सुनकर कहीं भी आग लगने की खबर
तैयार हो जाते हैं रहबर
साथ में ले जाते हैं
छपे बयानों का पुलिंदा
देखते हैं पहले कितने मरे कितने बचे जिंदा
फिर करते हैं अपनी बात
पानी की बोतल भी चलते हैं साथ लिए।
आग बुझाने के मतलब से नहीं
बल्कि गले की प्यास बुझाने के लिए।
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कहीं भी हो हादसा
वह पकडते हैं वही रास्ता
प्रचार में चमकने के अलावा
उनका कोई दूसरा नहीं होता वास्ता।
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यह इंसानी फितरत ही है कि
हादसों में भी जाति और धर्म ढूंढने लगे हैं।
रहबरों ने भी तय कर लिया है
वह इधर जायेंगे, उधर नहीं
जहां आसार हो दौलत और शौहरत मिलने
वहीं बांटते और बेचते हैं हमदर्दी
कौन कहता है कि रहबर जगे हैं।
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हवा की पहचान-हिंदी शायरी
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रेत से भरा हो या पानी से
सागर में लहरें उठाये बगैर
हवा कहर नहीं बरपा सकती.
न जलते होते जिंदगी के चिराग
तो उनको बुझाकर
बिखेरते हुए अँधेरा
अपनी ताकत कैसे दिखाती
नहीं तपता सूरज तो
पानी आकाश से कैसे बरसाती
जिंदगी की सांसों को बहाती हैं इसलिए हवा
कि पत्थरों के आसरे वह
अपनी पहचान बना नहीं सकती..
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप