मुझे पाठकों ने अवसर ही नहीं दिया। यह कविता मैंने इसकी पाठक संख्या तीस हजार पार करने के पूर्व संध्या पर लिखी थी। इससे पहले कि इसे लिख पाता बिजली चली गयी। उसके बाद घर से बाहर चला गया और बिजली आयी तो पता लगा कि यह ब्लाग तीस हजार की संख्या को पार कर गया। अब रात हो गयी है इसलिये विशेष संपादकीय लिखना तो संभव नहीं है पर जो कविता लिखी थी। वही लिख रहा हूं। विशेष संपादकीय कल लिखूंगा क्योंकि उसमें बहुत कुछ कहना है।
गुरू ने चलायमान शिखर पर बैठाकर
अपने यहां से धकियाया
उससे उतरना नहीं सिखाया
सो चल पड़े जिंदगी के मैदान में
नीचे आना हमें उससे याद भी नहीं आया
ऐसे में कौन हमें अपने साथ शिखर पर बैठाता
या हमारे लिये कोई दूसरा सजाता
कहें महाकवि दीपक बापू
कोई उधारी का लिये बैठा था
तो कोई लूट के बैठा था
ऊंचे से हमसे उनके शिखर
स्टील के साथ हाड़मांस के बने
चमचों से सजे थे उनके घर
कौन हमें अपने शिखर से उतर कर
आने का प्रस्ताव सुनाता
पैसा लिखकर लिखते हैं
चंद किताबें पढ़कर लिखना सीख गये
तो जमकर रचते हैं पाठ
भले ही हों उनके कितने भी ठाठ
पर आजादी की सांस उनके नसीब में कहां आता
गाते हैं वह
अभी तो ली अंगड़ाई है
आगे और लड़ाई है
पर फिर उनका चेहरा नजर नहीं आता
हमने तो बिना नारा लगाये
हमेशा की शुरु लड़ाई है
समझा समझा कर परेशान है
काहे हमारे सामने चले आते हो
अपने आकाओं के नाम छिपाकर
अपना चेहरा क्यों दिखाते हो
फिर सोचते हैं
गुलामों से क्या लड़ना
आकाओं की दम पर उनको है पलना
किसी की रोटी से डाह करें
यह भला हमें कहां आता
देख रहे हैं उनके चेहरों पर खौफ
हिट होकर भी नहीं झाड़ पाते रोब
पिछड़े प्रदेश और छोटे शहर के हैं बाशिंद तो क्या
प्रतिभा का भी होता कोई ठिकाना क्या
तुम्हारी नकली हिट
और कमाने के राज नहीं जानते हम क्या
जेब खाली है तो क्या
लोगों से मिल रहे प्यार की भी कीमत होती क्या
तुम एक किलो का ही लिखना
हमारे छंटाक भर शब्दों का भी प्रहार देखना
अपने को फरिश्ता दिखाने के लिये
किसी शैतान का होना जरूरी है
तुमने हमें बताया
हम तुम्हें बतायेंगे
तुम समझे क्या
हमें लड़ना नहीं आता
जब खड़े थे गुलामों के बाजार में
बिकने के लिये खड़े थे
तब कोई खरीद लेता तो हम भी बिक जाते
बहुत सारे गुलामों में हम भी दिख जाते
मगर मुश्किल होगा हम कोई सौदा
हमारी सद्इच्छा को रौंदा
नहीं चाहिए तुम्हारा घरौंदा
हमें अपनी फ्लाप झौंपड़ी में ही रहना आता
बोलते बहुत हैं
पर भाषण हर कोई नहीं कर पाता
लिखने वाला हर शब्द रचना नहीं हो जाता
नहीं हैं अब कोई सहारा
आकाश में तैरेंगे जब शब्द
तब मदद नहीं कर पायेगा कोई बिचारा
आओ चलते हैं वहां
शब्दों की जंग है जहां
अपनी सभी विद्यायें
हम भी दिखलायेंगे
तुम भी आजमाना
शब्दों को फूलों की तरह सजाने की इच्छा रही है
पर तुम्हें बता देंगे
उनको हथियार की तरह हमें उपयोग करना आता
दिल नहीं मानता पर
दिमाग इसके लिये हमेशा तैयार हो जाता
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कल इस ब्लाग/पत्रिका पर विशेष संपादकीय लिखा जायेगा। जिसमें हिंदी ब्लाग जगत के बारे में प्रकाश डालने का प्रयास भी होगा।
यह आलेख ‘दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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