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दौलत की भूख मिटाना मुश्किल-हास्य व्यंग्य कवितायें (daulat ki bhookh-hasya vyangya kavitaen)


गरजने वाले बरसते नहीं,
काम करने वाले कहते नहीं,
फिर क्यों यकीन करते हैं वादा करने वालों का
को कभी उनको पूरा करते नहीं।
———
जिनकी दौलत की भूख को
सर्वशक्तिमान भी नहीं मिटा सकता,
लोगों के भले का जिम्मा
वही लोग लेते हैं,
भूखे की रोटी पके कहां से
वह पहले ही आटा और आग को
कमीशन में बदल लेते हैं।
——–

अपने हाथों ही अपने भविष्य का ठेका
अंधों को दे दिया
अब रोते क्यों हो,
रौशनी बेचकर
अपनी आंखों से
अपनी तिजोरी में बढ़ती हरियाली देखकर
वह खुश हो रहे हैं,
आंसु बहाने से अच्छा है
तुम सोचो जरा
दंड मिले खुद को
ऐसे अपराध इस धरती पर बोते क्यों हो।
————–
उनके काम पर उंगली न उठाओ,
अपने हाथ से
सारे हक तुमने उनको दिये हैं,
कुदरत ने दिये थे जो तोहफे तुमको
उनका इस्तेमाल तुमने बेजा किया
जैसे मुफ्त में लिये हैं।
कुछ वादों को झूठ में देकर
दूसरों से हक लेकर
वह लोग अपने पेट भरते नहीं थकते
क्योंकि उसे भरने के लिये ही
वह दूसरों के लिये जिए हैं।
———–

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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सबसे अधिक कायर लोग नायक बनाये जाते हैं-हिन्दी हास्य व्यंग्य कवितायें


कायरों की सेना क्या युद्ध लड़ेगी
सबसे अधिक कायर लोग नायक बनाये जाते हैं।
कुछ खो जाने के भय से सहमे खड़े है
भीड़ में भेड़ों की तरह लोग,
चिंता है कि छिन न जायें
तोहफे में मिले मुफ्त के भोग,
इसलिये लुटेरे पहरेदार बनाये जाते हैं।
————
अब तो पत्थर भी तराश कर
हीरे बनाये जाते हैं,
पर्दे पर चल रहे खेल में
कैमरे की तेज रोशनी में
बुरे चेहरे भी सुंदरता से सजाये जाते हैं।
ख्वाब और सपनों के खेल को
कभी हकीकत न समझना,
खूबसूरत लफ्ज़ों की बुरी नीयत पर न बहलना,
पर्दे सजे है अब घर घर में
उनके पीछे झांकना भी मुश्किल है
क्योंकि दृश्य हवाओं से पहुंचाये जाते हैं।
————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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बाज़ार के हरफनमौला-हिन्दी हास्य कविताएँ/शायरियां


बाजार के खेल में चालाकियों के हुनर में
माहिर खिलाड़ी
आजकल फरिश्ते कहलाते हैं।
अब होनहार घुड़सवार होने का प्रमाण
दौड़ में जीत से नहीं मिलता,
दर्शकों की तालियों से अब
किसी का दिल नहीं खिलता,
दौलतमंदों के इशारे पर
अपनी चालाकी से
हार जीत तय करने के फन में माहिर
कलाकार ही हरफनमौला कहलाते हैं।
———-
काम करने के हुनर से ज्यादा
चाटुकारिता के फन में उस्ताद होना अच्छा है,
अपनी पसीने से रोटी जुटाना कठिन लगे तो
दौलतमंदों के दोस्त बनकर
उनको ठगना भी अच्छा है।
अपनी रूह को मारना इतना आसान नहीं है
इसलिये उसकी आवाज को
अनसुना करना भी अच्छा है।
किस किस फन को सीख कर जिंदगी काटोगे
नाम का ‘हरफनमौला’ होना ही अच्छा है।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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धर्म का बाज़ार सजाने की कोशिश-हिन्दी आलेख (dharma ka bazar-hindi lekh)


धार्मिक सत्संगों का आयोजन कोई सरल और सस्ता काम नहीं है। प्रबंधन एक कला है और जिस आदमी को कोई आर्थिक व्यवसाय करना हो तो केवल उसे संबंधित क्षेत्र की जानकारी के साथ प्रबंध का ज्ञान होना चाहिए तो वह अच्छा काम कर लेता है पर अगर प्रबंध क्षमता का सत्संग में प्रयोग करना हो तो उसके लिये कुछ अध्यात्मिक ज्ञान के साथ धार्मिक दिखना भी जरूरी है। अपने यहां सत्संग भी एक व्यवसाय है और धर्म प्रेमी धनिकों में मौजूद देवत्व की आराधना कर उसने धन प्राप्त करना कोई इतना सरल काम नहीं होता जितना अन्य व्यवसायों में लगता है। अन्य व्यवसायों में प्रबंधक स्वयं भी पूंजी लगा सकता है पर सत्संग के आयोजन में कोई ऐसा जोखिम नहीं उठाता क्योंकि उसमें केवल किताबें या मूर्तियां ही नहीं बेचना होता बल्कि एक अदद संत भी रखना पड़ता है।
विदेश में कहीं किसी धार्मिक कार्यक्रम का टीवी पर सीधा प्रसारण हो रहा था। आमतौर से धार्मिक विषयों पर व्यंग्य नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा कर आप अपनी कुंठाओं का परिचय देते भी लग सकते हैं, पर ऐसे कार्यक्रमों में कुछ ऐसी गतिविधियां भी होती हैं जो वहां मौजूद लोगों को भी हंसाती हैं भले ही वह उस समय कहते न हों। उस धार्मिक कार्यक्रम में कुछ बुद्धिजीवियों के भाषण हुए तो संतों ने भी प्रवचन दिये। उच्च वर्ग के धार्मिक लोगों के माध्यम से सी.डी. आदि का विमोचन करवाकर उनकी भी धार्मिक भावनाओं को तृप्त किया गया-अपने देश में खास भक्त कहलाने पर बड़े लोगों को शायद एक अजीब अनुभूति होती है।
भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के प्रयास के रूप में हो रहे उसे कार्यक्रम को टीवी पर देखकर अनेक ऐसी बातें मन में आयीं जो सब की सब यहां लिखना कठिन है। कार्यक्रम का अधिकतर भाग किसी माननीय संत की प्रशंसा में गुजरा। वहां दो संतों की मूर्तियां भी रखी गयी थीं जिन पर बड़े लोग मंच पर आकर प्रणाम करते और फिर अपना व्याख्यान देते।
इन मूर्तियों को देखकर लगता था कि वह संत ही केवल भारतीय अध्यात्म के आधार हैं। हां, वह पर सर्वशक्तिमान के भारतीय स्वरूपों में प्रचलित नामों का उल्लेख हुआ पर उनकी मूर्तियां वहां न देखकर एक खालीपन लगा। एक बात यहां बता दें कि भगवान श्रीराम, कृष्ण या शिव जी की मूर्तियां जरूर हम लोग देखते हैं पर वह हमारे अंदर निरंकार के रूप में स्वाभाविक रूप से विराजमान रहते हैं। दूसरी बात यह है कि यह मूर्तियां पत्थर, धातु या लकड़ी की बनती हैं पर उनके अस्तित्व का आभास ही हमें शक्ति देता है। संतों की मूर्तियां रखना गलत नहीं है पर ऐसी जगह पर सर्वशक्तिमान की मूर्ति न होना इस बात का प्रमाण है कि वह सत्संग अधूरा है। दूसरी बात यह है कि देहधारी संत चाहे कितने भी माननीय हों पर उनकी मूर्तियों में कहीं न कहीं उनकी मृत्यु की अनुभूति है इसलिये उनसे आम भारतीय अधिक लगाव हृदय में धारण नहीं कर पाता। भारतीय अध्यात्म का आधार यही है कि आत्मा कभी नहीं मरता और देह नश्वर है। इसलिये जिसमें देह का आभास है वह मूर्तियां भारतीय भक्त को नागवार लगती हैं। भगवान श्री राम, श्रीकृष्ण और श्री शिवजी के साथ अन्य देवताओं की मूर्तियों में ऐसा आभास नहीं होता। दरअसल यह प्रतिमायें पूजना इसलिये भी गलत है कि हम दूसरी विचारधाराओं के ऐसे ही कदम की आलोचना करते हैं। इधर यह भी देखने में आ रहा है कि हमारे पूज्यनीय संतों की समाधियां पूजी जा रही हैं। यह परब्रह्म से परे रखने का प्रयास भर है ताकि लोग मायावी दुनियां में ही घूमते रहें। ऐसे कथित ज्ञान लोग नाम तो सर्वशक्तिमान के रूपों का लेते हैं पर सामने अपना चेहरा लगा लेते हैं-यह धार्मिक भावनाओं का एक तरह से दोहन है।
संत कबीर एक महान संत कवि हुए हैं मगर उनकी मूर्ति रखकर पूजा करने का आशय यही है कि आप उनको समझे ही नहीं। जो गुरु तत्व ज्ञान देगा और उसका शिष्य ब्रह्म तत्व को समझ जायेगा तो स्वयं ही गुरु का मानेगा। यह बात श्रीमद्भागवत गीता भी कहती है और संत कबीर उसकी पुष्टि भी करते हैं। गुरु का दायित्व है कि वह शिष्य को गोविंद दिखाये-इससे यूं भी कह सकते हैं कि सत्गुरु से मिलाये। मगर आजकल के नये गुरु गोविंद के नाम पर अपना चेहरा लगा लेते हैं और स्वयं को ही सत्गुरु की तरह स्थापित करने का उनका प्रयास रहता है।
हम यहां उन माननीय गुरुओं की आलोचना नहीं कर रहे जिनकी तस्वीरें वहां रखी थीं। यकीनन उन लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान ग्रहण कर इतने सारे लोगों का सुनाया होगा। अब उनके बाद के शिष्यगण उनकी मूर्तियां लगाकर अपना सत्संग व्यवसाय चला रहे होंगे। केवल यही प्रसंग नहीं है बल्कि कई ऐसे अन्य उदाहरण भी है जिसमें तत्व ज्ञान का उपदेश करने वाले संत इस संसार से दैहिक रूप से क्या विदा होते हैं उनके चेहरे पत्थरों में सजाकर उनकी पूजा की जाती है। उनकी कर्मस्थली में जहां कभी सर्वशक्तिमान की मूर्तियां की आराधना करते हैं उनके जाते ही उनका महत्व कम प्रचारित होता है और संतों को सत्गुरु की जगह दी जाती है। कुछ लोगों ने संत शिरोमणि कबीरदास जी की मूर्तियां भी बनवाई हैं जबकि भारतीय अध्यात्मिक का वह एक ऐसा प्रकाशमान पुंज थे जो अपन रचनाओें से हमेशा ही भारतीय जनमानस में रहेंगे। उनकी मूर्तियां बनवाना ही उनके पथ से अलग हटना है। ऐसा अनेक संतों के शिष्य कर रहे हैं।
आखिरी मजेदार बात यह रही कि उसी कार्यक्रम में घोषणा की जा रही थी कि कार्यक्रम की कैसिटें और सर्वशक्तिमान की मूर्तियां आज ही यहां दरों में बीस प्रतिशत कटौती पर मिलेंगी। कैसिटें आज कम हैं इसलिये आज आर्डर दें तो कम दर पर भेजी जायेंगी।
यह बात हंसी पैदा करने वाली थी साथ ही यह संदेश भेजने वाली थी कि इसमें कोई व्यवसाय है। यह धर्म के नाम पर लगी सेल अचंभित करने वाली थी। अब इससे एक ही बात लगती है कि संतों के वर्तमान उतराधिकारी और प्रबंधक शिष्य आम आदमी के बारे में यह धारणा रखते हैं कि वह भक्त होने के कारण वह इसे बुरा नहीं समझते या फिर ऐसी अपेक्षा करते हैं कि पुराने मनीषियों की बात मानते हुए भक्तों को अपने गुरुओं को में दोष नहीं देखना चाहिये और हम तो गुरु हैं चाहे जो करें।’
हम भी गुरुओं की आलोचना के खिलाफ हैं पर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में यह वर्णित है कि पहले सत्य को समझो और देखभाल के गुरु बनाओ। दूसरों में दोष मत देखो पर दुर्जन का साथ भी न करो। सीधा आशय यही है कि कहीं न कहीं अपनी अक्ल का इस्तेमाल करो-यही भारतीय अध्यात्मिक संदेशों का आधार है। बहरहाल धर्म के नाम यह यह सेल लगाना ठीक नहीं है पर लगती भी है तो चिंतित होने वाली बात नहीं है। अपना तो एक ही काम है कि जहां भी समय मिले अच्छी बात सुनो उसक मंथन करो। जो अच्छा लगे उसे ग्रहण करो और जो बुरा, उसे भुला दो।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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यह कैसी चरित्र चर्चा-आलेख (discussion on corector-hindi article)


ज्यादा देखने से फायदा भी क्या था? जितना देखा उससे ही समझना काफी था। एक चेहरा निढाल पड़ा हुआ है कोई नारी या नारियां बार बार अपना चेहरा उसके पास ले जाती हैं। वह एक सनसनीखेज खबर है। 86 वर्ष के बुजुर्ग राजनीतिज्ञ पर यौन प्रकरण (sex scandle) का आरोप दर्ज करती वह खबर उसके नायक नायिका (या नायिकायें) की क्रियाओं का दृश्य प्रस्तुत करती है। जिस पर आरोप है उसका चेहरा निढाल पड़ा हुआ है। उसकी कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही। अंतर्जाल पर इससे अधिक नहीं दिख रहा। वैसे तो समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में उस बुजुर्ग नायक के साथ तीन पायजामें और तीन नायिकाओं का भी जिक्र है पर जो अंतर्जाल पर देखा उससे तो लगता है कि जो टीवी चैनल बुजुर्ग नायक की कथित ‘रंगीन मिजाजी का रहस्योद्घाटन करने का दावा कर रहा है उसके बाकी अंश भी कुछ ऐसे ही प्रश्नवाचक चिन्ह लिये खड़े मिलेंगे।
एक आम आदमी की राजनीति में कभी सक्रिय भूमिका नहीं होती सिवाय कि वह उससे संबंधित घटनाओं को पढ़े और विचार करे। इतिहास गवाह है कि राजनीति का क्षेत्र बहुत ही अविश्वसनीय और अनिश्चित है। राज्य कर्ता अच्छा है या बुरा यह इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना कि वह अपने विरोधियों से सतर्क कितना रहता है और यही बात उसे कार्यकुशलता का प्रमाण देती है।
राजनीति में सत्ता के लिये षड्यंत्र सदियों से चल रहे हैं और आगे भी जारी रहेंगे। सच तो यह है कि दैहिक लोभ का चरम ही है राज्य करने की भावना और इसमें अध्यात्मिक या धर्म की बात एक तरफ उठाकर रखनी पड़ती है। राजनीति इतनी विकट है कि इसमें माता और पुत्र जैसा रिश्ता भी अविश्वसनीय हो जाता है ऐसे में बाकी रिश्तों का महत्व देखना या सोचना बेकार है। यह अलग बात है कि कुछ लोग राजकाज से जुड़े होने पर भी धर्म, अध्यात्मिक तथा समाज का विचार करते हैं-ऐसे लोग धन्य हैं और ऐसा नहीं है कि इतिहास कोई उनको महत्व नहीं देता। इसके बावजूद यह सत्य है कि इतिहास में श्रेष्ठ राजाओं की गिनती अधिक नहीं मिलती बल्कि अधिकतर षड़यंत्रों का शिकार बनते हैं या फिर किसी का शिकार कर स्वयं राजा बनते रहे हैं।
वैसे आजकल की वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीधे राजकाल से जुड़े न होने पर भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें रहकर उस पर नियंत्रण किया जा सकता है। यह क्षेत्र है धर्म का। धर्म के क्षेत्र में भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अपनी पूज्यनीयता के आधार पर राजकाज पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण करते हैं। यही कारण है कि वहां भी ऐसी उठापठक होती रहती है जैसे कि राज्य जीतने का युद्ध हो।
प्रसंगवश भारत के ही एक 80 वर्षीय संत पर विदेश में ही यौन प्रकरण का ऐसा आरोप लगा था। यह आरोप इतना गंभीर था कि इसके विवाद की आग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई दी और उस देश ने उसके निपटारे तक उन संत भारत लौटने पर रोक लगा दी। हालांकि कहा यह गया कि संत अपनी इच्छा से उस विवाद के निपटारे तक वह देश नहीं छोड़ेंगे। आप देखिये उस देश की सरकार ने भी इसका खंडन नहीं किया। इससे यह साफ लगा कि कहीं न कहीं धर्म का राजनीति से कोई अप्रत्यक्ष प्रगाढ़ रिश्ता है। बाद में वह उस आरोप से बरी हो गये। सच बात तो यह है कि श्रीमद्भागवत पर प्रवचन करने वाले उस संत का प्रवचन इस लेखक को भी बहुत अच्छा लगता है। अगर आप श्रीगीता का सूक्ष्म पूर्वक अध्ययन करेंगे तो ऐसे यौन प्रकरण आपको विचार के विषय नहीं लगेंगे। संभव है कि अगर आप अल्पज्ञानी हों तो ऐसे प्रकरण में लिप्त हो जायें पर ज्ञानी हों तो फिर उससे दूर रहेंगे।
एक अध्यात्मिक लेखक के रूप में इस घटना को लेकर कोई क्षोभ या प्रसन्नता नहीं है। याद रखिये कि किसी बड़े आदमी पर कीचड़ उछलने से कुछ लोग प्रसन्न भी होते हैं पर यह उनके अज्ञान और कुंठा का परिणाम होता है।
इसके बावजूद राजनीति का समाज पर प्रभाव होता है तब उसे देखना जरूरी होता है। अब इस प्रकरण की तरफ देखें। एक निढाल चेहरा जिस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं है? प्रश्न आता है कि वह रंगीन मिजाजी कब कर रहा होगा?
बुजुर्ग के समर्थक कहते हैं कि ‘यह एक षड्यंत्र है!’
हो सकता है कि उनका कहना सही हो? पर एक राजनेता को हमेशा सतर्क रहना चाहिये। वह अगर सतर्क नहीं रहे तो फिर उनकी योग्यता पर भी प्रश्न उठता है न!
उनके एक समर्थक कहना है कि वह बुजुर्ग राजनेता एकदम लाचार हैं। यहां तक कि दीप प्रज्जवलित करने के लिये उनको किसी की सहायता चाहिए।
सवाल यह है कि क्या बड़े पदों पर शारीरिक रूप से लाचार लोगों की नियुक्ति होना चाहिए। जिस तबियत का बहाना कर उन्होंने अब इस्तीफा दिया वह पहले क्यों नहीं किया? राजनीति का क्षेत्र लोगों की सेवा करने के लिये या करवाने के लिये? राजनीति में शासन के द्वारा जलकल्याण करने आये हैं या उपभोग कर सेवा पाने।
समर्थकों का यह कहना है सही है कि जहां यह फिल्म बनायी गयी है वह उस स्थान की सुरक्षा तथा कानून से जुड़े अनेक पहलुओं को चुनौती देती है जो कि एक चिंता का विषय है। यौन प्रकरण को गंभीर बनाने के लिये इससे गरीबी और नौकरी जैसे विषय भी जोड़े गये हैं ताकि आम लोगों के तटस्थ रहने की गुंजायश कर रहे।
यह लेखक अंतर्जाल पर वह सब देखने का प्रयास नहीं करता अगर अंतर्जाल लेखकों ने ही बहुत सादगी (?) से आंध्रप्रदेश, तेलगु और यू ट्यूब का उल्लेख नहीं किया होता। यह भी एक तरीका होता है कि आप किसी को लोकप्रिय बनाना चाहें तो उसकी आलोचना कीजिये। है न चालाकी! आप बताईये कि वहां बुरी चीज है! लोग अपने आप जायेंगे और आपका काम भी हो जायेगा।
प्रसंगवश बुजुर्ग के समर्थकों का दावा है कि ‘वह पहले भी ऐसे हमलों से उबरते रहे हैं और अब भी उबर आयेंगे।’
मतलब यह कि उन बुजुर्ग सज्जन का इतिहास भी उनका पीछा कर रहा है। बुजुर्ग महोदय के विरोधियों ने भी इसका पहले इंतजाम कर लिख दिया कि ‘हो सकता है कि यह सभी प्रायोजित हो। वह बुजुर्ग राष्ट्रीय राजनीति में आने को इच्छुक हों और वहां से निकलने के लिये यह नाटक स्वयं ही रचवाया हो ताकि बाद में उसे निकलकर वाह वाही लूट सकें।’
पता नहीं सच क्या है? पर जिस तरह अंतर्जाल पर यह दो तीन फोटो दिखे उससे उन बुजुर्ग सज्जन पर किया यह शाब्दिक आक्रमण अधिक प्रभावी नहीं दिखता। हम तो एक अध्यात्मिक विचारक हैं और उनका सम्मान करेंगे पर इस मामले के कुछ पैंच हमारी समझ में आये वह लिखना जरूरी लगा।
इस बकवास में आखिरी बात यह है कि हमने युट्यूब पर ही कुछ प्रतिकियायें देखी। एक तरह से सभी छद्म नाम थे
एक प्रतिकिया देखी जिसमें भारतीय लोगों के प्रतिकूल टिप्पणी थी।
उसका जवाब भी एक छद्म नाम ‘पाकिस्तानी चुप रह’ लिख दिया।
सवाल यह है कि उस भारतीय को कैसे पता लगा कि वह पाकिस्तानी है। कहीं यह तयशुदा जंग तो नहीं थी।
एक प्रतिक्रिया यह थी कि ‘उत्तर भारतीयों को दक्षिण भारत के किसी प्रदेश में बड़े पर पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिये।’
उसका भी जवाब भी एक दूसरे ने लिखा था कि ‘यह समस्या तो विश्वव्यापी है इसलिये इसमें क्षेत्रवाद जैसी बात नहीं देखनी चाहिये।’
कहने का तात्पर्य यह है कि इस घटना के दूरगामी परिणाम होंगे। एक तमिल मित्र ने बताया था कि दक्षिण में उत्तरी लोगों के दक्षिण के लोगों पर अनाचार के अनेक किस्से किसी समय वहां प्रचलित थे। इनका प्रभाव यह था कि दक्षिण के लोगों का उत्तर के लोगों पर ही विश्वास नहीं रहता था। यह तो आजादी के बाद लोग एक दूसरे के पास आये तो अब वह बात नहीं है। उसने इस लेखक से कहा था कि ‘तुम जैसे मित्र यहां मिलते हैं यह मैं अपने रिश्तेदारों को बताता हूं तो वह हैरान रह जाते हैं।’
उस मित्र ने बताया था कि अपने शहर में बहुत समय तक लोग उससे यह पूछते थे कि‘ क्या वहां रहते हुए तुम्हें लोग परेशान तो नहीं करते?’
अब वह इस तरह के सवाल नहीं करते पर प्रचार माध्यमों को लंबे समय तक चर्चा में रहने के लिये विषय चाहिये तो संभव है वह इस पर बाल कल्याण, नारी कल्याण, संस्कृति और संस्कार के साथ जोड़कर आगे बढ़ाते रहें। संभव है कि क्षेत्रवाद के भूत को शरीर पैदा करने का प्रयास भी हो। बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं जी! आम आदमी के रूप में जितना समझें उतना ही कम हैं! वैसे धाार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में विराजमान शिखरपुरुषों ने अपने ओहदे को शासन और अपने उपभोग योग्य समझा न कि जनकल्याण तथा समाज सेवा के लिये। यही कारण है कि अब आम आदमी की सहानुभूति उनके प्रति उतनी नहीं जितना पहले थी। बल्कि आचरण को लेकर विश्वसीनयता का भाव नहीं रहा जो खास आदमी को आम आदमी में महानता की श्रेणी दिलाता है। बाकी सच क्या है? जो आयेगा वह सच भी होगा या नहीं। आजकल प्रायोजन तो सभी जगह होने लगा है न! यहां तो बस यह कहा जा सकता है कि ‘अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग।’

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नाम के मालिक-व्यंग्य हिंदी शायरी


सुंदरता अब सड़क पर नहीं

बस पर्दे पर दिखती है

जुबां की ताकत अब खून में नहीं

केवल जर्दे में दिखती है।

सौंदर्य प्रसाधन पर पड़ती

जैसे ही पसीने की बूंद

सुंदरता बह जाती,

तंबाकू का तेज घटते ही

जुबां खामोश रह जाती,

झूम रहा है वहम के नशे में सारा जहां

औरत की आंखें देखती

दौलत का तमाशा

तो आदमी की नजर बस

कृत्रिम खूबसूरती पर टिकती है।

 

—————-
हांड़मांस के बुत हैं

इंसान भी कहलाते हैं,

चेहरे तो उनके अपने ही है

पर दूसरे का मुखौटा बनकर

सामने आते हैं।

आजादी के नाम पर

उनके हाथ पांव में जंजीर नहीं है

पर अक्ल पर

दूसरे के इशारों के बंधन

दिखाई दे जाते हैं।

नाम के मालिक हैं वह गुलाम

गुलामों पर ही राज चलाये जाते हैं।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नश्वर का शोक-हिन्दी हास्य व्यंग्य (nashvar ka dukh-hindi hasya vyangya)


आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’
अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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नया सामान भी कबाड़ हो जाता है-हिंदी व्यंग्य कविता (naya saman aur kabad-hindi vyangya kavita)


सुनने और पढने वाला
जाल में फंस जाए
विज्ञापन ऐसे ही सजाये जाते हैं.
अगर उनमें सच होता तो
नहीं भर जाते घर उस कबाड़ के सामान से
जिनको खरीदा था कभी चाव से
बड़े महंगे भाव से
आये थे जो सामान नए बनकर ठेले से
वही कभी कबाड़ बनकर फिर उसमें लद जाते हैं.
———————
बाज़ार अब नगद ही नहीं
उधार पर भी चलते हैं.
चुकाते हुए रोते रहो
नहीं चुकाने पर
चीख पुकार भी मचती है
कभी उधार वाले
पहलवान बनकर गर्दन भी पकड़ते हैं.

—————————-
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————

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नापसंद लेखक, पसंदीदा आशिक-हिन्दी हास्य कविता (rejected writer-hindi hasya kavita)


आशिक ने अपनी माशुका को
इंटरनेट पर अपने को हिट दिखाने के लिये लिए
अपने ब्लाग पर
पसंद नापसंद का स्तंभ
एक तरफ लगाया।
पहले खुद ही पसंद पर किल्क कर
पाठ को ऊपर चढ़ाता था
पर हर पाठक मूंह फेर जाता था
नापसंद के विकल्प को उसने लगाया।
अपने पाठों पर फिर तो
फिकरों की बरसात होती पाया
पसंद से कोई नहीं पूछता था
पहले जिन पाठों को
नापसंद ने उनको भी ऊंचा पहुंचाया।
उसने अपने ब्लाग का दर्शन
अपनी माशुका को भी कराया।
देखते ही वह बिफरी
और बोली
‘‘यह क्या बकवाद लिखते हो
कवि कम फूहड़ अधिक दिखते हो
शर्म आयेगी अगर अब
मैंने यह ब्लाग अपनी सहेलियों को दिखाया।
हटा दो यह सब
नहीं तो भूल जाना अपने इश्क को
दुबारा अगर इसे लगाया।’’

सुनकर आशिक बोला
‘‘अरे, अपने कीबोर्ड पर
घिसते घिसते जन्म गंवाया
पर कभी इतना हिट नहीं पाया।
खुद ही पसंद बटन पर
उंगली पीट पीट कर
अपने पाठ किसी तरह चमकाये
पर पाठक उसे देखने भी नहीं आये।
इस नपसंद ने बिना कुछ किये
इतने सारे पाठक जुटाये।
तुम इस जमाने को नहीं जानती
आज की जनता गुलाम है
खास लोगों के चेहरे देखने
और उनका लिखा पढ़ने के लिये
आम आदमी को वह कुछ नहीं मानती
आम कवि जब चमकता है
दूसरा उसे देखकर बहकता है
पसंद के नाम सभी मूंह फुलाते
कोई नापसंद हो उस पर मुस्कराते
पहरे में रहते बड़े बड़े लोग
इसलिये कोई कुछ नहीं कर पाता
अपने जैसा मिल जाये कोई कवि
उस अपनी कुंठा हर कोई उतार जाता
हिट देखकर सभी ने अनदेखा किया
नापसंद देखकर उनको भी मजा आया।
ज्यादा हिट मिलें इसलिये ही
यह नापसंद चिपकाया।
अरे, हमें क्या
इंटरनेट पर हिट मिलने चाहिये
नायक को मिलता है सब
पर खलनायक भी नहीं होता खाली
यह देखना चाहिये
मैं पसंद से जो ना पा सका
नापसंद से पाया।’’

इधर माशुका ने सोचा
‘मुझे क्या करना
आजकल तो करती हैं
लड़कियां बदमाशों से इश्क
मैंने नहीं लिया यह रिस्क
इसे नापसंद देखकर
दूसरी लड़कियां डोरे नहीं डालेंगी
क्या हुआ यह नापसंद लेखक
मेरा पसंदीदा आशिक है
इसमें कुछ बुरा भी समझ में नहीं आया।’
……………………………..

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हिंदी

अमृत तो पी गए फ़रिश्ते-व्यंग्य कविताएँ (amrut aur zahar-vyangya kavitaean)


फरिश्तों ने छोड़ दिया दौलत का घर
मासूम इंसानों के लिए.
पर शैतानों ने कर लिया उस पर कब्जा,
दिखाया इंसानियत का जज्बा,
करोडों से भर रहे हैं अपने घर
पाई से जला रहे चिराग जमाने के लिए.
वह भी रखे अपने घर की देहरी पर
अपनी मालिकी जताने के लिए.
————————
जितनी चमक है उनकी शयों में
जहर उससे ज्यादा भरा है.
अमृत तो पी गए फ़रिश्ते किसी तरह बचाकर
छोड़ दिया अपने हाल पर दुनिया को
उसे पचाकर,
शैतानों ने हर शय को सजाकर,
रख दिया बाज़ार में,
कहते भले हों अमृत उसमें भरा है.
पर वह अब इस दुनिया में कहाँ धरा है.
———————–

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शब्दों की जंग और बाजार-हिंदी व्यंग्य कविता (shabdon ke jang aur bazar-hindi vyangya kavita)


झगड़ा भी एक शय है जो
बड़ा पाव की तरह बाजार में बिकती।
अमन के आदी लोगों में चैन कहां
कहीं शोर देखने की चाहत उनमें दिखती।
इसलिये लिख वह चीज जो
बाजार में बड़े दाम पर बिकती।
अठखेलियां करती कवितायें
मन भाती कहानियां और
अमन के गीत लिखना है तो
अपने दिल के सुकूल के लिये लिख
शोर से दूर एक अजूबा दिख
दुनियां में उनके चाहने वाले
गुणीजनों की अधिक नहीं गिनती।
अमन का पैगाम लिखकर क्या करेगा
जब तक उसमें शोर नहीं भरेगा
सौदागरों ने रची है तयशुदा जंग
उस पर रख अपने ख्याल
जिससे बचे बवाल
सजा दिया है उन्होंने बाजार
वहां शब्दों की जंग महंगी बिकती।
सोचता है अपना
दूसरा ही है तेरा सपना
नहीं बहना विचारों की सतही धारा में
तो तू अपना ही लिख
गहरे में डूबकर नहीं ढूंढ सके मोती
वही नकली ख्याल बहा रहे हैं
सब तरफ बवाल मचा रहे हैं
अपनी सोच की गहराई में उतर जा
कभी न कभी तेरे नाम का भी बजेगा डंका
सच्चे मोती की माला
कोई यूं ही नहीं फिंकती।
………………………………

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सच बोलना कभी कभी ठीक नहीं होता-हिन्दी व्यंग्य कविता(truth and friends-hindi poem


सच बोलना कभी कभी
ठीक नहीं लगता
कड़वा जो होता।
सोचता भी नहीं
कोई दिमाग की हलचल को
सुन न ले
दीवारों के भी कान होता।
हां, लाचार हूं
एकदम बेबस हूं
निगाहों के सामने हैं दोस्त बहुत
नजरें फेरते ही
हर कोई मेरी शिकायतें लिये
कोई दुश्मन ढूंढ रहा होता।

………………………………
ईमान का दीपक-हिंदी कविता
आजकल के जमाने में दुश्मन कम नहीं है.
किसकी सोचें, क्या और साथ गम नहीं हैं.
आसान है धोखा देना,इसलिए सब देते
वफादारी निभाने का सब में दम नहीं है.
गंदे अल्फाज़ बोलना, बन गया है रिवाज़
बोलकर दिखाते सब कि वह बेदम नहीं है.
उसूलों के दिखावे में माहिर हैं सब लोग
पैसा लूटना किसी से, अब सितम नहीं है.
उनको सलाम, रोशन करते ईमान का दीपक
जमाने को दिखाते कि सब जैसे हम नहीं है.
—————————————-

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जड़ समाज का चेतन चिंतन-हिन्दी व्यंग्य (hindi article on india & astralia)


आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री श्री केविन रूड किसी समय सफाई कर्मचारी का काम करते थे-यह जानकारी अखबार में प्रकाशित हुई देखी। अब वह प्रधानमंत्री हैं पर उन्होंने यह बात साहस के साथ स्वीकार की है। उनकी बात पढ़कर हृदय गदगद् कर उठा। एक ऐसा आदमी जिसने अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में पसीना बहाया हो और फिर शिखर पर पहुंचा हो यह आस्ट्रे्रलिया की एक सत्य कहानी है जबकि हमारे यहां केवल ऐसा फिल्मों में ही दिखाई देता है। यह आस्ट्रेलिया के समाज की चेतन प्रवृत्तियों का परिचायक है।
कभी कभी मन करता है कि हम भी ऐसी कहानी हिंदी में लिखें जिसमें नायक या नायिका अपना खून पसीना करते हुए समाज के शिखर पर जा बैठा हो पर फिर लगता है कि यह तो एक झूठ होगा। हम तो बरसों से इस देश में देख रहे हैं जड़ता का वातावरण है। अपने आसपास ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जिन्होंने जीवन भर पसीना बहाया और बुढ़ापे में भी उनका वही हाल है। उनके बच्चे भी अपना पसीना बहाकर दो जून की रोटी बड़ी मुश्किल से कमा रहे हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर देख रहे हैं। फिल्म, पत्रकारिता, धार्मिक प्रचार,संगीत समाज सेवा और अन्य आकर्षक पेशों में जो लोग चमक रहे थे आज उनकी औलादें स्थापित हो गयी हैं। पहले लोग प्रसिद्ध गुरु के नाम पर उसके उतराधिकारी शिष्य को भी गुरु मान लेते थे। अनेक लोग अपनी पहचान बनाने के लिये अपने गुरु का नाम देते थे पर आजकल अपने परिवार का नाम उपयोग करते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे हैं। समाज में परिवर्तन तो बस दिखावा भर है! यह परिवर्तन बहुत सहजता से होता है क्योंकि यहां गुरु को नहीं बल्कि को बाप को अपनी जगह छोड़नी पड़ती है।
नारा तो लगता है कि ‘गरीब को रोटी दो,मजदूर को काम दो।’ उसकी यही सीमा है। रोटी और काम देने का ठेका देने वाले अपने कमीशन वसूली के साथ समाज सेवा करते हैं। कोई गरीब या मजदूर सीधे रास्ते शिखर पर न पहुंचे इसका पक्का इंतजाम है। गरीबों और मजदूरों में कैंकड़े जैसी प्रवृत्ति पायी जाती है। वह किसी को अपने इलाके में अपने ही शिखर पर किसी अपने आदमी को नहीं बैठने दे सकते। वहां वह उसी को सहन कर सकते हैं जो इलाके, व्यवसाय या जाति के लिहाज से बाहर का आदमी हो। उनको तसल्ली होती है कि अपना आदमी ऊपर नहीं उठा। इस वजह स समाज में उसकी योग्य पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता। अगर कोई एक आदमी अपने समाज या क्षेत्र में शिखर पह पहुंच गया तो बाकी लोगों का घर में बैठना कठिन हो जायेगा न! बीबीयां कहेंगी कि देखो-‘अमुक कितना योग्य है?’
इसलिये अपने निकट के आदमी को तरक्की मत करने दो-इस सिद्धांत पर चल रहा हमारे देश का समाज जड़ता को प्राप्त हो चुका है। यह जड़ता कितना भयानक है कि जिस किसी में थोड़ी बहुत भी चेतना बची है उसे डरा देती है। फिल्मों और टीवी चैनलों के काल्पनिक पात्रों को निभाने वाले कलाकारों को असली देवता जैसा सम्मान मिल रहा है। चिल्लाने वाले पात्रों के अभिनेता वीरता की उपाधि प्राप्त कर रहे हैं। ठुमके लगाने का अभिनय करने वाली अभिनेत्रियां सर्वांग सुंदरी के सम्मान से विभूषित हैं।
उस दिन हम एक ठेले वाले से अमरूद खरीद रहे थे। वह लड़का तेजतर्रार था। सड़क से एक साधू महाराज निकल रहे थे। उस ठेले पर पानी का मटका रखा देखकर उस साधु ने उस लड़के से पूछा-‘बेटा, प्यास लगी है थोड़ा पानी पी लूं।’
लड़के ने कहा-‘थोड़ा क्या महाराज! बहुत पी लो। यह तो भगवान की देन है। पूरी प्यास मिटा लो।
साधु महाराज ने पानी पिया। फिर उससे बोले-‘यह अमरूद क्या भाव दे रहे हो। आधा किलो खुद ही छांट कर दे दो।’
लड़का बोला-‘महाराज! आप तो एक दो ऐसे ही ले लो। आपसे क्या पैसे लेना?’
साधु ने कहा-‘नहीं! हमारे पास पैसा है और उसे दिये बिना यह नहीं लेंगे। तुम तोल कर दो और हम पैसे देतेे हैं।
लड़के ने हमारे अमरूद तोलने के पहले उनका काम किया। उन साधु महाराज ने अपनी अंटी से पैसे निकाले और उसको भुगतान करते हुए दुआ दी-‘भले बच्चे हो! हमारी दुआ है तरक्की करो और बड़े आदमी बनो।’
वह लड़का बोला-‘महाराज, अब क्या तरक्की होगी। बस यही दुआ करो कि रोजी रोटी चलती रहे। अब तो बड़े आदमी के बेटे ही बड़े बनते हैं हम क्या बड़े बनेंगे?’
साधु महाराज तो चले गये पर उस लड़के को कड़वे सच का आभास था यह बात हमें देखकर आश्चर्य नहीं हुआ। इस देश में जो पसीना बहाकर रोटी कमा रहे हैं वह इस समाज का जितना सच जानते हैं और कोई नहीं जानता। वातानुकूलित कमरों और आराम कुर्सियों पर देश की चिंता करने वाले अपने बयान प्रचार माध्यमों में देकर प्रसिद्ध हो जाते हैं पर सच को वह नहीं जानते। उनके भौंपू बने कलमकार और रचनाकार भी सतही रूप से इस समाज को देखते हैं। उनकी चिंतायें समाज को उठाने तक ही सीमित हैं पर यह व्यक्तियों का समूह है और उसमें व्यक्तियों को आगे लाना है ऐसा कोई नहीं सोचता। चिंता है पर चिंतन नहीं है और चिंतन है तो योजना नहीं है और योजना है तो अमल नहीं है। जड़ता को प्राप्त यह समाज जब विदेशी समाजों को चुनौती देने की तैयारी करता है तो हंसी आती है।
अभी आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले होने पर यहां सामाजिक चिंतक और बुद्धिजीवी शोर मचा रहे थे। वह ललकार रहे थे आस्ट्रेलिया के समाज को! उस समाज को जहां एक आम मेहनतकश अपनी योग्यता से शिखर पर पहुंच सकता है। कभी अपने अंदर झांकने की कोई कोशिश न करता यह समाज आस्ट्रेलिया के चंद अपराधियों के कृत्यों को उसके पूरे समाज से जोड़ रहा था। इस जड़ समाज के बुद्धिजीवियों की बुद्धि भी जड़ हो चुकी है। वह एक दो व्याक्ति या चंद व्यक्तियों के समूहों के कृत्यों को पूरे समाज से जोड़कर देखना चाहते हैं। दुःखद घटनाओं की निंदा करने से उनका मन तब तक नहीं भरता जब तक पूरे समाज को उससे नहीं जोड़ लेते। समाज! यानि व्यक्तियों का समूह! समूह या समाज के अधिकांश व्यक्तियों का उत्थान या पतन समाज का उत्थान या पतन होता है। मगर जड़ चिंतक एक दो व्यक्तियों को उदाहरण बनाकर समाज का उत्थान या पतन दिखाते हैं।
विदेश में जाकर किसी भारतीय ने तरक्की की उससे पूरे भारतीय समाज की तरक्की नहीं माना जा सकता है। मगर यहां प्रचारित होता है। जानते हैं क्यों?
इस जड़ समाज के शिखर पर बैठे लोग और पालतू प्रचारक यहां की नयी पीढ़ी को एक तरह ये यह संदेश देते हैं कि ‘विदेश में जाकर तरक्की करो तो जाने! यहां तरक्की मत करो। यहां तरक्की नहीं हो सकती। यहां तो धरती कम है और जितनी है हमारे लिये है। तुम कहीं बाहर अपने लिये जमीन ढूंढो।’
सामाजिक संगठनों, साहित्य प्रकाशनों, फिल्मों, कला और विशारदों के समूहों में शिखर पर बैठे लोग आतंकित हैंे। वह अपनी देह से निकली पीढ़ी को वहां बिठाना चाहते हैं। इसलिये विदेश के विकास की यहां चर्चा करते हैं ताकि देश का शिखर उनके लिये बना रहे।
यहां का आम आदमी तो हमेशा शिखर पुरुषों को अपना उदाहरण मानता है। शिखर पुरुषों की जड़ बुद्धि हमेशा ही जड़ चिंतकों को सामने लाती है और वह उसी जड़ प्रवृत्ति को प्रचार करते है ताकि ‘जड़ चिंतन’ बना रहे। विकास की बात हो पर उनके आकाओं के शिखर बिगाड़ने की शर्त पर न हो। एक चेतनाशील समाज को जब जड़ समाज ललकारता है तब अगर हंस नहीं सकते तो रोना भी बेकार है।
……………………

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‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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सिंधी भाषा का लिपि विवाद खत्म करना होगा-आलेख (hindi article on sindhi bhasha)


भारतीय भाषाओं में सिंधी भाषा का भी अग्रणी स्थान रहा है पर किसी एक प्रदेश की भाषा न होने के कारण अब लुप्तप्रायः होती जा रही है। सिंधी भाषा बोलने वाले अधिकतर पाकिस्तान और भारत में ही हैं। दोनों ही देशों में अनेक लोगों की मातृभाषा होने के कारण सिंधी अस्तित्व बचाने के लिये जूझ रही है। अगर हम देखें तो भाषा के कारण ही सिंधी समाज एक जाति के रूप में अस्तित्व कायम रख पाया है पर सरकारी और गैरसरकारी समर्थन मिलने के बावजूद इस समाज ने अपनी भाषा को बचाने का अधिक प्रयास नहीं किया। कुछ सिंधी भाषी लेखकों ने अपने स्तर पर सिंधी में लिखने का प्रयास किया पर सामाजिक समर्थन न मिलने से उनका अभियान अधिक नहीं चल पाया।
सच बात तो यह है कि अंग्रेजी ने जिस तरह हिंदी भाषा को नुक्सान पहुंचाया उतना ही सिंधी भाषा को भी पहुंचाया। सिंधी समाज के लोग अपने बच्चों के लिये सिंधी भाषा की उपयोगिता नहीं समझते हालांकि इसकी वजह से उनकी पहचान खत्म होती जा रही है। दरअसल सिंधी समाज इस कारण भी अपने भाषा के प्रति उदासीन होता गया क्योंकि उसके विद्वान हमेशा ही लिपि को लेकर उलझे रहे। जब यह भाषा लगभग समाप्त प्रायः हो रही है तब भी इस पर विवाद बने रहना आश्चर्य की बात है।
वैसे सिंधी समाज पूरी तरह से व्यवसायिक है इसलिये वह उसी भाषा का उपयोग करने के लिये प्रयत्नशील रहा है जो उसके लिये आय का साधन हो। इसके बावजूद इस समाज के कुछ युवकों ने यह प्रयास किया कि सिंधी देवनागरी में लिखकर समाज के लिये कुछ काम किया जाये पर उनको अपने ही समाज के कर्णधारों का समर्थन नहीं मिला। इसके अलावा क्षेत्रवाद ने भी इस भाषा के लेखकों को अधिक प्रोत्साहन नहीं दिया। कुछ क्षेत्रों में सिंधी भाषा अभी भी देवनागरी के साथ अरेबिक लिपि में पढ़ाई जाती है और यह वह हैं जहां सिंधी समाज पूरी तरह से बसा हुआ है। सिंधी समाज के लोग चूंकि व्यवसायी हैं इसलिये उनकी बसाहट उन क्षेत्रों में भी है जहां वह कम हैं और जहां अधिक हैं तो भी अन्य समाज भी संख्या बल में उनसे बराबर हैं। वहां प्रादेशिक भाषाओं के साथ सिंधी समाज के विद्यार्थी अपनी शिक्षा प्राप्त करते हैं। अनेक सिंधी भाषी लेखकों ने हिंदी भाषा में अपना स्थान बना लिया है पर उनके द्वारा अपनी भाषा में लिखने का प्रयास विफल चला जाता है।
इधर अंतर्जाल पर सिंधी भाषा को लेकर कुछ उत्साहजनक संकेत मिले पर उनका सतत प्रवाह बना रहेगा इसमें संदेह है। इस समय अंतर्जाल पर हिंदी लिखने वाले अनेक लेखक सिंधी भाषी हैं और उन्होंने अच्छा मुकाम भी प्राप्त कर लिया है। उनमें से कुछ लेखकों ने सिंधी में लिखने का प्रयास किया है।
इस लेखक की प्राथमिक शिक्षा सिंधी देवनागरी विद्यालय में हुई थी। इसी कारण सिंधी देवनागरी में यहां भी एक ब्लाग बनाया। उसकी ठीकठाक प्रतिक्रिया हुई। मुश्किल लिपि की है पर आजकल उपलब्ध टूलों के कारण लाभ भी हुआ। देवनागरी से अरेबिक टूल से अनुवाद एक जानकार को पढ़ाया तो उससे लगा कि वह ठीक अनुवाद करता है पर अरेबिक से हिंदी में अनुवाद कोई ठीक नहीं है पर फिर भी पढ़ा जा सकता है। उस ब्लाग पर लिखते हुए पाकिस्तान के सिंधी ब्लाग लेखकों से कुछ समय तक संपर्क रहा पर फिर उस पर नहीं लिखा तो वह टूट गया। उस सिंधी भाषी ब्लाग पर अधिक सक्रियता यह लेखक नहीं दिखाता पर उनसे यह तो पता लग ही गया है कि अनेक सिंधी भाषी अंतर्जाल पर बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं और उनमें यह भी इच्छा है कि वह हिंदी के साथ सिंधी में भी काम करे पर उनका आपसी सामंजस्य नहीं बन पाता। एक ब्लाग लेखक ने यह प्रयास किया था कि उनका भी कोई फोरम बन जाये पर लिखने वालों की संख्या एक तो कम है फिर उनकी उदासीनता अभी भी बनी हुई है। इस लेखक के एक पाठ पर भारत के ही एक सिंधी पाठक ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि‘सिंधी भाषा को देवानागरी या रोमन लिपि में न लिखें क्योंकि अरेबिक लिपि उसकी जान है।’
इस लेखक ने उसे लिखा था कि‘अब इस तरह के विवाद का लाभ नहीं है। अगर हमें सिंधी भाषा में लिखना और पढ़ना है तो तीनों लिपियों के साथ चलना होगा। भाषा से अधिक कथन की तरफ अपना ध्यान देना होगा।’
यह टिप्पणी उसी क्षेत्र से की गयी थी जहां सिंधी अरेबिक लिपि में पढ़ाई जाती है हालांकि वहां अब छात्रों की संख्या अब बहुत कम हो गयी है और वह टिप्पणीकार कोई पुराने समय का विद्यार्थी रहा होगा।
सिंधियों को अपनी स्थिति पर विचार करना चाहिये। यहां एक सिंधी विद्वान का कथन याद आता है जो अक्सर अपने समाज के लोगों से प्रश्न करते हैं। वह कहते हैं कि ‘हम किस आधार पर यह कहते हैं कि हम सिंधी हैं क्योंकि उसकी तो हमें भाषा ही नहीं आती। देश में सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि समाज पूरी तरह से टूट नहीं सकता। ऐसे में जब आज से पचास वर्ष बाद जब कोई सिंधी परिवार का पिता अपनी बेटी या बेटे का रिश्ता लेकर किसी दूसरे के यहां जायेगा तो क्या कहेगा कि‘आपके और हमारे पूर्वज सिंधी थे इसलिये आपके यहां रिश्ता करने आये हैं। तब वह कौनसा प्रमाण लायेगा कि वह सिंधी है।’
दो भाषाओं का ज्ञान कठिन या अनावश्यक है यह कहना ही निरर्थक है। अनेक सिंधी परिवारों के लेखक हिंदी में लिख रहे हैं तो सिंधी देवानागरी में लिखने का प्रयास करते हैं। ऐसे में उनको समाज से समर्थन न मिलना उनके साथ ही समाज के अन्य लोगों के लिये परेशानी का कारण बन सकता है जब यह समाज अपनी भाषाई पहचान खो बैठेगा जो कि इसका आधार है। इस लेखक का तो यह भी कहना है कि केवल सिंधी ही भाषी ही नहीं बल्कि अन्य भाषी लोग भी अपनी निज भाषायें बचाने का प्रयास करें क्योंकि यही हिंदी की ताकत है कि वह विभिन्न भाषाओं को अपने साथ संजोये रख सकती है। वैसे भी लिपि विवाद अनुवाद टूलों के कारण अर्थहीन होता चला जा रहा है। भले ही अरेबिक लिपि से देवनागरी लिपि में अनुवाद अधिक शुद्ध नहीं है पर पाठों का भाव तो समझ में आ ही जाता है।
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1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सहानुभूति का व्यापार -हिंदी आलेख


पश्चिम जगत में उसे एक पॉप गायक कलाकार के रूप में प्रसिद्ध हासिल थी। उसकी धुन और नृत्य पर लोग नाचते थे। उसके चाहने वाले भारत में भी थे पर इतने नहीं जितना कि प्रचार किया जाता रहा है। वह अंग्रेजी में गाता था जो कि यहां केवल दो प्रतिशत लोग जानते हैं-इसमें भी कितने लोग समझते हैं यह अलग बात है।
उसकी मौत पर भारतीय प्रचार माध्यम शोकाकुल हैं। हैरानी होती है यह देखकर कि मौत पर संवेदनायें प्रकट करना भी अब व्यवसाय हो गया है-पहले तो दिखावा भर था। जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि देह का विनाश होता है पर आत्मा अमर है-यही आत्मा हम हैं। अतः जन्म पर प्रसन्नता और मरण पर शोक अज्ञानता का परिचायक है।
वह एक गायक कलाकार था और पश्चिम में उसने मनोरंजन के अलावा कोई अन्य कार्य नहीं किया। उसने पैसे कमाये और जीवन को भरपूर ढंग से जिया। भौतिक जीवन की जो सर्वोच्च सीमा होती है उसे उसने छू लिया। एक आम काले परिवार मे जन्मे उस कलाकार ने दौलत और शौहरत के उस शिखर पर जाकर झंडा फहराया जिसकी कल्पना कर लाखों युवक अपना जीवन बरबाद कर देते हैं। पश्चिम के व्यवसायिक प्रचार माध्यमों द्वारा व्यवसायिक संवेदनायें देना कोई बड़ी बात नहीं है पर भारत में एक तरह से पाठकों और दर्शकों के साथ जोर जबरदस्ती लगती है।
आज एक वाचनलय में अखबार पढ़ते हुए एक आदमी ने अखबार दिखाते हुए पूछा-‘यह कौन था।’
हमने कहा-‘गायक कलाकार था।’
उसने पूछा-‘भारत का था।’
हमने कहा-‘नहीं।’
उसने कहा-‘फिर यहां पर इतनी तवज्जो क्यों दे रहे हैं? क्या कोई दूसरी खबर नहीं है।’
हमने कहा-पता नहीं।
उसने कहा-‘टीवी पर भी यही आ रहा था। वह तो अंग्रेजी में गाता था। कितनों को समझ में आती है?’
उसके वार्तालाप से दूसरे लोग हमारी तरफ देखने लगे। हमने जगह बदल दी।
दरअसल अंग्रेजी आपके समझ में नहीं आये तो भी स्वीकार करने में कठिनाई होती है। हम तो शान से कहते हैं कि अंग्रेजी हमें नहीं आती इसलिये ही हिंदी ने हमारी खोपड़ी में पूरी जगह घेर ली है। कहना चाहिये कि अंग्रेजी को जगह बनाने का अवसर नहीं मिला इसलिये ही हिंदी ने यह सुअवसर प्राप्त किया। एक बार हमने प्रयास किया था कि अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करें-इसके लिये एक शिक्षक के यहां केवल अंग्रेजी पढ़ने भी जाते थे-पर हिंदी ने जगह देने से इंकार कर दिया।
एक बार वह गायक कलाकर भारत भी आया था। स्टेडियम पर भारी भीड़ थी। लोग उसे सुनने आये थे या देखने कहा नहीं जा सकता-संभव है वह एक दूसरे को दिखाने आये हों कि उनको अंग्रेजी के गानों से कितना रस मिलता है। अंग्र्रेज चले गये पर अंग्रेजी अब भी गुलामी करा रही है। हालत यह है कि हिंदी प्रचार माध्यमों, फिल्मों और अन्य स्त्रोंतो से धन कमाने वाले अपने को अंग्रेजी का ज्ञानी साबित करते हैं। कई तो ऐसे हैं जिन्हें हिंदी ही नहीं आती बल्कि चेहरा उनका और सुर किसी अन्य का होता है।
हिंदी और अंग्रेजी का समान ज्ञान रखने वाले एक मित्र से हमने पूछा था कि-‘तुम अंग्रेजी में पढ़ते के साथ ही कार्यक्रम भी देखते हो। क्या बता सकते हो कि अंग्रेजी वापरने वाले कितने लोग उसका सही उपयोग करते हैं।’
उसने कहा कि चूंकि भाव समझ में आता है इसलिये हम ध्यान नहीं देते पर अंग्रेजी के हिसाब से गलतियां ढूंढने बैठोगे तो अधिकतर लोग गलतियां करते हैं।
शायद भारतीय प्रचार माध्यम नहीं चाहते कि वह विश्व की मुख्य धारा से कट जायें इसलिये ही वह विदेशी सरोकारों की खबरें जबरन प्रस्तुत करते हैं जिनके प्रति उनके 98 प्रतिशत उपभोक्ता उदासीनता का भाव अपनाये रहते हैं।
हमें उस गायक कलाकर के गायन, सुर और संगीत की समझ में नहीं थी। हमारी क्या इस देश के वह लोग ही नहीं जानते जो उसके प्रशंसक होने का दावा करत हैं कि उसने गाया क्या था? बस वह गाता और यहां लोग लहराते। 110 करोड़ के इसे देश में ऐसे बहुत कम लोग होंगे जो उसके दो चार गीत याद रखते होंगे। हमारे देश के गायक कलाकारों-किशाोर कुमार, महेंद्र कपूर, मुकेश, मोहम्मद रफी और मन्ना डे- ने अपने सुर से अमरत्व प्राप्त कर लिया। उन्होंने देह त्यागी पर वह आज भी लोगों के हृदय में कानों के माध्यम से जिंदा हैं। उनके गाये अनेक गााने बरबस ही मूंह में आते हैं।
उस पश्चिमी गायक कलाकार का जीवन वृतांत हमें बहुत भाता है और सच बात तो यह है कि वह अपने आप में एक जीवंत फिल्म था। उसकी मृत्यु पर हमें भी अफसोस है पर उसे व्यक्त करते हुए ऐसा लगता है जैसे कि ‘बेगानी मौत पर अब्दुल्ला गमगीन’। यह वाक्य हम वाचनालय में उस चर्चा करने के बाद उस आदमी से दूर जाते समय कहना चाहते थे पर वहां लोगों की नाराजगी देखकर खामोश रहे। किसी के साथ या हादसे होेने पर अफसोस होता है। ऐसे अवसर पर मृतक या पीड़ित के प्रतिकूल बात कहना हमारी संस्कृति के विरुद्ध है पर उनके और परिवार के साथ सहानुभूति या संवेदना जताने वालों की भाव भंगिमा और इरादे तो चर्चा का विषय बनते ही हैं। यही कारण है कि उस गायक कलाकार की मृत्यु से हमारे मन में कुछ देर अफसोस हुआ पर बाद में जिस तरह देश में उसकी प्रतिक्रिया इस तरह व्यक्त की गयी जैसे कि उसके साथ वाकई उनकी हमदर्दी है-इस दिखावे पर वाचनालय में उस आदमी से हुई बातचीत ने हमें अपने हिसाब से इसपर सोचने को मजबूर कर दिया।
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