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संत कबीर वाणी-आदमी का दोस्त और दुश्मन उसके अन्दर ही बैठा है


शीतल शब्द उचारिये, अहं आनिये नाहिं।
तेरा प्रीतम तुझहि में, दुसमन भी तुझ माहिं

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से हमेशा ही ऐसे शब्दों का उच्चारण करो जो दूसरे को श्ीतलता प्रदान करें। अपने अहंकार में भरकर किसी से कठोर वचन मत कहो। सच बात तो यह है कि अपना दुश्मन या प्रेमी अपने अंदर ही है।
हरिजन सोई जानिए, जिव्हा कहैं न मार।
आठ पहर चितवन रहै, गुरु का ज्ञान विचार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान का सच्चा भक्त वही है जो अपनी जीभ से कभी यह नहीं कहता कि ‘इसे या उसे मार’। वह आठों पहर अपने गुरु के ज्ञान का विचार करते हुए अहिंसा भाव से रहता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में सारा खेल हमार इंद्रियों का है। इनमें भी सबसे अधिक हमारी जीभ का है। यही जीभ हमें तपती धूप में खड़ा कर सकती है और यही किसी छत के नीचे छाया दिला सकती है। ऐसी अनेक धटनायें होती हैं जिसमें बात बेबात मूंहवाद होने पर कत्लेआम हो जाता है। कहते हैं कि ‘न सूत न कपास, जुलाहों में लट्टम लट्ठा’। इसका संबंध केवल बुनकरों से नहीं है बल्कि यह पूरे समाज पर लागू होता है। लोग अपने अहंकार की तुष्टि के लिये अपनी वाणी का दुरुपयोग करते हैं और फिर होता है झगड़ा। अगर आप आये दिन होने वाले झगड़ों का विश्लेषण करें तो पता लगेगा कि बात तो कोई खास है नहीं है बल्कि झगड़ा करने वाले लोग अपने अहंकार की तुष्टि करने के लिये वाणी की आजादी का दुरुपयोग करना चाहते हैं। वह चाहते हैं कि उनकी कटु बातों का कोई प्रतिकार न करे। वह अपशब्द बोलें तो लोग सहें।
सच बात तो यह है कि जो भक्ति और ज्ञानार्जन में लीन होते हैं वह इस तरह का व्यवाहर नहीं करते। उनकी वाणी हमेशा सार्थक वचनों का प्रवाह करती है। हालांकि ऐसे लोगों की संख्या अब बहुत कम है।
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जिंदगी में ‘शार्टकट’ रास्ता मत ढूंढो यार-vyangya kavita


जीवन में कामयाबी के लिये
शार्टकट(छौटा रास्ता) के लिये
मत भटको यार
भीड़ बहुत है सब जगह
पता नहीं किस रास्ते
फंस जाये अपनी कार
तब सोचते हैं लंबे रास्ते
ही चले होते तो हो जाते पार
…………………………
धरती की उम्र से भी छोटी होती हमारी
फिर भी लंबी नजर आती है
जिंदगी में कामयाबी के लिये
छोटा रास्ता ढूंढते हुए
निकल जाती है उमर
पर जिंदगी की गाड़ी वहीं अटकी
नजर आती है
…………………..
जिंदगी मे दौलत और शौहरत
पाने के वास्ते
ढूंढते रहे वह छोटे रास्ते
खड़े रहे वहीं का वहीं
नाकाम इंसान की सनद
बढ़ती रही उनके नाम की तरफ
आहिस्ते-आहिस्ते

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संत कबीर के दोहे:त्रिगुणी मायावृक्ष के नीचे सब ले रहे साँस


संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि
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तीन गुनन की बादरी, ज्यों तरुवर की छाहिं
बाहर रहे सौ ऊबरे, भींजैं मंदिर माहिं

तीन गुणों वाली माया के नीचे ही सभी प्राणी सांस ले रहे हैं। यह एक तरह का वृक्ष है जो इसकी छांव से बाहर रहेगा वही भक्ति की वर्षा का आनंद उठा पायेगा।

जिहि सर घड़ा न डूबता, मैंगल मलि मलि न्हाय
देवल बूड़ा कलस सौं, पंछि पियासा जाय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जहां कभी सर और घड़ा नहीं डूबता वहां वहां मस्त हाथी नहाकर चला जाता है। जहां कलसी डूब जाती है वहां से पंछी प्यासा चला गया।

संपादकीय व्याख्या-यहां भक्ति और ज्ञान के बारे में कबीरदास जी ने व्यंजना विद्या में अपनी बात रखी है। वह कहते हैं कि प्रारंभ में आदमी का मन भगवान की भक्ति में इतनी आसानी से नहीं लगता। उसे अपने अंदर दृढ़ संकल्प धारण करना पड़ता है। ज्ञान और भक्ति की बात सुनते ही आदमी अपना मूंह फेर लेता है क्योंकि उसका मन तोत्रिगुणी माया में व्याप्त होता है। यह विषयासक्ति उसे भक्ति और ज्ञान से दूर रहने को विवश करती है ऐसे वह भगवान का नाम सुनते ही कान भी बंद कर लेता है। जब उसका मन भक्ति और ज्ञान में रमता है तब वही आदमी संपूर्ण रूप से उसके आंनद में लिप्त हो जाता है-अर्थात जहां सिर रूपी घड़ा नहीं डूबता था ज्ञान प्राप्त होने पर वहां लंबा-चौड़ा हाथी नहाकर चला जाता है। जिसे ज्ञान नहीं है वह हमेशा ही प्यासा रहता है। माया के फेरे में ही अपना जीवन गुजार देता है। इस त्रिगुणी माया की छांव में जो व्यक्ति बैठा रहेगा वह भक्ति कभी नहीं प्राप्त कर सकता है।
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भर्तृहरि नीति शतक-कर्मकांड निभाने से कोई लाभ नहीं होता


राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तरैः
स्वर्गग्रामकुटीनिवाफलदैः कर्मक्रियाविर्भमैः।
मुक्तवैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानल्र
स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणगव्त्तयः

हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मृतियों और पुराणों को पढ़ने, बृहद शस्त्रों के श्लोक रटने, किसी स्वर्ग जैसे ग्राम में फल देने वाले कर्मकांड एक तरह से पाखंड हैं उनके निर्वहन से क्या लाभ? संसार में दुःखों का भार हटाने और परमात्मा का दिव्य पद पाने के लिये केवल उसका स्मरण करना ही पर्याप्त है। उसके अलावा सभी कुछ व्यापार है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने मन को शांति देन का इकलौता मार्ग एकांत में परमात्मा की हृदय से भक्ति करना ही है। चाहे कितने भी द्रव्य से संपन्न होने वाले यज्ञ कर लें और अनेक ग्रंथ पढ़कर उसकी सामग्री पढ़कर दूसरों का सुनाने से कोई लाभ नहीं हैं। हम अपनी शांति प्राप्त करने के लिये सत्संगों और आश्रमों में पाखंडी गुरूओं के पास जाते हैं। इनमें कई कथित साधुओं और संतों ने पंच सितारे होटलों की सुविधाओं वाले आश्रम बना लिये हैं जहां रहने का दाम तो दान के नाम वसूल किया जाता है। ऐसे संत और साधु कर्मकांडों में लिप्त होने का ही संदेश देते हैं। अधिकतर साधु संत सकाम भक्ति के उपासक हैं। वह अपने पैर पुजवाते हैं। कहते तो वह भी भगवान का स्मरण करने को हैं पर साथ में अपनी किताबें और मंत्र पकड़ाते हैं। उनके बताये रास्ते से सच्चे मन से भक्ति नहीं होती बल्कि शांति खरीदने के लिये हम उनको पैसे देकर अपने घर आते हैं। परंतु मन की शांति कहीं बाजार में मिलने वाली वस्तु तो है नहीं और फिर हमारा मन अशांत होकर भटकने लगता है।

ईश्वर की भक्ति से ही मन को शांति मिलती है और उसके लिये यह आवश्यक है कि मन को कुछ पल सांसरिक मार्ग से हटाया जाये और उसका एक ही उपाय है कि एकांत में बैठकर उसका ध्यान करें। बाकी तो अपने देश में धर्म के नाम पर व्यापार है और जितने भी कर्मकांड हैं वह तो केवल व्यापार के लिये हैं और उनसे काल्पनिक स्वर्ग पाने का विचार ही बेकार है।
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भर्तृहरि शतक-बेइज्जती से भी भूख कहाँ मिटती है


भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्तं न किंचित्फलं त्यकत्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला।
भुक्तं मानिववर्जितं परगुहेध्वाशंक्या काकवततृष्णे दुर्गतिपापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ।।

हिंदी में भावार्थ- राजा भर्तृहरि कहते हैं कि अनेक दुर्गम और कठिन देशों में गया पर वहां कुछ भी न मिला। अपनी जाति और कुल का अभिमान त्याग कर दूसरों की सेवा की पर वह निष्फल गयी। आखिर में कौवे की भांति भयभीत और अपमानित होकर दूसरों के घरों में आश्रय ढूंढता रहा। अपने मन की तृष्णा यह सब झेलने पर भी शांत नहीं हुई।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मन की तृष्णा आदमी को हर तरह का अपमान और दुर्गति झेलने को विवश करती है। कहते हैं कि जिसने पेट दिया है वह उसके लिये भोजन भी देगा पर आदमी को इस पर विश्वास नहीं है। इसके अलावा वह केवल दैहिक आवश्यकताओं से संतुष्ट नहीं होता। उसके मन में तो भोग विलास और प्रदर्शन के लिये धन पाने की ऐसी तृष्णा भरी रहती है जो उसे अपने से कम ज्ञानी और निम्न कोटि के लोगों की सेवा करने को विवश कर देती है जिनके पास धन है। वह उनकी सेवा में प्राणप्रण से इस आशा जुट जाता है कि वह धनी आदमी उस पर प्रसन्न होकर धन की बरसात कर देगा।
आदमी अपने से भी अल्प ज्ञानी बाहुबली और पदारूढ़ व्यक्ति के इर्दगिर्द घूमने लगता है कि वह उसका प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचा देगा। किसी भी आदमी की ऐसी तृष्णा शांत नहीं होती। इस दुनियां में हर बड़ा आदमी अपने से छोटे लोगों की सेवा तो लेता है पर अपने जैसा किसी को नहीं बनाता। छोटा आदमी धन और मान सम्मान पाने की इसी तृष्णा की वजह से इधर उधर भटकता है पर कभी उसके हाथ कुछ नहीं आता। मगर फिर भी वह चलता जाता है। उसकी तृष्ण उसे इस अंतहीन सिलसिले से परे तब तक नहीं हटने देती जब तक वह देह धारण किये रहता है।
जीवन के मूल तत्व को जानने वाले ज्ञानी इससे परे होकर विचार करते हैं और इसलिये जो मिल गया उससे संतुष्ट होकर भगवान की भक्ति में लीन हो जाते हैं। वह अपने तृष्णाओं के वशीभूत होकर इधर उधर नहीं भटकते जो कभी शांत ही नहीं होती।
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कबीर के दोहे-दैहिक शिक्षा देने वाले शिक्षक अध्यात्मिक गुरू नहीं कहे जा सकते


पंख होत परबस पयों, सूआ के बुधि नांहि।
अंकिल बिहूना आदमी, यौ बंधा जग मांहि।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं बुद्धिमान पक्षी जिस तरह पंख होते हुए भी पिंजरे में फंस जाता है वैसे ही मनुष्य भी मोह माया के चक्क्र में फंसा रहता है जबकि उसकी बुद्धि में यह बात विद्यमान होती है कि यह सब मिथ्या है।

शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो गुरु जीवन रहस्यों का शब्द ज्ञान दे वही गुरु है। जो गुरु केवल भौतिक शिक्षा देता है उसे गुरु नहीं माना जा सकता। गुरु तो उसे ही कहा जा सकता है जो भगवान की भक्ति करने का तरीका बताता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान शिक्षा पद्धति में विद्यालयों और महाविद्यालयों में अनेक शिक्षक छात्रों को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार पाठ्यक्रमों का अध्ययन कराते हैं पर उनको गुरु की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वर्तमान शिक्षा के समस्त पाठयक्रम केवल छात्र को नौकरी या व्यवसाय से संबंधित प्रदान करने के लिये जिससे कि वह अपनी देह का भरण भोषण कर सके। अक्सर देखा जाता है कि उनकी तुलना कुछ विद्वान लोग प्राचीन गुरुओं से करने लगते हैं। यह गलत है क्योंकि भौतिक शिक्षा का मनुष्य के अध्यात्मिक ज्ञान से कोई संबंध नहीं होता।
उसी तरह देखा गया गया है कि अनेक शिक्षक योगासन, व्यायाम तथा देह को स्वस्थ रखने वाले उपाय सिखाते हैं परंतु उनको भी गुरुओं की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। हां, ध्यान और भक्ति के साथ इस जीवन के रहस्यों का ज्ञान देने वाले ही लोग गुरु कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि जिनसे अध्यात्मिक ज्ञान मिलता है उनको ही गुरु कहा जा सकता है। वैसे आजकल तत्वज्ञान का रटा लगाकर प्रवचन करने वाले भी गुरु बन जाते हैं पर उनको व्यापारिक गुरु ही कहा जाना चाहिये। सच्चा गुंरु वह है जो निष्काम और निष्प्रयोजन भाव से अपने शिष्य को अध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करता है।
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बदलाव कौन लाएगा-हास्य व्यंग्य


वहां महफिल जमी हुई थी। अनेक विद्वान समाज की समस्याओं पर विचार करने के लिये एकत्रित हो गये थे। एक विद्वान ने कहा-हम चलते तो रिवाजों की राह है पर बदलाव की बात करते हैं। यह दोहरा चरित्र छोड़ना पड़ेगा।’
दूसरे ने पूछा-‘क्या हमें शादी की प्रथा छोड़ देना चाहिए। यह भी एक रिवाज है जिसे छोड़ना होगा।
तीसरे विद्वान ने कहा-‘नहीं यह जरूरी रिवाज है। इसे नहीं छोड़ा जा सकता है।’
दूसरे ने कहा-‘तो हमें किसी के मरने पर तेरहवीं का प्रथा तो छोड़नी होगी। इस पर अमीर आदमी तो खर्च कर लेता है पर गरीब आदमी नहीं कर पाता। फलस्वरूप गरीब आदमी के मन में विद्रोह पनपता है।’

पहले ने कहा-‘नहीं! इसे नहीं छोड़ा जा सकता है क्योंकि यह हमारे समाज की पहचान है।’
दूसरे ने कहा-‘पर फिर हम समाज में बदलाव किस तरह लाना चाहते हैं। आखिर हम रीतिरिवाजों की राह पर चलते हुए बदलाव की बात क्यों करते हैं। केवल बहसों में समय खराब करने से क्या फायदा?’
वहां दूसरे विद्वान भी मौजूद थे पर बहस केवल इन तीनों में हो रही था और सभी यही सोच रहे थे कि यह चुप हों तो वह कुछ बोलें। उनके मौन का कारण उन तीनों की विद्वता नहीं बल्कि उनके पद, धन और बाहूबल थे। यह बैठक भी पहले विद्वान के घर में हो रही थी।
पहले ने कहा-‘हमें अब अपने समाज के गरीब लोगों का सम्मान करना शुरु करना चाहिये। समाज के उद्योगपति अपने यहां कार्यरत कर्मचारियों और श्रमिकों, सेठ हैं तो नौकरों और मकान मालिक हैं तो अपने किरायेदारों का शोषण की प्रवृत्ति छोड़कर सम्मान करना चाहिये। घर में नौकर हों तो उनको छोटी मोटी गल्तियों पर डांटना नहीं चाहिये।’

