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बाज़ार के हरफनमौला-हिन्दी हास्य कविताएँ/शायरियां


बाजार के खेल में चालाकियों के हुनर में
माहिर खिलाड़ी
आजकल फरिश्ते कहलाते हैं।
अब होनहार घुड़सवार होने का प्रमाण
दौड़ में जीत से नहीं मिलता,
दर्शकों की तालियों से अब
किसी का दिल नहीं खिलता,
दौलतमंदों के इशारे पर
अपनी चालाकी से
हार जीत तय करने के फन में माहिर
कलाकार ही हरफनमौला कहलाते हैं।
———-
काम करने के हुनर से ज्यादा
चाटुकारिता के फन में उस्ताद होना अच्छा है,
अपनी पसीने से रोटी जुटाना कठिन लगे तो
दौलतमंदों के दोस्त बनकर
उनको ठगना भी अच्छा है।
अपनी रूह को मारना इतना आसान नहीं है
इसलिये उसकी आवाज को
अनसुना करना भी अच्छा है।
किस किस फन को सीख कर जिंदगी काटोगे
नाम का ‘हरफनमौला’ होना ही अच्छा है।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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समाज हिलता नजर आता हास्य व्यंग्य कविता (javani divani aur budhapa-hindi hasya kavita)


जब वह जवान थे
तब तक लिये खूब लिये उन्होंने मजे
अब बुढ़ापे में नैतिक चक्षु जगे।
किताबों में छिपाकर खूब पढ़ा यौन साहित्य
जब मन में आया
वयस्कों के लिये लगी फिल्म देखने
स्कूल छोड़कर भगे।
अब बुढ़ापे में आया है
समाज का ख्याल
उठा रहे अश्लीलता का सवाल
मचा रहे धमाल
युवाओं को संयम का उपदेश देने लगे।
………………………..
फिल्म और किताब पर
उनको समाज हिलता नजर आता है।
भले अपनी जवानी में
नैतिकता का मतलब न समझा हो
बुढ़ापे में जवानों को समझाने में
कुछ अलग ही मजा आता है।

…………………

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बहसों के दौर -व्यंग्य कविता (bahas aur bazar-hindi vyangya kavita)


सभागार के तले
मंच पर चले
बहसों के दौर
सुबह और शाम।
दिन पर चले पर नतीजा सिफर
छलकते हैं फिर भी रात को जाम।

अक्लमंदों की महफिल सजती है
उनकी दिमागी बोतल से
निकलते हैं लफ्ज
ऊपर लगी है मुद्दों की छाप
बाहर आते ही उड़ जाते बनकर भाप
मशहूर हो जाते बस यूं ही नाम।

बंद कमरे में हुई बहस
बाजार में बिकने आ जाती है
जमाने में छा जाती है
किसी नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद है बेकार
नहीं चली बहस आगे
तो जज्बातों के सौदागार हो जायेंगे बेजार
इसलिये मुद्दे बार बार
चमकाये जाते हैं
कभी लफ्ज तो कभी छाप
बदलकर सामने आते हैं
अक्लमंद करते हैं बहस
पीछे बाजार करता है अपना काम।
इसलिये जिस शय को बाजार में बेचना है
उस पर जरूरी है बंद कमरे में
पहले बहस कराने का काम।
……………………..

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आशिक, माशुका और महबूब-हास्य कविता


श्रृंगार रस का कवि
पहुंचा हास्य कवि के पास
लगाये अच्छी सलाह की आस
और बोला
‘यार, अब यह कैसा जमाना आया
समलैंगिकता ने अपना जाल बिछाया।
अभी तक तो लिखी जाती थी
स्त्री पुरुष पर प्रेम से परिपूर्ण कवितायें
अब तो समलिंग में भी प्रेम का अलख जगायें
वरना जमाने से पिछड़ जायेंगे
लोग हमारी कविता को पिछड़ी बतायेंगे
कोई रास्ता नहीं सूझा
इसलिये सलाह के लिये तुम्हारे पास आया।’

सुनकर हास्य कवि घबड़ाया
फिर बोला-’‘बस इतनी बात
क्यों दे रहे हो अपने को ताप
एकदम शुद्ध हिंदी छोड़कर
कुछ फिल्मी शैली भी अपनाओ
फिर अपनी रचनायें लिखकर भुनाओ
एक फिल्म में
तुमने सुना और देखा होगा
नायक को महबूबा के आने पर यह गाते
‘मेरा महबूब आया है’
तुम प्रियतम और प्रियतमा छोड़कर
महबूब पर फिदा हो जाओ
चिंता की कोई बात नहीं
आजकल पहनावे और चाल चलन में
कोई अंतर नहीं लगता
इसलिये अदाओं का बयान
महबूब और महबूबा के लिये एक जैसा फबता
कुछ लड़के भी रखने लगे हैं बाल
अब लड़कियों की तरह बड़े
पहनने लगे हैं कान में बाली और हाथ में कड़े
तुम तो श्रृंगार रस में डूबकर
वैसे ही लिखो समलैंगिक गीत कवितायें
जिसे प्राकृतिक और समलैंगिक प्रेम वाले
एक स्वर में गायें
छोड़े दो सारी चिंतायें
मुश्किल तो हमारे सामने है
जो हास्य कविता में आशिक और माशुका पर
लिखकर खूब रंग जमाया
पर महबूब तो एकदम ठंडा शब्द है
जिस पर हास्य लिखा नहीं जा सकता
हम तो ठहरे हास्य कवि
साहित्य और भाषा की जितनी समझ है
दोस्त हो इसलिये उतना तुमको बताया।

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सविता भाभी पर प्रतिबन्ध -आलेख (hindi article ben on savita bhabhi)


सविता भाभी नाम की एक पौर्न साईट को बैन कर दिया गया है। बैन करने वालों का इसके पीछे क्या ध्येय है यह तो पता नहीं पर बैन के बाद इसे समाचार पत्र पत्रिकाओं में खूब स्थान मिला उससे तो लगता है कि इसके चाहने वालों की संख्या बढ़ेगी। पता नहीं इस पर बैन का क्या स्वरूप है पर कैसे यह संभव है कि बाहर लोग इससे भारत में न देख पायें।
यह साइट कैसे है यह तो पता नहीं पर अनुमान यह है कि यह किसी विदेशी साईट का देसी संस्करण होगी। गूगल, याहू, अमेजन और बिंग आदि सर्च इंजिनों तो सर्वव्यापी हैं और इन पर जाकर कोई भी इसे ढूंढ सकता है। यह अलग बात है कि इनके पास कोई ऐसा साफ्टवेयर हो जो भारतीय प्रयोक्ताओं को इससे रोक सके। तब भी सवाल यह है कि अगर विदेशों में अंग्रेजी में जो पोर्न वेबसाईटें हैं उनसे क्या भारतीय प्रयोक्ताओं को रोकना संभव होगा।
इस लेखक को तकनीकी जानकारी नहीं है इसलिये वह इस बात को नहीं समझ सकता है कि आखिर इस पर यह बैन किस तरह लगेगा?
लोगों को कैसे रहना है, क्या देखना है और क्या पहनना है जैसे सवालों पर एक अनवरत बहस चलती रहती है। कुछ बुद्धिजीवी और समाज के ठेकेदार उस हर चीज, किताब और विचार प्रतिबंध की मांग करते हैं जिससे लोगों की कथित रूप से भावनायें आहत होती हैं या उनके पथभ्रष्ट होने की संभावना दिखती है। अभी कुछ धर्माचार्य समलैंगिकता पर छूट का विरोध कर रहे हैं। कभी कभी तो लगा है इस देश में आवाज की आजादी का अर्थ धर्माचार्यों की सुनना रह गया है। इस किताब पर प्रतिबंध लगाओ, उस चीज पर हमारे धर्म का प्रतीक चिन्ह है इसलिये बाजार में बेचने से रोको।
हमारा धर्म, हमारे संस्कार और हमारी पहचान बचाने के लिये यह धर्माचार्य जिस तरह प्रयास करते हैं और जिस तरह उनको प्रचार माध्यम अपने समाचारों में स्थान देते हैं उससे तो लगता है कि धर्म और बाजार मिलकर इस देश की लोगों की मानसिक सोच को काबू में रखना चाहते है।

भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में वह शक्ति है जो आदमी को स्वयं ही नियंत्रण में रखती है इसलिये जो भी व्यक्ति इसका थोड़ा भी ज्ञान रखता है वह ऐसे प्रयासों पर हंस ही सकता है। दरअसल धर्म, भाषा, जाति, और नस्ल के आधार पर बने समूहों को ठेकेदार केवल इसी आशंका में जीते हैं कि कहीं उनके समूह की संख्या कम न हो जाये इसलिये वह उसे बचाने के लिये ऐसे षडयंत्र रचाते हैं जिनको वह आंदोलन या योजना करार देते हैं। सच बात तो यह है कि अधिक संख्या में समूह होने का कोई मतलब नहीं है अगर उसमें सात्विकता और दृढ़ चरित्र का भाव न हो।
इस लेखक ने कभी ऐसी साईटें देखने का प्रयास नहीं किया पर इधर उधर देखकर यही लगता है कि लोगों की रुचि इंटरनेट पर भी इसी प्रकार के साहित्य में है। इंटरनेट पर ही नहीं बल्कि कहीं भी यौन साहित्य से मस्तिष्क और देह में विकास उत्पन्न होते हैं यह बात समझ लेना चाहिये। ऐसा साहित्य वैसे भी बाजार में उपलब्ध है और इंटरनेट पर एक वेबसाईट पर रोक से कुछ नहीं होगा। फिर दूसरी शुरु हो जायेगी। समाज के कथित शुभचिंतक फिर उस पर उधम मचायेंगे। इस तरह उनके प्रचार का भी काम चलता रहेगा। समस्या तो जस की तस ही रह जायेगी। इस तरह का प्रतिबंध दूसरे लोगों के लिये चेतावनी है और वह ऐसा नहीं करेंगे पर भारत के बाहर की अनेक वेबसाईटें इस तरह के काम में लगी हुई हैं उनको कैसे रोका जायेगा?
इसलिये प्रयास यह होना चाहिये कि समाज में चेतना लायी जाये पर ऐसा कोई प्रयास नहीं हो रहा है। इसके बनिस्बत केवल नारे और वाद सहारे वेबसाईटें रोकी जा रही है पर लोगों की रुचि सत्साहित्य की तरफ बढ़े इसके लिये कोई प्रयास नहीं हो रहा है।

कुतर्कों को तर्क से काटना चाहिये। एक दूसरी बात यह भी है कि जब आप कोई सार्वजनिक रूप से किसी व्यक्ति, किताब, दृश्य या किताब को बहुत अच्छा कहकर प्रस्तुत करते हैं तो उसके विरुद्ध तर्क सुनने की शक्ति भी आप में होना चाहिये। न कि उन पर की गयी प्रतिकूल टिप्पणियों से अपनी भावनायें आहत होने की बात की जानी चाहिये। इस मामले में राज्य का हस्तक्षेप होना ही नहीं चाहिये क्योंकि यह उसका काम नहीं है। अगर ऐसी टिप्पणियों पर उत्तेजित होकर कोई व्यक्ति या समूह हिंसा पर उतरता है तो उसके विरुद्ध कार्यवाही होना चाहिये न कि प्रतिकूल टिप्पणी देने वाले को दंडित करना चाहिये। हमारा स्पष्ट मानना है कि या तो आप अपने धर्म, जाति, भाषा या नस्ल की प्रशंसा कर उसे सार्वजनिक मत बनाओ अगर बनाते हो तो यह किसी भी व्यक्ति का अधिकार है कि वह कोई भी तर्क देकर आपकी तारीफ की बखिया उधेड़ सकता है।
यह लेखक शायद ऐसी बातें नहीं कहता पर अंतर्जाल पर लिखते यह एक अनुभूति हुई है कि लोग पढ़ते और लिखते कम हैं पर ज्ञानी होने की चाहत उन्हें इस कदर अंधा बना देती है कि वह उन किताबों के लिखे वाक्यों की निंदा सुनकर उग्र हो जाते हैं। इस लेखक द्वारा लिखे गये अनेक अध्यात्म पाठों पर गाली गलौच करती हुई टिप्पणियां आती हैं पर उनमें तर्क कतई नहीं होता। हैरानी तो तब होती है कि विश्व की सबसे संपन्न भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा से जुड़े होने का दावा करने वाले लोग भी पौर्न साईटों, बिना विवाह साथ रहने तथा समलैंगिकता का विरोध करते हैं। बिना विवाह के ही लड़के लड़कियों के रहने में उनको धर्म का खतरा नजर आता है। यह सब बेकार का विरोध केवल अपनी दुकानें बचाने का अलावा कुछ नहीं है। ईमानदारी की बात तो यह है कि समाज में चेतना बाहर से नहीं आयेगी बल्कि उनके अंदर मन में पैदा करने लगेगी। कथित पथप्रदर्शक अपने भाषणों के बदल सुविधायें और धन लेते हैं पर जमीन पर उतर कर आदमी से व्यक्तिगत संपर्क उनका न के बराबर है।
कहने को तो कहते हैं कि आजकल की युवा पीढ़ी इनको महत्व नहीं देती पर वास्तविकता यह है कि लड़के लड़कियां विवाह करते ही इसी सामजिक दबाव के कारण हैं। कई लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताती हैं। कई लड़के और लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताते हैं। धर्म बदलकर विवाह करने पर उनको ससुराल पक्ष के संस्कार मानने ही पड़ते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि उन संस्कारों को उसकी ससुराल में ही बाकी लोग महत्व नहीं देते पर उसे मनवाकर अपनी धार्मिक विजय प्रचारित किया जाता है। विवाह एक संस्कार है इसे आखिर नई पीढ़ी तिलांजलि क्यों नहीं दे पाती? इसकी वजह यही है कि जाति, धर्म, भाषा और नस्ल के आधार पर बने समाज ठेकेदारों के चंगुल में इस कदर फंसे हैं कि उनसे निकलने का उनके पास कोई चारा ही नहीं है। आप अगर देखें। किस तरह लड़का प्यार करते हुए लड़की को उसके जन्म नाम को प्यार से पुकारता है और विवाह के लिये धर्म के साथ नाम बदलवाकर फिर उसी नाम से बुलाता है। इतना ही नहीं बाहर समाज में अपनी पहचान बचाने रखने के लिये लड़की भी अपना पुराना नाम ही लिखती है। समाज से इस प्रकार का समझौता एक तरह से कायरता है जिसे आज का युवा वर्ग अपना लेता है।

बात मुद्दे की यह है कि मनुष्य का मन उसे विचलित करता है तो नियंत्रित भी। उसे विचलित वही कर पाते हैं जो व्यापार करना चाहते हैं। फिर मनुष्य को एक मित्र चाहिये और वह ईश्वर में उसे ढूंढता है। अभी हाल ही में पश्चिम के वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य जब ईश्वर की आराधना करता है तो उसके दिमाग की वह नसें सक्रिय हो जाती हैं जो मित्र से बात करते हुए सक्रिय होती हैं। इसका मतलब साफ कि दिमाग की इन्हीं नसों पर व्यापारी कब्जा करते हैं। ईश्वर के मुख से प्रकट शब्द बताकर रची गयी किताबों को पवित्र प्रचारित किया जाता है। इसकी आड़ में कर्मकांड थोपते हुए धर्माचार्य अपने ही धर्म, जाति और समूहों की रक्षा का दिखावा करते हुए अपना काम चलाते हैं। मजे की बात है कि आधुनिक युग के समर्थक बाजार भी अब इनके आसरे चल रहा है। वजह यह है कि धर्म की आड़ में पैसे का लेनदेन बहुत पवित्र माना जाता है जो कि बाजार को चाहिये।
निष्कर्ष यह है कि कथित पवित्र पुस्तकों के यह कथित ज्ञानी पढ़ते लिखते कितना है यह पता नहीं पर उनकी व्याख्यायें लोगों को भटकाव की तरफ ले जाती हैं। आम व्यक्ति को समाज के रीति रिवाजों और कर्मकांडों का बंधक बनाये रखने का प्रयास होता रहा है और अगर कोई इनको नहीं मानता तो उसकी इसे आजादी होना चाहिये। यह आजादी कानून के साथ ही निष्पक्ष और स्वतंत्र बुद्धिजीवियों द्वारा भी प्रदान की जानी चाहिये।
किसी को बिना विवाह के साथ रहना है या समलैंगिक जीवन बिताना है या किसी को नग्न फिल्में देखना है यह उसका निजी विचार है। यह सब ठीक नहीं है और इसके नतीजे बाद में बुरे होते हैं पर इस पर कानून से अधिक समाज सेवी विचारक ही नियंत्रण कर सकते हैं। धर्म भी नितांत निजी विषय है। जन्म से लेकर मरण तक धर्म के नाम पर जिस तरह कर्मकांड थोपे जाते हैं अगर किसी को वह नापसंद है तो उसे विद्रोही मानकर दंडित नहीं करना चाहिये। कथित रूप से पवित्र पुस्तक की आलोचना करने वालों को अपने तर्कों से कोई धर्मगुरु समझा नहीं पाता तो वह राज्य की तरफ मूंह ताकता है और राज्य भी उसके द्वारा नियंत्रित समूह को अपनी हितैषी मानकर इन्हीं धर्माचार्यों को संरक्षण देता है और यही इस देश के मानसिक विकास में बाधक है।
इस लेखक का ढाई वर्ष से अधिक अंतर्जाल पर लिखते हुए हो गया है पर पाठक संख्या नगण्य है। देश में साढ़े सात करोड़ इंटरनेट प्रयोक्ता है फिर भी इतनी संख्या देखकर शर्म आती है क्योंकि अधिकतर लोग इन्हीं पौर्नसाईटों पर अपना वक्त बिताते हैं पर फिर भी अफसोस जैसी बात नहीं है। एक लेखक के रूप में हम यह चाहते हैं कि लोग हमारा लिखा पढ़ें पर स्वतंत्रता और मौलिकता के पक्षधर होने के कारण यह भी चाहते हैं कि वह स्वप्रेरणा से पढ़ें न कि बाध्य होकर। अपने प्राचीन ऋषियों. मुनियों, महापुरुषों तथा संतों ने जिस अक्षुण्ण अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन किया है वह मनुष्य मन के लिये सोने या हीरे की तरह है अगर उसे दिमाग में धारण किया जाये तो। अपनी बात कहते रहना है। आखिर आदमी अपने दैहिक सुख से ऊब जाता है और यही अध्यात्मिक ज्ञान उसका संरक्षक बनता है। हमने कई ऐसे प्रकरण देखे हैं कि आदमी बचपन से जिस संस्कार में पला बढ़ा और बड़े होकर जब भौतिक सुख की वजह से उसे भूल गया तब उसने जब मानसिक कष्ट ने घेरा तब वह हताश होकर अपने पीछे देखने लगता है। उसे पता ही नहीं चलता कि कहां से शुरु हुआ और कहां पहुंचा ऐसे में सब कुछ जानते हुए भी वह लौट नहीं पाता। जैसे कर्म होते हैं वैसे ही परिणाम! अगर देखा जाये तो समाज को डंडे के सहारे चलाने वाले कथित गुरु या धर्माचार्यों से बचने की अधिक जरूरत है क्योंकि वह तो अपने हितों के लिये समाज को भ्रमित करते हैं। मजे की बात यह है कि यह बाजार ही है जो कभी नैतिकता, धर्म और संस्कार की बात करता है और फिर लोगों के जज्बात भड़काने का काम भी करता है।
यह आश्चर्य की बात है कि इस देश के शिक्षित वर्ग का मनोरंजन से मन नहीं भरता। दिन भर टीवी पर अभिनेता और अभिनेत्रियों को देखकर वह बोर होता है तो कंप्यूटर पर आता है पर फिर वहां पर उन्हीं के नाम डालकर सच इंजिन में डालकर खोज करता है। यही हाल यौन साहित्य का है। टीवी और सीडी में चाहे वह कितनी बार देखता है पर कंप्यूटर में भी वही तलाशता है। ऐसे समाज से क्या अपेक्षा की जा सकती है। बाजार फिर उसका पैसा बटोरने के लिये कोई अन्य वेबसाईट शुरु कर देगा। इसलिये सच्चे समाज सेवी यह प्रयास प्रारंभ करें जिससे लोगों के मन में सात्विकता के भाव पुनः स्थापित किये जा सकें। शेष फिर कभी।
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आपरेशन तो आसान है -हास्य व्यंग्य


सरकारी अस्पताल में एक सफाई कर्मचारी ने एक तीन साल के बच्चे के गले का आपरेशन कर दिया। उस बच्चे के गले में फोड़ा था और उसके परिवारजन डाक्टर के पास गये। वहां खड़े सफाई कर्मचारी ने उसका आपरेशन कर दिया। टीवी पर दिखी इस खबर पर यकीन करें तो समस्या यह नहीं है कि आपरेशन असफल हुआ बल्कि परिवारजन चिंतित इस बात से हैं कि कहीं बच्चे को कोई दूसरी बीमारी न हो जाये।
स्पष्टतः यह नियम विरोधी कार्य है। बावेला इसी बात पर मचा है। अधिकृत चिकित्सक का कहना है कि ‘मैंने तो सफाई कर्मचारी से कहा था कि बच्चा आपरेशन थियेटर में ले जाओ। उसने तो आपरेशन ही कर दिया।’
सफाई कर्मचारी ने कहा कि ‘डाक्टर साहब ने कहा तो मैंने आपरेशन कर दिया।’
संवाददाता ने पूछा कि ‘क्या ऐसे आपरेशन पहले भी किये हैं?’
सफाई कर्मचारी खामोश रहा। उसकी आंखें और उसका काम इस बात का बयान कर रहे थे कि उसने जो काम किया उसमें संभवतः वह सिद्ध हस्त हो गया होगा। यकीनन वह बहुत समय तक चिकित्सकों की ंसंगत में यह काम करते हुए इतना सक्षम हो गया होगा कि वह स्वयं आपरेशन कर सके। वरना क्या किसी में हिम्मत है कि कोई वेतनभोगी कर्मचारी अपने हाथ से बच्चे की गर्दन पर कैंची चलाये। बच्चे के परिवारजन काफी नाराज थे पर उन्होंने ऐसी चर्चा नहीं कि उस आपरेशन से उनका बच्चा कोई अस्वस्थ हुआ हो या उसे आराम नहीं है। बावेला इस बात पर मचा है कि आखिर एक सफाई कर्मचारी ने ऐसा क्यों किया?
इसका कानूनी या नैतिक पहलू जो भी हो उससे परे हटकर हम तो इसमें कुछ अन्य ही विचार उठता देख रहे हैं। क्या पश्चिमी चिकित्सा पद्धति इतनी आसान है कि कोई भी सीख सकता है? फिर यह इतने सारे विश्वविद्यालय और चिकित्सालय के बड़े बड़े प्रोफेसर विशेषज्ञ सीना तानकर दिखाते हैं वह सब छलावा है?
अपने यहां कहते हैं कि ‘करत करत अभ्यास, मूरख भये सुजान’। जहां तक काम करने और सीखने का सवाल है अपने लोग हमेशा ही सुजान रहे हैं। सच कहें तो उस सफाई कर्मचारी ने पूरी पश्चिमी चिकित्सा पद्धति की सफाई कर रखी दी हो ऐसा लग रहा है। इतनी ढेर सारी किताबों में सिर खपाते हुए और व्यवहारिक प्रयोगों में जान लगाने वाले आधुनिक चिकित्सक कठिनाई से बनते हैं पर उनको अगर सीधे ही अभ्यास कराया जाये तो शायद वह अधिक अच्छे बन जायें। इससे एक लाभ हो सकता है कि बहुत पैसा खर्च बने चिकित्सक और सर्जन अपनी पूंजी वसूल करने के लिये निर्मम हो जाते हैं। इस तरह जो अभ्यास से चिकित्सक बनेंगे वह निश्चित रूप से अधिक मानवीय व्यवहार करेंगे-हमारा यह आशय नहीं है कि किताबों से ऊंची पदवियां प्राप्त सभी चिकित्सक या सर्जन बुरा व्यवहार करते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने इसे बदनाम किया है।
पश्चिम विज्ञान से परिपूर्ण कुछ लोग ऐसे व्यवहार करते हैं गोया कि वह कोई भारी विद्वान हों। हमारे देश में लगभग आधी से अधिक जनसंख्या तो स्वयं ही अपना देशी इलाज करती है इसलिये इस मामले में बहस तो हो ही नहीं सकती कि यहां सुजान नहीं है। कहते हैं कि सारा विज्ञान अंग्रेजी में है इसलिये उसका ज्ञान होना जरूरी है। क्या खाक विज्ञान है?
अरे भई, किसी को को जुकाम हो गया तो उससे कहते हैं कि तुलसी का पत्ते चाय में डालकर पी लो ठीक हो जायेगा। ठीक हो भी जाता है। अब इससे क्या मतलब कि तुंलसी में कौनसा विटामिन होता है और चाय में कौनसा? अगर हम जुकाम से मुक्ति पा सकते हैं तो फिर हमें उसमें शामिल तत्वों के ज्ञान से क्या मतलब? अंग्रेजी की किताबों में क्या होता होगा? बीमारियां ऐसी होती है या इस कारण होती हैं। उनके अंग्रेजी नाम बता दिये जाते होंगे। फिर दवाईयों में कौनसा तत्व ऐसा होता है जो उनको ठीक कर देता है-इसकी जानकारी होगी। इस अभ्यास में पढ़ने वाले का वक्त कितना खराब होता होगा। फिर सर्जन बनने के लिये तो पता नहीं चिकित्सा छात्र कितनी मेहनत करते होंगे? उस सफाई कर्मचारी ने अपना काम जिस तरह किया है उससे तो लगता है कि देखकर कोई भी प्रतिभाशाली आदमी ध्यानपूर्वक काम करते हुए ही चिकित्सक या सर्जन बन सकता है।
चिकित्सा शिक्षा का पता नहीं पर इस कंप्यूटर विधा में हम कुछ पांरगत हो गये हैं उतना तो वह छात्र भी नहीं लगते जो विधिवत सीखे हैं। वजह यह है कि हमें कंप्यूटर और इंटरनेट पर काम करने का जितना अभ्यास है वह केवल अपने समकक्ष ब्लाग लेखकों में ही दिखाई देता है। संभव है कि हम कभी उन धुरंधर ब्लाग लेखकों से मिलें तो वह चक्करघिन्नी हो जायें और सोचें कि इसने कहीं विधिवत शिक्षा पाई होगी। अनेक छात्र कंप्यूटर सीखते हैं। उनको एक साल से अधिक लग जाता है। कंप्यूटर वह ऐसे सीखते हैं जैसे कि भारी काम कर रहे हों। हां, यह सही है कि उनकी कंप्यूटर की भाषा में कई ऐसे शब्द हैं जिनका उच्चारण भी हमसे कठिन होता है पर जब वह हमें काम करते देखते हैं तो वह हतप्रभ रह जाते हैं।
हमने आज तक कंप्यूटर की कोई किताब नहीं पढ़ी। हम तो कंप्यूटर पर आते ही नहीं पर यह शुरु से चिपका तो फिर खींचता ही रहा। सबसे पहले एक अखबार में फोटो कंपोजिंग में रूप में काम किया। उस समय पता नहीं था कि यह अभ्यास आगे क्या गुल खिलायेगा।
चिकित्सा विज्ञान की बात हम नहीं कह सकते पर जिस तरह कंप्यूटर लोग सीखते हुए या उसके बाद जिस तरह सीना तानते हैं उससे तो यही लगता है कि उनका ज्ञान भी एक छलावा है। अधिकतर कंप्यूटर सीखने वालों से मैं पूछता हूं कि तुम्हें हिंदी या अंग्रेजी टाईप करना आता है।
सभी ना में सिर हिला देते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि ‘कंप्यूटर का ज्ञान तुम्हारे लिये तभी आसान होगा जब तुम्हें दोनों प्रकार की टाईप आती होगी। कंप्यूटर पर तुम तभी आत्मविश्वास से कर पाओगे जब की बोर्ड से आंखें हटा लोगे।’
वह सुनते हैं पर उन पर प्रभाव नहीं नजर आता। वह कंप्यूटर का कितना ज्ञान रखते हैं पता नहीं? शायद लोग माउस से अधिक काम करते हैं इसलिये उन्हें पता ही नहीं कि इसका कोई रचनात्मक कार्य भी हो सकता है। यह आत्मप्रवंचना करना इसलिये भी जरूरी था कि आपरेशन करने वाले उस सफाई कर्मचारी के चेहरे में हमें अपना अक्स दिखाई देगा।
हमें याद उस अखबार में काम करना। वहां दिल्ली से आये कर्मचारियों ने तय किया कि हमें कंप्यूटर नहीं सिखायेंगे। मगर हमने तय किया सीखेंगे। दोनों प्रकार की टाईप हमें आती थी। हम उनको काम करते देखते थे। उनकी उंगलियों की गतिविधियां देखते थे। जब वह भोजनावकाश को जाते हम कंप्यूटर पर काम करते थे क्योंकि प्रबंधकों अपनी सक्रियता दिखाना जरूरी था। एक दिन हमने अपनी एक कविता टाईप कर दी। वह छप भी गयी। हमारे गुरु को हैरानी हुई। उसने कहा-‘तुम बहुत आत्मविश्वासी हो। कंप्यूटर में बहुत तरक्की करोगे।’
उस समय कंप्यूटर पर बड़े शहरों में ही काम मिलता था और छोटे शहरों में इसकी संभावना नगण्य थी। कुछ दिन बाद कंप्यूटर से हाथ छूट गया। जब दोबारा आये तो विंडो आ चुका था। दोबारा सीखना पड़ा। सिखाने वाला अपने से आयु में बहुत छोटा था। उसने जब देखा कि हम इसका उपयोग बड़े आत्मविश्वास से कर रहे हैं तब उसने पूछा कि ‘आपने पहले भी काम किया है।’
हमने कहा-‘तब विंडो नहीं था।’
कंप्यूटर एक पश्चिम में सृजित विज्ञान है। जब उसका साहित्य पढ़े बिना ही हम इतना सीख गये तो फिर क्या चिकित्सा विज्ञान में यह संभव नहीं है। पश्चिम का विज्ञान जरूरी है पर जरूरी नहीं है कि सीखने का वह तरीका अपनायें जो वह बताते हैं। खाली पीली डिग्रियां बनाने की बजाय तो छोटी आयु के बच्चों को चिकित्सा, विज्ञान, इंजीनियरिंग तथा कंप्यूटर सिखाने और बताने वाले छोटे केंद्र बनाये जाना चाहिये। अधिक से अधिक व्यवहारिक शिक्षा पर जोर देना चाहिये। हमारे देश में ‘आर्यभट्ट’ जैसे विद्वान हुए हैं पर यह पता नहीं कि उन्होंने कौनसे कालिज में शिक्षा प्राप्त की थी। इतने सारे ऋषि, मुनि और तपस्वियों ने वनों में तपस्या करते हुए अंतरिक्ष, विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र में सिद्धि प्राप्त की। पहले यकीन नहीं होता था पर अब लगता है कि इस देश में उड़ने वाले पुष्पक जैसे विमान, दूर तक मार करने वाले आग्नेयास्त्र और चक्र रहे होंगे। बहरहाल उस घटना के बारे में अधिक नहीं पता पर इससे हमें एक बात तो लगी कि पश्चिम विज्ञान हो या देशी सच बात तो यह है कि उनका सैद्धांतिक पक्ष से अधिक व्यवहारिक पक्ष है। कोई भी रचनाकर्म अंततः अपने हाथों से ही पूर्ण करना होता है। अतः अगर दूसरे को काम करते कोई प्रतिभाशाली अपने सामने देखे तो वह भी सीख सकता है जरूरी नहीं है कि उसके पास कोई उपाधि हो। वैसे भी हम देख चुके हैं कि उपाधियों से अधिक आदमी की कार्यदक्षता ही उसे सम्मान दिलाती है।
…………………………………
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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‘पूंजी’ के प्रेमी-(hindi tripadam)


