Tag Archives: व्यंग्य लेख

फिल्म देखे बिना लिखा गया हिन्दी हास्य व्यंग्य


    हमने पीके फिल्म न देखी है न देखेंगे पर उसे देखने वाले दर्शक जिस तरह बता रहे हैं उसमें हमारी पहली आपत्ति तो धर्म की आड़ में एक प्रेम कहानी थोपने दूसरी गाय को घास खिलाने के विरोध दिखाने की बात पर है। हमने ओ माई गॉड फिल्म में भारतीय धर्म के अंधविश्वास का विरोध करने के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता के विश्वास की स्थापना का प्रयास होने के कारण उसका समर्थन किया था। उसमें युवक युवती की शारीरिक जरूरतों को इंगित करती हुई कहानी नहीं थी।  शिवलिग पर दूध चढ़ाने पर कटाक्ष भी तार्किक ढंग से किया गया था।  कोई बता रहा था कि पीके गाय को घास खिलाने पर भी कटाक्ष किया गया है।  इससे हमारा विरोध है। मुंबईया फिल्म में अधिकतर शराब और शवाब की छाप बदलकर उपभोग करने की प्रवृत्तियां प्रचारित की जाती हैं।  फिल्म में काम करने वालों प्रसिद्ध लोगों  के चरित्र ही नहीं वरन् परिवार भी आदर्श नहीं रह पाते।  उपभोग के प्रेरक कभी योग के संदेशवाहक बने यह अपेक्षा हम नही रखतें है, उनको धर्म कर्म की बातों पर सोच समझकर पटकथायें लिखनी चाहिये। कभी गाय के सामने  रोटी या घास पेश कर उसे खाकर तुप्त होकर सुख उठाना ऐसे लोग नहीं जानते जिन्हें शब्दों और चित्रों का व्यापार करना है।  हम यहां यह भी बता दें पाश्चात्य विचारों में फंस ऐसे लोग यह मानते हैं कि यह संसार केवल मनुष्यों के लिये ही है।  जबकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों के अनुसार यहां पशु पक्षी भी महत्वपूर्ण है।  श्रेष्ठ जीव होने के कारण मनुष्य का यह दायित्व है कि प्रकृति संसाधनों के साथ ही वन, पशु तथा पक्षी संपदा की रक्षा करते हुए विकास करे।

            हम सुबह घर के बाहर चबूतरे पर योग साधना करते हैं तब अक्सर गायें खड़ी होकर देखती रहती हैं।  वह जिस मासूमियत से निहारती है उससे मन द्रवित हो  जाता है उनको रोटी या खाने की दूसरी सामग्री दे ही देते हैं।  खाने के बाद वह एक दृष्टि हम पर डालकर चली जाती हैं तब होठों पर अचानक ही मुस्कराहट आ जाती है।  उस सुख का शब्दों में वर्णन करना कठिन है।  पीके फिल्म हमने नहीं देखी फिर भी इस पर टिप्पणी करना हम उसी तरह नैतिकता का प्रतीक मानते हैं जैसे चलचित्र निर्माता निर्देशक पशु पक्षियों को खिलाये पिलाये बिना ऐसे कर्म में लोगों का मजाक बनाते हैं। इतना ही नहीं भारतीय धर्म ग्रंथों के पढ़े बगैर वह सुनी सुनाई बातों के आधार पर समाज का चरित्र तय कर लेते हैं।

            हमारे एक मित्र ने हमसे कहा-‘चलो, तुम्हें पीके दिखा दूं।’’

            हमने कहा-‘‘पीके हमने देख लिया है। कोई मजा नहीं आता।’’

            वह बोला-‘‘मैं फिल्म पीके की बात कर रहा हूं।’’

            हमने कहा।-‘‘उस पर पैसे खर्च करने से अच्छा है खाने पीने पर ही खर्च करें।’’

            वह बोला-‘‘पैसे मैं खर्च करूंगा।’’

            हमने कहा-‘समय तो खर्च होगा। आंखों को तकलीफ भी होगी। इससे अच्छा है अंतर्जाल पर दो चार बेसिरपैर की कवितायें ही लिखकर जश्न मनायें।’

            वह चला गया पर हम पर तनाव का बोझ डाल गया।  हमारे पास इसके निवारण का  एक ही उपाय रहा  कि कुछ इस पर लिख डालें। वही हम कर रहे हैं।  इस पर कोई कविता समझ में नहीं आ रही। कोई व्यंग्य भी बनाने का सामर्थ्य नहीं लग रहा।

चाकलेटी चेहरे वाले

उपभोग जगत में

इस कदर छाये

कभी वस्त्रहीन होकर

कभी सामने पीके आये।

कहें दीपक बापू भाग्य की बात

भांडों का जमाना है,

अपनी अदाओं से

उनको कमाना है,

नशे का विरोध करते हुए

समाज सुधारने के लिये

नारे लगाते

उनका हर कम

अभिनय कहलाता

हम समझायें तो

कहा जाता है यह पीके आये।

——————-

            इस सर्दी में कहीं जाने का मन नहीं कर रहा था।  सोचा किस तरह दिमाग में गर्मी लायें। पीना छोड़ दिया है इसलिये बोतल को हाथ लगा नहीं सकते।  इसलिये ऐसी सोच बना ली जैसे हम पीके आये। तभी यह बिना सिर पैर का लघु व्यंग्य लिख पाये।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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चेलों की चाल पर-हिन्दी व्यंग्य कविता


सफेद कागज पर

काली स्याही से

बहुत सारे महापुरुषों के

किस्से लिखे हैं।

सत्य के रास्ते पर जो चले

जनमानस के हृदय पर

देवता की तरह बसे

कुछ ऐसे भी रहे

जिन्होंने प्रचार के दम पर

काम से ज्यादा नाम पाया

नारेबाजों के स्वर में टिके हैं।

कहें दीपक बापू देहधारियों से

हमेशा देवत्व दिखाने की

आशा नहीं की जा सकती,

कभी माया की मजबूरी भी

देवों के सामने भी खड़ी लगती,

फिर भी जिन्होंने मनुष्य समाज में

चेतना की ज्योति जगाई,

अज्ञान के अंधेरे में

ज्ञानी की आग लगाई,

उनके लिये हृदय में

पवित्रता का भाव आता

मगर जिन्होंने चालाकियों से

लोगों को बहलाया

उनके एतिहासिक शब्द

केवल चेलों की चाल पर बिके  हैं।

—————————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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सभी की नीयत में राग है-हिन्दी व्यंग्य काव्य रचनायें


सूरज में जरूरत से ज्यादा आग है,

शीतल है चंद्रमा पर उसमें भी दाग है।

कहें दीपक बापू इंसानों में कभी नहीं हो सकता देवता

सभी की नीयत में छिपा कोई न कोई राग है।

—————

अपने ही जाल में फंसा इंसान वफा का करता वादा,

क्या निभायेगा वह जिसके दिल में मतलब पाने का ही है इरादा।

कहें दीपक बापू कई लोगों ने विज्ञापन से अपनी छवि बनाई है

वह सौदागर सपने के बन जाते न करना उम्मीद उनसे ज्यादा।

————

आलीशान घर है पर उनके दिल में बुझे चिराग हैं,

शहर की उजाड़कर हरियाली पहरे में रखे उन्होंने बाग हैं।

कहें दीपक बापू  किस पर हंसे किस पर रोयें

शेर और हिरण चबा जायें इंसान के वेश में कई नाग हैं।

————–

राजमहलों में आनंद पाने की चाहत सभी पालते हैं,

खुले आसमान के नीचे जंग के मौके सभी टालते हैं।

बादशाहों की खुशफहमी  कि उनके पांव तले खजाना है,

फकीर की मस्ती है उन्हें किसी के पांव नहीं दबाना है

तख्त पर बैठे कई इंसान  हमेशा रहे बेचैन

उनका नाम कागज पर बादशाह की तरह चलता रहा,

कुछ नहीं मिला मेहनत करने पर भी वह भी खुश रहे

कभी की मस्ती कभी दौलतमंदों की हरकतों को हंसते सहा,

बुलंदियों पर पहुंचे जो दूसरों को गिराकर वह खुद भी गिरे,

सहुलियतों का घेरा लगाया मुश्किलों में भी वही घिरे,

कहें दीपक बापू जिंदा रहने के लिये साफ सांस जरूरी

शौहरत के दीवाने ज़माने में फैलाते सोच का जहर

उजाड़ते चमन पर अपनी जिंदगी की आस

गंदी हवाओं पर ही डालते हैं।

—————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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अपनी कमीज पर सोने का बटन टांकते हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