पहले विद्वान के घर पर बैठक हो रही थी वहां पर उनका एक घरेलू नौकर सभी को पानी और चाय पिला रहा था। वह ट्रे में रखकर अपने मालिक के पास पानी ले जा रहा था तो उसका पांव वहां कुर्सी से टकरा गया और उसके ग्लास से पानी उछलता हुआ एक अन्य विद्वान के कपड़ों पर गिर गया। उसकी इस गलती पर वह पहला विद्वान चिल्ला पड़ा-अंधा है! देखकर नहीं चलता। कितनी बार समझाया है कि ढंग से काम किया कर। मगर कभी कोई ढंग का काम नहीं करता।
नौकर झैंप गया। वहां एक ऐसा विद्वान भी बैठा था जो स्वभाव से अक्खड़ किस्म का था। उसने उस विद्वान से कहा-‘आखिर कौनसे रिवाजों की राह से पहले उतरे कौन?’
पहला विद्वान बोला-‘इसका मतलब यह तो बिल्कुुल नहीं है कि अपने से किसी छोटे आदमी को डांटे नहीं।’
चौथे विद्वान ने कहा-‘सभी के सामने इसकी जरूरत नहीं थी। वैसे मेरा सवाल तो यह है कि आपने यह बैठक बुलाई थी समाज में बदलाव लाने के विषय पर। बिना रिवाजों की राह से उतर वह संभव नहीं है।’
पहले विद्वान ने कहा-‘हां यह तो तय है कि पुराने रिवाजों के रास्ते से हटे बिना यह संभव नहीं है पर ऐसे रिवाजों को नहीं छोड़ा जा सकता है जिनसे हमारी पहचान है।’
चौथे ने कहा-‘पर कौनसे रिवाज है। उनके रास्ते से पहले हटेगा कौन?
पहले ने कहा-‘भई? पूरो समाज के लोगों को उतरना होगा।
दूसरे ने कहा-‘पहले उतरेगा कौन?’
वहां मौन छा गया। कुछ देर बाद बैठक विसर्जित हो गयी। वह नौकर अभी भी वहां रखे कप प्लेट और ग्लास समेट रहा था। बाकी सभी विद्वान चले गये पर पहला और चैथा वहीं बैठे थे। चौथे विद्वान ने उस लड़के हाथ में पचास रुपये रखे और कहा-‘यह रख लो। खर्च करना!’
पहला विद्वान उखड़ गया और बोला-‘मेरे घर में मेरे ही नौकर को ट्रिप देता है। अरे, मैं इतने बड़े पद पर हूं कि वहां तेरे जैसे ढेर सारे क्लर्क काम करते हैं। वह तो तुझे यहां इसलिये बुला लिया कि तू अखबार में लिखता है। मगर तू अपनी औकात भूल गया। निकल यहां से!’
उसने नौकर से कहा-‘इसका पचास का नोट वापस कर। इसकी औकात क्या है?’
उस नौकर ने वह नोट उस चैथे विद्वान की तरफ बढ़ा दिया। चैथे विद्वान ने उससे वह नोट हाथ में ले लिया और जोर जोर से हंस पड़ा। पहला बोला-‘देख, ज्यादा मत बन! तु मुझे जानता नहीं है। तेरा जीना हराम कर दूंगा।’
चैथे ने हंसते हुए कहा-‘कल यह खबर अखबार में पढ़ना चाहोगे। यकीनन नहीं! तुम्हें पता है न कि अखबार में मेरी यह खबर छप सकती है।’
पहला विद्वान ढीला पड़ गया-‘अब तुम जाओ! मुझे तुम्हारे में कोई दिलचस्पी नहीं है।’
चौथे ने कहा-‘मेरी भी तुम में दिलचस्पी नहीं है। मैं तो यह सोचकर आया कि चलो बड़े आदमी होने के साथ तुम विद्वान भी है, पर तुम तो बिल्कुूल खोखले निकले। जब तुम रिवाजों की राह से पहले नहीं उतर सकते तो दूसरों से अपेक्षा भी मत करो।’
चौथा विद्वान चला गया और पहला विद्वान उसे देखता रहा। उसका घरेलू नौकर केवल मौन रहा। वह कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं सका। उसका मौन ही उसके साथ रहा।
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कबीर के दोहे: शब्द हमेशा ही इस अन्तरिक्ष में विचरण करता है


कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।

शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द किसी का मूंह नहीं ताकता। वह तो चारों ओर निर्विघ्न विचरण करता है। जब शब्द ज्ञान से अपने पराये का ज्ञान होता है तब गुरु शिष्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पिछले दिनों समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि अब लोगों में अपशब्द बोलना एक तरह से फैशन बनता जा रहा है। लोग अंतर्जाल पर गाली गलौच लिखना एक फैशन बना रहे हैं। यह वर्तमान विश्व समुदाय में अज्ञान और अहंकार की बढ़ती प्रवृत्ति का परिचायक है। पहले तो यह विचार करना जरूरी है कि हमारे शब्दों का प्रभाव किसी न किसी रूप में होता ही है। एक बात यह भी है कि हम जो शब्द बोलते हैं वह समाप्त नहीं हो जाता बल्कि हवा में तैरता रहता है। फिर समय पढ़ने पर वह उसी मुख की तरफ भी आता है जहां से बोला गया था। ऐसे में अगर हम अपने मुख से अपशब्द प्रवाहित करेंगे तो वह लौटकर कभी न कभी हमारे पास ही आने हैं। आज हम किसी से अपशब्द अपने मुख से बोलेंगे कल वही शब्द किसी अन्य द्वारा हमारे लिये बोलने पर लौट आयेगा। इस तरह तो अपशब्द बोलने और सुनने का क्रम कभी नहीं थमेगा।

इसलिये अच्छा यही है कि अपने मुख मधुर और दूसरे को प्रसन्न करने वाले शब्द बोलें जाये। लिखने का सौभाग्य मिले तो पाठक का हृदय प्रफुल्लित हो उठे ऐसें शब्द लिखें। पूरे विश्व समुदाय में गाली गलौच का प्रचलन कोई अच्छी बात नहीं है। ब्रिटेन हो या भारत या अमेरिका इस तरह की प्रवृत्ति ही विश्व में तनाव पैदा कर रही है। हम आज आतंकवाद और मादक द्रव्यों से विश्व समुदाय को बचाने का प्रयास कर रहे हैं पर इसके के लिये यह जरूरी है कि अपने शब्द ज्ञान का अहिंसक उपयोग करें तभी अन्य को समझा सकते हैं।
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इंटरनेट पर शब्द ही चेहरा बनेंगे-संपादकीय


लिखने वाला हर व्यक्ति साहित्यकार नहीं माना जाता। एक तो क्लर्क होते हैं जो पत्र वगैरह लिखते हैं और उसमें उनके विषय के अनुसार कुछ न कुछ मौलिक होता है। उसी तरह लोग एक दूसरे को पत्र लिखते हैं और वह भी कई बार बेहतर शब्दों का उपयोग करने के बावजूद साहित्यकार नहीं कहलाते। उसी तरह ईमेल और उसके विस्तार ब्लाग पर लिखने वाले सभी लोग साहित्यकार नहीं बन जायेंगे। हां, दूसरा यह भी सच है कि ब्लाग पर लिखने वाले साहित्यकार अवश्य आयेंगे।
आखिर किसी विषय को साहित्य कब कहा जाता है? साहित्य उसी रचना को कहा जाता है जो अनाम व्यक्तियों को दृष्टिगत सार्वभौमिक विषय पर लिखी जाती है और उसमें किसी को संबोधित नहीं किया जाता है। जहां किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को ध्यान में रखकर लिखा गया भले ही उसमें किसी को संबोधन न हो फिर भी वह साहित्य नहीं है। उसी तरह चाहे भले ही किसी पाठ का विषय सार्वभौमिक हो पर अगर वह किसी व्यक्तिविशेष को संबोधित हो तो भी वह साहित्य नहीं है।
आशय यह है कि मौलिक रूप से किसी व्यक्ति द्वारा लिखा गया आलेख, कहानी, कविता और व्यंग्य अगर सार्वभौमिक लक्ष्य के साथ सभी व्यक्तियों के पढ़ने के लिये लिखा गया है वही साहित्य है।
अंतर्जाल पर ब्लाग कोई अलग से विधा नहीं है। जिस तरह कंप्यूटर कलम, टेबल, अलमारी,कागज,दराज तथा लिखने पढ़ने वाली अन्य वस्तुओं का एक समूह है उसी तरह ब्लाग उसमें एक लिफाफे की तरह है। अब इस लिफाफे का उपयोग कौन कैसे करता है वही उसकी भूमिका और स्वरूप को तय करेगा।
अब इसमें यह भी हो सकता है कि क्लर्क की तरह लिफाफा भेजने वाला कहीं कविता लिखकर प्रकाशित कर देगा तो कहीं अपने रिश्तेदारों और मित्रों को पत्र-ईमेल और उसका विस्तार पटल ब्लाग-के रूप में लिखने वाला भी आगे चलकर समाज से सरोकार लिखने वाले विषयों की तरफ उन्मुख होगा तो वह भी साहित्यकार बन जायेगा।
इधर हिंदी ब्लाग जगत काफी दिलचस्प दौर में पहुंच रहा है। कई ऐसे लेखक और लेखिकायें जो आज से दो वर्ष पहले तक ऐसे लिखते थे जैसे कि उनको कुछ नहीं आता। उस समय यह संभावना नहीं लगती थी कि वह कोई सार्थक लेखन कर पायेंगे पर अपने अभ्यास से वह अब चमत्कृत करने लगे हैं। उनका अभ्यास अब भी जारी है। अब वह गंभीर विषय लिखने का प्रयास कर रहे हैं उसमें शब्दों और वाक्यों को हिंदीमय बनाने में वह जोरदार प्रयास कर रहे हैं। नियमित टिप्पणीकार भी उनके पाठों पर गंभीर रूप से लिखने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि ब्लाग लेखकों का एक मित्र समूह अब तैयारी कर रहा है वैश्विक काल में प्रवेश कर रही हिंदी को नया स्वरूप देने का। इनमें से अधिकतर इस लेखक के मित्र हैं और अनेक बार अपनी टिप्पणियां कर प्रभावित करते रहे हैं। इनमें से एक ने तो लिखा था कि ‘अंतर्जाल पर हिंदी को स्थापित करने में आपका योगदान याद रखने लायक होगा’।
उसकी इस टिप्पणी से से लेखक डर गया था था। इस लेखक आखिर इस ब्लाग जगत में कितने मित्र हैं? यह लेखक उन पर लिखना चाहता है पर कुछ कहना कठिन है। इसमें संदेह नहीं है कि उनकी मित्रता और स्नेह ने मुझे प्रेरित किया पर उनके नामों को लेकर हमेशा संशय में बना रहता है। अगर शब्दों को चैहरा माना जाये तो ऐसा लगता है कि वह तीन या चार होंगे। हां, यह सच है कि जहां व्यक्ति आपको नहीं दिखता वहां शब्द ही चैहरा हो जाता है। अगर आप अंतर्जाल पर सक्रिय हैं तो शब्दों से चैहरे को देखने का अभ्यास प्रारंभ कर दीजिये।
एक महिला लेखिका आजकल बहुत आक्रामक और दिलचस्प लिखने लगी हैं। उन्होंने लक्ष्य कर रखा है कुछ बड़े ब्लाग लेखकों को! वह पहले कवितायें लिखती थीं। ऐसा लगता था कि जैसे कौने में बैठी कोई मासूम महिला कविता लिखने का अभ्यास कर रही है। उनकी कवितायें पढ़कर हंसी आती थी पर अब उनका लिखा अब पढ़ने में यह लेखक चूकता नहीं है। दरअसल जो सार्वभौमिक विषय पर लिखने वाले लेखक (साहित्यकार!) हैं ब्लाग पर चटखारे लेकर लिखे गये पाठों पर अपनी दृष्टि अवश्य डालते हैं बनिस्बत अन्य सामग्री के। इसलिये ब्लाग पर वाद विवाद कर लिखी गयी सामग्री हिंदी के फोरमों पर अधिक हिट पाती है।
आज इस लेखक ने अपने वर्डप्रेस के पर स्टेटकांउटर लगाया। ऐसा पहले भी लगाया था पर गलत ढंग से तब ऐसा लगता था कि वह सही जानकारी नहीं दे रहा है पर अब ढंग से लगाया तो पता लगा कि रिपोर्ट सही है और वास्तव में वहां हिट अधिक हैं। वर्डप्रेस के ब्लाग की अपेक्षा कर मैं ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर लिख रहा था पर मजा नहीं आ रहा। वहां पर हिट के लिये ब्लागवाणी पर निर्भर रहना पड़ता है और फिर लक्ष्य केवल ब्लाग लेखक ही रह जाते हैं। इस लेखक ने ब्लागवाणी से वर्डप्रेस के सारे ब्लाग हटा लिये थे और सोचा कि ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर लिखने के बाद यहां पाठ लाया जायेगा पर लगता है अब बदलाव करना पड़ेगा। गूगल की पैज रैंक के अनुसार इस लेखक के तीन ब्लाग हिट हैं और इनमें दो वर्डप्रेस पर हैं। पहले लगता था कि कोई ऐजेंसी हिट कर भ्रमित कर रही है पर आज लगा कि वाकई वह ब्लाग हिट हैं। उस दिन इस लेखक का कंप्यूटर ठीक करने आये एक इंजीनियर ने बताया था कि वह हिंदी पढ़ने के लिये वेब दुनियां पर जाता है। इधर यह भी देखा जा रहा है कि वेबदुनियां से अच्छी संख्या में पाठक आ रहे हैं। इसलिये अपने हिट ब्लाग पर नियमित रूप से लिखने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर होगा। वैसे भी यह ब्लाग पाठक संख्या पचास हजार पार करने वाला है और यह इस मामूली लेखक के लिये एक उपलब्धि तो होगी। इस अंतर्जाल पर इस लेखक के बीस लिफाफे यानि ब्लाग हैं। इस हिट ब्लाग पर अब नियमित रूप से लिखने का प्रयास होगा।
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‘विषाद’ का प्रतिकार ‘सहजता’ से ही संभव -आलेख


वह एक ब्लाग पर टिप्पणी थी। उसमें कोई ऐसी बात नहीं कही गयी जिस पर बावेला मचायें। टिप्पणीकार की नीयत पर भी कोई संदेह नहीं था। वह भारतीय समाज में एकता के लिये प्रतिबद्ध दिख रहा था इसमें संदेह नहीं है। कभी कभी लगता है कि यह वही ब्लाग लेखक हो सकता है जिसके पाठ से प्रभावित होकर इस लेखक ने लिखना प्रारंभ किया था। अपने ही धर्म के प्रवर्तक के एक अंग्रेजी कार्टून के विरोध में कुछ लोगों ने प्रदर्शन किया था और उसने उसी पर ही ईमानदारी से एक बढ़िया व्यंग्य लिखा था। उसने अपने धर्म के ठेकेदारों पर कटाक्षा किया था। शायद वही ऐसा ब्लागर हो सकता है। दावे से यह कहना कठिन है कि यह वही ब्लाग लेखक है पर उसकी नेकनीयती पर संदेह करना अपने आपको धोखा देना है। उसने एक ब्लाग पर टिप्पणी की थी।
उसकी टिप्पणियों के बाकी अंशों से कोई मतलब नहीं है पर उसके श्रीगीता के प्रति किये गये उद्गार से इस लेखक को असहमति-याद रखें कि विरोध नहीं- थी। उसने दूसरे ब्लाग लेखक के पाठ पर टिप्पणी की थी। उस पाठ में एक धार्मिक पुस्तक को लेकर चर्चा थी। उस पाठ मेंे कुछ कतिपय लोगों द्वारा एक धार्मिक पुस्तक की व्याख्या अपने स्वार्थ से करने की आलोचना थी और उस ब्लाग लेखक ने उसी पर अपनी सदाशयता से टिप्पणी की थी।
उसने अपनी टिप्पणी में दो अन्य धर्मों की पुस्तकों के साथ श्रीगीता का भी उल्लेख करते हुए लिखा था कि यह सभी धार्मिक पुस्तकों इसलिये लिखी गयी क्योंकि उस समय लोगों के पास समय था। इन पुस्तकों का अधिक महत्व नहीं है।
उसकी इस टिप्पणी से लेखक के अधरों पर बरबस ही मुस्कान आ गयी। उस भावुक ब्लागर ने भले ही सदायशता से टिप्पणी की पर कहीं न कहीं उसका अज्ञान श्रीगीता के प्रति साफ दिख रहा था। अगर वह श्रीगीता के अलावा किसी अन्य धर्म ग्रंथ की बात करता तो शायद उसे समझा जा सकता था।
हम यहां धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र की विचारधाराओं से हटकर विचार करें तो लगेगा कि इस देश में लोगों की आदत हो गयी है कि केवल नारों के आधार पर ही बहस और टिप्पणियां करते हैं। वह टिप्पणीकार भी उस बुद्धिजीवी समाज से है जो केवल चर्चा करने के लिये चर्चा करता है। यहां हमें किसी बुद्धिजीवी का समाज देखकर उस पर टिप्पणी नहीं करना क्योंकि श्रीगीता को मानने वाला इंसान अगर समदर्शी नहीं हुआ तो उसका ज्ञान व्यर्थ होगा। हां, श्रीगीता के प्रति उसका जो भाव है वह देश के बुद्धिजीवी समाज का ही प्रतीक है और इस बात को कोई मतलब नहीं है कि उनमें कौन श्रीगीता का मानता है और कौन नहीं।
बाकी धर्मों की पुस्तकों पर यह लेखक टिप्पणी नहीं करता क्योंकि उनको इसने पढ़ा नहीं है पर श्रीगीता के बारे में यह कहना पड़ता है कि लाख सिर पटक लो। पढ़ो या नहीं। पढ़ो तो समझो, नहीं समझो तो अपनी मर्जी के मालिक हो। इस दुनियां में झगड़े चलते रहे हैं और चलते रहेंगे। मगर श्रीगीता में जीवन और सृष्टि के संबंध में जो ज्ञान और विज्ञान का रहस्य उद्घाटित किया गया है वह कभी बदल नहीं सकता। सच बात तो यह है कि श्रीगीता को मानने का दावा करने वाले ही उसके बारे में उतना ही जानते हैं जिससे दूसरे को बता कर अपने ज्ञानी होने का प्रभाव जमा सकें। श्रीगीता की पुस्तक और उसके संदेश आश्रमों के दरवाजे या दीवारों पर प्रकाशित करने से अगर उसके स्वामियों को आ जाता तो वह उनको बनाते ही नहीं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता के ज्ञान का केवल अपने भक्तों में प्रचार करने की आज्ञा दी है मगर उसे सरेराह सुनाकर कथित धर्म के ठेकेदार इसी बात का प्रमाण देते हैं कि उनके पास केवल संदेश नारों के रूप में है धारण किये हुए ज्ञान की तरह नहीं।
एक मजे की बात दूसरी भी है। अगर अन्य धर्मग्रंथों के साथ श्रीगीता का नाम लेकर हल्की प्रतिकूल बात कहने को लोग यह मान लेते हैं कि चलो उसने हमारी श्रीगीता की अकेले आलोचना नहीं की। ऐसे में दो बातें प्रमाणित होती हैं-
1. लोग श्रीगीता के समर्थक हैं पर उसके ज्ञान से अनजान है इसलिये चुनौती नहीं दे पाते।
2. दूसरा यह कि पूरा समूह ही ऐसा हो गया है कि ‘चलो हमारे थप्पड़ मारा तो क्या हुआ पड़ौसी को भी तो मारा’।
दूसरा कारण पूरे समाज को इंगित कर दिया गया है वरना उस टिप्पणीकर्ता ब्लाग लेखक का ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था-यह उसकी सदाशयता को देखकर कही जा सकती है।
विश्व भर में तनाव बढ़ता जा रहा है। विभिन्न धर्मों के नाम पर लिखी गयी बृहद पुस्तकों को पढ़ना सामान्य आदमी के लिये कठिन है इसलिये वह उनके पढ़ने वाले कथित ज्ञानियों के दरवाजे पर हाजिरी लगाता है और वह उसे सर्वशक्तिमान की पहचान और स्वर्ग का पता देने के बहाने अपने हित दो तरह से साधते हैं।
1.अपने लिये दान दक्षिणा जुटाते हैं
2.अपनी छबि सिद्ध की बनाकर लोगों के अपना नाम करना चाहते हैं।
हमारे देश में तो इतनी धार्मिक पुस्तकें हैं कि कोई भी अच्छा खासा विद्वान यह दावा नहीं कर सकता कि उसने सब कुछ पढ़ लिया। अब आप कहेंगे कि तब क्या किया जाये?
सारी धार्मिक पुस्तकों का सार श्रीगीता में है। उसे एक बार पढ़ लें तो फिर अन्य ज्ञान की पुस्तकें पढ़ने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। हां, मनोरंजन की पुस्तकें पढ़ सकते हैं, कार्यक्रम देख सकते हैं पर उनमें लिप्त नहीं होना-यही संदेश श्रीगीता से निकलता है।
आखिर बात यह है कि आजकल जब बीमार आदमी डाक्टर के पास जाता है तो वह कहता है कि ‘तुम्हारी बीमारी की जड़ तनाव है!’
बीमार उसके हाथ से लिखा पर्चा हाथ में लेता है तो डाक्टर कहता है कि‘यह दवायें समयानुसार लेना। हा, पर ठीक तब ही हो पाओगे जब तनाव मुक्त रहोगे। ‘टैंशन मत पालो। हमेशा रिलैक्स रहो तभी इजीनैस फील कर पाओगे।’
श्रीगीता का पहला अध्याय ही ‘विषाद योग’ है और फिर सहज योग की स्थापना करते हुए अन्य अध्याय हैं। ‘विषाद’ का प्रतिकार ‘सहजता’ से करने के लिये कोई अन्य धर्मपुस्तक है क्या? अगर है तो क्या वह इतनी छोटी और संक्षिप्त संदेशों से सुसज्जित है जिसे आम आदमी पढ़ सके क्योंकि आजकल लोगों के फुरसत ही कहां है? दूसरी बात यह कि श्रीगीता फुरसत में नहीं लिखी गयी। उसके संदेश इसलिये भी संक्षिप्त हैं क्योंकि उसके कुछ ही देर बाद महाभारत का युद्ध शुरु होने वाला था और भगवान श्रीकृष्ण में ही इतना सामथर््य था जो संक्षिप्त ढंग से प्रभावी बात कह सकें। कोई बात विस्तार से कहकर उसे उलझाने का न तो उनका इरादा हो सकता था न वक्त ही था।
बात से बात निकलती है। उस टिप्पणीकर्ता ब्लाग लेखक की सदाशयता के प्रति कोई संदेह नहीं होते हुए भी इस लेखक द्वारा ऐसा लिखना इसलिये जरूरी लगा क्योंकि आमतौर से ऐसी बातें होती हैं तब लोगों को समझाना ही पड़ता है कि ‘श्रीगीता’ में सारे संसार के सत्य का उद्घाटित करने वाला ज्ञान और विज्ञान है। हो सकता है कि अन्य धर्म ग्रंथों में भी हो पर श्रीगीता में उनका सार भी है। यह आलेख अपनी बात दूसरे पर लादने के लिये नहीं लिखा गया बल्कि अपनी कहने के लिये लिखा गया है और ऐसी हल्की टिप्पणियोें या अन्य प्रतिकूल वक्तव्यों से कभी विचलित होकर उग्र नहीं होना चाहिये श्रीगीता यही संदेश देती है।
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दूसरे के घर में लगी आग पर हाथ तापने का प्रयास-आलेख


कुछ लोग हैं जो महिलाओं को अपने पुरुषों के अनाचारों के विरुद्ध भड़काते रहते हैं। यह मामला दायर कर दो। वह दायर कर दो। तमाम तरह के कानून बताते हैं। यह सत्य है कि भारत में महिलाओं पर अत्याचार अब अधिक बढ़ गये हैं बनस्बित पहले के । सरकार ने इसलिये कानून भी कई बनाये हैं ताकि महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा मिल सके। मगर साथ ही यह भी देखा गया है कि कुछ महिलायें उनकी आड़ में अधिक अहंकार पाल लेती हैं और पारिवारिक विवादों में अपनी जिठानी या सास पर विजय पाने के लिये जेठ,ससुर और ननद का नाम पुलिस या न्यायालय में लिखा देती हैं। इस कारण कई सभ्य लोगों को भारी जिल्लत का सामना करना पड़ता है।

कई बार तो यह देखा गया है कि सास ससुर और जेठ जिठानी अलग रहते हैं और कभी कभार घर जाते हैं उस पर भी जब महिला की अपने पति से नहीं बनती या झगड़ा होता है तो वह बाकी रिश्तेदारेां के नाम पर बिना किसी कारण के न्यायालय में मुकदमा या पुलिस में रिपोर्ट कर देती है। ऐसे में उन लोगों को भारी परेशानी अकारण झेलना पड़ती है। इस बात पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने भी ध्यान दिया है। इस मामले में एक निर्णय में कहा भी गया है कि असफल विवाहों पर दहेज एक्ट नहीं लगाया जाना चाहिये।
ऐसे मामले में पीड़िता महिलाओं की ऐसी शिकायतों सामान्य रूप से रहती हैं कि पति, जेठ और ससुर ने मारा। खाना नहीं दिया। खर्चा नहीं दिया। यह शिकायतों की एकरूपता भी संदेह का कारण बनती है। अपने प्रति दूसरे के मार्मिक भाव पैदा करने के लिये इस तरह की शिकायतें की जाती हैं।

कभी कभी तो लगता है कि जिन महिलाओं को कानून के सहारे की जरूरत है वह कभी वहां नहीं जाती बल्कि जिनको अपने महिला होने का अहंकार है वही इन मामलों को आगे ले जाती हैं। हैरानी की बात तो यह है कि अनेक लोग महिलाओं को न्याय न मिलने पर कभी पुलिस तो कभी माननीय न्यायालय पर आक्षेप करने लगते हैं जबकि यह भूल जाते हैं कि पुलिस और माननीय न्यायाधीश अपनी अनुभवी आंखों से परिस्थितियों का बहुत करीब से अध्ययन करते हैं और उनको वह सब चीजें दिखाई देती हैं जिनको बाहर बैठे लोग देख नहीं पाते। यही कारण है कि अनेक बार पुलिस झूठी शिकायत और न्यायाधीश कमजोर मुकदमें पर उसी के अनुसार कार्यवाही करते हैं। जहां महिला के अनुकूल फैसला हुआ वहां तो ठीक जहां नहीं हुआ तो हमारे कथित बुद्धिजीवी उस पर हाहाकार मचाते हैं।

ऐसे में कुछ महिला बुद्धिजीवी जब कथित पीड़ित महिलाओं के पक्ष में नारे लगाते हुए उनको आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करती हैं तब यह कहने का मन होता है कि ‘भई, क्या तुम्हारे घर में पति, भाई, या कोई पुरुष सदस्य नहीं है जो दूसरे का घर बिगाड़ रही हो।’
जब कोई पुरुष बुद्धिजीवी ऐसा करे तो उससे क्या कहें। यही न! कि क्या तुम्हारे घर में भाभी, बहु या अन्य नारी नहीं है जिससे तुम्हें खतरा हो जो ऐसी बात कर रहे हो?’
हम तो उन लोगों में है जो मानते हैं कि पारिवारिक और सामाजिक मामलों में कानून का हस्तक्षेप जितना भी कम हो उतना ही अच्छा! इन कानूनों ने उन लोगों को कितनी जलालत झेलनी पड़ती है जिनका ऐसे मामलों से कोई लेनादेना नहीं होता। सच बात तो यह है कि आजकल के भौतिक युग में लोगों की आवश्यकतायें बहुत बढ़ गयी हैं। जिनके पास पैसा है उनका तो कुछ नहीं हैं पर जिनके पास धन की कमी है उनके लिये जीवन कितना कष्टमय हो जाता है यह उसे वही जानते हैं जो भुक्तभोगी या उनके करीबी रहे हों। धन की अल्पता और आवश्यकताओं के बीच पुरुष किस तरह पिसता है इसे कोई नहीं समझता। ऐसे में अगर उसकी पत्नी विद्रोह कर जाये तो बिचारा कहां जाये? सच बात तो यह है कि धन की अल्पता या पद का छोटा होने से पुरुष कहीं भी सम्मानित नहीं होता। यहां तक कि अपने घर में भी नहीं। वैसे तो धनी और बड़ा आदमी भी अपने घर में सम्मानित नहीं होता पर बाहर उसका सम्मान तो होता है गरीब आदमी तो बिचारा दोनों जहां से गया। तिस पर यह बुद्धिजीवी और समाज सेवक छोटी मोटी शिकायतों पर उसे निशाना बनाने को तैयार रहते हैं। आजकल की महिलायें दूसरों का आकर्षण देखकर अपने पुरुष को ताने देती हैं उसे कौन सुनता है।
हम अपने दर्शन की बात करें तो उसका सीधा कहना है कि पति और पत्नी का रिश्ता केवल वही समझ सकते हैं जो निभा रहे हैं। तीसरे को न तो उसमें टांग फंसाना चाहिये और ही फैसला कराने जाना चाहिये। जो औरतें कहती हैं कि ‘अमुक स्त्री पर अनाचार हो रहा है’ वह यह नहीं बताती कि उसके पति का व्यवहार कैसा है? अगर वह बतायेगी तो उसका पति भी दस जगह बतायेगा। सो उसकी स्वयं की भी बदनामी होगी।
यही हाल पुरुष का है। वह अगर यह कहे कि वह अपनी पत्नी पर अनाचार नहीं करता तो पड़ौसी बता देंगे। सो अपने दावे प्रतिदावे से सभी दूर रहकर दूसरे के घर की आग पर अपने हाथ तापना चाहते हैं।

सच बात तो यह है कि अनेक मामले इस बात की पुष्टि करते हैं जिसमें महिला कानूनों का अनेक महिलाओं ने दुरुपयोग केवल परिवार अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये किया। इससे उन लोगों को भारी परेशानी उठानी पड़ी जिनका मामले से कोई लेनोदेना नहीं था।
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बहस की बजाय लोग लड़ना चाहते हैं -आलेख


बहस होना जरूरी है क्योंकि किसी भी सामाजिक,आर्थिक और धार्मिक विषय पर प्रस्तुत निष्कर्ष अंतिम नहीं होता। दूसरे निष्कर्ष की संभावना तभी बनती है जब उस पर कोई बहस हो। बस इसमें एक पैंच फंसता है कि आखिर यह बहस किन लोगों के बीच होना चाहिये और किनके साथ करना चाहिये। सच बात तो यह है कि बहस से बचना संकीर्ण मानसिकता का प्रमाण है। साामजिक, अर्थिक और धार्मिक समूहों के ठेकेदार बहसों से इसलिये बचना चाहते हैं क्योंकि इससे उनके वैचारिक ढांचे की पोल खुलने और उससे उनके अनुयायियों के छिटकने का भय व्याप्त हो जाता है तो अनुयायी इसलिये बिदकते हैं क्योंकि उनको अपने ठेकेदारों के बहस में परास्त होने से कमजोर पड़ने पर जो उनसे सुरक्षा मिलने का जो भाव बना हुआ है वह समाप्त होने की आशंका हो जाती है-जिसे ‘सामाजिक सुरक्षा’ भी कहा जा सकता है जिसके होने का भ्रम हर व्यक्ति में यह ठेकेदार बनाये रखते हैं।

इंटरनेट पर भटकते हुए ही कुछ ब्लाग के पाठों पर दृष्टि गयी। एक पर फिल्म को लेकर बहस थी तो दूसरे पर किसी धर्म विशेष पर चर्चा करते हुए टिप्पणियां भी बहुत लिखी हुई थी। फिल्म वाले विषय वाला ब्लाग हिंदी में था और धर्म वाला अंग्रेजी में। जिस तरह की बहस धर्म वाले विषय पर थी वैसी हिंदी में संभव नहीं है और जिस तरह की हिंदी वाले ब्लाग पर थी वैसी सतही बहस अंग्रेजी वाले नहीं करते। दरअसल भारतीय समाज में असहिष्णुता का जो भाव है उसे देखते हुए धार्मिक विषय पर बहस करना खतरनाक भी है और इसलिये लोग फिल्मों के काल्पनिक विषयों पर ही बहस करते हैं-अब वह स्लमडाग हो या गुलाल या कोई अन्य।

भारतीय समाज की असहिष्णुता की रक्षा के लिये आस्था और विचारों की रक्षा के लिये अनेक तरह के नियम बनाये गये हैं। किसी धर्म, जाति,भाषा या क्षेत्र के नाम वैचारिक आपत्तियां उठाना एक तरह से प्रतिबंधित है। आप यहां झूठी प्रशंसा करते जाईये तो समदर्शी भाव के लिये आपको भी प्रशंसा मिलती रहेगी। बहरहाल अंग्रेजी ब्लाग का विषय था कि ‘यूरोप को किस तरह किसी धर्म ने बचाया’। इस अंग्रेजी ब्लाग को एक हिंदी ब्लाग लेखक ने अपने पाठ में प्रस्तुत करते हुए यह मत व्यक्त किया कि किस तरह अंग्रेजी में जोरदार बहस होती है। उन्होंने इस तरह की बहस हिंदी ब्लाग जगत में न होने पर निराशा भी जताई। उनको टिप्पणीकारों ने भी जवाब दिया कि किस तरह हिंदी में पाठक और लेखक कम हैं और यह भी कि हिंदी के ब्लाग लेखक भी कम प्रतिभाशाली नहीं है आदि। मुद्दा हिंदी और अंग्रेजी ब्लाग की पाठक और लेखकों की संख्या नहीं है बल्कि एक इस आधुनिक समय में भी बहस से बचने की समाज प्रवृत्ति है जिस पर विचार किया जाना चाहिये। इसके चलते हमारे समाज के सहिष्णु होने का दावा खोखला लगता है।

एक तरफ हम कहते है कि हमारा समाज सहिष्णु हैं और वह बाहर से आये विचारों, परंपराओं और शिक्षा को अपने यहां समाहित कर लेता है। एक तरह से वह स्वतः प्रगतिशील है और उसे किसी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं है दूसरी ओर हम लोगों की आस्था और विश्वास पर बहस इसलिये नहीं होने देते कि इससे उनको मानने वालों की भावनायें आहत होंगी। अब सवाल यह है कि धर्म,जाति,भाषा और व्यक्तियों के नाम पर जो विचारधारायें हैं वह स्वतः ही भ्रामक अवधाराणाओं पर आधारित हों तो उस टीक टिप्पणी करें कौन? जो उनको मानने वाले समूह हैं उसके सदस्य तो कूंऐं की मैंढक की तरह उन्हीं विचारों के इर्द गिर्द घूमना चाहते हैं-यह उनकी खुशी कहें या समाज में बने रहने की मजबूरी यह अलग से चर्चा का विषय है। दूसरा कोई टिप्पणी करे तो उसके विरुद्ध समूहों के ठेकेदार आस्था और विश्वास को चोट पहुंचाने का आरोप लगाकर उसके पीछे पड़ जाते हैं। इसका आशय यह है कि उन समूहों में बदलाव लाना प्रतिबंधित है। इसलिये बहस नहीं हो पाती। उसे रोका जाता है। इसके बावजूद भारतीय विचारधारायें बहुत उदार रही हैं। उन पर बहस होती है पर उसमें भी बहुत भ्रम है। धर्म और अध्यात्म ज्ञान को मिलाने की वजह से यह कहना कठिन हो जाता है कि हम अपनी बात किसके समर्थन में रखें। देखा जाये तो इस विश्व में जितनी भी धार्मिक विचारधारायें उनमें चमत्कारेां की प्रधानता है और इसलिये लोग यकीन करते हैं। इन यकीन करने वालों में दो तरह के होते हैं। एक तो वह लोग होते हैं जिनकी सोच यह होती है कि ‘ऐसा हो सकता है कि वह चमत्कार हुआ हो‘। दूसरों की सोच यह होती है कि ‘अगर कहीं उन चमत्कारों पर कहीं शक जताया या प्रश्न उठाया तो हो सकता है कि समाज उनको नास्तिक समझ कर उसके प्रति आक्रामक रुख न अपना ले इसलिये हां जी हा ंजी कहना इसी गांव में रहना की नीति पर चलते रहो। यानि भय ही चमत्कारों से बनी इन धार्मिक विचाराधाराओं का संवाहक है और उनको मानने वाले अनुयायी भी उसी भय के सहारे उनको प्रवाहमान बनाये रखना चाहते हैं।

ऐसे में जो लोग धार्मिक विषयों पर बहस चाहते हैं उनको इस देश में ऐसी किसी बहस की आशा नहीं करना चाहिये-खासतौर पर तब जब बाजार के लिये वह लाभ देने का काम करती हैं। ऐसे में कुछ लेखक हैं जो व्यंजना विधा में लिखते हों या फिर बिना किसी जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र का नाम लिये अपने विचार रखते हैं। हालांकि ऐसे में बहस किसी दिशा में जाती नहीं लगती पर विचारों की गति बनाये रखने के लिये ऐसा करना आवश्यक भी लगता है।

ऐसे में बहस करने वाले विशारद भी क्या करें? वह फिल्मों के विषयों पर ही बहस करने लगते हैं। भारत इतना बड़ा देश है पर उसमें किसी क्षेत्र विशेष पर बनी फिल्म को पूरे देश की कहानी मान लिया जाता है। इस देश में इतनी विविधता है कि हर पांच कोस पर भाषा बदलती है तो हर एक कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है इसलिये कोई जगह की कहानी दूसरी जगह का प्रतीक नहीं मानी जा सकी। मगर फिर भी लोग है कि बहस करते हैं। इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि बहस ही लोगों की जींवत और सहिष्णुता की भावना का प्रतीक होती है। अभी स्लम डाग पर एकदम निरर्थक बहस देखी गयी। एक बड़े शहर की किसी झुग्गी की काल्पनिक कहानी-जिसमें काल्पनिक करोड़पति दिखाया गया है-देश के किसी अन्य भाग का प्रतीक नहीं हो सकती। मगर इस पर बहस हुई। बाजार ने इसे खूब भुनाया। प्रचार माध्यमों ने अधिकतर समय और हिस्सा इस पर खर्च कर अपनी निरंतरता बनाये रखी। अब कोई गुलाल नाम की फिल्म है। कुछ लोग उस पर आपत्तियां जता रहे हें तो कुछ लोग उसकी प्रशंसा कर रहे हैं। इन पंक्तियों ने तो यह दोनों ही फिल्में नहीं देखी और न देखने का इरादा ही है क्योंकि उनमें क्या है यह इधर उधर पढ़कर जान लिया।

कहने का तात्पर्य यह है कि जिन वास्तविक विषयों पर बहस होना चाहिये उन पर आस्था और विश्वास के नाम पर ताला लगा दिया गया है। बुद्धिजीवियों को एक तरह चेतावनी दी जाती है कि वह किसी की भावनाओं से खिलवाड़ न करें। मध्यम श्रेणी के व्यवसायों में लगे बुद्धिजीवी जिनके पास न तो समाज को सुधारने की ताकत है और न ही वह उनके साथ है ऐसे में फिल्मों के विषयों पर ही बहस करते हैं। बुद्धिजीवियों को अपने मानसिक विलास के लिये कोई विषय तो चाहिये जिस पर चर्चा कर वह अपने ज्ञान का परीक्षण कर सकें। इसलिये वह ऐसे विवादास्पद विषयों पर लिखने और बोलने से बचते हैं जिससे उनको विरोध का सामना करना पड़े। जाति,धर्म,भाषा और क्षेत्रों के नाम पर बने समूहों की ताकत बहुत अधिक इसलिये है क्योंकि उनको धनपतियों का पूरा समर्थन प्राप्त है। यह केवल भारत मेें नहीं बल्कि पूरे विश्व में है। अंग्रेजों की फूट डालों और राज करो की नीति अब पूरे विश्व के ताकतवर लोगों की नीति बन गयी है। फिर भारत तो संवेदनशील देश है। ऐसे में यहां के बुद्धिजीवियों को फूंक फूंककर कदम रखने पड़ते हैं। ऐसे में काल्पनिक विषयों पर खुली बहस की जा सकती है और वास्तविक विषयों पर बिना नाम लिये ही अपनी बात कहना सुविधाजनक लगता है हालांकि विषय के निष्कर्ष किसी दिशा में नहीं जाते पर अपना मन तो हल्का हो ही जाता है।
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लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

चीजें बेच सके बाज़ार में वही है असली इश्क -हास्य व्यंग्य कविताएँ


उनके कान खुले हैं
पर सुनते हैं कि नहीं कैसे बताएं
क्योंकि उनको सुनाया कई बार है दर्द अपना
पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि वह कोई दवा लाएं
————————–
इश्क तो असल अब वही है
जिसके नाम पर कोई उत्पाद
बाज़ार में बिकता है
औरत हो या मर्द
असल में जज्बातों खरीददार होता है बाज़ार में
भले ही माशूक और आशिक के तौर पर दिखता है
————————–
शब्द बिके नहीं बाज़ार में
तो पढ़े भी नहीं जाते
बिकने लायक लिखें तो
समझने लायक नहीं रह जाते
शब्दों के सौदागरों बनते हैं हमदर्द
पर दिल में उनके जज़्बात कभी
पहुँच नहीं पाते
नहीं बनी कोई ऐसी तराजू
जिसमें शब्दों को तौल पाते
—————————–

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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आम इन्सान खास होने के लिए क्यों मरा जाता है-हास्य व्यंग्य कवितायेँ


ओ आम इंसान!
तू क्यों
ख़ास कहलाने के लिए मरा जाता है.
खास इंसानों की जिन्दगी का सच
जाने बिना
क्यों बड़ी होने की दौड़ में भगा जाता है.
तू बोलता है
सुनकर उसे तोलता है
किसी का दर्द देखकर
तेरा खून खोलता है
तेरे अन्दर हैं जज्बात
जिनपर चल रहा है दुनिया का व्यापार
इसलिए तू ठगा जाता है.
खास इंसान के लिए बुत जैसा होना चाहिए
बोलने के लिए जिसे इशारा चाहिए
सुनता लगे पर बहरा होना चाहिए
सौदागरों के ठिकानों पर सज सकें
प्रचार की मूर्ति की तरह
वही ख़ास इन्सान कहलाता है.
————————
प्रचार की चाहत में उन्होंने
कुछ मिनटों तक चली बैठक को
कई घंटे तक चली बताया.
फिर समाचार अख़बार में छपवाया.
खाली प्लेटें और पानी की बोतलें सजी थीं
सामने पड़ी टेबल पर
कुर्सी पर बैठे आपस में बतियाते हुए
उन्होंने फोटो खिंचवाया
भोजन था भी कि नहीं
किसी के समझ में नहीं आया.
भला कौन खाने की सोचता
जब सामने प्रचार से ख़ास आदमी
बनने का अवसर आया.

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यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

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पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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ब्रेकिंग न्यूज (हास्य व्यंग्य)


चंदा लेकर समाज सेवा करने वाली उस संस्था के समाजसेवी बरसों तक अध्यक्ष रहे। पहले जब वह युवा थे तब उनके बाहूबल की वजह से लोग उनको चंदा खूब देते थे। समाज सेवा के नाम पर वह कहीं मदद कर फोटो अखबारों में छपवाते थे। वैसे लोगों को मालुम था कि समाज सेवा तो उनका बहाना है असली उद्देश्य कमाना है मगर फिर भी कहने की हिम्मत कोई नहीं करता था और हफ्ता वसूली मानकर दान देते थे। समाजसेवी साहब अब समय के साथ वह बुढ़ाते जा रहे थे और इधर समाज में तमाम तरह के दूसरे बाहूबली भी पैदा हो गये थे तो चंदा आना कम होता जा रहा था। समाजसेवी के चेले चपाटे बहुत दुःखी थे। उनकी संस्था के महासचिव ने उनसे कहा कि ‘साहब, संस्था की छबि अब पुरानी पड़ चुकी है। कैसे उसे चमकाया जाये यह समझ में नहीं आ रहा है।’

सहसचिव ने कहा कि -‘इसका एक ही उपाय नजर आ रहा है कि अपने संगठन में नये चेहरे सजाये जायें। अध्यक्ष, सचिव और सहसचिव रहते हुए हमें बरसों हो गये हैं।

महासचिव घबड़ा गया और बोला-‘क्या बात करते हो? तुम समाजसेवी साहब को पुराना यानि बूढ़ा कह रहे हो। अरे, हमारे साहब कोई मुकाबला है। क्या तुम अब अपना कोई आदमी लाकर पूरी संस्था हड़पना चाहते हो?’
समाज सेवी ने महासचिव को बीच में रोकते हुए कहा-‘नहीं, सहसचिव सही कह रहा है। अब ऐसा करते हैं अपनी जगह अपने बेटों को बिठाते हैं।
महासचिव ने कहा-‘पर मेरा बेटा अब इंजीनियर बन गया है बाहर रहता है। वह भला कहां से आ पायेगा?
सहसचिव ने कहा-‘मेरा बेटा तो डरपोक है। उसमें किसी से चंदा वसूल करने की ताकत नहीं है। फिर लिखते हुए उसे हाथ कांपते हैं तो खाक लोगों को रसीद बनाकर देगा?’
समाजसेवी ने कहा-‘ इसकी चिंता क्यों करते हो? मेरा बेटा तो बोलते हुए हकलाता है पर काम तो हमें ही करना है। हां, बस नाम के लिये नया स्वरूप देना है।’
सहसचिव ने कहा-‘पर लोग तो आजकल सब देखते हैं। प्रचार माध्यम भी बहुत शक्तिशाली हैं। किसी ने संस्था के कार्यकलापों की जांच की तो सभी बात सामने आ जायेगी।’

समाजसेवी ने कहा-‘चिंता क्यों करते हो? यहां के सभी प्रचार माध्यम वाले मुझे जानते हैं। उनमें से कई लोग मुझसे कहते हैं कि आप अब अपना काम अपने बेटे को सौंपकर पर्दे के पीछे बैठकर काम चलाओ। वह चाहते हैं कि हमारी संस्था पर समाचार अपने माध्यमों में दें लोग पूरानों को देखते हुए ऊब चूके हैं। उल्टे प्रचार माध्यमों को तो हमारी संस्था पर कहने और लिखने का अवसर मिल जायेगा। इसलिये हम तीनों संरक्षक बना जाते हैं और अपनी नयी पीढ़ी के नाम पर अपनी जिम्मेदारी लिख देते है। अरे, भले ही महासचिव का लड़का यहां नहीं रहता पर कभी कभी तो वह आयेगा। मेरा लड़का बोलते हुए हकलता है तो क्या? जब भी भाषण होगा तो संरक्षक के नाम पर मैं ही दे दूंगा। सहसचिव के लड़के का लिखते हुए हाथ कांपता है तो क्या? उसके साथ अपने क्लर्क भेजकर काम चलायेंगे लोगों को मतलब नयी पीढ़ी के नयेपन से है। काम कैसे कोई चलायेगा? इससे लोग भी कहां मतलब रखते हैं? जाओ! अपनी संस्था के सदस्यों को सूचित करो कि नये चुनाव होंेगे। हां, प्रचार माध्यमों को अवश्य जानकारी देना तो वह अभी सक्रिय हो जायेंगे।’

सहसचिव ने कहा-‘यह नयी पीढ़ी के नाम जिम्मेदारी लिखने की बात मेरे समझ में तो नहीं आयी।’
महासचिव ने कहा-‘इसलिये तुम हमेशा सहसचिव ही रहे। कभी महासचिव नहीं बना पाये।’
समाजसेवी ने महासचिव को डांटा-‘पर तुम भी तो कभी अध्यक्ष नहीं बन पाये। अब यह लड़ना छोड़ो। अपनी नयी पीढ़ी को एकता का पाठ भी पढ़ाना है भले ही हम आपस में लड़ते रहे।’
सहसचिव ने कागज उठाया और लिखने बैठ गया। महासचिव ने फोन उठाया और बात करने लगा-‘यह टूटी फूटी खबर है ‘मदद संस्था में नयी पीढ़ी को जिम्मेदारी सौंपी जायेगी।’
समाजसेवी ने पूछा-‘यह टूटी फूटी खबर क्या है?‘
महासचिव ने कहा-‘ब्रेकिंग न्यूज।’
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