हिंसा सजी है
उनके शब्दों में
क्रांति दिखाते।

‘पूंजी’ के प्रेमी
‘पूंजीवाद के बैरी
भ्रांति फैलाते।

कहीं की जंग
उसका इतिहास
यहाँ बिछाते।

विचार युद्ध
जो जीता नहीं गया
यहां भी लाते।

बिना पति के ‘पूंजी’
सजकर नाचेगी
कैसे दिखाते।

गरीब श्रम
कभी आजाद होगा
बस नारे लगाते।

सच से परे
उनकी दुनियां है
उसे छिपाते।

पसीना पति
उनके खाली नारे
न सुन पाते।

क्रांति काफिले
आकाश में चलते
नीचे न आते।

पेट की भूख
रोटी से ही बुझती
वादे सताते।

खुले बाजार
अपना ही बिकना
वह छिपाते।

वाद व नारे
संसार में बजते
काम न आते

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कबीर के दोहे-दैहिक शिक्षा देने वाले शिक्षक अध्यात्मिक गुरू नहीं कहे जा सकते


पंख होत परबस पयों, सूआ के बुधि नांहि।
अंकिल बिहूना आदमी, यौ बंधा जग मांहि।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं बुद्धिमान पक्षी जिस तरह पंख होते हुए भी पिंजरे में फंस जाता है वैसे ही मनुष्य भी मोह माया के चक्क्र में फंसा रहता है जबकि उसकी बुद्धि में यह बात विद्यमान होती है कि यह सब मिथ्या है।

शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो गुरु जीवन रहस्यों का शब्द ज्ञान दे वही गुरु है। जो गुरु केवल भौतिक शिक्षा देता है उसे गुरु नहीं माना जा सकता। गुरु तो उसे ही कहा जा सकता है जो भगवान की भक्ति करने का तरीका बताता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान शिक्षा पद्धति में विद्यालयों और महाविद्यालयों में अनेक शिक्षक छात्रों को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार पाठ्यक्रमों का अध्ययन कराते हैं पर उनको गुरु की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वर्तमान शिक्षा के समस्त पाठयक्रम केवल छात्र को नौकरी या व्यवसाय से संबंधित प्रदान करने के लिये जिससे कि वह अपनी देह का भरण भोषण कर सके। अक्सर देखा जाता है कि उनकी तुलना कुछ विद्वान लोग प्राचीन गुरुओं से करने लगते हैं। यह गलत है क्योंकि भौतिक शिक्षा का मनुष्य के अध्यात्मिक ज्ञान से कोई संबंध नहीं होता।
उसी तरह देखा गया गया है कि अनेक शिक्षक योगासन, व्यायाम तथा देह को स्वस्थ रखने वाले उपाय सिखाते हैं परंतु उनको भी गुरुओं की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। हां, ध्यान और भक्ति के साथ इस जीवन के रहस्यों का ज्ञान देने वाले ही लोग गुरु कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि जिनसे अध्यात्मिक ज्ञान मिलता है उनको ही गुरु कहा जा सकता है। वैसे आजकल तत्वज्ञान का रटा लगाकर प्रवचन करने वाले भी गुरु बन जाते हैं पर उनको व्यापारिक गुरु ही कहा जाना चाहिये। सच्चा गुंरु वह है जो निष्काम और निष्प्रयोजन भाव से अपने शिष्य को अध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करता है।
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इन्टरनेट पर यौन साहित्य पढने की इच्छा-आलेख


‘आपके लिखने की शैली दीपक भारतदीप से एकदम मिलती जुलती है’-हिंदी के ब्लाग एक ही जगह दिखाने वाले वेबसाईट संचालक ने यह बात मुझे तब लिखी जब मैंने अपने छद्म नाम के दूसरे ब्लाग को अपने यहां दिखाने का आग्रह किया। इस बात ने मुझे स्तब्ध कर दिया। इसका सीधा आशय यह था कि मेरे लिये यहां छद्म नाम से लिखने का अवसर नहीं था। दूसरा यह कि उस समय तक मैं इतना लिख चुका था कि अधिकतर ब्लाग लेखक मेरी शैली से अवगत हो चुके थे। छद्म नाम के उस ब्लाग पर मैंने महीनों से नहीं लिखा पर ब्लाग स्पाट पर वह मेरा सबसे हिट ब्लाग है। सुबह योगसाधना से पहले कभी कभी ख्याल आता है तो मैं अपने ब्लाग के व्यूज को देखता हूं। रात 10 बजे से 6 बजे के बीच उन्हीं दो ब्लाग पर ही पाठक आने के संकेत होते हैं बाकी पर शून्य टंगा होता है। अपने लिखने पर मैं कभी आत्ममुग्ध नहीं होता पर इतना अनुभव जरूर हो गया है कि कुछ लोग ऐसे हैं जो मुझे पढ़ने से चूक नहीं सकते। यही कारण है कि छद्म ब्लाग पर लिखना करीब करीब छोड़ दिया क्योंकि वहां मेरे परिचय का प्रतिबिंब मुझे नहीं दिखाई देता-आर्थिक लाभ तो खैर होना संभव ही नहीं है।

मुझे याद है कि मैंने यह ब्लाग केवल बेकार के विषयों पर लिखने के लिये बनाया था। इस ब्लाग पर पहली रचना के साथ ही यह टिप्पणी मिली थी कि ‘हम तो इसे ऐसा वैसा ब्लाग समझ रहे थे पर आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं।’
उस समय इस टिप्पणी पर लिखी बात मेरे समझ में नहीं आयी पर धीरे धीरे यह पता लग गया कि ब्लाग नाम लोकप्रियता के शिखर से जुड़ा था।
उस दिन अखबार में पढ़ा हिंदी भाषी क्षेत्रों मेें 4.2 करोड़ इंटरनेट कनेक्शन हैं। इस लिहाज से हिंदी में सात्विक विषयों के ब्लाग पढ़ने की संख्या बहुत कम है। ऐसा नहीं है कि हिंदी के ब्लाग लोग पढ़ नहीं रहे पर उनको तलाश रहती है ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने की। जिन छद्म ब्लाग की बात मैंने की उन पर ऐसा वैसा कुछ नहीं है पर वह उनके नाम में से तो यही संकेत मिलता है। यही कारण है कि लोग उसे खोलकर देखते हैं। मैंने उन ब्लाग पर अपने सामान्य ब्लाग के लिंक लगा दिये हैं पर लोग उनके विषयों में दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि वहां से पाठक दूसरे विषयों की तरफ जाते ही नहीं जबकि दूसरे सामान्य ब्लाग पर इधर से उधर पाठकों का आना जाना दिखता है। मैंने उन दोनों ब्लाग से तौबा कर ली क्योंकि उन पर लिखना बेकार की मेहनत थी। न नाम मिलना न नामा।
वर्डप्रेस पर भी दो ब्लाग है जिन पर मैंने अपने नाम के साथ मस्तराम शब्द जोड़ दिया। तब दोनों ब्लाग अच्छे खासे पाठक जुटाने लगे। तब एक से हटा लिया और उस पर पाठक संख्या कम हो गयी पर दूसरे पर बना रहा। वह ब्लाग भी प्रतिदिन अच्छे खासे पाठक जुटा लेता है। तब यह देखकर आश्चर्य होता है कि लोग ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने को बहुत उत्सुक हैं और उनकी दिलचस्पी सामान्य विषयों में अधिक नहीं हैं। अभी हाल ही में एक सर्वे में यह बात कही गयी है कि इंटरनेट पर यौन संबंधी साहित्य पढ़ना अधिक घातक होता है बनिस्बत सामान्य स्थिति में। एक तो यौन संबंधी साहित्य वैसे ही दिमागी तौर पर तनाव पैदा करता है उस पर कंप्यूटर पर पढ़ना तो बहुत तकलीफदेह होता है। इस संबंध में हानियों के बारे में खूब लिखा गया था और उनसे असहमत होना कठिन था।
उन ब्लाग की पाठक संख्या अन्य ब्लाग की संख्या को चिढ़ाती है और अपने ब्लाग होने के बावजूद मुझे उन ब्लाग से बेहद चिढ़ है। वह मुझे बताते हैं कि मेरे अन्य विषयों की तुलना में तो यौन संबंधी विषय ही बेहद लोकप्रिय है। सच बात तो यह है कि पहले जानता ही नहीं था कि मस्तराम नाम से कोई ऐसा वैसा साहित्य लिखा जाता है। मेरी नानी मुझे मस्तराम कहती थी इसलिये ही अपने नाम के साथ मस्तराम जोड़ दिया। इतना ही नहीं अपने एक दो सामान्य ब्लाग पर पाठ लिखने के एक दिन बाद-ताकि विभिन्न फोरमों पर तत्काल लोग न देख पायें’-मस्तराम शब्द जोड़कर दस दिन तक फिर कुछ नहीं लिखा तो पता लगा कि उस पर भी पाठक आ रहे हैं। तब बरबस हंसी आ जाती है। अनेक मिलने वाले ऐसी वैसी वेबसाईटों के बारे में पूछते हैंं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों के इंटरनेट कनेक्शन लेने वाले शायद इस उद्देश्य से लेते हैं कि ‘ऐसा वैसा’ पढ़े और देख सकें।

उस दिन एक जगह अपने कागज की फोटो स्टेट कराने गया। वह दुकानदार साइबर कैफे भी चलाता है। उस दिन वह अपने बिल्कुल अंदर के कमरे में था तो मैं इंटरनेट के केबिनों के बीच से होता हुआ वहां तक गया। धीरे धीरे चलते हुए मैं काचों से केबिन में झांकता गया। आठ केबिन में छह को देख पाया और उनमें तीन पर मैंने लोगों को ‘ऐसे वैसे‘ ही दृश्य देखते पाया और बाकी क्या पढ़ रहे थे यह जानने का अवसर मेरे पास नहीं था।

सामान्य रूप से भी यौन संबंधी मनोरंजन साहित्य और सीडी कैसिट उपलब्ध हैं पर इंटरनेट भी एक फैशन हो गया है सो लोग सक्रिय हैं पर उनकी मानसिकता में भी एसा वैसा ही देखने और पढ़ने की इच्छा है। यह कोई शिकायत नहीं है क्योंकि लोगों की ‘यौन संबंधी मनोरंजन साहित्य’ पढ़ने की इच्छा बरसों पुरानी है पर सात्विक साहित्य पढ़ने वालों की भी कोई कमी नहीं है-यह अलग बात है कि वह अभी समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों को ही देखने में सक्रिय हैं और इंटरनेट पर देखने और पढ़ने की उनमें इच्छा अभी बलवती नहीं हो रही है। जिनमें ऐसा वैसा पढ़ने की इच्छा होती है उनके लिये इंटरनेट खोलने की तकलीफ कुछ भी नहीं है पर सात्विक पढ़ने वालों के लिये अभी भी बड़ी है। कहते हैं कि व्यसन और बुरी आदतें आदमी का आक्रामक बना देती हैं पर सात्विक भाव में तो सहजता बनी रहती है।
ऐसा नहीं है कि सामान्य ब्लाग@पत्रिकाओं पर पाठक कोई कम हैं पर उनमें बढ़ोतरी अब नहीं हो रही है। ब्लागस्पाट के ब्लाग तो वैसे ही अधिक पाठक नहीं जुटाते पर वर्डप्रेस के ब्लाग पर नियमित रूप से उनकी संख्या ठीकठाक रहती है। सामान्य विषयों में भी अध्यात्म विषयों के साथ हास्यकवितायें, व्यंग्य और चिंतन के पाठकों की संख्या अच्छी खासी है-कुछ पाठ तो दो वर्ष बाद भी अपने लिये पाठक जुटा रहे हैं। यह कहना भी कठिन है कि ऐसा वैसा पढ़ने वालों की संख्या अधिक है या सात्विक विषय पढ़ने वालों की। इतना जरूर है कि ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने पर जो हानियां होती हैं उनके बारे में पढ़कर उन लोगों के प्रति सहानुभूति जाग उठी जो उसमें दिलचस्पी लेते हैं।
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‘भ्रष्टाचार’ किसी कहानी का मुख्य विषय क्यों नहीं होता -आलेख


स्वतंत्रता के बाद देश का बौद्धिक वर्ग दो भागों में बंट गया हैं। एक तो वह जो प्रगतिशील है दूसरा वह जो नहीं प्रगतिशील नहीं है। कुछ लोग सांस्कृतिक और धर्मवादियों को भी गैर प्रगतिशील कहते हैं। दोनों प्रकार के लेखक और बुद्धिजीवी आपस में अनेक विषयों पर वाद विवाद करते हैं और देश की हर समस्या पर उनका नजरिया अपनी विचारधारा के अनुसार तय होता है। देश में बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकटों पर पर ढेर सारी कहानियां लिखी जाती हैं पर उनके पैदा करने वाले कारणों पर कोई नहीं लिखता। अर्थशास्त्र के अंतर्गत भारत की मुख्य समस्याओं में ‘धन का असमान वितरण’ और कुप्रबंध भी पढ़ाया जाता है। बेरोजगारी,भुखमरी तथा अन्य संकट कोई समस्या नहीं बल्कि इन दोनों समस्याओं से उपजी बिमारियां हैं। जिसे हम भ्रष्टाचार कहते हैं वह कुप्रबंध का ही पर्यायवाची शब्द है। मगर भ्रष्टाचार पर समाचार होते हैं उन पर कोई कहानी लिखी नहीं जाती। भ्रष्टाचारी को नाटकों और पर्दे पर दिखाया जाता है पर सतही तौर पर।

अनेक बार व्यक्तियों के आचरण और कृतित्व पर दोनों प्रकार के बुद्धिजीवी आपस में बहस करते है। अपनी विचारधाराओं के अनुसार वह समय समय गरीबों और निराश्रितों के मसीहाओं को निर्माण करते हैं। एक मसीहा का निर्माण करता है दूसरा उसके दोष गिनाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सतही बहसें होती हैं पर देश की समस्याओं के मूल में कोई झांककर नहीं देखता। फिल्म,पत्रकारिता,नाटक और समाजसेवा में सक्र्रिय बुद्धिजीवियों तंग दायरों में लिखने और बोलने के आदी हो चुके हैं। लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिसमें स्वयं की चिंतन क्षमता तो किसी मेें विकसित हो ही नहीं सकती और उसमें शिक्षित बुद्धिजीवी अपने कल्पित मसीहाओं की राह पर चलते हुए नारे लगाते और ‘वाद’गढ़ते जाते हैं।

साहित्य,नाटक और फिल्मों की पटकथाओं में भुखमरी और बेरोजगारी का चित्रण कर अनेक लोग सम्मानित हो चुके हैं। विदेशों में भी कई लोग पुरस्कार और सम्मान पाया है। भुखमरी, बेरोजगारी,और गरीबी के विरुद्ध एक अघोषित आंदोलन प्रचार माध्यमों में चलता तो दिखता है पर देश के भ्रष्टाचार पर कहीं कोई सामूहिक प्रहार होता हो यह नजर नहंी आता। आखिर इसका कारण क्या है? किसी कहानी का मुख्य पात्र भ्रष्टाचारी क्यों नहीं हेाता? क्या इसलिये कि लोगों की उससे सहानुभूति नहीं मिलती? भूखे,गरीब और बेरोजगार से नायक बन जाने की कथा लोगों को बहुत अच्छी लगती है मगर सब कुछ होते हुए भी लालच लोभ के कारण अतिरिक्त आय की चाहत में आदमी किस तरह भ्रष्ट हो जाता है इस पर लिखी गयी कहानी या फिल्म से शायद ही कोई प्रभावित हो।
भ्रष्टाचार या कुप्रबंध इस देश को खोखला किये दे रहा है। इस बारे में ढेर सारे समाचार आते हैं पर कोई पात्र इस पर नहीं गढ़ा गया जो प्रसिद्ध हो सके। भ्रष्टाचार पर साहित्य,नाटक या फिल्म में कहानी लिखने का अर्थ है कि थोड़ा अधिक गंभीरता से सोचना और लोग इससे बचना चाहते हैं। सुखांत कहानियों के आदी हो चुके लेखक डरते हैं कोई ऐसी दुखांत कहानी लिखने से जिसमें कोई आदमी सच्चाई से भ्रष्टाचार की तरफ जाता है। फिर भ्रष्टाचार पर कहानियां लिखते हुए कुछ ऐसी सच्चाईयां भी लिखनी पड़ेंगी जिससे उनकी विचारधारा आहत होगी। अभी कुछ दिन पहले एक समाचार में मुंबई की एक ऐसी औरत का जिक्र आया था जो अपने पति को भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित करती थी। जब भ्र्रष्टाचार पर लिखेंगे तो ऐसी कई कहानियां आयेंगी जिससे महिलाओं के खल पात्रों का सृजन भी करना पड़ेगा। दोनों विचारधाराओं के लेखक तो महिलाओं के कल्याण का नारा लगाते हैं फिर भला वह ऐसी किसी महिला पात्र पर कहानी कहां से लिखेंगे जो अपने पति को भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित करती हो।
फिल्म बनाने वाले भी भला ऐसी कहानियां क्यों विदेश में दिखायेंगे जिसमें देश की बदनामी होती हो। सच है गरीब,भुखमरी और गरीबी दिखाकर तो कर्ज और सम्मान दोनों ही मिल जाते हैं और भ्रष्टाचार को केंदीय पात्र बनाया तो भला कौन सम्मान देगा।
देश में विचारधाराओं के प्रवर्तकों ने समाज को टुकड़ों में बांटकर देखने का जो क्रम चलाया है वह अभी भी जारी है। देश की अनेक व्यवस्थायें पश्चिम के विचारों पर आधारित हैं और अंग्रेज लेखक जार्ज बर्नाड शा ने कहा था कि ‘दो नंबर का काम किये बिना कोई अमीर नहीं बन सकता।’ ऐसे में अनेक लेखक एक नंबर से लोगों के अमीर होने की कहानियां बनाते हैं और वह सफल हो जाते हैं तब उनके साहित्य की सच्चाई पर प्रश्न तो उठते ही हैं और यह भी लगता है कि लोगा ख्वाबों में जी रहे। अपने आसपास के कटु सत्यों को वह उस समय भुला देते हैं जब वह कहानियां पढ़ते और फिल्म देखते हैं। भ्रष्टाचार कोई सरकारी नहीं बल्कि गैरसरकारी क्षेत्र में भी कम नहीं है-हाल ही में एक कंपनी द्वारा किये घोटाले से यह जाहिर भी हो गया है।

आखिर आदमी क्या स्वेच्छा से ही भ्रष्टाचार के लिये प्रेरित होता है? सब जानते हैं कि इसके लिये कई कारण हैं। घर में पैसा आ जाये तो कोई नहीं पूछता कि कहां से आया? घर के मुखिया पर हमेशा दबाव डाला जाता है कि वह कहीं से पैसा लाये? ऐसे में सरकारी हो या गैरसरकारी क्षेत्र लोगों के मन में हमेशा अपनी तय आय से अधिक पैसे का लोभ बना रहता है और जहां उसे अवसर मिला वह अपना हाथ बढ़ा देता है। अगर वह कोई चोरी किया गया धन भी घर लाये तो शायद ही कोई सदस्य उसे उसके लिये उलाहना दे। शादी विवाहों के अवसर पर अनेक लोग जिस तरह खर्चा करते हैं उसे देखा जाये तो पता लग जाता है कि किस तरह उनके पास अनाप शनाप पैसा है।
कहने का तात्पर्य है कि हर आदमी पर धनार्जन करने का दबाव है और वह उसे गलत मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है। जैसे जैसे निजी क्षेत्र का विस्तार हो रहा है उसमें भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। नकली दूध और घी बनाना भला क्या भ्रष्टाचार नहीं है। अनेक प्रकार का मिलावटी और नकली सामान बाजार में बिकता है और वह भी सामाजिक भ्रष्टाचार का ही एक हिस्सा है। ऐसे में भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर उस पर कितना लिखा जाता है यह भी देखने की बात है? यह देखकर निराशा होती है कि विचारधाराओं के प्रवर्तकों ने ऐसा कोई मत नहीं बनाया जिसमें भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर लिखा जाये और यही कारण है कि समाज में उसके विरुद्ध कोई वातावरण नहीं बन पाया। इन विचाराधाराओं और समूहों से अलग होकर लिखने वालों का अस्तित्व कोई विस्तार रूप नहीं लेता इसलिये उनके लिखे का प्रभाव भी अधिक नहीं होता। यही कारण है कि भ्रष्टाचार अमरत्व प्राप्त करता दिख रहा है और उससे होने वाली बीमारियों गरीबी,बेरोजगारी और भुखमरी पर कहानियां भी लोकप्रिय हो रही हैं। शेष फिर कभी
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अब महान झगडा -व्यंग्य


फिल्म,खेल,कला और साहित्य का कोई देश नहीं होता-ऐसा जुमला हमारे देश के मूर्धन्य बुद्धिजीवी और लेखक मानते हैं पर अवसर पाते ही वह इनसे देशभक्ति के जज्बात जोड़ने से बाज नहीं आते। यह अवसर होता है जब कोई पश्चिम से किसी को पुरस्कार या सम्मान मिलता है या नहीं मिलता है। मिल जाये तो वाह वाह हो जाती है। देश का गौरव और सम्मान बढ़ने पर प्रसन्नता व्यक्त की जाती है और न मिले तो पश्चिमी देशों की उन संस्थाओं को कोसा जाता है जो इनको प्रदान करती है।
असल में बात यह हुई कि अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने अब तक दुनियां के महानतम बल्लेबाजों की सूची जारी की उसमें पहले दस में कोई भारतीय खिलाड़ी शामिल नहीं है। अपने प्रचार माध्यम उस सूची को पहले बीस तक ले गये क्योंकि बीसवें नंबर पर भारत के महानतम बल्लेबाज सुनील गावस्कर का नाम है-1983 में जीते गये इकलौते विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता में वह भारतीय टीम के वह भी सदस्य था इसलिये उनकी महानता पर कोई संदेह नहीं है। बीस के बाद उनकी नजर 26 वें नंबर पर गयी जहां उस बल्लेबाज का नाम था जिसे भारतीय प्रचार माध्यम दुनियां के क्रिकेट का भगवान घोषित कर चुके हैं। हाय! यह क्या गजब हो गया। भारतीय प्रचार माध्यमों की हवा खराब हो गयी। इस देश की जनता का भ्रम टूट न जाये इसलिये उसे बनाये रखने के लिये उन्होंने बहस शुरु कर दी है और उस सूची को नकार ही दिया।

यह होना ही था। ईमानदारी की बात यह है कि ज्ञानी लोग खेल वगैरह में देशप्रेम जैसी बात जोड़ने का समर्थन नहीं करते। दूसरी बात यह है कि जिस भगवान के किकेट अवतार को भारतीय प्रचार माध्यम जिस तरह अपने व्यवसायिक मजबूरियों के चलते अभी तक ढो रहे हैं उसके खेल पर अपने देश में ही लोग सवाल उठाते हैं। इसमें भी एक मजेदार बात यह है कि जिन बीस भारतीय बल्लेबाजों के नाम है उनमें एक ही भारतीय है बाकी विदेशी है। इसलिये भारतीय लोग उस सूची को नकारने से तो रहे। वजह यह है कि इस देश के लोग यह जानते हुए भी कि ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं’ दूर के ढोलों पर ही अधिक यकीन करते हैं और यह प्रवृति प्रचार माध्यमों ने बढ़ाई हैं कमी नहीं की।

पहले 19 खिलाड़ी विदेशी महान होंगे इस बात पर इस देश के लोग यकीन कर लेंगे क्योंंकि वह देख रहे हैं कि जिस तरह इस देश के कथित कलाकार, खिलाड़ी, लेखक, पत्रकार तथा अन्य विशेषज्ञ विदेशी पुरस्कारों और सम्मानों के लिये मरे जाते हैं उस हिसाब से वहां योग्यता और तकनीकी के ऊंचे मानदंड होंगे। तय बात है कि 19 खिलाड़ी महान ही होंगे तभी तो उनको घोषित किया गया है। भारतीय प्रचार माध्यम क्रिकेट का गुणगान तो खूब करते हैं पर यह सच छिपा जाते हैं कि 1983 के बाद विश्व क्रिकेट के नाम यहां कुछ नहीं आया। फिर उनके ,द्वारा सुझाये गये महानतम बल्लेबाज की महानता का हाल यह है कि आजकल कई लोग चाहते हैं कि वह क्रिकेट से हट जाये मगर नहीं जनाब!

वह हर बार विश्व कप क्रिकेट कप का सपना दिखाता है पर वह पूरा नहीं होता। दावा यह है कि 19 साल से क्रिकेट खेल रहा है पर भई उसने कितने विश्व क्रिकेट जिताये मालुम नहीं। यह सही है कि महानतम की सूची में उस महानतम बल्लेबाज से पहले भी कई ऐसे बल्लेबाज हैं जिन्होंने अपने देश को विश्व कप नहीं जितवाया पर इसका दूसरा पक्ष यह भी कि उनमें अधिकतर के समय में विश्व कप होता भी नहीं था पर उन्होंने किकेट के विकास में वाकई उस समय योगदान दिया जब उसमें पैसा नहीं था। वैसे प्रचार माध्यम एक नहीं अपने तीन बल्लेबाजों के महानतम न होने पर नाराज है पर 26वें नंबर पर अपने अवतारी बल्लेबाज के होने पर अधिक बवाल मचा रहे हैं जिसका क्रिकेट के विकास में नहीं बल्कि उसके दोहन में अधिक योगदान रहा है।
यार, यहां भी इतने पुरस्कार मिलते हैं पर अपने देश के गुणी लोगों को पता नहीं वह हमेशा छोटे नजर आते हैं। हमारे यहां हर साल ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाता है पर प्रचार माध्यम उसका समाचार देकर फिर मूंह फेर लेते हैं पर अगर अमेरिका की कोई संस्था- जिसका नाम तक हम लोग नहीं जानते-अगर किसी को मिल जाये तो बस वह यहां भगवान बना दिया जाता है।

इसका परिणाम यह हुआ है कि जिन संस्थाओं को अपना नाम इस देश में नाम करना होता है वह यहां के किसी ऐसे अज्ञात आदमी को पुरस्कार देती है जिसने अपने जीवन में एकाध कोई किताब लिखी हो। हमारे यहां जिन लोगों को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलता है उन्होंनें कई किताबें लिखी होती हैं पर उनको प्रचार माध्यम पहचानते तक नहीं पर कोई एक पुस्तक लिखकर विदेश से पुरस्कार प्राप्त कर ले तो उसे बरसों तक ढोते हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जोकरों को पुरस्कार मिला हो। विदेशों से पुरस्कार विजेता तो ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि वह हर विषय में जानते हों। कई बार तो वह अपने देश के संवदेनशीन मामलों में ऐसे बोलते हैं जैसे कि देश के विरोधी बोल रहे हों। तब यह भी संदेह होता है कि कहीं ऐसे लोगों को बकवास करने के लिये ही तो कहीं इस आश्वासन पर तो विदेशों में सम्मान या पुरस्कार नहीं दिये जाते कि अपने देश के लोगों को भावनात्मक रूप से आहत करते रहना।

हिंदी फिल्मों का हाल देखिये। विदेशी पुरस्कारों के लिये सभी दौड़ते फिरते हैं। हालत यह है कि अगर कहीं फिल्म पुरस्कार के नामांकित हो जाये तो उसका जीभर के प्रचार कर लिया जाता है जैसे कि वह मिल ही गया हो-हालांकि यह उनको पता होता है कि वह नहीं मिलेगा शायद इसलिये प्रचार की सारी कसर नामांकन से इनाम बंटने की बची की अवधि में ही कर लेते हैं। इन हिंदी फिल्म वालों से पूछिये कि जब हिंदी फिल्मों या टीवी सीरियलों के लिये इनाम वितरण होता है तब क्या देश की गैर हिंदी फिल्मों को कभी वह इनाम देते हैं जैसा कि वह अमेरिका में अंग्रेजी फिल्मकारों के बीच सम्मान चाहते हैं। सच तो यह है कि हमारे देश के दक्षिण भाषी फिल्मकारों की बनी अनेक फिल्मों का हिंदी में पुर्नफिल्मांकन प्रस्तुत किया जाता है जो बहुत सफल रहती हैं। दक्षिण का फिल्म उद्योग हिंदी से तकनीकी,कला,कहानी,संगीत और पटकथा में अधिक सक्षम माना जाता है। फिर भी कभी आपने सुना है कि किसी दक्षिण भारतीय फिल्म को हिंदी फिल्म समारोह में कभी देश सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित किया गया हो। अपनों को सम्मान देने की बजाय दूसरों से इनाम पाने की चाहत ने गुणीजनों को पतन की गर्त में पहुंचा दिया है। सच तो यह है कि दक्ष हिंदी के लेखकों से तारतम्य के अभाव में हिंदी फिल्म उद्योग पैसा होते हुए भी लाचारगी की की स्थिति में हैं और उसकी अधिकांश फिल्में हालीवुड या दक्षिण भारतीय फिल्मों की नकल होती है। अपने ही हिंदी भाषी लेखकों,कलाकारों,गायकों, और संगीतकारों को कभी प्रोत्साहित न करने वाले हिंदी फिल्म उद्योग को विदेशों में सम्मान की आशा करना ही हास्यास्पद लगता है।

जी हां, सच यही है कि महानतम उस आदमी को कहा जाता है जो न केवल अपने जीवन में सफलता प्राप्त करे बल्कि दूसरों को भी ऐसी सफलता पाने में योगदान दे। भारत में एक ही महानतम क्रिकेट खिलाड़ी हुआ है वह कपिल देव क्योंकि उसके नाम पर एक विश्व कप हैं। हमारे महानतम हाकी खिलाड़ी स्व. ध्यानचंद के बाद वही एक लगते हैं महान जैसे। स्व. ध्यानचंद जी इसलिये महान नहीं थे कि हिटलर उनसे प्रभावित हुआ था बल्कि उन्होंने भारत को ओलंपिक में स्वर्ण पदक जितवाया था इसलिये महान कहे गये। इतना ही नहीं वह अपने खेल से अपनी टीम को प्रेरणा देते थे। सो प्रचार माध्यम यह समझ लें कि वह जिन खिलाडि़यों के महानतम न होने पर विलाप कर रहे हैं उस पर देश के लोगों की हमदर्दी उनके साथ नहीं है बल्कि उनके कार्यक्रम एक लाफ्टर शो की तरह दिख रहे हैं। वह अपने बताये माडलों को विश्व का महानतम बताने के लिये जूझ रहे हैं और यह पश्चिम वाले हैं गाहे बगाहे उन पर आघात कर जाते हैं।
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वफ़ा के भी होते हैं रस और रंग अलग अलग-व्यंग्य कविता


ऊंचे सिंहासन पर
बैठे इतना न इतराओ
अपने पास लगी भीड़ को
अपना भक्त न बताओ
जब गिरोगे वहाँ से
सब पास खड़े लोग, दूर हो जायेंगे
यह पूज रहे हैं उस सिंहासन को
जिस पर तुम बैठे हो
दिखा रहे हैं जैसे तुम ही भगवान् हो
पर तुम्हारे बाद भी दूसरे लोग
इस आसन पर बैठने आयेंगे
यही भक्त
तुम्हारा नाम भूलकर
उनको पूजने लग जायेंगे
लोग खेलते हैं अपनी भावनाओं से
तुम मत बहलना
खेलती हैं माया
लोग ख़ुद खेलने का वहम पाल लेते हैं
दिखावे के रिश्ते में वफ़ा का रस भर देते हैं
जुबान पर कुछ और है और दिल में कुछ और
इस जहाँ में झूठ ही बनता है सिरमौर
जिन्दगी का सत्य समझ जाओ
————————————–
अपनी जेब में पैसा हो तो
अनजान भी जोड़ने लग जाते हैं रिश्ते
अगर नहीं हो अपने पास कौडी
तो करीब के भी लोग भूल जाते हैं
वफ़ा बिकती है बाज़ार में
सस्ती या महंगी हो
उसके रस और रंग भी अलग अलग दिखते

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

ऊपरी आय से रिश्ता-हास्य व्यंग्य


संभावित दूल्हे के माता पिता के साथ लड़की के माता पिता वार्तालाप कर रहे थे। वहां मध्यस्थ भी मौजूद था और उसने लड़की के पिता से कहा
‘आपने घर और वर देख लिया। आपकी लड़की भी इनको पसंद है पर आज यह बताईये दहेज में कुल कितना देंगे?’
लड़की के पिता ने कहा-‘पांच लाख।’
मध्यस्थ ने लड़के के पिता की तरफ देखा। उसने ना में सिर हिलाया।
लड़की के पिता ने कहा-‘छह लाख।‘
लड़के पिता ने फिर ना में सिर हिलाया।
लड़की के पिता ने कहा-‘सात लाख’
वैसा ही जवाब आया। बात दस लाख तक पहुंच गयी पर मामला नहीं सुलझा। अचानक मध्यस्थ को कुछ सूझा उसने लड़की के पिता को बाहर बुलाया।
अकेले में उसने कहा-‘क्या बात है? आपने लड़के के पिता से अकेले में बात नहीं की थी। मैंने आपको बताया था कि नौ लाख तक मामला निपट जायेगा। एक लाख अलग से लड़के के पिता को देने की बात कहना।’
लड़की के पिता ने कहा-‘यह भला कोई बात हुई। लड़के के पिता से अलग क्या बात करना?’
मध्यस्थ ने कहा-‘आदत! लड़के के पिता ने कई जगह नौकरी की है। सभी जगह से उसे अपनी इसी आदत के कारण हटना पड़ा। अरे, वह किसी भी काम के अलग से पैसे लेने का आदी है। जहां उसका काम चुपचाप चलता है कुछ नहीं होता। जब कहीं पकड़ा जाता है तो निकाल दिया जाता है। उस्ताद आदमी है। एक जगह से छोड़ता है दूसरी जगह उससे भी बड़ी नौकरी पा जाता है।’

लड़की के बाप ने कहा-‘ठीक है। उसे बाहर बुला लो।’

मध्यस्थ ने उसे बाहर बुलाया और उससे कहा-‘आप चिंता क्यों करते हैं? आपको यह अलग से एक लाख दे देंगे और किसी को बतायेंगे भी नहीं।’

लड़के के पिता ने कहा-‘हां, यह बात हुई न! मैंने तो पहले ही नौ लाख की मांग की थी। अगर यह पहले से ही तय हो जाता तो फिर इनको एक लाख की चपत नहीं लगती!
लड़की के बाप ने आश्चर्य से पूछा-‘कैसे?’
लड़के के पिता ने कहा-‘अरे, भई आपने मेरी पत्नी के सामने दस लाख दहेज की बात कर ली तो वह कम पर थोड़े ही मानेगी। अगर आप पहले ही अलग से मामला तय कर लेते तो मैं नौ लाख पर अपनी मोहर लगा देता। मैंने आज तक अपने काम में कभी बेईमानी नहीं की। जिससे पैसा लिया है उसका काम किया है।’
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लड़का घोड़े से उतर नहीं रहा था। घोड़ी से उतरने के लिये उसे पंद्रह सौ रुपये देने की बत कही गयी। उसने ना कहा। उससे सोलह सौ रुपये फिर सत्रह सो रुपये। तीन हजार तक प्रस्ताव नहीं दिया गया पर बात नहीं बनी।

आखिर दूल्हे का दोस्त दुल्हन के पिता को अलग ले गया और बोला-‘आप भी कमाल करते हो। आपको मालुम नहीं कि लड़का ऊपरी कमाई का आदी है। आप जो घोड़ी से उतरने के पैसे देंगे वह तो अपनी मां को देगा। आप सौ पचास चाय पानी का पहले उसके जेब में डाल दीजिये। मैं उसको बता दूंगा तो वह उतर आयेगा।

दुल्हन के पिता ने पूछा-‘यह भी भला कोई बात हुई?’

दूल्हे के दोस्त ने कहा-‘आप भी कमाल करते हो। जब रिश्ता तय हो रहा था तो आपने पूछा था कि नहीं कि लड़के को उपरी कमाई है कि नहीं। कहीं हमारी लड़की की जिंदगी तन्ख्वाह में तो नहीं बंधी रह जायेगी।’

दुल्हन के पिता को बात समझ में आ गयी। उन्होंने सौ रुपये दूल्हे की जेब में डाल दिये और जब उसके दोस्त ने बताया तो वह नीचे उतर आया।
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संभावित दूल्हा दुल्हन के परिवार वालों के बीच मध्यस्थ की उपस्थिति में बातचीत चल रही थी। दूल्हे की मां ने बताया कि ‘लड़का एक कंपनी में बड़े पद पर है उसका वेतन तीस हजार रुपये मासिक है। आगे वेतन और बढ़ने की संभावना है।’
लड़की की मां ने कहा-‘तीस हजार से आजकल भला कहां परिवार चलता है? हमने अपनी लड़की को बहुत नाजों से पाला है। नहीं! हमें यह रिश्ता मंजूर नहीं है।’
लड़के के माता पिता का चेहरा फक हो गया। मध्यस्थ लड़के के माता पिता को बाहर ले गया और बोला-आपने अपने लड़के की पूरी तन्ख्वाह क्यों बतायी।’
लड़के के पिता ने कहा-‘ भई, पूरी तन्ख्वाह सही बतायी है। चाहें तो पता कर लें।
मध्यस्थ ने कहा-‘‘मेरा यह मतलब नहीं है। आपको कहना चाहिये कि पंद्रह हजार तनख्वाह है और बाकी पंद्रह हजार ऊपर से कमा लेता है।’

लड़के की मां कहा-‘पर हम तो सच बता रहे हैं। उसकी तन्ख्वाह तीस हजार ही है।’
मध्यस्थ ने कहा-‘आप समझी नहीं। ईमानदारी की तन्ख्वाह आदमी सोच समझकर कर धर चलाता है जबकि ऊपरी कमाई से दिल खोलकर खर्च करता है। आपने अपने लड़के की पूरी आय तन्ख्वाह के रूप में बतायी तो लड़की वाले सोच रहे हैं कि ऊपर की कमाई नहीं है तो हमारी लड़की को क्या ऐश करायेगा? केवन तन्ख्वाह वाला लड़का है तो वह सोच समझकर कंजूसी से खर्चा करेगा न!’

लड़के के माता पिता अंदर आये। सोफे पर बैठते हुए लड़के की मां ने कहा-‘बहिन जी माफ करना। मैंने अपने लड़के की तन्ख्वाह अधिक बताई थी। दरअसल उसकी तन्ख्वाह तो प्रद्रह हजार है और बाकी पंद्रह हजार ऊपर से कमा लेता है। मैंने सोचा जब आप रिश्ता नहीं मान रहे तो सच बताती चलूं।’

लड़की की मां एकदम उठकर खड़ी हो गयी-‘नहीं बहिन जी! आप कैसी बात करती है? आपने ऊपरी कमाई की बात पहले बतायी होती तो भला हम कैसे इस रिश्ते के लिये मना कर देते? आप बैठिये यह रिश्ता हमें मंजूर है।’
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जहां ख्वाहिश है महल पाने की-हिंदी शायरी


चले थे हम अपने इस अनजान पथ पर
न मंजिल का पता था
न मकसद का
लोगों ने किये कई सवाल
जिनका जवाब नहीं था
क्योंकि जहां जिंदगी चलती है
दौलत कमाने के वास्ते
वहां बिकते है सभी रास्ते
जहां चाहता है इंसान शौहरत अपने लिये
वहां तैयार हो जाता है समझौतों के लिये
जहां ख्वाहिश है महल पाने की
वहां भला कौन करता है फिक्र करता जमाने की
जिसके दिल में ख्याल है
खुली आंखों से देखना जिंदगी को
वह जमाने से अलग हो जाते
चलते लगते हैं सबके साथ रास्ते पर
पर जमीन की हर चीज में अपन ख्याल नहीं लगाते
पत्थर और पैसों में जज्बात ढूंढने वाले
भला कब खुश रह पाते
हमने भी देख लिया
छूकर हर शय को
जिन पर मर मिटता है जमाना
कोशिश करता है हर चीज में खुद ही समाना
चमकती लगी हर शय
जिसमें दिल लगा लिया लोगों ने
हम दूर होकर चलते रहे अपने रास्ते पर
क्योंकि उनमें धड़कनों और जज्बातों का अहसास न था

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

काटें हम अपने अंदर ही बेहतर फसल-हिंदी कविता


पद पुजता है आदमी नहीं
चमकती है प्रतिष्ठा देह नहीं
पालता है अन्न पत्थर नहीं
ओ! जमाने को उसूलों के बयां करने वालों
आकाश से कोई चीज जमीन पर
आकर टपकती नहीं
धरती पर उगती नहीं
उन चीजों की शौहरत को ही
असली सच बताकर
मत बहलाओ भोले लोगों को
जो बनती बिगड़ती हैं यहीं
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दुनियां में जितने खिलौने हैं
जब तक खेलें उनके साथ ठीक
बिगड़्र जायें तो खुद को ही ढोने हैं
खुद से ही बहलायें दिल तो कितना अच्छा
काटें हम अपने अंदर ही बेहतर फसल
ऐसे ही बीज हमको बोने हैं

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यह कविता/आलेख ‘दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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