Tag Archives: parsan

आसमान से रिश्ते तय होकर आते हैं-हिन्दी कविताएँ


उधार की रौशनी में
जिंदगी गुजारने के आदी लोग
अंधेरों से डरने लगे हैं,
जरूरतों पूरी करने के लिये
इधर से उधर भगे हैं,
रिश्त बन गये हैं कर्ज जैसे
कहने को भले ही कई सगे हैं।
————–
आसमान से रिश्ते
तय होकर आते हैं,
हम तो यूं ही अपने और पराये बनाते हैं।
मजबूरी में गैरों को अपना कहा
अपनों का भी जुर्म सहा,
कोई पक्का साथ नहीं
हम तो बस यूं ही निभाये जाते हैं।
————–
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com

                  यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

4.दीपकबापू   कहिन
५.ईपत्रिका 
६.शब्द पत्रिका 
७.जागरण पत्रिका 
८,हिन्दी सरिता पत्रिका 
९शब्द योग पत्रिका 
१०.राजलेख पत्रिका 

सपने बाजार में बिकते हैं-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ


इंसानों को भीड़ को
भेड़ों की तरह हांका जा सकता है,
सपने बेचना आना चाहिए।

लोगों की आंखें खुली रहें
पर देख न सकें,
कान बजते रहें
गाना सुर में हो या बेसुर
गाना आना चाहिए।

अपने होश को
जिंदा रखो हमेशा
कर लो दुनियां मुट्ठी में
ज़माने को बेहोश करना आना चाहिए।
———
चाहे जो भाव खरीदो
सपने बाजार में बिकतें,
मगर सच के आगे नहीं टिकते हैं,
सौदागर खेलते हैं जज़्बातों से
उनके मातहत कलमकार
दाम लेकर ही ख्वाब लिखते हैं।

पर्दे की हकीकत
जमीन पर नहीं आती
भले ही अरमान पूरे होते दिखते हैं।
————–

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com

                  यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

4.दीपकबापू   कहिन
५.ईपत्रिका 
६.शब्द पत्रिका 
७.जागरण पत्रिका 
८,हिन्दी सरिता पत्रिका 
९शब्द योग पत्रिका 
१०.राजलेख पत्रिका 

लिपस्टिक प्रेम-हिन्दी हास्य कविता (lipstic prem-hindi hasya kavita)


टीवी पर चल रही थी खबर
एक इंजीनियरिंग महाविद्यालय में
छात्रों द्वारा छात्राओं को होठों पर
लिपस्टिक लगाने की
तब पति जाकर उसकी बत्ती बुझाई।
इस पर पत्नी को गुस्सा आई।
वह बोली,
‘क्यों बंद कर दिया टीवी,
डर है कहीं टोके न बीवी,
तुम भी महाविद्यालय में मेरे साथ पढ़े
पर ऐसा कभी रोमांटिक सीन नहीं दिया,
बस, एक प्रेम पत्र में फांस लिया,
उस समय अक्ल से काम नहीं किया,
एक रुखे इंसान का हाथ थाम लिया,
कैसा होता अगर यह काम हमारे समय में होता,
तब मन न ऐसा रोता,
तुम्हारे अंदर कुंठा थी
इसलिये बंद कर दिया टीवी,
चालू करो इसमें नहीं कोई बुराई।’’

सुनकर पति ने कहा
‘देखना है तो
अपनी अपनी आठ वर्षीय मेरे साथ बाहर भेज दो,
फिर चाहे जैसे टीवी चलाओ
चाहे जितनी आवाज तेज हो,
अभी तीसरी में पढ़ रही है
लिपस्टिक को नहीं जानती,
अपने साथियों को भाई की तरह मानती,
अगर अधिक इसने देखा तो
बहुत जल्दी बड़ी हो जायेगी,
तब तुम्हारी लिपस्टिक
रोज कहीं खो जायेगी,
पुरुष हूं अपना अहंकार छोड़ नहीं सकता,
दूसरे की बेटी कुछ भी करे,
अपनी को उधर नहीं मोड़ सकता,
ऐसा कचड़ा मैं नहीं फैलने दे सकता
अपने ही घर में
जिसकी न मैं और न तुम कर सको धुलाई।’’
पत्नी हो गयी गंभीर
खामोशी उसके होठों पर उग आई।
———–

