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सभी के चरित्र को कमजोर न समझें-हिन्दी लेख (charitya aur samaj-hindi lekh


वैश्यावृत्ति और जुआ खेलना ऐसी सामाजिक समस्यायें हैं और इनसे कभी भी मुक्ति नहीं पायी जा सकती। वैश्यावृत्ति पर कानून से नियंत्रण पाना चाहिए या नहीं इस पर अक्सर बहस चलती है। कुछ लोगों को मानना है कि वैश्यावृत्ति को कानून से छूट मिलना चाहिए तो कुछ लोगों को लगता है कि इस पर रोक बनी रहे। वैश्यावृत्ति पर कानूनी रोक का समर्थन करने वालों ने जो तर्क दिये जाते हैं वह हास्याप्रद हैं। कुछ लोग तो यहां तक कह जाते हैं कि तब तो भ्रष्टाचार, शराब तथा अन्य अपराधों को भी कानून से छूट मिलना चाहिए। अभी हाल ही में सुनने में आया कि किन्ही न्यायालय द्वारा भी इसकी वकालत की गयी है कि वैश्यावृत्ति को कानूनी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए। इसके पहले भी अनेक सामाजिक विशेषज्ञ इस बात की वकालत करते रहे हैं कि देश की सामाजिक परिस्थतियों में ऐसी रोक ठीक नहीं है।
दरअसल अंग्रेजों के समय ही वैचारिक और सामाजिक कायरता के बीज जो भारत में बो दिये गये वह अब फल और फूल की जगह सभी जगह प्रकट हो रहे हैं। याद रखने की बात यह है कि वैश्यावृत्ति कानून अंग्रजों के समय में ही बनाया गया है। इसका मतलब यह है कि इससे पहले ऐसा कानून यहां प्रचलित नहीं था।
इतना ही नहीं शराब, वैश्यावृत्ति तथा जुआ पर रोक लगाने के किसी भी पुराने कानून की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं मिलती। इसका आशय यह है कि समाज को नियंत्रित करने की यह राजकीय प्रवृत्ति अंग्रेजों की देन है जो स्वयं ही इस तरह का कोई कानून नहीं बनाते बल्कि आजादी के नाम पर यहां अनेक अपराध भी मुक्त हैं जिनमें सट्टा भी शामिल हैं। कुछ कानूनी विशेषज्ञ तो यह बताते हैं कि अभी भी इस देश में 95 प्रतिशत कानून उन अंग्रेजों के बनाये हैं जिनके यहां कोई लिखित कानून हैं। मतलब यह है कि वह एक शब्द समूह यहां अपने गुलामों को थमा गये जिससे पढ़कर हम अभी भी चल रहे हैं।
इस मामले में हम एक सती प्रथा पर रोक के कानून का उल्लेख करना चाहेंगे जिसकी वजह से राजा राममोहन राय को भारत का एक बहुत बड़ा समाज सुधारक माना जाता है। उन्होंने ऐसा कानून बनाने के लिये आंदोलन चलाया था पर इतिहास में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि उस समय देश में सत्ती प्रथा किस हद तक मौजूद थी। अगर उनके आंदोलन की गति को देखें तो लगता है कि उस समय देश में ऐसी बहुत सी घटनायें रोज घटती होंगी पर इसको कोई प्रमाणित नहीं करता। उस समय देश में आजादी के लिये भी आंदोलन चल रहा था। ऐसे में लगता है कि भारत की सती प्रथा के लेकर अंग्रेज कहीं दुष्प्रचार करते होंगे या फिर ऐसी कृत्रिम घटनाओं का समाचार बनता होगा जिससे लगता हो कि यह देश तो भोंदू समाज है। यह कानून बनने से कोई सत्ती प्रथा कम हुई इसका भी प्रमाण नहीं मिलता। संभव है कुछ संपत्ति की लालच में औरतों को जलाकर उसके सत्ती होने का प्रचार करते हों पर ऐसी घटनायें तो देश में इस कानून के बाद भी हुईं। फिर मान लीजिये यह कानून नहीं बनता तो भी इस देश में आत्म हत्या और हत्या दोनों के लिये कानून है तब उसे सत्ती होने वाले मामलों पर लागू किया जा सकता था।
एक बार एक लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब के कानून तो अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ऐसे मामलों में फंसाकर उन्हें बदनाम करने के उद्देश्य से बनाये थे। सच हम नहीं जानते पर इतना जरूर है कि सामाजिक संकटों को राज्य से नियंत्रित करने का प्रयास ठीक नहीं है। समाज को स्वयं ही नियंत्रित होने दीजिये। आखिर इस देश के समाजों के ठेकेदार क्या केवल उनकी भावनाओं का दोहन करने लिये ही बैठे हैं क्या?
वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब सामाजिक समस्यायें हैं और इन पर नियंत्रण करने के दुष्परिणाम यह हुए हैं कि जिसके पास धन, बल, और बड़ा पद है पर अपनी शक्ति कानून को तोड़कर दिखाता है। आप भ्रष्टाचार या सार्वजनिक रूप से धुम्रपान करने जैसे अपराधों से इसकी तुलना नहीं कर सकते।
वैश्यावृत्ति कोई अच्छी बात नहीं है। एक समय था जो महिला या पुरुष इसमें संलिप्त होते उनको समाज हेय दृष्टि से देखता था। अनेक बड़े शहरों में वैश्याओं के बाजार हुआ थे जहां से भला आदमी निकलते हुए अपनी आंख बंद कर लेता था। धीरे धीरे वैश्यायें लुप्त हो गयीं पर आजकल कालगर्ल उनकी जगह ले जगह चुकी हैं। पहले जहां अनपढ़ और निम्न परिवारों की लड़कियां जबरन या अपनी इच्छा से इस व्यवसाय में आती थीं पर आजकल पढ़लिखी लड़कियां स्वेच्छा से इस काम में लिप्त होने की बातें समाचारों में में आती है। उसकी वजह कुछ भी हो सकती हैं-घर का खर्चा चलना या अय्याशी करना।
सवाल यह है कि इसका हल समाज को ढूंढना चाहिये या नहीं। इस देश के उच्च वर्ग ने तो अपने बच्चों की शादी को प्रदर्शन करने का एक बहाना बना लिया है। मध्यम वर्ग के परिवार उन जैसे दिखने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। नतीजा यह है कि बड़ी उम्र तक बच्चों के विवाह नहीं हो रहे। इसके अलावा बच्चों के साथ ही उनके अभिभावकों द्वारा उनके जीवन साथी के लिये अत्यंत खूबसूरत काल्पनिक पात्र सृजित कर रिश्ता तलाशा जाता है। लड़की सुंदर हो, काम काज में दक्ष हो, कंप्यूटर जानती हो और कमाना जानती हो-जैसे जुमले तो सुनने में मिलते ही हैं। उस पर दहेज की रकम की समस्या। समाज का यह अंतद्वंद्व सभी जानते हैं पर जिसका समय निकला जाता है वह उसे भुला देता है। जिन्होंने बीस वर्ष की उम्र में शादी कर ली वह अपने पुत्र या पुत्री को तीस वर्ष तक विवाह योग्य नहीं पाते-उनके बारे में क्या कहा जाये? क्या मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं को खुलकर कहने की आवश्यकता है? इंद्रियों को निंयत्रित करना चाहिये पर उनका दमन करना भी संभव नहीं है-क्या यह सच नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इस सभी के बावजूद पूरा समाज इसी राह पर चल रहा है। अगर कोई वैश्यावृत्ति में संलिप्त नहीं है तो वह कानून के डर की वजह से नहीं बल्कि पुराने चले आ रहे संस्कारों ने सभी को इसकी प्रेरणा दे रखी है। हमारे संत महापुरुषों ने हमेशा ही व्यसनों से बचने का संदेश दिया है। उसके दुष्परिणाम बताये गए हैं। देश में आज भी नैतिकता को संबल मिला हुआ है क्योंकि वह संस्कारों के सहारे टिकी है। यह भरोसा वह हर विद्वान करता है जो इसे जानता है।
ऐसे में वैचारिक कायरों का वह समूह- जो चाहता है कि रात को टीवी पर खबरें देखते हुए ‘अपने देश की चारित्रिक रक्षा के दृश्य देखकर खुश हों‘-ऐसी बातें कह रहा है जिसको न तो समाज पर विश्वास है न ही अपने पर। पढ़ी लिखी लड़कियां ऐसे मामलों में पकड़े जाने मुंह ढंके दिखती हैं, तब सवाल यह उठता है कि आखिर उनका अपराध क्या है? वह किसको हानि पहुंचा रही थीं? याद रहे अपराध का मुख्य आधार यही है कि कोई व्यक्ति दूसरे को हानि पहुंचाये। अनेक बार अखबार में जुआ खेलते हुए पकड़े जाने वाले समाचार आते हैं। सवाल यह है यह भी शराब जैसे व्यसन है और जिस पर कोई रोक नहीं है।
दरअसल ऐसे कानूनों ने पुरुष समाज को गैर जिम्मेदार बना दिया है। अपने घर की औरतों की देखभाल करने के साथ ही उनपर नज़र रखना अभी तक पुरुषों का ही जिम्मा है। इस कानून ने उनको आश्वस्त कर दिया है कि औरतें डर के बारे में इस राह पर नहीं जायेंगी। समाज के ठेकेदार भी नैतिकता को निजी विषय मानने लगे हैं। इसके अलावा विवाह योग्य पुत्र के माता पिता-पुत्री के भी वही होते हैं उसका रिश्ता तय करते समय भूल जाते हैं-इस विश्वास में अधिक दहेज की मांग करते हैं कि कि कोई न कोई लड़की का बाप मजबूर होकर उनकी शर्ते मानेगा।
इसके अलावा समाज के ठेकेदार उसके नाम पर कार्यक्रम करने के लिये चंदा मांगने और चुनाव के समय उनको अपने हिसाब से मतदान का आव्हान करने के अलावा अन्य कुछ नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि बाकी सुधार के लिये तो राज्य ही जिम्मेदार है। समाज को अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा अनुचित कर्मकांडों से बचने का संदेश इनमें कोई नहीं देता। यही हालत आजकल के व्यवसायिक संतों की है।
एक बात यह भी लगती है कि अंग्रेजों ने इतने सारे कानून शायद इसलिये बनाये ताकि विश्व का बता सकें कि देखिये हम एक पशु सभ्यता को मानवीय बना रहे हैं और आज भी वह इसका दावा करते हैं। इधर अपने देश के वैचारिक कायर चिंतक उन्हीं कानूनों को ढोने की वकालत करते हैं क्योंकि अपने समाज पर विश्वास न रखने की नीति उन्हें अंगे्रजी शिक्षा पद्धति से ही मिलती है। अपने पूरा समाज को कच्ची बुद्धि का समझने की उनकी आदतें बदलने वाली नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अपराध वह है जिससे दूसरे को हानि पहुंचे। वैश्यावृत्ति, जुआ या सट्टा ऐसे अपराध हैं जिसमें आदमी अपने धन और इज्जत तो गंवाता ही है अपना स्वास्थ्य भी खोता है। किसी स्त्री से जबरन वैश्यावृत्ति कराना अपराध है और इस पर सख्त कार्यवाही होना चाहिये। यही कारण है कि एक विद्वान से यह भी सलाह दी है कि वैश्यावृत्ति में पकड़े गये अपराधियों में इस बात की पहचान करने का प्रावधान हो कि कोई जबरन तो इस कार्य में नहीं लगा हो।
हमारे देश का सामाजिक ढांचा मजबूत है और पूरा विश्व इसे मानता है। हर आदमी घर परिवार से जुड़ा है। अधिकतर पुरुष अपने घरेलू समस्याओं को हल करने के लिये संघर्ष करते हैं। संभव है कुछ घरों में पुरुष सदस्य की बीमारी या आर्थिक परेशानी होने पर कुछ लड़कियां और महिलाऐं इस काम में लगती हों पर सभी एसा नहीं करती बल्कि अधिकतर नौकरी आदि कर अपना काम चलाती है। ऐसे में पूरे समाज को भ्रष्ट होने की आशंका करना बेमानी है। खासतौर से इस देश में जहां रोजगार और संपत्ति मौलिक अधिकार न बना हो। फिर जब समलैंगिकता जैसे मूर्खतापूर्ण कृत्य को छूट मिल रही है तब वैश्यावृत्ति जैसे कानून को बनाये रखने का औचित्य तो बताना ही पड़ेगा न! बुरे काम का बुरा नतीजा सभी जानते हैं और यही कारण है कि मनुष्य की आदतों को नियंत्रित करने का काम उसे ही करने देना चाहिये। आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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अमृत तो पी गए फ़रिश्ते-व्यंग्य कविताएँ (amrut aur zahar-vyangya kavitaean)


