‘कबीर’दुविधा दूरि करि, एक अंग है लागि।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि।।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि मन की दुविधा को दूर करो। एक परमात्मा का ही स्मरण करो। वही शीतलता भी प्रदान करता है तो आग जैसा तपाता भी है। अगर सांसरिक मोह और भगवान भक्ति में बीच में फंसे रहोगे तो दोनों तरफ आग अनुभव होगी।
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग।
भंडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग।।
भंडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग।।
संत कबीरदास जी का कहना है कि अपनी भूख को लेकर परेशान क्यों होते हो? सभी के सामने अपने संकट का बयान करने से कोई लाभ नहीं है। जिसने मुख दिया है उसने पेट भरने के योग का निर्माण भी कर दिया है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब मनुष्य के मन में कर्तापन का बोध बढ़ने लगता है तो उसें अहंकार का भाव पैदा होता है और जिसकी वजह से उसे अनेक बार भारी निराशा मिलती है। मनुष्य सोचता है कि वह अपना काम स्वयं कर रहा है। उसके मन में अपने कर्म फल को पाने की तीव्र इच्छा पैदा हो जाती है और जब वह पूर्ण न हो तब वह निराशा हो जाता है। अनेक लोग इस संशय में पड़े रहते हैं कि हम अपने कर्म के फल का प्रदाता भगवान को माने या स्वयं ही उसे प्राप्त करने के लिये अधिक प्रयास करें। वह भगवान की भक्ति तो करते हैं पर अपने जीवन को दृष्टा की तरह न देखते हुए अपने कर्म फल के लिये स्वयं अपनी प्रशंसा स्वयं करते हैं। यह कर्तापन का अहंकार उन्हें सच्ची ईश्वर भक्ति से परे रखता है।
ईश्वर भक्ति के लिये विश्वास होना चाहिये। अपने सारे कर्म परमात्मा को समर्पित करते हुए जीवन साक्षी भाव से बिताने पर मन में अपार शांति मिलती है। किसी कार्य में परिणाम न मिलने या विलंब से मिलने की दशा में तो निराशा होती है या उतावली से हानि की आशंका रहती है। अतः अपने नियमित कर्म करते हुए परमात्मा की भक्ति करने के साथ ही उसे कर्म प्रेरक और परिणाम देने वाला मानते हुए विश्वास करना चाहिये।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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