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

संत कबीर के दोहे-बियावन वन के फूल बिना काम किसी के काम आये मुरझा जाते हैं


हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि तो हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं और लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय करने का चलन   हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो  इस तरह लोग भी भ्रम में हो जाते हैं जिनके पास थोड़ी भी शक्ति और पद है। साथ ही  उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म के कर्मकांडों का निर्वहन  करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं।
यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता। सच बात है कि जो परोपकार या दान करते हैं वह उसका प्रचार नहीं करते।
——————- 
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
———————— 
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

अंग्रेज किताबें छोड़ गए-हिन्दी व्यंग्य


इस संसार का कोई भी व्यक्ति चाहे शिक्षित, अशिक्षित, ज्ञानी, अज्ञानी और पूंजीवादी या साम्यवादी हो, वह भले ही अंग्रेजों की प्रशंसा करे या निंदा पर एक बात तय है कि आधुनिक सभ्यता के तौर तरीके उनके ही अपनाता है। कुछ लोगों ने अरबी छोड़कर अंग्रेजी लिखना पढ़ना शुरु किया तो कुछ ने धोती छोड़कर पेंट शर्ट को अपनाया और इसका पूरा श्रेय अंग्रेजों को जाता है। मुश्किल यह है कि अंग्रेजों ने सारी दुनियां को सभ्य बनाने से पहले गुलाम बनाया। गुलामी एक मानसिक स्थिति है और अंग्रेजों से एक बार शासित होने वाला हर समाज आजाद भले ही हो गया हो पर उनसे आधुनिक सभ्यता सीखने के कारण आज भी उनका कृतज्ञ गुलाम है।
अंग्रेजों ने सभी जगह लिखित कानून बनाये पर मजे की बात यह है कि उनके यहां शासन अलिखित कानून चलता है। इसका आशय यह है कि उनको अपने न्यायाधीशों के विवेक पर भरोसा है इसलिये उनको आजादी देते हैं पर उनके द्वारा शासित देशों को यह भरोसा नहीं है कि उनके यहां न्यायाधीश आजादी से सोच सकते हैं या फिर वह नहीं चाहते कि उनके देश में कोई आजादी से सोचे इसलिये लिखित कानून बना कर रखें हैं। कानून भी इतने कि किसी भी देश का बड़ा से बड़ा कानून विद उनको याद नहीं रख सकता पर संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि हर नागरिक हर कानून को याद रखे।
अधिकतर देशों के आधुनिक संविधान हैं पर कुछ देश ऐसे हैं जो कथित रूप से अपनी धाार्मिक किताबों का कानून चलाते हैं। कहते हैं कि यह कानून सर्वशक्तिमान ने बनाया है। कहने को यह देश दावा तो आधुनिक होने का करते हैं पर उनके शिखर पुरुष अंग्रेजों के अप्रत्यक्ष रूप से आज भी गुलाम है। कुछ ऐसे भी देश हैं जहां आधुनिक संविधान है पर वहां कुछ समाज अपने कानून चलाते हैं-अपने यहां अनेक पंचायतें इस मामले में बदनाम हो चुकी हैं। संस्कृति, संस्कार और धर्म के नाम पर कानून बनाये मनुष्य ने हैं पर यह दावा कर कि उसे सर्वशक्तिमान  ने बनाया है दुनियां के एक बड़े वर्ग को धर्मभीरु बनाकर बांधा जाता है।
पुरानी किताबों के कानून अब इस संसार में काम नहीं कर सकते। भारतीय धर्म ग्रंथों की बात करें तो उसमें सामाजिक नियम होने के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान भी उनमें हैं, इसलिये उनका एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी प्रासंगिक है। वैसे भारतीय समाज अप्रासांगिक हो चुके कानूनों को छोड़ चुका है पर विरोधी लोग उनको आज भी याद करते हैं। खासतौर से गैर भारतीय धर्म को विद्वान उनके उदाहरण देते हैं। दरअसल गैर भारतीय धर्मो की पुस्तकों में अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है। वह केवल सांसरिक व्यवहार में सुधार की बात करती हैं। उनके नियम इसलिये भी अप्रासंगिक हैं क्योंकि यह संसार परिवर्तनशील है इसलिये नियम भी बदलेंगे पर अध्यात्म कभी नहीं बदलता क्योंकि जीवन के मूल नियम नहीं बदलते।
अंग्रेजों ने अपने गुलामों की ऐसी शिक्षा दी कि वह कभी उनसे मुक्त नहीं हो सकते। दूसरी बात यह भी है कि अंग्रेज आजकल खुद भी अपने आपको जड़ महसूस करने लगे हैं क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति भी नहीं बदली। उन्होंनें भारत के धन को लूटा पर यहां का अध्यात्मिक ज्ञान नहीं लूट पाये। हालत यह है कि उनके गुलाम रह चुके लोग भी अपने अध्यात्मिक ज्ञान को याद नहीं रख पाये। अलबत्ता अपने किताबों के नियमों को कानून मानते हैं। किसी भी प्रवृत्ति का दुष्कर्म रोकना हो उसके लिये कानून बनाते हैं। किसी भी व्यक्ति की हत्या फंासी देने योग्य अपराध है पर उसमें भी दहेज हत्या, सांप्रदायिक हिंसा में हत्या या आतंक में हत्या का कानून अलग अलग बना लिया गया है। अंग्रेज छोड़ गये पर अपनी वह किताबें छोड़ गये जिन पर खुद हीं नहीं चलते।
यह तो अपने देश की बात है। जिन लोगों ने अपने धर्म ग्रंथों के आधार पर कानून बना रखे हैं उनका तो कहना ही क्या? सवाल यह है कि किताबों में कानून है पर वह स्वयं सजा नहीं दे सकती। अब सवाल यह है कि सर्वशक्तिमान की इन किताबों के कानून का लागू करने का हक राज्य को है पर वह भी कोई साकार सत्ता नहीं है बल्कि इंसानी मुखौटे ही उसे चलाते हैं और तब यह भी गुंजायश बनती है कि उसका दुरुपयोग हो। किसी भी अपराध में परिस्थितियां भी देखी जाती हैं। आत्म रक्षा के लिये की गयी हत्या अपराध नहीं होती पर सर्वशक्तिमान के निकट होने का दावा करने वाला इसे अनदेखा कर सकता है। फिर सर्वशक्तिमान के मुख जब अपने मुख से किताब प्रकट कर सकता है तो वह कानून स्वयं भी लागू कर सकता है तब किसी मनुष्य को उस पर चलने का हक देना गलत ही माना जाना चाहिये। इसलिये आधुनिक संविधान बनाकर ही सभी को काम करना चाहिए।
किताबी कीड़ों का कहना ही क्या? हमारी किताब में यह लिखा है, हमारी में वह लिखा है। ऐसे लोगों से यह कौन कहे कि ‘महाराज आप अपनी व्याख्या भी बताईये।’
कहते हैं कि दुनियां के सारे पंथ या धर्म प्रेम और शांति से रहना सिखाते हैं। हम इसे ही आपत्तिजनक मानते हैं। जनाब, आप शांति से रहना चाहते हैं तो दूसरे को भी रहने दें। प्रेम आप स्वयं करें दूसरे से बदले में कोई अपेक्षा न करें तो ही सुखी रह सकते हैं। फिर दूसरी बात यह कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। मतलब यह कि आप में अगर प्रेम का गुण नहीं है तो वह मिल नहंी सकता। बबूल का पेड़ बोकर आम नहीं मिल सकता। पुरानी किताबें अनपढ़ों और अनगढ़ों के लिये लिखी गयी थी जबकि आज विश्व समाज में सभ्य लोगों का बाहुल्य है। इसलिये किताबी कीड़े मत बनो। किताबों में क्या लिखा है, यह मत बताओ बल्कि तुम्हारी सोच क्या है यह बताओ। जहां तक दुनियां के धर्मो और पंथों का सवाल है तो वह बनाये ही बहस और विवाद करने के लिये हैं इसलिये उनके विद्वान अपने आपको श्रेष्ठ बताने के लिये मंच सजाते हैं। जहां तक मनुष्य की प्रसन्नता का सवाल है तो उसके लिये भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के अलावा कोई रास्ता नहीं है। दूसरी बात यह कि उनकी किताबें इसलिये पढ़ना जरूरी है कि सांसरिक ज्ञान तो आदमी को स्वाभाविक रूप से मिल जाता है और फिर दुनियां भर के धर्मग्रंथ इससे भरे पड़े हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान बिना गुरु या अध्यात्मिक किताबों के नहीं मिल सकता। जय श्रीराम!

————————
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

व्यापार जज़्बातों का-हिन्दी शायरी


अपने जज़्बातों को दिल में रखो
बाहर निकले तो
तूफान आ जायेगा।
हर बाजार में बैठा हैं सौदागर
जो करता है व्यापार जज़्बातों का
वही तुम्हारी ख्वाहिशों से ही
तुमसे तुम्हारा सौदा कर जायेगा।
यहां हर कदम पर सोच का लुटेरा खड़ा है
देख कर ख्याल तुम्हारे
ख्वाब लूट जायेगा।
इनसे भी बच गये तो
नहीं बच पाओगे अपने से
जो सुनकर तुम्हारी बात
सभी के सामने असलियत गाकर
जमाने में मजाक बनायेगा।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

————————————-

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

नाम के मालिक-व्यंग्य हिंदी शायरी


सुंदरता अब सड़क पर नहीं

बस पर्दे पर दिखती है

जुबां की ताकत अब खून में नहीं

केवल जर्दे में दिखती है।

सौंदर्य प्रसाधन पर पड़ती

जैसे ही पसीने की बूंद

सुंदरता बह जाती,

तंबाकू का तेज घटते ही

जुबां खामोश रह जाती,

झूम रहा है वहम के नशे में सारा जहां

औरत की आंखें देखती

दौलत का तमाशा

तो आदमी की नजर बस

कृत्रिम खूबसूरती पर टिकती है।

 

—————-
हांड़मांस के बुत हैं

इंसान भी कहलाते हैं,

चेहरे तो उनके अपने ही है

पर दूसरे का मुखौटा बनकर

सामने आते हैं।

आजादी के नाम पर

उनके हाथ पांव में जंजीर नहीं है

पर अक्ल पर

दूसरे के इशारों के बंधन

दिखाई दे जाते हैं।

नाम के मालिक हैं वह गुलाम

गुलामों पर ही राज चलाये जाते हैं।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कपटी से मित्रता में धर्म की हानि होती है (kautilya sandesh-kapti se dosto se dharm kee hani)


 मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्येजेत्।

त्यंजन्नभूतेदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हिं।।

हिन्दी में भावार्थ-नीति विशारद कौटिल्य के अनुसार अपने मित्रों के बारे में विचार करना चाहिए। अगर उनमें छल कपट या अन्य दोष दिखाई दे तो उसे त्याग दें।  ऐसा न करने पर न केवल धर्म की हानि होती है बल्कि जीवन में कष्ट भी उठाना पड़ता है।