फरिश्तों ने छोड़ दिया दौलत का घर
मासूम इंसानों के लिए.
पर शैतानों ने कर लिया उस पर कब्जा,
दिखाया इंसानियत का जज्बा,
करोडों से भर रहे हैं अपने घर
पाई से जला रहे चिराग जमाने के लिए.
वह भी रखे अपने घर की देहरी पर
अपनी मालिकी जताने के लिए.
————————
जितनी चमक है उनकी शयों में
जहर उससे ज्यादा भरा है.
अमृत तो पी गए फ़रिश्ते किसी तरह बचाकर
छोड़ दिया अपने हाल पर दुनिया को
उसे पचाकर,
शैतानों ने हर शय को सजाकर,
रख दिया बाज़ार में,
कहते भले हों अमृत उसमें भरा है.
पर वह अब इस दुनिया में कहाँ धरा है.
———————–

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जिंदगी में ‘शार्टकट’ रास्ता मत ढूंढो यार-vyangya kavita


जीवन में कामयाबी के लिये
शार्टकट(छौटा रास्ता) के लिये
मत भटको यार
भीड़ बहुत है सब जगह
पता नहीं किस रास्ते
फंस जाये अपनी कार
तब सोचते हैं लंबे रास्ते
ही चले होते तो हो जाते पार
…………………………
धरती की उम्र से भी छोटी होती हमारी
फिर भी लंबी नजर आती है
जिंदगी में कामयाबी के लिये
छोटा रास्ता ढूंढते हुए
निकल जाती है उमर
पर जिंदगी की गाड़ी वहीं अटकी
नजर आती है
…………………..
जिंदगी मे दौलत और शौहरत
पाने के वास्ते
ढूंढते रहे वह छोटे रास्ते
खड़े रहे वहीं का वहीं
नाकाम इंसान की सनद
बढ़ती रही उनके नाम की तरफ
आहिस्ते-आहिस्ते

………………….

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बहुत हैं लोग इस जहाँ में झूठे आंसू बहाने वाले -हिंदी गज़ल


बहुत लोग है इस जहां में झूठे आंसू बहाने वाले
वैसे ही उनके साथ होते,नकली हमदर्दी दिखाने वाले
दूसरों के क्या समझेंगे, अपने ही जज्बात नहीं समझते
निगाहें बाहर ही ठहरीं होतीं, अंदर लगे दिल पर ताले
ताकत पाने की चाहत में सभी ने खुद को किया लाचार
हैरान होते हैं वह लोग,बैठे जमाने के लिये जो दर्द पाले
घाव होने पर लोग आंसू बहाते और भरते सिसकियां
सूख तो फिर टकराते उसी पत्थर से, जिसने जख्म कर डाले
जंग की तरह जिंदगी जीने के आदी हो गये है दुनियां के लोग
अमन का पैगाम क्या समझेंगे, सभी है बेदर्द दिल वाले

……………………………..

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वफ़ा के भी होते हैं रस और रंग अलग अलग-व्यंग्य कविता


ऊंचे सिंहासन पर
बैठे इतना न इतराओ
अपने पास लगी भीड़ को
अपना भक्त न बताओ
जब गिरोगे वहाँ से
सब पास खड़े लोग, दूर हो जायेंगे
यह पूज रहे हैं उस सिंहासन को
जिस पर तुम बैठे हो
दिखा रहे हैं जैसे तुम ही भगवान् हो
पर तुम्हारे बाद भी दूसरे लोग
इस आसन पर बैठने आयेंगे
यही भक्त
तुम्हारा नाम भूलकर
उनको पूजने लग जायेंगे
लोग खेलते हैं अपनी भावनाओं से
तुम मत बहलना
खेलती हैं माया
लोग ख़ुद खेलने का वहम पाल लेते हैं
दिखावे के रिश्ते में वफ़ा का रस भर देते हैं
जुबान पर कुछ और है और दिल में कुछ और
इस जहाँ में झूठ ही बनता है सिरमौर
जिन्दगी का सत्य समझ जाओ
————————————–
अपनी जेब में पैसा हो तो
अनजान भी जोड़ने लग जाते हैं रिश्ते
अगर नहीं हो अपने पास कौडी
तो करीब के भी लोग भूल जाते हैं
वफ़ा बिकती है बाज़ार में
सस्ती या महंगी हो
उसके रस और रंग भी अलग अलग दिखते

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इस तरह अपमान करना कोई कठिन काम नहीं था-आलेख


अमेरिका के राष्ट्रपति पर इराक के एक पत्रकार द्वारा जूता फैंके जाने की घटना को लेकर कुछ लोग जिस तरह उसकी प्रशंसा कर रहे हैं वह हास्यास्पद है। सबसे अजीब बात यह है कि अनेक देशों के पत्रकार उसका समर्थन कर रहे हैं। वह यह भूल रहे हैं कि उसने अपने ही देश के लोगो को धोखा दिया है। वह एक पत्रकार के रूप में उस जगह पर गया था किसी आंदोलनकारी के रूप में नहीं। इतना ही नहीं वहां इराक के प्रधानमंत्री भी उपस्थित थे और वह पत्रकार किसी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रवर्तक नहीं था। अगर वह पत्रकार नहीं होता तो शायद इराक के सुरक्षाकर्मी ही उसे अंदर नहीं जाने देते जो कि उसके देश के ही थे।
आज के सभ्य युग में प्रचार माध्यमों में अपना नाम पाने के लिये उससे जुड़+े लोगों को सभी जगह महत्व दिया जाता है और इस पर कोई विवाद नहीं है। टीवी चैनलों के पत्रकार हों या अखबारों के उन जगहों पर सम्मान से बुलाये जाते हैं जहां कहीं विशिष्ट अतिथि इस उद्देश्य से एकत्रित होते हैं कि उनका संदेश आम आदमी तक पहुंचे। कहीं कोई विशेष घटना होती है तो वहां पत्रकार सूचना मिलने पर स्वयं ही पहुंचते हैं। कहीं आपात स्थिति होती है तो उनको रोकने का प्रयास होता है पर वैसा नहीं जैसे कि आदमी के साथ होता है। पत्रकार लोग भी अपने दायित्व का पालन करते हैं और विशिष्ट और आम लोगों के बीच एक सेतु की तरह खड़ होते हैंं। ऐसे में पत्रकारों का दायित्व बृहद है पर अधिकार सीमित होते हैं। सबसे बडी बात यह है कि उनको अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से परे होना होता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाते तो भी वह दिखावा तो कर ही सकते है। अमेरिका के राष्ट्रपति का विरोध करने के उस पत्रकार के पास अनेक साधन थे। उसका खुद का टीवी चैनल जिससे वह स्वयं जुड़ा है और अनेक अखबार भी इसके लिये मौजूद हैं।

ऐसा लगता है कि अभी विश्व के अनेक देशों के लोगों को सभ्यता का बोध नहीं है भले ही अर्थ के प्रचुर मात्रा में होने के कारण उनको आधुनिक साधन उपलब्ध हो गये हों। जब इराक मेंे तानाशाही थी तब क्या वह पत्रकार ऐसा कर सकता था और करने पर क्या जिंदा रह सकता था? कतई नहीं! इसी इराक में तानाशाही के पतन पर जश्न मनाये गये और तानाशाह के पुतलों पर जूते मारे गयेै। यह जार्ज बुश ही थे जिन्होंने यह कारनामा किया। जहां तक वहां पर अमेरिका परस्त सरकार होने का सवाल है तो अनेक रक्षा विद्वान मानते हैं कि अभी भी वहां अमेरिकी हस्तक्षेप की जरूरत है। अगर अमेरिका वहां से हट जाये तो वहां सभी गुट आपस मेंे लड़ने लगेंगे और शायद इराक के टुकड़े टुकड़े हो जाये। अगर उनके पास तेल संपदा न होती तो शायद अमेरिका वहां से कभी का हट जाता और इराक में आये दिन जंग के समाचार आते।
अमेरिका के राष्ट्रपति जार्जबुश कुछ दिन बाद अपने पद से हटने वाले हैं और इस घटना का तात्कालिक प्रचार की दृष्टि से एतिहासिक महत्व अवश्य दिखाई देता है पर भविष्य में लोग इसे भुला देंगे। इतिहास में जाने कितनी घटनायें हैं जो अब याद नहीं की जाती। वह एक ऐसा कूड़ेदान है जिसमें से खुशबू तो कभी आती ही नहीं इसलिये लोग उसमें कम ही दिलचस्पी लेते हैं और जो पढ़ते है उनके पास बहुत कुछ होता है उसके लिये। घटना वही एतिहासिक होती है जो किसी राष्ट्र, समाज, व्यक्ति या साहित्य में परिवर्तन लाती है। इस घटना से कोई परिवर्तन आयेगा यह सोचना ही मूर्खता है। कम से कम उन बुद्धिजीवियों को यह बात तो समझ ही लेना चाहिये जो इस पर ऐसे उछल रहे हें जैसे कि यहां से इस विश्व की कोई नयी शुरुआत होने वाली है।

चाहे कोई भी लाख कहे एक पत्रकार का इस तरह जूता फैंकना उचित नहींं कहा जा सकता जब वह वाकई पत्रकार हो। अगर कोई आंदोलनकारी या असंतुष्ट व्यक्ति पत्रकार के रूप में घूसकर ऐसा करता तो उसकी भी निंदा होती पर ऐसे में कुछ लोग उनकी प्रशंसा करते तो थोड़ा समझा जा सकता था।

पत्रकार के परिवार सीना तानकर अपने बेटे के बारे में जिस तरह बता रहे थे उससे लगता है कि उनको समाज ने भी समर्थन दिया है और यह इस बात का प्रमाण है कि वहां के समाज में अभी सभ्य और आधुनिक विचारों का प्रवेश होना शेष है। समाचारों के अनुसार मध्य ऐशिया के एक धनी ने उस जूते की जोडी की कीमत पचास करोड लगायी है पर उसका नाम नहीं बताया गया। शायद उस धनी को यह बात नहीं मालुम कि पत्रकार ने अपने ही लोगों के साथ धोखा किया है। वैसे भी कोई धनी अमेरिका प्रकोप को झेल सकता है यह फिलहाल संभव नहीं लगता। अमेरिका इन घटनाओं पर आगे चलकर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करता है यह अलग बात है पर कुछ दिनों में उसी पत्रकार को अपने देश में ही इस विषय पर समर्थन मिलना कम हो जायेगा। अभी तो अनेक लोग इस पर खुश हो रहे हैं देर से ही सही उनके समझ में आयेगी कि इस तरह जूता फैंकना कोई बहादुरी नहीं है। किसी भी व्यक्ति के लिये प्रचार माध्यम से जुड़कर काम के द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त करने कोई कठिन काम नहीं है इसलिये उसे धोखा देकर ऐसा हल्का काम करने की आवश्यकता नहीं है। कुछ समय बाद क्या स्थिति बनती है यह तो पत्रकार और उसके समर्थकों को बाद में ही पता चलेगा। मेहमान पर इस तरह आक्रमण करना तो सभी समाजों में वर्जित है और समय के साथ ही लोग इसका अनुभव भी करेंगे।
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रिश्ते हो जाते हैं बासी-हिन्दी शायरी


