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चाणक्य नीति-आदमी चाहे तो गधे, सिंह,कौवे, बगुले और मुर्गे से भी सीख सकता है


               अक्सर लोग आपसी वार्तालाप में एक दूसरे के लिये उपहास या घृणावश कौआ, गधा, बगुला या मुर्गा जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जबकि शेर शब्द का उपयोग सम्मान या प्रशंसा के लिये किया जाता है। माया के चक्कर में फंसा आदमी शायद ही कोई आदमी हो जो अपने साथ ही इस धरती पर विचर रहे पशु, पक्षियों तथा अन्य जीवों के गुणों की पहचान कर उनसे सीखना चाहता है। चूंकि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से परे लोगों को रखा गया है शायद इसलिये हम देख रहे हैं कि हमारे यहां खिचड़ी संस्कृति का निर्माण हो गया है जिसमें आदमी आनंद अंदर नहीं बाहर ढूंढ रहा है। प्रेम नाम की जीव हृदय में नहीं है पर वासना का प्रदर्शन सरेआम कर उसे ईश्वर उपासना का प्रतीक बना दिया गया है।
                   कौआ पक्षी होने के बावजूद छिपकर अपनी प्रेमलीला करता है पर आजकल हम देख रहे हैं कि विद्यालयों और महाविद्यालयों में सार्वजनिक रूप से छात्र छात्रायें अपनी प्रेमलीला का प्रदर्शन करते हैं। इससे अन्य लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसकी परवाह नहीं करते। कहीं कहीं तो ऐसी घटनायें भी हुई हैं एक युवक से प्रेम करने वाली युवती पर दूसरे ने नाराज होकर हमला कर दिया। लोग कहते हैं कि प्यार करने की आजादी होना चाहिए पर हमारा दर्शन कहता है कि उसके सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करने के खतरे को भी समझना चाहिए।
आचार्य चाणक्य का कथन है कि
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सिंहादेकं वकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्
वायसात्पञ्च शेक्षेच्च षट् शुनस्वीणि गर्दभात्।।
          ‘‘मनुष्य को शेर से एक, बगुले से एक तथा मुर्गे से चार, कौऐ से पांच, कुत्ते से छह और गधे से तीन गुण ग्रहण करना चाहिए।’
प्रभूतं कार्यमल्पं चन्नर, कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्य सिंहादेकं प्रचक्षते
             ‘‘बड़ा हो या छोटा कार्य उसे संपन्न करने के लिये पूरी शक्ति लगाना शेर से सीखना चाहिए।’’
इंद्रियाणि च संयम्य वकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्।।
             ‘‘बगुले की भांति अपनी इंद्रियों को वश मे कर देश काल अपने बल को जानकर ही अपने सारे कार्य करना चाहिए।’
‘‘प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बंधुषु
स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।।
      ‘‘ठीक समय पर जागना, सदैव युद्ध के लिये तैयार रहना, बंधुओं को अपना हिस्सा देना और आक्रामक होकर भोजन करना मुर्गे से सीखना चाहिए।
गूढमैथनचरित्वं च काले काले च संग्रहम।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शेक्षेच्च वायसात्।।
               ‘‘छिपकर प्रेमालाप करना, ढीठता दिख्.ाना, नियम समय पर संग्रह करना सदा प्रमादरहित होकर जागरुक रहना तथा किसी पर विश्वास न करना ये पांच गुण कौऐ से सीखना चाहिए’’
बह्वाशी स्वल्पसंतुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः।।
          ‘‘बहुत खाने की शक्ति रखना, न मिलने पर भी संतुष्ट हो जाना, खूब सोना पर तनिक आहट होने पर भी जाग जाना, स्वामीभक्ति और शूरता यह छह गुण कुत्ते से सीखना चाहिए।
सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न च पश्यति।
संतुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्।।
       ‘‘बहुत थक जाने पर भी भार उठाना, सर्दी गर्मी से बेपरवाह होन और सदा शांतिपूर्ण जीवन बिताना यह तीन गुण गधे से सीखना चाहिए।
              एक बात याद रखने लायक है। आदमी गुणों के वशीभूत होकर वैसे ही काम करता है जैसे कि अन्य जीव! हम आदमी से देवता होने की अपेक्षा हमेशा नहीं कर सकते। अपने जीवन में सतर्कता, दृढ़ता, और नैतिकता के साथ जीने का प्रयास करना है तो हमें पशु पक्षियों से भी सीखना चाहिए। इसके अलावा अपने किस काम को सार्वजनिक रूप से दिखायें और किसे नहीं इस पर भी विचार करना चाहिए। जब हम अपने वैभव, प्रेम और गूढ़ रखने वाले रहस्यों को सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं तो इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि देखने वालों में कोई पशुवृत्ति को प्राप्त होकर हमें हानि भी पहुंचा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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भारतीय योग साधना और न्यूड योगा-हिन्दी लेख (indian yoga and naud yoga of sara zean-hindi article)


सारा जीन के न्यूड योग पर अमेरिका में रहने वाले हिन्दुओं ने नाराज़गी जाहिर की है। उनका मानना है कि यह एक तरह से हिन्दू धर्म और योग का अपमान है। भारतीय अध्यात्म का मुख्य स्त्रोत योग साधना है और पूरा विश्व उसके परिणामों से चमत्कृत है इसलिये यह स्वाभाविक है कि सभी लोग इसके प्रति आकर्षित हों। फिर इधर बाबा रामदेव ने जिस तरह योग शिक्षक के रूप में लोकप्रियता अर्जित की है उसे ब़ाजार और उसका प्रचार तंत्र बेचना चाहता है। बाबा रामदेव इस समय प्रचार माध्यमों में छाये हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि बाज़ार या उसका प्रचार तंत्र उससे प्रभावित है बल्कि इससे बाज़ार अपने सामान बेचने के लिये ग्राहक ढूंढता है तो प्रचार माध्यम अपने विज्ञापन के बीच में कुछ ऐसा प्रसारण और प्रकाशन चाहते हैं जिससे दर्शक या पाठक मनोरंजन ले सकें और ऐसे में बाबा रामदेव का फोटो और उनके बयान बहुत काम के होते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि बाबा रामदेव उनके लिये एक ऐसा चेहरा है जिसके सहारे वह अपना काम चला रहे हैं फिर उनकी योग शिक्षा एक ऐसा विषय भी है जिससे वह अपनी प्रसारण प्रकाशन सामग्री बना लेते है।
सारा जीन के न्यूड योग के जो दृश्य हमने देखे उसमें कुछ आपत्तिजनक नहीं लगा। यह अलग बात है कि इससे इंटरनेट, टीवी, तथा अखबार वालों को अधोवस्त्र पहने एक सुंदरी के फोटो दिखाने के साथ ही छापने के लिये मिल गये। कुछ लोगों को लिखने का अवसर मिल गया तो कुछ लोगों को बहस अवसर मिल जायेगा। जो लोग सारा जीन के न्यूड योग का विरोध कर रहे हैं न वह स्वयं योग करते हैं और न जानते हैं। योग साधना उनके लिये एक शब्द या नारा भर है।
बाबा रामदेव योगसनों के साथ प्राणायाम सिखाते हैं। उससे अनेक लोगों को लाभ हो रहा है। सच बात तो यह है कि उन्होंने एकदम पाश्चात्य दिशा में जा रहे देश को पूर्व की तरफ मोड़ा है। हम उनके प्रयास को योग साधना जैसे विषय को सामान्य जन में लोकप्रिय बनाने के लिये सराहते हैं तो कुछ लोग इसमें बाज़ार के साथ उसके प्रचार तंत्र को आर्थिक रूप से फलदायी बनाने की बात भी कहते हैं। स्थिति यह है कि बाबा रामदेव और हिन्दू धर्म के आलोचक भी उनके प्रयास की आलोचना नहंी करते।
योग का जनसामान्यीकरण हो जाने के पीछे वह आसन हैं जो प्रातः किये जाने पर मनुष्य को लाभ देते हैं। सुबह योग साधक अपनी देह की ऐसी सक्रियता देखकर प्रसन्न होता है। मजे की बात यह है कि योग साधना के प्रवर्तक पतंजलि योग तथा श्रीमद्भागवत गीता में कहीं भी आसनों की चर्चा नहीं मिलती। पतंजलि योग साहित्य में योग के महत्व का विशद वर्णन है पर उसमें प्राणायाम की प्रधानता है। श्रीमदभागवत गीता में तो प्राणायाम पर ही अधिक प्रकाश डाला गया है। अगर योग साधना के लिये कहा जाये कि ‘प्राणवायु तथा अपानवायु को सम रखना ही योग है’तो भी पर्याप्तं है। प्राणवायु को सम रखने का मतलब है कि सांस अंदर लेकर उसे अपनी निर्धारित शक्ति के अनुसार रोकना। उसी तरह अपानवायु सम रखने का मतलब है कि सांस बाहर छोड़कर फिर अपने सामर्थ्यानुसार रुकना। इस दौरान भृकुटि यानि नाक के ठीक ऊपर ध्यान रखना आवश्यक है। महर्षि पतंजलि तथा भगवान श्रीकृष्ण ने योग साधना की कोई अधिक विधि नहीं बताई पर उसका महत्व अधिक प्रतिपादित किया है। इससे हम एक बात समझ सकते हैं कि योगासन कोई कठिन या विशद विषय नहीं है। अगर संकल्प लिया जाये तो इसी संक्षिप्त विधि से भी योग साधना की जा सकती है। प्राचीन समाज श्रम के आधार पर जीवित था इसलिये संभव है महर्षि पतंजलि तथा भगवान श्रीकृष्ण ने प्राणायाम, ध्यान तथा मंत्रजाप का ही महत्व प्रतिपादित किया हो। कालांतर में जैसे सुविधाभोगी समाज होने लगा तब कुछ अन्य महर्षियों और योगियों ने आसनों की खोज की हो।
एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि चाहे पश्चिमी पद्धति वाले शारीरिक व्यायाम हों या भारतीय योगासन मनुष्य शरीर में स्फूर्ति पैदा करते हैं। यह स्फूर्ति मनुष्य को तात्कालिक लाभ देती है इसलिये ही लोग आसनों की तरफ आकर्षित होते है। बाज़ार और प्रचारतंत्र का ध्यान भी उसकी तरफ आकर्षित होता है क्योेंकि उनका आसानी से नकदीकरण हो जाता है। इसके विपरीत प्राणायाम तथा ध्यान में मनुष्य की देह सक्रिय नहीं होती। योगासन पर फिल्म में पात्र के हाथ पांव चलते हैं इसलिये उस पर फिल्म बनाना ठीक रहता है क्योंकि दर्शक का आकर्षण बना रहता है जबकि प्राणायम या ध्यान में पात्र बैठा रहता है और इससे दर्शक को उकताहट होती है। यही कारण है कि योगासन बिक रहे हैं और चर्चा भी उसकी हो रही है। जबकि मन और विचारों के स्वस्थ बनाने वाले प्राणायाम और ध्यान एक उपेक्षित विषय हो गया है।
योगासनों के नाम पर अनेक नाम प्रचलित हो गये हैं। लोगों ने योगासन सिखाने के नाम पर उसके अनेक नाम गढ़ लिये हैं-‘जैसे न्यूड योग या सैक्स योग।
सारा जीन के योग के फुटेज देखने पता लगता है कि उसकी देह में लोच है और इस कारण उसे योग का अभिनय करने में सुविधा हुई होगी। वैसे वह अपने शरीर को इतना लोचदार बनाये हुए है इसके लिये वह प्रशंसा के योग्य है। यह लोच पाश्चात्य पद्धति के व्यायाम से भी हो सकती है। इसका मतलब यह है कि जरूरी नहीं है कि वह प्रतिदिन भारतीय योग पद्धति से साधना करती हो। वैसे यह उसका निजी विषय है पर चूंकि उसे लेकर भारतीय योग पद्धति की चर्चा हुई इसलिये उसकी इस बात के लिये भी प्रशंसा करना चाहिए कि कम से कम उसने वह आसन कर दिखाये। वह पूर्ण योग साधक नहीं है या फिर अभी सीख रही है, यह इसलिये कह रहे हैं कि योगासन करते हुए अगर अपनी आंखें बंद रख कर ध्यान अपने शरीर के आठों चक्रों पर रखा जाये तब उसका पूर्ण लाभ मिलता है। ध्यान कभी आंख खोलकर नहीं लगता और दूसरी बात यह कि भारतीय योगासन करते समय हर आवृति पर ध्यान अपने चक्रों पर रखना होता है। जैसे जांघशिरासन के समय स्वाधिष्ठान और हलासन के समय सहस्त्रात चक्र पर ध्यान रखना होता है। सूर्य नमस्कार के समय आठों चक्र पर बारी बारी से ध्यान ज़माना चाहिए। एक बात याद रखना चाहिए कि अंततः ध्यान ही वह शक्ति है जो योगसन का पूर्णता प्रदान करती है।
अमेरिका में रह रहे भारतीय सारा जीन के योग का विरोध यह कहकर कर रहे हैं कि उसमें वस्त्र कम पहने है तो यह कहना पड़ता है कि उनको स्वयं ही योग का ज्ञान नहीं है। अपने यहां तो परंपरा है कि स्त्रियां और पुरुष अलग अलग योग साधना करते हैं। योग के समय अपनी देह में मौसम के अनुसार वस्त्र पहनना चाहिए। गर्मी में अधिक वस्त्र पहनने से निरर्थक पसीना नहीं बहाया जाता। सारा जीन के योग प्रचार पर नाराजगी या क्रोध जताने वाले स्वयं ही अज्ञानी है। अगर ज्ञानी होते तो ललकार कहते कि ‘यह योग नहीं है’ और करके बताते कि हमारा योग ऐसा होता है। एक बात याद रखे कि योग शब्द पर भारत का अधिकार नहीं है पर योग ज्ञान उसकी ऐसी संपत्ति है जिसे कोई छीन नहीं सकता। न्यूड योग एकदम अपूर्ण है और उसका विरोध करने वाले तो योगज्ञान में शून्य लगते हैं। मतलब यह कि सारा जीन कम से कम अपने व्यायाम को ही योग मानकर कर तो रही है और विरोध करने वाले तो उससे भी दूर लगते हैं। शायद भारतीय धर्म के भक्त होने के लिये प्रचार होने का उनका यह दिखावा भी हो सकता है। वैसे यह देखकर हंसी आती है कि भारतीय योग से कभी ‘न्यूड येाग’ भी पैदा होगा यह किसी ने सोचा नहीं था।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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रहीम सन्देश-सच्चे परमार्थी कभी भेदभाव नहीं करते (sachche parmarthi-rahim ke dohe)


कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच
 
जिस मनुष्य को  परोपकार का काम  करना है वह जरा भी नहीं हिचकता। दूसरों के  परोपकार करते हुए उच्च कोटि कि मनुष्य कभी भी  यारी दोस्ती का विचार नहीं करते। राजा शिवि ने ने प्रसन्न मुद्रा में अपने शरीर का मांस काट कर दिया तो महर्षि दधीचि ने अपने शरीर की हड्डियां दान में दीं। 
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल दुनियां में  जन कल्याण व्यापार और राजनीति का विषय हो गया  है।  निजी रूप से दान और परमार्थ करने कि प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाता है।  जन कल्याण कि लिए संस्थाएं बन ली गयी हैं जिसका नेतृत्व पैसे, प्रसिद्धि और पद की दृष्टि से बड़े लोग करते हैं।  इनकी आड़ में   विश्व का हर बड़ा आदमी परोपकार करने का दावा करता है पर फिर भी किसी का कार्य सिद्ध नहीं होता। अभिनेता, कलाकार, संत, साहुकार तथा अन्य प्रसिद्ध लोग अनेक तरह के परोपकार के दावों के विज्ञापन करते हैं पर उनका अर्थ केवल आत्मप्रचार करना होता है। आजकल गरीबों, अपंगों,बच्चों,बीमारों और वृद्धों की सेवा करने का नारा सभी जगह सुनाई देता है और इसके लिये चंदा एकत्रित करने वाली ढेर सारी संस्थायें बन गयी हैं पर उनके पदाधिकारी अपने कर्मों के कारण संदेह के घेरे में रहते हैं। टीवी चैनल वाले अनेक कार्यक्रम कथित कल्याण के लिये करते हैं और अखबार भी तमाम तरह के विज्ञापन छापते हैं पर जमीन की सच्चाई यह है कि जो परोपकार भी एक तरह से ऐसा  व्यापार हो गया है जिसमें कमाई अधिक और खर्चा अधिक है और इसके माध्यम से प्रचार और आय अर्जित करने की योजनाओं को पूरा किया  जाता है। स्थिति यह है कि फिल्म, खेल और अन्य मनोरंजक कार्यक्रमों के  कार्यकर्मों के लिए करों में छूट मांगी जाती है।
इसके विपरीत जिन लोगों को परोपकार करना है वह किसी की परवाह नहीं करते। न तो वह प्रचार करते हैं और न ही इसमें अपने पराये का भेद करते हैं। उनके लिये परोपकार करना एक नशे की तरह होता है। सच तो यह है कि यह मानव जाति अगर आज भी चैन की सांस ले रही है तो वह ऐसे लोगों की वजह से ले रही हैं।   ऐसे लोग न केवल बेसहारा की मदद करते हैं बल्कि पर्यावरण और शिक्षा के लिये भी निरंतर प्रयत्नशील होते हैं। वरना तो जिनके पास पद, पैसे और प्रतिष्ठा की शक्ति है वह इस धरती पर मौजूद समस्त साधनों का दोहन करते हैं पर परोपकारी लोग निष्काम भाव से उन्हीं संसाधनों में श्रीवृद्धि करते है। जिनका परोपकार करने का संकल्प लेना है उन्हें यह तय कर लेना चाहिए कि वह प्रचार और पाखंड से दूर रहेंगे। 

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भर्तृहरि शतक-अपना लक्ष्य बीच में नहीं छोड़ें (hindu dharm sandesh-apna lakshya


 रत्नैर्महाहैंस्तुतुषुर्न देवा न भेजिरेभीमविषेण भीतिम्।

सुधा विना न प्रययुर्विरामं न निश्चिततार्थाद्विरमन्ति धीराः।।

हिन्दी में भावार्थ-समुद्र मंथन करने से देवता लोग अनमोल रत्न पाकर भी प्रसन्न नहीं हुए। भयंकर विष भी निकला पर उनको उससे भय नहीं हुअ और न ही वह विचलित हुए। जब तक अमृत नहीं मिला तब तक वह समुद्र मंथन के कार्य पर डटे रहे। धीर, गंभीर और विद्वान पुरुष जब तक अपना लक्ष्य नहीं प्राप्त हो तब अपना कार्य बीच में नहीं छोड़ते

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-वैसे तो जीवन में अपना लक्ष्य तक करना बहुत कठिन है क्योंकि लोग अपने विवेक से कुछ नया करने की बजाय दूसरे की उपलब्धियों को देखकर ही अपना काम प्रारंभ करते हैं। अगर तय कर लिया तो फिर उस पर निरंतर चलना कठिन है।  होता यह है कि दूसरे की उपलब्धि देखकर वैसे बनने की तो कोई भी ठान लेता है पर उसने अपने लक्ष्य पाने में क्या पापड़ बेले यह किसी को नहीं दिखाई देता।  उसने लक्ष्य प्राप्ति के लिये कितना परिश्रम करते हुए अपमान और तिरस्कार सहा होगा यह वही जानते है।  जिन्होंने  बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है उसके पीछे उनका धीरज और एकाग्रता बहुत बड़ा योगदान होता है।

इसके अलावा एक बात यह भी है कि बहुत कम लोगों में धीरज होता है। आज कल संक्षिप्त मार्ग से उपलब्धि प्राप्त करने की परंपरा चल पड़ी है। अगर किसी युवक को धीरज या शांति से काम करने का उपदेश दें तो वह यही कहते हैं कि‘आजकल तो फटाफट का जमाना है।’

वह लगे रहते हैं फटाफट उपलब्धि प्राप्त करने में  पर वह कभी लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते।  अनेक युवक इसी तरह अपराध मार्ग पर चले जाते हैं।  उसके परिणाम बुरे होते हैं।

जिनको अपना जीवन सात्विक ढंग से शांतिपूर्वक बिताना है उनको समुद्र मंथन के अध्यात्मिक धार्मिक उदाहरण से प्रेरणा लेना चाहिये।

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भर्तृहरि शतक-धनहीन होने पर भी विद्वान रत्न के समान (garib vidvan bhee ratna saman-hindu dharma sandesh)


शास्त्रोपस्कृतशब्द सुंदरगिरः शिष्यप्रदेयाऽऽगमा विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभर्निर्धनाः।
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयस्त्वर्थ विनाऽपीश्वराः कुत्स्या स्युः कुपरीक्षका हि मणयो यैरर्घतः पातिताः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ग्रंथों का अध्ययन से उसमें वर्णित शब्दों के ज्ञान को धारण कर सुंदर वाणी बोलने के साथ ही शिष्यों को उनका उपदेश करने वाले विद्वान तथा काव्य की मधुर धारा प्रवाहित करने वाले कवि जिस राज्य में निर्धन होते हैं, उसका राजा या राज्य प्रमुख अयोग्य कहा जाता है। विद्वान धनहीन होने पर भी रत्न के समान है और उसका सम्मान सभी जगह होता है और जो ऐसे रत्नों का अपमान करता है वह निंदा योग्य है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इस संदेश को आज की नई सभ्यता में देखें तो यह दायित्व पूरे समाज का है कि वह लोगों को तत्व ज्ञान तथा सत्य का उपदेश देने वाले विद्वानो के साथ ही कवियों और लेखकों को भी संरक्षण दे। राज्य प्रमुख का तो यह उच्चतर दायित्व है पर आजकल जिस तरह पूंजीवाद ने व्यापक आधार बनाया है तो उसके शिखर पुरुषों को भी इस तरह ध्यान देना चाहिए। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शिखरों पर बैठे माननीय लोगों की उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि आजकल समाज में कोई अपने बच्चे को अध्यात्मिक ज्ञान न तो देना चाहता है न ही किसी से प्राप्त करने के लिये प्रेरित करता है। यही हाल साहित्य का है। इस देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो अपने लड़के या लड़की का किसी भी भाषा का लेखक होना पसंद करे-सिवाय अंग्रेजी के। इसका कारण यही है कि हमारे उच्च शिखर पुरुषों ने यह मान लिया है कि समाज को वैचारिक, साहित्यक तथा अध्यात्मिक मार्ग पर आगे ले जाने वाले विद्वानों, कवियों और लेखकों को संरक्षण देने की आवश्यकता नहीं है। उनकी उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि समाज में हर कोई अपने बच्चे को चिकित्सक, अभियंता, उच्च श्रेणी का अध्यापक तथा प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहता है जो अधिक से अधिक धन का स्वयं दोहन कर सके क्योंकि विद्वानों या लेखकों को आश्रय देने वाला कोई नहीं है।
इसी कारण हमारे समाज में एक ‘खिचड़ी संस्कृति’ बन गयी है। आपने देखा होगा कि आजकल अनेक लोग यह शिकायत करते हैं कि ‘बुढ़ापे में बच्चे उनकी देखभाल नहीं करते।’ उनसे पूछिये कि ‘क्या आप इसके लिये जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि आपने ही ऐसे संस्कार नहीं दिये।’
हमारे शिखर पुरुष कानून के द्वारा समाज को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह एक बेकार का प्रयास है। एक तरफ आप पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण न केवल स्वयं कर रहे बल्कि अपने बच्चों को भी उस पर चलते देखना चाहते हैं। फिर उनसे देशी व्यवहार की आशा करना कहां तक उचित है?
देश की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रक्रिया में विद्वानों की निष्क्रियता समाज के लिये घातक होती है, इसलिये जितना हो सके सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक शिखर बैठे लोग उनको संरक्षण दें या फिर समाज के बिगड़ने का रोना बंद कर दें।
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भर्तृहरि शतक-जब आदमी धन की गरमी से रहित हो जाता है (money and socity-hindu dharm sandesh)


 यसयास्ति वित्तं स नरः कुलीन स पण्डित स श्रुतवान्गुणज्ञः।

स एव वक्ता स च दर्शनीयः।

सर्वे गुणा कांचनमाश्रयन्ति।।

हिन्दी में भावार्थ-जिस मनुष्य के पास माया का भंडार उसे ही कुलीन, ज्ञानी, गुणवान माना जाता है। वही आकर्षक है। स्पष्टतः सभी के गुणों का आंकलन उसके धन के आधार पर किया जाता है।

तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिप्रतिहता वचनं तदेव।

अर्थोष्मणा विरहितः पुरुष क्षणेन सोऽप्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।

हिन्दी में भावार्थ-एक जैसी इंद्रियां, एक जैसा नाम और काम, एक ही जैसी बुद्धि और वाणी पर फिर भी जब आदमी धन की गरमी से क्षण भर में रहित हो जाता है। इस धन की बहुत विचित्र महिमा है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह समाज भर्तृहरि महाराज के समय में भी था और आज भी है। हम बेकार में परेशान होकर कहते हैं कि ‘आजकल का जमाना खराब हो गया है।’ सच बात तो यह है कि सामान्य मनुष्य की प्रवृत्तियां ही ऐसी है कि वह केवल भौतिक उपलब्धियां देखकर ही दूसरे के गुणों का अंाकलन करता है। इधर गुणवान मनुष्य अपने अंदर गुणों का संचय करते हुए इतना ज्ञानी हो जाता है कि वह इस बात को समझ लेता है कि उनसे ही उसके जीवन की रक्षा होगी। इसलिये वह समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये कोई अधिक प्रयास नहीं करता। उधर अल्पज्ञानी और ढोंगी लोग थोड़ा पढ़लिखकर सामान्य व्यक्तियों के सामने अपनी चालाकियों के सहारे उन्हीं से धन वसूल कर प्रतिष्ठित भी हो जाते हैं। यह अलग बात है कि इतिहास हमेशा ही उन्हीं महान लोगों को अपने पन्नों में दर्ज करता है जिन्होंने अपने गुणों से वास्तव में समाज को प्रभावित किया जाता है।

इसका एक दूसरा पहलू भी है। अगर हमारे पास अधिक धन नहीं है तो इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए। समाज के सामान्य लोगों की संकीर्ण मानसिकता का विचार करके अपने सम्मान और असम्मान की उपेक्षा कर देना चाहिए।  जिसके पास धन है उसे सभी मानेंगे। आप अच्छे लेखक, कवि, चित्रकार या कलाकार हैं पर उसकी अगर भौतिक उपलब्धि नहीं होती तो फिर सम्मान की आशा न करें। इतना ही नहीं अगर आप परोपकार के काम में लगे हैं तब भी यह आशा न करें  कि बिना दिखावे के आपको कोई सम्मान करेगा। सम्मान या असम्मान से उपेक्षा करने के बाद आपके अंदर एक आत्मविश्वास पैदा होगा जिससे जीवन में अधिक आनंद प्राप्त कर सकेंगे।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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संत कबीर वाणी-तत्वज्ञान के बिना जीवन अंधियारा (sant kabir vani-tatvagyan)


कबीर गुरु की भक्ति बिन, राज ससभ होय।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय।।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना राजा भी गधा होता है जिस पर कुम्हार दिन भर मिट्टी लादेगा और कोई घास भी नहीं डालेगा।
चौसठ दीवा जाये के, चौदह चन्दा माहिं।
तेहि घर किसका चांदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि चौसठ कलाओं और चौदह विद्याओं की जानकारी होने पर पर अगर सत्गुरु का ज्ञान नहीं है तो समझ लीजिये अंधियारे में ही रह रहे हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज में बढ़ती भौतिकतावादी प्रवृत्ति ने अध्यात्मिक ज्ञान से लोगों को दूर कर दिया है। हालांकि टीवी चैनलों, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं में अध्यात्मिक ज्ञान विषयक जानकारी प्रकाशित होती है पर व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये लिखी गयी उस जानकारी में तत्व ज्ञान का अभाव होता है। कई जगह तो अध्यात्मिक ज्ञान की आड़ में धार्मिक कर्मकांडों का प्रचार किया जा रहा है। इसके अलावा टीवी चैनलों में अनेक बाबाओं के अध्यात्मिक प्रवचनों के कार्यक्रम भी प्रस्तुत होते हैं पर उनका उद्देश्य केवल मनोरंजन करना ही है। वैसे भी समाज में ऐसे गुरुओं का अभाव है जो तत्वज्ञान प्रदान कर सकें क्योंकि उसके जानने के बाद तो मनुष्य का हृदय निरंकार में लीन हो जाता है जबकि पेशेवर धर्म विक्रेता अपने शब्दों को सावधि जमा में निवेश करते हैं जिससे कि वह हमेशा पैसा और सम्मान वसूल करते रहें। कभी कभी तो लगता है कि लोग धर्म के नाम पर केवल शाब्दिक बोझा अपने सिर पर ढो रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि मनुष्य के हृदय में अगर तत्वज्ञान स्थापित हो जाये तो वह अपने सांसरिक कार्य निर्लिप्त भाव से कार्य करते हुए किसी की परवाह नहीं करता जबकि सभी लोग चाहते हैं कि कोई उनकी परवाह करे। तत्वाज्ञान के अभाव में मनुष्य को एक तरह से गधे की तरह जीवन का बोझ ढोना पड़ता है। यह बात समझ लेना चाहिये कि जीवन तो सभी जीते हैं पर तत्वाज्ञानियों के चेहरे पर जो तेज दिखता है वह सभी में नहीं होता।

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श्रीगुरु ग्रंथ साहिब से-अहंकार अनेक रोगों की जड़ है (ahanakr ek rog-shri guru granth sahib)


जह गिआन प्रगासु अगिआन मिटंतु।
हिन्दी में भावार्थ-
गुरु ग्रंथ साहिब के मतानुसार जिस प्रकार अंधेरे को दूर करने के लिये चिराग की आवश्यकता होती है उसी तरह अज्ञान रूपी अंधेरे को दूर करने के लिये प्रकाश आवश्यक है।
‘हउमै नावै नालि विरोध है, दोए न वसहि इक थाई।।’
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण अहंकार है और इससे अन्य बुराईयां भी पैदा होती है।
‘हउमै दीरघ रोग है दारु भी इस माहि।
किरपा करे जो आपणी ता गुर का सब्दु कमाहि।।’
हिन्दी में भावार्थ-
अहंकार एक भयानक रोग है जिसकी जड़ें बहुत गहरे तक फैल जाती हैें। इसका इलाज गुरु की कृपा से प्राप्त शब्द ज्ञान से ही संभव हो सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सभी जानते हैं कि अहंकार करना एक बुराई है पर इस रोग को पहचानना भी कठिन है। इसकी वजह यह है कि पंच तत्वों से बनी इस देह में मन और बुद्धि के साथ अहंकार की प्रकृत्ति भी स्वयंमेव बनती है। अनेक बार एक मनुष्य को दूसरे का अहंकार दिखाई देता है पर स्वयं का नहीं। इतना ही नहीं जब कोई व्यक्ति आक्रामक होकर दूसरों के विरुद्ध विषवमन करता है तब सभी लोग उसे अहंकारी कहते हैं जबकि सच यह है कि अहंकार कभी न कभी किसी में आता है या यूं कहें कि यह सभी में रहता है।
किसी भी कर्म में अपने कर्तापन की अनुभूति करना ही अहंकार है। जब मन में यह विचार आये कि ‘मैंने यह किया’ या ‘वह किया’ तब समझ लीजिये कि वह हमारे अंदर बैठा अहंकार बोल रहा है। फिर इससे आगे यह भी होता है कि जब हम किसी का कार्य करते हैं और उसका प्रतिफल भौतिक रूप से नहीं मिलता तब भारी निराशा घेर लेती है। आजकल आप किसी से भी चर्चा करिये वह अपने रिश्तेदारेां, मित्रों और सहकर्मियों के विश्वासघात की शिकायत करता मिलेगा। अहंकार का एक रूप यह भी है कि किसी से एक मनुष्य का काम कर दिया तो वह इस कारण भी उसका काम नहीं करता क्योंकि उसको लगता है कि वह छोटा हो जायेगा-अधिकतर लोग ऐसे भी हैं जो दूसरे के द्वारा कार्य करने पर अहसान मानने की बजाय हक अनुभव करते हैं तो कुछ लोगों को लगता है कि उनके गुणों के कारण कोई स्वार्थवश सेवा कर रहा है तो यह हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण है। यही अहंकार मनुष्यों के बीच संघर्ष का कारण बनता है। समस्या इसे पहचानने की है।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-सत्पुरुषों से मित्रता कभी व्यर्थ नहीं जाती (bhale logon ki dosti-hindu dharam sandesh)


 आदौ तन्त्र्यो बृहन्मध्या विस्तारिण्यः पदे पदे।

यामिन्यो न निवर्तन्ते सतां मैत्र्यः सरित्समाः।।

हिन्दी में भावार्थ-मुख से सू़क्ष्म, मध्य में विस्तृत फिर आगे विस्तार से निरंतर बहने वाली नदी के समान ही सत्पुरुषों की मित्रता कभी व्यर्थ नहीं जाती।

औरसं कृतसम्बद्ध तथा वंशक्रमागतं।

रक्षितं व्यसनेभ्यभ्व मित्रं ज्ञेयं चतुर्विधं।।

हिन्दी में भावार्थ-मनुष्य के जीवन में चार प्रकार के सहोदर, संबंधी, परंपरा तथा व्यसनों से रक्षित मित्र होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्रों के चार प्रकार होते हैं जिनमें एक तो वह बंधु होते हैं जिनसे रक्त संबंध होता है। दूसरे वह जो रिश्ते में होते हैं। तीसरे वह होते हैं जो पारंपरिक पारिवारिक  संबंधों के कारण बनते हैं। चौथे वह जो एक ही जैसे व्यसनों के कारण बनते हैं।  दरअसल मित्रता के अर्थ व्यापक हैं और इसके आगे सारे संबंध व्यर्थ हो जाते हैं। यही कारण है कि रिश्तों के खटास हो जाती है पर मित्रता अक्षुण्ण रहती है क्योंकि उसमें कोई स्वार्थ नहीं होता।

महत्वपूर्ण बात यह है कि सज्जन पुरुषों में कभी प्रत्यक्ष तात्कालिक स्वार्थ पूरा होता नहीं दिखता पर समय पड़ने पर वही सबसे अधिक काम आते हैं।  इसके विपरीत जिनसे व्यसनों के कारण संबंध हैं वह तभी तक चलते हैं जब तक वह मनुष्य में बने रहते हैं।  कार्यस्थलों पर साथ चाय या शराब पीने को लेकर अनेक मित्र समूह बन जाते हैं पर जैसे ही कार्यस्थल बदलता है या व्यसन छूटता है वैसे ही वह मित्रता भी छूट जाती है। आजकल समस्या यही है कि लोग ऐसी सतही मित्रता में ही सत्य ढूंढते हैं और सत्पुरुषों से मित्रता करना उनको एक फालतू विषय लगता है जबकि वही ऐसे होते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के समय पर संकट निवारण का कार्य करते हैं।


 

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संत कबीर वाणी-निंदक तो नकटा होता है (nindak bura hota hai-sant kabir vani)


निन्दक ते कुत्ता भला, हट कर मांडे शर
कुत्ते ते क्रोधी बुरा, गुरू दिलावै गार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी का कहना है कि निन्दक से कुत्ता भला है जो दूर होकर भौंकता है। इतना ही नहीं कुत्ते से बुरा वह क्रोधी व्यक्ति है जो अपने गुरु को अपने आचरण के कारण गाली पड़वाता है।
निन्दक तो है नाक बिन, सोहै नकटो मांहि।
साधूजन गुरुभक्त जो, तिनमें सोहै नांहि।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी के मतानुसार निन्दक तो बिना नाक वाला है। वह नकटों में ही शोभा पता है। जो साधु प्रवृत्ति के लोग हैं वह नकटों में नहीं शोभा पा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह दूसरे की निंदा कर अपने को श्रेष्ठ साबित करता है। यह इतनी स्वाभाविक है कि इसका आभास थोड़ा बहुत अध्यात्मिक ज्ञान रखने को भी घेर लेती है। किसी दूसरे के दुर्गुण का बखान या पीड़ा का मजाक उड़ाना अत्यंत निकृष्ट कार्य है पर इससे कौन बच पाता है। स्थिति यह है कि आजकल प्रचार माध्यमों में दूसरे के दोषों या पीड़ाओ का बखान एक व्यवसायिक प्रवृत्ति बन गयी है। अपने दोष कोई नहीं देखता। दूसरे के व्यक्तित्व का नकारात्मक अध्ययन कर लोग बहुत प्रसन्न होते हैं जबकि आत्ममंथन कर अपने दोष देखने का काम किसी को न करना आता न ही करना चाहते हैं। कहना चाहिये कि हम एक तरह से नकटे समुदाय के सदस्य हैं।
अक्सर लोग कुत्ते को लेकर तमाम तरह की टिप्पणियां करते हैं पर उसका यह गुण है कि वह दूर होकर भौंकता है पर काटता नहीं जबकि इंसान की स्थिति तो उससे भी बदतर है कि वह न केवल पास रहकर भी दूसरे के सामने निंदा करता है और जरूरत समझे तो एक ही थाली में खाकर विश्वासघात भी करता है। सच बात तो यह है कि दूसरे की निंदा करना ही एक पाप है। यह अलग बात है कि इसका ज्ञान तो सभी देते हैं पर इस राह पर बड़े बड़े संत भी नहीं चल पाते। जिसे मनुष्य जीवन का पूरा आनंद प्राप्त करना है वह अगर परनिंदा छोड़ दे तो इस धरती पर ही स्वर्ग की अनुभूति अनुभव करता है।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मुख से कभी कटु वाणी न बोलें (hindu dharm sandesh-kabhi katu vani n bolen)


वाक्पारुध्यपरं लोक उद्वेजनमनर्थकम्।
न कुर्यात्प्रियया वाचा प्रकुर्याज्जगदात्मताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब मनुष्य अपनी वाणी में कठोरता बरतता है तब उससे सुनने वाले लोग उत्तेजित होते हैं। यह अनर्थकारी है, अतः ऐसी वाणी न बोलें तथा मीठी वाणी बोलकर सभी को अपने वश में करें।
हृदये वागस्तिीक्षणो मर्मच्छिद्धि पतन्मुहुः।
तेन च्छिन्नोनरपतिः स दीप्तो याति वैरिताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब वाणी रूप कटार से किसी मनुष्य का हृदय विदीर्ण होता है तो वह क्रोध में आकर बदला लेने के लिये तैयार होता है। आहत मनुष्य कटु वाक्य बोलने वाले से बैर बांध लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-मनुष्य की पहचान उसके बोलने से ही हो जाती है। कोई पढ़ा लिखा है या नहीं इसका पता वार्तालाप के दौरान सहजता से किया जा सकता है। उसी तरह जब कोई आदमी बोलता है तो उसके शब्दों को मन में तोलें तो उसकी मानसिकता उजागर हो जाती है। इतना ही नहीं अगर कोई व्यक्ति हमसे कटु भाषा में बर्ताव करे तो उसके प्रति बदले का भाव भी पैदा हमारे अंदर भी होता है। यह विचार करते हुए हमें दूसरों से सदैव मधुर वाक्यों का प्रयोग करते हुए बातचीत करना चाहिये क्योंकि जब हम किसी को सहन नहीं कर सकते तो दूसरा हमें सहन क्यों करेगा? अनेक वाद विवाद तो केवल इसलिये हो जाते हैं कि लोग एक दूसरे से कटु भाषा का प्रयोग करते हैं। मसला इतना गंभीर नहीं होता जितना शब्दों के प्रयोग से बन जाता है। समाचार पत्रोें में छपी खबरों के अनुसार परिवार, मोहल्ले, कालोनी तथा शहरों में केवल मुंहवाद को लेकर ही हिंसा हो जाती है। ऐसे झगड़ों की वजह ढूंढने निकलें तो लगता है कि वह इतनी बड़ी नहीं थी जितनी हिंसा हुई। यह अंतिम सत्य है कि हिंसा की तरह कटु वाणी से भी किसी का हल नहीं निकलता।
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समाज जड़ नहीं है-आलेख (samajik chetna-hindi article)


जहां तक विद्वान लोगों का ज्ञान है वह इस बात की पुष्टि नहीं करता कि इस देश का पूरा समाज मूर्ख और रूढ़िवादी हैं और जिस तरह पिछले साठ वर्षों से पर जिस तरह राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक रूप से कुछ मुद्दे पेशेवर समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने तय कर रखे हैं , उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया उससे तो लगता है कि वह यहां के आम आदमी को ऐसा ही समझते हैं। उनकी बहसें और प्रचार से तो ऐसा लगता है कि जैसे यहां का समाज बौद्धिकरूप से जड़ है और यह उन भ्रम उन विद्वानों को भी हो सकता है जो ज्ञान होते हुए भी कुछ देर अपना दिमाग इस तरह की बहसों और प्रचारित विषयों को देखने सुनने में लगा देते हैं। दरअसल जब राजनीति, समाज सेवा और अध्यात्मिक ज्ञान देना एक व्यापार हो गया हो तब यह आशा करना बेकार है कि इन क्षेत्रों में सक्रिय महानुभाव अपने प्रयोक्तओं या उपभोक्ताओं के समक्ष अपनी विक्रय कला का प्रदर्शन कर उनको प्रभावित न करें। हम उन पर आक्षेप नहीं कर सकते क्योंकि प्रयोक्ताओं और उपभोक्ताओं को भी अपने ढंग से सोचना चाहिये। अगर आम आदमी कहीं इस तरह के व्यापारों में सेद्धांतिक और काल्पनिक आदर्शवाद ढूंढता हो तो दोष उसमें उसकी सोच का है।
हां, हम इसी सोच की बात करने जा रहे हैं जो हमारे लिये महत्वपूर्ण है। जिस तरह इस देह में स्थित मन के लिये दां मार्ग है एक रोग का दूसरा योग का तो बुद्धि के लिये भी दो मार्ग है एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। जब बुद्धि सकारात्मक मार्ग पर चलती है तब मनुष्य के अंतर्मन में कोई नयी रचना करने का भाव आने के साथ ही तार्किक ढंग से विचार करने की शक्ति पैदा होती है। जब बुद्धि नकारात्मक मार्ग का अनुसरण करती है तब मनुष्य कोई चीज तोड़ने को लालायित होता है और तर्क श्क्ति से तो उसका कोई वास्ता हीं नहीं रह जाता-वह असहज हो जाता है। यही असहजता उसे ऐसे मार्ग पर ले जाती है जहां उसका ऐसे ही भावनाओं के व्यापारी उसका भौतिक दोहन करते हैं जो स्वयं भी अनेक कुंठाओं और अशंकाओं का शिकार होते हैं और धन संचय में उनको अपने जीवन की सुरक्षा अनुभव होती है।
अपने स्वार्थ के कारण ही आर्थिक, सामाजिक तथा वैचारिक शिखर पर बैठे शीर्ष पुरुष समाज में ऐसे विषयों का प्रतिपादन करते हैं जिनसे समाज की बुद्धि उनके अधीन रहे और नये विषय या व्यक्ति कभी समाज में स्थापित न हो पायें-एक तरह से उनका वंश भी उनके बनाये शिखर पर विराजमान रहे। वह अपने प्रयास में सफल रहते हैं क्योंकि समाज ऐसे ही कथित श्रेष्ठ पुरुषों का अनुसरण करता है। अगर कोई सामान्य वर्ग का कोई चिंतक उनको नयेपन की बात कहे तो पहले वह उसकी भौतिक परिलब्धियों की जानकारी लेते है। सामान्य लोगों की भी यही मानसिकता है कि जिसके पास भौतिक उपलब्धियां हैं वही श्रेष्ठ व्यक्ति है।
बहरहाल यही कारण है कि बरसों से बना एक समाज है तो उसकी बुद्धि को व्यस्त रखने वाले विषय भी उतने ही पुराने हैं। मनुष्य द्वंद्व देखकर खुश होता है तो उसके लिये वैसे विषय हैं। उसी तरह उनमें कुछ लोग सपने देखने के आदी हैं तो उनको बहलाने के लिये काल्पनिक कथानक भी बनाये गये। इनमें भी बदलाव नहीं आता।
पिछले एक सदी से इस देश मेें भाषा, जाति, धर्म, और क्षेत्र के नाम पर विवाद खड़े किये गये। उनका लक्ष्य किसी समाज का भला करने से अधिक उसके नाम पर चलने वाले अभियानों के मुखियाओं का द्वारा अपने घर भरना था। ऐसा करते हुए वह नये देवता बनते नजर आने लगे। सच बात तो यह है कि इस दुनियां में कभी भी कोई अभियान बिना माया के नहीं चल सकता। फिर जो लोग दावा करते हैं कि वह अमुक समूह का भला कर रहे हैं उनका कृत्य देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह काम निस्वार्थ कर रहे हैं। ऐसे में बार बार एक ही सवाल आता है कि कौन लोग हैं जो उनको धन प्रदान कर रहे हैं। तय बात है कि यह धन उन्हीं मायावी लोगों द्वारा दिया जाता होगा जो इस समाज को सैद्धांतिक मनोरंजन प्रदान करने के लिये उनका आभार मानते हैं।
अभियान चल रहे हैं। आंदोलन इतने पुराने कि कब शुरु हुए उनका सन् तक याद नहीं रहता। आंदोलन के मुखिया देह छोड़ गये या इसके तैयार हैं तो उनके परिवार के पास वह विरासत में जाता है। पिता नहीं कर सका वह पुत्र करेगा-यानि समाज सेवा, अध्यात्मिक ज्ञान तथा कलाजगत का काम भी पैतृक संपदा की तरह चलने लगा है।
सत्य और माया का यह खेल अनवरत है। ऐसा नहीं है इस संसार में ज्ञानी लोगों की कमी है अलबत्ता उनकी संख्या इतनी कम है कि वह समाज को बनाने या बिगाड़ने की क्षमता नहीं रखते। वैसे भी कहीं किसी नये विषय या वस्तु का सृजन चाहता भी कौन है? अमन में लोग जीना भी कहां चाहते हैं। अमन तो स्वाभाविक रूप से रहता है इसलिये लोग तो शोर चाहते हैं। ऐसा छोर जो उनको अंदर तक प्रसन्न कर सके। यह काम तो व्यापारी ही कर सकते हैं। इसके अलावा लोगों को चाहिये अनवरत अपने दिल बहलाने वाला विषय! यह तभी संभव है जब उसे अनावश्यक खींचा जाये-टीवी चैनलों में सामाजिक कथानकों को विस्तार देने के लिये यही जाता है। यह विस्तार बहस करने के लायक विषयों में अधिक नहीं हो सकता क्योंकि उसमें तो नारे और वाद ही बहुत है। समाज को नारी, बालक, वृद्ध, जवान, बीमार, भूखा, बेरोजगार तथा अन्य शीर्षकों के अंदर बांटकर उनके कल्याण का नारा देकर काम चल जाता है। इसके अलावा इतनी सारी भाषायें हैं जिसके लिये अनेक सेवकों की आवश्यकता पड़ती है जो सेवा करते हुए स्वामी बन जाते हैं। ऐसा हर सेवक अपनी भाषा, जाति, धर्म तथा क्षेत्र के विकास और उसकी रक्षा के लिये जुटा है।
मगर क्या वाकई लोग इतने भोले हैं! नहीं! बात दरअसल यह है कि इस देश का आदमी कहीं न कहीं से अपने देश के अध्यात्मिक ज्ञान से सराबोर है। वह यह सब मनोरंजन के रूप में देखता है। सामने नहीं कहता पर जानता है कि यह सब बाजारीकरण है। यही कारण है कि कोई भी बड़ा आंदोलन या अभियान चलता है तब उसमें लोगों की संख्या सीमित रहती है। वह इसलिये अधिक दिखते हैं क्योंकि वह शोर करते हैं। शोर करने वाला दिखता है पर शांति रखने वाले की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। पिछले अनेक महापुरुषों को पौराणिक कथानकों के नायकों की तरह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा हैं इतने सारी पुण्यतिथियां और जन्म दिन घोंिषत किये गये हैं कि लगता है कि सदियों में नहीं बल्कि हर वर्ष एक महापुरुष पैदा होता है। लोग सुनते हैं पर देखते और समझते नहीं है। यह जन्म दिन और पुण्यतिथियां उन लोगों के नाम पर भी बनाये गये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के पुरोधा समझे जाते हैं जिसमें जन्म और मृत्यु को दैहिक सीमा में रखा गया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उसकी अवधारणा को यह कहकर खारिज किया गया है कि आत्मा तो अमर है। जो लोग बचपन से ऐसे कार्यक्रम देख रहे हैं वह जानते हैं कि आम आदमी इनसे कितना जुड़ा है। हालांकि इसका परिणाम यह हो गया है कि लोगों ने अपने अपने जन्म दिन मनाना शुरु कर दिया है। प्रचार माध्यमों ने अति ही कर दी है। हर दिन उनके किसी खिलाड़ी या फिल्म सितारे का जन्म दिन होता है जिससे उनको उस पर समय खर्च करने का अवसर मिल जाता है। काल्पनिक महानायकों से पटा पड़ा है प्रचार माध्यमों को पूरा जाल।
इसके बावजूद एक तसल्ली होती है यह देखकर कि काल्पनिक व्यवसायिक महानायकों का कितना भी जोरशोर से प्रचार किया जाता है पर उससे आम आदमी अप्रभावित रहता है। वह उन पर अच्छी या बुरी चर्चा करता है पर उसके हृदय में आज भी पौराणिक महानायक स्थापित हैं जो दैहिक रूप से यहां भले ही मौजूद न हों पर इंसानों के दिल में उनके लिये जगह है। यह काल्पनिक व्यवसायिक नायक तभी तक उसकी आंखो में चमककर उसकी जेब जरूर खाली करा लें जब तक वह देह धारण किये हुए हैं उसके बाद उनको कौन याद रखता है। सतही तौर पर जड़ समाज अपने अंदर चेतना रखता है यह संतोष का विषय है भले ही वह व्यक्त नहीं होती।
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मनुस्मृति-धैर्य न रखने से जीवन पतित हो जाता है (dhiraj aur jivan-manu smriti)


कुमिकीटवधोहत्या मद्यानुगतभोजनम्।
फलेन्धनकुसुमस्तयमधैर्य च मलावहम्।।
हिंदी में भावार्थ-
कोई भी मनुष्य कीड़े मकोड़ों तथा पक्षियों की हत्या कर , मदिरा के साथ मांस का भक्षण कर, ईंधन व फूलों को चुराकर तथा जीवन में धैर्य न रखकर पतित हो जाता है।
ब्राह्म्णस्य रुजकृत्वा घ्रातिरघ्रेयमद्ययोः।
जैह्मयं च मैथुनं पुंसिजातिभ्रंशकरं स्मृतम।।
हिंदी में भावार्थ-
डंडे से पीटकर किसी पीड़ा देना, मदिरादि दुर्गंधित पदार्थों को सूंघना, कुटिलता करना तथा पुरुष से मैथुन करना जैसे पाप मनुष्य जाति के लिये भयंकर हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनु स्मृति का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि उनके युग में जिन कृत्यों और चीजों को पाप कहा जाता था वह अब आधुनिक सभ्यता का प्रतीक बन गये हैं। मदिरा के साथ मांस के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं समलैंगिकता के नाम पर आज की नयी पीढ़ी को इस तरह गुमराह किया जा रहा है जैसे कि यह कोई नया फैशन हो। देहाभिमान मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और यही उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की वजह से दिमागी रूप से बंधक बना देती है। स्वतंत्रता के नाम पर वह एक उपभोक्ता बनकर रह जाता है। मगर उसका सबसे बड़ा भयंकर रूप आजकल समलैंगिकता के लिये आजादी के अभियान के रूप में दिख रहा है जैसे कि यह कोई एसा काम हो जो महान आनंद देने वाला है। सभी जानते हैं कि दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति की एक सीमा है। एक समय के बाद भौतिकता से आदमी का मन ऊबने लगता है और ऐसे में उसे अध्यात्मिक शांति की आवश्यकता होती है पर उसे कोई समझ नहीं पाता। यही कारण है कि समाज में लोगों का मानसिक संताप बढ़ रहा है और उसके कारण अनेक प्रकार की नयी बीमारियां जन्म ले रही हैं।
हमारे यहां शादी को एक संस्कार कहा जाता है। इसमें दिये जाने वाले भोजों के अवसर पर मदिरा और मांस का सेवन करने की किसी परंपरा की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं है पर आज उसे एक फैशन मानकर अपनाया जा रहा है। जहां हमारी संस्कृति की बात आती है तो हम अपने परिवारिक परंपराओं और संस्कारों का उदाहरण देते हैं पर यह केवल उपरी आवरण है जो दुनियां को दिखा रहे हैं पर सच यह है कि आधुनिकता के नाम पर कालिख उन पर हमने स्वयं ही पोती है।
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संत कबीर वाणी-परमात्मा के नाम के मतवालों में मद नहीं होता (bhakti aur ahankar-sant kabirdas ke dohe)


राता माता नाम का, मद का माता नांहि।
मद का माता जो फिरै, सौ मतवाला काहि।

संत कबीरदास का कहना है कि जो भक्त परमात्मा का नाम लेता है वह कभी मद में नहीं आता। वह तो भगवान की भक्ति में मतवाला रहकर हर चीज से अंजान हो जाता है। जो मद में चूर है वह भला कहां मतवाला हो सकता है।
राता माता नाम का पीया पे्रम अघाय।
मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय।।
संत कबीरदास जी का कहना है कि जो भक्त परमात्मा के नाम का अनुरागी है वह उसका रस पीकर तृप्त होता है। उसमें तो केवल भगवान के दर्शन का प्यास होती है, वह मोक्ष प्राप्त करने का विचार भी नहीं करता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कभी कभी तो यह लगता है कि कुछ लोग धर्म का ढोंग करते हैं। वह दूसरों पर प्रभाव जमाने के लिये भक्ति करते हैं। उनके जुबान पर भगवान का नाम आता है और वहीं से बाहर चला जाता है। उनके हृदय में तो केवल माया का वास होता है।
जिनमें भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा होती है वह चुपचाप घर में रहकर या मंदिर में जाकर उसका नाम लेते हुए पूजा या ध्यान करते हैं। अपने यहां हर शहर और मोहल्ले में मंदिर होते हैं जहां करोड़ों लोग चुपचाप जाकर अपनी श्रद्धा के अनुसार परमात्मा का नाम लेते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जो दिन या वार के हिसाब से तमाम तरह के आयोजन कर यह दिखाते हैं कि वह भगवान के भक्त हैं। भगवान के नाम पर आयोजन करने के लिये वह चंदा लेते हैं। कहीं कहीं तो ऐसे लोग मंदिरों के निर्माण के लिये पैसा भी वसूल करते हैं। सरकारी जमीन पर कब्जा कर धार्मिक स्थान बनाने की परंपरा चल पड़ी है। इसमें सभी धर्मों के लोग शामिल हैं। ऐसे लोगों का भगवान की भक्ति का भाव नहीं होता बल्कि इस तरह वह नाम और धन का अपने लिये संग्रह करते हैं। जिनका भगवान के प्रति अगाध विश्वास है वह चुपचाप रहते हैं। किसी को दिखाने का न तो उनमें मोह होता है न ही विचार आता है। वह तो मतवाले होते हैं और जो दिखावे मेें यकीन करते हैं उनको मद आ जाता है।
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चाणक्य नीति-भोजन की नहीं धर्म संग्रह की चिंता करें (bhojan aur dharm-chankya neeti in hindi)


नाहारं  चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्।

आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते।।

हिन्दी में भावार्थ-विद्वान मनुष्य  को भोजन तथा अन्य प्रकार की सभी चिंताएं छोड़कर केवल धर्म संग्रह की चिंता करना चाहिए। आहार की चिंता क्या करना वह तो मनुष्य के जन्मते ही उत्पन्न हो जाता है।

वयसः परिणामेऽयः खलः खलः एव सः।

सुपक्वमपि माधुर्य नोपयातीन्द्रवारुणम्।।

हिन्दी में भावार्थ-अवस्था के परिपक्व हो जाने पर जिस मनुष्य में दुष्टता की प्रवृत्ति होती है उसमें फिर कभी बदलाव नहीं आता जैसे अत्यंत पक जाने पर इन्द्रायण  के  फल में मिठास नहीं आता बल्कि वह कड़वा ही बना रहता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने भोजन की इतनी अधिक चिंता करता है उतनी शायद पशु भी नहीं करते। स्थिति यह होती है कि उसने अपने परिवार के लिये पूरे जीवन के लिये भोजन की व्यवस्था कर ली तो फिर उसे आने वाली पीढ़ियों के भोजन की चिंता लग जाती है। भूख से मरने का भय उसे हमेशा सताता है और इसलिये हमेशा डरते हुए जीवन गुजारता है।  सच तो यह है कि यह संभावित भूख उसे गुलाम बनाये रखती है।  जबकि वास्तविकता यह है कि मनुष्य को अपने धर्म संग्रह की चिंता करना चाहिये क्योंकि भोजन तो उसके जन्मते ही उत्पन्न हो जाता है।

मनुष्य में जो गुण बचपन में पड़ गया फिर उसे वह परे नहीं होता। उसी तरह दुर्गुण भी स्थापित हो गया तो वह उससे कभी मुक्त नहीं हो सकता।  कहने वाले जरूर कहते हैं कि बड़े होकर बच्चा सुधर जायेगा पर यह केवल आशा ही है।   इसलिये परिवार के बच्चों को हमेशा अच्छे संस्कार डालने का प्रयास करना चाहिये। बड़े होने पर उनसे आशा तभी की जा सकती है।

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