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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-आलस्य छोड़कर नियत समय पर काम प्रारंभ करना श्रेयस्कर


न कार्यकालं मतिमानतिक्रामेत्कदायन।
कथञ्चिदेव भवति कार्ये योगः सुदृर्ल्लभः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ज्ञानी और बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि अपने कार्य को निश्चित समय पर पूरा करे और इसमें किसी प्रकार की कोताही न बरते। कारण यह कि किसी भी कार्य में मन लगाना दुर्लभ है। फिर जीवन में संयोग बार बार नहीं आते।
सतां मार्गेण मतिमान् काले कर्म्म समाचरेत्।
काले समाचरन्साधु रसवत्फल्मश्नुते।।
हिन्दी में भावार्थ-
ज्ञानी और बुद्धिमान मनुष्य को सत्य मार्ग पर स्थिर होकर समय आने अपना कार्य निश्चित रूप से आरंभ करना चाहिऐ। समय पर कार्य करने पर सारे फल प्रकट होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य स्वभाव में आलस्य का भाव स्वाभाविक रूप से रहता है। संत कबीर दास जी ने कहा भी है कि ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में प्रलय हो जायेगी बहुरि करेगा कब।’ हर मनुष्य सोचता है कि अपना काम तो वह कभी भी कर सकता है पर ऐसा सोचते हुए उसका समय निकलता जाता है। चतुर मनुष्य इस बात को जानते हैं इसलिये ही वह विकास के पथ पर चलते हैं। अक्सर लोग अपनी असफलता और निराशा को लेकर भाग्य को कोसते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि विकास का समय हर आदमी के पास आता है और जो अपने ज्ञान और विवेक से उसका लाभ उठाते हैं उनकी पीढ़ियों का भी भविष्य सुधर जाता है। संसार में सफल और प्रभावशाली व्यक्त्तिव का स्वामी, उद्योगपति, तथा प्रतिष्ठाप्राप्त लोगों की संख्या आम लोगों से कम होती है इसका कारण यह है कि सभी लोग समय का महत्व नहीं समझते और आलस्य के भाव से ग्रसित रहते हैं।
जीवन में निरंतर सक्रिय रहने से मनुष्य के चेहरे और मन में स्फूर्ति बनी रहती है और बड़ी आयु होने पर भी उसका अहसास नहीं होता। आलस्य मनुष्य का एक बड़ा शत्रु माना जाता है इसलिये उससे मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर है। कोई काम सामने आने पर उसको तुरंत प्रारंभ कर देना चाहिये यही जीवन में सफलता का मूलमंत्र है। 

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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,Gwalior
Editor-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
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भर्तृहरि नीति शतक-बदलाव दुनिया का स्वाभाविक नियम (badlav ka niyam-hindu dharma sandesh)


महाराज भर्तृहरि अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर कहते हैं 
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परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्

हिंदी में भावार्थ-परिवर्तन होते रहना संसार का नियम। जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु होना निश्चित है। जन्म लेना उसका ही सार्थक है जो अपने कुल की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है अर्थात समस्त समाज के लिये ऐसे काम करता है जिससे सभी का हित होता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर आदमी को किसी से भय लगता है तो वह अपने आसपास परिवर्तन आने के  से। उसे लगता है कि कोई उसकी जगह लेगा और उसका असितत्व मिट जाएगा।  कहीं भाषा तो कहीं धर्म और कहीं क्षेत्र के विवाद आदमी के हृदय में व्याप्त इसी भय की भावना का दोहन करने की दृष्टि से उन समूहों  के प्रमुख  उपयोग करते हैं। कई लोगों के हृदय में ऐसे भाव आते है जैसे- अगर पास का मकान बिक गया तो लगता है कि पता नहीं कौन लोग वहां रहने आयेंगे और हमसे संबंध अच्छे रखेंगे कि नहीं। उसी तरह कई लोग स्थान परिवर्तन करते हुए भय से ग्रस्त होते हैं कि पता नहीं कि वहां किस तरह के लोग मिलेंगे। जाति के आधार पर किसी दूसरे जाति वाले का भय पैदा किया जाता है कि अमुक जाति का व्यक्ति अगर यहां आ गया तो हमारे लिए विपत्ति खड़ी कर सकता है। अपने क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र से आये व्यक्ति का भय पैदा किया जाता है कि अगर वह यहाँ जम गया तो हमारा अस्तित्व खत्म कर देगा। कहने का अभिप्राय यह है कि बदलाव इस दुनिया का स्वाभाविक नियम है। कुछ  बुद्धिजीवी समाज में बदलाव लाने के लिए प्रयत्नशील दीखते हैं। कोई जातिपति मिटा रहा है तो कोई गरीबी से लड़ रहा है कोई अन्याय के विरुद्ध अभियान चला रहा है, यह सब दिखावा है। प्रकृति समय के अनुसार स्वत: बदलाव लाती है और मनुष्य के बूते कुछ नहीं है सिवाय दिखावा करने के।
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संकलक,लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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संत कबीरदास के दोहे-स्वयं ठग जायें, पर दूसरे को न ठगे(sant kabir das ke dohe-khud kisi ko na thagen)


कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय
आप ठगै सुख, ऊपजै और ठगे दुख होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर आपको कोई ठग जाता है तो कोई बात नहीं है, पर आप स्वयं किसी को ठगने का प्रयास मत करो। हम ठग जायें तो एक तरह से इस बात का तो सुख होता है कि हमने स्वयं कोई अपराध नहीं किया पर अगर हम किसी दूसरे को ठगते हैं तो मन में अपने पकड़े जाने का भय होता है और कभी न कभी तो उसका दंड भी भोगना पड़ता है।
जो तोको काटा बुवै, ताहि बुवै तू फूल
तोहि फूल को फूल है, वाको है तिरशूल
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जो अगर कोई व्यक्ति तुम्हारे लिए कांटे बोता है, तुंम उसके लिए फूल बोओ। तुम्हारे तो फूल हमेशा ही फूल होंगे परंतु उसके लिये कांटे तिरशूल की तरह उसको लगेंगे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ऐसा लगता है कि दूसरों को ठगने वाले लोग सुखी हैं, पर यह वास्तविकता नहीं है। जिन लोगों ने दूसरों के प्रति अपराध कर संपत्ति बनाई है उनको भी कहीं न कहीं मन में भय रहता है और कभी न कभी उनको दंड भोगना ही पड़ता है। यह दंड किसी भी प्रकार का हो सकता है। उनकी संतानें अयोग्य होतीं हैं या उनके घर मे बीमारियों का वास रहता है। पकड़े जाने पर सामाजिक रूप से भी वह अपमानित होते हैं। इसलिये स्वयं हमें किसी को ठगने का प्रयास नहीं करना चाहिए। हां, कभी स्वयं ठगे जाते हैं तब धन या वस्तु खोने का क्षणिक दुःख होता है पर समय के साथ उसे भूल जाते हैं पर अगर किसी और को हम ठगते हैं तो वह अपराध हमारे हृदय में शूल की तरह चुभा रहता है और इससे जीवन में हम सदैव विचलित रहते है।
जब हमारे पास धन संपदा का अभाव होता है तब अनेक विचलित होकर यह विचार करते हैं कि दूसरे अमीरों की तरह ठगी का व्यापार प्रारंभ कर दें। ऐसा कर नहीं पाते पर मन को व्यर्थ संताप देकर हम पाते भी कुछ नहीं है। सच बात तो यह है कि यहां गरीब सुखी नहीं है तो अमीर भी कोई आराम से रह नहीं पाते। पैसे से सुख मिलने का विचार केवल एक दृष्टिभ्रम है। आजकल तो ऐसी अनेक घटनायें हो रही हैं जिनमें बड़े बड़े भ्रष्टाचारी जेल की सींखचों के अंदर पहुंच जाते हैं। उनकी लूट की रकम की इतनी होती है कि सामान्य चोर भी शरमा जाये। कहने का अभिप्राय यह है कि लोगों के साथ ठगी करने से वाले कभी न कभी कहीं न कहीं दंड भोगते हैं। अतः भले ही कोई हमें ठग ले पर दूसरे को ठगने का प्रयास हमें नहीं करना चाहिए।

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कबीरदास जी के दोहे-मनुष्य की खोपड़ी उल्टा काम करती है (mind of men-kabir sandesh)


कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीवन जिसके पास बुद्धि में विवेक है इसलिये वह कुछ नया निर्माण कर सकता है। अपनी बुद्धि की वह से ही वह अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता है। सच तो यह कि परमात्मा ने उसे इस संसार पर राज्य करने के लिए ही बुद्धि दी है पर लालच और लोभ के वश में आदमी अपनी बुद्धि गुलाम रख देता है। वह कभी भी धन प्राप्ति के कार्य से थकता नहीं है। अगर हजार रुपये होता है तो दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख की चाहत करते हुए उसकी लालच का क्रम बढ़ जाता है। कई बार तो ऐसे लोग भी देखने में आ जाते है जिनके पेट में दर्द अपने खाने से नहीं दूसरे को खाते देखने से उठ खड़ा होता है।
अनेक धनी लोग जिनको चिकित्सकों ने मधुमेह की वजह से खाने पर नियंत्रण रखने को कहा होता है वह गरीबों को खाता देख दुःखी होकर कहते भी हैं‘देखो गरीब होकर खा कैसे रहा है’। इतना ही नहीं कई जगह ऐसे अमीर हैं पर निर्धन लोगों की झग्गियों को उजाड़ कर वहां अपने महल खड़े करना चाहते हैं। आदमी एक तरह से विकास का गुलाम बन गया है। भक्ति भाव से पर आदमी बस माया के चक्कर लगाता है और वह परे होती चली जाती है। सौ रुपया पाया तो हजार का मोह आया, हजार से दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख के बढ़ते क्रम में आदमी चलता जाता है और कहता जाता है कि अभी मेरे पास कुछ नहीं है दूसरे के पास अधिक है। मतलब वह माया की सीढियां चढ़ता जाता है और वह दूर होती जाती है। इस तरह आदमी अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है।
आजकल तो जिसे देखो उस पर विकास का भूत चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि इस देश में शिक्षा की कमी है पर जिन्होने शिक्षा प्राप्त की है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्होंने ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। इसलिये शिक्षित आदमी तो और भी माया के चक्कर में पड़ जाता है और उसे तो बस विकास की पड़ी होती है पर उसका स्वरूप उसे भी पता नहीं होता। लोगों ने केवल भौतिक उपलब्धियों को ही सबकुछ मान लिया है और अध्यात्म से दूर हो गये हैं उसी का परिणाम है कि सामाजिक वैमनस्य तथा मानसिक तनाव बढ़ रहा है।
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इसका नाम ही क्रिकेट है-हिन्दी व्यंग्य लेख


उफ! यह क्रिकेट है! इस समय क्रिकेट खेल को देखकर जो विवाद चल रहा है उसे देखते हुए दिल में बस यही बात आती है कि ‘उफ! यह क्रिकेट है!
इस खेल को देखते हुए अपनी जिंदगी के 25 साल बर्बाद कर दिये-शायद कुछ कम होंगे क्योंकि इसमें फिक्सिंग के आरोप समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपने के बाद मन खट्टा हो गया था पर फिर भी कभी कभार देखते थे। इधर जब चार वर्ष पूर्व इंटरनेट का कनेक्शन लगाया तो फिर इससे छूटकारा पा लिया।
2006 के प्रारंभ में जब बीसीसीआई की टीम-तब तक हम इसे भारत की राष्ट्रीय टीम जैसा दर्जा देते हुए राष्ट्रप्रेम े जज्बे के साथ जुड़े रहते थे-विश्व कप खेलने जा रही थी तो सबसे पहला व्यंग्य इसी पर देव फोंट में लिखकर ब्लाग पर प्रकाशित किया था अलबता यूनिकोड में होने के कारण लोग उसे नहीं पढ़ नहीं पाये। शीर्षक उसका था ‘क्रिकेट में सब कुछ चलता है यार!’
टीम की हालत देखकर नहंी लग रहा था कि वह जीत पायेगी पर वह तो बंग्लादेश से भी हारकर लीग मैच से ही बाहर आ गयी। भारत के प्रचार माध्यम पूरी प्रतियोगिता में कमाने की तैयारी कर चुके थे पर उन पर पानी फिर गया। हालत यह हो गयी कि उसकी टीम के खिलाड़ियों द्वारा अभिनीत विज्ञापन दिखना ही बंद हो गये। जिन तीन खिलाड़ियों को महान माना जाता था वह खलनायक बन गये। उसी साल बीस ओवरीय विश्व कप में भारतीय टीम को नंबर एक बनवाया गया-अब जो हालत दिखते हैं उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है क्योंकि क्रिकेट के सबसे अधिक ग्राहक (प्रेमी कहना मजाक लगता है) भारत में ही हैं और यहां बाजार बचाने के लिये यही किया गया होगा। उस टीम में तीनों कथित महान खिलाड़ी नहीं थे पर वह बाजार के विज्ञापनों के नायक तो वही थे। एक बड़ी जीत मिल गयी आम लोग भूल गये। कहा जाता है कि आम लोगों की याद्दाश्त कम होती है और क्रिकेट कंपनी के प्रबंधकों ने इसका लाभ उठाया और अपने तीन कथित नायकों को वापसी दिलवाई। इनमें दो तो सन्यास ले गये पर वह अब उस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में खेलते हैं। अब पता चला है कि यह प्रतियोगिता तो ‘समाज सेवा’ के लिये आयोजित की जाती है। शुद्ध रूप से मनोरंजन कर पैसा बटोरने के धंधा और समाज सेवा वह भी क्रिकेट खेल में! हैरानी होती है यह सब देखकर!
आज इस बात का पछतावा होता है कि जितना समय क्रिकेट खेलने में बिताया उससे तो अच्छा था कि लिखने पढ़ने में लगाते। अब तो हालत यह है कि कोई भी क्रिकेट मैच नहीं देखते। इस विषय पर देशप्रेम जैसी हमारे मन में भी नहीं आती। हम मूर्खों की तरह क्रिकेट देखकर देशप्रेम जोड़े रहे और आज क्रिकेट की संस्थायें हमें समझा रही हैं कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। यह अलग बात है कि टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाओं जब भारत का किसी दूसरे देश से मैच होता है तो इस बात का प्रयास करते हैं कि लोगों के अंदर देशप्रेम जागे पर सच यह है कि पुराने क्रिकेट प्रेमी अब इससे दूर हो चुके हैं। क्रिकेट कंपनियों की इसकी परवाह नहीं है वह अब क्लब स्तरीय प्रतियोगिता की आड़ में राष्ट्रनिरपेक्ष भाव के दर्शक ढूंढ रहे हैं। इसलिये अनेक जगह मुफ्त टिकटें तथा अन्य इनाम देने के नाम कुछ छिटपुट प्रतियोगितायें होने की बातें भी सामने आ रही है। बहुत कम लोग इस बात को समझ पायेंगे कि इसमें जितनी बड़ी राशि का खेल है वह कई अन्य खेलों का जन्म दाता है जिसमें राष्टप्रेम की जगह राष्ट्रनिरपेक्ष भाव उत्पन्न करना भी शामिल है।
कभी कभी हंसी आती है यह देखकर कि जिस क्रिकेट को खेल की तरह देखा वह खेलेत्तर गतिविधियों की वजह से सामने आ रहा है। यह क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में ऊपर क्या चल रहा है यह तो सभी देख रहे हैं पर जिस तरह आज के युवा राष्ट्रनिरपेक्ष भाव से इसे देख रहे हैं वह चिंता की बात है। दूसरी बात जो सबसे बड़ी परेशान करने वाली है वह यह कि इन मैचों पर सट्टे लगने के समाचार भी आते हैं और इस खेल में राष्ट्रनिरपेक्ष भाव पैदा करने वाले प्रचार माध्यम यही बताने से भी नहीं चूकते कि इसमें फिक्सिंग की संभावना है। सब होता रहे पर दाव लगाने वाले युवकों को बर्बाद होने से बचना चाहिेए। इसे मनोंरजन की तरह देखें पर दाव कतई न लगायें। राष्ट्रप्र्रेम न दिखायें तो राष्ट्रनिरपेक्ष भी न रहे। हम तो अब भी यही दोहराते हैं कि ‘क्रिकेट में सब चलता है यार।’

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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गरीब का भला-हिन्दी व्यंग्य


अमेरिका में एक गोरी महिला पर आनलाईन आतंकवादी भर्ती करने का मुकदमा दर्ज हुआ है। बताया गया है कि वह लोगों को मीठी बातों में फंसाकर अपने जाल में फंसाती थी। दुनियां भर के गरीबों का भला करने की बात करती थी! भर्ती करने वालों को धन का प्रलोभन भी देती थी! वगैरह वगैरह! उस अमेरिकन ने अपना अंग्रेजी नाम बदल भी लिया था ताकि वह धर्म के नाम पर गैर अमेरिकन लोगों में अपनी पहचान बना सके।
यह आलेख केवल उस महिला पर ही नहीं है बल्कि उसकी प्रकटतः प्रकृत्तियों पर है जो अनेक जगह अनेक लोगों में देखने को मिलती है। जिसमें सबसे अधिक है गरीबों का भला करने की बात! इसलिये हिंसा कर महामानव के रूप में प्रतिष्ठत होने का एक ख्वाब जो एक हर चालाक बुद्धिमान देखता है।
गरीबों के भले की बात करते देखकर बुद्धिमानों पर कोई हंसता नहीं है क्योंकि लोगों की सोच स्वतंत्र नहीं रही। हम यहां भारत की क्या बात करें अमेरिका और ब्रिटेन में यही हालत हैं-आखिर उनकी शिक्षा पद्धति ही हमारे समाज ने अपनायी है।
गरीब का भला! मेहनतकश के साथ न्याय! दुनियां के उस आखिर आदमी के लिये लड़ने की बात जिसे दो समय की बात क्या एक समय के लिये भी खाना नहीं मिलता। इसके लिये जंग करने वाले बताते हैं कि दुनियां का पूरा पैसा कुछ व्यक्तियों, समाजों या राष्ट्रों के पास जा रहा है जिनको परास्त करना आवश्यक है ताकि दुनियां से गरीबी और भुखमरी मिट सके। इसके लिये वह बंदूकें, गोलियां और बम जुटाते हैं जैसे कि उनसे खाना बना रहे हों।
कुछ ऐसे भी हैं जो यह सब नहीं करते पर पर्दे के पीछे बैठकर फिल्में, टीवी धारावाहिक या रेडियों पर उनकी जंग का प्रचार करते हैं। अखबारों में लेख वगैरह लिखते हैं। दुनियां की पंक्ति में सबसे आखिर में खड़े भूखे, नंगे और बेकार आदमी का भला करने का यह ख्वाब खूब चलता है। कहते हैं कि आदमी अपनी विपरीत स्थितियों में मनोरंजन ढूंढता है। अमेरिका की सभ्यता धनाढ़य, गौरवर्ण तथा आधुनिक शिक्षित वर्ग की भीड़ से सजी है इसलिये उनको गरीब-भूखे-नंगे, निम्न वर्ग तथा अशिक्षित वर्ग के विषयों में मनोरंजन मिलता है जबकि हमारे भारत में सभी गरीब और भूखे नहीं है पर यहां उनके सामने ऐसा दृश्य प्रस्तुत करने वाला वर्ग प्रतिदिन विचरता है इसलिये उनको धनाढ्य तथा गौरवर्ण कथानकों में आनंद मिलता है। हम भारत ही क्या अधिकांश एशियाई देशों में यह दोष या गुण देखते हैं। यही कारण है कि इस इलाके में आतंकवाद जमकर पनपा है। मजे की बात यह है कि पूरे विश्व के लिये अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन भी एशियाई देशों के नेता भारत में ही हुआ है। कहते हैं कि गुलाब कांटों में तो कमल कीचड़ में पनपता है। भारत का अध्यात्मिक ज्ञान इतना प्रभावी इसलिये है क्योंकि यहां अज्ञान अधिक फलताफूलता रहा है। गरीब का भला और बेसहारों को सहारा देने के नाम पर एशिया के लोग बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं।
अमेरिका की उस महिला ने भी आखिर क्या प्रचार किया होगा? यही कि गरीबों का भला करने के लिये चंद लोगों का मरना जरूरी है या गोली और बम के धमाकों से भूखे के लिये रोटी पकेगी तो गरीब की गरीबी दूर हो जायेगी।
पंच तत्वों से बनी इस देह में जो मन रहता है उसे समझना कठिन है और जो समझ ले वही ज्ञानी है। आम इंसान अपना पूरा जीवन अपने स्वार्थों में लगाता है पर उसका मन कहीं न कहीं परमार्थी की उपाधि पाने के लिये भटकता है। अनेक ऐसे लोग हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी में किसी का भला नहीं किया पर ऐसे किस्से सुनाकर अपना दिल बहलाते हैं कि ‘हमने अमुक का भला किया’ या ‘अमुक को बचाया’। उनको गरीबों का भला करना तथा भूखे को रोटी खिलाना एक अच्छी बात लगती है बशर्ते स्वयं यह काम न करना पड़े। ऐसे में अगर कुछ लोग यह काम करते हैं तो वह उनकी प्रशंसा करते हैं पर अगर कोई ऐसा करने का दावा करने लगे तो उसे भी प्रशंसनीय मान लेते हैं। कुछ युवा क्रांतिकारी होने का सपना लेकर गरीबों का भला करने के लिये उपदेशकों की बातों में हिंसा भी करने को तैयार हो जाते हैं बशर्ते कि उनको सारी दुनियावी सुविधायें उपलब्ध करायी जायें और जिनके लिये पैसा खर्च होता है। मूल बात इसी पैसे पर आकर टिकती है जो धनपतियों के पास ही है जिनके विरुद्ध गरीबों के कथित मसीहा बोलते रहते हैं-इनमें बहुत कम ऐसे है जो अपनी जान देने निकलते हैं बल्कि अपनी बातों से दूसरे को अपनी जान देने को तैयार करते हैं-जन्नत में स्थाई सदस्यता दिलाने के वाद के साथ! ऐसे बहुत सारे मसीहा जिंदा हैं पर उनके बहुत सारे शगिर्द काल कलवित हो गये-और इन गुरुओं को इसकी बिल्कुल चिंता नहीं है क्योंकि उनके प्रायोजित विद्यालय निरंतर नये लड़कों का सृजन करते रहते हैं। मूल प्रश्न का उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया कि पैसा कहां से आता है?
कहते हैं कि दुनियां के सारे धर्म गरीबों का भला करना सिखाते हैं। यह एक मजाक के अलावा कुछ नहीं है। सारे धर्म के मतावलंबियों और सर्वशक्तिमान के बीच एक मध्यस्थ होता है जो उसका परिचय अपने समूह के लोगों से कराता है। सभी की भाषायें है और पहचान के लिये वस्त्रों के रंग भी तय हैं-गेरुआ, हरा, सफेल और अन्य रंग। नाम भी अब स्थानीय भाषा के नाम पर नहीं बल्कि धर्म की भाषा के आधार पर रखते जाते हैं। एक आदमी जब धर्म बदलता है तो नाम भी बदल देता है। अनेक लोग पैसा लेकर या भविष्य में विकास का वादा करने पर धर्म बदल देते हैं। यह एक क्रांतिकारी मजाक है जो अक्सर अनेक देशों में दिखाई देता है। अभी तक धार्मिक मध्यस्थ केवल सर्वशक्तिमान और इंसान के बची की कड़ी थी पर ऐसा लगता है कि जैसे कि उन्होंने अमीरों और गरीबों के बीच में भी अपना पुल बना लिया है। गरीबों को आतंक फैलाने तो अमीरों को उससे फैलते देखनें के मनोरंजन में व्यस्त रखने के लिये आतंक उनके लिये एक व्यापार हो गया है जिसे वह अपने ढंग से धर्म फैलाने या बचाने का संघर्ष भी कहते हैं कई जगह गरीबों के उद्धार की भी बात की जाती है। यकीनन अमीरों से उनको पैसा मिलता है। यह पैसा अमीर अपने एक नंबर के धंधे को बचाने या दो नंबर के धंधे को चलाने के लिये देते होंगे। दुनियां के सारे भाषाई, जातीय, धार्मिक तथा क्षेत्रीय समूहों पर ऐसी ही अदृश्य ताकतों की पकड़ है जिसमें मौलिक तथा स्वतंत्र सोच रखने वाले पागल या अयथार्थी समझे जाते हैं। इस बात का पूरा इंतजाम है कि हर व्यवस्था में तय प्रारूप में ही बहसें हों, विवाद हों और प्रचार तंत्र उनके इर्दगिर्द ही घूमता रहे। दो विचारों के बीच दुनियां के लोग भटकें-गरीब का भला और विकास-जिसमें अमीरों का वर्चस्व रहता है। इस दुनियां में दो प्रकार के लोग हैं एक तो वह जो गरीबों का भला होते देखना चाहते है-स्वयं कितना करते है यह एक अलग प्रश्न है-दूसरा वह वर्ग है जो विकास चाहता है। बीच बीच में भाषा, धर्म,जाति तथा क्षेत्रीय पहचान को लेकर भी बहसें और विवाद होते हैं पर उनमें भी गरीबों का भला या विकास का मुद्दा कहीं न कहीं होता है भले ही उसका नंबर दूसरा हो।
टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में चलने वाली इन बहसों से अलग होकर जब हम सड़क पर देखते हैं तो सारा दृश्य बदल जाता है। पेट्रोल का धुंआ उगलते विलासिता के प्रतीक वाहनों में सवार अमीर लोग अपनी राह चले जा रहे हैं। गरीब आदमी ठेले पर अपना सामान बेचने जा रहा है। अमीर चीज का भाव पूछता है गरीब बताता है। अमीर भाव कम करने के लिये कहता है। वह करता है कभी नहीं भी करता है। अस्पतालों में गरीब इलाज के लिये ठोकरें खाता नज़र आता है। सबसे बड़ी बात यह कि हम जैसे लेखक जब एक आदमी के रूप में धक्का खाते है तब अपने आप से सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा भला चाहता कौन है?
ऐसे ढेर सारे प्रश्नों से जूझते हुए जब कोई अखबार पढ़ते या टीवी देखते हुए गरीबों के कल्याण और मेहनतकश के न्याय पर बहस देखता और सुनता है तो उसे वह निरर्थक, अयथार्थ तथा काल्पनिक लगती है। शायद ऐसी बहसें बौद्धिक विलासिता का हिस्सा हैं पर इनके आयोजक इसका फोकट में नहीं करते। मुख्य बात यह कि पैसा कहां से आता है! शायद वहीं से आता होगा जहां से गोलियां, बम और बंदूकें खरीदने के लिये दिया जाता है। संभव है यह सब भयानक सामान बनाने वाले दलालों को अपना सामान बिकवाने के लिये पैसे देते हों। पहले आतंकी खरीदेगा तो फिर उससे बचने के लिये पहरेदार भी खरीदेगा। आतंकी एक, दो, तीन या चार होते है पर पहरेदार तो हजारों हैं। पूरी दुनियां में लाखों हैं। सब कुछ सोचते हुए आखिर वहीं खड़े हो जाते हैं और अपने आप से ही कहते हैं कि ‘कहां चक्कर में पड़ गये यार’। कुछ बेकार कवितायें लिखो या कोई चुटकुला लिखो। दिल बहलाने के लिये इससे अच्छा साधन क्या हो सकता है।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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संत कबीर के दोहे-प्रेम प्रसंग कभी छिपते नहीं (kabir ke dohe-prem prasang kabhi chhipte nahin)


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पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय
कबहुं छेड़ि न देखिये, हंसि हंसि खावे रोय।

संत कबीर दास जी कहते हैं कि दूसरे की स्त्री को अपने लिये पैनी छुरी ही समझो। उससे तो कोई विरला ही बच पाता है। कभी पराई स्त्री से छेड़छाड़ मत करो। वह हंसते हंसते खाते हुए रोने लगती है।
पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि पराई स्त्री के साथ प्रेम प्रसंग करना लहसून खाने के समान है। उसे चाहे कोने में बैठकर खाओ पर उसकी सुंगध दूर तक प्रकट होती है
            वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पाश्चात्य सभ्यता के प्रवेश ने भारत के उच्च वर्ग में जो चारित्रिक भ्रष्टाचार फैलाया उसे देखते हुए संत कबीरदास जी का यह कथन आज भी प्रासंगिक लगता है। फिल्मों और टीवी चैनलों के धारावाहिकों में एक समय में दो बीबियां रखने वाली कहानियां अक्सर देखने को मिलती हैं, भले ही कुछ फिल्मों में हास्य के साथ दो शादियों की मजबूरी बड़ी गंभीर नाटकीयता के साथ प्रस्तुत की जाती है पर उनका सीधा उद्देश्य समाज में चारित्रिक भ्रष्टाचारी को आदर्श की तरह प्रस्तुत करना ही होता है। फिल्म हों या टीवी चैनल उन पर नियंत्रण तो उच्च वर्ग का ही है और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को फिल्म और टीवी चैनलों के धारावाहिकों में आदर्श की तरह प्रस्तुत करने का उद्देश्य अपने धनिक प्रायोजकों को प्रसन्न करना ही होता है।
          हमारे महापुरुषों ने न केवल सृष्टि के तत्व ज्ञान का अनुसंधान किया है बल्कि जीवन रहस्यों का बखान किया है। चाहे अमीर हो गरीब दो पत्नियां रखने वाला पुरुष कभी भी जीवन में आत्मविश्वास से खड़ा नहीं रह सकता। इसके अलावा पाश्चात्य सभ्यता के चलते पराई स्त्री के साथ कथित मित्रता या आत्मीय संबंधों की बात भी मजाक लगती है। यहां एक वर्ग ऐसे गलत संबंधों को फैशन बताने पर तुला है पर सच तो यह है कि पश्चिम में भी इसे नैतिक नहीं माना जा सकता। जब इस तरह के संबंध कहीं उद्घाटित होते हैं तो आदमी के लिये शर्मनाक स्थिति हो जाती है। कई जगह तो पुरुष अपनी पत्नी की सौगंध खाकर संबंधों से इंकार करता है तो कई जगह उसे सफाई देता है। भारत हो या पश्चिम अनेक घटनाओं में तो अनेक बार पति के अनैतिक संबंधों के रहस्योद्घाटन पर बिचारी पत्नी सब कुछ जानते हुए भी पति के बचाव में उतरती हैं। साथ ही यह भी एक सच है कि ऐसे अनैतिक संबंध बहुत समय तक छिपते नहीं है और प्रकट होने पर सिवाय बदनामी के कुछ नहीं मिलता।

         इसलिये पुरुष समाज के लिये यही बेहतर है कि वह न तो दूसरा विवाह करे न ही दूसरी स्त्री से संबंध बनाये। ऐसा करना अपराध तो है ही अपने घर की नारी का सार्वजनिक रूप से तिरस्कार करने जैसा भी है। अपने घर की नारी का अपमान अंततः अपने तथा परिवार के सदस्यों के लिये अपमान का कारण बनता है। दूसरा यह भी कि समाज के लोग भले सामने नही कहें पर पीठ पीछे अत्ंयत उपहासजनक तथा निंदाजनक बयान बाजी करते हैं।
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संत कबीर वाणी-राम का नाम छोड़ने पर नर्क में वास होता है (ram ka nam-sant kabir vani)


मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोग दिन रात भगवान के नाम का जाप करते हैं, साधुओं के पास जाते हैं ऐसे में किसे दोष दें कि उनके जीवन में रंग नहीं चढ़ता।
राम नाम को छाड़ि कर, करे और की आस।
कहैं कबीर ता नर को, होय नरक में वास।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जो मनुष्य राम नाम का स्मरण छोड़कर विषय वासना में रत हो जाते हैं उनको नरक में जाकर निवास करना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम अपने देश की वर्तमान दशा को देखें तो दुःख होने के साथ कभी कभी हंसी भी आती है।  शायद ही दुनियां में कोई ऐसा देश हो जहां भगवान नाम का स्मरण इतना होता हो पर जितना सामाजिक तथा आर्थिक भ्रष्टाचार है वह भी कहीं नहीं होगा।  लोग एक दूसरे को दिखाने के लिये भगवान का नाम लेने  साथ ही सत्संगों में जाकर साधुओं के प्रवचन सुनते हैं पर घर आकर सभी का व्यवहार मायावी हो जाता है। बड़े शहरों में नित प्रतिदिन धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होने पर वहां लोगों के झुंड के झुंड शामिल होते हैं। कोई प्रवचन सुनता है तो कोई सुनते हुए दूसरे को भी सुनाता है।  कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान की भक्ति लोग केवल दिखावे के लिये करते हैं और उनका लक्ष्य केवल स्वयं को धार्मिक या अध्यात्मिक व्यक्तित्व का स्वामी होने का दिखावा करना होता है।
वैसे हम लोग विषयों के पीछे भागते हैं जबकि सच तो यह है कि वह हमें कभी छोड़ते ही नहीं अलबत्ता हम उनकी सोच को अपने दिमाग में इस तरह बसा लेते हैं कि भगवान का नाम स्मरण करने का विचार ही नहीं आता।  अगर आता भी है तो खाली जुबान से लेते हैं पर उसका स्पंदन हृदय में नहीं पहुंचता क्योंकि बीच रास्ते में विषयों की सोच रूपी पहाड़ उनका मार्ग अवरुद्ध करता है। यही कारण है कि भगवान भक्ति अधिक होने के बावजूद इस देश में नैतिक आचरण गिरता जा रहा है।  बहुत कम लोग ऐसे रह गये हैं जिनमें मानवीय संवेदनायें और सद्भावना बची है।
इस दिखावे का ही परिणाम है कि मायावी समृद्धि की तरफ बढ़ रहे देश में अहंकार, संवेदनहीनता तथा भ्रष्टाचार के कारण नारकीय स्थिति की अनुभूति होती है।

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भर्तृहरि शतक-पृथ्वी केवल पानी के चारों और घिरा मिट्टी का गोला (pruthvi mitti ka gola-bhartrihari shatak)


मृतिपण्डो जलरेखया वलचितः सर्वोऽप्ययं न नन्वणुः स्वांशीकृत्य स एवं संगरशतै राज्ञां गणैर्भुज्यते।
ते दद्युर्ददतोऽथवा किमपरं क्षंुद्रदरिद्रं भृशं धिग्धिक्तान्युरुषाधमान्धनकणान् वांछन्ति तेभ्योऽपि ये।।
हिन्दी में भावार्थ-
यह पृथ्वी पानी से चारों तरफ घिरा मिट्टी का एक गोलामात्र है। इस पर अनेक लोगों ने राजा बनकर शासन किया। यह राजा लोग किसी को कुछ नहीं देते। फिर भी राजाओं का मुख ताकते हुए कुछ लोग पाने की उम्मीद में रहते हैं। ऐसे लोगों को धिक्कार है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-राजशाही समाप्त हो गयी पर लोगों के मुख ताकने की आदत नहीं गयी। फिर लोकतंत्र में तो केवल प्रत्यक्ष ही नहीं अप्रत्यक्ष रूप से राज्य करने वाले भी सक्रिय रहते हैं। ऐसे लोग अपने बाहुबल, धन बल तथा बुद्धिबल-चालाकी और बेईमानी-से प्रत्यक्ष रूप से शासन करने वालों पर नियंत्रण रखते हैं। इसका प्रमाण यह है कि अमेरिका की एक पत्रिका दुनियां के शक्तिशाली लोगों की सूची जारी करती है। उसमें कुख्यात लोगों के नाम भी शामिल होते हैं । इस शक्तिशाली शब्द का लोग सही अर्थ नहीं जानते। दरअसल केवल राजकाज और समाज पर नियंत्रण करने वाले व्यक्ति को ही शक्तिशाली माना जाता है। कभी कभी तो यह लगता है कि इस तरह पर्दे के पीछे यही शक्तिशाली विश्व भर के राजाओं में हैं। अनेक देशों की सरकारें उनके आगे पानी भरती नजर आती हैं। उस सूची से यह तो जाहिर हो जाता है कि कहीं न कहीं इन कुख्यात लोगों की पहुंच दूर तक है। यही अपराधी फिल्म, राजनीति, व्यापार, उद्योग में भी धन लगाकर वहां सक्रिय कुछ लोगों को अपना मातहत बना लेेते हैं। यही मातहत जनता को सामने तो राजा दिखते है पर उनकी डोर उनके पीछे खड़े इन कथित शक्तिशाली लोगों के हाथ में होती है जिनको जनता केवल कुख्यात रूप में पहचानती है। इसी अज्ञान के कारण वह उन्हीं मातहतों की तरफ मूंह ताकती रहती है कि वह शायद उसका भला करें। इसके अलावा इन शक्तिशाली तत्वों के मातहतों के आसपास अनेक कलाकार, लेखक, विद्वान तथा सामान्य लोग चक्कर लगाते हैं कि शायद वह उनके आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करें। यह उनका केवल एक भ्रम है। शक्तिशाली तथा राजशाही वाले लोेग किसी का भला नहीं करते। उनका न तो देशभक्ति से लगाव होता है न समाज सेवा से और न ही भगवान भक्ति से! उनका उद्देश्य केवल अपनी आर्थिक, सामाजिक तथा व्यक्ति सत्ता बनाये रखना ही होता है। अतः अपने हित के लिये उनका मुख ताकना केवल मूर्खता है।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मित्र की भी होती हैं तीन श्रेणियां (kautilya ka arthshastra in hindi)


मित्राणामन्तरं विद्याण्मध्यज्यायः कनीयसाम्।
मध्यज्यायः कनीयांसि कर्मणि च पृथकपृथक्।।
हिंदी में भावार्थ-
मित्रों की उच्च, मध्य और निम्न कोटि की पहचान करते हुए उनके पृथक पृथक कार्यों का अध्ययन करें।
प्रकाशपक्षग्रहणं न कुर्यात्सुहृदां स्वयम्।
अन्योन्यमत्सजंवषां स्वयमेवाशु धारयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
किसी वाद विवाद में अपने सहृदय और मित्रों का प्रत्यक्ष रूप से पक्ष न लेते हुए उनको गुप्त रूप से सहायता करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्र बनाने में कभी जल्दी नहीं करना चाहिये। मित्रों भी आम इंसान की तरह तीन श्रेणियां होती हैं-उच्च, मध्यम और निम्न। जिस तरह उच्च मनुष्यों की इस संसार में कमी दिखती है वैसे ही मित्रों कभी है। रोज रोज मिलने वाला हर आदमी मित्र नहीं हो जाता। सच तो यह है कि उस आदमी को बहुत कम धोखा मिलता है जो दोस्त कम बनाता है। वैसे इस समय इंटरनेट का जमाना है और इसलिये अधिक सतर्कता बरतना चाहिये। अभी हाल ही में ऐसे अनेक मामले सामने आये हैं जिसमें इंटरनेट पर लड़कों ने दोस्ती कर अनेक लड़कियों का जीवन बर्बाद कर दिया। इंटरनेट पर किसी का भी फोटो कोई भी लगा सकता है। अपनी आयु कम बता सकता है। अपने व्यवसाय को छिपा सकता है। कहने का तात्पर्य है कि जब सामान्य रूप से निभाने वाला मित्र बड़ी कठिनता से मिलता है तो इंटरनेट पर कहां से मिल जायेगा? इंटरनेट पर सक्रिय लोग कोई आसमानी नहीं है बल्कि इसी समाज से हैं। अतः मित्रों की पहचान कर ही आगे बढ़ना चाहिये।
इसके अलावा वाद विवाद के समय मित्र या सहृदय का सीधे पक्ष लेने की बजाय रणनीति से काम लेते हुए गुप्त रूप से उसकी सहायता करना चाहिये ताकि उसके विरोधी या शत्रु से आप गुप्त रहकर निरंतर उसकी रक्षा कर सकें। इसलिये अपने सहृदय और मित्र की सहायता के लिये उसके विरोधी या शत्रु के सामने किसी ऐसे व्यक्ति को प्रस्तुत करना चाहिये जो आपका सहायक हो और विरोधी या शत्रु उसकी पहचान न कर सके।
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विदुर नीति-विनय भाव से अपयश नष्ट होता है (vinay se apyash nasht hota hai-vidur niti)


नष्टं समुद्रे पतितं नष्टे वाक्यमश्रृण्वति।
अनात्मनि श्रुतं नष्टं नष्टं हुतमनगिनकम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह समुद्र में गिरी वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह किसी की न सुनने वाले मनुष्य से कही हुई बात नष्ट हो जाती है। जितेन्द्रिय पुरुष का शास्त्र ज्ञान और राख में किया हवन भी नष्ट हो जाता है।
अकीर्ति विनयो हन्ति हन्त्यनर्थ पराक्रमः।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारी हन्त्यलक्षणम्।।
हिंदी में भावार्थ-
विनय भाव ये अपयश का नाश होता है, पराक्रम के द्वारा अनर्थ दूर किया जा सकता है। क्षमा ही सदा क्रोध का नाश करती है और सदाचार का भाव अपने अंदर कुलक्षणों को समाप्त करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक मनुष्य है जिनमें अहंकार की भावना बहुत होती है और ऐसे लोगों का समझाना न केवल कठिन काम है बल्कि एक तरह से अपना समय व्यर्थ करना है। आजकल तो ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जो किताबी ज्ञान प्राप्त करने के बाद विविध विषयों पर इस तरह बहस करते हैं कि जैसे कि उन जैसा कोई विद्वान इस संसार में नहीं है। वैसे भी कहा जाता है कि बुद्धिजीवियों की बहस के निष्कर्ष नहीं निकलते। उसी तरह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान ग्रंथ पढ़ कर उसे रटने वाले अनेक विद्वान भी हैं जिनको शब्द और अर्थ सभी याद है पर ज्ञान धारण भी किया जाता है वह नहीं जानते। इसलिये कहीं सत्संग चर्चा करिये तो हर कोई अपने ज्ञान बघारेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आजकल कोई किसी की सुनता नहीं है इसलिये किसी से ज्ञान या सत्संग चर्चा करने की बजाय अकेले में बैठकर चिंतन या ध्यान करना ही श्रेयस्कर है।
अगर अपना कहीं अपयश फैल रहा हो तो विनम्रता पूर्वक अपनी बात रखना चाहिये। जो लोग जीवन में हमेशा ही दूसरों के साथ विनम्रता के साथ व्यवहार और वार्तालाप करते हैं उनका कभी भी अपयश नहीं फैलता। उसी तरह अगर अपने ऊपर आने वाले संकट का पराक्रम से ही किया जा सकता है। क्रोध और निराशा से कार्य करने वालों को न सफलता मिलती है न यश-यह बात ध्यान रखना चाहिये।
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चाणक्य नीति-डसें नहीं फन तो फैलायें (chankya niti-fun)


निर्विषेणाऽपि सर्पेण कत्र्तव्या महती फणा।
विषमस्तु न चाष्यस्तु घटाटोपो भयंकरः।।
हिंदी में भावार्थ-
भले ही अपने पास विष न हो पर विषहीन सर्प को फिर भी फन फैलाने का आडंबर करना चाहिये। उसके बचाव के लिये यह जरूरी होता है।
प्रातद्र्यूतप्रसंगेन मध्याह्ये स्त्रीप्रसंगतः।
रात्रौ चैर्यप्रसंगेन कालो गच्छत्यधीमातम्।।
हिंदी में भावार्थ-
मूर्ख लोगों का समय प्रातःकाल जुआ, दोपहर प्रेम प्रसंग और रात्रि चोरी करने में व्यतीत होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य को अपने हृदय में दूसरों के प्रति स्वच्छता, स्नेह और दया का भाव रखना चाहिये। जहां तक हो सके दूसरे का भला करें पर यह भी आवश्यक है कि अपनी रक्षा के लिये सतर्कता बरतें। इस संसार में मनुष्य में ही देवता और राक्षस बैठा है। पता नहीं कब किस मनुष्य में राक्षसत्व का भाव पैदा हो इसलिये सभी लोगों से सतर्कता आवश्यक है। वैसे कुछ लोगों में तो हमेशा ही दुष्टता का भाव भरा होता है। ऐसे लोग जिसे कमजोर या असहाय समझते हैं उससे परेशान करने लगते हैं। हालांकि उनके द्वारा संकट पैदा करने पर लोगों पर प्रतिकार भी कर सकते हैं पर वह हमला ही न करें इसलिये अपनी शक्ति का प्रदर्शन समय आने पर करना पहले ही चाहिए। इस प्रदर्शन से दुष्ट हम पर हमला करने का दुस्साहस ही न करे। स्वयं किसी को हानि पहुंचाने का विचार करना भी दुष्टता है पर बाह्य विरोधी से निपटने के लिये अपने पास शक्ति का संचय अवश्य करते रहना चाहिये। इतना ही नहीं कोई अन्य आक्रमण न करे ताकि शक्ति का व्यर्थ उपयोग करने से बचें इस उद्देश्य से समय समय पर उसका प्रदर्शन भी करना चाहिये। जरूरत पड़े तो गुस्सा भी दिखाना चाहिए ताकि दुष्ट लोग सहमें रहें। इस बात का ध्यान रहे कि हमारे व्यवहार या गुस्से से किसी सज्जन का दिल न दुखे।
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श्री गुरु ग्रंथ साहिबः दूसरे का रक्त चूसने वाले का हृदय कभी शुद्ध नहीं होता (shri guru granth sahib in hindi)


खावहि खरचाहि रलि मिलि भाई।
तोटि न आवै वधदो जाई।।
हिंदी में भावार्थ-
गुरु ग्रंथ साहिब की पवित्र वाणी के अनुसार आपस में मिलजुलकर खाना और खर्च करना चाहिये तो कोई कभी अभाव नहीं आता बल्कि धन में बढ़ोतरी होती है।
‘जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु।‘
हिंदी में भावार्थ-
गुरु ग्रंथ साहिब की पवित्र वाणी के अनुसार जो मनुष्य दूसरे का खून चूसता है उसका हृदय कभी पवित्र नहीं हो सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-भगवान श्री गुरुनानक जी ने भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान को एक नयी पहचान दी। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों का हमेशा विरोध किया। सच बात तो यह है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की जो भयानक हमारे समाज में व्याप्त है उसी कारण ही देश के सदियों तक गुलामी झेलनी पड़ी। कहने को तो देश आजाद हो गया है पर मानसिक गुलामी अभी भी जारी है। इसका कारण यह है कि अहंकार और धन का लोभ हमारे देश के लोगों में इस कद्र है कि सभी एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं। उद्देश्य यही है कि किसी तरह एक दूसरे को नीचा दिखाया जाये। सहकारिता की भावना का सर्वथा अभाव है। संयुक्त परिवार की प्रवृत्ति लुप्त हो जाने से अधिकतर लोगों का जीवन एकाकी हो गया है। मिलजुलकर रहने का नारा सभी देते हैं पर रहना कोई नहीं चाहता क्योंकि परिवार, समाज और समूह का नेता बनने की ख्वाहिश ऐसा करने नहीं देती। नतीजा यह है कि समाज में वैमनस्य बढ़ रहा है और अमीर गरीब के बीच बढ़ती खायी खतरनाक रूप लेती जा रही है।
शारीरिक श्रम करने वालों को एक पशु की तरह देखने वाला आज का सभ्य समाज नहीं जानता कि गरीबों और मजदूरों की वजह से उनका अस्तित्व बना हुआ है। कितनी विचित्र बात है कि रेहड़ी वाले से पांच रुपये का सामान खरीदने पर भी लोग उससे मोलभाव करते हैं जबकि बड़ी दुकान पर जाकर उनकी आवाज बंद हो जाती है जबकि वहां उससे अधिक पैसे देने पड़ते हैं।
अपने बैंक खातों में रोकड़ शेष बढ़ाने की होड़ ने आदमी को धर्म कर्म और दान पुण्य से दूर कर दिया है। पेट तो दो रोटी खाता है पर धन का भंडार भरने की भूख सभी की बढ़ी हुई है। अमीरों की देखादेखी मध्यम और गरीब लोग भी अमीर बनने का संक्षिप्त मार्ग ढूंढते हैं जो कि अंततः उनको अपराध की तरफ ले जाता है। इसके लिये जिम्मेदारी अमीर वर्ग ही है जो दिखावे के लिये धर्म कर्म बहुत करता है पर जहां गरीब और मजदूर के साथ न्याय करने की बात आ जाये तो उसे बस अपना व्यापारिक धर्म ही याद रह जाता है।
अगर समाज में शांति, एकता और सहृदयता की भावना का पुनर्निमाण करना है तो उसके लिये आवश्यक है कि गरीबों और मजदूरों के कल्याण का विचार किया जाये। वह हमारे देश और समाज का एक अभिन्न अंग हैं यह कभी नहीं भूलना चाहिये।
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भर्तृहरि नीति शतक-कर्मकांड निभाने से कोई लाभ नहीं होता


राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तरैः
स्वर्गग्रामकुटीनिवाफलदैः कर्मक्रियाविर्भमैः।
मुक्तवैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानल्र
स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणगव्त्तयः

हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मृतियों और पुराणों को पढ़ने, बृहद शस्त्रों के श्लोक रटने, किसी स्वर्ग जैसे ग्राम में फल देने वाले कर्मकांड एक तरह से पाखंड हैं उनके निर्वहन से क्या लाभ? संसार में दुःखों का भार हटाने और परमात्मा का दिव्य पद पाने के लिये केवल उसका स्मरण करना ही पर्याप्त है। उसके अलावा सभी कुछ व्यापार है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने मन को शांति देन का इकलौता मार्ग एकांत में परमात्मा की हृदय से भक्ति करना ही है। चाहे कितने भी द्रव्य से संपन्न होने वाले यज्ञ कर लें और अनेक ग्रंथ पढ़कर उसकी सामग्री पढ़कर दूसरों का सुनाने से कोई लाभ नहीं हैं। हम अपनी शांति प्राप्त करने के लिये सत्संगों और आश्रमों में पाखंडी गुरूओं के पास जाते हैं। इनमें कई कथित साधुओं और संतों ने पंच सितारे होटलों की सुविधाओं वाले आश्रम बना लिये हैं जहां रहने का दाम तो दान के नाम वसूल किया जाता है। ऐसे संत और साधु कर्मकांडों में लिप्त होने का ही संदेश देते हैं। अधिकतर साधु संत सकाम भक्ति के उपासक हैं। वह अपने पैर पुजवाते हैं। कहते तो वह भी भगवान का स्मरण करने को हैं पर साथ में अपनी किताबें और मंत्र पकड़ाते हैं। उनके बताये रास्ते से सच्चे मन से भक्ति नहीं होती बल्कि शांति खरीदने के लिये हम उनको पैसे देकर अपने घर आते हैं। परंतु मन की शांति कहीं बाजार में मिलने वाली वस्तु तो है नहीं और फिर हमारा मन अशांत होकर भटकने लगता है।

ईश्वर की भक्ति से ही मन को शांति मिलती है और उसके लिये यह आवश्यक है कि मन को कुछ पल सांसरिक मार्ग से हटाया जाये और उसका एक ही उपाय है कि एकांत में बैठकर उसका ध्यान करें। बाकी तो अपने देश में धर्म के नाम पर व्यापार है और जितने भी कर्मकांड हैं वह तो केवल व्यापार के लिये हैं और उनसे काल्पनिक स्वर्ग पाने का विचार ही बेकार है।
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संत कबीर वाणी: राम के सच्चे भक्त होते हैं सुख दु:ख से परे


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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हैवर गैवर सघन धन, छन्नपती की नारि
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि

भगवान की भक्ति करने वाली गरीब नारी की बराबरी महलों में रहने वाली रानी भी नहीं कर सकती भले ही उसके राजा पति के पास हाथियों और घोड़ो का झुंड और बहुत सारी धन संपदा है।

दुखिया भूखा दुख कीं, सुखिया सुख कौं झूरि
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भूख के कष्ट के कारण दुखी आदमी मर रहा है तो ढेर सारे सुख के कारण सुखी भी कष्ट उठा रहा है किंतु राम के भक्त तो हर हाल में में मजे से रहते हैं क्योंकि वह दुःख सुख के भाव से परे हो गये हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दुनियां में तीन तरह के लोग होते हैं-दुःखी,सुखी और भक्त। अभाव और निराशा के कारण दुःखी आदमी हमेशा परेशान रहता है तो सुखी आदमी अपने सुख से उकता जाता है और वह हर ‘मन मांगे मोर’ की धारा में बहता रहता है। विश्व के संपन्न राष्ट्रों के देश भारत के अध्यात्मिक ज्ञान की तरफ आकर्षित होते हैं तो भारत के लोग उनकी भौतिक संपन्नता प्रभावित होते हैं। पश्चिम में तनाव है तो पूर्व वाले भी सुखी नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग इस मायावी संसार में केवल दैहिक सुख सुविधाओं के पीछे भागते हैं। जिसके भौतिक साधन नहीं है वह कर्ज वगैरह लेता है और फिर उसे चुकाते हुए तकलीफ उठाता है और अगर वह चीजें नहीं खरीदे तो परिवार के लोग उसका जीना हराम किये देता है। सुख सुविधा का सामान खरीद लिया तो फिर दैहिक श्रम से स्त्री पुरुष विरक्त हो जाते हैं और इस कारण स्वास्थ बिगड़ने लगता है।

जिन लोगों ने अध्यात्म ज्ञान प्राप्त कर लिया है वह जीवन को दृष्टा की तरह जीते हैं और भौतिकता के प्रति उनका आकर्षण केवल उतना ही रहता है जिससे देह का पालन पोषण सामान्य ढंग से हो सके। वह भौतिकता की चकाचैंध मेंे आकर अपना हृदय मलिन नहीं करते और किसी चीज के अभाव में उसकी चिंता नहीं करते। ऐसे ही लोग वास्तविक राजा है। जीवन का सबसे बड़ा सुख मन की शांति हैं और किसी चीज का अभाव खलता है तो इसका आशय यह है कि हमारे मन में लालच का भाव है और कहीं अपने आलीशान महल में भी बैचेनी होती है तो यह समझ लेना चाहिये कि हमारे अंदर ही खालीपन है। दुःख और सुख से परे आदमी तभी हो सकता है जब वह निष्काम भक्ति करे।
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