Tag Archives: दीपक बापू

राज्य प्रबंध का समाज में हस्तक्षेप अधिक नहीं होना चाहिये-हिन्दी लेख


                    भारत में सामाजिक, आर्थिक, धाार्मिक, शिक्षा पत्रकारिता, खेल, फिल्म, टीवी तथा अन्य सभी सार्वजनिक विषयों में राज्य का हस्तक्षेप हो गया है।  अनेक ऐसे काम जो समाज को ही करना चाहिये वह राज्य प्रबंध पर निर्भर हो गये हैं। ऐसे में जब कोई राजनीतिक बदलाव होता है तो हर क्षेत्र में उसके प्रभाव देखने को मिलते हैं।  देश में गत साठ वर्षों से राजनीतिक धारा के अनुसार ही सभी सार्वजनिक विषयों तथा उनसे संबद्ध संस्थाओं में राज्य का हस्तक्षेप का हस्तक्षेप हुआ तो विचाराधाराओं के अनुसार ही वहां संचालक भी नियुक्त हुए।  हमारे देश में तीन प्रकार की राजनीतिक विचाराधारायें हैं-समाजवादी, साम्यवादी और दक्षिणपंथी।  उसी के अनुसार रचनाकारों के भी तीन वर्ग बने-प्रगतिशील जनवादी तथा परंपरावादी।  अभी तक प्रथम दो विचाराधारायें संयुक्त रूप से भारत की प्रचार, शिक्षा तथा सामाजिक निर्माण में जुटी रहीं हैं पर परिणाम ढाक के तीन पात।  उल्टे समाज असमंजस की स्थिति में है।

                    पिछले साल हमारे देश में एतिहासिक राजनीतिक परिवर्तन हुआ। पूरी तरह से दक्षिणपंथी संगठन राजनीतिक परिवर्तन के संवाहक बन गये।  भारत में यह कभी अप्रत्याशित लगता  था पर हुआ।  अब दक्षिणपंथी संगठन अपने प्रतिपक्षी विचाराधाराओं की नीति पर चलते हुए वही कर रहे है जो पहले वह करते रहे थे।  प्रतिपक्षी विचाराधारा के विद्वान शाब्दिक विरोध करने के साथ ही  हर जगह अपने मौजूदा तत्वों को प्रतिरोध  के लिये तत्पर बना रहे हैं।

                    इस लेखक ने तीनों प्रकार के बुद्धिजीवियों के साथ कभी न कभी बैठक की है।  प्रारंभ  में दक्षिण पंथ का मस्तिष्क पर  प्रभाव था पर श्रीमद्भागवत गीता, चाणक्य नीति, कौटिल्य, मनुस्मृति, भर्तुहरि नीति शतक, विदुर नीति तथा अन्य ग्रंथों पर अंतर्जाल पर लिखते लिखते अपनी विचाराधारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से मिल गयी है।  हमें लगता है कि हमारे अध्यात्मिक दर्शन में न केवल आत्मिक वरन् भौतिक विषय में भी ढेर सारा ज्ञान है। पश्चिमी अर्थशास्त्र में दर्शन शास्त्र का अध्ययन नहीं होता और हमारे यहां दर्शन शास्त्र में भी अर्थशास्त्र रहता है।  दक्षिणपंथ की विचाराधारा से यही सोच हमें प्रथक करती है।

          बहरहाल हमारा मानना है कि समाजवाद और साम्यवादियों की विचाराधारा के आधार  पर समाज और उसकी संस्थाओं का राज्य प्रबंध की शक्ति से  ही चलाया गया था।  अब अगर राज्य प्रबंध बदल गया है तो अन्य संस्थाओं में  दक्षिणपंथी विद्वानों का नियंत्रण चाहें तो न चाहें तो होगा तो जरूर।  अध्यात्मिक विचारधारा के संवाहक होने की दृष्टि से हम भी चाहते हैं कि परिवर्तन हो। आखिर समाज और उसके विचार विमर्श तथा शिक्षण की संस्थाओं में जनमानस के दिमाग में परिवर्तन की वही चाहत तो है जो लोगों ने राज्य प्रबंध में बदलाव कर जाहिर की है।

—————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

भारतीय मीडिया की #आतंकवाद में बहुत रुचि लाभप्रद नहीं-हिन्दी चिंत्तन #लेख


                लगभग आईएसआईएस नामक एक आंतकी संगठन के समाचार एक विज्ञापन की तरह भारतीय प्रचार माध्यम इस तरह कर रहे हैं जैसे कि उसमें आकाश से उतरे महादानव हों। जिनसे लड़ने के लिये कोई भारत में कोई  पैदा ही नहीं हुआ।  शायद प्रचार प्रबंधकों को लग रहा है कि कथित भारतीय आतंकी सगंठनों के दम पर अब उनकी सनसनी का व्यवसाय चल नहीं पा रहा या फिर ज्यादा नहीं चलेगा। हमारे हिसाब से आईएसआईएस अपने सहधर्मी राष्ट्र की सरकारें से संरक्षित है जो अपने आसपास के कमजोर क्षेत्रों में धार्मिक आधार पर वर्चस्व बनाये रखना चाहते हैं। भारतीय प्रचार माध्यम उन देशों के नाम छिपाते हैं क्योंकि इनके स्वामियों के अन्य व्यवसाय उनके शहरों में ही है।

                              प्रचारकों के चेहरे अनेक बार इस तरह झल्लाते दिखते हैं अभी तक आईएसआईएस वाले इस देश में आये क्यों नहीं? दुर्भाग्य से किसी दिन इस संगठन के नाम पर कोई छोटी वारदात भी  हुए उस दिन यह विज्ञापनों के बीच  चिल्लायेंगे-आ गया आ गया आईएसआईएस आ गया। इन प्रचारकों को भारतीय आतंकी संगठन उसके मुकाबले कम क्रूर लगते हैं क्योंकि वह बम विस्फोट कर भाग जाते हैं। आईएसआईएस वाले तो क्रूरता पूर्वक हत्या का सीधा प्रसारण करते है।  भारतीय प्रचार प्रबंधक उसका सतत प्रचार इस आशा से करते लगते हैं कि भविष्य में ऐसे दृश्य यहां हो तो कुछ संवेदनाओं का व्यापार चमकदार हो जाये।  हमारी यह समझायश है कि अनावश्यक रूप से इस संगठन का प्रचार न करें। यह संगठन भारत में सक्रिय होगा या नहीं, यह कहना कठिन है पर कहीं ऐसा न हो जाये कि प्रचार पाने के लिये कुछ खरदिमाग लोग उस जैसे कांड करने लगें। हम भारतीय प्रचार माध्यमों की दो खबरों से बेहद चिढ़ते हैं। एक तो श्रीनगर में हर शुक्रवार को पाकिस्तानी झंडे फहराने दूसरा आईएसआईएस के हत्या के प्रसारण हमें बेहद चिढ़ा देते हैं। इन खबरों की भारत में चर्चा करना  एक तरह से आतंकवाद का विज्ञापन करना है।

—————————

#आईएसआईएस (#isisi)

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

बरसात का मौसम मैंढक की टर्र टर्र-हिन्दी कवितायें


अक्लमंदों को नहीं आता

समाज सुधारने का तरीका

वह नहीं खेद भी जताते।

जात भाषा और धर्म के

नाम पर उठाते मुद्दे

इंसानों में भेद बताते।

कहें दीपक बापू एकता के नाम

चला रहे अपना व्यापार

वही समाज में छेद कराते।

———–

बरसात का मौसम है

मैंढकों की आवाज

चारों तरफ आयेगी।

कोयल मौन हो गयी

संगीत जैसी सुरीली

आवाज अब नहीं आयेगी।

कहें दीपक बापू शोर कर

छिपाते लोग अपनी कमजोरी,

स्वार्थ से तोड़ते और जोड़ते

प्रेम की डोरी,

झूठ का तूफान उठाते

इस उम्मीद में कि

उनकी सच्चाई दब जायेगी।

——–

कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.हिन्दी पत्रिका

५.दीपकबापू कहिन

६. ईपत्रिका 

७.अमृत सन्देश पत्रिका

८.शब्द पत्रिका

कूड़े पर पद्य रचना हो सकती है-हिन्दी कवितायें


सर्वशक्तिमान के दरबार में

अब वह हाजिरी नहीं लगायेंगे,

कूड़े के इर्द गिर्द झाड़ू 

झंडे की तरह लहराकर

प्रतिष्ठा का दान पाकर

शिखर पर चढ़ जायेंगे।

—————-

शहर में कचरा बहुत

उम्मीद है कोई तो आकर

उसे हटायेगा।

कभी अभियान चलेगा

स्वच्छता का

कोई तो झाड़ू झंडे की तरह

लहराता आयेगा।

—————–

पुरानी किताबों में लिखे

शब्दों के अर्थ का व्यापार

वह चमका रहे हैं।

स्वर्ग का सौदा करते

बंदों में सर्वशक्तिमान के दलाल बनकर

 नरक के भय से

वह धमका रहे हैं।

कहें दीपक बापू सांसों से

लड़खड़ाते बूढ़े हो चुके चेहरे

इंसानों में पुराने होने के भय से

खंडहर हो चुके ख्यालों को

नया कहकर चमका रहे हैं।

———–

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

आदमी चूहे की प्रवृत्ति न रखे-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              सब जानते हैं कि लालच बुरी बला है पर बहुत कम लोग हैं जो इस ज्ञान को धारण कर चलते हैं। हम में से अनेक लोगों ने पिंजरे में चूहे को फंसाकर घर से बाहर जाकर छोड़ा होगा।  सभी जानते हैं कि चूहे को पकड़ने के लिये पिंजरे में रोटी का एक टुकड़े डालना होता है।  चूहा जैसे ही उस रोटी के टुकड़े को पकड़ता है वह पिंजरे में बंद हो जाता है। चूहे में वह बुद्धि नहीं होती जिसे प्रकृत्ति ने भारी मात्रा में इंसान को सौंपा है।  फिर भी सामान्य मनुष्य इसका उपयोग नहंी करते।  अनेक लोग यह शिकायत करते हैं कि हमें अमुक आदमी ने ठग लिया है अथवा धोखा दिया है। इस तरह की शिकायत करने वाले लोग इस आशा में रहते हैं कि अपने साथ हुई ठगी या धोखे का बयान दूसरों से करेंगे तो सहानुभूति मिलेगी पर यह नहीं सोचते कि सुनने वाले उन्हीं की बुद्धि पर हंसते हैं-मन में कहते हैं कि यह चूहा बन गया।

                              कहा जाता है कि पशु पक्षियों तथा मनुष्य में भोजन, निद्रा तथा काम की प्रवृत्ति एक जैसी रहती है पर उसके पास उपभोग के  अधिक विकल्प चुनने वाली सक्षम बुद्धि होती है।  यह अलग बात है कि अनेक ज्ञान और योग साधक अपनी बुंिद्ध का उपयोग ज्ञान के साथ करने की योग्यता अर्जित कर लेते हैं जबकि सामान्य मनुष्य उसी तरह ही विषयों के पिंजरे में फंसा रहता है जैसे चूहा रोटी के टुकड़े में ठगा जाता है।  कहा जाता है कि आजकल तो मनुष्य अधिक शिक्षित हो गया है पर हम इसके विपरीत स्थिति देख रहे हैं।  निरर्थक शिक्षा नौकरी की पात्रता तो प्रदान करती है पर जीवन के सत्य मार्ग से विचलित कर देती है।  पढ़े लिखे लोग अशिक्षित लोगों से अधिक ठगी या धोखे का शिकार हो रहे हैं।  हमारे देश में भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से जुड़ी शिक्षा को धर्म से जोड़कर शैक्षणिक संस्थानों से दूर रखा गया है पर अनुभव तो यह है कि इसके अभाव में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से पढ़े लोग अनपढ़ लोगों से ज्यादा दूसरों के बहकावे में आ जाते हैं। इसलिये यह भ्रम भी नहीं रखना चाहिये कि आधुनिक शिक्षा से व्यक्ति अध्यात्मिक ज्ञानी हो जाता है।

                              इसलिये जिन लोगों का अपना जीवन सुखद बनाना है वह नित्य भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्यययनर अवश्य करें। जीवन में सांसरिक विषयों के साथ अध्यात्मिक सिद्धांतों के अनुसार संपर्क करने का तरीका चाणक्य और विदुर नीति में अत्यंत सरलता से समझाया गया है।

————————–

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

गरीबी शब्द अब भी बिकता है-हिन्दी व्यंग्य


                              ‘गरीबी’ शब्द अब किसी श्रेणी की बजाय किसी आकाशीय फरिश्ते  का प्रतीक लगता है।  यह फरिश्ता अपनी चादर ओढ़े विचरने वालो  लोगों की तरफ तो नहीं देखता मगर अपना नाम जपने वालों को तख्त की सीढ़ियों पर पहुंचा देता है। जो गरीब इस फरिश्ते को घर में धारण किये हैं उनकी तरफ तो देखता भी नहीं है पर जो उससे हटाने या मिटाने के नारे लगाता है उसे खूब लोकप्रियता इतनी मिल जाती है कि वह दौलत, शौहरत और प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंच जाता है।

                              सामान्य इंसानों में गरीब होना अभिशाप है पर यह उन चालाक लोगों के लिये वरदान बन जाता है जो इस अभिशाप को दूर करने के लिये संघर्ष करने के नाटक रचते हैं।  हमारे देश में तो स्थिति यह है कि अगर कहीं क्रिकेट मैच में जीत पर जश्न मनाया जा रहा हो तो टीवी पर कोई भी कहता है कि ‘‘इससे क्या? पहले देश की गरीबी दूर करो।’’

                              हंसी तो तब आती है जब टीवी चैनलों पर प्रचारक खेल, क्रिकेट, कला या साहित्यक विषय पर चर्चा करते करते देश की गरीबी पर चले आते हैं।  अनेक स्वयंभू समाज सेवक जब इन बहसों के चरम पहुंचते हैं तो केवल गरीबी को दूर करना ही अपना लक्ष्य बताते हैं।

                              अभी डिजिटल इंडिया सप्ताह पर बहस चल रही थी।  यह सभी जानते हैं कि डिजिटल कार्य के लिये शिक्षित होने के साथ ही कंप्यूटर या मोबाइल होना जरूरी है। हमारे देश में करोड़ों लोग इस कार्य से जुड़ भी चुके हैं।  जब डिजिटल सप्ताह की चर्चा चल रही है तब उसके योग्य काम करने वालों की समस्याओं पर चर्चा होना चाहिये न कि उस समय गरीबी का रोना धोना होना चाहिये।  अब यह तो हो नहीं सकता कि पहले सभी को शिक्षित करने के साथ ही उनके कंप्यूटर तथा मोबाइल देने के बाद यह  सप्ताह मनाया जाये। इन टीवी चैनलों से कोई पूछे कि इस देश मेें अनेक गांवों में तो उनका कार्यक्रम भी देखने को नहीं मिलता तो क्या वह अपना प्रसारण बंद कर देंगे?

                              हमारे यह प्रगतिशील और जनवादी सोच इस कदर घुस गयी है कि किसी को विद्वान तब तक नहीं माना जाता जब तक गरीबी या गरीब का हितैषी होने का दावा कोई कर ले। इस सोच का विस्तार इस कदर है कि मजदूर को मजबूर और गरीब को भिखारी की तरह समझा जाता है।  यही कारण है कि मजदूरों को सिंहासन और गरीब को स्वर्ग दिलाने का वादा करने वाले अपना रोजगार  खूब चलाते हैं। यह अलग बात है कि आजकल मजदूर और गरीब यह समझ गये हैं कोई उनको सिंहासन तो क्या जमीन पर बैठने के लिये  चटाई और ही चलने लिये गाड़ी तो क्या साइकिल तक नहीं देगा।

————–

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

पूंजीपति भारत का स्वदेशी सर्वर बनवायें.डिजिटल इंडिया सप्ताह पर विशेष हिन्दी चिंत्तन लेख


                  डिजिटल इंडिया सप्ताह में अनेक प्रश्न हम जैसे उन लोगों के मन में आ रहे हैं जो करीब आठ दस वर्ष से अंतर्जाल पर सक्रिय हैं।  भारत के संगठित प्रचार माध्यमों के-टीवी और अखबार-के स्वामी कभी नहीं चाहेंगे कि अंतर्जाल का सामाजिक जनसंपर्क कभी उनका महत्व कम कर दे।  अब तो औ़द्योगिक समूह ही संगठित प्रचार माध्यमों के संचालक होने के साथ ही  टेलीफोन कंपनियों के भी स्वामी है इसलिये यह अपेक्षा करना कि अंतर्जाल को स्वदेशी सर्वर जैसा कोई मील का पत्थर रखना चाहेगा अतिश्योक्ति या आत्ममुग्धता होगी।

                  भारत के पूंजीपतियों की यह प्रवृत्ति है कि  वह सेवक और उपभोक्ता का निर्ममता से दोहन करना ही व्यापार का मूल सिद्धांत मानते हैं।  परंपरागत वस्तुओं के विक्रय विनिमय के आगे उनकी कोई योजना नहीं होती। नयी वस्तु का अविष्कार कर उसके लिये बाज़ार बनाना इनके स्वभाव में नहीं है। इसके अलावा वर्तमान पूंजीपति समूह कभी नहीं चाहता कि कोई उनका नया सदस्य बने।   भारत के वर्तमान पूंजी पुरुष  किसी तकनीकी विशारद  के हाथ स्वदेशी सर्वर होने का सपना भी नहीं देख सकते।  पश्चिम में जहां अपने व्यवसाय के तकनीकी ज्ञान रखने वाले अपनी कपंनी बनाकर स्वामी बनते हैं जबकि भारत कंपनियों के स्वामी बनने के बाद तकनीकी विशारदों को दोयम दर्ज का सेवक मानकर साथ लिया जाता है।  भारत में पूंजीपति होने के लिये तकनीकी ज्ञान, कलाकार होने के लिये कला और पत्रकार होने के लिये लेखक होना जरूरी नहीं है और इस जड़ प्रथा डिजिटल इंडिया के सप्ताह का प्रभाव पहले ही दिन दिखाई देने लगा जब अंतर्जाल और कंप्यूटर के विशारदों से अधिक धन शिखर पर बैठे लोग इसे सफल बनाने के लिये आगे आते दिखे।

      जिन डद्योगपतियों ने डिजिटल सप्ताह में उत्साह दिखाया है उनका लक्ष्य केवल अपनी टेलीफोन कंपनियों के अधिक कमाई जुटाना है न कि भारत में कोई डिजिटल क्रांति लाने का कोई उनका इरादा दिखता है।  अगर होता तो वह भारत में जल्दी कोई स्वदेशी सर्वर स्थापित करने की योजना के प्रति अपना रुझान दिखाते।  हम यहां स्पष्ट कर दें कि हम इंटरनेट पर भी उसी तरह की गुलामी झेल रहे हैं जैसे अंग्रेजों की झेलते थे। हमारे जैसे स्वतंत्र, संगठनहीन तथा मौलिक लेखक की पहचान अधिक नहीं होती इसलिये अधिक लोगों तक बात नहीं पहुंचती पर फिर भी अपना कर्तव्य पूरा करने के साथ यह आशा तो है कि कोई न कोई सामर्थ्यवान उठेगा जो भारतीय सर्वर का सपना पूरा करेगा।

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

४.दीपकबापू कहिन

5.हिन्दी पत्रिका 

६.ईपत्रिका 

७.जागरण पत्रिका 

८.हिन्दी सरिता पत्रिका 

९.शब्द पत्रिका

भोजन का औषधि की तरह सेवन करें-21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष हिन्दी चिंत्तन लेख


            भोजन के विषय पर हमारे समाज में जागरुकता और ज्ञान का नितांत अभाव देखा जाता है। सामान्य लोग यह मानते हैं कि भोजन तो पेट भरने के लिये है उसका मानसिकता से कोई संभव नहीं है। जबकि हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार उच्छिष्ट और बासी पदार्थ तामसी बुद्धि तथा प्रवृत्ति वाले को प्रिय होते हैं-यह हमारे पावन ग्रंथ में कहा गया है।  हम इसके आगे जाकर यह भी कह सकते हैं कि उच्छिष्ट और बासी पदार्थ के सेवन से बुद्धि और प्रवृत्ति तामसी हो ही जाती है। जिस तरह भारत में बड़ी कंपनियों के आकर्षक पैक में रखे भोज्य पदार्थ हैं उसे हम इन्हीं श्रेणी का मानते हैं।  स्वयं इसका सेवन कभी नहीं किया क्योंकि भगवत्कृपा से घरेलू भोजन हमेशा मिला। बाहर भी गये तो ऐसे स्थानों पर भोजन किया जो घर जैसे ही थे। इसलिये इन दो मिनट में तैयार होने वाले भोज्य पदार्थों के  स्वाद का पता नहीं पर भारतीय जनमानस में उनकी उपस्थिति अब पता लगी जब एक बड़ी उत्पाद कंपनी के भोज्य पदार्थ पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव आया।

           हैरानी है सारे प्रचार माध्यम कागज में बंद बड़ी कंपनियों के भोज्य पदार्थों पर संदेह जता रहे हैं तब भी कुछ लोग उसका सेवन करते हुए कैमरे के सामने कह रहे हैं कि उनके बिना नहीं रह सकते। इनका स्वाद अच्छा है।

       हमारा तो यह भी मानना है कि कुछ दिन में जब बड़ी कंपनियों के भोज्य उत्पाद का विवाद थम जायेगा जब लोग फिर इसका उपयोग पूर्ववत् करने लगेंगे जैसे कि कथित शीतल पेय का करते हैं।

          21 जून पर आने वालेे योग दिवस पर जिन महानुभावों को प्रचार माध्यमों पर चर्चा के लिये आना है वह श्रीमद्भागवत् गीता के संदेशों की चर्चा अवश्य करें।  एक योग साधक  भोजन पेट में दवा डालने की तरह प्रयुक्त करता है। वह स्वादिष्ट नहीं पाचक भोजन पर ध्यान देता है। पता नहीं हमारी यह बात  उन तक पहुंचेगी कि नहीं।

—————-

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का  चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

६.ईपत्रिका

७.दीपकबापू कहिन

८.जागरण पत्रिका

८.हिन्दी सरिता पत्रिका

नियमित अभ्यास वाले ही योग पर बोलें तो अच्छा रहेगा-21 जून विश्व योग दिवस पर विशेष लेख


     भारतीय योग संस्थान देश में योग साधना के निशुल्क शिविर लगाता है। इसमें निष्काम भाव से शिक्षक नये लोगों को योगसाधना का अभ्यास बड़े मनोयोग से सिखाते हैं। यह लेखक स्वयं इस संस्थान के शिविर में अभ्यास करता रहा है।  हमारा मानना है कि योग साधना की पूरी प्रक्रिया जो भारतीय योग संस्थान के शिविरों में अपनाई जाती है वह अत्यंत वैज्ञानिक है।  समय समय पर अनेक योग विशारद भी अपना कीमती समय व्यय कर योग साधकों का मार्गदर्शन करते हैं। एक बात तय रही कि भारतीय योग संस्थान से जुड़ा कोई भी साधक यह स्वीकार नहीं कर सकता कि ओम शब्द और सूर्यनमस्कार के बिना कम से कम आज के समय में योग पूर्णता प्राप्त कर सकता है।  सूर्यनमस्कार कोई कठिन आसन है यह भी सहजता से स्वीकार नहीं किया जा सकता।

      21 जून को विश्व में योग दिवस मनाया जा रहा है पर देखा यह जा रहा है कि भारत के प्रचार माध्यम अपनी कथित निष्पक्षता दिखाने के लिये योग विरोधियों को सामने ला रहे हैं। प्रश्न यह है कि इन प्रचार माध्यमों के पास वह कौनसा पैमाना है कि वह किसी एक व्यक्ति को अपने समुदाय का प्रतिनिधि मान लेते हैं।  हमने यह देखा है कि अनेक ऐसे लोग भी इन शिविरों में आते हैं जिन्हें भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा से प्रथक कर देखा जाता है। वह न केवल ओम का जाप करते हैं वरन् सूर्यनमस्कार के साथ ही गायत्री मंत्र, शांति पाठ, महामृत्यंजय पाठ तथा प्रार्थना का गान करते हैं।  जब हम उन्हीं के समुदाय का कोई आदमी  टीवी उनके प्रतिनिधि के रूप में योग साधना का विरोध करते देखते  है तब हमारे मन में यह सवाल आता है कि उसे समूचे समुदाय का स्वर कैसे मान लिया जाये? क्या भारतीय प्रचार माध्यम यह मानते हैं कि सामुदायिक नाम से पहचान तथा किसी समाज विशेष से जुड़ी संस्था से जुड़े होने पर कोई भी अपने लोगों का अघोषित प्रतिनिधि हो जाता है?

