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२ अक्टुबर महात्मा गाँधी जयंती पर विशेष हिंदी लेख-अध्यात्म की दृष्टि से महापुरुषों का महत्व


          2 अक्टोबर को महात्मा गांधी की जयंती है।  आधुनिक भारतीय इतिहास में महात्मा गांधी को पितृपुरुष के रूप में दर्ज किया गया है।  हम जब  भारत की बात करते हैं तो एक बात भूल जाते हैं कि प्राचीन  समम में इसे भारतवर्ष कहा जाता था।  इतना ही नहीं पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा अफगानिस्तान, भूटान, श्रीलंका, माले तथा वर्मा मिलकर हमारी पहचान रही है।  अब यह सिकुड़ गयी है।  भारतवर्ष से प्रथक होकर बने देश अब भारत शब्द से ही इतना चिढ़ते हैं कि वह नहीं चाहते  शेष विश्व उनको भारतीय उपमहाद्वीप माने।  इस तरह भारतवर्ष सिकुड़कर भारत रह गया है।  उसमें भी अब इंिडया की प्रधानता है।  इंडिया हमारे देश की पहचान वाला वह शब्द है जिसे पूरा विश्व जानता है। भारत वह है जिसे हम मानते हैं।  यह वही भारत है जिसका आधुनिक इतिहास है 15 अगस्त से शुरु होता है।  यह अलग बात है कि कुछ राष्ट्रवादी अखंड भारत का स्वप्न देख रहे हैं।
     बहरहाल विघटित भारतवर्ष के शीर्ष पुरुषों में महात्मा गाधंी का नाम पूज्यनीय है।  उन्होंने भारत की राजनीतिक आजादी की लड़ाई लड़ी।  इसका अर्थ केवल इतना था कि भारत का व्यवस्था प्रबंधन यहीं के लोग संभालें।  संभव है कुछ लोग इस तर्क को  संकीर्ण मानसिकता का परिचायक माने पर तब उन्हें यह जवाब देना होगा देश की आजादी के बाद भी अंग्रेजों के बनाये ढेर सारे कानून अब तक क्यों चल रहे हैं?  देश के कानून ही व्यवस्था के मार्गदर्शक होते हैं और तय बात है कि हमारी वर्तमान आधुनिक व्यवस्था का आधार अंग्रेजों की ही देन है।
       महात्मा गांधी ने अपना सार्वजनिक जीवन दक्षिण अफ्रीका   में प्रारंभ हुआ था। वहां गोरों के भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष में जो उन्होंने जीत दर्ज की उसका लाभ यहां के तत्कालीन स्वतंत्रता संग्राम आंदोलनकारियों ने उठाने के लिये उनको आमंत्रित किया।  तय बात है कि किसी भी अन्य क्षेत्र में लोकप्रिय चेहरों को सार्वजनिक रूप से प्रतिष्ठत कर जनता को संचालित करने का सिलसिला यहीं से शुरु हुआ जो आजतक चल रहा है।  अगर महात्मा गांधी इंग्लैंड से अपनी पढ़ाई प्रारंभ कर भारत लौटते तो यकीनन उस समय स्वतंत्रता संग्राम के तत्कालीन शिखर पुरुष उनको अपने अभियान में सम्म्लिित होने का आंमत्रण नहीं भेजते।
             महात्मा  गाँधी  का जीवनकाल  हम जैसे लोगों के जन्म से बहुत पहले का है।  उन पर जितना भी पढ़ा और जाना उससे लेकर उत्सुकता रहती है। फिर जब चिंत्तन का कीड़ा कुलबुलाता है तो कोई नयी बात नहीं निकलती। इसलिये आजकल के राजनीतिक और सामाजिक हालात देखकर अनुमान करना पड़ता है क्योंकि व्यक्ति बदलते हैं पर प्रकृति नहीं मिलती।  यह अवसर अन्ना हजारे साहब ने प्रदान किया।  वैसे तो अन्ना हजारे स्वयं ही महात्मा गांधी के अनुयायी होने की बात करते हैं पर उन्होंने ही सबसे पहले भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के दौरान यह कहकर आश्चर्यचकित किया कि अब वह दूसरा स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘हमें तो अधूरी आजादी मिली थी‘।  ऐसे में हमारे जैसे लोगों किंकर्तव्यमूढ़ रह जाते हैं।  प्रश्न उठता है कि फिर महात्मा गांधी ने किस तरह की आजादी की जंग जीती थी।  अगर अन्ना हजारे के तर्क माने जायें तो फिर यह कहना पड़ेगा कि उन्हें इतिहास एक ऐसे युद्ध के विजेता नायक के रूप में प्रस्तुत करता है जो अभी तक समाप्त नहीं हुआ है।  अनेक लोग अन्ना हजारे की गांधी से तुलना पर आपत्ति कर सकते हैं पर सच यही है कि उनका चरित्र भी विशाल रूप ले चुका है।  उन्होंने भी महात्मा गांधी की तरह राजनीतिक पदों के प्रति अपनी अरुचि दिखाई है।  सादगी, सरलता और स्पष्टतवादिता में वह अनुकरणीण उदाहरण पेश कर चुके हैं। हम जैसे निष्पक्ष और स्वतंत्र लेखक उनकी गतिविधियों में इतिहास को प्राकृतिक रूप से दोहराता हुआ देख रहे हैं। इसलिये भारतीय दृश्य पटल पर स्थापित बुद्धिजीवियों, लेखकों और प्रयोजित विद्वानों का कोई तर्क स्वीकार भी नहीं करने वाले।
               महात्मा गांधी को कुछ विद्वानों ने राजनीतिक संत कहा।  उनके अनुयायी इसे एक श्रद्धापूर्वक दी गयी उपाधि मानते हैं पर इसमें छिपी सच्चाई कोई नहीं समझ पाया।  महात्मा गांधी भले ही धर्मभीरु थे पर भारतीय धर्म ग्रंथों के विषय में उनका ज्ञान सामान्य से अधिक नहीं था।  अहिंसा का मंत्र उन्होंने भारतीय अध्यात्म से ही लिया पर उसका उपयोग  एक राजनीति अभियान में उपयोग करने में सफलता से किया। मगर यह नहीं भूलना चाहिए  पूरे विश्व के लिये वह अनुकरणीय हैं। यह अलग बात है कि जहां अहिंसा का मंत्र सीमित रूप से प्रभावी हुआ तो वहीं राजनीति प्रत्येक जीवन का एक भाग है सब कुछ नहीं।  अध्यात्म की दृष्टि से तो राजनीति एक सीमित अर्थ वाला शब्द है।  यही कारण है कि अध्यात्मिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण कार्य न करने पर महात्मा गांधी का परिचय एक राजनीतक संत के रूप में सीमित हो जाता है।  अध्यात्मिक दृष्टि से महात्मा गांधी कभी श्रेष्ठ पुरुषों के रूप में नहीं जाने गये।  जिस अहिंसा मंत्र के लिये शेष विश्व उनको प्रणाम करता है उसी के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर जैसे परम पुरुष इस धरती पर आज भी उनसे अधिक श्रद्धेय हैं।  कई बार ऐसे लगता है कि महात्मा गांधी वैश्विक छवि और राष्ट्रीय छवि में भारी अंतर है। वह अकेले ऐसे महान पुरुष हैं जिनको पूरा विश्व मानता है पर भारत में भगवान राम, श्रीकृष्ण, महात्मा बुद्ध तथा  महावीर जैसे परमपुरुष आज भी जनमानस की आत्मा का भाग हैं।  इतना ही नहीं गुरुनानक देव, संत कबीर, तुलसीदास, रहीम, और मीरा जैसे संतों की  भी भारतीय जनमानस में ऊंची छवि है। धार्मिक और सामाजिक रूप से स्थापित परम पुरुषों के  क्रम में कहीं महात्मा गांधी का नाम जोड़ा नहीं जाता।  एक तरह से कहें कि कहीं न कहीं महात्मा गांधी वैश्विक छवि की वजह से अपनी छवि यहां बना पाये।
                महात्मा गांधी जब एक रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे तब एक गोरे अधिकारी ने उनको उस बोगी से उतार दिया क्योंकि वह गोरे नहीं थे।  उसके बाद उन्होंने जो अपना जीवन जिया वह एक ऐसी वास्तविक कहानी है जिसकी कल्पना  उस समय बड़े से बड़ा फिल्मी पटकथा लेखक भी नहीं कर सकता था।  उनकी पृष्ठभूमि पर ही शायद बाद में जीरो से हीरो बनने की कहानियां फिल्मों पर आयी होंगी।  उनके जीवन से प्रेरणा लेकर एक स्वाभिमानी व्यक्ति बना जा सकता है।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि भोगी नहीं त्यागी बड़ा होता है। महात्मा गांधी ने सभ्रांत जीवन की बजाय सादा जीवन बिताया। यह उस महान त्याग था क्योंकि उस समय अंग्रेजी जीवन के लिये पूरा समाज लालायित हो रहा था।  उन्होंने सरल, सादा सभ्य जीवन गुजारने की प्रेरणा दी। ऐस महापुरुष को भला कौन सलाम ठोकना नहीं चाहेगा।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”
Gwalior madhyapradess
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior

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गुलामी कभी छिप नहीं पाएगी-हिन्दी कविता (gulami kabhi chhip nahin jayegi-hindi kavita)


ओहदा दर ओहदा
कितनी भी सीढ़ियां चढ़कर
पहाड़ जैसी हैसियत बना लो,
तुम्हारी गुलामी फिर भी छिप नहीं पायेगी।
आजाद होकर जिंदा रहने की
तुम्हारी कभी ललक नहीं दिखी,
दस्तखत केवल उसी कागज पर किये
जिस पर केवल दौलत की इबारत लिखी,
कमजोरों पर अजमाये हाथ
मगर ताकतवरों के तलुव चाटने वाली
तुम्हारी असली तस्वीर ज़माने से छिप नहीं पायेगी।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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आसमान से रिश्ते तय होकर आते हैं-हिन्दी कविताएँ


उधार की रौशनी में
जिंदगी गुजारने के आदी लोग
अंधेरों से डरने लगे हैं,
जरूरतों पूरी करने के लिये
इधर से उधर भगे हैं,
रिश्त बन गये हैं कर्ज जैसे
कहने को भले ही कई सगे हैं।
————–
आसमान से रिश्ते
तय होकर आते हैं,
हम तो यूं ही अपने और पराये बनाते हैं।
मजबूरी में गैरों को अपना कहा
अपनों का भी जुर्म सहा,
कोई पक्का साथ नहीं
हम तो बस यूं ही निभाये जाते हैं।
————–
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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सबसे अधिक कायर लोग नायक बनाये जाते हैं-हिन्दी हास्य व्यंग्य कवितायें


कायरों की सेना क्या युद्ध लड़ेगी
सबसे अधिक कायर लोग नायक बनाये जाते हैं।
कुछ खो जाने के भय से सहमे खड़े है
भीड़ में भेड़ों की तरह लोग,
चिंता है कि छिन न जायें
तोहफे में मिले मुफ्त के भोग,
इसलिये लुटेरे पहरेदार बनाये जाते हैं।
————
अब तो पत्थर भी तराश कर
हीरे बनाये जाते हैं,
पर्दे पर चल रहे खेल में
कैमरे की तेज रोशनी में
बुरे चेहरे भी सुंदरता से सजाये जाते हैं।
ख्वाब और सपनों के खेल को
कभी हकीकत न समझना,
खूबसूरत लफ्ज़ों की बुरी नीयत पर न बहलना,
पर्दे सजे है अब घर घर में
उनके पीछे झांकना भी मुश्किल है
क्योंकि दृश्य हवाओं से पहुंचाये जाते हैं।
————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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पसीने के आगे खिताब बौने-हिन्दी शायरी (paseena aur khitab-hindi shayri)


चिल्लाने वाले सिरफिरों को

उस्ताद के खिताब मिलने लगे हैं,

दूसरों के इशारों पर नाचने वाले पुतलों में

लोगों को अदाकारी के अहसास दिखने लगे हैं।

बेच खाया जिन्होंने मेहनतकशों का इनाम

दरियादिली के नकाब के वही पीछे छिपने लगे हैं।

औकात नहीं थी जिनकी जमाने के सामने आने की,

जो करते हमेशा कोशिश, अपने पाप सभी से छिपाने की,

खिताबों की बाजार में,  ग्राहक की तरह मिलने लगे हैं।

जिन्होंने पाया है सर्वशक्तिमान से सच का नूर,

अंधेरों को छिपाती रौशन महफिलों से रहते हैं दूर,

दुनियां के दर्द को भी अब हंसी में लिखने लगे हैं।

सच में किया जिन्होंने पसीने से दुनियां को रौशन

सारे खिताब उनके आगे अब बौने दिखने लगे हैं।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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माँगा जो हिसाब-हास्य व्यंग और कविता (hisab-hindy hasya vyang aur kavia)


दीपक बापू अपने घर से बाहर निकले ही थे कि सेवक ‘सदाबहार’जी मिल गये। दीपक बापू ने प्रयास यह किया कि किसी तरह उनसे बचकर निकला जाये इसलिये इस मुद्रा में चलने लगे जैसे कि किसी हास्य कविता के विषय का चिंतन कर रहे हों जिसकी वजह से उनका ध्यान सड़क पर जा रहे किसी आदमी की तरफ नहीं है। मगर सदाबहार समाज सेवक जी हाथ में कागज पकड़े हुए थे और उनका काम ही यही था कि चलते चलते शिकार करना। वह कागज उनके रसीद कट्टे थे जिसे लोग पिंजरा भी कहते हैं।
‘‘ऐ, दीपक बापू! किधर चले, इतना बड़ी हमारी देह तुमको दिखाई नहंी दे रही। अरे, हमारा पेट देखकर तो तीन किलोमीटर से लोग हमको पहचान जाते हैं और एक तुम हो कि नमस्कार तक नहीं करते।’उन्होंने दीपक बापू को आवाज देकर रोका
उधर दीपक बापू ने सोचा कि’ आज पता नहीं कितने से जेब कटेगी?’
उन्होंने समाज सेवक जी से कहा-‘नमस्कार जी, आप तो जानते हो कि हम तो कवि हैं इसलिये जहां भी अवसर मिलता है कोई न कोई विषय सोचते हैं। इसलिये कई बार राह चलते हुए आदमी की तरफ ध्यान नहीं जाता। आप तो यह बतायें कि यह कार यात्रा छोड़कर कहां निकल पड़े?’
सेवक ‘सदाबहार’जी बोले-अरे, भई कार के बिना हम कहां छोड़ सकते हैं। इतना काम रहता है कि पैदल चलने का समय ही नहीं मिल पाता पर समाज सेवा के लिये तो कभी न कभी पैदल चलकर दिखाना ही पड़ता है। कार वहां एक शिष्य के घर के बाहर खड़ी की और फिर इधर जनसंपर्क के लिये निकल पड़े। निकालो पांच सौ रुपये। तुम जैसे दानदाता ही हमारा सहारा हो वरना कहां कर पाते यह समाज सेवा?’
दीपक बापू बोले-‘किसलिये? अभी पिछले ही महीने तो आपका वह शिष्य पचास रुपये ले गये था जिसके घर के बाहर आप कार छोड़कर आये हैं।’
सेवक ‘सदाबहार’-अरे, भई छोटे मोटे चंदे तो वही लेता है। बड़ा मामला है इसलिये हम ले रहे हैं। उसने तुमसे जो पचास रुपये लिये थे वह बाल मेले के लिये थे। यह तो हम बाल और वृद्ध आश्रम बनवा रहे हैं उसके लिये है। अभी तो यह पहली किश्त है, बाकी तो बाद में लेते रहेंगे।’
दीपक बापू ने कहा-‘पर जनाब! आपने सर्वशक्तिमान की दरबार बनाने के लिये भी पैसे लिये थे! उनका क्या हुआ?
सदाबहार जी बोले-‘अरे, भई वह तो मूर्ति को लेकर झगड़ा फंसा हुआ है। वह नहीं सुलट रहा। हम पत्थर देवता की मूर्ति लगवाना चाहते थे पर कुछ लोग पानी देवता की मूर्ति लगाने की मांग करने लगे। कुछ लोग हवा देवी की प्रतिमा लगवाने की जिद्द करने लगे।’
दीपक बापू बोले-‘‘तो आप सभी की छोटी छोटी प्रतिमायें लगवा देते।’
सदाबहार जी बोले-कैसी बात करते हो? सर्वशक्तिमान का दरबार कोई किराने की दुकान है जो सब चीजें सजा लो। अरे, भई हमने कहा कि हमने तो पत्थर देवता के नाम से चंदा लिया है पर लोग हैं कि अपनी बात पर अड़े हुए हैं। इसलिये दरबार का पूरा होना तो रहा। सोचा चलो कोई दूसरा काम कर लें।’
दीपक बापू बोले-पर सुना है कि उसके चंदे को लेकर बहुत सारी हेराफेरी हुई है। इसलिये जानबूझकर झगड़ा खड़ा किया गया है। हम तो आपको बहुत ईमानदार मानते हैं पर लोग पता नहीं आप पर भी इल्जाम लगा रहे हैं। हो सकता है कि आपके चेलों ने घोटाला किया हो?
सदाबहार जी एक दम फट पड़े-‘क्या बकवाद करते हो? लगता है कि तुम भी विरोधियों के बहकावे मंें आ गये हो। अगर तुम्हें चंदा न देना हो तो नहीं दो। इस संसार में समाज की सेवा के लिये दान करने वाले बहुत हैं। तुम अपना तो पेट भर लो तब तो दूसरे की सोचो। चलता हूं मैं!’
दीपक बापू बोले-हम आपकी ईमानदारी पर शक कर रहे हैं वह तो आपके चेले चपाटों को लेकर शक था!
सदाबहार जी बोले-ऐ कौड़ी के कवि महाराज! हमें मत चलाओ! हमारे चेले चपाटों में कोई भी ऐसा नहीं है। फिर हमारे विरोधी तो हम पर आरोप लगा रहे हैं और तुम चालाकी से हमारे चेलों पर उंगली उठाकर हमें ही घिस रहे हो! अरे, हमारे चेलों की इतनी हिम्मत नहीं है कि हमारे बिना काम कर जायें।’
दीपक बापू बोले-‘मगर मूर्ति विवाद भी तो उन लोगों ने उठाया है जो आपके चेले हैं। हमने उनकी बातें भी सुनी हैं। इसका मतलब यह है कि वह आपके इशारे पर ही यह विवाद उठा रहे हैं ताकि दरबार के चंदे के घोटाले पर पर्दा बना रहे।’
सर्वशक्तिमान बोले-‘वह तो कुछ नालायक लोग हैं जिनको हमने घोटाले का मौका नहीं दिया वही ऐसे विवाद खड़ा कर रहे हैं। हमसे पूछा चंदे के एक एक पैसे का हिसाब है हमारे पास!
दीपक बापू बोले-‘तो आप उसे सार्वजनिक कर दो। हमें दिखा दो। भई, हम तो चाहते हैंें कि आपकी छबि स्वच्छ रहे। हमें अच्छा नहीं लगता कि आप जो भी कार्यक्रम करते हैं उसमें आप पर घोटाले का आरोप लगता है।
सदाबहार जी उग्र होकर बोले-‘देखो, कवि महाराज! अब हम तो तुम से चंदा मांगकर कर पछताये। भविष्य में तो तुम अपनी शक्ल भी नहीं दिखाना। हम भी देख लेंगे तो मुंह फेर लेंगे। अब तुम निकल लो यहां से! कहां तुम्हारे से बात कर अपना मन खराब किया। वैसे यह बात तुम हमारे किसी चेले से नहीं कहना वरना वह कुछ भी कर सकता है।’
सदाबहार जी चले गये तो दीपक बापू ने अपनी काव्यात्मक पंक्तियां दोहराई।
हमारी कौड़ियों से ही उन्होंने
अपने घर सजाये
मांगा जो हिसाब तो
हमें कौड़ा का बता दिया।
खता बस इतनी थी हमारी कि
हमने सच का बयां किया।’
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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हांड़मांस के इंसान-हिंदी हास्य कविताएँ (insan aur nat-hasya kavita)



पर्दे पर आंखों के सामने
चलते फिरते और नाचते
हांड़मांस के इंसान
बुत की तरह लगते हैं।
ऐसा लगता है कि
जैसे पीछे कोई पकड़े है डोर
खींचने पर कर रहे हैं शोर
डोर पकड़े नट भी
खुद खींचते हों डोर, यह नहीं लगता
किसी दूसरे के इशारे पर
वह भी अपने हाथ नचाते लगते हैं
………………………
चारो तरफ मुखौटे सजे हैं
पीछे के मुख पहचान में नहीं आते।
नये जमाने का यह चालचलन है
फरिश्तों का मुखौटा शैतान लगाते।

……………………
भ्रम को सच बताकर

वह जमाने को बहला रहे हैं।

जज्बातों के सौदागर

दर्द यूं मु्फ्त में नहीं सहला रहे हैं।

आंखें हैं तुम्हारी तरफ

पर हाथ फैले हैं पीछे की तरफ

जहां से बटोर कर नकदी

अपनी जेब में ला रहे हैं

आज के युग में सिद्ध कोई नहीं है

सब खुद को किंग कहला रहे हैं।

………………………………….

कितना असली और कितना नकली

किसकी पहचान करें।

अपने बारे में ही होने लगे

अब ढेर सारे शक

पहले उनसे तो उबरें।

……………………….

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बहसों के दौर -व्यंग्य कविता (bahas aur bazar-hindi vyangya kavita)


सभागार के तले
मंच पर चले
बहसों के दौर
सुबह और शाम।
दिन पर चले पर नतीजा सिफर
छलकते हैं फिर भी रात को जाम।

अक्लमंदों की महफिल सजती है
उनकी दिमागी बोतल से
निकलते हैं लफ्ज
ऊपर लगी है मुद्दों की छाप
बाहर आते ही उड़ जाते बनकर भाप
मशहूर हो जाते बस यूं ही नाम।

बंद कमरे में हुई बहस
बाजार में बिकने आ जाती है
जमाने में छा जाती है
किसी नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद है बेकार
नहीं चली बहस आगे
तो जज्बातों के सौदागार हो जायेंगे बेजार
इसलिये मुद्दे बार बार
चमकाये जाते हैं
कभी लफ्ज तो कभी छाप
बदलकर सामने आते हैं
अक्लमंद करते हैं बहस
पीछे बाजार करता है अपना काम।
इसलिये जिस शय को बाजार में बेचना है
उस पर जरूरी है बंद कमरे में
पहले बहस कराने का काम।
……………………..

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डरपोक और कमअक्ल -व्यंग्य कविता (akhri sach-hindi vyangya kavita)


डरपोक लोगों के समाज में
बहादुर बाहर से किराये पर लाये जाते हैं.
किसी गरीब को न देना पड़े मुआवजा
इसलिए किसी की कुर्बानी
कहाँ दी गयी
इससे न होता उनका वास्ता
उधार के शहीदों के गीत
चौराहे पर गाये जाते हैं.

कमअक्लों की महफ़िल में
बाहरी अक्लमंदों के
चर्चे सुनाये जाते हैं
किसी कमजोर की पीठ थपथपाने से
अपनी इज्जत छोटी न हो जाए
इसलिए उनको दिए इसके दाम
सभी के सामने सुनाये जाते हैं.
घर का ब्राह्मण बैल बराबर
ओन गाँव का सिद्ध
यूंही नहीं कहा जाता
दौलतमंदों और जागीरदारों की चौखट पर
हमेशा नाक रगड़ने वाले समाज की
आज़ादी एक धोखा लगती है
फिर भी उसके गीत गाये जाते हैं.
———————
उसने कहा ”मैं आजाद हूँ
खुद सोचता और बोलता हूँ.”
उसके पास पडा था किताबों का झुंड
हर सवाल पर
वह ढूंढता था उसमें ज़वाब
फिर सुनाते हुए यही कहता कि
‘वही आखिर सच है जो मैं कहता हूँ

————————

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

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