अपने दोष लोगों को दिखते नहीं

दूसरों के गिरेबां में लोग झांकते हैं,

गैरों धवल कपड़ों पर दाग लगते देखने की चाहत है

अपनी कमीज पर सोने के बटन टांकते हैं।

कहें दीपक बापू हर जगह तमाम विषयों होती बहस

निष्कर्ष कहीं से मिलता नहीं है,

हर कोई जमा है अपनी बात पर

तयशुदा इरादे से हिलता नहीं है,

कान बंद कर लिये अक्लमंदों ने

मौका मिलते ही जुबां से  अपनी अपनी फांकते है।

—————-

जिंदगी का हिसाब जब लगाते हैं तब होता है अहसास

कुछ सपने साकार खुद-ब-खुद साकार होते गये,

कुछ रिश्ते समय ने बदले कुछ मतलब निकलते ही खोते गये।

कहें दीपक बापू  पेटी में खजाना भरने की कोशिश

कभी हमने की नहीं,

इधर से आई माया उधर बह गयी कहीं,

जब भी किया हिसाब दिमाग हमारा गड़बड़ाया,

देना कभी भूले नहीं लेना याद नहीं आया,

रोकड़ बही लिखने का बोझ हम बेकार ढोते रहे।

———-

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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विज्ञान की तरक्की- हिंदी व्यंग्य कविता


इंसान भेजता रहता है चांद पर अंतरिक्ष यान,

आंकाश के रहस्य की तलाश में है

मगर अपनी धरती के स्वभाव से हो गया है अनजान।

कहें दीपक बापू संसार में विज्ञान की तरक्की बुरी नहीं है

मगर दुःखदायी है बिना इंसानियत के ज्ञान,

पत्थर और लोहे का सामान रंग से चमकता है

आंखों देखती है तो दिल धमकता है,

फिर भी लगता है कहीं खालीपन

क्योंकि होती नहीं अपनी जान की पहचान

—————-

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

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सफाई का वादा-हिंदी व्यंग्य कविताएँ


टुकड़ों टुकड़ों में बंटा है समाज,हर इंसान अपनं मतलब के लिये बन जाता बाज़,

छिपा रहा है हर कोई अपने बुरे कारनामो के  राज,

फिर भी मानते हैं सभी

कोई फरिश्ता आसमान से उतरकर आयेगा,

जहान में एकता कायम कर पायेगा।

कहें दीपक बापू मन का वहम है

या खुद को ही धोखा खा देना

यह सोचना कि सर्वशक्तिमान

इंसानों में किसी को अपने जैसा बनायेगा।

———-

सड़क और उद्यान साफ रहे सभी चाहते हैं,
गंदगी कोई न फैलाये इसके लिये कोई तैयार नहीं है,
गुलाब के फूलों के सभी प्रशंसक हैं,
मगर कांटो जैसा उनका कोई यार नहीं है।
कहें दीपक बापू हम नहीं कर सकते
किसी से सफाई का वादा,
कहीं गंदगी फैलाने का भी नहीं रहता इरादा,
अपनी नाव के खेवनहार खुद ही बने लोग
किसी के सहारे जिंदगी में कोई होता पार नहीं है।
———
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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हमदर्दी के व्यापारी-हिन्दी व्यंग्य कविता


जहान की चिंत्ताओं का बोझ ढोते दिखते हैं शब्दों के व्यापारी,

बाज़ार में कोई शय नहीं बेचने के लिये वादों से करते छवि भारी,

एक चेहरा बदनामी से पुराना हुआ  फिर नया कोई आ जाता है,

भलाई की दुकान का हक कोई जन्म से कोई कर्म से पाता है,

चतुरों ने  अंग्रेजी सेे सभी को भरमाया फिर हिन्दी से भी कमाया,

लगने लगा जब फैशन पुराना अब हिंग्लिश को जरिया बनाया,

उड़ते हैं आसमान में ज़मीन पर रैंगने वालों के बनते वफादार,

नारे लगाने से  जल्दी पा जाते तख्त फिर बन जाते दागदार,

कहें दीपक बापू  अपने जख्मों का इलाज खुद ही करना सीखो

निभाने आयेंगे बहुत सारे हमदर्द दवा पर होगी उनकी नीयत सारी

————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Gwalior, madhyapradesh

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शतरंज और लोकतंत्र-हिन्दी व्यंग्य कविता


