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खेल का पीरियड-हिन्दी हास्य कविता (khel ki shiksha-hindi hasya kavita


खेल के पीरियड में
बहुत से छात्र नहीं आये,
यह सुनकर विद्यालय के
प्राचार्य तिलमिलाये
और अनुपस्थित छात्रों को फटकारा
‘‘तुम लोगों को शर्म नहीं आती
खेल के समय गायब पाये जाते हो,
क्या करोगे जिंदगी में सभी लोग,
बिना फिटनेस के ऊंचाई पर जाने के
सपने यूं ही सजाते हो,
अरे, खेलने में भी आजकल है दम,
पैसा नहीं है इसमें कम,
कोई खेल पकड़ लो,
दौलत और शौहरत को अपने साथ जकड़ लो,
देश का भी नाम बढ़ेगा,
परिवार का भी स्तर चढ़ेगा,
यही समय है जब अपनी सेहत बना लो
वरना आगे कुछ हाथ नहीं आयेगा।’’

एक छात्र बोला
‘‘माननीय
आप जो कहते है वह सही है,
मगर हॉकी या बल्ला पकड़ने से
अधिक प्रबंध कौशल होना
सफलता की गारंटी रही है,
पैसा तो केवल क्रिकेट में ही है
बाकी खेलों में तो बिना खेले ही
बड़े बड़े बड़े खेल हो जाते हैं,
जिन्होंने सीख ली प्रबंध की कला
वह चढ़ जाते हैं शिखर पर
नहीं तो बड़े बडे खिलाड़ी
मैदान पर पहुंचने से पहले ही
सिफारिश न होने पर फेल हो जाते हैं,
अच्छा खिलाड़ी होने के लिये जरूरी नहीं
कोई खेले मैदान पर जाकर खेल,
बस,
निकालना आना चाहिये उसमें से कमीशन की तरह तेल,
आपके यहां प्रबंध का विषय भी हमें पढ़ाया जाता है,
पर उसमें नये ढंग का तरीका नहीं बताया जाता है,
हम रोज अखबारों में पढ़ते हैं
जब होता है विद्यालय में खेल का पीरियड
तब हम खेल के प्रबंध पर चर्चा करते हैं,
किस तरह खेलों में नाम कमायें,
तय किया है कि ‘कुशल प्रबंधक‘ बन जायें,
आप बेफिक्र रहें
किसी से कुछ न कहें,
कोई न कोई आपके यहां का छात्र
खेल जगत में नाम कमायेगा,
मैदान पर नहीं तो
खेल प्रबंधन में जाकर
अपने साथ विद्यालय की इज्ज़त बढ़ायेगा,
उसकी खिलाड़ी करेंगे चाकरी,
खिलाड़िनों को भी नचायेगा,
भले ही न पकड़ता हो हॉकी,
बॉल से अधिक पकड़े साकी,
पर खेल जगत में नाम कमायेगा।’’

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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सीधी राह नहीं चलते लोग-हिन्दी व्यंग्य शायरी


तारीफों के पुल अब उनके लिये बांधे जाते हैं,
जिन्होंने दौलत का ताज़ पहन लिया है।
नहीं देखता कोई उनकी तरफ
जिन्होंने ज़माने को संवारने के लिये
करते हुए मेहनत दर्द सहन किया है।
——–
खौफ के साये में जीने के आदी हो गये लोग,
खतरनाक इंसानों से दोस्ती कर
अपनी हिफाजत करते हैं,
यह अलग बात उन्हीं के हमलों से मरते हैं।
बावजूद इसके
सीधी राह नहीं चलते लोग,
टेढ़ी उंगली से ही घी निकलेगा
इसी सोच पर यकीन करते हैं।
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अपनी भाषा छोड़कर कहां जाओगे-हिन्दी व्यंग्य कविता


अपनी भाषा छोड़कर
कब तक कहां जाओगे,
किसी कौम या देश का अस्त्तिव
कभी भी मिट सकता है
परायी भाषा के सहारे
कहां कहां पांव जमाओगे।
दूसरों के घर में रोटी पाने के लिये
वैसी ही भाषा बोलने की चाहत बुरी नहीं है
दूसरा घर अकाल या तबाही में जाल में फंसा
तो फिर तुम कहां जाओगे।
अपनी भाषा तो नहीं आयेगी तब भी जुबां पर
फिर दूसरे घर की तलाश में कैसे जाओगे।
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उपदेश देते हुए उनकी
जुबान बहुत सुहाती हैं,
और बंद कमरे में उनकी हर उंगली
चढ़ावे के हिसाब में लग जाती है।
किताबों में लिखे शब्द उन्होंने पढ़े हैं बहुत
सुनाते हैं जमाने को कहानी की तरह
पर अकेले में करते दौलत का गणित से हिसाब
लिखने में कलम केवल गुणा भाग में चल पाती है।
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अपने दर्द का बोझ कब तक सहेंगे।
हल्का लगेगा जब दिल से हंसेंगे।
अपने ख्वाब पूरे होने की सौदागरों से चाहत
कब तक ईमान बेचकर पूरी करेंगे।
बाजार में बिकती है ढेर सारी शयें
उनके कबाड़ होने पर, घर कब तक भरेंगे।
दिखा रहे हैं बड़े और छोटे पर्दे पर नकली दृश्य
झूठे जज़्बातों से कब तक अपना दिल भरेंगे।
अपने दर्द पर हंसना सीख लो यारों
रोते हुए जिंदगी के दरिया में कब तक बहेंगे।
दिल को दे सुकून, भुला दे सारे गम
वह दवा तभी बनेगी, जब खुद अपनी बात पर हंसेंगे।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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यकीन अब नहीं होता-हिन्दी शायरी


अपने को नायक दिखाने के लिये
उन्होंने बहुत सारे जुटा लिये
किराये पर खलनायक,
अपने गीत गंवाने के लिये
खरीद लिये हैं गायक।
यकीन अब उन पर नहीं होता
जो जमाने का खैरख्वाह
होने का दावा करते हैं
अपनी ताकत दिखाने के लिये
बनते हैं मुसीबतों को लाने में वही सहायक।
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धोखे, चाल और बेईमानी का
अपने दिमाग में लिये
बढ़ा रहे हैं वह अपना हर कदम,
अपनी जुबान से निकले लफ्ज़ों
और आंखों के इशारो से
जमाने का भला करने का पैदा कर रहे वहम।
भले वह सोचते हों मूर्ख लोगों को
पर हम तोलने में लगे हैं यह कि
कौन होगा उनमें से बुरा कम,
किसे लूटने दें खजाना
कौन पूरा लूटेगा
कौन कुछ छोड़ने के लिये
कम लगायेगा दम।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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गरीब का भला-हिन्दी व्यंग्य


अमेरिका में एक गोरी महिला पर आनलाईन आतंकवादी भर्ती करने का मुकदमा दर्ज हुआ है। बताया गया है कि वह लोगों को मीठी बातों में फंसाकर अपने जाल में फंसाती थी। दुनियां भर के गरीबों का भला करने की बात करती थी! भर्ती करने वालों को धन का प्रलोभन भी देती थी! वगैरह वगैरह! उस अमेरिकन ने अपना अंग्रेजी नाम बदल भी लिया था ताकि वह धर्म के नाम पर गैर अमेरिकन लोगों में अपनी पहचान बना सके।
यह आलेख केवल उस महिला पर ही नहीं है बल्कि उसकी प्रकटतः प्रकृत्तियों पर है जो अनेक जगह अनेक लोगों में देखने को मिलती है। जिसमें सबसे अधिक है गरीबों का भला करने की बात! इसलिये हिंसा कर महामानव के रूप में प्रतिष्ठत होने का एक ख्वाब जो एक हर चालाक बुद्धिमान देखता है।
गरीबों के भले की बात करते देखकर बुद्धिमानों पर कोई हंसता नहीं है क्योंकि लोगों की सोच स्वतंत्र नहीं रही। हम यहां भारत की क्या बात करें अमेरिका और ब्रिटेन में यही हालत हैं-आखिर उनकी शिक्षा पद्धति ही हमारे समाज ने अपनायी है।
गरीब का भला! मेहनतकश के साथ न्याय! दुनियां के उस आखिर आदमी के लिये लड़ने की बात जिसे दो समय की बात क्या एक समय के लिये भी खाना नहीं मिलता। इसके लिये जंग करने वाले बताते हैं कि दुनियां का पूरा पैसा कुछ व्यक्तियों, समाजों या राष्ट्रों के पास जा रहा है जिनको परास्त करना आवश्यक है ताकि दुनियां से गरीबी और भुखमरी मिट सके। इसके लिये वह बंदूकें, गोलियां और बम जुटाते हैं जैसे कि उनसे खाना बना रहे हों।
कुछ ऐसे भी हैं जो यह सब नहीं करते पर पर्दे के पीछे बैठकर फिल्में, टीवी धारावाहिक या रेडियों पर उनकी जंग का प्रचार करते हैं। अखबारों में लेख वगैरह लिखते हैं। दुनियां की पंक्ति में सबसे आखिर में खड़े भूखे, नंगे और बेकार आदमी का भला करने का यह ख्वाब खूब चलता है। कहते हैं कि आदमी अपनी विपरीत स्थितियों में मनोरंजन ढूंढता है। अमेरिका की सभ्यता धनाढ़य, गौरवर्ण तथा आधुनिक शिक्षित वर्ग की भीड़ से सजी है इसलिये उनको गरीब-भूखे-नंगे, निम्न वर्ग तथा अशिक्षित वर्ग के विषयों में मनोरंजन मिलता है जबकि हमारे भारत में सभी गरीब और भूखे नहीं है पर यहां उनके सामने ऐसा दृश्य प्रस्तुत करने वाला वर्ग प्रतिदिन विचरता है इसलिये उनको धनाढ्य तथा गौरवर्ण कथानकों में आनंद मिलता है। हम भारत ही क्या अधिकांश एशियाई देशों में यह दोष या गुण देखते हैं। यही कारण है कि इस इलाके में आतंकवाद जमकर पनपा है। मजे की बात यह है कि पूरे विश्व के लिये अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन भी एशियाई देशों के नेता भारत में ही हुआ है। कहते हैं कि गुलाब कांटों में तो कमल कीचड़ में पनपता है। भारत का अध्यात्मिक ज्ञान इतना प्रभावी इसलिये है क्योंकि यहां अज्ञान अधिक फलताफूलता रहा है। गरीब का भला और बेसहारों को सहारा देने के नाम पर एशिया के लोग बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं।
अमेरिका की उस महिला ने भी आखिर क्या प्रचार किया होगा? यही कि गरीबों का भला करने के लिये चंद लोगों का मरना जरूरी है या गोली और बम के धमाकों से भूखे के लिये रोटी पकेगी तो गरीब की गरीबी दूर हो जायेगी।
पंच तत्वों से बनी इस देह में जो मन रहता है उसे समझना कठिन है और जो समझ ले वही ज्ञानी है। आम इंसान अपना पूरा जीवन अपने स्वार्थों में लगाता है पर उसका मन कहीं न कहीं परमार्थी की उपाधि पाने के लिये भटकता है। अनेक ऐसे लोग हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी में किसी का भला नहीं किया पर ऐसे किस्से सुनाकर अपना दिल बहलाते हैं कि ‘हमने अमुक का भला किया’ या ‘अमुक को बचाया’। उनको गरीबों का भला करना तथा भूखे को रोटी खिलाना एक अच्छी बात लगती है बशर्ते स्वयं यह काम न करना पड़े। ऐसे में अगर कुछ लोग यह काम करते हैं तो वह उनकी प्रशंसा करते हैं पर अगर कोई ऐसा करने का दावा करने लगे तो उसे भी प्रशंसनीय मान लेते हैं। कुछ युवा क्रांतिकारी होने का सपना लेकर गरीबों का भला करने के लिये उपदेशकों की बातों में हिंसा भी करने को तैयार हो जाते हैं बशर्ते कि उनको सारी दुनियावी सुविधायें उपलब्ध करायी जायें और जिनके लिये पैसा खर्च होता है। मूल बात इसी पैसे पर आकर टिकती है जो धनपतियों के पास ही है जिनके विरुद्ध गरीबों के कथित मसीहा बोलते रहते हैं-इनमें बहुत कम ऐसे है जो अपनी जान देने निकलते हैं बल्कि अपनी बातों से दूसरे को अपनी जान देने को तैयार करते हैं-जन्नत में स्थाई सदस्यता दिलाने के वाद के साथ! ऐसे बहुत सारे मसीहा जिंदा हैं पर उनके बहुत सारे शगिर्द काल कलवित हो गये-और इन गुरुओं को इसकी बिल्कुल चिंता नहीं है क्योंकि उनके प्रायोजित विद्यालय निरंतर नये लड़कों का सृजन करते रहते हैं। मूल प्रश्न का उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया कि पैसा कहां से आता है?
कहते हैं कि दुनियां के सारे धर्म गरीबों का भला करना सिखाते हैं। यह एक मजाक के अलावा कुछ नहीं है। सारे धर्म के मतावलंबियों और सर्वशक्तिमान के बीच एक मध्यस्थ होता है जो उसका परिचय अपने समूह के लोगों से कराता है। सभी की भाषायें है और पहचान के लिये वस्त्रों के रंग भी तय हैं-गेरुआ, हरा, सफेल और अन्य रंग। नाम भी अब स्थानीय भाषा के नाम पर नहीं बल्कि धर्म की भाषा के आधार पर रखते जाते हैं। एक आदमी जब धर्म बदलता है तो नाम भी बदल देता है। अनेक लोग पैसा लेकर या भविष्य में विकास का वादा करने पर धर्म बदल देते हैं। यह एक क्रांतिकारी मजाक है जो अक्सर अनेक देशों में दिखाई देता है। अभी तक धार्मिक मध्यस्थ केवल सर्वशक्तिमान और इंसान के बची की कड़ी थी पर ऐसा लगता है कि जैसे कि उन्होंने अमीरों और गरीबों के बीच में भी अपना पुल बना लिया है। गरीबों को आतंक फैलाने तो अमीरों को उससे फैलते देखनें के मनोरंजन में व्यस्त रखने के लिये आतंक उनके लिये एक व्यापार हो गया है जिसे वह अपने ढंग से धर्म फैलाने या बचाने का संघर्ष भी कहते हैं कई जगह गरीबों के उद्धार की भी बात की जाती है। यकीनन अमीरों से उनको पैसा मिलता है। यह पैसा अमीर अपने एक नंबर के धंधे को बचाने या दो नंबर के धंधे को चलाने के लिये देते होंगे। दुनियां के सारे भाषाई, जातीय, धार्मिक तथा क्षेत्रीय समूहों पर ऐसी ही अदृश्य ताकतों की पकड़ है जिसमें मौलिक तथा स्वतंत्र सोच रखने वाले पागल या अयथार्थी समझे जाते हैं। इस बात का पूरा इंतजाम है कि हर व्यवस्था में तय प्रारूप में ही बहसें हों, विवाद हों और प्रचार तंत्र उनके इर्दगिर्द ही घूमता रहे। दो विचारों के बीच दुनियां के लोग भटकें-गरीब का भला और विकास-जिसमें अमीरों का वर्चस्व रहता है। इस दुनियां में दो प्रकार के लोग हैं एक तो वह जो गरीबों का भला होते देखना चाहते है-स्वयं कितना करते है यह एक अलग प्रश्न है-दूसरा वह वर्ग है जो विकास चाहता है। बीच बीच में भाषा, धर्म,जाति तथा क्षेत्रीय पहचान को लेकर भी बहसें और विवाद होते हैं पर उनमें भी गरीबों का भला या विकास का मुद्दा कहीं न कहीं होता है भले ही उसका नंबर दूसरा हो।
टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में चलने वाली इन बहसों से अलग होकर जब हम सड़क पर देखते हैं तो सारा दृश्य बदल जाता है। पेट्रोल का धुंआ उगलते विलासिता के प्रतीक वाहनों में सवार अमीर लोग अपनी राह चले जा रहे हैं। गरीब आदमी ठेले पर अपना सामान बेचने जा रहा है। अमीर चीज का भाव पूछता है गरीब बताता है। अमीर भाव कम करने के लिये कहता है। वह करता है कभी नहीं भी करता है। अस्पतालों में गरीब इलाज के लिये ठोकरें खाता नज़र आता है। सबसे बड़ी बात यह कि हम जैसे लेखक जब एक आदमी के रूप में धक्का खाते है तब अपने आप से सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा भला चाहता कौन है?
ऐसे ढेर सारे प्रश्नों से जूझते हुए जब कोई अखबार पढ़ते या टीवी देखते हुए गरीबों के कल्याण और मेहनतकश के न्याय पर बहस देखता और सुनता है तो उसे वह निरर्थक, अयथार्थ तथा काल्पनिक लगती है। शायद ऐसी बहसें बौद्धिक विलासिता का हिस्सा हैं पर इनके आयोजक इसका फोकट में नहीं करते। मुख्य बात यह कि पैसा कहां से आता है! शायद वहीं से आता होगा जहां से गोलियां, बम और बंदूकें खरीदने के लिये दिया जाता है। संभव है यह सब भयानक सामान बनाने वाले दलालों को अपना सामान बिकवाने के लिये पैसे देते हों। पहले आतंकी खरीदेगा तो फिर उससे बचने के लिये पहरेदार भी खरीदेगा। आतंकी एक, दो, तीन या चार होते है पर पहरेदार तो हजारों हैं। पूरी दुनियां में लाखों हैं। सब कुछ सोचते हुए आखिर वहीं खड़े हो जाते हैं और अपने आप से ही कहते हैं कि ‘कहां चक्कर में पड़ गये यार’। कुछ बेकार कवितायें लिखो या कोई चुटकुला लिखो। दिल बहलाने के लिये इससे अच्छा साधन क्या हो सकता है।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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गर्भ में कन्या की हत्या सामाजिक कुरीतियों का परिणाम-हिन्दी लेख


देश में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की कम होती संख्या चिंता का विषय है। यह चिंता होना भी चाहिये क्योंकि जब हम मानव समाज की बात करते हैं तो वह दोनों पर समान रूप से आधारित है। रिश्तों के नाम कुछ भी हों मगर स्त्री और पुरुष के बीच सामजंस्य के चलते ही परिवार चलता है और उसी से देश को आधार मिलता है। इस समय स्त्रियों की कमी का कारण ‘कन्या भ्रुण हत्या’ को माना जा रहा है जिसमें उसके जनक माता, पिता, दादा, दादी, नाना और नानी की सहमति शामिल होती है। यह संभव नहीं है कि कन्या भ्रुण हत्या में किसी नारी की सहमति न शामिल हो। संभव है कि नारीवादी कुछ लेखक इस पर आपत्ति करें पर यह सच नहीं बदल सकता क्योंकि हम अपने समाज की कुरीतियों, अंधविश्वासों और पाखंडों को अनदेखा नहीं कर सकते जिसमें स्त्री और पुरुष समान रूप से शामिल होते दिखते हैं।
अनेक समाज सेवकों, संतों तथा बुद्धिजीवी निंरतर कन्या भ्रुण हत्या के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं-उनकी गतिविधियों की प्रशंसा करना चाहिये।
मगर हमें यह बात भी देखना चाहिये कि ‘कन्या भ्रुण हत्या’ कोई समस्या नहीं बल्कि समाज में व्याप्त दहेज प्रथा तथा अन्य प्रकार की सामाजिक सोच का परिणाम है। ‘कन्या भ्रुण हत्या’ रोको जैसे नारे लगाने से यह काम रुकने वाला नहीं है भले ही कितनी ही राष्ट्रभक्ति या भगवान भक्ति की कसमें खिलाते रहें।
अनेक धार्मिक संत अपने प्रवचनों में भी यही मुद्दा उठा रहे हैं। अक्सर वह लोग कहते हैं कि ‘हमारे यहां नारी को देवी की तरह माना जाता है’।
सवाल यह है कि वह किसे संबोधित कर रहे हैं-क्या उनमें नारियां नहीं हैं जो कहीं न कहीं इसके लिये किसी न किसी रिश्ते के रूप में शामिल होती हैं।
दहेज प्रथा पर बहुत लिखा गया है। उस पर लिखकर कर विषय के अन्य पक्ष को अनदेखा करना व्यर्थ होगा। मुख्य बात है सोच की।
हममें से अनेक लोग पढ़ लिखकर सभ्य समाज का हिस्सा बन गये हैं पर नारी के बारे में पुरातन सोच नहीं बदल पाये। लड़की के पिता और लड़के के पिता में हम स्वयं भी फर्क करते दिखते हैं पर तब हमें इस बात का अनुमान नहीं होता कि अंततः यह भाव एक ऐसी मानसिकता का निर्माण करता है जो ‘कन्या भ्रुण हत्या’ के लिये जिम्मेदार बनती है। शादी के समय लड़की वालों को तो बस किसी भी तरह बारातियों को झेलना है और लड़के वालों को तो केवल अपनी ताकत दिखाना है। अनेक बार ऐसी दोहरी भूमिकायें हममें से अनेक लोग निभाते रहे हैं। तब हम यंत्रवत चलते रहते हैं कि यह तो पंरपरा है और इसे निभाना है। शादी के समय जीजाजी का जूता साली चुराती है और उसे पैसे लेने हैं पर इससे पहले उसका पिता जो खर्च कर चुका होता है उसे कौन देखता है। साली द्वारा जुता चुराने की रस्म बहुत अच्छी लगती है पर उससे पहले हुई रस्में निभाते हुए दुल्हन का बाप कितना परेशान होता है यह देखने वाली बात है।
हमारे यहां अनेक प्रकार के समाज हैं। कमोबेश हर समाज में नारी की स्थिति एक जैसी है। उस पर उसका पिता होना मतलब अपना सिर कहीं झुकाना ही है। अनेक लोग कहते भी हैं कि ‘लड़की के बाप को सिर तो झुकाना ही पड़ता है।’
कुछ समाजों ने तो अब शराब खोरी और मांसाहार परोसने जैसे काम विवाहों के अवसर सार्वजनिक कर दिये हैं जो कभी हमारी परंपरा का हिस्सा नहीं रहे। वहां हमने पाश्चात्य सभ्यता का मान्यता दी पर जहां लड़की की बात आती है वहां हमें हमारा धर्म, संस्कार और संस्कृति याद आती है और उसका ढिंढोरा पीटने से बाज नहीं आते।
कहने का अभिप्राय यह है कि ‘कन्या भ्रुण हत्या’ का नारा लगाना है तो नारा लगाईये पर देश के लोगों को प्रेरित करिये कि
1. शादी समारोह अत्यंत सादगी से कम लोगों की उपस्थिति में करें। भले ही बाद में स्वागत कार्यक्रम स्वयं लड़के वाले करें।
2. दहेज को धर्म विरोधी घोषित करें। याद हमारे यहां दहेज का उल्लेख केवल भगवान श्रीराम के विवाह समारोह में दिया गया था पर उस समय की हालत कुछ दूसरे थे। समय के साथ चलना ही हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मुख्य संदेश हैं।
3. लोगों को यह समझायें कि अपने बच्चों का उपयेाग अस्त्र शस्त्र की तरह न करें जिससे चलाकर अपनी वीरता का परिचय दिया जाता है।
4. अनेक रस्मों को रोकने की सलाह दें।
याद रखिये यही हमारा समाज हैं। अगर आज किसी को तीन लड़कियां हों तो उसे सभी लोग वैसे ही बिचारा कहते हैं। ऐसा बिचारा कौन बनना चाहेगा? जब तक हम अपने समाज में व्याप्त दहेज प्रथा, शादी में अनाप शनाप खर्च तथा सोच को नहीं बदलेंगे तब तक कन्या भ्रुण हत्या रोकना संभव नहीं है। दरअसल इसके लिये न केवल राजनीतिक तथा कानूनी प्रयास जरूरी हैं बल्कि धार्मिक संतों के साथ सामाजिक संगठनों को भी कार्यरत होना चाहिये। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि जब लड़कियों की संख्या इतनी कम हो रही है तब भी लड़के वालों के दहेज बाजार में भाव क्यों नहीं गिर रहे? लाखों रुपये का दहेज, गाड़ी तथा अन्य सामान निरंतर दहेज में दिया जा रहा है। इतना ही नहीं लड़कियों के सामाजिक सम्मान में भी कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है। इन सभी बातों का विश्लेषण किये बिना ‘कन्या भ्रुण हत्या’ रोकने के लिये प्रारंभ वैचारिक अभियान सफल हो पायेगा इसमें संदेह है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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धर्म का बाज़ार सजाने की कोशिश-हिन्दी आलेख (dharma ka bazar-hindi lekh)


धार्मिक सत्संगों का आयोजन कोई सरल और सस्ता काम नहीं है। प्रबंधन एक कला है और जिस आदमी को कोई आर्थिक व्यवसाय करना हो तो केवल उसे संबंधित क्षेत्र की जानकारी के साथ प्रबंध का ज्ञान होना चाहिए तो वह अच्छा काम कर लेता है पर अगर प्रबंध क्षमता का सत्संग में प्रयोग करना हो तो उसके लिये कुछ अध्यात्मिक ज्ञान के साथ धार्मिक दिखना भी जरूरी है। अपने यहां सत्संग भी एक व्यवसाय है और धर्म प्रेमी धनिकों में मौजूद देवत्व की आराधना कर उसने धन प्राप्त करना कोई इतना सरल काम नहीं होता जितना अन्य व्यवसायों में लगता है। अन्य व्यवसायों में प्रबंधक स्वयं भी पूंजी लगा सकता है पर सत्संग के आयोजन में कोई ऐसा जोखिम नहीं उठाता क्योंकि उसमें केवल किताबें या मूर्तियां ही नहीं बेचना होता बल्कि एक अदद संत भी रखना पड़ता है।
विदेश में कहीं किसी धार्मिक कार्यक्रम का टीवी पर सीधा प्रसारण हो रहा था। आमतौर से धार्मिक विषयों पर व्यंग्य नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा कर आप अपनी कुंठाओं का परिचय देते भी लग सकते हैं, पर ऐसे कार्यक्रमों में कुछ ऐसी गतिविधियां भी होती हैं जो वहां मौजूद लोगों को भी हंसाती हैं भले ही वह उस समय कहते न हों। उस धार्मिक कार्यक्रम में कुछ बुद्धिजीवियों के भाषण हुए तो संतों ने भी प्रवचन दिये। उच्च वर्ग के धार्मिक लोगों के माध्यम से सी.डी. आदि का विमोचन करवाकर उनकी भी धार्मिक भावनाओं को तृप्त किया गया-अपने देश में खास भक्त कहलाने पर बड़े लोगों को शायद एक अजीब अनुभूति होती है।
भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के प्रयास के रूप में हो रहे उसे कार्यक्रम को टीवी पर देखकर अनेक ऐसी बातें मन में आयीं जो सब की सब यहां लिखना कठिन है। कार्यक्रम का अधिकतर भाग किसी माननीय संत की प्रशंसा में गुजरा। वहां दो संतों की मूर्तियां भी रखी गयी थीं जिन पर बड़े लोग मंच पर आकर प्रणाम करते और फिर अपना व्याख्यान देते।
इन मूर्तियों को देखकर लगता था कि वह संत ही केवल भारतीय अध्यात्म के आधार हैं। हां, वह पर सर्वशक्तिमान के भारतीय स्वरूपों में प्रचलित नामों का उल्लेख हुआ पर उनकी मूर्तियां वहां न देखकर एक खालीपन लगा। एक बात यहां बता दें कि भगवान श्रीराम, कृष्ण या शिव जी की मूर्तियां जरूर हम लोग देखते हैं पर वह हमारे अंदर निरंकार के रूप में स्वाभाविक रूप से विराजमान रहते हैं। दूसरी बात यह है कि यह मूर्तियां पत्थर, धातु या लकड़ी की बनती हैं पर उनके अस्तित्व का आभास ही हमें शक्ति देता है। संतों की मूर्तियां रखना गलत नहीं है पर ऐसी जगह पर सर्वशक्तिमान की मूर्ति न होना इस बात का प्रमाण है कि वह सत्संग अधूरा है। दूसरी बात यह है कि देहधारी संत चाहे कितने भी माननीय हों पर उनकी मूर्तियों में कहीं न कहीं उनकी मृत्यु की अनुभूति है इसलिये उनसे आम भारतीय अधिक लगाव हृदय में धारण नहीं कर पाता। भारतीय अध्यात्म का आधार यही है कि आत्मा कभी नहीं मरता और देह नश्वर है। इसलिये जिसमें देह का आभास है वह मूर्तियां भारतीय भक्त को नागवार लगती हैं। भगवान श्री राम, श्रीकृष्ण और श्री शिवजी के साथ अन्य देवताओं की मूर्तियों में ऐसा आभास नहीं होता। दरअसल यह प्रतिमायें पूजना इसलिये भी गलत है कि हम दूसरी विचारधाराओं के ऐसे ही कदम की आलोचना करते हैं। इधर यह भी देखने में आ रहा है कि हमारे पूज्यनीय संतों की समाधियां पूजी जा रही हैं। यह परब्रह्म से परे रखने का प्रयास भर है ताकि लोग मायावी दुनियां में ही घूमते रहें। ऐसे कथित ज्ञान लोग नाम तो सर्वशक्तिमान के रूपों का लेते हैं पर सामने अपना चेहरा लगा लेते हैं-यह धार्मिक भावनाओं का एक तरह से दोहन है।
संत कबीर एक महान संत कवि हुए हैं मगर उनकी मूर्ति रखकर पूजा करने का आशय यही है कि आप उनको समझे ही नहीं। जो गुरु तत्व ज्ञान देगा और उसका शिष्य ब्रह्म तत्व को समझ जायेगा तो स्वयं ही गुरु का मानेगा। यह बात श्रीमद्भागवत गीता भी कहती है और संत कबीर उसकी पुष्टि भी करते हैं। गुरु का दायित्व है कि वह शिष्य को गोविंद दिखाये-इससे यूं भी कह सकते हैं कि सत्गुरु से मिलाये। मगर आजकल के नये गुरु गोविंद के नाम पर अपना चेहरा लगा लेते हैं और स्वयं को ही सत्गुरु की तरह स्थापित करने का उनका प्रयास रहता है।
हम यहां उन माननीय गुरुओं की आलोचना नहीं कर रहे जिनकी तस्वीरें वहां रखी थीं। यकीनन उन लोगों ने श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान ग्रहण कर इतने सारे लोगों का सुनाया होगा। अब उनके बाद के शिष्यगण उनकी मूर्तियां लगाकर अपना सत्संग व्यवसाय चला रहे होंगे। केवल यही प्रसंग नहीं है बल्कि कई ऐसे अन्य उदाहरण भी है जिसमें तत्व ज्ञान का उपदेश करने वाले संत इस संसार से दैहिक रूप से क्या विदा होते हैं उनके चेहरे पत्थरों में सजाकर उनकी पूजा की जाती है। उनकी कर्मस्थली में जहां कभी सर्वशक्तिमान की मूर्तियां की आराधना करते हैं उनके जाते ही उनका महत्व कम प्रचारित होता है और संतों को सत्गुरु की जगह दी जाती है। कुछ लोगों ने संत शिरोमणि कबीरदास जी की मूर्तियां भी बनवाई हैं जबकि भारतीय अध्यात्मिक का वह एक ऐसा प्रकाशमान पुंज थे जो अपन रचनाओें से हमेशा ही भारतीय जनमानस में रहेंगे। उनकी मूर्तियां बनवाना ही उनके पथ से अलग हटना है। ऐसा अनेक संतों के शिष्य कर रहे हैं।
आखिरी मजेदार बात यह रही कि उसी कार्यक्रम में घोषणा की जा रही थी कि कार्यक्रम की कैसिटें और सर्वशक्तिमान की मूर्तियां आज ही यहां दरों में बीस प्रतिशत कटौती पर मिलेंगी। कैसिटें आज कम हैं इसलिये आज आर्डर दें तो कम दर पर भेजी जायेंगी।
यह बात हंसी पैदा करने वाली थी साथ ही यह संदेश भेजने वाली थी कि इसमें कोई व्यवसाय है। यह धर्म के नाम पर लगी सेल अचंभित करने वाली थी। अब इससे एक ही बात लगती है कि संतों के वर्तमान उतराधिकारी और प्रबंधक शिष्य आम आदमी के बारे में यह धारणा रखते हैं कि वह भक्त होने के कारण वह इसे बुरा नहीं समझते या फिर ऐसी अपेक्षा करते हैं कि पुराने मनीषियों की बात मानते हुए भक्तों को अपने गुरुओं को में दोष नहीं देखना चाहिये और हम तो गुरु हैं चाहे जो करें।’
हम भी गुरुओं की आलोचना के खिलाफ हैं पर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में यह वर्णित है कि पहले सत्य को समझो और देखभाल के गुरु बनाओ। दूसरों में दोष मत देखो पर दुर्जन का साथ भी न करो। सीधा आशय यही है कि कहीं न कहीं अपनी अक्ल का इस्तेमाल करो-यही भारतीय अध्यात्मिक संदेशों का आधार है। बहरहाल धर्म के नाम यह यह सेल लगाना ठीक नहीं है पर लगती भी है तो चिंतित होने वाली बात नहीं है। अपना तो एक ही काम है कि जहां भी समय मिले अच्छी बात सुनो उसक मंथन करो। जो अच्छा लगे उसे ग्रहण करो और जो बुरा, उसे भुला दो।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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यह कैसी चरित्र चर्चा-आलेख (discussion on corector-hindi article)


ज्यादा देखने से फायदा भी क्या था? जितना देखा उससे ही समझना काफी था। एक चेहरा निढाल पड़ा हुआ है कोई नारी या नारियां बार बार अपना चेहरा उसके पास ले जाती हैं। वह एक सनसनीखेज खबर है। 86 वर्ष के बुजुर्ग राजनीतिज्ञ पर यौन प्रकरण (sex scandle) का आरोप दर्ज करती वह खबर उसके नायक नायिका (या नायिकायें) की क्रियाओं का दृश्य प्रस्तुत करती है। जिस पर आरोप है उसका चेहरा निढाल पड़ा हुआ है। उसकी कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही। अंतर्जाल पर इससे अधिक नहीं दिख रहा। वैसे तो समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में उस बुजुर्ग नायक के साथ तीन पायजामें और तीन नायिकाओं का भी जिक्र है पर जो अंतर्जाल पर देखा उससे तो लगता है कि जो टीवी चैनल बुजुर्ग नायक की कथित ‘रंगीन मिजाजी का रहस्योद्घाटन करने का दावा कर रहा है उसके बाकी अंश भी कुछ ऐसे ही प्रश्नवाचक चिन्ह लिये खड़े मिलेंगे।
एक आम आदमी की राजनीति में कभी सक्रिय भूमिका नहीं होती सिवाय कि वह उससे संबंधित घटनाओं को पढ़े और विचार करे। इतिहास गवाह है कि राजनीति का क्षेत्र बहुत ही अविश्वसनीय और अनिश्चित है। राज्य कर्ता अच्छा है या बुरा यह इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना कि वह अपने विरोधियों से सतर्क कितना रहता है और यही बात उसे कार्यकुशलता का प्रमाण देती है।
राजनीति में सत्ता के लिये षड्यंत्र सदियों से चल रहे हैं और आगे भी जारी रहेंगे। सच तो यह है कि दैहिक लोभ का चरम ही है राज्य करने की भावना और इसमें अध्यात्मिक या धर्म की बात एक तरफ उठाकर रखनी पड़ती है। राजनीति इतनी विकट है कि इसमें माता और पुत्र जैसा रिश्ता भी अविश्वसनीय हो जाता है ऐसे में बाकी रिश्तों का महत्व देखना या सोचना बेकार है। यह अलग बात है कि कुछ लोग राजकाज से जुड़े होने पर भी धर्म, अध्यात्मिक तथा समाज का विचार करते हैं-ऐसे लोग धन्य हैं और ऐसा नहीं है कि इतिहास कोई उनको महत्व नहीं देता। इसके बावजूद यह सत्य है कि इतिहास में श्रेष्ठ राजाओं की गिनती अधिक नहीं मिलती बल्कि अधिकतर षड़यंत्रों का शिकार बनते हैं या फिर किसी का शिकार कर स्वयं राजा बनते रहे हैं।
वैसे आजकल की वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीधे राजकाल से जुड़े न होने पर भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें रहकर उस पर नियंत्रण किया जा सकता है। यह क्षेत्र है धर्म का। धर्म के क्षेत्र में भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अपनी पूज्यनीयता के आधार पर राजकाज पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण करते हैं। यही कारण है कि वहां भी ऐसी उठापठक होती रहती है जैसे कि राज्य जीतने का युद्ध हो।
प्रसंगवश भारत के ही एक 80 वर्षीय संत पर विदेश में ही यौन प्रकरण का ऐसा आरोप लगा था। यह आरोप इतना गंभीर था कि इसके विवाद की आग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई दी और उस देश ने उसके निपटारे तक उन संत भारत लौटने पर रोक लगा दी। हालांकि कहा यह गया कि संत अपनी इच्छा से उस विवाद के निपटारे तक वह देश नहीं छोड़ेंगे। आप देखिये उस देश की सरकार ने भी इसका खंडन नहीं किया। इससे यह साफ लगा कि कहीं न कहीं धर्म का राजनीति से कोई अप्रत्यक्ष प्रगाढ़ रिश्ता है। बाद में वह उस आरोप से बरी हो गये। सच बात तो यह है कि श्रीमद्भागवत पर प्रवचन करने वाले उस संत का प्रवचन इस लेखक को भी बहुत अच्छा लगता है। अगर आप श्रीगीता का सूक्ष्म पूर्वक अध्ययन करेंगे तो ऐसे यौन प्रकरण आपको विचार के विषय नहीं लगेंगे। संभव है कि अगर आप अल्पज्ञानी हों तो ऐसे प्रकरण में लिप्त हो जायें पर ज्ञानी हों तो फिर उससे दूर रहेंगे।
एक अध्यात्मिक लेखक के रूप में इस घटना को लेकर कोई क्षोभ या प्रसन्नता नहीं है। याद रखिये कि किसी बड़े आदमी पर कीचड़ उछलने से कुछ लोग प्रसन्न भी होते हैं पर यह उनके अज्ञान और कुंठा का परिणाम होता है।
इसके बावजूद राजनीति का समाज पर प्रभाव होता है तब उसे देखना जरूरी होता है। अब इस प्रकरण की तरफ देखें। एक निढाल चेहरा जिस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं है? प्रश्न आता है कि वह रंगीन मिजाजी कब कर रहा होगा?
बुजुर्ग के समर्थक कहते हैं कि ‘यह एक षड्यंत्र है!’
हो सकता है कि उनका कहना सही हो? पर एक राजनेता को हमेशा सतर्क रहना चाहिये। वह अगर सतर्क नहीं रहे तो फिर उनकी योग्यता पर भी प्रश्न उठता है न!
उनके एक समर्थक कहना है कि वह बुजुर्ग राजनेता एकदम लाचार हैं। यहां तक कि दीप प्रज्जवलित करने के लिये उनको किसी की सहायता चाहिए।
सवाल यह है कि क्या बड़े पदों पर शारीरिक रूप से लाचार लोगों की नियुक्ति होना चाहिए। जिस तबियत का बहाना कर उन्होंने अब इस्तीफा दिया वह पहले क्यों नहीं किया? राजनीति का क्षेत्र लोगों की सेवा करने के लिये या करवाने के लिये? राजनीति में शासन के द्वारा जलकल्याण करने आये हैं या उपभोग कर सेवा पाने।
समर्थकों का यह कहना है सही है कि जहां यह फिल्म बनायी गयी है वह उस स्थान की सुरक्षा तथा कानून से जुड़े अनेक पहलुओं को चुनौती देती है जो कि एक चिंता का विषय है। यौन प्रकरण को गंभीर बनाने के लिये इससे गरीबी और नौकरी जैसे विषय भी जोड़े गये हैं ताकि आम लोगों के तटस्थ रहने की गुंजायश कर रहे।
यह लेखक अंतर्जाल पर वह सब देखने का प्रयास नहीं करता अगर अंतर्जाल लेखकों ने ही बहुत सादगी (?) से आंध्रप्रदेश, तेलगु और यू ट्यूब का उल्लेख नहीं किया होता। यह भी एक तरीका होता है कि आप किसी को लोकप्रिय बनाना चाहें तो उसकी आलोचना कीजिये। है न चालाकी! आप बताईये कि वहां बुरी चीज है! लोग अपने आप जायेंगे और आपका काम भी हो जायेगा।
प्रसंगवश बुजुर्ग के समर्थकों का दावा है कि ‘वह पहले भी ऐसे हमलों से उबरते रहे हैं और अब भी उबर आयेंगे।’
मतलब यह कि उन बुजुर्ग सज्जन का इतिहास भी उनका पीछा कर रहा है। बुजुर्ग महोदय के विरोधियों ने भी इसका पहले इंतजाम कर लिख दिया कि ‘हो सकता है कि यह सभी प्रायोजित हो। वह बुजुर्ग राष्ट्रीय राजनीति में आने को इच्छुक हों और वहां से निकलने के लिये यह नाटक स्वयं ही रचवाया हो ताकि बाद में उसे निकलकर वाह वाही लूट सकें।’
पता नहीं सच क्या है? पर जिस तरह अंतर्जाल पर यह दो तीन फोटो दिखे उससे उन बुजुर्ग सज्जन पर किया यह शाब्दिक आक्रमण अधिक प्रभावी नहीं दिखता। हम तो एक अध्यात्मिक विचारक हैं और उनका सम्मान करेंगे पर इस मामले के कुछ पैंच हमारी समझ में आये वह लिखना जरूरी लगा।
इस बकवास में आखिरी बात यह है कि हमने युट्यूब पर ही कुछ प्रतिकियायें देखी। एक तरह से सभी छद्म नाम थे
एक प्रतिकिया देखी जिसमें भारतीय लोगों के प्रतिकूल टिप्पणी थी।
उसका जवाब भी एक छद्म नाम ‘पाकिस्तानी चुप रह’ लिख दिया।
सवाल यह है कि उस भारतीय को कैसे पता लगा कि वह पाकिस्तानी है। कहीं यह तयशुदा जंग तो नहीं थी।
एक प्रतिक्रिया यह थी कि ‘उत्तर भारतीयों को दक्षिण भारत के किसी प्रदेश में बड़े पर पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिये।’
उसका भी जवाब भी एक दूसरे ने लिखा था कि ‘यह समस्या तो विश्वव्यापी है इसलिये इसमें क्षेत्रवाद जैसी बात नहीं देखनी चाहिये।’
कहने का तात्पर्य यह है कि इस घटना के दूरगामी परिणाम होंगे। एक तमिल मित्र ने बताया था कि दक्षिण में उत्तरी लोगों के दक्षिण के लोगों पर अनाचार के अनेक किस्से किसी समय वहां प्रचलित थे। इनका प्रभाव यह था कि दक्षिण के लोगों का उत्तर के लोगों पर ही विश्वास नहीं रहता था। यह तो आजादी के बाद लोग एक दूसरे के पास आये तो अब वह बात नहीं है। उसने इस लेखक से कहा था कि ‘तुम जैसे मित्र यहां मिलते हैं यह मैं अपने रिश्तेदारों को बताता हूं तो वह हैरान रह जाते हैं।’
उस मित्र ने बताया था कि अपने शहर में बहुत समय तक लोग उससे यह पूछते थे कि‘ क्या वहां रहते हुए तुम्हें लोग परेशान तो नहीं करते?’
अब वह इस तरह के सवाल नहीं करते पर प्रचार माध्यमों को लंबे समय तक चर्चा में रहने के लिये विषय चाहिये तो संभव है वह इस पर बाल कल्याण, नारी कल्याण, संस्कृति और संस्कार के साथ जोड़कर आगे बढ़ाते रहें। संभव है कि क्षेत्रवाद के भूत को शरीर पैदा करने का प्रयास भी हो। बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं जी! आम आदमी के रूप में जितना समझें उतना ही कम हैं! वैसे धाार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में विराजमान शिखरपुरुषों ने अपने ओहदे को शासन और अपने उपभोग योग्य समझा न कि जनकल्याण तथा समाज सेवा के लिये। यही कारण है कि अब आम आदमी की सहानुभूति उनके प्रति उतनी नहीं जितना पहले थी। बल्कि आचरण को लेकर विश्वसीनयता का भाव नहीं रहा जो खास आदमी को आम आदमी में महानता की श्रेणी दिलाता है। बाकी सच क्या है? जो आयेगा वह सच भी होगा या नहीं। आजकल प्रायोजन तो सभी जगह होने लगा है न! यहां तो बस यह कहा जा सकता है कि ‘अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग।’

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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सभी के चरित्र को कमजोर न समझें-हिन्दी लेख (charitya aur samaj-hindi lekh


वैश्यावृत्ति और जुआ खेलना ऐसी सामाजिक समस्यायें हैं और इनसे कभी भी मुक्ति नहीं पायी जा सकती। वैश्यावृत्ति पर कानून से नियंत्रण पाना चाहिए या नहीं इस पर अक्सर बहस चलती है। कुछ लोगों को मानना है कि वैश्यावृत्ति को कानून से छूट मिलना चाहिए तो कुछ लोगों को लगता है कि इस पर रोक बनी रहे। वैश्यावृत्ति पर कानूनी रोक का समर्थन करने वालों ने जो तर्क दिये जाते हैं वह हास्याप्रद हैं। कुछ लोग तो यहां तक कह जाते हैं कि तब तो भ्रष्टाचार, शराब तथा अन्य अपराधों को भी कानून से छूट मिलना चाहिए। अभी हाल ही में सुनने में आया कि किन्ही न्यायालय द्वारा भी इसकी वकालत की गयी है कि वैश्यावृत्ति को कानूनी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए। इसके पहले भी अनेक सामाजिक विशेषज्ञ इस बात की वकालत करते रहे हैं कि देश की सामाजिक परिस्थतियों में ऐसी रोक ठीक नहीं है।
दरअसल अंग्रेजों के समय ही वैचारिक और सामाजिक कायरता के बीज जो भारत में बो दिये गये वह अब फल और फूल की जगह सभी जगह प्रकट हो रहे हैं। याद रखने की बात यह है कि वैश्यावृत्ति कानून अंग्रजों के समय में ही बनाया गया है। इसका मतलब यह है कि इससे पहले ऐसा कानून यहां प्रचलित नहीं था।
इतना ही नहीं शराब, वैश्यावृत्ति तथा जुआ पर रोक लगाने के किसी भी पुराने कानून की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं मिलती। इसका आशय यह है कि समाज को नियंत्रित करने की यह राजकीय प्रवृत्ति अंग्रेजों की देन है जो स्वयं ही इस तरह का कोई कानून नहीं बनाते बल्कि आजादी के नाम पर यहां अनेक अपराध भी मुक्त हैं जिनमें सट्टा भी शामिल हैं। कुछ कानूनी विशेषज्ञ तो यह बताते हैं कि अभी भी इस देश में 95 प्रतिशत कानून उन अंग्रेजों के बनाये हैं जिनके यहां कोई लिखित कानून हैं। मतलब यह है कि वह एक शब्द समूह यहां अपने गुलामों को थमा गये जिससे पढ़कर हम अभी भी चल रहे हैं।
इस मामले में हम एक सती प्रथा पर रोक के कानून का उल्लेख करना चाहेंगे जिसकी वजह से राजा राममोहन राय को भारत का एक बहुत बड़ा समाज सुधारक माना जाता है। उन्होंने ऐसा कानून बनाने के लिये आंदोलन चलाया था पर इतिहास में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि उस समय देश में सत्ती प्रथा किस हद तक मौजूद थी। अगर उनके आंदोलन की गति को देखें तो लगता है कि उस समय देश में ऐसी बहुत सी घटनायें रोज घटती होंगी पर इसको कोई प्रमाणित नहीं करता। उस समय देश में आजादी के लिये भी आंदोलन चल रहा था। ऐसे में लगता है कि भारत की सती प्रथा के लेकर अंग्रेज कहीं दुष्प्रचार करते होंगे या फिर ऐसी कृत्रिम घटनाओं का समाचार बनता होगा जिससे लगता हो कि यह देश तो भोंदू समाज है। यह कानून बनने से कोई सत्ती प्रथा कम हुई इसका भी प्रमाण नहीं मिलता। संभव है कुछ संपत्ति की लालच में औरतों को जलाकर उसके सत्ती होने का प्रचार करते हों पर ऐसी घटनायें तो देश में इस कानून के बाद भी हुईं। फिर मान लीजिये यह कानून नहीं बनता तो भी इस देश में आत्म हत्या और हत्या दोनों के लिये कानून है तब उसे सत्ती होने वाले मामलों पर लागू किया जा सकता था।
एक बार एक लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब के कानून तो अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ऐसे मामलों में फंसाकर उन्हें बदनाम करने के उद्देश्य से बनाये थे। सच हम नहीं जानते पर इतना जरूर है कि सामाजिक संकटों को राज्य से नियंत्रित करने का प्रयास ठीक नहीं है। समाज को स्वयं ही नियंत्रित होने दीजिये। आखिर इस देश के समाजों के ठेकेदार क्या केवल उनकी भावनाओं का दोहन करने लिये ही बैठे हैं क्या?
वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब सामाजिक समस्यायें हैं और इन पर नियंत्रण करने के दुष्परिणाम यह हुए हैं कि जिसके पास धन, बल, और बड़ा पद है पर अपनी शक्ति कानून को तोड़कर दिखाता है। आप भ्रष्टाचार या सार्वजनिक रूप से धुम्रपान करने जैसे अपराधों से इसकी तुलना नहीं कर सकते।
वैश्यावृत्ति कोई अच्छी बात नहीं है। एक समय था जो महिला या पुरुष इसमें संलिप्त होते उनको समाज हेय दृष्टि से देखता था। अनेक बड़े शहरों में वैश्याओं के बाजार हुआ थे जहां से भला आदमी निकलते हुए अपनी आंख बंद कर लेता था। धीरे धीरे वैश्यायें लुप्त हो गयीं पर आजकल कालगर्ल उनकी जगह ले जगह चुकी हैं। पहले जहां अनपढ़ और निम्न परिवारों की लड़कियां जबरन या अपनी इच्छा से इस व्यवसाय में आती थीं पर आजकल पढ़लिखी लड़कियां स्वेच्छा से इस काम में लिप्त होने की बातें समाचारों में में आती है। उसकी वजह कुछ भी हो सकती हैं-घर का खर्चा चलना या अय्याशी करना।
सवाल यह है कि इसका हल समाज को ढूंढना चाहिये या नहीं। इस देश के उच्च वर्ग ने तो अपने बच्चों की शादी को प्रदर्शन करने का एक बहाना बना लिया है। मध्यम वर्ग के परिवार उन जैसे दिखने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। नतीजा यह है कि बड़ी उम्र तक बच्चों के विवाह नहीं हो रहे। इसके अलावा बच्चों के साथ ही उनके अभिभावकों द्वारा उनके जीवन साथी के लिये अत्यंत खूबसूरत काल्पनिक पात्र सृजित कर रिश्ता तलाशा जाता है। लड़की सुंदर हो, काम काज में दक्ष हो, कंप्यूटर जानती हो और कमाना जानती हो-जैसे जुमले तो सुनने में मिलते ही हैं। उस पर दहेज की रकम की समस्या। समाज का यह अंतद्वंद्व सभी जानते हैं पर जिसका समय निकला जाता है वह उसे भुला देता है। जिन्होंने बीस वर्ष की उम्र में शादी कर ली वह अपने पुत्र या पुत्री को तीस वर्ष तक विवाह योग्य नहीं पाते-उनके बारे में क्या कहा जाये? क्या मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं को खुलकर कहने की आवश्यकता है? इंद्रियों को निंयत्रित करना चाहिये पर उनका दमन करना भी संभव नहीं है-क्या यह सच नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इस सभी के बावजूद पूरा समाज इसी राह पर चल रहा है। अगर कोई वैश्यावृत्ति में संलिप्त नहीं है तो वह कानून के डर की वजह से नहीं बल्कि पुराने चले आ रहे संस्कारों ने सभी को इसकी प्रेरणा दे रखी है। हमारे संत महापुरुषों ने हमेशा ही व्यसनों से बचने का संदेश दिया है। उसके दुष्परिणाम बताये गए हैं। देश में आज भी नैतिकता को संबल मिला हुआ है क्योंकि वह संस्कारों के सहारे टिकी है। यह भरोसा वह हर विद्वान करता है जो इसे जानता है।
ऐसे में वैचारिक कायरों का वह समूह- जो चाहता है कि रात को टीवी पर खबरें देखते हुए ‘अपने देश की चारित्रिक रक्षा के दृश्य देखकर खुश हों‘-ऐसी बातें कह रहा है जिसको न तो समाज पर विश्वास है न ही अपने पर। पढ़ी लिखी लड़कियां ऐसे मामलों में पकड़े जाने मुंह ढंके दिखती हैं, तब सवाल यह उठता है कि आखिर उनका अपराध क्या है? वह किसको हानि पहुंचा रही थीं? याद रहे अपराध का मुख्य आधार यही है कि कोई व्यक्ति दूसरे को हानि पहुंचाये। अनेक बार अखबार में जुआ खेलते हुए पकड़े जाने वाले समाचार आते हैं। सवाल यह है यह भी शराब जैसे व्यसन है और जिस पर कोई रोक नहीं है।
दरअसल ऐसे कानूनों ने पुरुष समाज को गैर जिम्मेदार बना दिया है। अपने घर की औरतों की देखभाल करने के साथ ही उनपर नज़र रखना अभी तक पुरुषों का ही जिम्मा है। इस कानून ने उनको आश्वस्त कर दिया है कि औरतें डर के बारे में इस राह पर नहीं जायेंगी। समाज के ठेकेदार भी नैतिकता को निजी विषय मानने लगे हैं। इसके अलावा विवाह योग्य पुत्र के माता पिता-पुत्री के भी वही होते हैं उसका रिश्ता तय करते समय भूल जाते हैं-इस विश्वास में अधिक दहेज की मांग करते हैं कि कि कोई न कोई लड़की का बाप मजबूर होकर उनकी शर्ते मानेगा।
इसके अलावा समाज के ठेकेदार उसके नाम पर कार्यक्रम करने के लिये चंदा मांगने और चुनाव के समय उनको अपने हिसाब से मतदान का आव्हान करने के अलावा अन्य कुछ नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि बाकी सुधार के लिये तो राज्य ही जिम्मेदार है। समाज को अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा अनुचित कर्मकांडों से बचने का संदेश इनमें कोई नहीं देता। यही हालत आजकल के व्यवसायिक संतों की है।
एक बात यह भी लगती है कि अंग्रेजों ने इतने सारे कानून शायद इसलिये बनाये ताकि विश्व का बता सकें कि देखिये हम एक पशु सभ्यता को मानवीय बना रहे हैं और आज भी वह इसका दावा करते हैं। इधर अपने देश के वैचारिक कायर चिंतक उन्हीं कानूनों को ढोने की वकालत करते हैं क्योंकि अपने समाज पर विश्वास न रखने की नीति उन्हें अंगे्रजी शिक्षा पद्धति से ही मिलती है। अपने पूरा समाज को कच्ची बुद्धि का समझने की उनकी आदतें बदलने वाली नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अपराध वह है जिससे दूसरे को हानि पहुंचे। वैश्यावृत्ति, जुआ या सट्टा ऐसे अपराध हैं जिसमें आदमी अपने धन और इज्जत तो गंवाता ही है अपना स्वास्थ्य भी खोता है। किसी स्त्री से जबरन वैश्यावृत्ति कराना अपराध है और इस पर सख्त कार्यवाही होना चाहिये। यही कारण है कि एक विद्वान से यह भी सलाह दी है कि वैश्यावृत्ति में पकड़े गये अपराधियों में इस बात की पहचान करने का प्रावधान हो कि कोई जबरन तो इस कार्य में नहीं लगा हो।
हमारे देश का सामाजिक ढांचा मजबूत है और पूरा विश्व इसे मानता है। हर आदमी घर परिवार से जुड़ा है। अधिकतर पुरुष अपने घरेलू समस्याओं को हल करने के लिये संघर्ष करते हैं। संभव है कुछ घरों में पुरुष सदस्य की बीमारी या आर्थिक परेशानी होने पर कुछ लड़कियां और महिलाऐं इस काम में लगती हों पर सभी एसा नहीं करती बल्कि अधिकतर नौकरी आदि कर अपना काम चलाती है। ऐसे में पूरे समाज को भ्रष्ट होने की आशंका करना बेमानी है। खासतौर से इस देश में जहां रोजगार और संपत्ति मौलिक अधिकार न बना हो। फिर जब समलैंगिकता जैसे मूर्खतापूर्ण कृत्य को छूट मिल रही है तब वैश्यावृत्ति जैसे कानून को बनाये रखने का औचित्य तो बताना ही पड़ेगा न! बुरे काम का बुरा नतीजा सभी जानते हैं और यही कारण है कि मनुष्य की आदतों को नियंत्रित करने का काम उसे ही करने देना चाहिये। आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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रौशनी की कीमत-छोटी हिंदी कहानी (value of light-hindi short story


बड़े शहर के विशाल मकान में रहने वाला वह शख्स एक दिन बरसात के दिनों मे गांव की ओर जाने वाली पगंडडी पर पानी मे अंधेरे में कांपते हुए कदम रखता हुआ आगे बढ़ रहा था। दरअसल शाम के समय वह बस मुख्य सड़क पर उतरा था उस समय बरसात धीरे शुरु हुई थी। उसे गांव जाना था जिसका रास्ता एक पगडंडी थी। बरसात के कारण वह वहीं खड़ी एक दुकान पर कुछ देर खड़ा हो गया। जब बरसात बंद हो गयी तो उसने वहां दुकानदार गांव का रास्ता पूछा तो पगडंडी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि‘यहां से एक मील दूर जाने पर वह गांव आ जायेगा।
वह गांव वहां से कम से कम चार किलोमीटर दूर था। इधर सूरज भी एकदम डूबने वाला था। वह जल्दी जल्दी चल पड़ा कुछ दूर जाने पर उसे कीचड़ दिखाई दी पर वह सूखी जमीन पर कदम रखता हुआ आगे बढ़ रहा था। इधर सूरज भी पूरी तरह से डूब गया। अंधेरे में उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। दूर दूर रौशनी भी नहीं दिख रही थी। चारों तरफ पेड़ और छोटे पहाड़ के पीछे छिपे उस गांव की तरफ जाते हुए उसका हृदय अब कांपने लगा था। अनेक जगह वह फिसला। अपने जूत भी उसे अपने हाथ में ले लिये ताकि फिसल न जाये। रास्ते में वह अनेक बार चिल्लाया-‘कोई है! कोई मेरी आवाज सुन रहा है।’
वह फिसलता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। एक समय तो उसे लगा कि उसका अब कहीं गिरकर अंत हो जायेगा
वह अब पीछे नहीं लौट सकता था क्योंकि मुख्य सड़क बहुत दूर थी और वह आशा कर रहा था कि बहुत जल्दी गांव आ जायेगा। अब तो उसे यह भी पता नहीं चला रहा था कि गांव होगा कहां? कोई कुछ बताने वाला नहीं था।
न दिशा का ज्ञान न रास्ते का। चलते चलते अचानक वह एक झौंपड़ी के निकट पहुंच गया। वहां एक मोमबती चल रही थी। उसे देखकर उस शख्स ने राहत अनुभव की। वहां खड़े एक आदमी से उसने उस गांव का रास्ता पूछा- उस आदमी ने इशारा करके बताया और उससे कहा-‘आपके चिल्लाने की आवाज तो आ रही थी पर मेरी समझ में नहीं आ रहा था। अब गांव अधिक दूर नहीं है। बरसात बंद हो गयी है। मैं मोमबती लेकर खड़ा हूं आप निकल जाईये थोड़ी देर में आपको वहां रौशनी दिखाई देगी। बिजली नहीं भी होगी तो भी लोगों की लालटेन या मोमबतियां जलती हुई दिखाई देंगी।’
वह मोमबती लेकर खड़ा। उसकी रौशनी में उसे पूरा मार्ग दिखाई दिया। कीचड़ थी पर वहां से निकलने के लिये कुछ सूखी जमीन भी दिखाई दी। वह धीरे धीरे चलकर गांव में अपने रिश्तेदार के यहां पहुंच गया।
रिश्तेदार ने कहा-‘हमें आपके घर से फोन आया था कि आप आ रहे हैं। इतनी देर न देखकर चिंता हो रही थी। आपने हमें इतला दी होती तो हम लेने मुख्य सड़क पर आ जाते। यह रास्ता खराब है। इतने अंधेरे में आप कैसे पहुंचे।’
उस शख्स ने आसमान में देखा और कहा-‘सच तो यह है कि इस अंधेरे से वास्ता नहीं पड़ता तो रौशनी का मतलब समझ में नहीं आता। शहर में हम इतनी रौशनी बरबाद करते हैं एक बूंद रौशनी की कीमत ऐसे अंधेरे में ही पता लगती है।’
वह रिश्तेदार उसकी तरफ देखने लगा। उसने लंबी सांस भरकर फिर कहा-‘एक मोमबती की बूंद भर रौशनी ने जो राहत दी उसे भूल नहीं सकता। जाओ, पानी ले आओ।’
वह रिश्तेदार उस शख्स का चेहरा गौर से देख रहा था जो आसमान में देखकर कुछ सोच रहा था।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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नश्वर का शोक-हिन्दी हास्य व्यंग्य (nashvar ka dukh-hindi hasya vyangya)


आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’
अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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लोग अपने से बात करते हुए पाठ अंतर्जाल पर पढ़ना चाहते हैं-संपादकीय


आज यह ब्लाग/पत्रिका की पाठ पठन/पाठक संख्या एक लाख को पार कर गयी। इस ब्लाग/पत्रिका के साथ इसके लेखक संपादक के दिलचस्प संस्मरण जुड़े हुए हैं। यह ब्लाग जब बनाया तब लेखक का छठा ब्लाग था। उस समय दूसरे ब्लाग/पत्रिकाओं पर यूनिकोड में न रखकर सामान्य देव फोंट में रचनाएं लिख रहा था। वह किसी के समझ में नहीं आते थे। ब्लाग स्पाट के हिंदी ब्लाग से केवल शीर्षक ले रहा था। इससे हिन्दी ब्लाग लेखक उसे सर्च इंजिन में पकड़ रहे थे पर बाकी पाठ उनकी समझ में नहीं आ रहा था। यूनिकोड में रोमन लिपि में लिखना इस लेखक के लिये कठिन था। एक ब्लाग लेखिका ने पूछा कि ‘आप कौनसी भाषा में लिख रहे हैं, पढ़ने में नहीं आ रहा।’ उस समय इस ब्लाग पर छोटी क्षणिकायें रोमन लिपि से यूनिकोड में हिन्दी में लिखा इस पर प्रकाशित की गयीं। कुछ ही मिनटों में किसी अन्य ब्लाग लेखिका ने इस पर अपनी टिप्पणी भी रखी। इसके बावजूद यह लेखक रोमन लिपि में यूनिकोड हिंदी लिखने को तैयार नहीं था। बहरहाल लेखिका को इस ब्लाग का पता दिया गया और उसने बताया कि इसमें लिखा समझ में आ रहा है। उसके बाद वह लेखिका फिर नहीं दिखी पर लेखक ने तब यूनिकोड हिन्दी में लिखना प्रारंभ किया तब धीरे धीरे बड़े पाठ भी लिखे।

उसके बाद तो बहुत अनुभव हुए। यह ब्लाग प्रारंभ से ही पाठकों को प्रिय रहा है। यह ब्लाग तब भी अधिक पाठक जुटा रहा था जब इसे एक जगह हिन्दी के ब्लाग दिखाने वाले फोरमों का समर्थन नहीं मिलता था। आज भी यहां पाठक सर्वाधिक हैं और एक लाख की संख्या इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी अपनी गति से अंतर्जाल पर बढ़ रही है। मुख्य बात है विषय सामग्री की। इस ब्लाग पर अध्यात्मिक रचनाओं के साथ व्यंग, कहानी, कवितायें भी हैं। हास्य कवितायें अधिक लोकप्रिय हैं पर अध्यात्मिक रचनाओं की तुलना किसी भी अन्य विधा से नहीं की जा सकती। लोगों की अध्यात्मिक चिंतन की प्यास इतनी है कि उसकी भरपाई कोई एक लेखक नहीं कर सकता। इसके बाद आता है हास्य कविताओं का। यकीनन उनका भाव आदमी को हंसने को मजबूर करता है। हंसी से आदमी का खून बढ़ता है। दरअसल एक खास बात नज़र आती है वह यह कि यहां लोग समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा किताबों जैसी रचनाओं को अधिक पसंद नहीं करते। इसके अलावा क्रिकेट, फिल्म, राजनीति तथा साहित्य के विषय में परंपरागत विषय सामग्री, शैली तथा विधाओं से उन पर प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपने से बात करती हुऐ पाठ पढ़ना चाहते हैं। अंतर्जाल पर लिखने वालों को यह बात ध्यान रखना चाहिये कि उनको अपनी रचना प्रक्रिया की नयी शैली और विधायें ढूंढनी होंगी। अगर लोगों को राजनीति, क्रिकेट, फिल्म, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर परंपरागत ढंग से पढ़ना हो तो उनके लिये अखबार क्या कम है? अखबारों जैसा ही यहां लिखने पर उनकी रुचि कम हो जाती है। हां, यह जरूर है कि अखबार फिर यहां से सामग्री उठाकर छाप देते हैं। कहीं नाम आता है कहीं नहीं। इस लेखक के गांधीजी तथा ओबामा पर लिखे गये दो पाठों का जिस तरह उपयेाग एक समाचार पत्र के स्तंभकार ने किया वह अप्रसन्न करने वाला था। एक बात तय रही कि उस स्तंभकार के पास अपना चिंतन कतई नहीं था। उसने इस लेखक के तीन पाठों से अनेक पैरा लेकर छाप दिये। नाम से परहेज! उससे यह लिखते हुए शर्म आ रही थी कि ‘अमुक ब्लाग लेखक ने यह लिखा है’। सच तो यह है कि इस लेखक ने अनेक समसामयिक घटनाओं पर चिंतन और आलेख लिखे पर उनमें किसी का नाम नहीं दिया। उनको संदर्भ रहित लिखा गया इसलिये कोई समाचार पत्र उनका उपयोग नहीं कर सकता क्योंकि समसामयिक विषयों पर हमारे प्रचार माध्यमों को अपने तयशुदा नायक और खलनायकों पर लिखी सामग्री चाहिये। इसके विपरीत यह लेखक मानता है कि प्रकृत्तियां वही रहती हैं जबकि घटना के नायक और खलनायक बदल जाते हैं। फिर समसामयिक मुद्दों पर क्या लिखना? बीस साल तक उनको बने रहना है इसलिये ऐसे लिखो कि बीस साल बाद भी ताजा लगें-ऐसे में किसी का नाम देकर उसे बदनाम या प्रसिद्ध करने
से अच्छा है कि अपना नाम ही करते रहो।
मुख्य बात यह है कि लोग अपने से बात करते हुऐ पाठ चाहते हैं। उनको फिल्म, राजनीति, क्रिकेट तथा अन्य चमकदार क्षेत्रों के प्रचार माध्यमों द्वारा निर्धारित पात्रों पर लिख कर अंतर्जाल पर प्रभावित नहीं किया जा सकता। अपनी रचनाओं की भाव भंगिमा ऐसी रखना चाहिये जैसी कि वह पाठक से बात कर रही हों। यह जरूरी नहीं है कि पाठक टिप्पणी रखे और रखे तो लेखक उसका उत्तर दे। पाठक को लगना चाहिये कि जैसे कि वह अपने मन बात उस पाठ में पढ़ रहा है या वह पाठ पढ़े तो वह उसके मन में चला जाये। अगर वह परंपरागत लेखन का पाठक होता तो फिर इस अंतर्जाल पर आता ही क्यों? अपने मन की बात ऐसे रखना अच्छा है जैसे कि सभी को वह अपनी लगे।
इस अवसर पर बस इतना ही। हां, जिन पाठकों को इस लेखक के समस्त ब्लाग/पत्रिकाओं का संकलन देखना हो वह हिन्द केसरी पत्रिका को अपने यहां सुरक्षित कर लें। इस पत्रिका के पाठकों के लिये अब इस पर यह प्रयास भी किया जायेगा कि ऐसे पाठ लिखे जायें जो उनसे बात करते हुए लगें।

लेखक संपादक दीपक भारतदीप,ग्वालियर 

समाज हिन्दी भाषा का महत्व समझे- हिन्दी दिवस पर विशेष चिंतन आलेख (hindi ka mahatva-hindi chitan lekh on hindi divas)


       सुना है अब इंटरनेट में लैटिन के साथ ही देवनागरी में भी खोज सुगम होने वाली है। यह एक अच्छी खबर है मगर इससे हिंदी भाषा के पढ़ने और लिखने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ जायेगी, यह आशा करना एकदम गलत होगा। सच तो यह है कि अगर देवनागरी में खोज सुगम हुई भी तो भी इसी मंथर गति से ही हिंदी लेखन और पठन में बढ़ोतरी होगी जैसे अब हो रही है। हिंदी को लेकर जितनी उछलकूल दिखती है उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है। सच कहें तो कभी कभी तो लगता है कि हम हिंदी में इसलिये लिख पढ़े रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। हम हिंदी में लिख पढ़ते भी इसलिये भी है ताकि जैसा लेखक ने लिखा है वैसा ही समझ में आये। वरना तो जिनको थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है उनको तो हिंदी में लिखा दोयम दर्जे का लगता है। वैसे अंतर्जाल पर हम लोगों की अंग्रेजी देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि लोगों की अंग्रेजी भी कोई परिपक्व है इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए-क्योंकि बात समझ में आ गयी तो फिर कौन उसका व्याकरण देखता है और अगर दूसरे ढंग से भी समझा तो कौन परख सकता है कि उसने वैसा ही पढ़ा जैसा लिखा गया था। बहरहाल अंग्रेजी के प्रति मोह लोगों का इसलिये अधिक नहीं है कि उसमें बहुत कुछ लिखा गया है बल्कि वह दिखाते हैं ताकि लोग उनको पढ़ालिखा इंसान समझें।
       ‘आप इतना पढ़ें लिखें हैं फिर भी आपको अंग्रेजी नहीं आती-‘’हिंदी में पढ़े लिखे एक सज्जन से उनके पहचान वाले लड़के ने कहा’‘-हमें तो आती है, क्योंकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं न!’
          मध्यम वर्ग की यह नयी पीढ़ी हिंदी के प्रति रुझान दिखाने की बजाय उसकी उपेक्षा में आधुनिकता का बोध इस तरह कराती है जैसे कि ‘नयी भारतीय सभ्यता’ का यह एक  प्रतीक हो। इनमें तो कई ऐसे हैं जिनकी हिंदी तो  गड़बड़ है साथ  ही  इंग्लिश भी कोई बहुत अच्छी  नहीं है।
       जैसे जैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों और महाविद्यालयों के प्रति लोगों का रुझान कम हुआ है-निजी क्षेत्र में अंग्रेजी की शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। एक दौर था जब सरकारी विद्यालयों में प्रवेश पाना ही एक विजय समझा जाता था-उस समय निजी क्षेत्र के छात्रों को फुरसतिया समझा जाता था। उस समय के दौर के विद्यार्थियों ने हिंदी का अध्ययन अच्छी तरह किया। शायद उनमें से ही अब ऐसे लोग हैं जो हिंदी में लेखन बेहतर ढंग से करते हैं। अब अगर हिंदी अच्छे लिखेंगे तो वही लोग जिनके माता पिता फीस के कारण अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के निजी विद्यालयों में नहीं पढ़ा सकते और सरकारी विद्यालयों में ही जो अपना भविष्य बनाने जाते हैं।
       एक समय इस लेखक ने अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध स्तंभकार श्री खुशवंत सिंह के इस बयान पर विरोध करते हुए एक अखबार में पत्र तक लिख डाला‘जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंदी गरीब भाषा है।’
       बाद में पता लगा कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा बल्कि उनका आशय था कि ‘हिन्दुस्तान में हिंदी गरीबों की भाषा है’। तब अखबार वालों पर भरोसा था इसलिये मानते थे कि उन्होंने ऐसा कहा होगा पर अब जब अपनी आंखों के सामने बयानों की तोड़मोड़ देख रहे हैं तो मानना पड़ता है कि ऐसा ही हुआ होगा। बहरहाल यह लेखक उनकी आलोचना के लिये अब क्षमाप्रार्थी है क्योंकि अब यह लगने लगा है कि वाकई हिंदी गरीबों की भाषा है। इन्हीं अल्पधनी परिवारों में ही हिंदी का अब भविष्य निर्भर है इसमें संदेह नहीं और यह आशा करना भी बुरा नहीं कि आगे इसका प्रसार अंतर्जाल पर बढ़ेगा, क्योंकि यही वर्ग हमारे देश में सबसे बड़ा है।
       समस्या यह है कि इस समय कितने लोग हैं जो अब तक विलासिता की शय समझे जा रहे अंतर्जाल पर सक्रिय होंगे या उसका खर्च वहन कर सकते हैं। इस समय तो धनी, उच्च मध्यम, सामान्य मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिये ही यह एक ऐसी सुविधा है जिसका वह प्रयोग कर रहे हैं और इनमें अधिकतर की नयी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित है। जब हम अंतर्जाल की बात करते हैं तो इन्हीं वर्गों में सक्रिय प्रयोक्ताओं से अभी वास्ता पड़ता है और उनके लिये अभी भी अंग्रेजी पढ़ना ही एक ‘फैशनेबल’ बात है। ऐसे में भले ही सर्च इंजिनों में भले ही देवनागरी करण हो जाये पर लोगों की आदत ऐसे नहीं जायेगी। अभी क्या गूगल हिंदी के लिये कम सुविधा दे रहा है। उसके ईमेल पर भी हिंदी की सुविधा है। ब्लाग स्पाट पर हिंदी लिखने की सुविधा का उपयेाग करते हुए अनेक लोगों को तीन साल का समय हो गया है। अगर हिंदी में लिखने की इच्छा वाले पूरा समाज होता तो क्या इतने कम ब्लाग लेखक होते? पढ़ने वालों का आंकड़ा भी कोई गुणात्मक वुद्धि नहीं दर्शा रहा।
       गूगल के ईमेल पर हिंदी लिखने की सुविधा की चर्चा करने पर एक नवयौवना का जवाब बड़ा अच्छा था-‘अंकल हम उसका यूज (उपयोग) नहीं करते, हमारे मोस्टली (अधिकतर) फ्रैंड्स हिंदी नहीं समझते। हिंदी भी उनको इंग्लिश (रोमन लिपि) में लिखना पसंद है। सभी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं। जो हिंदी वाले भी हैं वह भी इससे नहीं लिखते।’
ऐसे लोगों को समझाना कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी की कितनी भी सुविधा अंतर्जाल पर आ जाये उसका लाभ तब तक नहीं है जब तक उसे सामान्य समाज की आदत नहीं बनाया जाता। इसका दूसरा मार्ग यह है कि इंटरनेट कनेक्शन सस्ते हो जायें तो अल्प धन वाला वर्ग भी इससे जुड़े  जिसके बच्चों को हिंदी माध्यम में शिक्षा मजबूरीवश लेनी पड़ रही है। यकीनन इसी वर्ग के हिंदी भाषा का भविष्य को समृद्ध करेगा। ऐसा नहीं कि उच्च वर्ग में हिंदी प्रेम करने वाले नहीं है-अगर ऐसा होता तो इस समय इतने लिखने वाले नहीं होते-पर उनकी संख्या कम है। ऐसा लिखने वाले निरंकार भाव से लिख रहे हैं पर उनके सामने जो समाज है वह अहंकार भाव से फैशन की राह पर चलकर अपने को श्रेष्ठ समझता है जिसमे हिंदी से मुंह   फेरना एक प्रतीक माना जाता है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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नया सामान भी कबाड़ हो जाता है-हिंदी व्यंग्य कविता (naya saman aur kabad-hindi vyangya kavita)


सुनने और पढने वाला
जाल में फंस जाए
विज्ञापन ऐसे ही सजाये जाते हैं.
अगर उनमें सच होता तो
नहीं भर जाते घर उस कबाड़ के सामान से
जिनको खरीदा था कभी चाव से
बड़े महंगे भाव से
आये थे जो सामान नए बनकर ठेले से
वही कभी कबाड़ बनकर फिर उसमें लद जाते हैं.
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बाज़ार अब नगद ही नहीं
उधार पर भी चलते हैं.
चुकाते हुए रोते रहो
नहीं चुकाने पर
चीख पुकार भी मचती है
कभी उधार वाले
पहलवान बनकर गर्दन भी पकड़ते हैं.

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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किसका हुआ कभी कोहिनूर-व्यंग्य कविता (kiska hua kohinoor-vyangya kavita)


चंद खोये सिक्के ढूंढने के लिए
पूरा घर का सामान बिखेर डाला
मिले पलंग के नीचे गिरे हुए
पहले तो खुशी मिली, फिर हुई काफूर।
बिखरी हुई शयों को समेटने के
ख्याल ने कर दिया बदन पहले ही चूर।
खोये पाये के हिसाब में
पूरी जिंदगी हो जाती है बेनूर।
सिक्के इतने जमा कर लिये संभाले नहीं जाते
गिनती में भूल जायें
तो देखते हैं उनको घूर।
सोचते कौन कम हुआ चश्मेबद्दूर।
खोये हुए सिक्के मिल गये
पर चले जायेंगे हाथ से
बनेंगे किसी दूसरे हाथ का नूर।
जिंदगी में गमों का सिलसिला भी आता है
खुशियां भी साथ चलती थोड़ी दूर।
अपना कितनों ने माना होगा
पर किसका हुआ कभी कोहिनूर।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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