधक खुश होकर कार्यकर्ताओं में मिठाई बांटने लगा
जब उससे पूछा गया तो वह बोला
‘‘अरे, यह सब बरसात की मेहरबानी है,
मैदान बनाने के लिये फिर मदद आनी है।
वैसे ही मैदान ऊबड़ खाबड़ हो गया था,
पैसा तो आया
पर कैसे खर्च करूं समझ नहीं पाया,
इधर उधर सब बरबाद हो गये,
इधर जांच करने वाले भी आये थे
तो जैसे मेरे होश खो गये,
अब तो दिखाऊंगा सारी बरसात की कारिस्तानी,
हो जायेगा फिर दौलत की देवी की मेहरबानी,
धूप फिर पानी सुखा देगी
अगर फिर बरसात हुई तो समझ लो
अगली किश्त भी अपने नाम पर आनी है,
तुम खाओ मिठाई
मुझे तो बस किसी तरह कमीशन खानी है।
———

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दौलत की भूख मिटाना मुश्किल-हास्य व्यंग्य कवितायें (daulat ki bhookh-hasya vyangya kavitaen)


गरजने वाले बरसते नहीं,
काम करने वाले कहते नहीं,
फिर क्यों यकीन करते हैं वादा करने वालों का
को कभी उनको पूरा करते नहीं।
———
जिनकी दौलत की भूख को
सर्वशक्तिमान भी नहीं मिटा सकता,
लोगों के भले का जिम्मा
वही लोग लेते हैं,
भूखे की रोटी पके कहां से
वह पहले ही आटा और आग को
कमीशन में बदल लेते हैं।
——–

अपने हाथों ही अपने भविष्य का ठेका
अंधों को दे दिया
अब रोते क्यों हो,
रौशनी बेचकर
अपनी आंखों से
अपनी तिजोरी में बढ़ती हरियाली देखकर
वह खुश हो रहे हैं,
आंसु बहाने से अच्छा है
तुम सोचो जरा
दंड मिले खुद को
ऐसे अपराध इस धरती पर बोते क्यों हो।
————–
उनके काम पर उंगली न उठाओ,
अपने हाथ से
सारे हक तुमने उनको दिये हैं,
कुदरत ने दिये थे जो तोहफे तुमको
उनका इस्तेमाल तुमने बेजा किया
जैसे मुफ्त में लिये हैं।
कुछ वादों को झूठ में देकर
दूसरों से हक लेकर
वह लोग अपने पेट भरते नहीं थकते
क्योंकि उसे भरने के लिये ही
वह दूसरों के लिये जिए हैं।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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सौदागर का खाता फलता रहे-हिन्दी व्यंग्य शायरी


गरीबी हटाओ,
धर्म बचाओ
और चेतना लाओ
जैसे नारों से गुंजायमान है
पूरा का पूरा प्रचार तंत्र।
चिंतन से परे,
सुनहरी शब्दों से नारे भरे,
और वातानुकूलित कक्ष में
वक्ता कर रहे बहस नोट लेकर हरे,
खाली चर्चा,
निष्कर्ष के नाम पर काले शब्दों से सजा पर्चा,
प्रचार के लिये बजट ठिकाने के लिये
करना जरूरी है खर्चा,
भले ही आम आदमी हाथ मलता रहे,
मगर बाज़ार का काम चलता रहे,
सौदागर का खाता फलता रहे,
नयी सभ्यता का यही है अर्थतंत्र।
पैसे के लिये जीना,
पैसे लेकर पीना,
पैसा चाहिए बिना बहाऐ पसीना,
आधुनिक युग का यही है मूलमंत्र।
——–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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विकास और नैतिकता की दर-हिन्दी हास्य कविता


विकास दर इतनी ऊंची हो गयी है
कि नैतिकता कहीं भीड़ में खो गयी है।
आदर्श की बात करना मजाक लगता है
राहजनी की वारदात का इल्जाम
रहबरों के सिर पर डलता है,
माली से उज़ाड़ दिया बाग
शिकायत करना बेकार है,
शैतानियत बन गयी है फैशन
शैतानों के बाहर खड़ा पहरेदार है,
ज़माना काबू है उन लोगों के हाथ में
जिनकी ईमानदारी खो गयी है,
कौन जगायेगा अलख
भेड़ों की भीड़ जो सो गयी है।
——–
सब कुछ वैसा नहीं रहेगा,
जैसा तुम चाहते हो,
नहीं बैठ पाओगे शौहरत और दौलत के पहाडों़ पर
जो तमाम कोशिशों से बनाते हो।
अपने हाथ कर रहे हो अपनी रूह का कत्ल
उसकी कब्र पर ही अपना महल बनाते हो।
_____________________________________

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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विदुर नीति-मित्र का पहले से परिचित या संबंधी होना जरूरी नहीं (hindu dharma sandesh-religion of friendship)


सत्कृतताश्च श्रुतार्थाश्च मित्राणं न भविन्त ये।
तान् मुतानपि क्रव्यादाः कृतध्नान्नोपर्भुजते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो अपने मित्र से सम्मान और सहायता पाने के बाद भी उनके नहीे होते ऐसे कृतघ्न मनुष्य के मरने पर उनका मांस तो मांस खाने वाले जंतु भी नहीं खाते।
न कश्चिदप्यसम्बद्धो मित्रभावेन वर्तते।
स एवं बन्धुस्तमित्रं सा गतिस्तत् परायणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पूर्व में कोई परिचय या संबंध न होने पर भी जो मित्रता का कर्तव्य निभाये वही बंधु और मित्र है। वही सहारा और आश्रय देने वाला है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्रता का धर्म सबसे बड़ा है और इसे निभाना इतना आसान नहंी है जितना समझा जाता है। हमारे साथ कार्य तथा व्यवसायिक स्थल पर अनेक लोग प्रतिदिन मिलते हैं पर वह मित्र की श्रेणी में नहंी आते। उसी तरह बंधु बांधव भी बहुत होते हैंे पर विपत्ति में सभी नहीं आते। ऐसा भी अवसर आता है कि विपत्ति के समक्ष होने पर कोई अपरिचित या पूर्व में किसी भी प्रकार का संबंध न रखने वाला व्यक्ति भी उससे मुक्ति दिलवाता है। इस तरह तो मित्र वही कहा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है मित्रता का धर्म यही है कि विपत्ति या काम करने पर किसी की सहायता की जाये। प्रतिदिन मिलते जुलते रहना, व्यर्थ के विषयों पर वाद विवाद करना या साथ साथ काम करना मित्रता की श्रेणी में नहीं आता।
जब कोई व्यक्ति हमारे साथ मित्रता निभाता है तो फिर उसकी सहायता के लिये भी तत्पर रहना चाहिये। ऐसा न करने पर बहुत बड़ा अधर्म हो जाता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है-यह बात नहीं भूलना चाहिये। इसका अभिप्राय यह है कि एक मनुष्य दूसरे की सहायता करे। इसे ही मित्रता निभाना कहा जाता है। मित्रता के लिये पूर्व परिचय या संबंध होना आवश्यक नहीं है।

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हम कोई फरिश्ते नहीं-हिन्दी शायरी


सिर उठाकर आसमान में देखा तो लगा
जैसे हम उसे ढो रहे हैं,
जमीन पर गड़ायी आंख तो लगा कि
हम उसे अपने पांव तले रौंद रहे हैं।
ठोकर खाकर गिरे जब जमीन पर मुंह के बल
न आसमान गिरा
न जमीन कांपी
तब हुआ अहसास कि
हम कोई फरिश्ते नहीं
बस एक आम इंसान है
जो इस दुनियां को बस भोग रहे हैं।
———
अपने से ताकतवर देखा तो
सलाम ठोक दिया,
कमजोर मिला राह पर
उसे पांव तले रौंद दिया।
वह अपनी कारगुजारियों पर इतराते रहे
काली करतूतें
सफेद कागज में ढंकते रहे
पर ढूंढ रहे थे अपने खड़े रहने के लिये जमीन
जब समय ने उनके कारनामों को खोद दिया।

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लगा कर आग शांति के लिये कर रहे हैं जंग-हिंदी व्यंग्य कविताएँ/हिन्दी शायरी


उनकी नज़रों मे आते हैं हमेशा
तलवारें चलने के मंजर
जुबां से
गरीबों और बेसहारों पर
जमाने के दिये घावों का
बयां किये जा रहे हैं।

हर जगह बेसहारों के लिये
हमदर्दी दिखाते हैं,
अमन के लिये जंग करना सिखाते हैं,
अपने हाथ में लिये छुरा कर लिया है
उन्होंने पीठ पीछे
जहां में तसल्ली लाने के लिये
सादगी से वार किये जा रहे हैं।
————
वह लोगों के दिल में लगा कर आग
शांति के लिये कर रहे हैं जंग,
गरीब की भलाई का ख्वाब दिखाते
अमीरों के करके रास्ते तंग।
दान लेने से ज्यादा स्वाभिमान
उनको लूटने में लगता है,
जिंदा लोगों से कुछ नहीं सीखते
मरों की याद में उनका ख्याल पकता है,
एक बेहतर ढांचा बनाने की सोच लिये,
उन्होंने कई शहर फूंक दिये,
भूखे के लिये रोटी पकाने के बहाने
शहीदों की चिता पर मेले लगाने का
उनका अपना है ढंग।
यह अलग बात है कि
गरीबों पर नहीं चढ़ता उनका रंग।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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क्रिकेट मैच और हिंदी ब्लाग का आपसी रिश्ता-हास्य व्यंग्य (cricket match and hindi blog-hindi hasya vyangya)


अंतर्जाल पर लिखने के अलग ही अनुभव है। इनमें से कुछ अनुभव ऐसे हैं जो समाज की गतिविधियों से इस तरह परिचय कराते हैं जिसका संबंध ब्लाग लिखने से सीधे न होते हुए भी लगता है। खासतौर से जब हिंदी में लिख रहे हैं तब कुछ अच्छी और बुरी घटनायें ऐसी होती हैं जिनको दर्ज करना जरूरी लगता है-ऐसे में क्रिकेट से संबंध हो तो हम उससे बच नहीं सकते।
वजह इसकी यह है कि कवितायें, कहानियां और व्यंग्य तो लिखना बहुत पहले ही शुरु किया था पर अखबारों में एक लेखक के रूप में छपने का श्रेय हमें 1983 में भारत के विश्व कप जीतने पर लिखे विषय के कारण ही मिला था। उसके बाद जो दौर चला वह एक अलग बात है पर अंतर्जाल पर भी हमने सबसे पहले अपना एक व्यंग्य क्रिकेट में सब चलता है यार शीर्षक से लिखा। उसमें 2007 में होने वाले संभावित विश्व क्रिकेट प्रतियोगिता में भारतीय टीम के चयन पर व्यंग्य कसा गया था। सामान्य हिन्दी फोंट में होने के कारण वह कोई पढ़ नहीं पाया पर उस समय रोमन लिपि में हिन्दी लिखना आसान नहीं था इसलिये 200ल में विश्व कप में भारतीय टीम की हार पर लिखे गये छोटे पाठ पर हमें पहली प्रतिक्रिया मिली थी। दरअसल वह पाठ एक पुराने खिलाड़ी के बयान पर था जिनकी हाल ही में मृत्यु गयी और टिप्पणी में उनके प्रति गुस्से का भाव था सो टिप्पणी उड़ाने के लिये पूरा पाठ ही उड़ाना पड़ा-उस समय तकनीकी जानकारी इतनी नहीं थी।
क्रिकेट में फिक्सिंग जैसी कथित घटनाओं ने हमें क्रिकेट से विरक्त कर दिया था और हम मन लगाने के लिये ही अंतर्जाल पर लिखने आये। उन्हीं दिनों विश्व कप भी चल रहा था और इधर ब्लाग बनने के दौर भी-कोई तकनीकी जानकारी देने वाला नहीं था वरना आज तो हम पांच मिनट में ब्लाग बनाकर कविता ठेल सकते हैं। कोई अनुभव नहीं था और क्रिकेट पर लिखने का हमारा कोई इरादा नहीं था। जब भी क्रिकेट पर लिखा तो व्यंग्य या हास्य कविता ही लिखी। एक बार जरूर बहक गये जब पिछले वर्ष बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता में भारत जीता तो उस पर एक पाठ लिखा मगर वह बिना टिप्पणी के रहा तो हैरानी हुई तब हमने पता लगाया कि वह तो फोरमों पर पहुंचा ही नहीं। वजह हमने फीड बर्नर का कोड इस तरह लगााया कि वह ब्लाग हमारे यहां ही दिख सकता था। दो दिन बाद हमने उसको हटाया तो देखा कि वह फोरमों पर दिख रहा था।
इसी के चलते गुस्सा आया तो फिर एक हास्य कविता लिख डाली ‘बीस का नोट पचास में नहीं चलेगा’। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमें ही बेकार लगने वाली वह कविता सबसे अधिक टिप्पणियां प्राप्त कर चुकी है। अलबत्ता कुछ हिंदी ज्ञाता उस तमाम तरह की नाराजगी भी जता चुके हैं। उसका कविता में हमारा आशय यही था कि कुछ पुराने खिलाड़ी े केवल इसलिये पचास ओवर वाली टीम में बने हुए हैं क्योंकि उनके पास विज्ञापन मिलते हैं। ऐसे तीन खिलाड़ी बीस ओवरीय प्रतियोगिता में नहीं गये थे और अब उस विश्व कप की आड़ में उनको जीवनदान इसलिये मिलने वाला था क्योंकि विरक्त हो रहा भारतीय समुदाय फिर क्रिकेट की तरफ आकर्षित होने वाला था। पचास ओवरीय विश्व कप के बाद भारतीय बाजार प्रबंधकों को मूंह सूख गया था जिसे बीस ओवर से अमृत मिलने वाला था। हुआ भी यही। अब देखिए फिर क्रिकेट की तरफ लोगों का आकर्षण पहले जैसा ही हो गया जैसे 1983 के बाद बना था। वही हीरो अभी भी चल रहे हैं जिन्होंने कभी एक भी विश्व कप नहीं जितवाया। इस देश की हालत यही है कि जहां देखते हैं कि आकर्षण हैं वहीं अपना लोग मन लगा देते हैं।

हमें इस पर भी कोई आपत्ति नहीं है। हम कोई यह थोड़े ही कहते हैं कि हमारे ब्लाग पढ़ो जिसमें हम अनेक बार बेकार सी कवितायें और व्यंग्य ठूंस देते हैं।
दरअसल बात यह है कि क्रिकेट मैच वाले दिनों में हमारे ब्लाग सुपर फ्लाप हो जाते हैं। वैसे भी कोई हम हिट ब्लाग लेखक नहीं माने जाते पर जिस दिन क्रिकेट मैच हो उस दिन स्वयं को यह समझाते हुए भी डर लगता है कि हम हिंदी में ब्लाग लिख रहे हैं। अगर कोई क्रिकेट प्रेमी मित्र मिल जाये तो उससे इस विषय पर बात ही नहीं करते कि ब्लाग पर आज किस विषय पर लिखेंगे। शेष दिनों में ऐसे मित्रों से हमारी अपने ब्लाग के विषयों पर चर्चा होती है।
ब्लाग पर पाठ पठन/पाठक संख्या बताने वाले अनेक कांउटर लगाये जाते हैं। हमने भी दूसरों की देखादेखी अनेक प्रकार के काउंटर लगा चुके हैं-यह अलग बात है कि एक ‘गुड कांउटर’ की वजह से हमारे दो ब्लाग जब्त भी हो चुके हैं क्योंकि वह कांउटर किसी जुआ वगैरह से संबंधित था। कहें तो घुड़दौड़ की फिक्सिंग से भी हो सकता है। पूरी तरह हम भी उसके बारे में समझ नहीं पाये। हालांकि हमें लगता था कि पाठ पठन/पाठक संख्या बताने वाली उस वेबसाईट में कुछ गड़बड़ है पर फिर सोचते थे कि क्रिकेट जैसी ही होगी। वहां सब चल रहा है तो यहां चलने में क्या है?
उसका अफसोस भी नहीं है। मगर आज कुछ अधिक अफसोस वाला दिन था तो सोचा कि क्यों न अपने सारे गम एक ही दिन याद कर लिये जायें। रोज रोज का क्लेश हम नहीं पाल सकते। जब हम यह पाठ लिख रहे हैं तब कहीं भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच चल रहा है। उससे हमारा लेना देना बस इतना ही है कि हमारे ब्लाग पचास फीसदी पिट रहे हैं। जो पचास फीसदी बचे हैं वह इसलिये क्योंकि वह मैच दिन में नहीं था-यानि अब सौ फीसदी पिट रहे हैं। ऐसा पहले भी हुआ है पर भारत पाकिस्तान का मैच बहुत दिन बाद हो रहा है इसलिये अधिक लोग देख रहे हैं। फिर इधर भाई लोगों ने जनता को बीसीसीआई की क्रिकेट टीम ‘विश्व में नंबर वन’होने’ की नशीली गोली पिला दी है। बस! सारी पब्लिक उधर!
हम इससे भी परेशान नहीं है। अरे, आज ब्लाग पिट रहे हैं कल फिर अपनी जगह पर आ जायेंगे। समस्या यह है कि हम इसमें कुछ ज्यादा ही सोच रहे हैं पर चिंतन नहीं लिख पा रहे। इस पर फिर कभी लिखेंगे। अलबत्ता हम यह सोच रहे हैं कि क्या क्रिकेट ने भारत की युवा पीढ़ी को दिमागी रूप से पंगु तो नहीं बना दिया। हमने पूरी युवावस्था क्रिकेट के खेल होने के भ्रम में गुजारी और अपनी नयी पीढ़ी को इसमें जाता देख रहे हैं। यकीनन हमने अगर अपना समय क्रिकेट पर बरबाद नहीं किया होता तो इस समय तीस से चालीस उपन्यास, सौ पचास कहानी संगह, एक हजार कविता संग्रह और पचास कभी चिंतन संग्रह छपवा चुके होते-यह अलग बात है कि पढ़ने वाले भी हम ही होते पर कम से कम अपना समय तो नष्ट करने का गम तो नहीं होता।
कहते हैं कि इस देश में हिंदी के अच्छे लेखक नहीं मिलते। मिलेंगे कहां से? हर नयी पीढ़ी को क्रिकेट खाये जा रहा है। न हिंदी के लेखक मिलते हैं न पाठक! यह ज्ञान हमें आज नहीं प्राप्त हुआ बल्कि पिछले तीन वर्ष से इस तरह अपने ब्लाग का उतार चढ़ाव देखकर सोचते थे।
आज हुआ यह कि हम पास के शहर में एक मंदिर में गये थे। लौटते हुए रास्ते में हमारा एक मित्र मिल गया और बोला-‘आज मेरे घर में लाईट नहीं है इसलिये दूसरे मित्र के घर मैच देखने जा रहा हूं। तुमने तो मना ही कर दिया कि मंदिर जाऊंगा।’
हमने कहा-‘पर तुमने बताया नहीं था कि मैच देखना है। अब चलो।’
वह बोला-‘अब क्या? मैंने उसे फोन कर दिया है। फिर मैच तो अब निकल ही रहा है।’
वह चला गया पर वहां हमें अपने ब्लाग याद आये-ऐसा बहुत कम होता है कि हम घर के बाहर कभी ब्लाग वगैरह याद करते हों । मित्रों के साथ किसी विषय पर होते समय यह जरूर कहते हैं कि इस पर लिखेंगे। हमने उसी मित्र को यह बताया था कि क्रिकेट मैच वाले दिन ब्लाग पिट जाता है। यही कारण है कि जब बातचीत के बाद वह जा रहा था तब उसने कहा‘हां, पर आज पाकिस्तान के साथ मैच है तुम्हारे ब्लाग तो पिट जायेंगे।’
इस बात ने हमारी चिंतन क्षमता जगा दी और घर आकर ब्लागों की पाठ पठन/पाठक संख्या देखी तो उसने इसकी पुष्टि की। मैच अधिक आकर्षक है तो हिंदी ब्लाग उतनी ही बुरी तरह से पिट रहा है। हो सकता है कि यह हमारे साथ ही होता हो और जो अच्छे लिखने वाले हों उनकी संख्या इतनी अधिक होती होगी कि उनको इसमें कमी का पता अधिक नहीं चले। हमें जरूर इसका आभास होता है तब सोचते हैं कि ‘क्या क्रिकेट मैचों की हिंदी से भला कोई ऐसी अदृश्य प्रतिस्पर्धा है जो इस तरह हो रहा है। वैसे संभवत कुछ अनुभवी लोग इस बात से सहमत हो सकते हैं कि क्रिकेट ने हमारी रुचियों को अप्राकृतिक और कृत्रिम आकर्षण का गुलाम बना दिया है और जिसकी वजह से हिंदी का रचनाकर्म भी प्रभावित होता है क्योंकि उसको समाज से अपेक्षित प्रोत्साहन नहीं मिलता। अपनी अपनी सोच है। हमने क्रिकेट मेें समय गंवाया है उसकी भरपाई करने के लिये अपनी बात लिखने बाज नहीं आते। लोग भी भला अपनी आदत से कहां बाज आते हैं और कहां क्रिकेट की हार पर विलाप करते हुए उसे भूल रहे थे फिर उसे याद करने लगे हैं।
…………………………..

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