Tag Archives: आध्यात्म

फिल्म देखे बिना लिखा गया हिन्दी हास्य व्यंग्य


    हमने पीके फिल्म न देखी है न देखेंगे पर उसे देखने वाले दर्शक जिस तरह बता रहे हैं उसमें हमारी पहली आपत्ति तो धर्म की आड़ में एक प्रेम कहानी थोपने दूसरी गाय को घास खिलाने के विरोध दिखाने की बात पर है। हमने ओ माई गॉड फिल्म में भारतीय धर्म के अंधविश्वास का विरोध करने के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता के विश्वास की स्थापना का प्रयास होने के कारण उसका समर्थन किया था। उसमें युवक युवती की शारीरिक जरूरतों को इंगित करती हुई कहानी नहीं थी।  शिवलिग पर दूध चढ़ाने पर कटाक्ष भी तार्किक ढंग से किया गया था।  कोई बता रहा था कि पीके गाय को घास खिलाने पर भी कटाक्ष किया गया है।  इससे हमारा विरोध है। मुंबईया फिल्म में अधिकतर शराब और शवाब की छाप बदलकर उपभोग करने की प्रवृत्तियां प्रचारित की जाती हैं।  फिल्म में काम करने वालों प्रसिद्ध लोगों  के चरित्र ही नहीं वरन् परिवार भी आदर्श नहीं रह पाते।  उपभोग के प्रेरक कभी योग के संदेशवाहक बने यह अपेक्षा हम नही रखतें है, उनको धर्म कर्म की बातों पर सोच समझकर पटकथायें लिखनी चाहिये। कभी गाय के सामने  रोटी या घास पेश कर उसे खाकर तुप्त होकर सुख उठाना ऐसे लोग नहीं जानते जिन्हें शब्दों और चित्रों का व्यापार करना है।  हम यहां यह भी बता दें पाश्चात्य विचारों में फंस ऐसे लोग यह मानते हैं कि यह संसार केवल मनुष्यों के लिये ही है।  जबकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों के अनुसार यहां पशु पक्षी भी महत्वपूर्ण है।  श्रेष्ठ जीव होने के कारण मनुष्य का यह दायित्व है कि प्रकृति संसाधनों के साथ ही वन, पशु तथा पक्षी संपदा की रक्षा करते हुए विकास करे।

            हम सुबह घर के बाहर चबूतरे पर योग साधना करते हैं तब अक्सर गायें खड़ी होकर देखती रहती हैं।  वह जिस मासूमियत से निहारती है उससे मन द्रवित हो  जाता है उनको रोटी या खाने की दूसरी सामग्री दे ही देते हैं।  खाने के बाद वह एक दृष्टि हम पर डालकर चली जाती हैं तब होठों पर अचानक ही मुस्कराहट आ जाती है।  उस सुख का शब्दों में वर्णन करना कठिन है।  पीके फिल्म हमने नहीं देखी फिर भी इस पर टिप्पणी करना हम उसी तरह नैतिकता का प्रतीक मानते हैं जैसे चलचित्र निर्माता निर्देशक पशु पक्षियों को खिलाये पिलाये बिना ऐसे कर्म में लोगों का मजाक बनाते हैं। इतना ही नहीं भारतीय धर्म ग्रंथों के पढ़े बगैर वह सुनी सुनाई बातों के आधार पर समाज का चरित्र तय कर लेते हैं।

            हमारे एक मित्र ने हमसे कहा-‘चलो, तुम्हें पीके दिखा दूं।’’

            हमने कहा-‘‘पीके हमने देख लिया है। कोई मजा नहीं आता।’’

            वह बोला-‘‘मैं फिल्म पीके की बात कर रहा हूं।’’

            हमने कहा।-‘‘उस पर पैसे खर्च करने से अच्छा है खाने पीने पर ही खर्च करें।’’

            वह बोला-‘‘पैसे मैं खर्च करूंगा।’’

            हमने कहा-‘समय तो खर्च होगा। आंखों को तकलीफ भी होगी। इससे अच्छा है अंतर्जाल पर दो चार बेसिरपैर की कवितायें ही लिखकर जश्न मनायें।’

            वह चला गया पर हम पर तनाव का बोझ डाल गया।  हमारे पास इसके निवारण का  एक ही उपाय रहा  कि कुछ इस पर लिख डालें। वही हम कर रहे हैं।  इस पर कोई कविता समझ में नहीं आ रही। कोई व्यंग्य भी बनाने का सामर्थ्य नहीं लग रहा।

चाकलेटी चेहरे वाले

उपभोग जगत में

इस कदर छाये

कभी वस्त्रहीन होकर

कभी सामने पीके आये।

कहें दीपक बापू भाग्य की बात

भांडों का जमाना है,

अपनी अदाओं से

उनको कमाना है,

नशे का विरोध करते हुए

समाज सुधारने के लिये

नारे लगाते

उनका हर कम

अभिनय कहलाता

हम समझायें तो

कहा जाता है यह पीके आये।

——————-

            इस सर्दी में कहीं जाने का मन नहीं कर रहा था।  सोचा किस तरह दिमाग में गर्मी लायें। पीना छोड़ दिया है इसलिये बोतल को हाथ लगा नहीं सकते।  इसलिये ऐसी सोच बना ली जैसे हम पीके आये। तभी यह बिना सिर पैर का लघु व्यंग्य लिख पाये।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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बाज़ार के शब्द-हिन्दी व्यंग्य कविताये


किताबों में प्रकाशित

समूह में एकत्रित शब्द

हमेशा कुछ बोलते हैं।

पढ़ने वालों ने

कितना पढ़ा

कितना समझा पता नहीं

अर्थ की लाचारी कितना छिपायें

उनके शब्द ही राज खोलते हैं।

कहें दीपक बापू बाज़ार के शब्द

कभी ज्ञानहीन होते हैं,

दाम पाने की नीयत में

बड़े ही दीन होते हैं,

यह अलग बात है कि

हृदय में कामनाओं के साथ

सौदागर अर्थहीन शब्द

प्रचार करते डोलते हैं।

——————-

मन में दबी आशायें

खुली आंखों से सपना

देखंने की आदत

मानव को नशा करने का

आदी बना  देती हैं।

आकाश में उड़ने की

नाकाम कोशिश

पूरी जिंदगी बर्बादी से

सना देती हैं।

कहें दीपक बापू टूटते हुए

दौलत से ऊब रहे हैं,

बोतलों के नशे में डूब रहे हैं,

उनकी लाचारियां

दिवालियों को भी

दौलतमंद बना देती हैं।

———————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
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आस्था की आड़ में अभिव्यक्ति की आज़ादी सीमित रखना अनुचित-हिन्दी चिंत्तन लेख


            फ्रांस में शार्ली हेब्दो पत्रिका पर हमले से मध्य एशिया के उन्मादी समूहों को बरसों तक प्रचारात्मक ऊर्जा मिलेगी।  पहले यह ऊर्जा सलमान रुशदी की पुस्तक के बाद उन पर ईरान के एक धार्मिक नेता खुमैनी के फतवे से मिली थी।  इसके बाद मध्य एशिया का धार्मिक उन्माद बढ़ता ही गया।  वह धार्मिक नेता बरसों तक अमेरिका में रहा और उसी ने ही ईरान की राजशाही के बाद धार्मिक ठेकेदार होने के साथ ही वहां के शासन को भी अपने हाथ में ले लिया। प्रत्यक्ष अमेरिका का खुमैनी से कोई संबंध नहीं दिखता था मगर उसके नेतृत्व में उस समय ईरान में राजशाही के विरुद्ध चल रहे लोकतात्रिक आंदोलन से उसकी सहमति थी। राजशाही के पतन के बाद वहां खुमैनी के धार्मिक नेतृत्व में बनी सरकार कट्टरपंथी ही थी। दिखाने के लिये अमेरिका ने ईरान में लोकतंत्र स्थापित किया पर सच यह है कि वहां एक उस व्यक्ति को सत्ता मिली जो बाद में उसका   दुश्मन बना।

            धार्मिक उन्मादी प्रचार के भूखे होते हैं।  जिस तरह चार्ली हेब्दों के कार्टूनिस्टों की हत्या हुई है वह मध्य एशिया के धर्म की ताकत बनाये रखने के लिये की गयी है जो केवल प्रचार से मिलती है।     इस धार्मिक उन्माद का सामना करने के लिये पूरे विश्व में धार्मिक आस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक ही रूप रखना चाहिये।  यह नहीं हो सकता कि एक देश में आस्था के नाम पर किसी धर्म पर कटाक्ष अपराध तो किसी में एक सामान्य प्रक्रिया मानना चाहिये।  हमारे देश में स्थिति यह है कि भारतीय धर्मोंे पर आक्रमण तो एक सामान्य प्रक्रिया और दूसरे धर्म पर कटाक्ष अपराध मानने की प्रचारजीवियों की प्रवृत्ति हो गयी है।  समस्या यह है कि भारतीय धर्म के ठेकेदार भी कर्मकांडों के ही संरक्षक होते हैं और अध्यात्मिक ज्ञान को एक फालतू विषय मानते हैं।  अध्यात्मिक ज्ञानी अंतर्मुखी होते हैं इसलिये कटाक्ष की परवाह नहीं करते कर्मकांडियों बहिर्मुखी होने के कारण चिंत्तन प्रक्रिया से पर होते इसलिये कटाक्ष सहन नहीं कर पाते।  हमारा तो यह मानना है कि विदेशी विचाराधाराओं के मूल तत्वों पर कसकर टिप्पणी हो सकती है और सहज मानव जीवन के लिये  भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा पर चलने के अलावा कोई विकल्प हो ही नहीं सकता, पर यह ऐसी सोच संकीर्ण मानसिकता की मानी जाती है।  हम इस पर बहस कर सकते हैं और कोई कटाक्ष करे तो उसका शाब्दिक प्रतिरोध भी हो सकता है पर कर्मकांडी किसी कटाक्ष को सहन नहीं करना चाहते। वह बहस में किसी अध्यात्मिक ज्ञानी का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिये चिल्लाते हैं ताकि शोर हो जिससे वह प्रचार प्रचार पायें।

            फ्रांस की चार्ली हेब्दो पत्रिका पर हमले को सामान्य समझना उसी तरह भूल होगी जैसे सलमान रुशदी की किताब पर ईरान के धार्मिक तानाशाह खुमैनी के उनके खिलाफ मौत की फतवे को मानकर की गयी थी। शिया बाहुल्य होने के कारण ईरान के वर्तमान शासक  मध्य एशिया में प्रभावी गुट के विरोधी हैं पर वह इस हत्याकांड की निंदा नहीं करेंगे क्योंकि कथित धार्मिक आस्था पर आक्रमण पर स्वयं ही हिंसक कार्यवाहियों के समर्थक हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि इस विषय पर मध्य एशिया की विचारधारा पर बने सभी समूह वैचारिक रूप से एक धरातल पर खड़ मिलेंगे।

            इनका प्रतिकार वैचारिक आक्रमण से किया जा सकता है पर अलग अलग देशों  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नियमों में विविधिता है। जहां आस्था के नाम पर छूट है वहां बहस की गुंजायश कम रह जाती है। इसलिये फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के बुद्धिमान सीधे धार्मिक अंधवश्विास पर आक्रमण करते हैं जबकि एशियाई देशों में  दबी जुबान से यह काम होता है। भारत में तो यह संभव ही नहीं है।  आज भी हमारे देश के बुद्धिजीवी दिवंगत कार्टूनिस्टों की मौत पर सामान्य शोक जरूर जता रहे हैं पर अपने यहां आस्था के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी सीमित रखने का विरोध नहीं कर रहे। शायद उनके लियं यहां भारतीय धर्मों में ही दोष हैं जिन पर गाह बगाहे वह हंसते ही हैं।  कट्टर धार्मिक विचाराधाराओं के विरुद्ध वैचारिक अभियान में पश्चिमी देशों का अनुसरण हमारे देश के बुद्धिजीवी करना ही नहीं चाहते। संभवत भारतीय प्रचार माध्यम सनसनी के सतही आर्थिक लाभ से संतुष्ट हैं और चाहते हैं कि यहां वैचारिक जड़ता बनी रहे।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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कोई पीके ही एलियन के अंधविश्वास पर विश्वास कर सकता है-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


          हमने पीके फिल्म न देखी है न देखेंगे पर उसे देखने वाले दर्शक जिस तरह बता रहे हैं उसमें हमारी पहली आपत्ति तो धर्म की आड़ में एक प्रेम कहानी थोपने दूसरी गाय को घास खिलाने के विरोध दिखाने की बात पर है। हमने ओ माई गॉड फिल्म में भारतीय धर्म के अंधविश्वास का विरोध करने के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता के विश्वास की स्थापना का प्रयास होने के कारण उसका समर्थन किया था। उसमें युवक युवती की शारीरिक जरूरतों को इंगित करती हुई कहानी नहीं थी।  शिवलिग पर दूध चढ़ाने पर कटाक्ष भी तार्किक ढंग से किया गया था।  कोई बता रहा था कि पीके गाय को घास खिलाने पर भी कटाक्ष किया गया है।  इससे हमारा विरोध है। मुंबईया फिल्म में अधिकतर शराब और शवाब की छाप बदलकर उपभोग करने की प्रवृत्तियां प्रचारित की जाती हैं।  फिल्म में काम करने वालों प्रसिद्ध लोगों  के चरित्र ही नहीं वरन् परिवार भी आदर्श नहीं रह पाते।  उपभोग के प्रेरक कभी योग के संदेशवाहक बने यह अपेक्षा हम नही रखतें है, उनको धर्म कर्म की बातों पर सोच समझकर पटकथायें लिखनी चाहिये। कभी गाय के सामने  रोटी या घास पेश कर उसे खाकर तुप्त होकर सुख उठाना ऐसे लोग नहीं जानते जिन्हें शब्दों और चित्रों का व्यापार करना है।  हम यहां यह भी बता दें पाश्चात्य विचारों में फंस ऐसे लोग यह मानते हैं कि यह संसार केवल मनुष्यों के लिये ही है।  जबकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों के अनुसार यहां पशु पक्षी भी महत्वपूर्ण है।  श्रेष्ठ जीव होने के कारण मनुष्य का यह दायित्व है कि प्रकृति संसाधनों के साथ ही वन, पशु तथा पक्षी संपदा की रक्षा करते हुए विकास करे।

        हम सुबह घर के बाहर चबूतरे पर योग साधना करते हैं तब अक्सर गायें खड़ी होकर देखती रहती हैं।  वह जिस मासूमियत से निहारती है उससे मन द्रवित हो  जाता है उनको रोटी या खाने की दूसरी सामग्री दे ही देते हैं।  खाने के बाद वह एक दृष्टि हम पर डालकर चली जाती हैं तब होठों पर अचानक ही मुस्कराहट आ जाती है।  उस सुख का शब्दों में वर्णन करना कठिन है।  पीके फिल्म हमने नहीं देखी फिर भी इस पर टिप्पणी करना हम उसी तरह नैतिकता का प्रतीक मानते हैं जैसे चलचित्र निर्माता निर्देशक पशु पक्षियों को खिलाये पिलाये बिना ऐसे कर्म में लोगों का मजाक बनाते हैं। इतना ही नहीं भारतीय धर्म ग्रंथों के पढ़े बगैर वह सुनी सुनाई बातों के आधार पर समाज का चरित्र तय कर लेते हैं।

     हमारे एक मित्र ने हमसे कहा-‘चलो, तुम्हें पीके दिखा दूं।’’

    हमने कहा-‘‘पीके हमने देख लिया है। कोई मजा नहीं आता।’’

    वह बोला-‘‘मैं फिल्म पीके की बात कर रहा हूं।’’

    हमने कहा।-‘‘उस पर पैसे खर्च करने से अच्छा है खाने पीने पर ही खर्च करें।’’

     वह बोला-‘‘पैसे मैं खर्च करूंगा।’’

     हमने कहा-‘समय तो खर्च होगा। आंखों को तकलीफ भी होगी। इससे अच्छा है अंतर्जाल पर दो चार बेसिरपैर की कवितायें ही लिखकर जश्न मनायें।’

    वह चला गया पर हम पर तनाव का बोझ डाल गया।  हमारे पास इसके निवारण का  एक ही उपाय रहा  कि कुछ इस पर लिख डालें। वही हम कर रहे हैं।  इस पर कोई कविता समझ में नहीं आ रही। कोई व्यंग्य भी बनाने का सामर्थ्य नहीं लग रहा।

 

चाकलेटी चेहरे वाले

उपभोग जगत में

इस कदर छाये

कभी वस्त्रहीन होकर

कभी सामने पीके आये।

कहें दीपक बापू भाग्य की बात

भांडों का जमाना है,

अपनी अदाओं से

उनको कमाना है,

नशे का विरोध करते हुए

समाज सुधारने के लिये

नारे लगाते

उनका हर कम

अभिनय कहलाता

हम समझायें तो

कहा जाता है यह पीके आये।

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            इस सर्दी में कहीं जाने का मन नहीं कर रहा था।  सोचा किस तरह दिमाग में गर्मी लायें। पीना छोड़ दिया है इसलिये बोतल को हाथ लगा नहीं सकते।  इसलिये ऐसी सोच बना ली जैसे हम पीके आये। तभी यह बिना सिर पैर का लघु व्यंग्य लिख पाये।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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तत्वज्ञान ही वास्तविक जीव विज्ञान है-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हमारे देश में अंग्रेजी विद्वान लार्ड मैकाले की उस शिक्षा पद्धति से छात्रों को अध्ययन कराया जा रहा है जो केवल पूंजीस्वामियों के बंधुआ बनने की योग्यता प्रदान करती है।  उपलब्धि के नाम पर सुविधाओं का उपभोग ही जीवन का लक्ष्य सुझाती है।  इस समय शिक्षा पद्धति में बदलाव बहस चल रही है तो भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के तत्वों का उसमें समावेश करने का यह कहते हुए विरोध हो रहा है कि इसमें केवल भारतीय धर्म का प्रचार है जिससे देश में रह रहे अन्य विचारधाराओं को मानने वाले आहत हो सकते हैं।

            एक विद्वान ने पाश्चात्य जीव विज्ञान की सीमा बताते हुए कहा था कि उसमें केवल जीव की देह निर्माण और संचालन के सिद्धांत हैं पर मन के साथ बुद्धि तत्वों के सूत्रों का उसमें वर्णन नहीं होता। मन और बुद्धि के ज्ञान के  बिना पाश्चात्य जीव विज्ञान अधूरा है। इसी मन और विज्ञान के सूत्रों पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में विस्तृत प्रकाश डाला गया है जिसके बिना कोई भी शिक्षार्थी पाश्चात्य संस्कारों से पैदा अंधेरे से बाहर निकल नहीं सकता।  भोग का कोई अंत नहीं है। एक वस्तु प्रयास करने पर पाओ दूसरे की आवश्यकता अनुभव होने लगती है। एक बार सुबह खाना खाओ तो दोपहर और उसके बाद शाम के खाने की चिंता भी साथ लग जाती है। भोजन, वस्त्र और भवन के संग्रह को ही श्रेष्ठ व्यक्ति होने का प्रमाण मान लेना अज्ञान के अंधेरे में ही भटकना है।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

——————

सहस्त्रोपृलुत्य दुष्टेभ्यो दुष्करं सम्पदाजर्जनाम्।

उपायेन पदं मूर्धिन न्यास्यतो मतहास्तिनाम्।।

            हिन्दी में भावार्थ-हजारों दुष्टो से उपद्रव को प्राप्त होने से उन पर आक्रमण कर संपत्ति का अर्जन करना कठिन है पर उपाय से तो मतवाले हाथियों के मस्तक पर भी पांव रख दिया जाता है।

वाह्यमानमयःखण्डं स्कन्धनैवापि कृन्ताति।

तदल्पमपि धारावद्धवर्तीप्सितसिद्धये।।

            हिन्दी में भावार्थ-कंधे पर भार के रूप में लदा लोह नहीं काटता पर उससे बना तीखी धारा वाला हथियार कम भारी होने पर भी कष्ट देता है।

            हम अक्सर भारतीय धर्म की रक्षा की बात करते हैं। इतना ही नहीं अनेक उत्साही तो शस्त्र और धन के सामर्थ्य से धर्म के विस्तार की बात करते हैं। उन्हें यह बात समझ लेना चाहिये कि किसी भी समाज की शक्ति उसके सदस्यों की बृहद संख्या नहीं वरन् उनकी कार्य करने की क्षमता है। इस मामले में यहूदियों से सीखा जा सकता है। हिटलर के अनाचारों के बाद वह फिर संगठित हुए और आज इजरायल नाम का एक छोटा राष्ट्र बनाकर पूरे विश्व में प्रभाव रखते हैं।  अपने पड़ौसी देशों की उग्रवादी निर्ममता के विरुद्ध न केवल संघर्षरत हैं वरन् अन्य देशों को भी आतंकवाद से लड़ने में इजरायल सहयोग कर रहा है। वहां की प्रशासन व्यवस्था जनहित के अनुकूल है इसलिये वहां के नागरिक अपने देश के प्रति अत्यंत संवेदनशील रहते हैं।

            हम जब धर्म रक्षा की बात करते हैं तो एक बात याद रखना चाहिये कि मनुष्य अपनी दैहिक आवश्यकताओ के पूर्ण होने के बाद ही मानसिक रूप से दृढ़ हो सकता है। इसके लिये यह जरूरी है कि उसके पास अध्यात्मिक ज्ञान हो।  यह ज्ञान हमारे प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से ही मिल सकता है।

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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चेलों की चाल पर-हिन्दी व्यंग्य कविता


सफेद कागज पर

काली स्याही से

बहुत सारे महापुरुषों के

किस्से लिखे हैं।

सत्य के रास्ते पर जो चले

जनमानस के हृदय पर

देवता की तरह बसे

कुछ ऐसे भी रहे

जिन्होंने प्रचार के दम पर

काम से ज्यादा नाम पाया

नारेबाजों के स्वर में टिके हैं।

कहें दीपक बापू देहधारियों से

हमेशा देवत्व दिखाने की

आशा नहीं की जा सकती,

कभी माया की मजबूरी भी

देवों के सामने भी खड़ी लगती,

फिर भी जिन्होंने मनुष्य समाज में

चेतना की ज्योति जगाई,

अज्ञान के अंधेरे में

ज्ञानी की आग लगाई,

उनके लिये हृदय में

पवित्रता का भाव आता

मगर जिन्होंने चालाकियों से

लोगों को बहलाया

उनके एतिहासिक शब्द

केवल चेलों की चाल पर बिके  हैं।

—————————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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गंदगी के ढेर आंखों को दहलाते हैं-2 अक्टूबर महात्मा गांधी जयंती पर भारत स्वच्छता अभियान पर विशेष हिन्दी कविता


हर शहर में

ऊंचे और शानदार भवन

सीना तानकर खड़े हैं।

आंखें नीचे कर देखो

कहीं गड्ढे में सड़क हैं

कहीं सड़कों पर गड्ढे

पैबंद की तरह जड़े हैं।

कहें दीपक बापू खूबसूरत

शहर बहुत सारे कहलाते हैं,

कूड़े के  मिलते ढेर भी

आंखों को दहलाते हैं,

विकास की दर ऊपर

जाती दिखती जरूर है

मुश्किल यह है कि

हमारी सोच स्वच्छ नहीं हो पाती

गंदी सांसों में फेर में  जो पड़े हैं।

—————————-

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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सभी की नीयत में राग है-हिन्दी व्यंग्य काव्य रचनायें


सूरज में जरूरत से ज्यादा आग है,

शीतल है चंद्रमा पर उसमें भी दाग है।

कहें दीपक बापू इंसानों में कभी नहीं हो सकता देवता

सभी की नीयत में छिपा कोई न कोई राग है।

—————

अपने ही जाल में फंसा इंसान वफा का करता वादा,

क्या निभायेगा वह जिसके दिल में मतलब पाने का ही है इरादा।

कहें दीपक बापू कई लोगों ने विज्ञापन से अपनी छवि बनाई है

वह सौदागर सपने के बन जाते न करना उम्मीद उनसे ज्यादा।

————

आलीशान घर है पर उनके दिल में बुझे चिराग हैं,

शहर की उजाड़कर हरियाली पहरे में रखे उन्होंने बाग हैं।

कहें दीपक बापू  किस पर हंसे किस पर रोयें

शेर और हिरण चबा जायें इंसान के वेश में कई नाग हैं।

————–

राजमहलों में आनंद पाने की चाहत सभी पालते हैं,

खुले आसमान के नीचे जंग के मौके सभी टालते हैं।

बादशाहों की खुशफहमी  कि उनके पांव तले खजाना है,

फकीर की मस्ती है उन्हें किसी के पांव नहीं दबाना है

तख्त पर बैठे कई इंसान  हमेशा रहे बेचैन

उनका नाम कागज पर बादशाह की तरह चलता रहा,

कुछ नहीं मिला मेहनत करने पर भी वह भी खुश रहे

कभी की मस्ती कभी दौलतमंदों की हरकतों को हंसते सहा,

बुलंदियों पर पहुंचे जो दूसरों को गिराकर वह खुद भी गिरे,

सहुलियतों का घेरा लगाया मुश्किलों में भी वही घिरे,

कहें दीपक बापू जिंदा रहने के लिये साफ सांस जरूरी

शौहरत के दीवाने ज़माने में फैलाते सोच का जहर

उजाड़ते चमन पर अपनी जिंदगी की आस

गंदी हवाओं पर ही डालते हैं।

—————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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अपनी कमीज पर सोने का बटन टांकते हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


अपने दोष लोगों को दिखते नहीं

दूसरों के गिरेबां में लोग झांकते हैं,

गैरों धवल कपड़ों पर दाग लगते देखने की चाहत है

अपनी कमीज पर सोने के बटन टांकते हैं।

कहें दीपक बापू हर जगह तमाम विषयों होती बहस

निष्कर्ष कहीं से मिलता नहीं है,

हर कोई जमा है अपनी बात पर

तयशुदा इरादे से हिलता नहीं है,

कान बंद कर लिये अक्लमंदों ने

मौका मिलते ही जुबां से  अपनी अपनी फांकते है।

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जिंदगी का हिसाब जब लगाते हैं तब होता है अहसास

कुछ सपने साकार खुद-ब-खुद साकार होते गये,

कुछ रिश्ते समय ने बदले कुछ मतलब निकलते ही खोते गये।

कहें दीपक बापू  पेटी में खजाना भरने की कोशिश

कभी हमने की नहीं,

इधर से आई माया उधर बह गयी कहीं,

जब भी किया हिसाब दिमाग हमारा गड़बड़ाया,

देना कभी भूले नहीं लेना याद नहीं आया,

रोकड़ बही लिखने का बोझ हम बेकार ढोते रहे।

———-

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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लोकतंत्र में मतदान दलों की होती है महत्वपूर्ण भूमिका-हिन्दी चिंत्तन लेख


     चुनावों में सूक्ष्म प्रेक्षक की भूमिका  निभाते हुए अत्यंत रोचक अनुभव होता है।  दरअसल इस रूप में हाथ से अधिक काम करना  नहीं होता वरन् मतदान केंद्रों पर सतत अपनी आंख जमाये चुनाव प्रक्रिया देखना ही होती है ताकि चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र ढंग से हो सकें।  हमारी नियुक्ति अनेक बार मतदान दलों में पीठासीन अधिकारी तथा मतदान अधिकारी क्रमांक एक में रूप में पहले भी हो चुकी है पर अब सूक्ष्म प्रेक्षक के रूप में जाना ही होता है।  यह अलग बात है कि पीठासीन या मतदान अधिकारी के रूप में दैहिक तथा मानसिक सक्रियता इतनी हो जाती है कि बाकी चीजों पर ध्यान नहीं जाता जबकि सूक्ष्म प्रेक्षक जहां केवल ध्यान का काम है वहां इस बात की गुंजायश हो ही जाती है कि मतदान से इतर बातें भी दृष्टि पथ में आती हैं।

     भारत में इस समय लोकसभा चुनाव 2014 का दौर मध्य स्थिति में पहुंच रहा है। इस चुनावी राजनीति में नेतागणों की सक्रियता पर मतदाता नज़र रखे हुए हैं।  प्रचार माध्यमों में चुनाव को लेकर अनेक प्रकार के समाचार आते रहते हैं पर शायद ही कोई उन लोगों के बारे में सोचता हो जो वास्तव में इस लोकतंत्र में राजनेताओं और मतदाताओं के बीच संपर्क सेतु में अपनी महत्ती भूमिका अदा करते हैं। वह होंते हैं मतदान दल जो हर केंद्र पर तैनात होकर इस लोकतांत्रिक प्रंक्रिया का संचालन करते हैं।

     महत्वपूर्ण बात यह है कि मतदान दल से जुड़े लोग इन चुनावों को जितना नजदीक से देखते हैं दूसरे के लिये वह केवल कल्पना ही  हो सकती है। एक सूक्ष्म प्रेक्षक के रूप में मतदाताओं से जुड़ाव होता ही है ताकि वह निडरता से मतदान कर सकें।  कहा जाता है कि मतदान दल को निष्पक्ष होना चाहिये।  हमने देखा है कि वहां निष्पक्षता या पक्षपात का सवाल ही नहीं रह जाता।  मतदान दल के लोग भले ही सामान्य समय में राजनीतिक विचारधाराओं पर चर्चा करते हों पर वहां सारी सोच हवा हो जाती है क्योंकि उनकी जिम्मेदारी इस तरह की होती है जिसमें मतदान सुचारु रूप से चलाने के अलावा उनको किसी बात का ध्यान करना ही संभव नहीं है।  चुनाव प्रत्याशियों तथा मतदाताओं की संख्या याद रहती है पर न तो किसी का चुनाव चिन्ह याद आता है न ही मतदाताओं के चेहरे पर अधिक दृष्टि रह पाती है।

     सूक्ष्म प्रेक्षक का दायित्व केवल मतदान पर दृष्टि रखना ही होता है इसलिये उसके पास थोड़ी देर अपना ध्यान कहीं अन्यत्र जाना संभव होता है।  शहर और गांव में मतदान की प्रक्रिया में कोई अंतर नहीं होता पर मतदान दलों की स्थितियां अलग हो जाती हैं। शहर में किसी मतदाता से निजी वार्तालाप करने पर विवाद की आशंका रहती है जबकि गांव में ऐसा नहीं होता। पिछले चुनावों में हमने अपने अनुभव पर कुछ नहीं लिखा पर इस बार मतदान थोड़ी धीमी प्रक्रिया से चला इसलिये कई ऐसे पल आये जिस समय हमारी मानवीय संवेदनाओं से  बाहर आकर आनंद दिया तो लिखने का मन किया।

     प्रातः ही मतदान केंद्र के बाहर  एक बच्चा अपने मूंह में अंगूठा डालकर हमारी तरफ देख रहा था।  उसके चेहरे पर छायी मासूमियत ने अभिभूत किया तो हमने उससे कहा-‘‘क्या वोट डालना है?’’

     अंगूठा मूंह में ही डाले उसने अपना ना में सिर हिला दिया।  हमने कहा‘‘यह देखने आये हो कि मतदान प्रारंभ हुआ है या नहीं।’’

उसने ना में सिर हिलाया।

     थोड़ी देर वह अपने दादाजी के साथ आया तो हमने उसे देखकर कहा‘अच्छा, तो दादाजी को साथ लाना था इसलिये ही पहले से जांच करने आये थे।’’

     उसके वृद्ध दादाजी बोले-‘‘हां, यहां से आने के बाद बार बार कह रहा है कि चलो वोट डालो।  बैठने ही नहंी दे रहा था।’’

     पांच छह साल की बच्ची दादी के साथ आयी। उसकी मासूमियत ने हमें आकर्षित् किया।  उसके एक आगे भी एक अन्य मतदाता थी।  हम दरवाजे पर रखी कुर्सी पर ही बैठे थे और बच्ची एकटक घूर रही थी तो हमने उससे कहा-‘‘गुड़िया तुम अपनी दादी के साथ आयी हो या दादी तुम्हारे साथ आयी है। दोनों में से कौन वोट डालेगा?’’

     उसने मासूमियत से दादी की तरफ उंगली उठा दी। उसकी दादी बोली-‘‘सुबह से ही कह रही है कि दादी मुझे वोट डालने ले चलो। कोई काम ही नहीं करने दे रही थी।’’

     सात आठ साल का एक बच्चा लाल रंग की शर्ट और नेकर पहनकर दनादनाता हुआ अपने दादा के आगे चलता हुआ मतदान केंद्र में आ गया।  उसकी मासूमियत देखकर हमने उससे कहा-‘‘क्या दादाजी के बॉडीगार्ड बनकर साथ आये हो?

     लड़के ने दोनों हाथों से अपनी आंखें ढंक ली। उसको संकोच करते देख हमने कहा-‘‘तुम्हारी ड्रेस देखकर यही लग रहा है कि दादाजी की रक्षा के लिये उनके साथ चल रहे हो।’’

     उसके दादाजी बोले-‘‘हां, यह खेत वगैरह में भी मेरे साथ ही चलता है।  शहर जाऊं तो भी साथ चलने की जिद करता है।’’

     एक बीस साल का युवक आया। गांव का होने के बावजूद वह जींस तथा टीशर्ट पहने था।  वह पढ़ा लिखा ही लग रहा था पर जब मतदान अधिकारी के पास वह हस्ताक्षर करने पहुंचा तो बोला-‘‘ मैं अंगूठा लगाऊंगा।’’

     उसका स्वर तल्ख था। हमने उसकी जींस की जेब में रखी पेन देखी थी। हमने हसंते हुए कहा-‘‘अरे भई, आप जैसे स्मार्ट ंयुवक के लिये यह अंगूठा लगाने वाली बात जमती नहीं है। आप तो पेन लेकर हस्ताक्षर करो तो कम से कम हमें इस बात का अफसोस न हो कि स्मॉर्ट लोग भी अंगूठा लगाते हैं।’’

     उसके रूखे चेहरे पर हंसी आ ही गयी और उसने मतदान अधिकारी से पेन लेकर रजिस्टर परदस्तखत कर दिये।

     मतदान समाप्त होने के बाद जब हम अपनी वापसी के लिये वाहन की प्रतीक्षा कर रहे थे तब गांव के वही चेहरे खड़े थे जिनके साथ हमारा मतदान के दौरान संपर्क हुआ था।  उसी लड़के ने अपने गांव का हैंडपंप सुधरवाने के लिये आवेदन लिखवाने का आग्रह किया।  हमारे एक मतदान अधिकारी ने उसे बोलकर लिखवाया। हमने उसकी हस्तलिपि देखकर कहा-‘‘भई  तुम्हारा हस्तलेखन तो इतना सुंदर है फिर क्यों अंगूठा लगाने पर अड़े थे?’’

     वह मुस्कराकर चुप हो गया। उसके दादाजी बोले-‘‘यह ऐसा ही करता है। अपनी पढ़ाई का इससे अहंकार आ गया है।’’

     हमने कहा-‘‘नहीं, यह इसका आत्मविश्वास है कि वह अपना सुंदर हस्तलेखन किसी को दिखाना नहीं चाहता।’’

     जब वहां से चलने को हुए तो वह लड़का बोला-‘‘सर, आपका स्वभाव बहुत अच्छा है।’’

     उसे मालुम नहीं था कि हम सूक्ष्म प्रेक्षक के रूप में वहां आये थे जिनकी नियुक्ति उन मतदान केंद्रों पर होती है जो संवेदनशील माने जाते हैं।  ऐसे केंद्रों पर पहले हुए चुनावों के दौरान हिंसा या गड़बड़ की शिकायत हो चुकी होती है। मूलतः गावों के लोग सीधे सादे और सच्चे  होते हैं पर उनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जो सीदे होने के बावजूद अपने को नायक साबित करने के लिये कुछ ऐसी हरकतें इन चुनावों करते हैं जिनसे उनकी दबंग छवि का प्रचार हो।  उनकी गतिविधियों से गांव ही बदनाम हो जाता है।  हमारा स्वाभाविक व्यवहार वहां चालाकी की तरह अपना काम कर मतदान को बोझिल होने से बचाने के साथ ही शांतिपूर्ण चलाने के लिये सहायक हो रहा था।

     आमतौर से वहां किया गया हमारा वार्तालाप हमारी दिनचर्चा का हिस्सा है पर हमने इस तरह का व्यवहार मतदान की प्रक्रिया में सहजता बनाये रखने के लिये किया था। महत्वपूर्ण बात यह कि घर से निकलने और पहुंचने के बीच ज्वलंत राजनीतिक विषय पर किसी से चर्चा नहीं हो पायी। वजह साफ है कि उस समय केवल चुनाव कराने हैं यह सोच हावी थी।  सामग्री लेने और जमा करने के समय अनेक मित्रों से भेंट हुई पर सभी केवल अपने मतदान केंद्र की  चुनावी प्रक्रिया की चर्चा कर रहे थे।  इस तनाव में स्मरणशक्ति इतनी क्षीण हो गयी थी कि घर पर याद आया कि हमारे देश में राजनीतिक दलों के नेता और उनके चुनाव चिन्ह भी होते हैं।

 

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

 

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

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तनाव होने पर भी संयम रखने वाले यशस्वी होते हैं-कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन लेख


                        सांसरिक जीवन में उतार चढ़ाव आते ही रहते हैं। हम जब पैदल मार्ग पर चलते हैं तब कहीं सड़क अत्यंत सपाट होती है तो कहीं गड्ढे होते हैं। कहीं घास आती है तो कहंी पत्थर पांव के लिये संकट पैदा करते हैं।  हमारा जीवन भी इस तरह का है। अगर अपने प्राचीन ग्रंथों का हम निरंतर अभ्यास करते रहें तो मानसिक रूप से परिपक्वता आती है। इस संसार में सदैव कोई विषय अपने अनुकूल नहीं होता। इतना अवश्य है कि हम अगर अध्यात्मिक रूप से दृढ़ हैं तो उन विषयों के प्रतिकूल होने पर सहजता से अपने अनुकूल बना सकते हैं या फिर ऐसा होने तक हम अपने प्रयास जारी रख सकते हैं।  दूसरी बात यह भी है कि प्रकृति के अनुसार हर काम के पूरे होने का एक निश्चित समय होता है।  अज्ञानी मनुष्य उतावले रहते हैं और वह अपने काम को अपने अनुकूल समय पर पूरा करने के लिये तंत्र मंत्र तथा अनुष्ठानो के चक्कर पड़ जाते हैं।  यही कारण है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के पाखंडी सिद्ध बन गये हैं। ऐसे कथित सिद्धों की संगत मनुष्य को डरपोक तथा लालची बना देती है जो कथित दैवीय प्रकोप के भय से ग्रसित रहते हैं।  इतना ही नहीं इन तांत्रिकों के चक्कर में आदमी इतना अज्ञानी हो जाता है कि वह तंत्र मंत्र तथा अनुष्ठान को अपना स्वाभाविक कर्म मानकर करता है।  उसके अंदर धर्म और अधर्म की पहचान ही नहीं रहती।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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अपां प्रवाहो गांङ्गो वा समुद्रं प्राप्य तद्रसः।

भवत्यपेयस्तद्विद्वान्न्श्रयेदशुभात्कम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-गंगाजल जब समुद्र में मिलता है तो वह पीने योग्य नहीं रह जाता। ज्ञानी को चाहिये कि वह अशुभ लक्षणों वाले लोगों का आश्रय न ले अन्यथा उसकी स्थिति भी समुद्र में मिले गंगाजल की तरह हो जायेगी।

किल्श्यन्नाप हि मेघावी शुद्ध जीवनमाचरेत्।

तेनेह श्लाध्यतामेति लोकेश्चयश्चन हीयते।।

                        हिन्दी में भावार्थ-बुद्धिमान को चाहे क्लेश में भी रहे पर अपना जीवन शुद्ध रखे इससे उसकी प्रशंसा होती है। लोकों में अपयश नहीं होता।

                        हमारे देश में अनेक ज्ञानी अपनी दुकान लगाये बैठे हैं। यह ज्ञानी चुटकुलों और कहानियों के सहारे भीड़ जुटाकर कमाई करते हैं। इतना ही नहीं उस धन से न केवल अपने लिये राजमहलनुमा आश्रम बनाते हैं बल्कि दूसरों को अपने काम स्वयं करने की सलाह देने वाले ये गुरु अपने यहां सारे कामों के लिये कर्मचारी भी रखते हैं।  एक तरह से वह धर्म के नाम पर कपंनियां चलाते हैं यह अलग बात है कि उन्हें धर्म की आड़ में अनेक प्रकार की कर रियायत मिलती है।  मूल बात यह है कि हमें अध्यात्मिक ज्ञान के लिये स्वयं पर ही निर्भर होना चाहिये। दूसरी बात यह भी है कि ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे धारण भी करना चाहिये।  यही बुद्धिमानी की निशानी है। बुद्धिमान व्यक्ति तनाव का समय होने पर भी अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता।  यही कारण है कि बुरा समय निकल जाने के बाद वह प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।  लोग उसके पराक्रम, प्रयास तथा प्रतिबद्धता देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

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विज्ञान की तरक्की- हिंदी व्यंग्य कविता


इंसान भेजता रहता है चांद पर अंतरिक्ष यान,

आंकाश के रहस्य की तलाश में है

मगर अपनी धरती के स्वभाव से हो गया है अनजान।

कहें दीपक बापू संसार में विज्ञान की तरक्की बुरी नहीं है

मगर दुःखदायी है बिना इंसानियत के ज्ञान,

पत्थर और लोहे का सामान रंग से चमकता है

आंखों देखती है तो दिल धमकता है,

फिर भी लगता है कहीं खालीपन

क्योंकि होती नहीं अपनी जान की पहचान

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

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सफाई का वादा-हिंदी व्यंग्य कविताएँ


टुकड़ों टुकड़ों में बंटा है समाज,हर इंसान अपनं मतलब के लिये बन जाता बाज़,

छिपा रहा है हर कोई अपने बुरे कारनामो के  राज,

फिर भी मानते हैं सभी

कोई फरिश्ता आसमान से उतरकर आयेगा,

जहान में एकता कायम कर पायेगा।

कहें दीपक बापू मन का वहम है

या खुद को ही धोखा खा देना

यह सोचना कि सर्वशक्तिमान

इंसानों में किसी को अपने जैसा बनायेगा।

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सड़क और उद्यान साफ रहे सभी चाहते हैं,
गंदगी कोई न फैलाये इसके लिये कोई तैयार नहीं है,
गुलाब के फूलों के सभी प्रशंसक हैं,
मगर कांटो जैसा उनका कोई यार नहीं है।
कहें दीपक बापू हम नहीं कर सकते
किसी से सफाई का वादा,
कहीं गंदगी फैलाने का भी नहीं रहता इरादा,
अपनी नाव के खेवनहार खुद ही बने लोग
किसी के सहारे जिंदगी में कोई होता पार नहीं है।
———
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

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नारे लगाने वाले बहादुर-छोटी हिन्दी व्यंग्य कवितायें


किसको बढ़ती महंगाई की फिक्र है,

सभी की जुबान पर अपनी कामयाबी का जिक्र है,

जहान की परेशानियों से कुछ लोग बहुत  हैरान है।

कहें दीपक बापू दर्द झेलने वाले

कहीं अपने इलाज की भीख मंागने नहीं जाते

 फिर भी हमदर्दी के सौदागर बेचते अपनी चिंता

 जेब में रखते इनाम

चेहरा ऐसा दिखाते जैसे जहान के गम से वह परेशान है।

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न पेड़ लगते न पत्ते लहराते

फिर भी कागजों पर ढेर सारे गुलाब खिल जाते हैं,

यहां कोई फरिश्ता नहीं दिखता

फिर भी नारे लगाने वाले बहादुरों के पीछे

बहुत सारे लोगों के दिल जाते हैं।

कहें दीपक बापू यहां जुबानी जंग लड़ने के

अच्छे दाम लेकर अक्लमंद संभालते मैदान

 कोई मसला नहीं सुलझता यहां

चर्चा यह कि शब्दों से सिंहासन हिल जाते हैं।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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हमदर्दी के व्यापारी-हिन्दी व्यंग्य कविता


जहान की चिंत्ताओं का बोझ ढोते दिखते हैं शब्दों के व्यापारी,

बाज़ार में कोई शय नहीं बेचने के लिये वादों से करते छवि भारी,

एक चेहरा बदनामी से पुराना हुआ  फिर नया कोई आ जाता है,

भलाई की दुकान का हक कोई जन्म से कोई कर्म से पाता है,

चतुरों ने  अंग्रेजी सेे सभी को भरमाया फिर हिन्दी से भी कमाया,

लगने लगा जब फैशन पुराना अब हिंग्लिश को जरिया बनाया,

उड़ते हैं आसमान में ज़मीन पर रैंगने वालों के बनते वफादार,

नारे लगाने से  जल्दी पा जाते तख्त फिर बन जाते दागदार,

कहें दीपक बापू  अपने जख्मों का इलाज खुद ही करना सीखो

निभाने आयेंगे बहुत सारे हमदर्द दवा पर होगी उनकी नीयत सारी

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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