कभी कभी मन को घेर लेती है उदासी
दिन भर गुजरता है
जाने पहचाने लोगों के बीच
फ़िर भी अजनबीपन का अहसास साथ रहता है
जुबान से निकलते जो शब्द निकलते हैं
आदमी के दिल से उपजे नही लगते
उनका अंदाज़-ऐ-बयाँ साफ़ कहता है
सुबह जो बनते हैं रिश्ते
दोपहर तक हो जाते हैं बासी

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इसलिए अपने मोहरे पिटवा रहे हैं-व्यंग्य कविता


इंसानों से नहीं होती अब वफादारी
फिर भी जमाने से चाहते हैं प्यार
हो गये हैं दीवानों से
लगाते हैं एक दूसरे पर इल्जाम
खेल रहे हैं दुनिया भर के ईमानों से
अपने तकदीर की लकीर बड़ी नहीं कर सकते
इसलिए एक दूसरे की थूक से मिटा रहे हैं
तय कर लिया है खेल आपस में
जंग करते शतरंज की तरह
इसलिए अपने मोहरे पिटवा रहे हैं
जीतने वाले की तो होती चांदी
हारने वाले को भी मिलता है इनाम
नाम के लिए सभी मरे जा रहे हैं
सजाओं से बेखबर कसूर किये जा रहे हैं
कभी भेई टूट सकता है क़यामत का कहर
पर इंसान जिए जा रहे हैं अक्ल के परदे बंद कर
भीड़ दिखती हैं चारों तरफ पर
शहर फिर भी लगते हैं वीरानों से

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दर्द और मदद की कोई जाति नहीं होती-लघु कहानी


वह हादसे में घायल होकर सड़क पर गिर पड़ा ह था। उसके चारों और लोग आकर खड़े हो गये। वह चिल्लाया-‘मेरी मदद करो। मुझे इलाज के लिये कहीं ले चलो।’
लोग उसकी आवाज सुन रहे थे पर बुतों की तरह खड़े थे। उनमें चार अक्लमंद भी थे। एक ने कहा-‘पहले तो तुम अपना नाम बताओ ताकि धर्म,जाति और भाषा से तुम्हारी पहचान हो जाये।

वह बोला-‘मुझे इस समय कुछ याद आ नहीं आ रहा है। मैं तो केवल एक घायल व्यक्ति हूं और अपने होश खोता जा रहा हूं। मुझे मदद की जरूरत है।
एक अक्लमंद बोला-‘नहीं! तुम्हारो साथ जो हादसा हुआ है वह केवल तुम्हारा मामला नहीं है। यह एक राष्ट्रीय मसला है और इस पर बहस तभी हो पायेगी जब तुम्हारी पहचान होगी। तुम्हारा संकट अकेले तुम्हारा नहीं बल्कि तुम्हारे धर्म, जाति और भाषा का संकट भी है और तुम्हें मदद का मतलब है कि तुम्हारे समाज की मदद करना। इसके लिये तुम्हारी पहचान होना जरूरी है।’

यह सुनते हुए उस घायल व्यक्ति की आंखें बंद हो गयीं। कुछ लोगों ने उसकी तरफ मदद के लिये हाथ बढ़ाने का प्रयास किया तो उनमें एक अक्लमंद ने कहा-‘नहीं, जब तक यह अपना नाम नहीं बताता तब तक इसकी मदद करो। हम मदद करें पर यह तो पता लगे कि किस धर्म,जाति और भाषा की मदद कर रहे हैं। ऐसी मदद से क्या फायदा जो किसी व्यक्ति की होती लगे पर उसके समाज की नहीं।

उसी भीड़ को चीरता हुए एक व्यक्ति आगे आया और उस घायल के पास गया और बोला-‘चलो घायल आदमी! मैं तुम्हें अपनी गाड़ी में बिठाकर अस्पताल लिये चलता हूं।’
उस घायल ने आंखें बंद किये हुए ही उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा और उठ खड़ा हुआ। अक्लमंद ने कहा-‘तुम इस घायल की मदद क्यों कर रहे हो? तुम कौन हो? क्या इसे जानते हो?’

उस आदमी ने कहा-‘मैं हमदर्द हूं। कभी मैं भी इसी तरह घायल हुआ था तब सारे अक्लमंद मूंह फेर कर चले गये थे पर तब कोई हमदर्द आया था जो कहीं इसी तरह घायल हुआ था। घायल की भाषा पीड़ा है और जाति उसकी मजबूरी। उसका धर्म सिर्फ कराहना है। इसका इलाज कराना मुझ जैसे हमदर्द के लिये पूजा की तरह है। अब हम दोनों की पहचान मत पूछना। घायल और हमदर्द का समाज एक ही होता है। आज जो घायल है वह कभी किसी का हमदर्द बनेगा यह तय है क्योंकि जिसने पीड़ा भोगी है वही हमदर्द बनता है। भलाई और मदद की कोई जाति नहीं होती जब कोई करने लगे तो समझो वह सौदागर है।’
ऐसा कहकर उसको चला गया।
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फ्री में विलेन बनाया-हास्य कविता



उदास होकर फंदेबाज घर आया
और बोला
‘दीपक बापू, बहुत मुश्किल हो गयी है
तुम्हारे भतीजे ने मेरे भानजे को
दी गालियां और घूंसा जमाया
वह बिचारा तुम्हारी और मेरी दोस्ती का
लिहाज कर पिटकर घर आया
दुःखी था बहुत तब एक लड़की ने
उसे अपनी कार से बिठाकर अपने घर पहुंचाया
तुम अपने भतीजे को कभी समझा देना
आइंदा ऐसा नहीं करे
फिर मुझे यह न कहना कि
पहले कुछ न बताया’

सुनकर क्रोध में उठ खड़े हुए
और कंप्यूटर बंद कर
अपनी टोपी को पहनने के लिये लहराया
फिर बोले महाकवि दीपक बापू
‘कभी क्या अभी जाते हैं
अपने भाई के घर
सुनाते हैं भतीजे को दस बीस गालियां
भले ही लोग बजायें मुफ्त में तालियां
उसने बिना लिये दिये कैसे तुम्हारे भानजे को दी
गालियां और घूंसा बरसाया
बदल में उसने क्या पाया
वह तो रोज देखता है रीयल्टी शो
कैसे गालियां और घूंसे खाने और
लगाने के लिये लेते हैं रकम
पब्लिक की मिल जाती है गालियां और
घूसे खाने से सिम्पथी
इसलिये पिटने को तैयार होते हैं
छोटे पर्दे के कई महारथी
तुम्हारा भानजा भी भला क्या कम चालाक है
बरसों पढ़ाया है उसे
सीदा क्या वह खाक है
लड़की उसे अपनी कार में बैठाकर लाई
जरूर उसने सलीके से शुरू की होगी लड़ाई
सीदा तो मेरा भतीजा है
जो मुफ्त में लड़की की नजरों में
अपनी इमेज विलेन की बनाई
तुम्हारे भानजे के प्यार की राह
एकदम करीने से सजाई
उस आवारा का हिला तो लग गया
हमारे भतीजा तो अब शहर भर की
लड़कियों के लिये विलेन हो गया
दे रहे हो ताना जबकि
लानी थी साथ मिठाई
जमाना बदल गया है सारा
पीटने वाले की नहीं पिटने वाले पर मरता है
गालियां और घूंसा खाने के लिये आदमी
दोस्त को ही दुश्मन बनने के लिये राजी करता है
यह तो तुम्हारे खानदान ने
हमारे खानदान पर एक तरह से विजय पाई
हमारे भतीजे ने मुफ्त में स्वयं को खलनायक बनाया

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‘हम तो मोहब्बत के दीवाने है-व्यंग्य कविता


माशुका की ख्वाहिश पर
आशिक ने एक चुराया हुआ शेर
कुछ यूं सुनाया
‘हम तो मोहब्बत के दीवाने है
प्यार करते है रोज रोज
जिंदगी ऐसे ही कट जायेगी
आखिर एक दिन तो कयामत आयेगी’

सुनकर माशुक भड़क उठी और कहा
‘इस खूबसूरत मौके पर भी
तुम्हें कयामत की याद आयी
दिल में कोई अच्छी सोच नहीं समाई
लगता है अखबार नहीं पढ़ते हो
इसलिये केवल प्यार में
कयामत के कसीदे गढ़ते हो
ऊपर वाले का घर छोड़कर
कयामत कभी की फरार हो गयी
अब तो चाहे जहां
जब चली आती है
एक दिन में दुनियां को तबाह करे
अब उसमें नहीं रही ताकत
इसलिये कयामत किश्तों में
कहर बरपा जाती है
टीवी पर बहता खून देखो
या अखबार के अल्फाजों में
हादसों की खबर पढ़ो
तभी कोई बात समझ आती है
इंसानों के उड़ जाते हैं चीथड़े
उन पर एक दिन रोकर जमाना
फिर कयामत के शैतानों पर ही
नजर लगाये रहता हैं
कभी उनके स्कूल तो कभी
उनकी माशुकाओं के नाम का जिक्र
चटखारे लेकर
पर बात अमन कायम करने की करता है
पड़ गयी हैं कयामत पर
ऐसी शायरी पुरानी
कई तो याद है मुझे याद हैं जुबानी
उसे भुलाने के वास्ते ही
तुम्हें आशिक बनाया
पर तुम्हारी शायरी सुनकर पछता रही हूं
इसलिये भूल जाओ मुझे
नहीं तो तुमसे मिलकर
रोज मुझे कयामत की याद आयेगी

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हर जगह बैठा है सिद्ध की खाल में गिद्द-हास्य व्यंग्य कविता


हर जगह सर्वशक्तिमान के दरबार में
बैठा कोई एक सिद्ध

आरजू लिए कोई वहां
उसे देखता है जैसे शिकार देखता गिद्द
लगाते हैं नारा
“आओ शरण में दरबार के
अपने दु:ख दर्द से मुक्ति पाओ
कुछ चढ़ावा चढ़ाओ
मत्था न टेको भले ही सर्वशक्तिमान के आगे
पर सिद्धों के गुणगान करते जाओ
जो हैं सबके भला करने के लिए प्रसिद्ध

इस किनारे से उस किनारे तक
सिद्धो के दरबार में लगते हैं मेले
भीड़ लगती है लोगों की
पर फिर भी अपना दर्द लिए होते सब अकेले
कदम कदम पर बिकती है भलाई
कहीं सिद्ध चाट जाते मलाई
तो कहीं बटोरते माल उनके चेले
फिर भी ख़त्म नहीं होते जमाने से दर्द के रेले
नाम तो रखे हैं फरिश्तों के नाम पर
फकीरी ओढे बैठे हैं गिद्द
उनके आगे मत्था टेकने से
अगर होता जमाने का दर्द दूर
तो क्यों लगते वहां मेले
ओ! अपने लिए चमत्कार ढूँढने वालों
अपने अन्दर झाँक कर
दिल में बसा लो सर्वशक्तिमान को
बन जाओ अपने लिए खुद ही सिद्ध

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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दिखाने की मोहब्बत में सभी लोग हैं माहिर-हास्य व्यंग्य कविता


हम तो सभी से मोहब्बत करते

पर सभी हमें चाहें यह जरूरी नहीं

लोग अपनी आंखों से जताते

जुबां से लफ्ज बोलकर बताते

कुछ लिखकर समझाते हैं

दिखाने की मोहब्बत करने में

सारा जमाना है माहिर

सब में हो जज्बा हो हमदर्दी का

यह कतई जरूरी नहीं
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प्यार में बातें करते हुए

अल्फाज अपनी जुबां से फिसल जाते हैं

लोग हैं कि उनको अपने दिल पर ले जाते हैं

पर प्यार की राह जैसी ही

जुबां में भी होती है फिसलन

यह बात लोग कहां समझ पाते हैं


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यह आलेख ‘दीपक” भारतदीप की सिंधु केसरी-पत्रिका पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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साहब बनने निकलते गुलाम बन जाते-व्यंग्य कविता


साहब जैसी जिंदगी जीने का
सपना लिये निकलते हैं सब
किताबें-दर-किताबें पढ़ते जाते
अपना पसीना बहाते हुए
कागजों के ढेर के ढेर रंगते जाते
फिर नौकरी पाने की कतार में
बड़ी उम्मीद के साथ खडे हो जाते
पता ही नहीं चलता गुलाम बन जाते कब
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साहब क्या जाने गुलाम का दर्द
उनको मालुम रहते अपने हक
याद नहीं रहते फर्ज
उनका किया सब जायज
क्योंकि एक ढूंढो हजार लोग
गुलामी के लिये मिल जातें
साहब बनने की दौड़ में
भला कितने दौड़ पाते
साहब तो टपकते हैं आकाश से
क्या जानेंगे धरती के गुलामों का दर्द
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यह कविता/आलेख ‘दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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काटें हम अपने अंदर ही बेहतर फसल-हिंदी कविता


पद पुजता है आदमी नहीं
चमकती है प्रतिष्ठा देह नहीं
पालता है अन्न पत्थर नहीं
ओ! जमाने को उसूलों के बयां करने वालों
आकाश से कोई चीज जमीन पर
आकर टपकती नहीं
धरती पर उगती नहीं
उन चीजों की शौहरत को ही
असली सच बताकर
मत बहलाओ भोले लोगों को
जो बनती बिगड़ती हैं यहीं
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दुनियां में जितने खिलौने हैं
जब तक खेलें उनके साथ ठीक
बिगड़्र जायें तो खुद को ही ढोने हैं
खुद से ही बहलायें दिल तो कितना अच्छा
काटें हम अपने अंदर ही बेहतर फसल
ऐसे ही बीज हमको बोने हैं

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