   यह सोच प्रचार माध्यमों में कार्यरत लोगों की जड़ प्रकृत्ति की परिचायक है। ऐसे लोग योग पर अधिकार के साथ बोलते जरूर हैं पर उनका स्वयं का  अभ्यास नहीं होता वरन् उनकी योग्यता यह होती है कि येनकेन प्रकरेण वह पर्दे के सामने आ ही जाते हैं। ऐसे लोगों को हमारी सलाह है कि योग करो तो जानो। इस विषय पर बोलने या लिखने का मानस मन पर गहरा प्रभाव तब तक  नहीं होता जब तक वक्ता या लेखक स्वयं योग के समंदर में गहराई में जाकर मोती न चुनकर आया हो।

———————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर   

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

फिल्म देखे बिना लिखा गया हिन्दी हास्य व्यंग्य


    हमने पीके फिल्म न देखी है न देखेंगे पर उसे देखने वाले दर्शक जिस तरह बता रहे हैं उसमें हमारी पहली आपत्ति तो धर्म की आड़ में एक प्रेम कहानी थोपने दूसरी गाय को घास खिलाने के विरोध दिखाने की बात पर है। हमने ओ माई गॉड फिल्म में भारतीय धर्म के अंधविश्वास का विरोध करने के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता के विश्वास की स्थापना का प्रयास होने के कारण उसका समर्थन किया था। उसमें युवक युवती की शारीरिक जरूरतों को इंगित करती हुई कहानी नहीं थी।  शिवलिग पर दूध चढ़ाने पर कटाक्ष भी तार्किक ढंग से किया गया था।  कोई बता रहा था कि पीके गाय को घास खिलाने पर भी कटाक्ष किया गया है।  इससे हमारा विरोध है। मुंबईया फिल्म में अधिकतर शराब और शवाब की छाप बदलकर उपभोग करने की प्रवृत्तियां प्रचारित की जाती हैं।  फिल्म में काम करने वालों प्रसिद्ध लोगों  के चरित्र ही नहीं वरन् परिवार भी आदर्श नहीं रह पाते।  उपभोग के प्रेरक कभी योग के संदेशवाहक बने यह अपेक्षा हम नही रखतें है, उनको धर्म कर्म की बातों पर सोच समझकर पटकथायें लिखनी चाहिये। कभी गाय के सामने  रोटी या घास पेश कर उसे खाकर तुप्त होकर सुख उठाना ऐसे लोग नहीं जानते जिन्हें शब्दों और चित्रों का व्यापार करना है।  हम यहां यह भी बता दें पाश्चात्य विचारों में फंस ऐसे लोग यह मानते हैं कि यह संसार केवल मनुष्यों के लिये ही है।  जबकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों के अनुसार यहां पशु पक्षी भी महत्वपूर्ण है।  श्रेष्ठ जीव होने के कारण मनुष्य का यह दायित्व है कि प्रकृति संसाधनों के साथ ही वन, पशु तथा पक्षी संपदा की रक्षा करते हुए विकास करे।

            हम सुबह घर के बाहर चबूतरे पर योग साधना करते हैं तब अक्सर गायें खड़ी होकर देखती रहती हैं।  वह जिस मासूमियत से निहारती है उससे मन द्रवित हो  जाता है उनको रोटी या खाने की दूसरी सामग्री दे ही देते हैं।  खाने के बाद वह एक दृष्टि हम पर डालकर चली जाती हैं तब होठों पर अचानक ही मुस्कराहट आ जाती है।  उस सुख का शब्दों में वर्णन करना कठिन है।  पीके फिल्म हमने नहीं देखी फिर भी इस पर टिप्पणी करना हम उसी तरह नैतिकता का प्रतीक मानते हैं जैसे चलचित्र निर्माता निर्देशक पशु पक्षियों को खिलाये पिलाये बिना ऐसे कर्म में लोगों का मजाक बनाते हैं। इतना ही नहीं भारतीय धर्म ग्रंथों के पढ़े बगैर वह सुनी सुनाई बातों के आधार पर समाज का चरित्र तय कर लेते हैं।

            हमारे एक मित्र ने हमसे कहा-‘चलो, तुम्हें पीके दिखा दूं।’’

            हमने कहा-‘‘पीके हमने देख लिया है। कोई मजा नहीं आता।’’

            वह बोला-‘‘मैं फिल्म पीके की बात कर रहा हूं।’’

            हमने कहा।-‘‘उस पर पैसे खर्च करने से अच्छा है खाने पीने पर ही खर्च करें।’’

            वह बोला-‘‘पैसे मैं खर्च करूंगा।’’

            हमने कहा-‘समय तो खर्च होगा। आंखों को तकलीफ भी होगी। इससे अच्छा है अंतर्जाल पर दो चार बेसिरपैर की कवितायें ही लिखकर जश्न मनायें।’

            वह चला गया पर हम पर तनाव का बोझ डाल गया।  हमारे पास इसके निवारण का  एक ही उपाय रहा  कि कुछ इस पर लिख डालें। वही हम कर रहे हैं।  इस पर कोई कविता समझ में नहीं आ रही। कोई व्यंग्य भी बनाने का सामर्थ्य नहीं लग रहा।

चाकलेटी चेहरे वाले

उपभोग जगत में

इस कदर छाये

कभी वस्त्रहीन होकर

कभी सामने पीके आये।

कहें दीपक बापू भाग्य की बात

भांडों का जमाना है,

अपनी अदाओं से

उनको कमाना है,

नशे का विरोध करते हुए

समाज सुधारने के लिये

नारे लगाते

उनका हर कम

अभिनय कहलाता

हम समझायें तो

कहा जाता है यह पीके आये।

——————-

            इस सर्दी में कहीं जाने का मन नहीं कर रहा था।  सोचा किस तरह दिमाग में गर्मी लायें। पीना छोड़ दिया है इसलिये बोतल को हाथ लगा नहीं सकते।  इसलिये ऐसी सोच बना ली जैसे हम पीके आये। तभी यह बिना सिर पैर का लघु व्यंग्य लिख पाये।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

बाज़ार के शब्द-हिन्दी व्यंग्य कविताये


किताबों में प्रकाशित

समूह में एकत्रित शब्द

हमेशा कुछ बोलते हैं।

पढ़ने वालों ने

कितना पढ़ा

कितना समझा पता नहीं

अर्थ की लाचारी कितना छिपायें

उनके शब्द ही राज खोलते हैं।

कहें दीपक बापू बाज़ार के शब्द

कभी ज्ञानहीन होते हैं,

दाम पाने की नीयत में

बड़े ही दीन होते हैं,

यह अलग बात है कि

हृदय में कामनाओं के साथ

सौदागर अर्थहीन शब्द

प्रचार करते डोलते हैं।

——————-

मन में दबी आशायें

खुली आंखों से सपना

देखंने की आदत

मानव को नशा करने का

आदी बना  देती हैं।

आकाश में उड़ने की

नाकाम कोशिश

पूरी जिंदगी बर्बादी से

सना देती हैं।

कहें दीपक बापू टूटते हुए

दौलत से ऊब रहे हैं,

बोतलों के नशे में डूब रहे हैं,

उनकी लाचारियां

दिवालियों को भी

दौलतमंद बना देती हैं।

———————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका 

५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका

आस्था की आड़ में अभिव्यक्ति की आज़ादी सीमित रखना अनुचित-हिन्दी चिंत्तन लेख


            फ्रांस में शार्ली हेब्दो पत्रिका पर हमले से मध्य एशिया के उन्मादी समूहों को बरसों तक प्रचारात्मक ऊर्जा मिलेगी।  पहले यह ऊर्जा सलमान रुशदी की पुस्तक के बाद उन पर ईरान के एक धार्मिक नेता खुमैनी के फतवे से मिली थी।  इसके बाद मध्य एशिया का धार्मिक उन्माद बढ़ता ही गया।  वह धार्मिक नेता बरसों तक अमेरिका में रहा और उसी ने ही ईरान की राजशाही के बाद धार्मिक ठेकेदार होने के साथ ही वहां के शासन को भी अपने हाथ में ले लिया। प्रत्यक्ष अमेरिका का खुमैनी से कोई संबंध नहीं दिखता था मगर उसके नेतृत्व में उस समय ईरान में राजशाही के विरुद्ध चल रहे लोकतात्रिक आंदोलन से उसकी सहमति थी। राजशाही के पतन के बाद वहां खुमैनी के धार्मिक नेतृत्व में बनी सरकार कट्टरपंथी ही थी। दिखाने के लिये अमेरिका ने ईरान में लोकतंत्र स्थापित किया पर सच यह है कि वहां एक उस व्यक्ति को सत्ता मिली जो बाद में उसका   दुश्मन बना।

            धार्मिक उन्मादी प्रचार के भूखे होते हैं।  जिस तरह चार्ली हेब्दों के कार्टूनिस्टों की हत्या हुई है वह मध्य एशिया के धर्म की ताकत बनाये रखने के लिये की गयी है जो केवल प्रचार से मिलती है।     इस धार्मिक उन्माद का सामना करने के लिये पूरे विश्व में धार्मिक आस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक ही रूप रखना चाहिये।  यह नहीं हो सकता कि एक देश में आस्था के नाम पर किसी धर्म पर कटाक्ष अपराध तो किसी में एक सामान्य प्रक्रिया मानना चाहिये।  हमारे देश में स्थिति यह है कि भारतीय धर्मोंे पर आक्रमण तो एक सामान्य प्रक्रिया और दूसरे धर्म पर कटाक्ष अपराध मानने की प्रचारजीवियों की प्रवृत्ति हो गयी है।  समस्या यह है कि भारतीय धर्म के ठेकेदार भी कर्मकांडों के ही संरक्षक होते हैं और अध्यात्मिक ज्ञान को एक फालतू विषय मानते हैं।  अध्यात्मिक ज्ञानी अंतर्मुखी होते हैं इसलिये कटाक्ष की परवाह नहीं करते कर्मकांडियों बहिर्मुखी होने के कारण चिंत्तन प्रक्रिया से पर होते इसलिये कटाक्ष सहन नहीं कर पाते।  हमारा तो यह मानना है कि विदेशी विचाराधाराओं के मूल तत्वों पर कसकर टिप्पणी हो सकती है और सहज मानव जीवन के लिये  भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा पर चलने के अलावा कोई विकल्प हो ही नहीं सकता, पर यह ऐसी सोच संकीर्ण मानसिकता की मानी जाती है।  हम इस पर बहस कर सकते हैं और कोई कटाक्ष करे तो उसका शाब्दिक प्रतिरोध भी हो सकता है पर कर्मकांडी किसी कटाक्ष को सहन नहीं करना चाहते। वह बहस में किसी अध्यात्मिक ज्ञानी का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिये चिल्लाते हैं ताकि शोर हो जिससे वह प्रचार प्रचार पायें।

            फ्रांस की चार्ली हेब्दो पत्रिका पर हमले को सामान्य समझना उसी तरह भूल होगी जैसे सलमान रुशदी की किताब पर ईरान के धार्मिक तानाशाह खुमैनी के उनके खिलाफ मौत की फतवे को मानकर की गयी थी। शिया बाहुल्य होने के कारण ईरान के वर्तमान शासक  मध्य एशिया में प्रभावी गुट के विरोधी हैं पर वह इस हत्याकांड की निंदा नहीं करेंगे क्योंकि कथित धार्मिक आस्था पर आक्रमण पर स्वयं ही हिंसक कार्यवाहियों के समर्थक हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि इस विषय पर मध्य एशिया की विचारधारा पर बने सभी समूह वैचारिक रूप से एक धरातल पर खड़ मिलेंगे।

            इनका प्रतिकार वैचारिक आक्रमण से किया जा सकता है पर अलग अलग देशों  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नियमों में विविधिता है। जहां आस्था के नाम पर छूट है वहां बहस की गुंजायश कम रह जाती है। इसलिये फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के बुद्धिमान सीधे धार्मिक अंधवश्विास पर आक्रमण करते हैं जबकि एशियाई देशों में  दबी जुबान से यह काम होता है। भारत में तो यह संभव ही नहीं है।  आज भी हमारे देश के बुद्धिजीवी दिवंगत कार्टूनिस्टों की मौत पर सामान्य शोक जरूर जता रहे हैं पर अपने यहां आस्था के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी सीमित रखने का विरोध नहीं कर रहे। शायद उनके लियं यहां भारतीय धर्मों में ही दोष हैं जिन पर गाह बगाहे वह हंसते ही हैं।  कट्टर धार्मिक विचाराधाराओं के विरुद्ध वैचारिक अभियान में पश्चिमी देशों का अनुसरण हमारे देश के बुद्धिजीवी करना ही नहीं चाहते। संभवत भारतीय प्रचार माध्यम सनसनी के सतही आर्थिक लाभ से संतुष्ट हैं और चाहते हैं कि यहां वैचारिक जड़ता बनी रहे।

—————————————-

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का  चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

६.ईपत्रिका

७.दीपकबापू कहिन

८.जागरण पत्रिका

८.हिन्दी सरिता पत्रिका

कोई पीके ही एलियन के अंधविश्वास पर विश्वास कर सकता है-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


          हमने पीके फिल्म न देखी है न देखेंगे पर उसे देखने वाले दर्शक जिस तरह बता रहे हैं उसमें हमारी पहली आपत्ति तो धर्म की आड़ में एक प्रेम कहानी थोपने दूसरी गाय को घास खिलाने के विरोध दिखाने की बात पर है। हमने ओ माई गॉड फिल्म में भारतीय धर्म के अंधविश्वास का विरोध करने के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता के विश्वास की स्थापना का प्रयास होने के कारण उसका समर्थन किया था। उसमें युवक युवती की शारीरिक जरूरतों को इंगित करती हुई कहानी नहीं थी।  शिवलिग पर दूध चढ़ाने पर कटाक्ष भी तार्किक ढंग से किया गया था।  कोई बता रहा था कि पीके गाय को घास खिलाने पर भी कटाक्ष किया गया है।  इससे हमारा विरोध है। मुंबईया फिल्म में अधिकतर शराब और शवाब की छाप बदलकर उपभोग करने की प्रवृत्तियां प्रचारित की जाती हैं।  फिल्म में काम करने वालों प्रसिद्ध लोगों  के चरित्र ही नहीं वरन् परिवार भी आदर्श नहीं रह पाते।  उपभोग के प्रेरक कभी योग के संदेशवाहक बने यह अपेक्षा हम नही रखतें है, उनको धर्म कर्म की बातों पर सोच समझकर पटकथायें लिखनी चाहिये। कभी गाय के सामने  रोटी या घास पेश कर उसे खाकर तुप्त होकर सुख उठाना ऐसे लोग नहीं जानते जिन्हें शब्दों और चित्रों का व्यापार करना है।  हम यहां यह भी बता दें पाश्चात्य विचारों में फंस ऐसे लोग यह मानते हैं कि यह संसार केवल मनुष्यों के लिये ही है।  जबकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों के अनुसार यहां पशु पक्षी भी महत्वपूर्ण है।  श्रेष्ठ जीव होने के कारण मनुष्य का यह दायित्व है कि प्रकृति संसाधनों के साथ ही वन, पशु तथा पक्षी संपदा की रक्षा करते हुए विकास करे।

        हम सुबह घर के बाहर चबूतरे पर योग साधना करते हैं तब अक्सर गायें खड़ी होकर देखती रहती हैं।  वह जिस मासूमियत से निहारती है उससे मन द्रवित हो  जाता है उनको रोटी या खाने की दूसरी सामग्री दे ही देते हैं।  खाने के बाद वह एक दृष्टि हम पर डालकर चली जाती हैं तब होठों पर अचानक ही मुस्कराहट आ जाती है।  उस सुख का शब्दों में वर्णन करना कठिन है।  पीके फिल्म हमने नहीं देखी फिर भी इस पर टिप्पणी करना हम उसी तरह नैतिकता का प्रतीक मानते हैं जैसे चलचित्र निर्माता निर्देशक पशु पक्षियों को खिलाये पिलाये बिना ऐसे कर्म में लोगों का मजाक बनाते हैं। इतना ही नहीं भारतीय धर्म ग्रंथों के पढ़े बगैर वह सुनी सुनाई बातों के आधार पर समाज का चरित्र तय कर लेते हैं।

     हमारे एक मित्र ने हमसे कहा-‘चलो, तुम्हें पीके दिखा दूं।’’

    हमने कहा-‘‘पीके हमने देख लिया है। कोई मजा नहीं आता।’’

    वह बोला-‘‘मैं फिल्म पीके की बात कर रहा हूं।’’

    हमने कहा।-‘‘उस पर पैसे खर्च करने से अच्छा है खाने पीने पर ही खर्च करें।’’

     वह बोला-‘‘पैसे मैं खर्च करूंगा।’’

     हमने कहा-‘समय तो खर्च होगा। आंखों को तकलीफ भी होगी। इससे अच्छा है अंतर्जाल पर दो चार बेसिरपैर की कवितायें ही लिखकर जश्न मनायें।’

    वह चला गया पर हम पर तनाव का बोझ डाल गया।  हमारे पास इसके निवारण का  एक ही उपाय रहा  कि कुछ इस पर लिख डालें। वही हम कर रहे हैं।  इस पर कोई कविता समझ में नहीं आ रही। कोई व्यंग्य भी बनाने का सामर्थ्य नहीं लग रहा।

 

चाकलेटी चेहरे वाले

उपभोग जगत में

इस कदर छाये

कभी वस्त्रहीन होकर

कभी सामने पीके आये।

कहें दीपक बापू भाग्य की बात

भांडों का जमाना है,

अपनी अदाओं से

उनको कमाना है,

नशे का विरोध करते हुए

समाज सुधारने के लिये

नारे लगाते

उनका हर कम

अभिनय कहलाता

हम समझायें तो

कहा जाता है यह पीके आये।

——————-

            इस सर्दी में कहीं जाने का मन नहीं कर रहा था।  सोचा किस तरह दिमाग में गर्मी लायें। पीना छोड़ दिया है इसलिये बोतल को हाथ लगा नहीं सकते।  इसलिये ऐसी सोच बना ली जैसे हम पीके आये। तभी यह बिना सिर पैर का लघु व्यंग्य लिख पाये।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

तत्वज्ञान ही वास्तविक जीव विज्ञान है-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हमारे देश में अंग्रेजी विद्वान लार्ड मैकाले की उस शिक्षा पद्धति से छात्रों को अध्ययन कराया जा रहा है जो केवल पूंजीस्वामियों के बंधुआ बनने की योग्यता प्रदान करती है।  उपलब्धि के नाम पर सुविधाओं का उपभोग ही जीवन का लक्ष्य सुझाती है।  इस समय शिक्षा पद्धति में बदलाव बहस चल रही है तो भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के तत्वों का उसमें समावेश करने का यह कहते हुए विरोध हो रहा है कि इसमें केवल भारतीय धर्म का प्रचार है जिससे देश में रह रहे अन्य विचारधाराओं को मानने वाले आहत हो सकते हैं।

            एक विद्वान ने पाश्चात्य जीव विज्ञान की सीमा बताते हुए कहा था कि उसमें केवल जीव की देह निर्माण और संचालन के सिद्धांत हैं पर मन के साथ बुद्धि तत्वों के सूत्रों का उसमें वर्णन नहीं होता। मन और बुद्धि के ज्ञान के  बिना पाश्चात्य जीव विज्ञान अधूरा है। इसी मन और विज्ञान के सूत्रों पर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में विस्तृत प्रकाश डाला गया है जिसके बिना कोई भी शिक्षार्थी पाश्चात्य संस्कारों से पैदा अंधेरे से बाहर निकल नहीं सकता।  भोग का कोई अंत नहीं है। एक वस्तु प्रयास करने पर पाओ दूसरे की आवश्यकता अनुभव होने लगती है। एक बार सुबह खाना खाओ तो दोपहर और उसके बाद शाम के खाने की चिंता भी साथ लग जाती है। भोजन, वस्त्र और भवन के संग्रह को ही श्रेष्ठ व्यक्ति होने का प्रमाण मान लेना अज्ञान के अंधेरे में ही भटकना है।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

——————

सहस्त्रोपृलुत्य दुष्टेभ्यो दुष्करं सम्पदाजर्जनाम्।

उपायेन पदं मूर्धिन न्यास्यतो मतहास्तिनाम्।।

            हिन्दी में भावार्थ-हजारों दुष्टो से उपद्रव को प्राप्त होने से उन पर आक्रमण कर संपत्ति का अर्जन करना कठिन है पर उपाय से तो मतवाले हाथियों के मस्तक पर भी पांव रख दिया जाता है।

वाह्यमानमयःखण्डं स्कन्धनैवापि कृन्ताति।

तदल्पमपि धारावद्धवर्तीप्सितसिद्धये।।

            हिन्दी में भावार्थ-कंधे पर भार के रूप में लदा लोह नहीं काटता पर उससे बना तीखी धारा वाला हथियार कम भारी होने पर भी कष्ट देता है।

            हम अक्सर भारतीय धर्म की रक्षा की बात करते हैं। इतना ही नहीं अनेक उत्साही तो शस्त्र और धन के सामर्थ्य से धर्म के विस्तार की बात करते हैं। उन्हें यह बात समझ लेना चाहिये कि किसी भी समाज की शक्ति उसके सदस्यों की बृहद संख्या नहीं वरन् उनकी कार्य करने की क्षमता है। इस मामले में यहूदियों से सीखा जा सकता है। हिटलर के अनाचारों के बाद वह फिर संगठित हुए और आज इजरायल नाम का एक छोटा राष्ट्र बनाकर पूरे विश्व में प्रभाव रखते हैं।  अपने पड़ौसी देशों की उग्रवादी निर्ममता के विरुद्ध न केवल संघर्षरत हैं वरन् अन्य देशों को भी आतंकवाद से लड़ने में इजरायल सहयोग कर रहा है। वहां की प्रशासन व्यवस्था जनहित के अनुकूल है इसलिये वहां के नागरिक अपने देश के प्रति अत्यंत संवेदनशील रहते हैं।

            हम जब धर्म रक्षा की बात करते हैं तो एक बात याद रखना चाहिये कि मनुष्य अपनी दैहिक आवश्यकताओ के पूर्ण होने के बाद ही मानसिक रूप से दृढ़ हो सकता है। इसके लिये यह जरूरी है कि उसके पास अध्यात्मिक ज्ञान हो।  यह ज्ञान हमारे प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से ही मिल सकता है।

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

चेलों की चाल पर-हिन्दी व्यंग्य कविता


सफेद कागज पर

काली स्याही से

बहुत सारे महापुरुषों के

किस्से लिखे हैं।

सत्य के रास्ते पर जो चले

जनमानस के हृदय पर

देवता की तरह बसे

कुछ ऐसे भी रहे

जिन्होंने प्रचार के दम पर

काम से ज्यादा नाम पाया

नारेबाजों के स्वर में टिके हैं।

कहें दीपक बापू देहधारियों से

हमेशा देवत्व दिखाने की

आशा नहीं की जा सकती,

कभी माया की मजबूरी भी

देवों के सामने भी खड़ी लगती,

फिर भी जिन्होंने मनुष्य समाज में

चेतना की ज्योति जगाई,

अज्ञान के अंधेरे में

ज्ञानी की आग लगाई,

उनके लिये हृदय में

पवित्रता का भाव आता

मगर जिन्होंने चालाकियों से

लोगों को बहलाया

उनके एतिहासिक शब्द

केवल चेलों की चाल पर बिके  हैं।

—————————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका