Tag Archives: hindi poem

काली दुनिया का खेल-हिंदी शायरी



पर्वत से निकली नदी
घर से चली नाली
नाले ने दोनों का संगम करा दिया,
पवित्र जल  पीयें या नहायें
आंखें बंद कर श्रद्धा से फूल चढ़ायें,
धर्म की धरती पर अधर्म का घर भरा दिया।
कहें दीपक बापू
कचड़े में कांति नहीं होती,
अशांत मन लेकर चलें
कभी साथ शांति नहीं होती,
उठती हैं ख्वाहिशें
सुंदर नजारे देखने के लिये
आदमी मचल जाता है,
काली दुनियां हैं उनके पीछे
खबर नहीं लेता कोई
धर्म का सौदागर छल कर जाता है।
जल गया है जल
जहरीला हो गया फल
इसलिये जिस धरा पर बैठे हो
वहीं ध्यान कर
ज्ञान में स्नान कर
कर अपने पर विश्वास
कर दे अपने से दूर उस ख्वाब को
जिसने ज़माने को डरा दिया है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
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सेवा का व्रत और मेवा-हिंदी व्यंग्य कविताएँ



सेवा का व्रत उन्होंने उठाया है,
मेवा में पद मिलेगा
किसी ने उनको सुझाया है।
गरीबों की मदद
मजदूरों को मेहनताना
और बीमार को इलाज दिलाने के लिये
वह समाज सेवा करने में जुट गये है,
रहने के लिये महल
बैठने के लिये कुर्सी
उड़ने क्रे लिये विमान
उनकी पहली जरूरत बन गये है
लाचार तक पहुंचने के लिये
बन गयी उनकी पहली जरूरत
कई साहुकार बन गये मदद पाने के लिये लाचार
सेवक बने स्वामियों की मदद में
उनके खजाने लुट गये हैं।
………………………………………

अपने सपनों का पूरा होने का बोझ
दूसरों के कंधों पर वह टिकाते हैं,
पूरे होने पर अपनी कामयाबी पर
अपनी ही ताकत दिखाते हैं।
कहें दीपक बापू
मेहनत और अक्ल का
इस्तेमाल करने का सलीका नहीं जिनको
वही दूसरों को अपनी जरूरतों के वास्ते
पहले सर्वशक्तिमान से याचना
फिर पूरी होने पर
ज़माने के सामने इतराना सिखाते हैं।

——————————-
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा
ग्वालियर मध्य प्रदेश
लेखक एवं कवि- दीपक राज कुकरेजा,‘‘भारतदीप’’,
ग्वालियर, मध्यप्रदेश

 

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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यह मुमकिन नहीं है-हिन्दी शायरी (yah mumkin hain hai-hindi shayari)


जोश का समंदर दिल में पैदा कर लो।
बहते जाओ नाव की तरह
तेज चलती हवाऐं
उठती हुई ऊंची लहरें
तुम्हें डुबा नहीं सकती
अपने अंदर
मंजिल तक पहुंचने का हौंसला भर लो।
——
टूटे लोग
तुम्हारे हौंसलें को जोड़े
यह मुमकिन नहीं हैं,
अपनी इज्जत को तरसा जमाना
बस जानता है पैसा कमाना,
तुम्हारे काम पर कभी दाद देगा
यह मुमकिन नहीं है।
———–
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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गरीबी और उपवास-हिन्दी हास्य कविता (garibi aur upavas-hindi hasya kavita)


पोते ने पूछा दादाजी से
‘‘दादाजी आप यह बताओ
बड़े बड़े लोग उपवास क्यों रखते हैं,
छक कर खाते मलाई और मक्खन
फिर भी क्यों भूख का स्वाद चखते हैं।
दादाजी ने कहा
‘‘बेटा,
गरीबों का दिल जीतने के लिये
बड़े लोग उपवास इसलिये करते हैं
क्योंकि उनकी भूख शांत करने के लिये
रोटियां बांटने का जिम्मा लेकर मिली कमीशन से
अपनी तिजोरी भी वही भरते हैं,
देख लेना 32 रुपये खर्च करने वाला
अब गरीब नहीं माना जायेगा,
फिर भी गरीबों की संख्या
आंकड़ों में बढ़ती दिखेगी,
बड़ों की कलम मदद की रकम भी बड़ी लिखेगी,
उनको गरीबों से हमदर्दी नहीं है
फिर भी अपनी शौहरत और दौलत
बढ़ाने के लिये
वह गरीबी हटाने की योजना हमेशा साथ रखते हैं।
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पहाड़ से टूटे पत्थर-हिन्दी व्यंग्य कविता


पहाड़ से टूटा पत्थर
दो टुकड़े हो गया,
एक सजा मंदिर में भगवान बनकर
दूसरा इमारत में लगकर
गुमनामी में खो गया।
बात किस्मत की करें या हालातों की
इंसानों का अपना नजरिया ही
उनका अखिरी सच हो गया।
जिस अन्न से बुझती पेट की
उसकी कद्र कौन करता है
रोटियां मिलने के बाद,
गले की प्यास बुझने पर
कौन करता पानी को याद,
जिसके मुकुट पहनने से
कट जाती है गरदन
उसी सोने के पीछे इंसान
पागलों सा दीवाना हो गया।
अपने ख्यालों की दुनियां में
चलते चलते हर शख्स
भीड़ में यूं ही अकेला हो गया।
———–
कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
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समाज कल्याण और तिजोरी का नाप-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


देश के पहरेदारों को
अपने ही घर में गोलियां लगने का
जश्न उन्होंने मनाया,
इस तरह गरीब के हाथों गरीब के कत्ल कों
पूंजीवाद के खिलाफ जंग बताया।
बिकती है कलम अब पूंजीपतियों के हाथ
बड़ी बेशर्मी से,
धार्मिक इंसान को धर्मांध लिखें,
तरक्की के रास्ते का पता लिखवाते अधर्मी से,
गरीबों और मज़दूरों के भले का नारा लगाते
पहुंचे प्रसिद्धि के शिखर पर ऐसे बुद्धिमान
जिन्होंने कभी पसीने की खुशब को समझ नहीं पाया,
भले ही दौलतमंदों के कौड़ियों में
उनकी कलम खरीदकर
समाज कल्याण के नारे लगाते हुए
अपनी तिजोरी का नाप बढ़ाया।
———–
अब नहीं आती उनकी बेदर्दी पर
हमें भी शर्म,
क्योंकि बिके हुए हैं सभी बाज़ार में
चलेंगे वही रास्ता
जिस पर चलने की कीमत उन्होंने पाई।
आजादी के लिये जूझने का
हमेशा स्वांग करते रहेंगे,
विदेशी ख्यालों को लेकर
देश के बदलाव लाने के नारे गढ़ते रहेंगे
क्योंकि गुलाम मानसिकता से मुक्ति
कभी उन्होंने नहीं पाई।
————-

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चमक रहा है वही इंसान-हिन्दी शायरी


अपराध की कामयाबी से
तभी आदमी तक डोलता है
जब तक वह सिर चढ़कर नहीं बोलता है।
यह कहना ठीक लगता है कि
जमाना खराब है,
चमक रहा है वही इंसान
जिसके पास शराब और शबाव है,
मगर यह सच भी है कि
सभी लोग नहीं डूबे पाप के समंदर में,
शैतान नहीं है सभी दिलों में अंदर में,
भले इंसान के दिमाग में भी
ख्याल आता है उसूल तोड़ने का
पर कसूर की सजा कभी न कभी मिलती है जरूर
भला इंसान इस सच से अपनी जिंदगी तोलता है।
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विकास दर-मजदूर दिवस पर व्यंग्य कविता


चार मजदूर
रास्ते में ठेले पर सरिया लादे
गरमी की दोपहर
तेज धूप में चले जा रहे थे,
पसीने से नहा रहे थे।
ठेले पर नहीं थी पानी से भरी
कोई बोतल
याद आये मुझे अपने पुराने दिन
पर तब इतनी गर्मी नहीं हुआ करती थी
मेरी देह भी इसी तरह
धूप में जलती थी
पर फिर ख्याल आया
देश की बढ़ती विकास दर का
जिसकी खबर अखबार में पढ़ी थी,
जो शायद प्रचार के लिये जड़ी थी,
और अपने पसीने की बूंदों से नहाए
वह मजदूर अपने पैदों तले रौंदे जा रहे थे

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यकीन अब नहीं होता-हिन्दी शायरी


अपने को नायक दिखाने के लिये
उन्होंने बहुत सारे जुटा लिये
किराये पर खलनायक,
अपने गीत गंवाने के लिये
खरीद लिये हैं गायक।
यकीन अब उन पर नहीं होता
जो जमाने का खैरख्वाह
होने का दावा करते हैं
अपनी ताकत दिखाने के लिये
बनते हैं मुसीबतों को लाने में वही सहायक।
——————–
धोखे, चाल और बेईमानी का
अपने दिमाग में लिये
बढ़ा रहे हैं वह अपना हर कदम,
अपनी जुबान से निकले लफ्ज़ों
और आंखों के इशारो से
जमाने का भला करने का पैदा कर रहे वहम।
भले वह सोचते हों मूर्ख लोगों को
पर हम तोलने में लगे हैं यह कि
कौन होगा उनमें से बुरा कम,
किसे लूटने दें खजाना
कौन पूरा लूटेगा
कौन कुछ छोड़ने के लिये
कम लगायेगा दम।
———-

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खुद नाकाम, दूसरों को कामयाबी का पाठ पढ़ा रहे हैं-हिन्दी हास्य कवितायें


अपने अपने मसलों पर
चर्चा के लिये उन्होंने बैठक बुलाई,
सभी ने अपनी अपनी कथा सुनाई।
निर्णय लेने पर हुआ झगड़ा
पर तब सुलह हो गयी,
जब नाश्ते पर आने के लिये
आयोजक ने अपनी घोषणा सुनाई।
———
खुद रहे जो जिंदगी में नाकाम
दूसरों को कामयाबी का
पाठ पढ़ा रहे हैं।
सभी को देते सलीके से काम करने की सलाह,
हर कोई कर रहा है वाह वाह,
इसलिये कागज पर दिखता है विकास,
पर अक्ल का हो गया विनाश,
एक दूसरे का मुंह ताक रहे सभी
काम करने के लिये
जो करने निकले कोई
उसकी टांग में टांग अड़ा रहे हैं।
ऐसे कर
वैसे कर
सभी समझा रहे हैं।
——–
अपने अपने मसलों पर
चर्चा के लिये उन्होंने बैठक बुलाई,
सभी ने अपनी अपनी कथा सुनाई।
निर्णय लेने पर हुआ झगड़ा
पर तब सुलह हो गयी,
जब नाश्ते पर आने के लिये
आयोजक ने अपनी घोषणा सुनाई।
———
तंग सोच के लोग
करते हैं नये जमाने की बात,
बाहर बहती हवाओं को
अपने घर के अंदर आने से रोकते,
नये ख्यालों पर बेबात टोकते,
ख्यालों के खेल में
कर रहे केवल एक दूसरे की शह और मात।
—————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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लगा कर आग शांति के लिये कर रहे हैं जंग-हिंदी व्यंग्य कविताएँ/हिन्दी शायरी


उनकी नज़रों मे आते हैं हमेशा
तलवारें चलने के मंजर
जुबां से
गरीबों और बेसहारों पर
जमाने के दिये घावों का
बयां किये जा रहे हैं।

हर जगह बेसहारों के लिये
हमदर्दी दिखाते हैं,
अमन के लिये जंग करना सिखाते हैं,
अपने हाथ में लिये छुरा कर लिया है
उन्होंने पीठ पीछे
जहां में तसल्ली लाने के लिये
सादगी से वार किये जा रहे हैं।
————
वह लोगों के दिल में लगा कर आग
शांति के लिये कर रहे हैं जंग,
गरीब की भलाई का ख्वाब दिखाते
अमीरों के करके रास्ते तंग।
दान लेने से ज्यादा स्वाभिमान
उनको लूटने में लगता है,
जिंदा लोगों से कुछ नहीं सीखते
मरों की याद में उनका ख्याल पकता है,
एक बेहतर ढांचा बनाने की सोच लिये,
उन्होंने कई शहर फूंक दिये,
भूखे के लिये रोटी पकाने के बहाने
शहीदों की चिता पर मेले लगाने का
उनका अपना है ढंग।
यह अलग बात है कि
गरीबों पर नहीं चढ़ता उनका रंग।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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चाबुक बरसा रहे हैं-हिन्दी शायरी


हर तरफ घूम रहे
हाथ में खंजर लिये लोग
किसी से हमदर्दी का उम्मीद करना
बेकार है
पहले कोई किसी के पीठ में
घौंपकर आयेगा,
फिर अपनी पीठ को बचायेगा।
भला कब किसी को
दर्द सहलाने का समय मिल पायेगा।
———-
दौलत, शौहरत और ताकत के
घोड़े पर सवार लोग
गिरोहबंद हो गये हैं।
हवा के एक झौंके से
सब कुछ छिन जाने का खौफ
उनके दिल में इस कदर है कि
आंखों से हमेशा उनके खून टपकता है,
आम आदमी की पीठ पर
हर पल बरसा रहे चाबुक
फिर भी वह कांटे की तरह
आंखों में खटकता है,
समाज की हालातों पर
सच लिखने वाले शब्द मंद हो गये हैं।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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गुलामी का ताला-हिंदी हास्य व्यंग्य कविता(gulami ka tala-hindi comic poem)


एक बार कोई नारा लगाकर

शिखर पर चढ़ गये

ऐसे इंसान बुत की तरह

पत्थर में तस्वीर बनकर जड़ गये।

नीचे गिरने का खौफ उनको

हमेशा सताता है,

बचने के लिये

बस, वही नारा लगाना आता है,

दशकों तक वह खड़े रहेंगे,

उनके बाद उनके वंशज भी

उसी राह पर चलेंगे,

करते हैं अक्लमंद भी हर बार

उनकी चर्चा,

क्योंकि नहीं होता अक्ल का खर्चा,

करोड़ों शब्द स्याही से

कागज पर सजाये गये,

पर्द पर भी हर बार नये दृश्य रचाये गये,

कहें दीपक बापू

जमाने भर में कई विषयों पर

चल रही बहस खत्म नहीं होगी,

नारे पर न चलें तो कहलायें विरक्त योगी,

चले तो खुद को ही लगें रोगी,

भारत छोड़ते छोड़ते अंग्रेजों ने

कुछ इंसान बुतों के रूप में छोड़े,

जिन्होंने अपनी जिंदगी में बस नारे जोड़े,

तो अकलमंदों की भी चिंतन क्षमता हर गये

इसलिये देश खड़ा है

बरसों से पुराने मुद्दों पर अटका

अपने ही आदर्श से भटका

सच कहते हैं ज्ञानी

देश की अकल  पर अंग्रेज गुलामी का ताला भी जड़ गये।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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पसीने के आगे खिताब बौने-हिन्दी शायरी (paseena aur khitab-hindi shayri)


चिल्लाने वाले सिरफिरों को

उस्ताद के खिताब मिलने लगे हैं,

दूसरों के इशारों पर नाचने वाले पुतलों में

लोगों को अदाकारी के अहसास दिखने लगे हैं।

बेच खाया जिन्होंने मेहनतकशों का इनाम

दरियादिली के नकाब के वही पीछे छिपने लगे हैं।

औकात नहीं थी जिनकी जमाने के सामने आने की,

जो करते हमेशा कोशिश, अपने पाप सभी से छिपाने की,

खिताबों की बाजार में,  ग्राहक की तरह मिलने लगे हैं।

जिन्होंने पाया है सर्वशक्तिमान से सच का नूर,

अंधेरों को छिपाती रौशन महफिलों से रहते हैं दूर,

दुनियां के दर्द को भी अब हंसी में लिखने लगे हैं।

सच में किया जिन्होंने पसीने से दुनियां को रौशन

सारे खिताब उनके आगे अब बौने दिखने लगे हैं।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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गरीबी महफिल में खूब फबती-हिन्दी शायरी (garibi aur mahfil-hindi shayri)


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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——————–
वफा हम सभी से निभाते रहे

क्योंकि गद्दारी का नफा पता न था।

सोचते थे लोग तारीफ करेंगे हमारी

लिखेंगे अल्हड़ों में नाम, पता न था।

——

राहगीरों को दी हमेशा सिर पर छांव

जब तक पेड़ उस सड़क पर खड़ा था।

लोहे के काफिलों के लिये कम पड़ा रास्ता

कट गया, अब पत्थर का होटल खड़ा था।

——-

जुल्म, भूख और बेरहमी कभी

इस जहां से खत्म नहीं हो सकती।

उनसे लड़ने के नारे सुनना अच्छा लगता है

गरीबी बुरी, पर महफिल में खूब फबती।

——–

हमारे शब्दों को उन्होंने अपना बनाया

बस, अपना नाम ही उनके साथ सजा लिया।

उनकी कलम में स्याही कम रही हमेशा

इसलिये उससे केवल दस्तखत का काम किया।

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