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नये चेहरे की तलाश-हिन्दी कविता (search of new face-hindi poem)


जमाने को रास्ता बताने के लिए
हर रोज एक नया चेहरा क्यों चाहिए,
इंसानों को इंसानों से बचाने के लिए
रोज किसी नए चौकीदार का पहरा क्यों चाहिए,
यकीनन इस धरती पर लोग
कभी भरोसे लायक नहीं रहे
वरना कदम दर कदम
धोखे से बचने के लिए एक ईमानदार क्यों चाहिए।
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आओ
बेईमानों की भीड़ में
कोई ऐसा आदमी ढूंढकर
पहरे पर लगाएँ,
जिसकी ईमानदारी के चर्चे बहुत हों,
धोखा दिया हो
मगर कभी पकड़ा नहीं गया हो।
पुराने बदनाम हैं
इसलिए उसका चेहरा भी नया हो।

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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

नेकी और इंसानियत के सौदागर-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


सोना, चांदी, पीतल और तांबा
धातुओं के नाम हैं
जिनकी चमक फीकी पड़ जाती है।
पर फिर भी इंसान की आंखें
उनके बने सामान पर हो जाती हैं फिदा,
तब सोच हो लेती है विदा,
बाहर की रौशनी से दिल रौशन नहीं होते
फैशन की अंधी दौड़ में
बिना अकल के घोड़े पर सवार
इंसान कई बार धोखा खाकर गिरता है
फिर भी यह बात उसे समझ में नहीं आती है।
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ख्वाहिश होती है
जिनको अपना नाम आकाश में चमकाने की
चाल उनकी बिगड़ जाती है,
नेकी और इंसानियत के बन जाते सौदागर वही
घर के सामने का दरवाजा लगता मंदिर जैसा
दौलत उनके यहां पिछवाड़े से आती है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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अंग्रेज किताबें छोड़ गए-हिन्दी व्यंग्य


इस संसार का कोई भी व्यक्ति चाहे शिक्षित, अशिक्षित, ज्ञानी, अज्ञानी और पूंजीवादी या साम्यवादी हो, वह भले ही अंग्रेजों की प्रशंसा करे या निंदा पर एक बात तय है कि आधुनिक सभ्यता के तौर तरीके उनके ही अपनाता है। कुछ लोगों ने अरबी छोड़कर अंग्रेजी लिखना पढ़ना शुरु किया तो कुछ ने धोती छोड़कर पेंट शर्ट को अपनाया और इसका पूरा श्रेय अंग्रेजों को जाता है। मुश्किल यह है कि अंग्रेजों ने सारी दुनियां को सभ्य बनाने से पहले गुलाम बनाया। गुलामी एक मानसिक स्थिति है और अंग्रेजों से एक बार शासित होने वाला हर समाज आजाद भले ही हो गया हो पर उनसे आधुनिक सभ्यता सीखने के कारण आज भी उनका कृतज्ञ गुलाम है।
अंग्रेजों ने सभी जगह लिखित कानून बनाये पर मजे की बात यह है कि उनके यहां शासन अलिखित कानून चलता है। इसका आशय यह है कि उनको अपने न्यायाधीशों के विवेक पर भरोसा है इसलिये उनको आजादी देते हैं पर उनके द्वारा शासित देशों को यह भरोसा नहीं है कि उनके यहां न्यायाधीश आजादी से सोच सकते हैं या फिर वह नहीं चाहते कि उनके देश में कोई आजादी से सोचे इसलिये लिखित कानून बना कर रखें हैं। कानून भी इतने कि किसी भी देश का बड़ा से बड़ा कानून विद उनको याद नहीं रख सकता पर संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि हर नागरिक हर कानून को याद रखे।
अधिकतर देशों के आधुनिक संविधान हैं पर कुछ देश ऐसे हैं जो कथित रूप से अपनी धाार्मिक किताबों का कानून चलाते हैं। कहते हैं कि यह कानून सर्वशक्तिमान ने बनाया है। कहने को यह देश दावा तो आधुनिक होने का करते हैं पर उनके शिखर पुरुष अंग्रेजों के अप्रत्यक्ष रूप से आज भी गुलाम है। कुछ ऐसे भी देश हैं जहां आधुनिक संविधान है पर वहां कुछ समाज अपने कानून चलाते हैं-अपने यहां अनेक पंचायतें इस मामले में बदनाम हो चुकी हैं। संस्कृति, संस्कार और धर्म के नाम पर कानून बनाये मनुष्य ने हैं पर यह दावा कर कि उसे सर्वशक्तिमान  ने बनाया है दुनियां के एक बड़े वर्ग को धर्मभीरु बनाकर बांधा जाता है।
पुरानी किताबों के कानून अब इस संसार में काम नहीं कर सकते। भारतीय धर्म ग्रंथों की बात करें तो उसमें सामाजिक नियम होने के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान भी उनमें हैं, इसलिये उनका एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी प्रासंगिक है। वैसे भारतीय समाज अप्रासांगिक हो चुके कानूनों को छोड़ चुका है पर विरोधी लोग उनको आज भी याद करते हैं। खासतौर से गैर भारतीय धर्म को विद्वान उनके उदाहरण देते हैं। दरअसल गैर भारतीय धर्मो की पुस्तकों में अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है। वह केवल सांसरिक व्यवहार में सुधार की बात करती हैं। उनके नियम इसलिये भी अप्रासंगिक हैं क्योंकि यह संसार परिवर्तनशील है इसलिये नियम भी बदलेंगे पर अध्यात्म कभी नहीं बदलता क्योंकि जीवन के मूल नियम नहीं बदलते।
अंग्रेजों ने अपने गुलामों की ऐसी शिक्षा दी कि वह कभी उनसे मुक्त नहीं हो सकते। दूसरी बात यह भी है कि अंग्रेज आजकल खुद भी अपने आपको जड़ महसूस करने लगे हैं क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति भी नहीं बदली। उन्होंनें भारत के धन को लूटा पर यहां का अध्यात्मिक ज्ञान नहीं लूट पाये। हालत यह है कि उनके गुलाम रह चुके लोग भी अपने अध्यात्मिक ज्ञान को याद नहीं रख पाये। अलबत्ता अपने किताबों के नियमों को कानून मानते हैं। किसी भी प्रवृत्ति का दुष्कर्म रोकना हो उसके लिये कानून बनाते हैं। किसी भी व्यक्ति की हत्या फंासी देने योग्य अपराध है पर उसमें भी दहेज हत्या, सांप्रदायिक हिंसा में हत्या या आतंक में हत्या का कानून अलग अलग बना लिया गया है। अंग्रेज छोड़ गये पर अपनी वह किताबें छोड़ गये जिन पर खुद हीं नहीं चलते।
यह तो अपने देश की बात है। जिन लोगों ने अपने धर्म ग्रंथों के आधार पर कानून बना रखे हैं उनका तो कहना ही क्या? सवाल यह है कि किताबों में कानून है पर वह स्वयं सजा नहीं दे सकती। अब सवाल यह है कि सर्वशक्तिमान की इन किताबों के कानून का लागू करने का हक राज्य को है पर वह भी कोई साकार सत्ता नहीं है बल्कि इंसानी मुखौटे ही उसे चलाते हैं और तब यह भी गुंजायश बनती है कि उसका दुरुपयोग हो। किसी भी अपराध में परिस्थितियां भी देखी जाती हैं। आत्म रक्षा के लिये की गयी हत्या अपराध नहीं होती पर सर्वशक्तिमान के निकट होने का दावा करने वाला इसे अनदेखा कर सकता है। फिर सर्वशक्तिमान के मुख जब अपने मुख से किताब प्रकट कर सकता है तो वह कानून स्वयं भी लागू कर सकता है तब किसी मनुष्य को उस पर चलने का हक देना गलत ही माना जाना चाहिये। इसलिये आधुनिक संविधान बनाकर ही सभी को काम करना चाहिए।
किताबी कीड़ों का कहना ही क्या? हमारी किताब में यह लिखा है, हमारी में वह लिखा है। ऐसे लोगों से यह कौन कहे कि ‘महाराज आप अपनी व्याख्या भी बताईये।’
कहते हैं कि दुनियां के सारे पंथ या धर्म प्रेम और शांति से रहना सिखाते हैं। हम इसे ही आपत्तिजनक मानते हैं। जनाब, आप शांति से रहना चाहते हैं तो दूसरे को भी रहने दें। प्रेम आप स्वयं करें दूसरे से बदले में कोई अपेक्षा न करें तो ही सुखी रह सकते हैं। फिर दूसरी बात यह कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। मतलब यह कि आप में अगर प्रेम का गुण नहीं है तो वह मिल नहंी सकता। बबूल का पेड़ बोकर आम नहीं मिल सकता। पुरानी किताबें अनपढ़ों और अनगढ़ों के लिये लिखी गयी थी जबकि आज विश्व समाज में सभ्य लोगों का बाहुल्य है। इसलिये किताबी कीड़े मत बनो। किताबों में क्या लिखा है, यह मत बताओ बल्कि तुम्हारी सोच क्या है यह बताओ। जहां तक दुनियां के धर्मो और पंथों का सवाल है तो वह बनाये ही बहस और विवाद करने के लिये हैं इसलिये उनके विद्वान अपने आपको श्रेष्ठ बताने के लिये मंच सजाते हैं। जहां तक मनुष्य की प्रसन्नता का सवाल है तो उसके लिये भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के अलावा कोई रास्ता नहीं है। दूसरी बात यह कि उनकी किताबें इसलिये पढ़ना जरूरी है कि सांसरिक ज्ञान तो आदमी को स्वाभाविक रूप से मिल जाता है और फिर दुनियां भर के धर्मग्रंथ इससे भरे पड़े हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान बिना गुरु या अध्यात्मिक किताबों के नहीं मिल सकता। जय श्रीराम!

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दिल और दुनिया-हिन्दी शायरी


रिश्ते किसी तरह निभाऐं,

दिल में न हो पर

दुनियां को दिखाऐं।

सभी टूटे हुए हैं जमाने से

पर छिपा रहे हैं

आप भी छिपायें।

———

अपनी नीयत में कभी खोट

नहीं पालना

जला कर राख कर देगा।

छलियों पर नज़र रखना पर

छल को दिल में जगह

कभी मत देना

तुम्हें ही खाक कर देगा।

———–

लोग दिखाने के लिये दर्द दिखा रहे हैं

तुम भी हमदर्दी दिखा देना।

जिनको सच में है तकलीफ

वह बताने नहीं आयेंगे

तुम उन तक पहुंच कर मदद बांटना

हमदर्दी का पाठ दुनियां को सिखा देना।

———

पल पल धोखा खाकर भी

किसी से गद्दारी मत करना।

जिन्होंने तोड़े हैं दिल

वह भी कोई जन्नत में नहीं गये

वफा जिनको नहीं आयी

बना नहीं सके वह दोस्त नये,

तुम हर दर्द भूल जाओगे

बस अपने हाथ से

सभी जगह वफादारी का लफ्ज भरना।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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यह कैसी चरित्र चर्चा-आलेख (discussion on corector-hindi article)


ज्यादा देखने से फायदा भी क्या था? जितना देखा उससे ही समझना काफी था। एक चेहरा निढाल पड़ा हुआ है कोई नारी या नारियां बार बार अपना चेहरा उसके पास ले जाती हैं। वह एक सनसनीखेज खबर है। 86 वर्ष के बुजुर्ग राजनीतिज्ञ पर यौन प्रकरण (sex scandle) का आरोप दर्ज करती वह खबर उसके नायक नायिका (या नायिकायें) की क्रियाओं का दृश्य प्रस्तुत करती है। जिस पर आरोप है उसका चेहरा निढाल पड़ा हुआ है। उसकी कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही। अंतर्जाल पर इससे अधिक नहीं दिख रहा। वैसे तो समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में उस बुजुर्ग नायक के साथ तीन पायजामें और तीन नायिकाओं का भी जिक्र है पर जो अंतर्जाल पर देखा उससे तो लगता है कि जो टीवी चैनल बुजुर्ग नायक की कथित ‘रंगीन मिजाजी का रहस्योद्घाटन करने का दावा कर रहा है उसके बाकी अंश भी कुछ ऐसे ही प्रश्नवाचक चिन्ह लिये खड़े मिलेंगे।
एक आम आदमी की राजनीति में कभी सक्रिय भूमिका नहीं होती सिवाय कि वह उससे संबंधित घटनाओं को पढ़े और विचार करे। इतिहास गवाह है कि राजनीति का क्षेत्र बहुत ही अविश्वसनीय और अनिश्चित है। राज्य कर्ता अच्छा है या बुरा यह इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना कि वह अपने विरोधियों से सतर्क कितना रहता है और यही बात उसे कार्यकुशलता का प्रमाण देती है।
राजनीति में सत्ता के लिये षड्यंत्र सदियों से चल रहे हैं और आगे भी जारी रहेंगे। सच तो यह है कि दैहिक लोभ का चरम ही है राज्य करने की भावना और इसमें अध्यात्मिक या धर्म की बात एक तरफ उठाकर रखनी पड़ती है। राजनीति इतनी विकट है कि इसमें माता और पुत्र जैसा रिश्ता भी अविश्वसनीय हो जाता है ऐसे में बाकी रिश्तों का महत्व देखना या सोचना बेकार है। यह अलग बात है कि कुछ लोग राजकाज से जुड़े होने पर भी धर्म, अध्यात्मिक तथा समाज का विचार करते हैं-ऐसे लोग धन्य हैं और ऐसा नहीं है कि इतिहास कोई उनको महत्व नहीं देता। इसके बावजूद यह सत्य है कि इतिहास में श्रेष्ठ राजाओं की गिनती अधिक नहीं मिलती बल्कि अधिकतर षड़यंत्रों का शिकार बनते हैं या फिर किसी का शिकार कर स्वयं राजा बनते रहे हैं।
वैसे आजकल की वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीधे राजकाल से जुड़े न होने पर भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें रहकर उस पर नियंत्रण किया जा सकता है। यह क्षेत्र है धर्म का। धर्म के क्षेत्र में भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अपनी पूज्यनीयता के आधार पर राजकाज पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण करते हैं। यही कारण है कि वहां भी ऐसी उठापठक होती रहती है जैसे कि राज्य जीतने का युद्ध हो।
प्रसंगवश भारत के ही एक 80 वर्षीय संत पर विदेश में ही यौन प्रकरण का ऐसा आरोप लगा था। यह आरोप इतना गंभीर था कि इसके विवाद की आग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई दी और उस देश ने उसके निपटारे तक उन संत भारत लौटने पर रोक लगा दी। हालांकि कहा यह गया कि संत अपनी इच्छा से उस विवाद के निपटारे तक वह देश नहीं छोड़ेंगे। आप देखिये उस देश की सरकार ने भी इसका खंडन नहीं किया। इससे यह साफ लगा कि कहीं न कहीं धर्म का राजनीति से कोई अप्रत्यक्ष प्रगाढ़ रिश्ता है। बाद में वह उस आरोप से बरी हो गये। सच बात तो यह है कि श्रीमद्भागवत पर प्रवचन करने वाले उस संत का प्रवचन इस लेखक को भी बहुत अच्छा लगता है। अगर आप श्रीगीता का सूक्ष्म पूर्वक अध्ययन करेंगे तो ऐसे यौन प्रकरण आपको विचार के विषय नहीं लगेंगे। संभव है कि अगर आप अल्पज्ञानी हों तो ऐसे प्रकरण में लिप्त हो जायें पर ज्ञानी हों तो फिर उससे दूर रहेंगे।
एक अध्यात्मिक लेखक के रूप में इस घटना को लेकर कोई क्षोभ या प्रसन्नता नहीं है। याद रखिये कि किसी बड़े आदमी पर कीचड़ उछलने से कुछ लोग प्रसन्न भी होते हैं पर यह उनके अज्ञान और कुंठा का परिणाम होता है।
इसके बावजूद राजनीति का समाज पर प्रभाव होता है तब उसे देखना जरूरी होता है। अब इस प्रकरण की तरफ देखें। एक निढाल चेहरा जिस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं है? प्रश्न आता है कि वह रंगीन मिजाजी कब कर रहा होगा?
बुजुर्ग के समर्थक कहते हैं कि ‘यह एक षड्यंत्र है!’
हो सकता है कि उनका कहना सही हो? पर एक राजनेता को हमेशा सतर्क रहना चाहिये। वह अगर सतर्क नहीं रहे तो फिर उनकी योग्यता पर भी प्रश्न उठता है न!
उनके एक समर्थक कहना है कि वह बुजुर्ग राजनेता एकदम लाचार हैं। यहां तक कि दीप प्रज्जवलित करने के लिये उनको किसी की सहायता चाहिए।
सवाल यह है कि क्या बड़े पदों पर शारीरिक रूप से लाचार लोगों की नियुक्ति होना चाहिए। जिस तबियत का बहाना कर उन्होंने अब इस्तीफा दिया वह पहले क्यों नहीं किया? राजनीति का क्षेत्र लोगों की सेवा करने के लिये या करवाने के लिये? राजनीति में शासन के द्वारा जलकल्याण करने आये हैं या उपभोग कर सेवा पाने।
समर्थकों का यह कहना है सही है कि जहां यह फिल्म बनायी गयी है वह उस स्थान की सुरक्षा तथा कानून से जुड़े अनेक पहलुओं को चुनौती देती है जो कि एक चिंता का विषय है। यौन प्रकरण को गंभीर बनाने के लिये इससे गरीबी और नौकरी जैसे विषय भी जोड़े गये हैं ताकि आम लोगों के तटस्थ रहने की गुंजायश कर रहे।
यह लेखक अंतर्जाल पर वह सब देखने का प्रयास नहीं करता अगर अंतर्जाल लेखकों ने ही बहुत सादगी (?) से आंध्रप्रदेश, तेलगु और यू ट्यूब का उल्लेख नहीं किया होता। यह भी एक तरीका होता है कि आप किसी को लोकप्रिय बनाना चाहें तो उसकी आलोचना कीजिये। है न चालाकी! आप बताईये कि वहां बुरी चीज है! लोग अपने आप जायेंगे और आपका काम भी हो जायेगा।
प्रसंगवश बुजुर्ग के समर्थकों का दावा है कि ‘वह पहले भी ऐसे हमलों से उबरते रहे हैं और अब भी उबर आयेंगे।’
मतलब यह कि उन बुजुर्ग सज्जन का इतिहास भी उनका पीछा कर रहा है। बुजुर्ग महोदय के विरोधियों ने भी इसका पहले इंतजाम कर लिख दिया कि ‘हो सकता है कि यह सभी प्रायोजित हो। वह बुजुर्ग राष्ट्रीय राजनीति में आने को इच्छुक हों और वहां से निकलने के लिये यह नाटक स्वयं ही रचवाया हो ताकि बाद में उसे निकलकर वाह वाही लूट सकें।’
पता नहीं सच क्या है? पर जिस तरह अंतर्जाल पर यह दो तीन फोटो दिखे उससे उन बुजुर्ग सज्जन पर किया यह शाब्दिक आक्रमण अधिक प्रभावी नहीं दिखता। हम तो एक अध्यात्मिक विचारक हैं और उनका सम्मान करेंगे पर इस मामले के कुछ पैंच हमारी समझ में आये वह लिखना जरूरी लगा।
इस बकवास में आखिरी बात यह है कि हमने युट्यूब पर ही कुछ प्रतिकियायें देखी। एक तरह से सभी छद्म नाम थे
एक प्रतिकिया देखी जिसमें भारतीय लोगों के प्रतिकूल टिप्पणी थी।
उसका जवाब भी एक छद्म नाम ‘पाकिस्तानी चुप रह’ लिख दिया।
सवाल यह है कि उस भारतीय को कैसे पता लगा कि वह पाकिस्तानी है। कहीं यह तयशुदा जंग तो नहीं थी।
एक प्रतिक्रिया यह थी कि ‘उत्तर भारतीयों को दक्षिण भारत के किसी प्रदेश में बड़े पर पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिये।’
उसका भी जवाब भी एक दूसरे ने लिखा था कि ‘यह समस्या तो विश्वव्यापी है इसलिये इसमें क्षेत्रवाद जैसी बात नहीं देखनी चाहिये।’
कहने का तात्पर्य यह है कि इस घटना के दूरगामी परिणाम होंगे। एक तमिल मित्र ने बताया था कि दक्षिण में उत्तरी लोगों के दक्षिण के लोगों पर अनाचार के अनेक किस्से किसी समय वहां प्रचलित थे। इनका प्रभाव यह था कि दक्षिण के लोगों का उत्तर के लोगों पर ही विश्वास नहीं रहता था। यह तो आजादी के बाद लोग एक दूसरे के पास आये तो अब वह बात नहीं है। उसने इस लेखक से कहा था कि ‘तुम जैसे मित्र यहां मिलते हैं यह मैं अपने रिश्तेदारों को बताता हूं तो वह हैरान रह जाते हैं।’
उस मित्र ने बताया था कि अपने शहर में बहुत समय तक लोग उससे यह पूछते थे कि‘ क्या वहां रहते हुए तुम्हें लोग परेशान तो नहीं करते?’
अब वह इस तरह के सवाल नहीं करते पर प्रचार माध्यमों को लंबे समय तक चर्चा में रहने के लिये विषय चाहिये तो संभव है वह इस पर बाल कल्याण, नारी कल्याण, संस्कृति और संस्कार के साथ जोड़कर आगे बढ़ाते रहें। संभव है कि क्षेत्रवाद के भूत को शरीर पैदा करने का प्रयास भी हो। बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं जी! आम आदमी के रूप में जितना समझें उतना ही कम हैं! वैसे धाार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में विराजमान शिखरपुरुषों ने अपने ओहदे को शासन और अपने उपभोग योग्य समझा न कि जनकल्याण तथा समाज सेवा के लिये। यही कारण है कि अब आम आदमी की सहानुभूति उनके प्रति उतनी नहीं जितना पहले थी। बल्कि आचरण को लेकर विश्वसीनयता का भाव नहीं रहा जो खास आदमी को आम आदमी में महानता की श्रेणी दिलाता है। बाकी सच क्या है? जो आयेगा वह सच भी होगा या नहीं। आजकल प्रायोजन तो सभी जगह होने लगा है न! यहां तो बस यह कहा जा सकता है कि ‘अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग।’

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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सभी के चरित्र को कमजोर न समझें-हिन्दी लेख (charitya aur samaj-hindi lekh


वैश्यावृत्ति और जुआ खेलना ऐसी सामाजिक समस्यायें हैं और इनसे कभी भी मुक्ति नहीं पायी जा सकती। वैश्यावृत्ति पर कानून से नियंत्रण पाना चाहिए या नहीं इस पर अक्सर बहस चलती है। कुछ लोगों को मानना है कि वैश्यावृत्ति को कानून से छूट मिलना चाहिए तो कुछ लोगों को लगता है कि इस पर रोक बनी रहे। वैश्यावृत्ति पर कानूनी रोक का समर्थन करने वालों ने जो तर्क दिये जाते हैं वह हास्याप्रद हैं। कुछ लोग तो यहां तक कह जाते हैं कि तब तो भ्रष्टाचार, शराब तथा अन्य अपराधों को भी कानून से छूट मिलना चाहिए। अभी हाल ही में सुनने में आया कि किन्ही न्यायालय द्वारा भी इसकी वकालत की गयी है कि वैश्यावृत्ति को कानूनी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए। इसके पहले भी अनेक सामाजिक विशेषज्ञ इस बात की वकालत करते रहे हैं कि देश की सामाजिक परिस्थतियों में ऐसी रोक ठीक नहीं है।
दरअसल अंग्रेजों के समय ही वैचारिक और सामाजिक कायरता के बीज जो भारत में बो दिये गये वह अब फल और फूल की जगह सभी जगह प्रकट हो रहे हैं। याद रखने की बात यह है कि वैश्यावृत्ति कानून अंग्रजों के समय में ही बनाया गया है। इसका मतलब यह है कि इससे पहले ऐसा कानून यहां प्रचलित नहीं था।
इतना ही नहीं शराब, वैश्यावृत्ति तथा जुआ पर रोक लगाने के किसी भी पुराने कानून की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं मिलती। इसका आशय यह है कि समाज को नियंत्रित करने की यह राजकीय प्रवृत्ति अंग्रेजों की देन है जो स्वयं ही इस तरह का कोई कानून नहीं बनाते बल्कि आजादी के नाम पर यहां अनेक अपराध भी मुक्त हैं जिनमें सट्टा भी शामिल हैं। कुछ कानूनी विशेषज्ञ तो यह बताते हैं कि अभी भी इस देश में 95 प्रतिशत कानून उन अंग्रेजों के बनाये हैं जिनके यहां कोई लिखित कानून हैं। मतलब यह है कि वह एक शब्द समूह यहां अपने गुलामों को थमा गये जिससे पढ़कर हम अभी भी चल रहे हैं।
इस मामले में हम एक सती प्रथा पर रोक के कानून का उल्लेख करना चाहेंगे जिसकी वजह से राजा राममोहन राय को भारत का एक बहुत बड़ा समाज सुधारक माना जाता है। उन्होंने ऐसा कानून बनाने के लिये आंदोलन चलाया था पर इतिहास में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि उस समय देश में सत्ती प्रथा किस हद तक मौजूद थी। अगर उनके आंदोलन की गति को देखें तो लगता है कि उस समय देश में ऐसी बहुत सी घटनायें रोज घटती होंगी पर इसको कोई प्रमाणित नहीं करता। उस समय देश में आजादी के लिये भी आंदोलन चल रहा था। ऐसे में लगता है कि भारत की सती प्रथा के लेकर अंग्रेज कहीं दुष्प्रचार करते होंगे या फिर ऐसी कृत्रिम घटनाओं का समाचार बनता होगा जिससे लगता हो कि यह देश तो भोंदू समाज है। यह कानून बनने से कोई सत्ती प्रथा कम हुई इसका भी प्रमाण नहीं मिलता। संभव है कुछ संपत्ति की लालच में औरतों को जलाकर उसके सत्ती होने का प्रचार करते हों पर ऐसी घटनायें तो देश में इस कानून के बाद भी हुईं। फिर मान लीजिये यह कानून नहीं बनता तो भी इस देश में आत्म हत्या और हत्या दोनों के लिये कानून है तब उसे सत्ती होने वाले मामलों पर लागू किया जा सकता था।
एक बार एक लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब के कानून तो अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ऐसे मामलों में फंसाकर उन्हें बदनाम करने के उद्देश्य से बनाये थे। सच हम नहीं जानते पर इतना जरूर है कि सामाजिक संकटों को राज्य से नियंत्रित करने का प्रयास ठीक नहीं है। समाज को स्वयं ही नियंत्रित होने दीजिये। आखिर इस देश के समाजों के ठेकेदार क्या केवल उनकी भावनाओं का दोहन करने लिये ही बैठे हैं क्या?
वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब सामाजिक समस्यायें हैं और इन पर नियंत्रण करने के दुष्परिणाम यह हुए हैं कि जिसके पास धन, बल, और बड़ा पद है पर अपनी शक्ति कानून को तोड़कर दिखाता है। आप भ्रष्टाचार या सार्वजनिक रूप से धुम्रपान करने जैसे अपराधों से इसकी तुलना नहीं कर सकते।
वैश्यावृत्ति कोई अच्छी बात नहीं है। एक समय था जो महिला या पुरुष इसमें संलिप्त होते उनको समाज हेय दृष्टि से देखता था। अनेक बड़े शहरों में वैश्याओं के बाजार हुआ थे जहां से भला आदमी निकलते हुए अपनी आंख बंद कर लेता था। धीरे धीरे वैश्यायें लुप्त हो गयीं पर आजकल कालगर्ल उनकी जगह ले जगह चुकी हैं। पहले जहां अनपढ़ और निम्न परिवारों की लड़कियां जबरन या अपनी इच्छा से इस व्यवसाय में आती थीं पर आजकल पढ़लिखी लड़कियां स्वेच्छा से इस काम में लिप्त होने की बातें समाचारों में में आती है। उसकी वजह कुछ भी हो सकती हैं-घर का खर्चा चलना या अय्याशी करना।
सवाल यह है कि इसका हल समाज को ढूंढना चाहिये या नहीं। इस देश के उच्च वर्ग ने तो अपने बच्चों की शादी को प्रदर्शन करने का एक बहाना बना लिया है। मध्यम वर्ग के परिवार उन जैसे दिखने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। नतीजा यह है कि बड़ी उम्र तक बच्चों के विवाह नहीं हो रहे। इसके अलावा बच्चों के साथ ही उनके अभिभावकों द्वारा उनके जीवन साथी के लिये अत्यंत खूबसूरत काल्पनिक पात्र सृजित कर रिश्ता तलाशा जाता है। लड़की सुंदर हो, काम काज में दक्ष हो, कंप्यूटर जानती हो और कमाना जानती हो-जैसे जुमले तो सुनने में मिलते ही हैं। उस पर दहेज की रकम की समस्या। समाज का यह अंतद्वंद्व सभी जानते हैं पर जिसका समय निकला जाता है वह उसे भुला देता है। जिन्होंने बीस वर्ष की उम्र में शादी कर ली वह अपने पुत्र या पुत्री को तीस वर्ष तक विवाह योग्य नहीं पाते-उनके बारे में क्या कहा जाये? क्या मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं को खुलकर कहने की आवश्यकता है? इंद्रियों को निंयत्रित करना चाहिये पर उनका दमन करना भी संभव नहीं है-क्या यह सच नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इस सभी के बावजूद पूरा समाज इसी राह पर चल रहा है। अगर कोई वैश्यावृत्ति में संलिप्त नहीं है तो वह कानून के डर की वजह से नहीं बल्कि पुराने चले आ रहे संस्कारों ने सभी को इसकी प्रेरणा दे रखी है। हमारे संत महापुरुषों ने हमेशा ही व्यसनों से बचने का संदेश दिया है। उसके दुष्परिणाम बताये गए हैं। देश में आज भी नैतिकता को संबल मिला हुआ है क्योंकि वह संस्कारों के सहारे टिकी है। यह भरोसा वह हर विद्वान करता है जो इसे जानता है।
ऐसे में वैचारिक कायरों का वह समूह- जो चाहता है कि रात को टीवी पर खबरें देखते हुए ‘अपने देश की चारित्रिक रक्षा के दृश्य देखकर खुश हों‘-ऐसी बातें कह रहा है जिसको न तो समाज पर विश्वास है न ही अपने पर। पढ़ी लिखी लड़कियां ऐसे मामलों में पकड़े जाने मुंह ढंके दिखती हैं, तब सवाल यह उठता है कि आखिर उनका अपराध क्या है? वह किसको हानि पहुंचा रही थीं? याद रहे अपराध का मुख्य आधार यही है कि कोई व्यक्ति दूसरे को हानि पहुंचाये। अनेक बार अखबार में जुआ खेलते हुए पकड़े जाने वाले समाचार आते हैं। सवाल यह है यह भी शराब जैसे व्यसन है और जिस पर कोई रोक नहीं है।
दरअसल ऐसे कानूनों ने पुरुष समाज को गैर जिम्मेदार बना दिया है। अपने घर की औरतों की देखभाल करने के साथ ही उनपर नज़र रखना अभी तक पुरुषों का ही जिम्मा है। इस कानून ने उनको आश्वस्त कर दिया है कि औरतें डर के बारे में इस राह पर नहीं जायेंगी। समाज के ठेकेदार भी नैतिकता को निजी विषय मानने लगे हैं। इसके अलावा विवाह योग्य पुत्र के माता पिता-पुत्री के भी वही होते हैं उसका रिश्ता तय करते समय भूल जाते हैं-इस विश्वास में अधिक दहेज की मांग करते हैं कि कि कोई न कोई लड़की का बाप मजबूर होकर उनकी शर्ते मानेगा।
इसके अलावा समाज के ठेकेदार उसके नाम पर कार्यक्रम करने के लिये चंदा मांगने और चुनाव के समय उनको अपने हिसाब से मतदान का आव्हान करने के अलावा अन्य कुछ नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि बाकी सुधार के लिये तो राज्य ही जिम्मेदार है। समाज को अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा अनुचित कर्मकांडों से बचने का संदेश इनमें कोई नहीं देता। यही हालत आजकल के व्यवसायिक संतों की है।
एक बात यह भी लगती है कि अंग्रेजों ने इतने सारे कानून शायद इसलिये बनाये ताकि विश्व का बता सकें कि देखिये हम एक पशु सभ्यता को मानवीय बना रहे हैं और आज भी वह इसका दावा करते हैं। इधर अपने देश के वैचारिक कायर चिंतक उन्हीं कानूनों को ढोने की वकालत करते हैं क्योंकि अपने समाज पर विश्वास न रखने की नीति उन्हें अंगे्रजी शिक्षा पद्धति से ही मिलती है। अपने पूरा समाज को कच्ची बुद्धि का समझने की उनकी आदतें बदलने वाली नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अपराध वह है जिससे दूसरे को हानि पहुंचे। वैश्यावृत्ति, जुआ या सट्टा ऐसे अपराध हैं जिसमें आदमी अपने धन और इज्जत तो गंवाता ही है अपना स्वास्थ्य भी खोता है। किसी स्त्री से जबरन वैश्यावृत्ति कराना अपराध है और इस पर सख्त कार्यवाही होना चाहिये। यही कारण है कि एक विद्वान से यह भी सलाह दी है कि वैश्यावृत्ति में पकड़े गये अपराधियों में इस बात की पहचान करने का प्रावधान हो कि कोई जबरन तो इस कार्य में नहीं लगा हो।
हमारे देश का सामाजिक ढांचा मजबूत है और पूरा विश्व इसे मानता है। हर आदमी घर परिवार से जुड़ा है। अधिकतर पुरुष अपने घरेलू समस्याओं को हल करने के लिये संघर्ष करते हैं। संभव है कुछ घरों में पुरुष सदस्य की बीमारी या आर्थिक परेशानी होने पर कुछ लड़कियां और महिलाऐं इस काम में लगती हों पर सभी एसा नहीं करती बल्कि अधिकतर नौकरी आदि कर अपना काम चलाती है। ऐसे में पूरे समाज को भ्रष्ट होने की आशंका करना बेमानी है। खासतौर से इस देश में जहां रोजगार और संपत्ति मौलिक अधिकार न बना हो। फिर जब समलैंगिकता जैसे मूर्खतापूर्ण कृत्य को छूट मिल रही है तब वैश्यावृत्ति जैसे कानून को बनाये रखने का औचित्य तो बताना ही पड़ेगा न! बुरे काम का बुरा नतीजा सभी जानते हैं और यही कारण है कि मनुष्य की आदतों को नियंत्रित करने का काम उसे ही करने देना चाहिये। आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नश्वर का शोक-हिन्दी हास्य व्यंग्य (nashvar ka dukh-hindi hasya vyangya)


आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’
अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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माँगा जो हिसाब-हास्य व्यंग और कविता (hisab-hindy hasya vyang aur kavia)


दीपक बापू अपने घर से बाहर निकले ही थे कि सेवक ‘सदाबहार’जी मिल गये। दीपक बापू ने प्रयास यह किया कि किसी तरह उनसे बचकर निकला जाये इसलिये इस मुद्रा में चलने लगे जैसे कि किसी हास्य कविता के विषय का चिंतन कर रहे हों जिसकी वजह से उनका ध्यान सड़क पर जा रहे किसी आदमी की तरफ नहीं है। मगर सदाबहार समाज सेवक जी हाथ में कागज पकड़े हुए थे और उनका काम ही यही था कि चलते चलते शिकार करना। वह कागज उनके रसीद कट्टे थे जिसे लोग पिंजरा भी कहते हैं।
‘‘ऐ, दीपक बापू! किधर चले, इतना बड़ी हमारी देह तुमको दिखाई नहंी दे रही। अरे, हमारा पेट देखकर तो तीन किलोमीटर से लोग हमको पहचान जाते हैं और एक तुम हो कि नमस्कार तक नहीं करते।’उन्होंने दीपक बापू को आवाज देकर रोका
उधर दीपक बापू ने सोचा कि’ आज पता नहीं कितने से जेब कटेगी?’
उन्होंने समाज सेवक जी से कहा-‘नमस्कार जी, आप तो जानते हो कि हम तो कवि हैं इसलिये जहां भी अवसर मिलता है कोई न कोई विषय सोचते हैं। इसलिये कई बार राह चलते हुए आदमी की तरफ ध्यान नहीं जाता। आप तो यह बतायें कि यह कार यात्रा छोड़कर कहां निकल पड़े?’
सेवक ‘सदाबहार’जी बोले-अरे, भई कार के बिना हम कहां छोड़ सकते हैं। इतना काम रहता है कि पैदल चलने का समय ही नहीं मिल पाता पर समाज सेवा के लिये तो कभी न कभी पैदल चलकर दिखाना ही पड़ता है। कार वहां एक शिष्य के घर के बाहर खड़ी की और फिर इधर जनसंपर्क के लिये निकल पड़े। निकालो पांच सौ रुपये। तुम जैसे दानदाता ही हमारा सहारा हो वरना कहां कर पाते यह समाज सेवा?’
दीपक बापू बोले-‘किसलिये? अभी पिछले ही महीने तो आपका वह शिष्य पचास रुपये ले गये था जिसके घर के बाहर आप कार छोड़कर आये हैं।’
सेवक ‘सदाबहार’-अरे, भई छोटे मोटे चंदे तो वही लेता है। बड़ा मामला है इसलिये हम ले रहे हैं। उसने तुमसे जो पचास रुपये लिये थे वह बाल मेले के लिये थे। यह तो हम बाल और वृद्ध आश्रम बनवा रहे हैं उसके लिये है। अभी तो यह पहली किश्त है, बाकी तो बाद में लेते रहेंगे।’
दीपक बापू ने कहा-‘पर जनाब! आपने सर्वशक्तिमान की दरबार बनाने के लिये भी पैसे लिये थे! उनका क्या हुआ?
सदाबहार जी बोले-‘अरे, भई वह तो मूर्ति को लेकर झगड़ा फंसा हुआ है। वह नहीं सुलट रहा। हम पत्थर देवता की मूर्ति लगवाना चाहते थे पर कुछ लोग पानी देवता की मूर्ति लगाने की मांग करने लगे। कुछ लोग हवा देवी की प्रतिमा लगवाने की जिद्द करने लगे।’
दीपक बापू बोले-‘‘तो आप सभी की छोटी छोटी प्रतिमायें लगवा देते।’
सदाबहार जी बोले-कैसी बात करते हो? सर्वशक्तिमान का दरबार कोई किराने की दुकान है जो सब चीजें सजा लो। अरे, भई हमने कहा कि हमने तो पत्थर देवता के नाम से चंदा लिया है पर लोग हैं कि अपनी बात पर अड़े हुए हैं। इसलिये दरबार का पूरा होना तो रहा। सोचा चलो कोई दूसरा काम कर लें।’
दीपक बापू बोले-पर सुना है कि उसके चंदे को लेकर बहुत सारी हेराफेरी हुई है। इसलिये जानबूझकर झगड़ा खड़ा किया गया है। हम तो आपको बहुत ईमानदार मानते हैं पर लोग पता नहीं आप पर भी इल्जाम लगा रहे हैं। हो सकता है कि आपके चेलों ने घोटाला किया हो?
सदाबहार जी एक दम फट पड़े-‘क्या बकवाद करते हो? लगता है कि तुम भी विरोधियों के बहकावे मंें आ गये हो। अगर तुम्हें चंदा न देना हो तो नहीं दो। इस संसार में समाज की सेवा के लिये दान करने वाले बहुत हैं। तुम अपना तो पेट भर लो तब तो दूसरे की सोचो। चलता हूं मैं!’
दीपक बापू बोले-हम आपकी ईमानदारी पर शक कर रहे हैं वह तो आपके चेले चपाटों को लेकर शक था!
सदाबहार जी बोले-ऐ कौड़ी के कवि महाराज! हमें मत चलाओ! हमारे चेले चपाटों में कोई भी ऐसा नहीं है। फिर हमारे विरोधी तो हम पर आरोप लगा रहे हैं और तुम चालाकी से हमारे चेलों पर उंगली उठाकर हमें ही घिस रहे हो! अरे, हमारे चेलों की इतनी हिम्मत नहीं है कि हमारे बिना काम कर जायें।’
दीपक बापू बोले-‘मगर मूर्ति विवाद भी तो उन लोगों ने उठाया है जो आपके चेले हैं। हमने उनकी बातें भी सुनी हैं। इसका मतलब यह है कि वह आपके इशारे पर ही यह विवाद उठा रहे हैं ताकि दरबार के चंदे के घोटाले पर पर्दा बना रहे।’
सर्वशक्तिमान बोले-‘वह तो कुछ नालायक लोग हैं जिनको हमने घोटाले का मौका नहीं दिया वही ऐसे विवाद खड़ा कर रहे हैं। हमसे पूछा चंदे के एक एक पैसे का हिसाब है हमारे पास!
दीपक बापू बोले-‘तो आप उसे सार्वजनिक कर दो। हमें दिखा दो। भई, हम तो चाहते हैंें कि आपकी छबि स्वच्छ रहे। हमें अच्छा नहीं लगता कि आप जो भी कार्यक्रम करते हैं उसमें आप पर घोटाले का आरोप लगता है।
सदाबहार जी उग्र होकर बोले-‘देखो, कवि महाराज! अब हम तो तुम से चंदा मांगकर कर पछताये। भविष्य में तो तुम अपनी शक्ल भी नहीं दिखाना। हम भी देख लेंगे तो मुंह फेर लेंगे। अब तुम निकल लो यहां से! कहां तुम्हारे से बात कर अपना मन खराब किया। वैसे यह बात तुम हमारे किसी चेले से नहीं कहना वरना वह कुछ भी कर सकता है।’
सदाबहार जी चले गये तो दीपक बापू ने अपनी काव्यात्मक पंक्तियां दोहराई।
हमारी कौड़ियों से ही उन्होंने
अपने घर सजाये
मांगा जो हिसाब तो
हमें कौड़ा का बता दिया।
खता बस इतनी थी हमारी कि
हमने सच का बयां किया।’
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नापसंद लेखक, पसंदीदा आशिक-हिन्दी हास्य कविता (rejected writer-hindi hasya kavita)


आशिक ने अपनी माशुका को
इंटरनेट पर अपने को हिट दिखाने के लिये लिए
अपने ब्लाग पर
पसंद नापसंद का स्तंभ
एक तरफ लगाया।
पहले खुद ही पसंद पर किल्क कर
पाठ को ऊपर चढ़ाता था
पर हर पाठक मूंह फेर जाता था
नापसंद के विकल्प को उसने लगाया।
अपने पाठों पर फिर तो
फिकरों की बरसात होती पाया
पसंद से कोई नहीं पूछता था
पहले जिन पाठों को
नापसंद ने उनको भी ऊंचा पहुंचाया।
उसने अपने ब्लाग का दर्शन
अपनी माशुका को भी कराया।
देखते ही वह बिफरी
और बोली
‘‘यह क्या बकवाद लिखते हो
कवि कम फूहड़ अधिक दिखते हो
शर्म आयेगी अगर अब
मैंने यह ब्लाग अपनी सहेलियों को दिखाया।
हटा दो यह सब
नहीं तो भूल जाना अपने इश्क को
दुबारा अगर इसे लगाया।’’

सुनकर आशिक बोला
‘‘अरे, अपने कीबोर्ड पर
घिसते घिसते जन्म गंवाया
पर कभी इतना हिट नहीं पाया।
खुद ही पसंद बटन पर
उंगली पीट पीट कर
अपने पाठ किसी तरह चमकाये
पर पाठक उसे देखने भी नहीं आये।
इस नपसंद ने बिना कुछ किये
इतने सारे पाठक जुटाये।
तुम इस जमाने को नहीं जानती
आज की जनता गुलाम है
खास लोगों के चेहरे देखने
और उनका लिखा पढ़ने के लिये
आम आदमी को वह कुछ नहीं मानती
आम कवि जब चमकता है
दूसरा उसे देखकर बहकता है
पसंद के नाम सभी मूंह फुलाते
कोई नापसंद हो उस पर मुस्कराते
पहरे में रहते बड़े बड़े लोग
इसलिये कोई कुछ नहीं कर पाता
अपने जैसा मिल जाये कोई कवि
उस अपनी कुंठा हर कोई उतार जाता
हिट देखकर सभी ने अनदेखा किया
नापसंद देखकर उनको भी मजा आया।
ज्यादा हिट मिलें इसलिये ही
यह नापसंद चिपकाया।
अरे, हमें क्या
इंटरनेट पर हिट मिलने चाहिये
नायक को मिलता है सब
पर खलनायक भी नहीं होता खाली
यह देखना चाहिये
मैं पसंद से जो ना पा सका
नापसंद से पाया।’’

इधर माशुका ने सोचा
‘मुझे क्या करना
आजकल तो करती हैं
लड़कियां बदमाशों से इश्क
मैंने नहीं लिया यह रिस्क
इसे नापसंद देखकर
दूसरी लड़कियां डोरे नहीं डालेंगी
क्या हुआ यह नापसंद लेखक
मेरा पसंदीदा आशिक है
इसमें कुछ बुरा भी समझ में नहीं आया।’
……………………………..

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बहसों के दौर -व्यंग्य कविता (bahas aur bazar-hindi vyangya kavita)


सभागार के तले
मंच पर चले
बहसों के दौर
सुबह और शाम।
दिन पर चले पर नतीजा सिफर
छलकते हैं फिर भी रात को जाम।

अक्लमंदों की महफिल सजती है
उनकी दिमागी बोतल से
निकलते हैं लफ्ज
ऊपर लगी है मुद्दों की छाप
बाहर आते ही उड़ जाते बनकर भाप
मशहूर हो जाते बस यूं ही नाम।

बंद कमरे में हुई बहस
बाजार में बिकने आ जाती है
जमाने में छा जाती है
किसी नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद है बेकार
नहीं चली बहस आगे
तो जज्बातों के सौदागार हो जायेंगे बेजार
इसलिये मुद्दे बार बार
चमकाये जाते हैं
कभी लफ्ज तो कभी छाप
बदलकर सामने आते हैं
अक्लमंद करते हैं बहस
पीछे बाजार करता है अपना काम।
इसलिये जिस शय को बाजार में बेचना है
उस पर जरूरी है बंद कमरे में
पहले बहस कराने का काम।
……………………..

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आशिक, माशुका और महबूब-हास्य कविता


श्रृंगार रस का कवि
पहुंचा हास्य कवि के पास
लगाये अच्छी सलाह की आस
और बोला
‘यार, अब यह कैसा जमाना आया
समलैंगिकता ने अपना जाल बिछाया।
अभी तक तो लिखी जाती थी
स्त्री पुरुष पर प्रेम से परिपूर्ण कवितायें
अब तो समलिंग में भी प्रेम का अलख जगायें
वरना जमाने से पिछड़ जायेंगे
लोग हमारी कविता को पिछड़ी बतायेंगे
कोई रास्ता नहीं सूझा
इसलिये सलाह के लिये तुम्हारे पास आया।’

सुनकर हास्य कवि घबड़ाया
फिर बोला-’‘बस इतनी बात
क्यों दे रहे हो अपने को ताप
एकदम शुद्ध हिंदी छोड़कर
कुछ फिल्मी शैली भी अपनाओ
फिर अपनी रचनायें लिखकर भुनाओ
एक फिल्म में
तुमने सुना और देखा होगा
नायक को महबूबा के आने पर यह गाते
‘मेरा महबूब आया है’
तुम प्रियतम और प्रियतमा छोड़कर
महबूब पर फिदा हो जाओ
चिंता की कोई बात नहीं
आजकल पहनावे और चाल चलन में
कोई अंतर नहीं लगता
इसलिये अदाओं का बयान
महबूब और महबूबा के लिये एक जैसा फबता
कुछ लड़के भी रखने लगे हैं बाल
अब लड़कियों की तरह बड़े
पहनने लगे हैं कान में बाली और हाथ में कड़े
तुम तो श्रृंगार रस में डूबकर
वैसे ही लिखो समलैंगिक गीत कवितायें
जिसे प्राकृतिक और समलैंगिक प्रेम वाले
एक स्वर में गायें
छोड़े दो सारी चिंतायें
मुश्किल तो हमारे सामने है
जो हास्य कविता में आशिक और माशुका पर
लिखकर खूब रंग जमाया
पर महबूब तो एकदम ठंडा शब्द है
जिस पर हास्य लिखा नहीं जा सकता
हम तो ठहरे हास्य कवि
साहित्य और भाषा की जितनी समझ है
दोस्त हो इसलिये उतना तुमको बताया।

………………………………………….

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जिंदगी में ‘शार्टकट’ रास्ता मत ढूंढो यार-vyangya kavita


जीवन में कामयाबी के लिये
शार्टकट(छौटा रास्ता) के लिये
मत भटको यार
भीड़ बहुत है सब जगह
पता नहीं किस रास्ते
फंस जाये अपनी कार
तब सोचते हैं लंबे रास्ते
ही चले होते तो हो जाते पार
…………………………
धरती की उम्र से भी छोटी होती हमारी
फिर भी लंबी नजर आती है
जिंदगी में कामयाबी के लिये
छोटा रास्ता ढूंढते हुए
निकल जाती है उमर
पर जिंदगी की गाड़ी वहीं अटकी
नजर आती है
…………………..
जिंदगी मे दौलत और शौहरत
पाने के वास्ते
ढूंढते रहे वह छोटे रास्ते
खड़े रहे वहीं का वहीं
नाकाम इंसान की सनद
बढ़ती रही उनके नाम की तरफ
आहिस्ते-आहिस्ते

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स्वर्ग पाने के लिए संघर्ष-हिंदी लघुकथा


वहां सीधा शिखर था जिस पर आदमी सीधे स्वर्ग में पहुंच सकता था। शर्त यही थी कि उस शिखर पर बने उसी मार्ग से पैदल जाये तभी स्वर्ग का दरवाजा दिखाई देगा। ऐसा कहा जाता था कि उसी मार्ग से -जहां तक पहुंचना आसान नहीं था- जाने पर ही स्वर्ग का दरवाजा दिखाई देता है। उस शिखर पर कोई नहीं चढ़ सकता था। आसपास गांव वालों ने कभी कोशिश भी नहीं की क्योंकि उस शिखर पर चढने के लिये केवल जो इकलौता चढ़ाई मार्ग था उस तक पहुंचने के लिये बहुत बड़ी सीढ़ी चाहिये थी जो उनके लिये बनाना मुमकिन नहीं था। उसके बाद ही उसकी चढ़ाई आसान थी। उन ग्रामीणों ने अनेक लोगों को उनकी लायी सीढ़ी से ऊपर इस आशा में पहुंचाया था कि उसके बाद वह स्वयं भी चढ़ जायेंगे पर सभी लोग ऊपर पहुंचते ही सीढ़ी खींच लेते थे और ग्रामीण निराश हो जाते थे।
एक दिन एक बहुत धनीमानी आदमी सीधे स्वर्ग जाने के लिये वहां आया। उसके पास बहुत बड़ी सीढ़ी थी। इतनी लंबी सीढ़ी टुकड़ों में बनवायी और फिर वहां तक लाने के जाने के लिये उसने बहुत सारे वाहन भी मंगवाये। वहां पहुंचकर उसने उस सीढ़ी के सारे टुकड़े जुड़वाये। । वहां लाकर उसने गांव वालों से कहा-‘तुम लोग इसी सीढ़ी को पकड़े रहो। मैं तुम्हें पैसे दूंगा।’
गांव वालों ने कहा कि -‘पहले भी कुछ लोग आये और यहां से स्वर्ग की तरफ गये पर लौटकर मूंह नहीं दिखाया। इसलिये पैसे अग्रिम में प्रदान करो।’
उसने कहा कि‘पहले पैसे देने पर तुमने कहीं ऊपर चढ़ने से पहले ही गिरा दिया तो मैं तो मर जाऊंगा। इसलिये ऊपर पहुंचते ही पैसे नीचे गिरा दूंगा।’
तब एक वृद्ध ग्रामीण ने उससे कहा-‘मैं तुम्हारे साथ सीढ़ी चढ़ूंगा। जब तुम वहां उतर जाओगे तो पैसे मुझे दे देना मैं नीचे आ जाऊंगा।’
उस धनीमानी आदमी ने कहा-‘पर अगर तुम वहां उतर गये तो फिर नीचे नहीं आओगे। वैसे ही तुम मेरी तरह बूढ़े हो और स्वर्ग पाने का लालच तुम्हारी आंख में साफ दिखाई देता है। कहीं तुम उतर गये तो मुझे स्वर्ग जाने का दरवाजा नहीं मिलेगा। मैंने पढ़ा है कि आदमी को अकेले आने पर ही वहां पर स्वर्ग का दरवाजा मिलता है।
दूसरे ग्रामीण ने कहा-‘नहीं, यह हमारा सबसे ईमानदार है और इसलिये वैसे भी इसको स्वर्ग मिलने की संभावना है क्योंकि उस स्वर्ग के लिये कुछ दान पुण्य करना जरूरी है और वह कभी इसने नहीं किया। आप तो हमें दान दे रहे हो और इसलिये स्वर्ग का द्वारा आपको ही दिखाई देगा इसको नहीं। इसलिये यह पैसे लेकर वापस आ जायेगा।’
उस धनीमानी आदमी ने कुछ सोचा और फिर वह राजी हो गया।
जब वह वृद्ध ग्रामीण उस धनीमानी आदमी के पीछे सीढ़ी पर चढ़ रहा था तब दूसरा ग्रामीण जो सिद्धांतवादी था और उसने सीढ़ी पकड़ने से इंकार कर दिया था, वह उस वृद्ध ग्रामीण से बोला-‘शिखर यह हो या कोई दूसरा, उस पर केवल ढोंगी पहुंचते हैं। तुम इस आदमी को पक्का पाखंडी समझो। कहीं यह तुम्हें ऊपर से नीचे फैंक न दे। वैसे भी जो लोग यहां से गये हैं वह अपनी सीढ़ी भी खींच लेते हैं ताकि कोई दूसरा न चढ़ सके। यही काम यह आदमी भी करेगा।’
एक अन्य ग्रामीण ने कहा-‘यह आदमी भला लग रहा है, फिर बूढ़ा भी है। इसलिये सीढ़ी नहीं खींच पायेगा। फिर जब पैसे नीचे आ जायेंगे तब हम भी जाकर देखेंगे कि स्वर्ग कैसा होता है।’
वृद्ध ग्रामीण और वह धनीमानी आदमी सीढ़ी पर चलते रहे। जब वह धनीमानी आदमी ऊपर पहुंचा तो उसने तत्काल उस सीढ़ी को हिलाना शुरु किया तो वह वृद्ध ग्रामीण चिल्लाया‘यह क्या क्या रहे हो? मैं गिर जाऊंगा।’
वह धनीमानी आदमी बोला-‘तुम अगर बच गये तो यहां आने का प्रयास करोगे। यह सीढ़ी मुझे ऊपर खींचनी है ताकि कोई दूसरा न चढ़ सके। यह भी मैं किताब में पढ़कर आया हूं। तुम पैसे लेने के लिये ऊपर आओगे पर फिर तुम्हें नीचे फैंकना कठिन है। इसलिये भाई माफ करना अपने स्वर्ग के लिये तुम्हें नीचे पटकना जरूरी है बाकी सर्वशक्तिमान की मर्जी। वह बचाये या नहीं।’
बूढ़ा चिल्लाता रहा पर धनीमानी सीढ़ी को जोर से हिलाता रहा। जिससे वह नीचे गिरने लगा तो सीढ़िया पकड़े ग्रामीणों ने उसे बचाने के लिये वह सीढ़ी छोड़ दी और धनीमानी ने उसे खींच लिया। वह ग्रामीण नीचे आकर गिरा। गनीमत थी कि रेत पर गिरा इसलिये अधिक चोट नहीं आयी।’
वह चिल्ला रहा था‘सर्वशक्तिमान उसे स्वर्ग का रास्ता मत दिखाना। वह ढोंगी है।’
दूसरे समझदार वृद्ध ग्रामीण ने कहा-‘तुम लोग भी निरे मूर्ख हो। आज तक तुम्हें यह समझ में नहीं आयी कि जितने भी स्वर्ग चाहने वाले यहां आये कभी उन्होंने अपनी सीढ़ी यहां छोड़ी या हमें पैसे दिये? दरअसल ऊपर कुछ नहीं है। मेरे परदादा एक बार वहां से घूम आये थे। वह एक धनीमानी आदमी को लेकर वहां गये जो चलते चलते मर गया। मेरे परदादा ने यह बात लिख छोड़ी है कि उस शिखर पर स्वर्ग का कोई दरवाजा वहां नहीं है जहां यह रास्ता जाता है। बल्कि उसे ढूंढते हुए भूखे प्यासे लोग चलते चलते ही मर जाते हैं और हम यहां भ्रम पालते हैं कि वह स्वर्ग पहुंच गये। कुछ तो इसलिये भी वापस लौटने का साहस नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि हमारा पैसा नहीं दिया और हम उनको मार न डालें।’

चोट खाने और पैसा न मिल पाने के बावजूद वह वृद्ध ग्रामीण उस समझदार से कहने लगा-‘तुम कुछ नहीं जानते। ऊपर स्वर्ग का दरवाजा है। आखिर लोग यहां आते हैं। जब ऊपर पहुंचकर लौटते ही नहीं है तो इसका मतलब है कि स्वर्ग ऊपर है।’
एक अन्य ग्रामीण बोला-‘ठीक है। इंतजार करते हैं कि शायद कोई भला आदमी यहां आये और हमें सीढ़ी नसीब हो।’
समझदार ग्रामीण ने कहा-‘भले आदमी को तो स्वर्ग बिन मांगे ही मिल जाता है इसलिये जो यहां स्वर्ग पाने आता है उसे ढोंगी ही समझा करो।’
मगर ग्रामीण नहीं माने और किसी भले आदमी की बाट जोहने लगे।
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कोयल भी खरीद कर सुर देने आती है-व्यंग्य कविता


खूबसूरत चेहरे
यूं ही नहीं हो जाते मशहूर.
सौन्दर्य सामग्री से चमक आती है
आवाज खराब हो तो
कोयल भी खरीद कर सुर देने आती है
देखने वाले क्या
पहचाने सौन्दर्य और आवाज़
सुरक्षा की दीवार कर देती उनको दूर.
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अपनी अदाओं के जलवे दिखाने
तमाम वादों और उम्मीदों का दावा
अपने नाम लिखाने
ढेर सारे अदाकार
चौराहों पर आते.
लोग देखते हैं आँखों से
सुनते हैं कानों से
अक्ल के दरवाजे बंद कर
भीड़ की तरह जुट जाते.
दिन के उजाले में बेचते हैं अंधे जज़्बात
वह सौदागर रात को गुम हो जाते हैं.
मगर नाम उनके फिर भी
जमाने में छा जाते.
बरसों तक लुटते हैं लोग
कहीं पैसा तो कहीं यकीन खो दिया
पर क्या करें लोग
रोटी के टुकड़े और पानी को तरसते
साथ में कमजोर याददाश्त का
बोझ भी उठाते.

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अपने फायदे के लिए बनाये कायदे-हिन्दी व्यंग्य कविता


हक की बात करते हैं लोग सभी
फर्ज पर बहस नहीं करते कभी।।।
अपने फायदे के लिये बनाये कायदे
वह भी मौका पड़े, याद आते हैं तभी।।
दिखाने के लिये लोग अहसान करते हैं
नाम मदद, पर कीमत मांगते हैं सभी।।
रोटियों का ढेर भले भरा हो जिनके गले तक
उनकी भूख का शेर पिंजरे में नहीं जाता कभी।।
नारों से पेट भरता तो यहां भूख कौन होता
दिखाते हैं सब, पेट में नहीं डालता कोई कभी।।
गरीब के साथ जलना जरूरी है, भूख की आग का
उसके कद्रदानों की रोटी पक सकती है तभी।।

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