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सोने के दलाल, काली नीयत पाले-हिन्दी व्यंग्य कविता


कोयले की दलाली में ही
हाथ होते हैं काले,
वह तो सोने के दलाल होकर भी
काली नीयत हैं दिल में पाले,
मालिक होकर भी खुश होना
उनका ख्वाब नहीं है।
पेट में रोटी होने पर भी
पेटियां सोने से भरते रहने का सपना
जिंदा रखते हैं जो लोग
उन पर दौलत के अलावा
किसी का रुआब नहीं है।
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सभी का जमीर गहरी नींद सो गया है,
इसलिये यकीन अब महंगा हो गया है।
भरोसेमंदों ही लूटने लगे हैं ज़माने के घर
इंसानियत की वर्दी में शैतान खो गया है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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अंग्रेजी की सनसनी हिन्दी में-व्यंग्य कवितायें


हिन्दी में सनसनी खेज खबर भी
अंग्रेजी अखबार से ही क्यों आती है,
जो हिन्दी में हो
वह सनसनी क्यों नहीं बन पाती है।
डरे हुए हैं बंधुआ कलम मजदूर
उनकी कमजोरी
शायद परायी भाषा में छिप जाती है।
———
मखमली विकास तक ही
उनकी नज़र जाती है,
जहां पैबंद लगे हैं अभावों के
वहां पर आंखें बंद हो जाती हैं।
देसी गुलामों का नजरिया
विदेशी शहंशाहों को यहां गिरवी हैं,
जहां दलाली मिलती है
वहां जुबान दहाड़ती है
नहीं तो तालू से चिपक जाती है।
———

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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सीधी राह नहीं चलते लोग-हिन्दी व्यंग्य शायरी


तारीफों के पुल अब उनके लिये बांधे जाते हैं,
जिन्होंने दौलत का ताज़ पहन लिया है।
नहीं देखता कोई उनकी तरफ
जिन्होंने ज़माने को संवारने के लिये
करते हुए मेहनत दर्द सहन किया है।
——–
खौफ के साये में जीने के आदी हो गये लोग,
खतरनाक इंसानों से दोस्ती कर
अपनी हिफाजत करते हैं,
यह अलग बात उन्हीं के हमलों से मरते हैं।
बावजूद इसके
सीधी राह नहीं चलते लोग,
टेढ़ी उंगली से ही घी निकलेगा
इसी सोच पर यकीन करते हैं।
———

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हम कोई फरिश्ते नहीं-हिन्दी शायरी


सिर उठाकर आसमान में देखा तो लगा
जैसे हम उसे ढो रहे हैं,
जमीन पर गड़ायी आंख तो लगा कि
हम उसे अपने पांव तले रौंद रहे हैं।
ठोकर खाकर गिरे जब जमीन पर मुंह के बल
न आसमान गिरा
न जमीन कांपी
तब हुआ अहसास कि
हम कोई फरिश्ते नहीं
बस एक आम इंसान है
जो इस दुनियां को बस भोग रहे हैं।
———
अपने से ताकतवर देखा तो
सलाम ठोक दिया,
कमजोर मिला राह पर
उसे पांव तले रौंद दिया।
वह अपनी कारगुजारियों पर इतराते रहे
काली करतूतें
सफेद कागज में ढंकते रहे
पर ढूंढ रहे थे अपने खड़े रहने के लिये जमीन
जब समय ने उनके कारनामों को खोद दिया।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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संत कबीर के दोहे-प्रेम प्रसंग कभी छिपते नहीं (kabir ke dohe-prem prasang kabhi chhipte nahin)


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior

http://anantraj.blogspot.com
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पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय
कबहुं छेड़ि न देखिये, हंसि हंसि खावे रोय।

संत कबीर दास जी कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को अपने लिये पैनी छुरी ही समझो। उससे तो कोई विरला ही बच पाता है। कभी पराई स्त्री से छेड़छाड़ मत करो। वह हंसते हंसते खाते हुए रोने लगती है।
पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि पराई स्त्री के साथ प्रेम प्रसंग करना लहसून खाने के समान है। उसे चाहे कोने में बैठकर खाओ पर उसकी सुंगध दूर तक प्रकट होती है
            वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पाश्चात्य सभ्यता के प्रवेश ने भारत के उच्च वर्ग में जो चारित्रिक भ्रष्टाचार फैलाया उसे देखते हुए संत कबीरदास जी का यह कथन आज भी प्रासंगिक लगता है। फिल्मों और टीवी चैनलों के धारावाहिकों में एक समय में दो बीबियां रखने वाली कहानियां अक्सर देखने को मिलती हैं, भले ही कुछ फिल्मों में हास्य के साथ दो शादियों की मजबूरी बड़ी गंभीर नाटकीयता के साथ प्रस्तुत की जाती है पर उनका सीधा उद्देश्य समाज में चारित्रिक भ्रष्टाचारी को आदर्श की तरह प्रस्तुत करना ही होता है। फिल्म हों या टीवी चैनल उन पर नियंत्रण तो उच्च वर्ग का ही है और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को फिल्म और टीवी चैनलों के धारावाहिकों में आदर्श की तरह प्रस्तुत करने का उद्देश्य अपने धनिक प्रायोजकों को प्रसन्न करना ही होता है।
          हमारे महापुरुषों ने न केवल सृष्टि के तत्व ज्ञान का अनुसंधान किया है बल्कि जीवन रहस्यों का बखान किया है। चाहे अमीर हो गरीब दो पत्नियां रखने वाला पुरुष कभी भी जीवन में आत्मविश्वास से खड़ा नहीं रह सकता। इसके अलावा पाश्चात्य सभ्यता के चलते पराई स्त्री के साथ कथित मित्रता या आत्मीय संबंधों की बात भी मजाक लगती है। यहां एक वर्ग ऐसे गलत संबंधों को फैशन बताने पर तुला है पर सच तो यह है कि पश्चिम में भी इसे नैतिक नहीं माना जा सकता। जब इस तरह के संबंध कहीं उद्घाटित होते हैं तो आदमी के लिये शर्मनाक स्थिति हो जाती है। कई जगह तो पुरुष अपनी पत्नी की सौगंध खाकर संबंधों से इंकार करता है तो कई जगह उसे सफाई देता है। भारत हो या पश्चिम अनेक घटनाओं में तो अनेक बार पति के अनैतिक संबंधों के रहस्योद्घाटन पर बिचारी पत्नी सब कुछ जानते हुए भी पति के बचाव में उतरती हैं। साथ ही यह भी एक सच है कि ऐसे अनैतिक संबंध बहुत समय तक छिपते नहीं है और प्रकट होने पर सिवाय बदनामी के कुछ नहीं मिलता।

         इसलिये पुरुष समाज के लिये यही बेहतर है कि वह न तो दूसरा विवाह करे न ही दूसरी स्त्री से संबंध बनाये। ऐसा करना अपराध तो है ही अपने घर की नारी का सार्वजनिक रूप से तिरस्कार करने जैसा भी है। अपने घर की नारी का अपमान अंततः अपने तथा परिवार के सदस्यों के लिये अपमान का कारण बनता है। दूसरा यह भी कि समाज के लोग भले सामने नही कहें पर पीठ पीछे अत्ंयत उपहासजनक तथा निंदाजनक बयान बाजी करते हैं।
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धर्म का बाज़ार सजाने की कोशिश-हिन्दी आलेख (dharma ka bazar-hindi lekh)


धार्मिक सत्संगों का आयोजन कोई सरल और सस्ता काम नहीं है। प्रबंधन एक कला है और जिस आदमी को कोई आर्थिक व्यवसाय करना हो तो केवल उसे संबंधित क्षेत्र की जानकारी के साथ प्रबंध का ज्ञान होना चाहिए तो वह अच्छा काम कर लेता है पर अगर प्रबंध क्षमता का सत्संग में प्रयोग करना हो तो उसके लिये कुछ अध्यात्मिक ज्ञान के साथ धार्मिक दिखना भी जरूरी है। अपने यहां सत्संग भी एक व्यवसाय है और धर्म प्रेमी धनिकों में मौजूद देवत्व की आराधना कर उसने धन प्राप्त करना कोई इतना सरल काम नहीं होता जितना अन्य व्यवसायों में लगता है। अन्य व्यवसायों में प्रबंधक स्वयं भी पूंजी लगा सकता है पर सत्संग के आयोजन में कोई ऐसा जोखिम नहीं उठाता क्योंकि उसमें केवल किताबें या मूर्तियां ही नहीं बेचना होता बल्कि एक अदद संत भी रखना पड़ता है।
विदेश में कहीं किसी धार्मिक कार्यक्रम का टीवी पर सीधा प्रसारण हो रहा था। आमतौर से धार्मिक विषयों पर व्यंग्य नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा कर आप अपनी कुंठाओं का परिचय देते भी लग सकते हैं, पर ऐसे कार्यक्रमों में कुछ ऐसी गतिविधियां भी होती हैं जो वहां मौजूद लोगों को भी हंसाती हैं भले ही वह उस समय कहते न हों। उस धार्मिक कार्यक्रम में कुछ बुद्धिजीवियों के भाषण हुए तो संतों ने भी प्रवचन दिये। उच्च वर्ग के धार्मिक लोगों के माध्यम से सी.डी. आदि का विमोचन करवाकर उनकी भी धार्मिक भावनाओं को तृप्त किया गया-अपने देश में खास भक्त कहलाने पर बड़े लोगों को शायद एक अजीब अनुभूति होती है।
भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के प्रयास के रूप में हो रहे उसे कार्यक्रम को टीवी पर देखकर अनेक ऐसी बातें मन में आयीं जो सब की सब यहां लिखना कठिन है। कार्यक्रम का अधिकतर भाग किसी माननीय संत की प्रशंसा में गुजरा। वहां दो संतों की मूर्तियां भी रखी गयी थीं जिन पर बड़े लोग मंच पर आकर प्रणाम करते और फिर अपना व्याख्यान देते।
इन मूर्तियों को देखकर लगता था कि वह संत ही केवल भारतीय अध्यात्म के आधार हैं। हां, वह पर सर्वशक्तिमान के भारतीय स्वरूपों में प्रचलित नामों का उल्लेख हुआ पर उनकी मूर्तियां वहां न देखकर एक खालीपन लगा। एक बात यहां बता दें कि भगवान श्रीराम, कृष्ण या शिव जी की मूर्तियां जरूर हम लोग देखते हैं पर वह हमारे अंदर निरंकार के रूप में स्वाभाविक रूप से विराजमान रहते हैं। दूसरी बात यह है कि यह मूर्तियां पत्थर, धातु या लकड़ी की बनती हैं पर उनके अस्तित्व का आभास ही हमें शक्ति देता है। संतों की मूर्तियां रखना गलत नहीं है पर ऐसी जगह पर सर्वशक्तिमान की मूर्ति न होना इस बात का प्रमाण है कि वह सत्संग अधूरा है। दूसरी बात यह है कि देहधारी संत चाहे कितने भी माननीय हों पर उनकी मूर्तियों में कहीं न कहीं उनकी मृत्यु की अनुभूति है इसलिये उनसे आम भारतीय अधिक लगाव हृदय में धारण नहीं कर पाता। भारतीय अध्यात्म का आधार यही है कि आत्मा कभी नहीं मरता और देह नश्वर है। इसलिये जिसमें देह का आभास है वह मूर्तियां भारतीय भक्त को नागवार लगती हैं। भगवान श्री राम, श्रीकृष्ण और श्री शिवजी के साथ अन्य देवताओं की मूर्तियों में ऐसा आभास नहीं होता। दरअसल यह प्रतिमायें पूजना इसलिये भी गलत है कि हम दूसरी विचारधाराओं के ऐसे ही कदम की आलोचना करते हैं। इधर यह भी देखने में आ रहा है कि हमारे पूज्यनीय संतों की समाधियां पूजी जा रही हैं। यह परब्रह्म से परे रखने का प्रयास भर है ताकि लोग मायावी दुनियां में ही घूमते रहें। ऐसे कथित ज्ञान लोग नाम तो सर्वशक्तिमान के रूपों का लेते हैं पर सामने अपना चेहरा लगा लेते हैं-यह धार्मिक भावनाओं का एक तरह से दोहन है।
संत कबीर एक महान संत कवि हुए हैं मगर उनकी मूर्ति रखकर पूजा करने का आशय यही है कि आप उनको समझे ही नहीं। जो गुरु तत्व ज्ञान देगा और उसका शिष्य ब्रह्म तत्व को समझ जायेगा तो स्वयं ही गुरु का मानेगा। यह बात श्रीमद्भागवत गीता भी कहती है और संत कबीर उसकी पुष्टि भी करते हैं। गुरु का दायित्व है कि वह शिष्य को गोविंद दिखाये-इससे यूं भी कह सकते हैं कि सत्गुरु से मिलाये। मगर आजकल के नये गुरु गोविंद के नाम पर अपना चेहरा लगा लेते हैं और स्वयं को ही सत्गुरु की तरह स्थापित करने का उनका प्रयास रहता है।
हम यहां उन माननीय गुरुओं की आलोचना नहीं कर रहे जिनकी तस्वीरें वहां रखी थीं। यकीनन उन लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान ग्रहण कर इतने सारे लोगों का सुनाया होगा। अब उनके बाद के शिष्यगण उनकी मूर्तियां लगाकर अपना सत्संग व्यवसाय चला रहे होंगे। केवल यही प्रसंग नहीं है बल्कि कई ऐसे अन्य उदाहरण भी है जिसमें तत्व ज्ञान का उपदेश करने वाले संत इस संसार से दैहिक रूप से क्या विदा होते हैं उनके चेहरे पत्थरों में सजाकर उनकी पूजा की जाती है। उनकी कर्मस्थली में जहां कभी सर्वशक्तिमान की मूर्तियां की आराधना करते हैं उनके जाते ही उनका महत्व कम प्रचारित होता है और संतों को सत्गुरु की जगह दी जाती है। कुछ लोगों ने संत शिरोमणि कबीरदास जी की मूर्तियां भी बनवाई हैं जबकि भारतीय अध्यात्मिक का वह एक ऐसा प्रकाशमान पुंज थे जो अपन रचनाओें से हमेशा ही भारतीय जनमानस में रहेंगे। उनकी मूर्तियां बनवाना ही उनके पथ से अलग हटना है। ऐसा अनेक संतों के शिष्य कर रहे हैं।
आखिरी मजेदार बात यह रही कि उसी कार्यक्रम में घोषणा की जा रही थी कि कार्यक्रम की कैसिटें और सर्वशक्तिमान की मूर्तियां आज ही यहां दरों में बीस प्रतिशत कटौती पर मिलेंगी। कैसिटें आज कम हैं इसलिये आज आर्डर दें तो कम दर पर भेजी जायेंगी।
यह बात हंसी पैदा करने वाली थी साथ ही यह संदेश भेजने वाली थी कि इसमें कोई व्यवसाय है। यह धर्म के नाम पर लगी सेल अचंभित करने वाली थी। अब इससे एक ही बात लगती है कि संतों के वर्तमान उतराधिकारी और प्रबंधक शिष्य आम आदमी के बारे में यह धारणा रखते हैं कि वह भक्त होने के कारण वह इसे बुरा नहीं समझते या फिर ऐसी अपेक्षा करते हैं कि पुराने मनीषियों की बात मानते हुए भक्तों को अपने गुरुओं को में दोष नहीं देखना चाहिये और हम तो गुरु हैं चाहे जो करें।’
हम भी गुरुओं की आलोचना के खिलाफ हैं पर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में यह वर्णित है कि पहले सत्य को समझो और देखभाल के गुरु बनाओ। दूसरों में दोष मत देखो पर दुर्जन का साथ भी न करो। सीधा आशय यही है कि कहीं न कहीं अपनी अक्ल का इस्तेमाल करो-यही भारतीय अध्यात्मिक संदेशों का आधार है। बहरहाल धर्म के नाम यह यह सेल लगाना ठीक नहीं है पर लगती भी है तो चिंतित होने वाली बात नहीं है। अपना तो एक ही काम है कि जहां भी समय मिले अच्छी बात सुनो उसक मंथन करो। जो अच्छा लगे उसे ग्रहण करो और जो बुरा, उसे भुला दो।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नाम के मालिक-व्यंग्य हिंदी शायरी


सुंदरता अब सड़क पर नहीं

बस पर्दे पर दिखती है

जुबां की ताकत अब खून में नहीं

केवल जर्दे में दिखती है।

सौंदर्य प्रसाधन पर पड़ती

जैसे ही पसीने की बूंद

सुंदरता बह जाती,

तंबाकू का तेज घटते ही

जुबां खामोश रह जाती,

झूम रहा है वहम के नशे में सारा जहां

औरत की आंखें देखती

दौलत का तमाशा

तो आदमी की नजर बस

कृत्रिम खूबसूरती पर टिकती है।

 

—————-
हांड़मांस के बुत हैं

इंसान भी कहलाते हैं,

चेहरे तो उनके अपने ही है

पर दूसरे का मुखौटा बनकर

सामने आते हैं।

आजादी के नाम पर

उनके हाथ पांव में जंजीर नहीं है

पर अक्ल पर

दूसरे के इशारों के बंधन

दिखाई दे जाते हैं।

नाम के मालिक हैं वह गुलाम

गुलामों पर ही राज चलाये जाते हैं।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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सभी के चरित्र को कमजोर न समझें-हिन्दी लेख (charitya aur samaj-hindi lekh


वैश्यावृत्ति और जुआ खेलना ऐसी सामाजिक समस्यायें हैं और इनसे कभी भी मुक्ति नहीं पायी जा सकती। वैश्यावृत्ति पर कानून से नियंत्रण पाना चाहिए या नहीं इस पर अक्सर बहस चलती है। कुछ लोगों को मानना है कि वैश्यावृत्ति को कानून से छूट मिलना चाहिए तो कुछ लोगों को लगता है कि इस पर रोक बनी रहे। वैश्यावृत्ति पर कानूनी रोक का समर्थन करने वालों ने जो तर्क दिये जाते हैं वह हास्याप्रद हैं। कुछ लोग तो यहां तक कह जाते हैं कि तब तो भ्रष्टाचार, शराब तथा अन्य अपराधों को भी कानून से छूट मिलना चाहिए। अभी हाल ही में सुनने में आया कि किन्ही न्यायालय द्वारा भी इसकी वकालत की गयी है कि वैश्यावृत्ति को कानूनी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए। इसके पहले भी अनेक सामाजिक विशेषज्ञ इस बात की वकालत करते रहे हैं कि देश की सामाजिक परिस्थतियों में ऐसी रोक ठीक नहीं है।
दरअसल अंग्रेजों के समय ही वैचारिक और सामाजिक कायरता के बीज जो भारत में बो दिये गये वह अब फल और फूल की जगह सभी जगह प्रकट हो रहे हैं। याद रखने की बात यह है कि वैश्यावृत्ति कानून अंग्रजों के समय में ही बनाया गया है। इसका मतलब यह है कि इससे पहले ऐसा कानून यहां प्रचलित नहीं था।
इतना ही नहीं शराब, वैश्यावृत्ति तथा जुआ पर रोक लगाने के किसी भी पुराने कानून की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं मिलती। इसका आशय यह है कि समाज को नियंत्रित करने की यह राजकीय प्रवृत्ति अंग्रेजों की देन है जो स्वयं ही इस तरह का कोई कानून नहीं बनाते बल्कि आजादी के नाम पर यहां अनेक अपराध भी मुक्त हैं जिनमें सट्टा भी शामिल हैं। कुछ कानूनी विशेषज्ञ तो यह बताते हैं कि अभी भी इस देश में 95 प्रतिशत कानून उन अंग्रेजों के बनाये हैं जिनके यहां कोई लिखित कानून हैं। मतलब यह है कि वह एक शब्द समूह यहां अपने गुलामों को थमा गये जिससे पढ़कर हम अभी भी चल रहे हैं।
इस मामले में हम एक सती प्रथा पर रोक के कानून का उल्लेख करना चाहेंगे जिसकी वजह से राजा राममोहन राय को भारत का एक बहुत बड़ा समाज सुधारक माना जाता है। उन्होंने ऐसा कानून बनाने के लिये आंदोलन चलाया था पर इतिहास में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि उस समय देश में सत्ती प्रथा किस हद तक मौजूद थी। अगर उनके आंदोलन की गति को देखें तो लगता है कि उस समय देश में ऐसी बहुत सी घटनायें रोज घटती होंगी पर इसको कोई प्रमाणित नहीं करता। उस समय देश में आजादी के लिये भी आंदोलन चल रहा था। ऐसे में लगता है कि भारत की सती प्रथा के लेकर अंग्रेज कहीं दुष्प्रचार करते होंगे या फिर ऐसी कृत्रिम घटनाओं का समाचार बनता होगा जिससे लगता हो कि यह देश तो भोंदू समाज है। यह कानून बनने से कोई सत्ती प्रथा कम हुई इसका भी प्रमाण नहीं मिलता। संभव है कुछ संपत्ति की लालच में औरतों को जलाकर उसके सत्ती होने का प्रचार करते हों पर ऐसी घटनायें तो देश में इस कानून के बाद भी हुईं। फिर मान लीजिये यह कानून नहीं बनता तो भी इस देश में आत्म हत्या और हत्या दोनों के लिये कानून है तब उसे सत्ती होने वाले मामलों पर लागू किया जा सकता था।
एक बार एक लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब के कानून तो अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ऐसे मामलों में फंसाकर उन्हें बदनाम करने के उद्देश्य से बनाये थे। सच हम नहीं जानते पर इतना जरूर है कि सामाजिक संकटों को राज्य से नियंत्रित करने का प्रयास ठीक नहीं है। समाज को स्वयं ही नियंत्रित होने दीजिये। आखिर इस देश के समाजों के ठेकेदार क्या केवल उनकी भावनाओं का दोहन करने लिये ही बैठे हैं क्या?
वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब सामाजिक समस्यायें हैं और इन पर नियंत्रण करने के दुष्परिणाम यह हुए हैं कि जिसके पास धन, बल, और बड़ा पद है पर अपनी शक्ति कानून को तोड़कर दिखाता है। आप भ्रष्टाचार या सार्वजनिक रूप से धुम्रपान करने जैसे अपराधों से इसकी तुलना नहीं कर सकते।
वैश्यावृत्ति कोई अच्छी बात नहीं है। एक समय था जो महिला या पुरुष इसमें संलिप्त होते उनको समाज हेय दृष्टि से देखता था। अनेक बड़े शहरों में वैश्याओं के बाजार हुआ थे जहां से भला आदमी निकलते हुए अपनी आंख बंद कर लेता था। धीरे धीरे वैश्यायें लुप्त हो गयीं पर आजकल कालगर्ल उनकी जगह ले जगह चुकी हैं। पहले जहां अनपढ़ और निम्न परिवारों की लड़कियां जबरन या अपनी इच्छा से इस व्यवसाय में आती थीं पर आजकल पढ़लिखी लड़कियां स्वेच्छा से इस काम में लिप्त होने की बातें समाचारों में में आती है। उसकी वजह कुछ भी हो सकती हैं-घर का खर्चा चलना या अय्याशी करना।
सवाल यह है कि इसका हल समाज को ढूंढना चाहिये या नहीं। इस देश के उच्च वर्ग ने तो अपने बच्चों की शादी को प्रदर्शन करने का एक बहाना बना लिया है। मध्यम वर्ग के परिवार उन जैसे दिखने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। नतीजा यह है कि बड़ी उम्र तक बच्चों के विवाह नहीं हो रहे। इसके अलावा बच्चों के साथ ही उनके अभिभावकों द्वारा उनके जीवन साथी के लिये अत्यंत खूबसूरत काल्पनिक पात्र सृजित कर रिश्ता तलाशा जाता है। लड़की सुंदर हो, काम काज में दक्ष हो, कंप्यूटर जानती हो और कमाना जानती हो-जैसे जुमले तो सुनने में मिलते ही हैं। उस पर दहेज की रकम की समस्या। समाज का यह अंतद्वंद्व सभी जानते हैं पर जिसका समय निकला जाता है वह उसे भुला देता है। जिन्होंने बीस वर्ष की उम्र में शादी कर ली वह अपने पुत्र या पुत्री को तीस वर्ष तक विवाह योग्य नहीं पाते-उनके बारे में क्या कहा जाये? क्या मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं को खुलकर कहने की आवश्यकता है? इंद्रियों को निंयत्रित करना चाहिये पर उनका दमन करना भी संभव नहीं है-क्या यह सच नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इस सभी के बावजूद पूरा समाज इसी राह पर चल रहा है। अगर कोई वैश्यावृत्ति में संलिप्त नहीं है तो वह कानून के डर की वजह से नहीं बल्कि पुराने चले आ रहे संस्कारों ने सभी को इसकी प्रेरणा दे रखी है। हमारे संत महापुरुषों ने हमेशा ही व्यसनों से बचने का संदेश दिया है। उसके दुष्परिणाम बताये गए हैं। देश में आज भी नैतिकता को संबल मिला हुआ है क्योंकि वह संस्कारों के सहारे टिकी है। यह भरोसा वह हर विद्वान करता है जो इसे जानता है।
ऐसे में वैचारिक कायरों का वह समूह- जो चाहता है कि रात को टीवी पर खबरें देखते हुए ‘अपने देश की चारित्रिक रक्षा के दृश्य देखकर खुश हों‘-ऐसी बातें कह रहा है जिसको न तो समाज पर विश्वास है न ही अपने पर। पढ़ी लिखी लड़कियां ऐसे मामलों में पकड़े जाने मुंह ढंके दिखती हैं, तब सवाल यह उठता है कि आखिर उनका अपराध क्या है? वह किसको हानि पहुंचा रही थीं? याद रहे अपराध का मुख्य आधार यही है कि कोई व्यक्ति दूसरे को हानि पहुंचाये। अनेक बार अखबार में जुआ खेलते हुए पकड़े जाने वाले समाचार आते हैं। सवाल यह है यह भी शराब जैसे व्यसन है और जिस पर कोई रोक नहीं है।
दरअसल ऐसे कानूनों ने पुरुष समाज को गैर जिम्मेदार बना दिया है। अपने घर की औरतों की देखभाल करने के साथ ही उनपर नज़र रखना अभी तक पुरुषों का ही जिम्मा है। इस कानून ने उनको आश्वस्त कर दिया है कि औरतें डर के बारे में इस राह पर नहीं जायेंगी। समाज के ठेकेदार भी नैतिकता को निजी विषय मानने लगे हैं। इसके अलावा विवाह योग्य पुत्र के माता पिता-पुत्री के भी वही होते हैं उसका रिश्ता तय करते समय भूल जाते हैं-इस विश्वास में अधिक दहेज की मांग करते हैं कि कि कोई न कोई लड़की का बाप मजबूर होकर उनकी शर्ते मानेगा।
इसके अलावा समाज के ठेकेदार उसके नाम पर कार्यक्रम करने के लिये चंदा मांगने और चुनाव के समय उनको अपने हिसाब से मतदान का आव्हान करने के अलावा अन्य कुछ नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि बाकी सुधार के लिये तो राज्य ही जिम्मेदार है। समाज को अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा अनुचित कर्मकांडों से बचने का संदेश इनमें कोई नहीं देता। यही हालत आजकल के व्यवसायिक संतों की है।
एक बात यह भी लगती है कि अंग्रेजों ने इतने सारे कानून शायद इसलिये बनाये ताकि विश्व का बता सकें कि देखिये हम एक पशु सभ्यता को मानवीय बना रहे हैं और आज भी वह इसका दावा करते हैं। इधर अपने देश के वैचारिक कायर चिंतक उन्हीं कानूनों को ढोने की वकालत करते हैं क्योंकि अपने समाज पर विश्वास न रखने की नीति उन्हें अंगे्रजी शिक्षा पद्धति से ही मिलती है। अपने पूरा समाज को कच्ची बुद्धि का समझने की उनकी आदतें बदलने वाली नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अपराध वह है जिससे दूसरे को हानि पहुंचे। वैश्यावृत्ति, जुआ या सट्टा ऐसे अपराध हैं जिसमें आदमी अपने धन और इज्जत तो गंवाता ही है अपना स्वास्थ्य भी खोता है। किसी स्त्री से जबरन वैश्यावृत्ति कराना अपराध है और इस पर सख्त कार्यवाही होना चाहिये। यही कारण है कि एक विद्वान से यह भी सलाह दी है कि वैश्यावृत्ति में पकड़े गये अपराधियों में इस बात की पहचान करने का प्रावधान हो कि कोई जबरन तो इस कार्य में नहीं लगा हो।
हमारे देश का सामाजिक ढांचा मजबूत है और पूरा विश्व इसे मानता है। हर आदमी घर परिवार से जुड़ा है। अधिकतर पुरुष अपने घरेलू समस्याओं को हल करने के लिये संघर्ष करते हैं। संभव है कुछ घरों में पुरुष सदस्य की बीमारी या आर्थिक परेशानी होने पर कुछ लड़कियां और महिलाऐं इस काम में लगती हों पर सभी एसा नहीं करती बल्कि अधिकतर नौकरी आदि कर अपना काम चलाती है। ऐसे में पूरे समाज को भ्रष्ट होने की आशंका करना बेमानी है। खासतौर से इस देश में जहां रोजगार और संपत्ति मौलिक अधिकार न बना हो। फिर जब समलैंगिकता जैसे मूर्खतापूर्ण कृत्य को छूट मिल रही है तब वैश्यावृत्ति जैसे कानून को बनाये रखने का औचित्य तो बताना ही पड़ेगा न! बुरे काम का बुरा नतीजा सभी जानते हैं और यही कारण है कि मनुष्य की आदतों को नियंत्रित करने का काम उसे ही करने देना चाहिये। आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नश्वर का शोक-हिन्दी हास्य व्यंग्य (nashvar ka dukh-hindi hasya vyangya)


आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’
अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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शब्दों की जादूगरी-हिन्दी साहित्य कविता


मु्फ्त की हवाओं से
जिंदगी की सांस चलती,
पानी से बुझती प्यास की आग
जब गले में जलती।
सूरज की धूप अपने स्पर्श से
देह को मलती।
कुदरत से जिंदगी के साथ मिले मुफ्त
तोहफों की इंसान कहां करता कदर,
ख्वाब करते हैं उसे दर-ब-दर,
रेत में ढूंढता है पत्थर की कोड़ियां,
भरता है उससे अपनी बोरियां,
आंखों से देखने को आतुर है सोना
नींद बेचकर खरीदता है बिछौना,
कागज के नोटों का बना लिया ढेर,
मन को समझाता है
पूजकर पत्थर के शेर,
लाचार क्या कर सकता है
इसके अलावा,
आजाद अक्ल मिली है
पर साथ मिला जरूरतों की
गुलामी का छलावा,
अपना सोचने में लगती है देर,
अक्लमंद भी सजाते हैं सामने
सपनों का अंधेर
भला कहां है आम इंसान की गलती।।

 वह हर रोज तारीखों पर लिखते हैं।

इसलिए कलेंडर में हमेशा झांकते दिखते  हैं।

बाजार के सौदागरों के लिए दलालों ने

अपने कारिंदों के सहारे

जमाने में किये हैं इतने हादसे कि

पेशेवर कलमकारों के शब्द

उन्हीं पर कहीं रोते तो कहीं हंसते मिलते हैं।

———-

हम हादसों की तारीखें भूल जाते हैं

पर शब्दों के सौदागर

हर तारीख को कब्र से ढूंढ कर लाते हैं।

भूल न जाये जमाना उनके साथ जमाना

शब्दों की जादूगरी और उनका नाम

इसलिये हर रोज की तारीख का

हादसा याद दिलाते हैं।

 


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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समाज हिन्दी भाषा का महत्व समझे- हिन्दी दिवस पर विशेष चिंतन आलेख (hindi ka mahatva-hindi chitan lekh on hindi divas)


       सुना है अब इंटरनेट में लैटिन के साथ ही देवनागरी में भी खोज सुगम होने वाली है। यह एक अच्छी खबर है मगर इससे हिंदी भाषा के पढ़ने और लिखने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ जायेगी, यह आशा करना एकदम गलत होगा। सच तो यह है कि अगर देवनागरी में खोज सुगम हुई भी तो भी इसी मंथर गति से ही हिंदी लेखन और पठन में बढ़ोतरी होगी जैसे अब हो रही है। हिंदी को लेकर जितनी उछलकूल दिखती है उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है। सच कहें तो कभी कभी तो लगता है कि हम हिंदी में इसलिये लिख पढ़े रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। हम हिंदी में लिख पढ़ते भी इसलिये भी है ताकि जैसा लेखक ने लिखा है वैसा ही समझ में आये। वरना तो जिनको थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है उनको तो हिंदी में लिखा दोयम दर्जे का लगता है। वैसे अंतर्जाल पर हम लोगों की अंग्रेजी देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि लोगों की अंग्रेजी भी कोई परिपक्व है इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए-क्योंकि बात समझ में आ गयी तो फिर कौन उसका व्याकरण देखता है और अगर दूसरे ढंग से भी समझा तो कौन परख सकता है कि उसने वैसा ही पढ़ा जैसा लिखा गया था। बहरहाल अंग्रेजी के प्रति मोह लोगों का इसलिये अधिक नहीं है कि उसमें बहुत कुछ लिखा गया है बल्कि वह दिखाते हैं ताकि लोग उनको पढ़ालिखा इंसान समझें।
       ‘आप इतना पढ़ें लिखें हैं फिर भी आपको अंग्रेजी नहीं आती-‘’हिंदी में पढ़े लिखे एक सज्जन से उनके पहचान वाले लड़के ने कहा’‘-हमें तो आती है, क्योंकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं न!’
          मध्यम वर्ग की यह नयी पीढ़ी हिंदी के प्रति रुझान दिखाने की बजाय उसकी उपेक्षा में आधुनिकता का बोध इस तरह कराती है जैसे कि ‘नयी भारतीय सभ्यता’ का यह एक  प्रतीक हो। इनमें तो कई ऐसे हैं जिनकी हिंदी तो  गड़बड़ है साथ  ही  इंग्लिश भी कोई बहुत अच्छी  नहीं है।
       जैसे जैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों और महाविद्यालयों के प्रति लोगों का रुझान कम हुआ है-निजी क्षेत्र में अंग्रेजी की शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। एक दौर था जब सरकारी विद्यालयों में प्रवेश पाना ही एक विजय समझा जाता था-उस समय निजी क्षेत्र के छात्रों को फुरसतिया समझा जाता था। उस समय के दौर के विद्यार्थियों ने हिंदी का अध्ययन अच्छी तरह किया। शायद उनमें से ही अब ऐसे लोग हैं जो हिंदी में लेखन बेहतर ढंग से करते हैं। अब अगर हिंदी अच्छे लिखेंगे तो वही लोग जिनके माता पिता फीस के कारण अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के निजी विद्यालयों में नहीं पढ़ा सकते और सरकारी विद्यालयों में ही जो अपना भविष्य बनाने जाते हैं।
       एक समय इस लेखक ने अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध स्तंभकार श्री खुशवंत सिंह के इस बयान पर विरोध करते हुए एक अखबार में पत्र तक लिख डाला‘जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंदी गरीब भाषा है।’
       बाद में पता लगा कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा बल्कि उनका आशय था कि ‘हिन्दुस्तान में हिंदी गरीबों की भाषा है’। तब अखबार वालों पर भरोसा था इसलिये मानते थे कि उन्होंने ऐसा कहा होगा पर अब जब अपनी आंखों के सामने बयानों की तोड़मोड़ देख रहे हैं तो मानना पड़ता है कि ऐसा ही हुआ होगा। बहरहाल यह लेखक उनकी आलोचना के लिये अब क्षमाप्रार्थी है क्योंकि अब यह लगने लगा है कि वाकई हिंदी गरीबों की भाषा है। इन्हीं अल्पधनी परिवारों में ही हिंदी का अब भविष्य निर्भर है इसमें संदेह नहीं और यह आशा करना भी बुरा नहीं कि आगे इसका प्रसार अंतर्जाल पर बढ़ेगा, क्योंकि यही वर्ग हमारे देश में सबसे बड़ा है।
       समस्या यह है कि इस समय कितने लोग हैं जो अब तक विलासिता की शय समझे जा रहे अंतर्जाल पर सक्रिय होंगे या उसका खर्च वहन कर सकते हैं। इस समय तो धनी, उच्च मध्यम, सामान्य मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिये ही यह एक ऐसी सुविधा है जिसका वह प्रयोग कर रहे हैं और इनमें अधिकतर की नयी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित है। जब हम अंतर्जाल की बात करते हैं तो इन्हीं वर्गों में सक्रिय प्रयोक्ताओं से अभी वास्ता पड़ता है और उनके लिये अभी भी अंग्रेजी पढ़ना ही एक ‘फैशनेबल’ बात है। ऐसे में भले ही सर्च इंजिनों में भले ही देवनागरी करण हो जाये पर लोगों की आदत ऐसे नहीं जायेगी। अभी क्या गूगल हिंदी के लिये कम सुविधा दे रहा है। उसके ईमेल पर भी हिंदी की सुविधा है। ब्लाग स्पाट पर हिंदी लिखने की सुविधा का उपयेाग करते हुए अनेक लोगों को तीन साल का समय हो गया है। अगर हिंदी में लिखने की इच्छा वाले पूरा समाज होता तो क्या इतने कम ब्लाग लेखक होते? पढ़ने वालों का आंकड़ा भी कोई गुणात्मक वुद्धि नहीं दर्शा रहा।
       गूगल के ईमेल पर हिंदी लिखने की सुविधा की चर्चा करने पर एक नवयौवना का जवाब बड़ा अच्छा था-‘अंकल हम उसका यूज (उपयोग) नहीं करते, हमारे मोस्टली (अधिकतर) फ्रैंड्स हिंदी नहीं समझते। हिंदी भी उनको इंग्लिश (रोमन लिपि) में लिखना पसंद है। सभी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं। जो हिंदी वाले भी हैं वह भी इससे नहीं लिखते।’
ऐसे लोगों को समझाना कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी की कितनी भी सुविधा अंतर्जाल पर आ जाये उसका लाभ तब तक नहीं है जब तक उसे सामान्य समाज की आदत नहीं बनाया जाता। इसका दूसरा मार्ग यह है कि इंटरनेट कनेक्शन सस्ते हो जायें तो अल्प धन वाला वर्ग भी इससे जुड़े  जिसके बच्चों को हिंदी माध्यम में शिक्षा मजबूरीवश लेनी पड़ रही है। यकीनन इसी वर्ग के हिंदी भाषा का भविष्य को समृद्ध करेगा। ऐसा नहीं कि उच्च वर्ग में हिंदी प्रेम करने वाले नहीं है-अगर ऐसा होता तो इस समय इतने लिखने वाले नहीं होते-पर उनकी संख्या कम है। ऐसा लिखने वाले निरंकार भाव से लिख रहे हैं पर उनके सामने जो समाज है वह अहंकार भाव से फैशन की राह पर चलकर अपने को श्रेष्ठ समझता है जिसमे हिंदी से मुंह   फेरना एक प्रतीक माना जाता है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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नया सामान भी कबाड़ हो जाता है-हिंदी व्यंग्य कविता (naya saman aur kabad-hindi vyangya kavita)


सुनने और पढने वाला
जाल में फंस जाए
विज्ञापन ऐसे ही सजाये जाते हैं.
अगर उनमें सच होता तो
नहीं भर जाते घर उस कबाड़ के सामान से
जिनको खरीदा था कभी चाव से
बड़े महंगे भाव से
आये थे जो सामान नए बनकर ठेले से
वही कभी कबाड़ बनकर फिर उसमें लद जाते हैं.
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बाज़ार अब नगद ही नहीं
उधार पर भी चलते हैं.
चुकाते हुए रोते रहो
नहीं चुकाने पर
चीख पुकार भी मचती है
कभी उधार वाले
पहलवान बनकर गर्दन भी पकड़ते हैं.

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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किसका हुआ कभी कोहिनूर-व्यंग्य कविता (kiska hua kohinoor-vyangya kavita)


चंद खोये सिक्के ढूंढने के लिए
पूरा घर का सामान बिखेर डाला
मिले पलंग के नीचे गिरे हुए
पहले तो खुशी मिली, फिर हुई काफूर।
बिखरी हुई शयों को समेटने के
ख्याल ने कर दिया बदन पहले ही चूर।
खोये पाये के हिसाब में
पूरी जिंदगी हो जाती है बेनूर।
सिक्के इतने जमा कर लिये संभाले नहीं जाते
गिनती में भूल जायें
तो देखते हैं उनको घूर।
सोचते कौन कम हुआ चश्मेबद्दूर।
खोये हुए सिक्के मिल गये
पर चले जायेंगे हाथ से
बनेंगे किसी दूसरे हाथ का नूर।
जिंदगी में गमों का सिलसिला भी आता है
खुशियां भी साथ चलती थोड़ी दूर।
अपना कितनों ने माना होगा
पर किसका हुआ कभी कोहिनूर।

…………………….
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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अमृत तो पी गए फ़रिश्ते-व्यंग्य कविताएँ (amrut aur zahar-vyangya kavitaean)


फरिश्तों ने छोड़ दिया दौलत का घर
मासूम इंसानों के लिए.
पर शैतानों ने कर लिया उस पर कब्जा,
दिखाया इंसानियत का जज्बा,
करोडों से भर रहे हैं अपने घर
पाई से जला रहे चिराग जमाने के लिए.
वह भी रखे अपने घर की देहरी पर
अपनी मालिकी जताने के लिए.
————————
जितनी चमक है उनकी शयों में
जहर उससे ज्यादा भरा है.
अमृत तो पी गए फ़रिश्ते किसी तरह बचाकर
छोड़ दिया अपने हाल पर दुनिया को
उसे पचाकर,
शैतानों ने हर शय को सजाकर,
रख दिया बाज़ार में,
कहते भले हों अमृत उसमें भरा है.
पर वह अब इस दुनिया में कहाँ धरा है.
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क्रिकेट मैच और हिंदी ब्लाग का आपसी रिश्ता-हास्य व्यंग्य (cricket match and hindi blog-hindi hasya vyangya)


अंतर्जाल पर लिखने के अलग ही अनुभव है। इनमें से कुछ अनुभव ऐसे हैं जो समाज की गतिविधियों से इस तरह परिचय कराते हैं जिसका संबंध ब्लाग लिखने से सीधे न होते हुए भी लगता है। खासतौर से जब हिंदी में लिख रहे हैं तब कुछ अच्छी और बुरी घटनायें ऐसी होती हैं जिनको दर्ज करना जरूरी लगता है-ऐसे में क्रिकेट से संबंध हो तो हम उससे बच नहीं सकते।
वजह इसकी यह है कि कवितायें, कहानियां और व्यंग्य तो लिखना बहुत पहले ही शुरु किया था पर अखबारों में एक लेखक के रूप में छपने का श्रेय हमें 1983 में भारत के विश्व कप जीतने पर लिखे विषय के कारण ही मिला था। उसके बाद जो दौर चला वह एक अलग बात है पर अंतर्जाल पर भी हमने सबसे पहले अपना एक व्यंग्य क्रिकेट में सब चलता है यार शीर्षक से लिखा। उसमें 2007 में होने वाले संभावित विश्व क्रिकेट प्रतियोगिता में भारतीय टीम के चयन पर व्यंग्य कसा गया था। सामान्य हिन्दी फोंट में होने के कारण वह कोई पढ़ नहीं पाया पर उस समय रोमन लिपि में हिन्दी लिखना आसान नहीं था इसलिये 200ल में विश्व कप में भारतीय टीम की हार पर लिखे गये छोटे पाठ पर हमें पहली प्रतिक्रिया मिली थी। दरअसल वह पाठ एक पुराने खिलाड़ी के बयान पर था जिनकी हाल ही में मृत्यु गयी और टिप्पणी में उनके प्रति गुस्से का भाव था सो टिप्पणी उड़ाने के लिये पूरा पाठ ही उड़ाना पड़ा-उस समय तकनीकी जानकारी इतनी नहीं थी।
क्रिकेट में फिक्सिंग जैसी कथित घटनाओं ने हमें क्रिकेट से विरक्त कर दिया था और हम मन लगाने के लिये ही अंतर्जाल पर लिखने आये। उन्हीं दिनों विश्व कप भी चल रहा था और इधर ब्लाग बनने के दौर भी-कोई तकनीकी जानकारी देने वाला नहीं था वरना आज तो हम पांच मिनट में ब्लाग बनाकर कविता ठेल सकते हैं। कोई अनुभव नहीं था और क्रिकेट पर लिखने का हमारा कोई इरादा नहीं था। जब भी क्रिकेट पर लिखा तो व्यंग्य या हास्य कविता ही लिखी। एक बार जरूर बहक गये जब पिछले वर्ष बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता में भारत जीता तो उस पर एक पाठ लिखा मगर वह बिना टिप्पणी के रहा तो हैरानी हुई तब हमने पता लगाया कि वह तो फोरमों पर पहुंचा ही नहीं। वजह हमने फीड बर्नर का कोड इस तरह लगााया कि वह ब्लाग हमारे यहां ही दिख सकता था। दो दिन बाद हमने उसको हटाया तो देखा कि वह फोरमों पर दिख रहा था।
इसी के चलते गुस्सा आया तो फिर एक हास्य कविता लिख डाली ‘बीस का नोट पचास में नहीं चलेगा’। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमें ही बेकार लगने वाली वह कविता सबसे अधिक टिप्पणियां प्राप्त कर चुकी है। अलबत्ता कुछ हिंदी ज्ञाता उस तमाम तरह की नाराजगी भी जता चुके हैं। उसका कविता में हमारा आशय यही था कि कुछ पुराने खिलाड़ी े केवल इसलिये पचास ओवर वाली टीम में बने हुए हैं क्योंकि उनके पास विज्ञापन मिलते हैं। ऐसे तीन खिलाड़ी बीस ओवरीय प्रतियोगिता में नहीं गये थे और अब उस विश्व कप की आड़ में उनको जीवनदान इसलिये मिलने वाला था क्योंकि विरक्त हो रहा भारतीय समुदाय फिर क्रिकेट की तरफ आकर्षित होने वाला था। पचास ओवरीय विश्व कप के बाद भारतीय बाजार प्रबंधकों को मूंह सूख गया था जिसे बीस ओवर से अमृत मिलने वाला था। हुआ भी यही। अब देखिए फिर क्रिकेट की तरफ लोगों का आकर्षण पहले जैसा ही हो गया जैसे 1983 के बाद बना था। वही हीरो अभी भी चल रहे हैं जिन्होंने कभी एक भी विश्व कप नहीं जितवाया। इस देश की हालत यही है कि जहां देखते हैं कि आकर्षण हैं वहीं अपना लोग मन लगा देते हैं।

हमें इस पर भी कोई आपत्ति नहीं है। हम कोई यह थोड़े ही कहते हैं कि हमारे ब्लाग पढ़ो जिसमें हम अनेक बार बेकार सी कवितायें और व्यंग्य ठूंस देते हैं।
दरअसल बात यह है कि क्रिकेट मैच वाले दिनों में हमारे ब्लाग सुपर फ्लाप हो जाते हैं। वैसे भी कोई हम हिट ब्लाग लेखक नहीं माने जाते पर जिस दिन क्रिकेट मैच हो उस दिन स्वयं को यह समझाते हुए भी डर लगता है कि हम हिंदी में ब्लाग लिख रहे हैं। अगर कोई क्रिकेट प्रेमी मित्र मिल जाये तो उससे इस विषय पर बात ही नहीं करते कि ब्लाग पर आज किस विषय पर लिखेंगे। शेष दिनों में ऐसे मित्रों से हमारी अपने ब्लाग के विषयों पर चर्चा होती है।
ब्लाग पर पाठ पठन/पाठक संख्या बताने वाले अनेक कांउटर लगाये जाते हैं। हमने भी दूसरों की देखादेखी अनेक प्रकार के काउंटर लगा चुके हैं-यह अलग बात है कि एक ‘गुड कांउटर’ की वजह से हमारे दो ब्लाग जब्त भी हो चुके हैं क्योंकि वह कांउटर किसी जुआ वगैरह से संबंधित था। कहें तो घुड़दौड़ की फिक्सिंग से भी हो सकता है। पूरी तरह हम भी उसके बारे में समझ नहीं पाये। हालांकि हमें लगता था कि पाठ पठन/पाठक संख्या बताने वाली उस वेबसाईट में कुछ गड़बड़ है पर फिर सोचते थे कि क्रिकेट जैसी ही होगी। वहां सब चल रहा है तो यहां चलने में क्या है?
उसका अफसोस भी नहीं है। मगर आज कुछ अधिक अफसोस वाला दिन था तो सोचा कि क्यों न अपने सारे गम एक ही दिन याद कर लिये जायें। रोज रोज का क्लेश हम नहीं पाल सकते। जब हम यह पाठ लिख रहे हैं तब कहीं भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच चल रहा है। उससे हमारा लेना देना बस इतना ही है कि हमारे ब्लाग पचास फीसदी पिट रहे हैं। जो पचास फीसदी बचे हैं वह इसलिये क्योंकि वह मैच दिन में नहीं था-यानि अब सौ फीसदी पिट रहे हैं। ऐसा पहले भी हुआ है पर भारत पाकिस्तान का मैच बहुत दिन बाद हो रहा है इसलिये अधिक लोग देख रहे हैं। फिर इधर भाई लोगों ने जनता को बीसीसीआई की क्रिकेट टीम ‘विश्व में नंबर वन’होने’ की नशीली गोली पिला दी है। बस! सारी पब्लिक उधर!
हम इससे भी परेशान नहीं है। अरे, आज ब्लाग पिट रहे हैं कल फिर अपनी जगह पर आ जायेंगे। समस्या यह है कि हम इसमें कुछ ज्यादा ही सोच रहे हैं पर चिंतन नहीं लिख पा रहे। इस पर फिर कभी लिखेंगे। अलबत्ता हम यह सोच रहे हैं कि क्या क्रिकेट ने भारत की युवा पीढ़ी को दिमागी रूप से पंगु तो नहीं बना दिया। हमने पूरी युवावस्था क्रिकेट के खेल होने के भ्रम में गुजारी और अपनी नयी पीढ़ी को इसमें जाता देख रहे हैं। यकीनन हमने अगर अपना समय क्रिकेट पर बरबाद नहीं किया होता तो इस समय तीस से चालीस उपन्यास, सौ पचास कहानी संगह, एक हजार कविता संग्रह और पचास कभी चिंतन संग्रह छपवा चुके होते-यह अलग बात है कि पढ़ने वाले भी हम ही होते पर कम से कम अपना समय तो नष्ट करने का गम तो नहीं होता।
कहते हैं कि इस देश में हिंदी के अच्छे लेखक नहीं मिलते। मिलेंगे कहां से? हर नयी पीढ़ी को क्रिकेट खाये जा रहा है। न हिंदी के लेखक मिलते हैं न पाठक! यह ज्ञान हमें आज नहीं प्राप्त हुआ बल्कि पिछले तीन वर्ष से इस तरह अपने ब्लाग का उतार चढ़ाव देखकर सोचते थे।
आज हुआ यह कि हम पास के शहर में एक मंदिर में गये थे। लौटते हुए रास्ते में हमारा एक मित्र मिल गया और बोला-‘आज मेरे घर में लाईट नहीं है इसलिये दूसरे मित्र के घर मैच देखने जा रहा हूं। तुमने तो मना ही कर दिया कि मंदिर जाऊंगा।’
हमने कहा-‘पर तुमने बताया नहीं था कि मैच देखना है। अब चलो।’
वह बोला-‘अब क्या? मैंने उसे फोन कर दिया है। फिर मैच तो अब निकल ही रहा है।’
वह चला गया पर वहां हमें अपने ब्लाग याद आये-ऐसा बहुत कम होता है कि हम घर के बाहर कभी ब्लाग वगैरह याद करते हों । मित्रों के साथ किसी विषय पर होते समय यह जरूर कहते हैं कि इस पर लिखेंगे। हमने उसी मित्र को यह बताया था कि क्रिकेट मैच वाले दिन ब्लाग पिट जाता है। यही कारण है कि जब बातचीत के बाद वह जा रहा था तब उसने कहा‘हां, पर आज पाकिस्तान के साथ मैच है तुम्हारे ब्लाग तो पिट जायेंगे।’
इस बात ने हमारी चिंतन क्षमता जगा दी और घर आकर ब्लागों की पाठ पठन/पाठक संख्या देखी तो उसने इसकी पुष्टि की। मैच अधिक आकर्षक है तो हिंदी ब्लाग उतनी ही बुरी तरह से पिट रहा है। हो सकता है कि यह हमारे साथ ही होता हो और जो अच्छे लिखने वाले हों उनकी संख्या इतनी अधिक होती होगी कि उनको इसमें कमी का पता अधिक नहीं चले। हमें जरूर इसका आभास होता है तब सोचते हैं कि ‘क्या क्रिकेट मैचों की हिंदी से भला कोई ऐसी अदृश्य प्रतिस्पर्धा है जो इस तरह हो रहा है। वैसे संभवत कुछ अनुभवी लोग इस बात से सहमत हो सकते हैं कि क्रिकेट ने हमारी रुचियों को अप्राकृतिक और कृत्रिम आकर्षण का गुलाम बना दिया है और जिसकी वजह से हिंदी का रचनाकर्म भी प्रभावित होता है क्योंकि उसको समाज से अपेक्षित प्रोत्साहन नहीं मिलता। अपनी अपनी सोच है। हमने क्रिकेट मेें समय गंवाया है उसकी भरपाई करने के लिये अपनी बात लिखने बाज नहीं आते। लोग भी भला अपनी आदत से कहां बाज आते हैं और कहां क्रिकेट की हार पर विलाप करते हुए उसे भूल रहे थे फिर उसे याद करने लगे हैं।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

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