कुर्सी के खेल में शहादत भी कभी रंग लाती है,

ज़माने की हमदर्दी बादशाहत भी संग लाती है,

सियासत की चाल शतरंज के खेल जैसी होती,

घोड़ा चले ढाई कदम बादशाह की ताकत ऐसी नहीं होती,

सीधे चलता पैदल वार तिरछा कर वजीर बन जाये,

मात दे बादशाह को तो बाजी एक नज़ीर बन जाये,

ऊंट की तिरछी तो हाथी की सीधी चाल करती हैरान,

हुकुमत का खेल पसंद करते फरिश्ते हों या शैतान,

कहें दीपक बापू बेबस और बेजान राजा बुत जैसा है

उसकी किस्मत की कुंजी मुहरों की चालों में फंसी होती।

—————–

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

 

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

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महंगाई और भलाई-हिंदी व्यंग्य कविता


आम इंसान की सांसों को थाम रही बढ़ती महंगाई,

विकास के स्वर्णिम रथ से बंट रही  गरीब को भलाई।

कहें दीपक बापू सबसे आसान है दिन में देखना सपने,

साकार करना कठिन हो तो लगें भगवान नाम जपने।

रिश्तों की डोर कभी टूटती नहीं यह सच बात है,

मगर मेहमानों की महंगी पड़ ही जाती एक रात है।

जेब में पैसा हो तो आशिक पर इश्क का भूत चढ़ता है,

खाली जेब से होता जब नाकाम दोष माशुका पर मढ़ता है।

दिमाग में सामान खरीदने की सूची बहुत लंबी बसी है,

मुश्किल है कुछ लोगों के हाथ दुनियां की हर शय फसी है।

परिवार और समाज टूटे अब खतरा इंसानी जज्बात पर आ रहा है,

दौलत बसी कुछ घरों में बाहर बेबस आदमी नाखुश गुर्रा रहा है।

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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स्वर्ग बसाने का वादा-हिंदी व्यंग्य कविता


लोकतंत्र का खेल है उसके गुण गाते जाओ,

कुर्सी के खेल की धारा में बहस कर शब्द बहाते जाओ।

कहें दीपक दीपक बापू महंगाई कभी कम नहीं होती,

भ्रष्टाचार वह राक्षस है जिसकी आंख कभी नहीं सोती।

देश में हर कदम पर स्वर्ग बसाने का वादा मिलता है,

चालाक लोगों के मजे है भला इंसान सभी जगह पिलता है।

कोई विकास का नारा देता कोई ईमानदार बनकर आता है,

बदलाव के नारे बहुत सुनते पर समाज पीछे ही जाता है।

समाज सेवा में पेशेवरों ने बना लिया है अपना ठिकाना,

चंदे से  अपने घर चलाते मजबूरी उनकी दान करते दिखाना।

आखों से खबरे पढ़ो और देखो कानों से  सुनो फिर भूल जाओ,

दिमाग में ज्यादा देकर अपना रक्तचाप कभी न बढ़ाओ।

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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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बहस में शब्द-हिन्दी व्यंग्य कविता


लोकतंत्र का खेल है उसके गुण गाते जाओ,

कुर्सी के खेल की धारा में बहस कर शब्द बहाते जाओ।

कहें दीपक दीपक बापू महंगाई कभी कम नहीं होती,

भ्रष्टाचार वह राक्षस है जिसकी आंख कभी नहीं सोती।

देश में हर कदम पर स्वर्ग बसाने का वादा मिलता है,

चालाक लोगों के मजे है भला इंसान सभी जगह पिलता है।

कोई विकास का नारा देता कोई ईमानदार बनकर आता है,

बदलाव के नारे बहुत सुनते पर समाज पीछे ही जाता है।

समाज सेवा में पेशेवरों ने बना लिया है अपना ठिकाना,

चंदे से  अपने घर चलाते मजबूरी उनकी दान करते दिखाना।

आखों से खबरे पढ़ो और देखो कानों से  सुनो फिर भूल जाओ,

दिमाग में ज्यादा देकर अपना रक्तचाप कभी न बढ़ाओ।

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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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सौदागर के कब्जे में है पूरा ज़माना-हिंदी व्यंग्य कविता


खबर को खींचते रबड़ की तरह

उबाऊ बहसों के बीच

पर्दे पर सामानों के विज्ञापन

यूं ही चलाये जाते हैं,

शय खरीदने की सोचें

या करें हम  चिंत्तन यही भूल जाते हैं।

कहें दीपक बापू

बाज़ार के नये उत्पादों को बेचने के लिये

रोज नये नायक चाहिये,

प्रचार में उनके गीत बजवाने के लिये

नये गायक चाहिये,

सौदागर के कब्जे में है पूरा ज़माना,

जिनको आता है बस कमाना,

नित्य नये नये चेहरे रखते सामने

पैसे लेकर बुत करते उनका काम

कोई नाचकर

कोई गाकर

आम इंसानों की जेब

दिल बहलाते हुए खाली किये जाते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Gwalior, madhyapradesh

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जो इंसान बादशाह बन गया-हिंदी व्यंग्य कविता


हुकुमतों के तख्त पर बैठने वाले

चेहरे रोज नये नये आते हैं,

ज़माना जब पांव तले होने का अहसास ऐसा

उनमें कसाई का चरित्र ही पाते है,

कीचड़ की दुर्गंध क्या समझेंगे

अपने महलों में रहते जो इत्र ही  पाते हैं

कहें दीपक बापू

बादशाह बन गया जो इंसान

सड़कों पर उड़ती धूल नहीं आती आंखों में

खुशकिस्मत होता है वही लाखों में,

आम इंसान की भलाई का दावा

वह चाहे कितना भी करे

अपने तख्त का उसे मित्र ही पाते हैं।

—————–

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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नई अदाओं पर मर मिटना-हिन्दी व्यंग्य कविता


ज़माने को दिखाने के लिये

नये नये स्वांग रचना होता है जरूरी,

नारे लगाते रहो भीड़ में

तख्त पर बैठते ही बना लो वादों से दूरी।

कहें दीपक बापू

नयी नयी अदायें दिखाओ,

पुराने शब्दों की पंक्तियां

नई कहकर सिखाओ,

मुखौटा बदलकर

नया चेहरा दिखाओ,

दौलत चाहे जितनी हो पास

गरीब के बने रहो हमदर्द,

दिल में चाहे अपने सुंदर सपने बसे हो

बेचो बाज़ार में दूसरों का दर्द,

ऊंचाई पर महल भले ही बना लो,

रहने के लिये जमीन पर झौंपड़ी भी तना लो,

दूसरों को आसरे देते रहो

ख्वाहिशें अपनी करते रहो यूं ही पूरी।

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

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स्वयं को आम आदमी कहें या जाम आदमी-हिन्दी व्यंग्य लेख


            हमारे देश में आम आदमी होना कभी गौरव की बात समझी नहीं जाती। कोई कितना भी अच्छा  लेखक, कवि, या चित्रकार हो अगर उसके नाम के समक्ष कोई पद, पदवी या प्रकाशन नहीं है तो उसे समाज में आम आदमी ही माना जाता है। अगर वह कहीं अपने रचनाकर्म की बात करे तो उससे  सवाल यही किया जाता है कितुम उसके अलावा क्या करते हो?’

            हमारे समाज की यह वास्तविकता है कि वह राजकीय छवि की ही प्रशंसा करता है।  भगवान श्रीराम राजपद पर बैठे थे उनका राज्य काल इतना प्रशंसनीय रहा कि लोग आज भी उसे याद करते हैं पर जिन बाल्मीकी महर्षि ने उन पर बृहइ  ग्रंथ की रचना के माध्यम से उनको  भगवान के रूप में समाज के सामने प्रतिष्ठत किया उन्हें  कभीं भगवान का दर्जा नहीं मिला।  जिन महर्षि वेदव्यास ने महाभारत ग्रंथ की रचना के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण को भगवत् पर पद प्रतिष्ठत करने के साथ ही श्रीगीता के संदेशों का इस तरह स्थापित किया कि पूरा विश्व उनको मानता है मगर व्यासजी समाज  पूज्यनीय तो बने पर प्रेरक नहीं। कोई व्यक्ति बाल्मीक या वेदव्यास जैसी रचना करने की  दूर यह बात सोच भी नहीं सकता।  जो आम जीवन जी रहा है वह खास बनने के लिये हमेशा बेताब रहता है।

            आम आदमी का भला करना हैका नारा लगाते हुए अनेक लोग खास बन गये। इतने खास कि उन्हें अब आम आदमी की कतार होने का भय लगता है।  उस दिन एक प्रदेश के राज्यमंत्री का समाचार देखा। वह अब चाय बेचता है।  अपना दर्द बयान कर रहा था।  आम से खास बने लोगों के लिये उसके समाचार  डरावना हो सकते हैं। 

            खास आदमी अपना स्तर बनाये रखने के लिये भारी जद्दोजेहद करता है। इसमें उसे आम से खास बनने से अधिक मेहनत करना होती है। 

            बहरहाल अपने दीपक बापू आजकल भारी परेशानी में है।  स्वयं को आम आदमी कहकर अभी तक अपने फ्लाप होने के आरोप से छिपते फिर रहे थे। अब यह मुश्किल हो गया है।

            उस दिन वह एक किराने की दुकान पर गये। वहां से सौ ग्राम शक्कर खरीदी और अपने घर चल दिये। हालांकि उन्होंने शक्कर खरीदने के लिये  अपने घर से पांच किलोमीटर दूर की दुकान चुनी थी ताकि कोई जान पहचान वाला न देख ले। अभी तक समाज में उनकी  छवि मध्य वर्गीय मानी जाती थी,  पर महंगाई ने उनको निम्न वर्ग में पहुंचा दिया था। यह सच्चाई कोई जान न ले इस कारण दीपक बापू किराने का सामान दूर से ही खरीदते हैं।  मगर उनका दुर्भाग्य भी पीछा नहंीं छोड़ता। वह शक्कर खरीद कर पलटे नहीं कि एक कार उनके पास आकर रुकी। आलोचक महाराज उसमें से निकले। बोले-‘‘कार खाली जा रही है। चलो घर तक छोड़ देता हूं। तुम मुझे पांच रुपये दे देना।

            कंगाली में आटा  गीला। चार रुपये की शक्कर खरीदी थी और पांच रुपये का किराया देना पड़े यह दीपक बापू को मंजूर नहीं था। बहरहाल हास्य कवि-भले ही फ्लाप हो-यह सहन नहीं कर सकता कि कोई उसे इस तरह जलील करे। बोले-‘‘नहीं, मै तो पैदल घर से निकला हूं। मुझें अपनी सेहत बनाये रखनी है।

            आलोचक महाराज हंसे-‘‘तुम्हारी सेहत में ऐसा क्या है जिसे बनाये रखना है।  एकदम दुबले पतले कीकट रखे हो। हमें देखो कितने मोटे ताजे हैं।  तुम्हारे पास अभी पांच रुपये नहीं हों तो बाद में दे देना। इतना उधार तो तुम पर रख ही सकता हूं।

            दीपक बापू बोले-नहीं आप जाईये। मेरे पास पांच रुपये का छुट्टा नहीं है।’’

            आलोचक महाराज बोले-‘‘छुट्टा नहीं है, या हैं ही नहीं! जहां तक मेरा अनुमान है कि तुम्हारी जेब में दस दस रुपये के चार, नहीं हो सकता है कि तीन, नहीं नही मुझे लगता है कि  एक दस के नोट से अधिक नहीं हो सकता।  इधर तुम्हारी हास्य कवितायें छोटी पत्रिकाओं में छपती हैं वहां से पैसा मिलता ही नही है।  इधर उधर टाईप कर कमाने का तुम्हारा धंधा भी अब कंप्यूटर की वजह से कम हो गया है।

            दीपक बापू हंसे-‘‘बोले आप हंस लीजिये।  आप को तो बड़े बड़े लोगों का संरक्षण मिला हुआ है। हम तो आम आदमी हैं, ऐसे ही फटेहाल ही ठीक हैं।’’

            इसी बीच दुकानदार को किसी दूसरे ग्राहक को देने के लिये खुले पैसे चाहिये थे। वह दीपक बापू के पास आया और बोला-साहब आपके पास दस रुपये के खुले होंगे। आपने अभी सौ ग्राम शक्कर खरीदी थी। मैंने सोचा आपके पास जरूर खुले पैसे होंगे। मुझे दूसरे ग्राहक को देने हैं।’’

            दीपक बापू चिढ़कर बोले-‘‘नहीं है! जाओ यहां से!

             उसके दूर होते ही आलोचक महाराज कृत्रिम आश्चर्य से बोले-‘‘आम आदमी! तब तो तुमसे डरना पड़ेगा। अरे, तुम्हें मालुम नहीं है आजकल आम आदमी के नाम से बड़ों बड़ों को पसीना आता है।  आम आदमी नाम का एक संगठन जलवे दिखा रहा है। तुम अगर आम आदमी होते तो यहां सौ ग्राम शक्कर खरीदने पांच किलोमीटर चलकर नहीं आते। यह दुकानदार खुद ही सौ ग्राम की बजाय एक किलो शक्कर देने घर आता।’’

            दीपक बोले-एक तो आप हमारी कवितायें छपने के लिये किसी बड़े पत्र या पत्रिका के संपादक से सिफारिश नहीं करते। अब हमारे आम आदमी होने का उपहास तो न उड़ायें जिस पर हम अपनी हास्य कवितायें लिखते हैं।

            आलोचक महाराज बोले-‘‘तुम अब स्वयं को आम आदमी नहीं जाम आदमी कहा करो। तुमने सुना है कि यह बात आम जाम है।  आम आदमी शब्द तो आम की तरह मीठा हो गया है। अपने को आप आदमी कहने से पहले  दमखम रखना वरना…….कहीं तुमने आम आदमी होने का दावा किया और प्रमाणित नहीं कर सके तो कोई मार मारकर जाम आदमी बना देगा।’’

            दीपक बापू बोले-‘‘महाराज, यही तो हमारे पास एक पदवी थी इसे भी अगर आप खास लोग छीन लेंगे तो बचा ही क्या?’’

            आलोचक महाराज बोले-‘‘भईये देख लो! हम तो तुम्हें आम आदमी नहीं जाम आदमी ही कहेंगे। आम आदमी तो विकास पथर पर चलता है, तुम जाम आदमी की तरह खड़े हो। दूसरी बात अपनी हास्य कविताओं में अब आम आदमी के दर्द पर रोना नहीं क्योंकि अब वह योद्धाओं की पहचान बन गया है।’’

            दीपक बापू   सोचने की मुद्रा में बोले-मगर जाम आदमी शब्द भी नहीं चल पायेगा।  ऐसा करते हैं सामान्य आदमी शब्द चल जायेगा।

            आलोचक महाराज ने पहले आकाश में देखते हुए बोले-देखो भई, आम इंसान शब्द थोड़ा ठंडा है। हास्य कविताओं में नहीं चल पायेगा। जाम आदमी जमेगा।’’

            दीपक बापू बोले-‘‘महाराज आप छोड़ें। आम आदमी शब्द आपको ले जाना है तो ले जायें रहा हमारी हास्य कविताओं के प्रभाव का सवाल! आप परेशान न हों! हमारी हास्य कवितायें आपकी सिफारिश चाहे न पायें पर उनका प्रभाव शब्दों की वजह से हमेशा रहेगा।  हम आम इंसान से ही काम चला लेंगे।

            आलोचक महाराज गुस्से में कार के अंदर चले गये। दीपक बापू परेशान हाल घर की तरफ चल पड़े। सौ ग्राम शक्कर खरीदने की पोल से अधिक उनको इस बात की चिंता थी कि आम आदमी शब्द उनकी लेखनी से दूर जा रहा था।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior