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लुटेरों को ज़ागीर मिली-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (luteron ko zagir mili-hindi vyangya kavitaen)


खज़ाना लूटकर लुटेरे
करने लगे व्यापार,
बांटने लगे उधार,
इस तरह साहुकारों और सौदागरों भी
ऊंची जमात में शामिल हो गये,
क्योंकि उन सामंतों को मिला अपना हिस्सा
जिनको ज़माने की जागीर मिली
विरासत में,
इंसानियत के कायदे रहे जिनकी हिरासत में,
उन्होंने दौलत और शौहरत की ख्वाहिश पूरी करने के लिये
दरियादिली के इरादे कब्र में दफन कर दिये,
और तसल्ली कर ली यह सोचकर कि
वह ऊंची जमात की दावतों में जाने के काबिल हो गये।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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दौलत की भूख मिटाना मुश्किल-हास्य व्यंग्य कवितायें (daulat ki bhookh-hasya vyangya kavitaen)


गरजने वाले बरसते नहीं,
काम करने वाले कहते नहीं,
फिर क्यों यकीन करते हैं वादा करने वालों का
को कभी उनको पूरा करते नहीं।
———
जिनकी दौलत की भूख को
सर्वशक्तिमान भी नहीं मिटा सकता,
लोगों के भले का जिम्मा
वही लोग लेते हैं,
भूखे की रोटी पके कहां से
वह पहले ही आटा और आग को
कमीशन में बदल लेते हैं।
——–

अपने हाथों ही अपने भविष्य का ठेका
अंधों को दे दिया
अब रोते क्यों हो,
रौशनी बेचकर
अपनी आंखों से
अपनी तिजोरी में बढ़ती हरियाली देखकर
वह खुश हो रहे हैं,
आंसु बहाने से अच्छा है
तुम सोचो जरा
दंड मिले खुद को
ऐसे अपराध इस धरती पर बोते क्यों हो।
————–
उनके काम पर उंगली न उठाओ,
अपने हाथ से
सारे हक तुमने उनको दिये हैं,
कुदरत ने दिये थे जो तोहफे तुमको
उनका इस्तेमाल तुमने बेजा किया
जैसे मुफ्त में लिये हैं।
कुछ वादों को झूठ में देकर
दूसरों से हक लेकर
वह लोग अपने पेट भरते नहीं थकते
क्योंकि उसे भरने के लिये ही
वह दूसरों के लिये जिए हैं।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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अंग्रेजी की सनसनी हिन्दी में-व्यंग्य कवितायें


हिन्दी में सनसनी खेज खबर भी
अंग्रेजी अखबार से ही क्यों आती है,
जो हिन्दी में हो
वह सनसनी क्यों नहीं बन पाती है।
डरे हुए हैं बंधुआ कलम मजदूर
उनकी कमजोरी
शायद परायी भाषा में छिप जाती है।
———
मखमली विकास तक ही
उनकी नज़र जाती है,
जहां पैबंद लगे हैं अभावों के
वहां पर आंखें बंद हो जाती हैं।
देसी गुलामों का नजरिया
विदेशी शहंशाहों को यहां गिरवी हैं,
जहां दलाली मिलती है
वहां जुबान दहाड़ती है
नहीं तो तालू से चिपक जाती है।
———

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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इसका नाम ही क्रिकेट है-हिन्दी व्यंग्य लेख


उफ! यह क्रिकेट है! इस समय क्रिकेट खेल को देखकर जो विवाद चल रहा है उसे देखते हुए दिल में बस यही बात आती है कि ‘उफ! यह क्रिकेट है!
इस खेल को देखते हुए अपनी जिंदगी के 25 साल बर्बाद कर दिये-शायद कुछ कम होंगे क्योंकि इसमें फिक्सिंग के आरोप समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपने के बाद मन खट्टा हो गया था पर फिर भी कभी कभार देखते थे। इधर जब चार वर्ष पूर्व इंटरनेट का कनेक्शन लगाया तो फिर इससे छूटकारा पा लिया।
2006 के प्रारंभ में जब बीसीसीआई की टीम-तब तक हम इसे भारत की राष्ट्रीय टीम जैसा दर्जा देते हुए राष्ट्रप्रेम े जज्बे के साथ जुड़े रहते थे-विश्व कप खेलने जा रही थी तो सबसे पहला व्यंग्य इसी पर देव फोंट में लिखकर ब्लाग पर प्रकाशित किया था अलबता यूनिकोड में होने के कारण लोग उसे नहीं पढ़ नहीं पाये। शीर्षक उसका था ‘क्रिकेट में सब कुछ चलता है यार!’
टीम की हालत देखकर नहंी लग रहा था कि वह जीत पायेगी पर वह तो बंग्लादेश से भी हारकर लीग मैच से ही बाहर आ गयी। भारत के प्रचार माध्यम पूरी प्रतियोगिता में कमाने की तैयारी कर चुके थे पर उन पर पानी फिर गया। हालत यह हो गयी कि उसकी टीम के खिलाड़ियों द्वारा अभिनीत विज्ञापन दिखना ही बंद हो गये। जिन तीन खिलाड़ियों को महान माना जाता था वह खलनायक बन गये। उसी साल बीस ओवरीय विश्व कप में भारतीय टीम को नंबर एक बनवाया गया-अब जो हालत दिखते हैं उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है क्योंकि क्रिकेट के सबसे अधिक ग्राहक (प्रेमी कहना मजाक लगता है) भारत में ही हैं और यहां बाजार बचाने के लिये यही किया गया होगा। उस टीम में तीनों कथित महान खिलाड़ी नहीं थे पर वह बाजार के विज्ञापनों के नायक तो वही थे। एक बड़ी जीत मिल गयी आम लोग भूल गये। कहा जाता है कि आम लोगों की याद्दाश्त कम होती है और क्रिकेट कंपनी के प्रबंधकों ने इसका लाभ उठाया और अपने तीन कथित नायकों को वापसी दिलवाई। इनमें दो तो सन्यास ले गये पर वह अब उस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में खेलते हैं। अब पता चला है कि यह प्रतियोगिता तो ‘समाज सेवा’ के लिये आयोजित की जाती है। शुद्ध रूप से मनोरंजन कर पैसा बटोरने के धंधा और समाज सेवा वह भी क्रिकेट खेल में! हैरानी होती है यह सब देखकर!
आज इस बात का पछतावा होता है कि जितना समय क्रिकेट खेलने में बिताया उससे तो अच्छा था कि लिखने पढ़ने में लगाते। अब तो हालत यह है कि कोई भी क्रिकेट मैच नहीं देखते। इस विषय पर देशप्रेम जैसी हमारे मन में भी नहीं आती। हम मूर्खों की तरह क्रिकेट देखकर देशप्रेम जोड़े रहे और आज क्रिकेट की संस्थायें हमें समझा रही हैं कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। यह अलग बात है कि टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाओं जब भारत का किसी दूसरे देश से मैच होता है तो इस बात का प्रयास करते हैं कि लोगों के अंदर देशप्रेम जागे पर सच यह है कि पुराने क्रिकेट प्रेमी अब इससे दूर हो चुके हैं। क्रिकेट कंपनियों की इसकी परवाह नहीं है वह अब क्लब स्तरीय प्रतियोगिता की आड़ में राष्ट्रनिरपेक्ष भाव के दर्शक ढूंढ रहे हैं। इसलिये अनेक जगह मुफ्त टिकटें तथा अन्य इनाम देने के नाम कुछ छिटपुट प्रतियोगितायें होने की बातें भी सामने आ रही है। बहुत कम लोग इस बात को समझ पायेंगे कि इसमें जितनी बड़ी राशि का खेल है वह कई अन्य खेलों का जन्म दाता है जिसमें राष्टप्रेम की जगह राष्ट्रनिरपेक्ष भाव उत्पन्न करना भी शामिल है।
कभी कभी हंसी आती है यह देखकर कि जिस क्रिकेट को खेल की तरह देखा वह खेलेत्तर गतिविधियों की वजह से सामने आ रहा है। यह क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में ऊपर क्या चल रहा है यह तो सभी देख रहे हैं पर जिस तरह आज के युवा राष्ट्रनिरपेक्ष भाव से इसे देख रहे हैं वह चिंता की बात है। दूसरी बात जो सबसे बड़ी परेशान करने वाली है वह यह कि इन मैचों पर सट्टे लगने के समाचार भी आते हैं और इस खेल में राष्ट्रनिरपेक्ष भाव पैदा करने वाले प्रचार माध्यम यही बताने से भी नहीं चूकते कि इसमें फिक्सिंग की संभावना है। सब होता रहे पर दाव लगाने वाले युवकों को बर्बाद होने से बचना चाहिेए। इसे मनोंरजन की तरह देखें पर दाव कतई न लगायें। राष्ट्रप्र्रेम न दिखायें तो राष्ट्रनिरपेक्ष भी न रहे। हम तो अब भी यही दोहराते हैं कि ‘क्रिकेट में सब चलता है यार।’

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अपनी भाषा छोड़कर कहां जाओगे-हिन्दी व्यंग्य कविता


अपनी भाषा छोड़कर
कब तक कहां जाओगे,
किसी कौम या देश का अस्त्तिव
कभी भी मिट सकता है
परायी भाषा के सहारे
कहां कहां पांव जमाओगे।
दूसरों के घर में रोटी पाने के लिये
वैसी ही भाषा बोलने की चाहत बुरी नहीं है
दूसरा घर अकाल या तबाही में जाल में फंसा
तो फिर तुम कहां जाओगे।
अपनी भाषा तो नहीं आयेगी तब भी जुबां पर
फिर दूसरे घर की तलाश में कैसे जाओगे।
————-
उपदेश देते हुए उनकी
जुबान बहुत सुहाती हैं,
और बंद कमरे में उनकी हर उंगली
चढ़ावे के हिसाब में लग जाती है।
किताबों में लिखे शब्द उन्होंने पढ़े हैं बहुत
सुनाते हैं जमाने को कहानी की तरह
पर अकेले में करते दौलत का गणित से हिसाब
लिखने में कलम केवल गुणा भाग में चल पाती है।
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अपने दर्द का बोझ कब तक सहेंगे।
हल्का लगेगा जब दिल से हंसेंगे।
अपने ख्वाब पूरे होने की सौदागरों से चाहत
कब तक ईमान बेचकर पूरी करेंगे।
बाजार में बिकती है ढेर सारी शयें
उनके कबाड़ होने पर, घर कब तक भरेंगे।
दिखा रहे हैं बड़े और छोटे पर्दे पर नकली दृश्य
झूठे जज़्बातों से कब तक अपना दिल भरेंगे।
अपने दर्द पर हंसना सीख लो यारों
रोते हुए जिंदगी के दरिया में कब तक बहेंगे।
दिल को दे सुकून, भुला दे सारे गम
वह दवा तभी बनेगी, जब खुद अपनी बात पर हंसेंगे।
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अंग्रेज किताबें छोड़ गए-हिन्दी व्यंग्य


इस संसार का कोई भी व्यक्ति चाहे शिक्षित, अशिक्षित, ज्ञानी, अज्ञानी और पूंजीवादी या साम्यवादी हो, वह भले ही अंग्रेजों की प्रशंसा करे या निंदा पर एक बात तय है कि आधुनिक सभ्यता के तौर तरीके उनके ही अपनाता है। कुछ लोगों ने अरबी छोड़कर अंग्रेजी लिखना पढ़ना शुरु किया तो कुछ ने धोती छोड़कर पेंट शर्ट को अपनाया और इसका पूरा श्रेय अंग्रेजों को जाता है। मुश्किल यह है कि अंग्रेजों ने सारी दुनियां को सभ्य बनाने से पहले गुलाम बनाया। गुलामी एक मानसिक स्थिति है और अंग्रेजों से एक बार शासित होने वाला हर समाज आजाद भले ही हो गया हो पर उनसे आधुनिक सभ्यता सीखने के कारण आज भी उनका कृतज्ञ गुलाम है।
अंग्रेजों ने सभी जगह लिखित कानून बनाये पर मजे की बात यह है कि उनके यहां शासन अलिखित कानून चलता है। इसका आशय यह है कि उनको अपने न्यायाधीशों के विवेक पर भरोसा है इसलिये उनको आजादी देते हैं पर उनके द्वारा शासित देशों को यह भरोसा नहीं है कि उनके यहां न्यायाधीश आजादी से सोच सकते हैं या फिर वह नहीं चाहते कि उनके देश में कोई आजादी से सोचे इसलिये लिखित कानून बना कर रखें हैं। कानून भी इतने कि किसी भी देश का बड़ा से बड़ा कानून विद उनको याद नहीं रख सकता पर संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि हर नागरिक हर कानून को याद रखे।
अधिकतर देशों के आधुनिक संविधान हैं पर कुछ देश ऐसे हैं जो कथित रूप से अपनी धाार्मिक किताबों का कानून चलाते हैं। कहते हैं कि यह कानून सर्वशक्तिमान ने बनाया है। कहने को यह देश दावा तो आधुनिक होने का करते हैं पर उनके शिखर पुरुष अंग्रेजों के अप्रत्यक्ष रूप से आज भी गुलाम है। कुछ ऐसे भी देश हैं जहां आधुनिक संविधान है पर वहां कुछ समाज अपने कानून चलाते हैं-अपने यहां अनेक पंचायतें इस मामले में बदनाम हो चुकी हैं। संस्कृति, संस्कार और धर्म के नाम पर कानून बनाये मनुष्य ने हैं पर यह दावा कर कि उसे सर्वशक्तिमान  ने बनाया है दुनियां के एक बड़े वर्ग को धर्मभीरु बनाकर बांधा जाता है।
पुरानी किताबों के कानून अब इस संसार में काम नहीं कर सकते। भारतीय धर्म ग्रंथों की बात करें तो उसमें सामाजिक नियम होने के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान भी उनमें हैं, इसलिये उनका एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी प्रासंगिक है। वैसे भारतीय समाज अप्रासांगिक हो चुके कानूनों को छोड़ चुका है पर विरोधी लोग उनको आज भी याद करते हैं। खासतौर से गैर भारतीय धर्म को विद्वान उनके उदाहरण देते हैं। दरअसल गैर भारतीय धर्मो की पुस्तकों में अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है। वह केवल सांसरिक व्यवहार में सुधार की बात करती हैं। उनके नियम इसलिये भी अप्रासंगिक हैं क्योंकि यह संसार परिवर्तनशील है इसलिये नियम भी बदलेंगे पर अध्यात्म कभी नहीं बदलता क्योंकि जीवन के मूल नियम नहीं बदलते।
अंग्रेजों ने अपने गुलामों की ऐसी शिक्षा दी कि वह कभी उनसे मुक्त नहीं हो सकते। दूसरी बात यह भी है कि अंग्रेज आजकल खुद भी अपने आपको जड़ महसूस करने लगे हैं क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति भी नहीं बदली। उन्होंनें भारत के धन को लूटा पर यहां का अध्यात्मिक ज्ञान नहीं लूट पाये। हालत यह है कि उनके गुलाम रह चुके लोग भी अपने अध्यात्मिक ज्ञान को याद नहीं रख पाये। अलबत्ता अपने किताबों के नियमों को कानून मानते हैं। किसी भी प्रवृत्ति का दुष्कर्म रोकना हो उसके लिये कानून बनाते हैं। किसी भी व्यक्ति की हत्या फंासी देने योग्य अपराध है पर उसमें भी दहेज हत्या, सांप्रदायिक हिंसा में हत्या या आतंक में हत्या का कानून अलग अलग बना लिया गया है। अंग्रेज छोड़ गये पर अपनी वह किताबें छोड़ गये जिन पर खुद हीं नहीं चलते।
यह तो अपने देश की बात है। जिन लोगों ने अपने धर्म ग्रंथों के आधार पर कानून बना रखे हैं उनका तो कहना ही क्या? सवाल यह है कि किताबों में कानून है पर वह स्वयं सजा नहीं दे सकती। अब सवाल यह है कि सर्वशक्तिमान की इन किताबों के कानून का लागू करने का हक राज्य को है पर वह भी कोई साकार सत्ता नहीं है बल्कि इंसानी मुखौटे ही उसे चलाते हैं और तब यह भी गुंजायश बनती है कि उसका दुरुपयोग हो। किसी भी अपराध में परिस्थितियां भी देखी जाती हैं। आत्म रक्षा के लिये की गयी हत्या अपराध नहीं होती पर सर्वशक्तिमान के निकट होने का दावा करने वाला इसे अनदेखा कर सकता है। फिर सर्वशक्तिमान के मुख जब अपने मुख से किताब प्रकट कर सकता है तो वह कानून स्वयं भी लागू कर सकता है तब किसी मनुष्य को उस पर चलने का हक देना गलत ही माना जाना चाहिये। इसलिये आधुनिक संविधान बनाकर ही सभी को काम करना चाहिए।
किताबी कीड़ों का कहना ही क्या? हमारी किताब में यह लिखा है, हमारी में वह लिखा है। ऐसे लोगों से यह कौन कहे कि ‘महाराज आप अपनी व्याख्या भी बताईये।’
कहते हैं कि दुनियां के सारे पंथ या धर्म प्रेम और शांति से रहना सिखाते हैं। हम इसे ही आपत्तिजनक मानते हैं। जनाब, आप शांति से रहना चाहते हैं तो दूसरे को भी रहने दें। प्रेम आप स्वयं करें दूसरे से बदले में कोई अपेक्षा न करें तो ही सुखी रह सकते हैं। फिर दूसरी बात यह कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। मतलब यह कि आप में अगर प्रेम का गुण नहीं है तो वह मिल नहंी सकता। बबूल का पेड़ बोकर आम नहीं मिल सकता। पुरानी किताबें अनपढ़ों और अनगढ़ों के लिये लिखी गयी थी जबकि आज विश्व समाज में सभ्य लोगों का बाहुल्य है। इसलिये किताबी कीड़े मत बनो। किताबों में क्या लिखा है, यह मत बताओ बल्कि तुम्हारी सोच क्या है यह बताओ। जहां तक दुनियां के धर्मो और पंथों का सवाल है तो वह बनाये ही बहस और विवाद करने के लिये हैं इसलिये उनके विद्वान अपने आपको श्रेष्ठ बताने के लिये मंच सजाते हैं। जहां तक मनुष्य की प्रसन्नता का सवाल है तो उसके लिये भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के अलावा कोई रास्ता नहीं है। दूसरी बात यह कि उनकी किताबें इसलिये पढ़ना जरूरी है कि सांसरिक ज्ञान तो आदमी को स्वाभाविक रूप से मिल जाता है और फिर दुनियां भर के धर्मग्रंथ इससे भरे पड़े हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान बिना गुरु या अध्यात्मिक किताबों के नहीं मिल सकता। जय श्रीराम!

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खुद नाकाम, दूसरों को कामयाबी का पाठ पढ़ा रहे हैं-हिन्दी हास्य कवितायें


अपने अपने मसलों पर
चर्चा के लिये उन्होंने बैठक बुलाई,
सभी ने अपनी अपनी कथा सुनाई।
निर्णय लेने पर हुआ झगड़ा
पर तब सुलह हो गयी,
जब नाश्ते पर आने के लिये
आयोजक ने अपनी घोषणा सुनाई।
———
खुद रहे जो जिंदगी में नाकाम
दूसरों को कामयाबी का
पाठ पढ़ा रहे हैं।
सभी को देते सलीके से काम करने की सलाह,
हर कोई कर रहा है वाह वाह,
इसलिये कागज पर दिखता है विकास,
पर अक्ल का हो गया विनाश,
एक दूसरे का मुंह ताक रहे सभी
काम करने के लिये
जो करने निकले कोई
उसकी टांग में टांग अड़ा रहे हैं।
ऐसे कर
वैसे कर
सभी समझा रहे हैं।
——–
अपने अपने मसलों पर
चर्चा के लिये उन्होंने बैठक बुलाई,
सभी ने अपनी अपनी कथा सुनाई।
निर्णय लेने पर हुआ झगड़ा
पर तब सुलह हो गयी,
जब नाश्ते पर आने के लिये
आयोजक ने अपनी घोषणा सुनाई।
———
तंग सोच के लोग
करते हैं नये जमाने की बात,
बाहर बहती हवाओं को
अपने घर के अंदर आने से रोकते,
नये ख्यालों पर बेबात टोकते,
ख्यालों के खेल में
कर रहे केवल एक दूसरे की शह और मात।
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सबसे अधिक कायर लोग नायक बनाये जाते हैं-हिन्दी हास्य व्यंग्य कवितायें


कायरों की सेना क्या युद्ध लड़ेगी
सबसे अधिक कायर लोग नायक बनाये जाते हैं।
कुछ खो जाने के भय से सहमे खड़े है
भीड़ में भेड़ों की तरह लोग,
चिंता है कि छिन न जायें
तोहफे में मिले मुफ्त के भोग,
इसलिये लुटेरे पहरेदार बनाये जाते हैं।
————
अब तो पत्थर भी तराश कर
हीरे बनाये जाते हैं,
पर्दे पर चल रहे खेल में
कैमरे की तेज रोशनी में
बुरे चेहरे भी सुंदरता से सजाये जाते हैं।
ख्वाब और सपनों के खेल को
कभी हकीकत न समझना,
खूबसूरत लफ्ज़ों की बुरी नीयत पर न बहलना,
पर्दे सजे है अब घर घर में
उनके पीछे झांकना भी मुश्किल है
क्योंकि दृश्य हवाओं से पहुंचाये जाते हैं।
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शैतान का नाम-हिन्दी हास्य व्यंग्य


सर्वशक्तिमान को यह अहसास होने लगा था कि संसार में उनका नाम स्मरण कम होता जा रहा था। दरअसल अदृश्य सर्वशक्तिमान सारे संसार पर अनूभूति से ही नियंत्रण करते रहे थे और लोगों की आवाज तभी उन तक पहुंचती थी जब उनके हृदय से निकली हो। अपनी अनुभूति के परीक्षण के लिये उन्होंने वायु को बुलाया और उससे पूछा-’यह बताओ, मनुष्यों ने मेरे नाम का स्मरण करना क्या बंद कर दिया है या तुमने ही उनको मेरे पास तक लाने का काम छोड़ दिया है। क्योंकि मुझे लग रहा है कि मेरा नाम जपने वाले भक्त कम हो रहे हैं। उनके स्वरों की अनुभूति अब क्षीण होती जा रही है।
वायु ने कहा-‘मेरा काम अनवरत चल रहा है। बाकी क्या मामला है यह आप जाने।’
सर्वशक्तिमान ने सूर्य को बुलाया। उसका भी यही जवाब है। उसके बाद सर्वशक्तिमान ने प्रथ्वी, चंद्रमा, जलदेवता और आकाश को बुलाया। सभी ने यही जवाब दिया। अब तो सर्वशक्तिमान हैरान रह गये। तभी अपनी अनूभूति की शक्ति से उनको लगा कि कोई एक आत्मा उनके पास बैठकर ऊंघ रहा है-उसके ऊंघने से तरीके से पता लगा कि वह अभी अभी मनुष्य देह त्याग कर आया है। उन्हें हैरानी हुई तब वह नाराज होकर उससे बोले-‘अरे, तूने कौनसा ऐसा योग कर लिया है कि मेरे दरबार तक पहुंच गया है। जहां तक मेरी अनुभूतियों की जानकारी है वहां ऐसा कोई मनुष्य हजारों साल से नहीं हुआ जिसने कोई योग वगैरह किया हो और मेरे तक इस तरह चला आये।
उस ऊंघते हुए आत्मा ने कहा-‘मुझे मालुम नहीं है कि यहां तक कैसे आया? वैसे भी आप तक आना ही कौन चाहता है। मैं भी माया के चक्कर में था पर वह भाग्य में आपने नहीं लिखी थी-ऐसा मुझे उस शैतान ने बताया जिसने अपनी मजदूरी का दाम बढ़ाने की बात पर ठेकेदार से झगड़ा करवा कर मुझे मरवा डाला। वही यहां तक छोड़ गया है।’
अपने प्रतिद्वंद्वी का नाम सुनकर परमात्मा चकित रह गये। फिर गुस्सा होकर बोले-‘निकल यहां से! शैतान की इतनी हिम्मत कि अब मुझ तक लोगों को पहुंचाने लगा है। वह भी ऐसे आदमी को जिसने मेरा नाम कभी लिया नहीं।’
उस आत्मा ने कहा-लिया था न! मरते समय लिया था दरअसल मुंह से निकल गया था। यह उस शैतान की कारिस्तानी या मेरा दुर्भाग्य कह सकते हैं। शैतान ने मुझे पकड़ा और बताया सर्वशक्तिमान कहना है कि जो मेरा नाम आखिर में लेता है वह मुझे प्राप्त होता है। चल तुझे वहां छोड़ आता हूं। कहने लगा कि स्वर्ग है यहां पर! मुझे तो कुछ भी नज़र नहीं आ रहा। न यहां टीवी है और न ही फ्रिज है और न ही यहां कोई कार वगैरह चलती दिख रही है। सबसे बड़ी बात यह कि वह शैतान कितना सुंदर था और एक आप हो कि दिख ही नहीं रहे।’
शैतान होने के सुंदर होने की बात सुनकर सर्वशक्तिमान के कान फड़कने लगे वह बुदबुदाये-‘यह शैतान सुंदर कब से हो गया।’
उन्होंने तत्काल अपना चमत्कारी चश्मा पहना जिससे उनको अपनी पूर्ण देह प्राप्त हुई। वह आत्मा खुश हो गया और बोला-‘अरे, आओ शैतान महाराज! यह कहां नरक में छोड़ गये।’
सर्वशक्तिमान नाराज होकर बोले-‘कमबख्त! मैं तुझे शैतान नज़र आ रहा हूं। वह तो काला कलूटा है। मैं तो स्वयं सर्वशक्तिमान हूं।’
वह आत्मा बोला-‘क्या बात करते हो? अभी अभी तो मुझे वहां से ले आये।’
सर्वशक्तिमान के समझ में आ गया। उन्होंने आत्मा को वहां से धक्का दिया तो वह आत्माबोला-‘आप ऐसा क्यों कर रहे हो।’
सर्वशक्तिमान ने कहा-‘तूने धरती से विदा होते समय मेरा नाम लिया तो यहां आ गया और अब शैतान का नाम लिया तो वहीं जा।’
वह आत्मा खुश होकर वहां से जमीन पर चला आया। इधर सर्वशक्तिमान ने हुंकार भरी और शैतान को ललकारा। वह भी प्रकट हो गया और बोला-‘क्या बात है? मैं नीचे बिजी था और तुमने मुझे यहां बुला लिया।’
उसका नया स्वरूप देखकर सर्वशक्तिमान चकित रहे गये और उससे बोले-कमबख्त! तेरी इतनी हिम्मत तू मेरा रूप धारण कर घूम रहा है।’
शैतान हंसा और बोला-हमेशा ही बिना भौतिक रूप के यहां वहां पड़े रहते हो। न तो सुगंध ग्रहण करते हो न किसी चीज का स्पर्श करते हो। न सुनते हो न कुछ कहते हो। केवल अनुभूतियों के सहारे कब तक मुझसे लड़ोगे। अरे, मुझे यह रूप धारण किये सदियां बीत गयी। तुम्हें होश अब आ रहा है। एक आत्मा पहुंचाया था उसे भी यहां से निकाल दिया।’
सर्वशक्मिान ने कहा-‘पर यह तुमने मेरे रूप को धारण कैसे और क्यों किया? मैंने तुम्हें कभी इतना सक्षम नहीं बनाया।’
शैतान ने कहा-‘क्यों अक्ल तो है न मेरे पास! तुम्हारे ज्ञान को मैंने ग्रहण कर लिया जिसमें तुमने बताया कि जिसका नाम लोगे वैसे ही हो जाओगे। मैं तुम्हारा नाम लेता रहा। उसका मतलब तुम्हारी भक्ति करना नहीं बल्कि तुम्हारे जैसा रूप प्राप्त करना था। सो मिल गया। तुम तो यही पड़े रहते हो और तुम्हारी पत्थर की मूर्तियां और पूजागृह नीचे बहुत खड़े हैं। सभी में मेरा प्रवेश होता है। दूसरा यह कि मैं क्रिकेट, फिल्म तथा तुम्हारे सत्संगों में सुंदर रूप लेकर उपस्थित रहता हूं। अपना रूप बदला है नीयत नहीं। लोग मेरा चेहरा देखकर इतना अभिभूत होते है कि मुझे ही सर्वशक्तिमान मान बैठते हैं। मेरे अनेक सुंदर चेहरों की तो फोटो भी बन जाती है। फिर तुम जानते हो कि माया नाम की सुंदरी जिसे तुमने कभी स्वीकार नहीं किया मेरी सेवा में रहती है। तुम्हें यह सुनकर दुःख तो होगा कि काम मैं करवाता हूं बदनामी में नाम तुम्हारा ही जुड़ता है। जो लोग तुम्हें नहीं मानते वह तो नाम भी नहीं लेते पर जो लेते हैं वह भी यही कहते हैं कि ‘देखो, सर्वशक्तिमान के नाम पर क्या क्या पाप हो रहा है।’
शैतान बोलता गया और सर्वशक्तिमान चुप रहे। आखिर शैतान बोला’-‘सुन लिया सच! अब में जाऊं। मेरे भक्त इंतजार कर रहे होंगे।’
सर्वशक्तिमान ने हैरानी से पूछा-‘तुम्हारे भक्त भी हैं संसार में!
शैतान सीना फुला कर बोला-‘न! सब तुम्हारे हैं! मैं तो उन्हें दिखता हूं और तुम्हारे नाम से वह मुझे पूजते हैं। तो मेरे ही भक्त हुए न!’
शैतान चला गया और सर्वशक्तिमान ने अपना चमत्कारी चश्मा उतार दिया।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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गरीब का भला-हिन्दी व्यंग्य


अमेरिका में एक गोरी महिला पर आनलाईन आतंकवादी भर्ती करने का मुकदमा दर्ज हुआ है। बताया गया है कि वह लोगों को मीठी बातों में फंसाकर अपने जाल में फंसाती थी। दुनियां भर के गरीबों का भला करने की बात करती थी! भर्ती करने वालों को धन का प्रलोभन भी देती थी! वगैरह वगैरह! उस अमेरिकन ने अपना अंग्रेजी नाम बदल भी लिया था ताकि वह धर्म के नाम पर गैर अमेरिकन लोगों में अपनी पहचान बना सके।
यह आलेख केवल उस महिला पर ही नहीं है बल्कि उसकी प्रकटतः प्रकृत्तियों पर है जो अनेक जगह अनेक लोगों में देखने को मिलती है। जिसमें सबसे अधिक है गरीबों का भला करने की बात! इसलिये हिंसा कर महामानव के रूप में प्रतिष्ठत होने का एक ख्वाब जो एक हर चालाक बुद्धिमान देखता है।
गरीबों के भले की बात करते देखकर बुद्धिमानों पर कोई हंसता नहीं है क्योंकि लोगों की सोच स्वतंत्र नहीं रही। हम यहां भारत की क्या बात करें अमेरिका और ब्रिटेन में यही हालत हैं-आखिर उनकी शिक्षा पद्धति ही हमारे समाज ने अपनायी है।
गरीब का भला! मेहनतकश के साथ न्याय! दुनियां के उस आखिर आदमी के लिये लड़ने की बात जिसे दो समय की बात क्या एक समय के लिये भी खाना नहीं मिलता। इसके लिये जंग करने वाले बताते हैं कि दुनियां का पूरा पैसा कुछ व्यक्तियों, समाजों या राष्ट्रों के पास जा रहा है जिनको परास्त करना आवश्यक है ताकि दुनियां से गरीबी और भुखमरी मिट सके। इसके लिये वह बंदूकें, गोलियां और बम जुटाते हैं जैसे कि उनसे खाना बना रहे हों।
कुछ ऐसे भी हैं जो यह सब नहीं करते पर पर्दे के पीछे बैठकर फिल्में, टीवी धारावाहिक या रेडियों पर उनकी जंग का प्रचार करते हैं। अखबारों में लेख वगैरह लिखते हैं। दुनियां की पंक्ति में सबसे आखिर में खड़े भूखे, नंगे और बेकार आदमी का भला करने का यह ख्वाब खूब चलता है। कहते हैं कि आदमी अपनी विपरीत स्थितियों में मनोरंजन ढूंढता है। अमेरिका की सभ्यता धनाढ़य, गौरवर्ण तथा आधुनिक शिक्षित वर्ग की भीड़ से सजी है इसलिये उनको गरीब-भूखे-नंगे, निम्न वर्ग तथा अशिक्षित वर्ग के विषयों में मनोरंजन मिलता है जबकि हमारे भारत में सभी गरीब और भूखे नहीं है पर यहां उनके सामने ऐसा दृश्य प्रस्तुत करने वाला वर्ग प्रतिदिन विचरता है इसलिये उनको धनाढ्य तथा गौरवर्ण कथानकों में आनंद मिलता है। हम भारत ही क्या अधिकांश एशियाई देशों में यह दोष या गुण देखते हैं। यही कारण है कि इस इलाके में आतंकवाद जमकर पनपा है। मजे की बात यह है कि पूरे विश्व के लिये अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन भी एशियाई देशों के नेता भारत में ही हुआ है। कहते हैं कि गुलाब कांटों में तो कमल कीचड़ में पनपता है। भारत का अध्यात्मिक ज्ञान इतना प्रभावी इसलिये है क्योंकि यहां अज्ञान अधिक फलताफूलता रहा है। गरीब का भला और बेसहारों को सहारा देने के नाम पर एशिया के लोग बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं।
अमेरिका की उस महिला ने भी आखिर क्या प्रचार किया होगा? यही कि गरीबों का भला करने के लिये चंद लोगों का मरना जरूरी है या गोली और बम के धमाकों से भूखे के लिये रोटी पकेगी तो गरीब की गरीबी दूर हो जायेगी।
पंच तत्वों से बनी इस देह में जो मन रहता है उसे समझना कठिन है और जो समझ ले वही ज्ञानी है। आम इंसान अपना पूरा जीवन अपने स्वार्थों में लगाता है पर उसका मन कहीं न कहीं परमार्थी की उपाधि पाने के लिये भटकता है। अनेक ऐसे लोग हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी में किसी का भला नहीं किया पर ऐसे किस्से सुनाकर अपना दिल बहलाते हैं कि ‘हमने अमुक का भला किया’ या ‘अमुक को बचाया’। उनको गरीबों का भला करना तथा भूखे को रोटी खिलाना एक अच्छी बात लगती है बशर्ते स्वयं यह काम न करना पड़े। ऐसे में अगर कुछ लोग यह काम करते हैं तो वह उनकी प्रशंसा करते हैं पर अगर कोई ऐसा करने का दावा करने लगे तो उसे भी प्रशंसनीय मान लेते हैं। कुछ युवा क्रांतिकारी होने का सपना लेकर गरीबों का भला करने के लिये उपदेशकों की बातों में हिंसा भी करने को तैयार हो जाते हैं बशर्ते कि उनको सारी दुनियावी सुविधायें उपलब्ध करायी जायें और जिनके लिये पैसा खर्च होता है। मूल बात इसी पैसे पर आकर टिकती है जो धनपतियों के पास ही है जिनके विरुद्ध गरीबों के कथित मसीहा बोलते रहते हैं-इनमें बहुत कम ऐसे है जो अपनी जान देने निकलते हैं बल्कि अपनी बातों से दूसरे को अपनी जान देने को तैयार करते हैं-जन्नत में स्थाई सदस्यता दिलाने के वाद के साथ! ऐसे बहुत सारे मसीहा जिंदा हैं पर उनके बहुत सारे शगिर्द काल कलवित हो गये-और इन गुरुओं को इसकी बिल्कुल चिंता नहीं है क्योंकि उनके प्रायोजित विद्यालय निरंतर नये लड़कों का सृजन करते रहते हैं। मूल प्रश्न का उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया कि पैसा कहां से आता है?
कहते हैं कि दुनियां के सारे धर्म गरीबों का भला करना सिखाते हैं। यह एक मजाक के अलावा कुछ नहीं है। सारे धर्म के मतावलंबियों और सर्वशक्तिमान के बीच एक मध्यस्थ होता है जो उसका परिचय अपने समूह के लोगों से कराता है। सभी की भाषायें है और पहचान के लिये वस्त्रों के रंग भी तय हैं-गेरुआ, हरा, सफेल और अन्य रंग। नाम भी अब स्थानीय भाषा के नाम पर नहीं बल्कि धर्म की भाषा के आधार पर रखते जाते हैं। एक आदमी जब धर्म बदलता है तो नाम भी बदल देता है। अनेक लोग पैसा लेकर या भविष्य में विकास का वादा करने पर धर्म बदल देते हैं। यह एक क्रांतिकारी मजाक है जो अक्सर अनेक देशों में दिखाई देता है। अभी तक धार्मिक मध्यस्थ केवल सर्वशक्तिमान और इंसान के बची की कड़ी थी पर ऐसा लगता है कि जैसे कि उन्होंने अमीरों और गरीबों के बीच में भी अपना पुल बना लिया है। गरीबों को आतंक फैलाने तो अमीरों को उससे फैलते देखनें के मनोरंजन में व्यस्त रखने के लिये आतंक उनके लिये एक व्यापार हो गया है जिसे वह अपने ढंग से धर्म फैलाने या बचाने का संघर्ष भी कहते हैं कई जगह गरीबों के उद्धार की भी बात की जाती है। यकीनन अमीरों से उनको पैसा मिलता है। यह पैसा अमीर अपने एक नंबर के धंधे को बचाने या दो नंबर के धंधे को चलाने के लिये देते होंगे। दुनियां के सारे भाषाई, जातीय, धार्मिक तथा क्षेत्रीय समूहों पर ऐसी ही अदृश्य ताकतों की पकड़ है जिसमें मौलिक तथा स्वतंत्र सोच रखने वाले पागल या अयथार्थी समझे जाते हैं। इस बात का पूरा इंतजाम है कि हर व्यवस्था में तय प्रारूप में ही बहसें हों, विवाद हों और प्रचार तंत्र उनके इर्दगिर्द ही घूमता रहे। दो विचारों के बीच दुनियां के लोग भटकें-गरीब का भला और विकास-जिसमें अमीरों का वर्चस्व रहता है। इस दुनियां में दो प्रकार के लोग हैं एक तो वह जो गरीबों का भला होते देखना चाहते है-स्वयं कितना करते है यह एक अलग प्रश्न है-दूसरा वह वर्ग है जो विकास चाहता है। बीच बीच में भाषा, धर्म,जाति तथा क्षेत्रीय पहचान को लेकर भी बहसें और विवाद होते हैं पर उनमें भी गरीबों का भला या विकास का मुद्दा कहीं न कहीं होता है भले ही उसका नंबर दूसरा हो।
टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में चलने वाली इन बहसों से अलग होकर जब हम सड़क पर देखते हैं तो सारा दृश्य बदल जाता है। पेट्रोल का धुंआ उगलते विलासिता के प्रतीक वाहनों में सवार अमीर लोग अपनी राह चले जा रहे हैं। गरीब आदमी ठेले पर अपना सामान बेचने जा रहा है। अमीर चीज का भाव पूछता है गरीब बताता है। अमीर भाव कम करने के लिये कहता है। वह करता है कभी नहीं भी करता है। अस्पतालों में गरीब इलाज के लिये ठोकरें खाता नज़र आता है। सबसे बड़ी बात यह कि हम जैसे लेखक जब एक आदमी के रूप में धक्का खाते है तब अपने आप से सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा भला चाहता कौन है?
ऐसे ढेर सारे प्रश्नों से जूझते हुए जब कोई अखबार पढ़ते या टीवी देखते हुए गरीबों के कल्याण और मेहनतकश के न्याय पर बहस देखता और सुनता है तो उसे वह निरर्थक, अयथार्थ तथा काल्पनिक लगती है। शायद ऐसी बहसें बौद्धिक विलासिता का हिस्सा हैं पर इनके आयोजक इसका फोकट में नहीं करते। मुख्य बात यह कि पैसा कहां से आता है! शायद वहीं से आता होगा जहां से गोलियां, बम और बंदूकें खरीदने के लिये दिया जाता है। संभव है यह सब भयानक सामान बनाने वाले दलालों को अपना सामान बिकवाने के लिये पैसे देते हों। पहले आतंकी खरीदेगा तो फिर उससे बचने के लिये पहरेदार भी खरीदेगा। आतंकी एक, दो, तीन या चार होते है पर पहरेदार तो हजारों हैं। पूरी दुनियां में लाखों हैं। सब कुछ सोचते हुए आखिर वहीं खड़े हो जाते हैं और अपने आप से ही कहते हैं कि ‘कहां चक्कर में पड़ गये यार’। कुछ बेकार कवितायें लिखो या कोई चुटकुला लिखो। दिल बहलाने के लिये इससे अच्छा साधन क्या हो सकता है।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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व्यापार जज़्बातों का-हिन्दी शायरी


अपने जज़्बातों को दिल में रखो
बाहर निकले तो
तूफान आ जायेगा।
हर बाजार में बैठा हैं सौदागर
जो करता है व्यापार जज़्बातों का
वही तुम्हारी ख्वाहिशों से ही
तुमसे तुम्हारा सौदा कर जायेगा।
यहां हर कदम पर सोच का लुटेरा खड़ा है
देख कर ख्याल तुम्हारे
ख्वाब लूट जायेगा।
इनसे भी बच गये तो
नहीं बच पाओगे अपने से
जो सुनकर तुम्हारी बात
सभी के सामने असलियत गाकर
जमाने में मजाक बनायेगा।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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हम कोई फरिश्ते नहीं-हिन्दी शायरी


सिर उठाकर आसमान में देखा तो लगा
जैसे हम उसे ढो रहे हैं,
जमीन पर गड़ायी आंख तो लगा कि
हम उसे अपने पांव तले रौंद रहे हैं।
ठोकर खाकर गिरे जब जमीन पर मुंह के बल
न आसमान गिरा
न जमीन कांपी
तब हुआ अहसास कि
हम कोई फरिश्ते नहीं
बस एक आम इंसान है
जो इस दुनियां को बस भोग रहे हैं।
———
अपने से ताकतवर देखा तो
सलाम ठोक दिया,
कमजोर मिला राह पर
उसे पांव तले रौंद दिया।
वह अपनी कारगुजारियों पर इतराते रहे
काली करतूतें
सफेद कागज में ढंकते रहे
पर ढूंढ रहे थे अपने खड़े रहने के लिये जमीन
जब समय ने उनके कारनामों को खोद दिया।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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हिन्दू धर्म संदेश-अन्य लोगों के काम करने पर मिलती है इज्जत


स्वारथ सूका लाकड़ा, छांह बिहना सूल।
पीपल परमारथ भजो, सुख सागर को मूल।।
संत कबीरदास जी का कहना है कि स्वार्थ तो सूखी लकड़ी के समान हैं जिसमें न तो छाया मिलती है और न ही सुख। एक तरह से वह कांटे की तरह है। इसके विपरीत परमार्थ पीपल के पेड़ के समान हैं जो सुख प्रदान करता है।
धन रहै न जोबन रहे, रहै न गांव न ठांव।
कबीर जग में जस रहे, करिदे किसी का काम।
संत कबीर दास जी कहते हैं कि एक दिन यह न धन रहेगा न यह यौवन ही साथ होगा। गांव और घर भी छूट जायेगा पर रहेगा तो अपना यश, यह तभी संभव है कि हमने किसी का काम किया हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह लोगों की गलतफहमी है कि वह भौतिक उपलब्धियों के कारण सम्मान पा रहे हैं। लोग अपनी आर्थिक उपलब्धियों, परिवार की प्रतिष्ठा और अपने कर्म का बखान स्वयं करते हैं। मजा तो तब है जब दूसरे आपकी प्रशंसा करेें और यह तभी संभव है कि आप अपने काम से दूसरे की निस्वार्थ भाव से सहायता कर उसको प्रसन्न करें।
आप कहीं किसी धार्मिक स्थान, उद्यान या अन्य सार्वजनिक स्थान पर जाकर बैठ जायें। वहां आपसे मिलने वाले लोग केवल आत्मप्रवंचना में लगे मिलेंगे। हमने यह किया, वह किया, हमने यह पाया और हमने यह दिया जैसे जुमले आप किसी के भी श्रीमुख से नहीं सुन पायेंगे।
दरअसल बात यह है कि सामान्य मनुष्य पूरा जीवन अपने और परिवार के लिये धन का संचय कर यह सोचता है कि वह सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित कर रहा है और परमार्थ करना उसके लिये एक फालतू विषय है। जब उससे धन और यौवन विदा होता है तब वह खाली बैठे केवल अपने पिछले जीवन को गाता है पर सुनता कौन है? सभी तो इसमें ही लगे हैं। इसलिये अगर ऐसा यश पाना है जिससे जीवन में भी सम्मान मिले और मरने पर भी लोग याद करें तो दूसरों के हित के लिये काम करें। जब समय निकल जायेगा तब पछताने से कोई लाभ नहीं होगा।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
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दिल और दुनिया-हिन्दी शायरी


रिश्ते किसी तरह निभाऐं,

दिल में न हो पर

दुनियां को दिखाऐं।

सभी टूटे हुए हैं जमाने से

पर छिपा रहे हैं

आप भी छिपायें।

———

अपनी नीयत में कभी खोट

नहीं पालना

जला कर राख कर देगा।

छलियों पर नज़र रखना पर

छल को दिल में जगह

कभी मत देना

तुम्हें ही खाक कर देगा।

———–

लोग दिखाने के लिये दर्द दिखा रहे हैं

तुम भी हमदर्दी दिखा देना।

जिनको सच में है तकलीफ

वह बताने नहीं आयेंगे

तुम उन तक पहुंच कर मदद बांटना

हमदर्दी का पाठ दुनियां को सिखा देना।

———

पल पल धोखा खाकर भी

किसी से गद्दारी मत करना।

जिन्होंने तोड़े हैं दिल

वह भी कोई जन्नत में नहीं गये

वफा जिनको नहीं आयी

बना नहीं सके वह दोस्त नये,

तुम हर दर्द भूल जाओगे

बस अपने हाथ से

सभी जगह वफादारी का लफ्ज भरना।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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गर्भ में कन्या की हत्या सामाजिक कुरीतियों का परिणाम-हिन्दी लेख


देश में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की कम होती संख्या चिंता का विषय है। यह चिंता होना भी चाहिये क्योंकि जब हम मानव समाज की बात करते हैं तो वह दोनों पर समान रूप से आधारित है। रिश्तों के नाम कुछ भी हों मगर स्त्री और पुरुष के बीच सामजंस्य के चलते ही परिवार चलता है और उसी से देश को आधार मिलता है। इस समय स्त्रियों की कमी का कारण ‘कन्या भ्रुण हत्या’ को माना जा रहा है जिसमें उसके जनक माता, पिता, दादा, दादी, नाना और नानी की सहमति शामिल होती है। यह संभव नहीं है कि कन्या भ्रुण हत्या में किसी नारी की सहमति न शामिल हो। संभव है कि नारीवादी कुछ लेखक इस पर आपत्ति करें पर यह सच नहीं बदल सकता क्योंकि हम अपने समाज की कुरीतियों, अंधविश्वासों और पाखंडों को अनदेखा नहीं कर सकते जिसमें स्त्री और पुरुष समान रूप से शामिल होते दिखते हैं।
अनेक समाज सेवकों, संतों तथा बुद्धिजीवी निंरतर कन्या भ्रुण हत्या के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं-उनकी गतिविधियों की प्रशंसा करना चाहिये।
मगर हमें यह बात भी देखना चाहिये कि ‘कन्या भ्रुण हत्या’ कोई समस्या नहीं बल्कि समाज में व्याप्त दहेज प्रथा तथा अन्य प्रकार की सामाजिक सोच का परिणाम है। ‘कन्या भ्रुण हत्या’ रोको जैसे नारे लगाने से यह काम रुकने वाला नहीं है भले ही कितनी ही राष्ट्रभक्ति या भगवान भक्ति की कसमें खिलाते रहें।
अनेक धार्मिक संत अपने प्रवचनों में भी यही मुद्दा उठा रहे हैं। अक्सर वह लोग कहते हैं कि ‘हमारे यहां नारी को देवी की तरह माना जाता है’।
सवाल यह है कि वह किसे संबोधित कर रहे हैं-क्या उनमें नारियां नहीं हैं जो कहीं न कहीं इसके लिये किसी न किसी रिश्ते के रूप में शामिल होती हैं।
दहेज प्रथा पर बहुत लिखा गया है। उस पर लिखकर कर विषय के अन्य पक्ष को अनदेखा करना व्यर्थ होगा। मुख्य बात है सोच की।
हममें से अनेक लोग पढ़ लिखकर सभ्य समाज का हिस्सा बन गये हैं पर नारी के बारे में पुरातन सोच नहीं बदल पाये। लड़की के पिता और लड़के के पिता में हम स्वयं भी फर्क करते दिखते हैं पर तब हमें इस बात का अनुमान नहीं होता कि अंततः यह भाव एक ऐसी मानसिकता का निर्माण करता है जो ‘कन्या भ्रुण हत्या’ के लिये जिम्मेदार बनती है। शादी के समय लड़की वालों को तो बस किसी भी तरह बारातियों को झेलना है और लड़के वालों को तो केवल अपनी ताकत दिखाना है। अनेक बार ऐसी दोहरी भूमिकायें हममें से अनेक लोग निभाते रहे हैं। तब हम यंत्रवत चलते रहते हैं कि यह तो पंरपरा है और इसे निभाना है। शादी के समय जीजाजी का जूता साली चुराती है और उसे पैसे लेने हैं पर इससे पहले उसका पिता जो खर्च कर चुका होता है उसे कौन देखता है। साली द्वारा जुता चुराने की रस्म बहुत अच्छी लगती है पर उससे पहले हुई रस्में निभाते हुए दुल्हन का बाप कितना परेशान होता है यह देखने वाली बात है।
हमारे यहां अनेक प्रकार के समाज हैं। कमोबेश हर समाज में नारी की स्थिति एक जैसी है। उस पर उसका पिता होना मतलब अपना सिर कहीं झुकाना ही है। अनेक लोग कहते भी हैं कि ‘लड़की के बाप को सिर तो झुकाना ही पड़ता है।’
कुछ समाजों ने तो अब शराब खोरी और मांसाहार परोसने जैसे काम विवाहों के अवसर सार्वजनिक कर दिये हैं जो कभी हमारी परंपरा का हिस्सा नहीं रहे। वहां हमने पाश्चात्य सभ्यता का मान्यता दी पर जहां लड़की की बात आती है वहां हमें हमारा धर्म, संस्कार और संस्कृति याद आती है और उसका ढिंढोरा पीटने से बाज नहीं आते।
कहने का अभिप्राय यह है कि ‘कन्या भ्रुण हत्या’ का नारा लगाना है तो नारा लगाईये पर देश के लोगों को प्रेरित करिये कि
1. शादी समारोह अत्यंत सादगी से कम लोगों की उपस्थिति में करें। भले ही बाद में स्वागत कार्यक्रम स्वयं लड़के वाले करें।
2. दहेज को धर्म विरोधी घोषित करें। याद हमारे यहां दहेज का उल्लेख केवल भगवान श्रीराम के विवाह समारोह में दिया गया था पर उस समय की हालत कुछ दूसरे थे। समय के साथ चलना ही हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मुख्य संदेश हैं।
3. लोगों को यह समझायें कि अपने बच्चों का उपयेाग अस्त्र शस्त्र की तरह न करें जिससे चलाकर अपनी वीरता का परिचय दिया जाता है।
4. अनेक रस्मों को रोकने की सलाह दें।
याद रखिये यही हमारा समाज हैं। अगर आज किसी को तीन लड़कियां हों तो उसे सभी लोग वैसे ही बिचारा कहते हैं। ऐसा बिचारा कौन बनना चाहेगा? जब तक हम अपने समाज में व्याप्त दहेज प्रथा, शादी में अनाप शनाप खर्च तथा सोच को नहीं बदलेंगे तब तक कन्या भ्रुण हत्या रोकना संभव नहीं है। दरअसल इसके लिये न केवल राजनीतिक तथा कानूनी प्रयास जरूरी हैं बल्कि धार्मिक संतों के साथ सामाजिक संगठनों को भी कार्यरत होना चाहिये। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि जब लड़कियों की संख्या इतनी कम हो रही है तब भी लड़के वालों के दहेज बाजार में भाव क्यों नहीं गिर रहे? लाखों रुपये का दहेज, गाड़ी तथा अन्य सामान निरंतर दहेज में दिया जा रहा है। इतना ही नहीं लड़कियों के सामाजिक सम्मान में भी कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है। इन सभी बातों का विश्लेषण किये बिना ‘कन्या भ्रुण हत्या’ रोकने के लिये प्रारंभ वैचारिक अभियान सफल हो पायेगा इसमें संदेह है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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