सा बन्धुर्योऽनुबंघाति हितऽर्ये वा हितादरः।

अनुरक्तं विरक्त वा तन्मिंत्रमुपकारि यत्।।

हिन्दी में भावार्थ-वही बंधु है जो हमारे उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ आदर करने वाला हो। अनुरक्त हो या विरक्त पर उपकार आवश्यक करे वही सच्चा बंधु है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय के साथ समाज में खुलापन आ रहा है और मित्र संग्रह में लोगों की लापरवाही का नतीजा यह है कि सभी जगह खुद के साथ धोखे की शिकायत करते हुए मिलते हैं।  इतना ही नहीं युवा पीढ़ी तो हर मिलने और बातचीत करने वाले को अपना मित्र समझ लेती है। मित्र के गुणों की पहचान कोई नहीं करता।

मित्र का सबसे बड़ा गुण है कि वह हर समय सहयोग के लिये तत्पर दिखता  हो। इसके अलावा वह अन्य लोगों के सामने अपमानित न करे और साथ ही समान विचारधारा वाला हो। स्वभाव के विपरीत होने पर या विचारों की भिन्नता वाले से अधिक समय तक मित्रता नहीं चलती अगर चलती है तो धर्म की हानि उठानी पड़ सकती है।   इसके अलावा मित्र वह है जो कहीं अपने मित्र की गुप्त बातों को कहीं उजागर न करता हो।  इतना ही नहीं मित्र का अन्य मित्रों का समूह और कुल भी अनुकूल होना चाहिये।   अगर वह केवल दिखावे की मित्रता करता है तो आपके वह रहस्य जो दूसरों के जानने योग्य नहीं है सभी को पता चल जाते हैं।  दूसरी बात यह है कि मित्र जब हमारे साथ होता है तब हमारा लगता है पर जब दूसरी जगह होता है तो दूसरों का होता है-यह विचार भी करना चाहिये।

कुछ लोग केवल स्वार्थ की वजह से मित्रता करते हैं-वैसे आजकल अधिकतर संख्या ऐसे ही लोगों की है-इस विचार करना चाहिऐ। एकांत में  हमेशा अपने मित्र समूह पर चिंतन करते हुए जिनमें दोष दिखता है या जिनकी मित्रता सतही प्रतीत होती है उनका त्याग कर देना चाहिये।
इसके अलावा निकट रहने पर मित्र के प्रति अपने भाव का अवलोकन भी उससे कुछ समय दूर रहकर करना चाहिये। निकट रहने पर उसके प्रति मोह रहता है इसलिये यह पता नहीं लगता कि उसकी नीयत क्या है? दूर रहने पर उससे मोह कम हो जाता है तब यह पता लगता है कि उसके प्रति हमारे मन में क्या है? इतना ही न अपने बच्चों के मित्रों और मिलने जुलने वालों पर भी दृष्टिपात करना चाहिये। आजकल काम की व्यस्तताओं की वजह  से माता पिता को अपने बच्चों की देखभाल का पूरी तरह अवसर नहीं मिल पाता इसलिये उनको बरगलाने की घटनायें बढ़ रही है।  ऐसा उन्हीं माता पिता के साथ होता है जो अपने बच्चों के मित्रों की यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि ‘वह क्या कर लेगा?’
कहने का तात्पर्य यह है कि अपने घर के सदस्यों के मित्रों पर दृष्टिपात करना चाहिये। अगर अपने मित्र दोषपूर्ण लगें तो उनसे दूरी बनायें और घर के सदस्यों के हों तो उन्हें इसके लिये प्रेरित करें।  मित्र के गलत होने पर धर्म की हानि अवश्य होती है।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

नापसंद लेखक, पसंदीदा आशिक-हिन्दी हास्य कविता (rejected writer-hindi hasya kavita)


आशिक ने अपनी माशुका को
इंटरनेट पर अपने को हिट दिखाने के लिये लिए
अपने ब्लाग पर
पसंद नापसंद का स्तंभ
एक तरफ लगाया।
पहले खुद ही पसंद पर किल्क कर
पाठ को ऊपर चढ़ाता था
पर हर पाठक मूंह फेर जाता था
नापसंद के विकल्प को उसने लगाया।
अपने पाठों पर फिर तो
फिकरों की बरसात होती पाया
पसंद से कोई नहीं पूछता था
पहले जिन पाठों को
नापसंद ने उनको भी ऊंचा पहुंचाया।
उसने अपने ब्लाग का दर्शन
अपनी माशुका को भी कराया।
देखते ही वह बिफरी
और बोली
‘‘यह क्या बकवाद लिखते हो
कवि कम फूहड़ अधिक दिखते हो
शर्म आयेगी अगर अब
मैंने यह ब्लाग अपनी सहेलियों को दिखाया।
हटा दो यह सब
नहीं तो भूल जाना अपने इश्क को
दुबारा अगर इसे लगाया।’’

सुनकर आशिक बोला
‘‘अरे, अपने कीबोर्ड पर
घिसते घिसते जन्म गंवाया
पर कभी इतना हिट नहीं पाया।
खुद ही पसंद बटन पर
उंगली पीट पीट कर
अपने पाठ किसी तरह चमकाये
पर पाठक उसे देखने भी नहीं आये।
इस नपसंद ने बिना कुछ किये
इतने सारे पाठक जुटाये।
तुम इस जमाने को नहीं जानती
आज की जनता गुलाम है
खास लोगों के चेहरे देखने
और उनका लिखा पढ़ने के लिये
आम आदमी को वह कुछ नहीं मानती
आम कवि जब चमकता है
दूसरा उसे देखकर बहकता है
पसंद के नाम सभी मूंह फुलाते
कोई नापसंद हो उस पर मुस्कराते
पहरे में रहते बड़े बड़े लोग
इसलिये कोई कुछ नहीं कर पाता
अपने जैसा मिल जाये कोई कवि
उस अपनी कुंठा हर कोई उतार जाता
हिट देखकर सभी ने अनदेखा किया
नापसंद देखकर उनको भी मजा आया।
ज्यादा हिट मिलें इसलिये ही
यह नापसंद चिपकाया।
अरे, हमें क्या
इंटरनेट पर हिट मिलने चाहिये
नायक को मिलता है सब
पर खलनायक भी नहीं होता खाली
यह देखना चाहिये
मैं पसंद से जो ना पा सका
नापसंद से पाया।’’

इधर माशुका ने सोचा
‘मुझे क्या करना
आजकल तो करती हैं
लड़कियां बदमाशों से इश्क
मैंने नहीं लिया यह रिस्क
इसे नापसंद देखकर
दूसरी लड़कियां डोरे नहीं डालेंगी
क्या हुआ यह नापसंद लेखक
मेरा पसंदीदा आशिक है
इसमें कुछ बुरा भी समझ में नहीं आया।’
……………………………..

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हिंदी

विदुर नीति-विनय भाव से अपयश नष्ट होता है (vinay se apyash nasht hota hai-vidur niti)


नष्टं समुद्रे पतितं नष्टे वाक्यमश्रृण्वति।
अनात्मनि श्रुतं नष्टं नष्टं हुतमनगिनकम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह समुद्र में गिरी वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह किसी की न सुनने वाले मनुष्य से कही हुई बात नष्ट हो जाती है। जितेन्द्रिय पुरुष का शास्त्र ज्ञान और राख में किया हवन भी नष्ट हो जाता है।
अकीर्ति विनयो हन्ति हन्त्यनर्थ पराक्रमः।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारी हन्त्यलक्षणम्।।
हिंदी में भावार्थ-
विनय भाव ये अपयश का नाश होता है, पराक्रम के द्वारा अनर्थ दूर किया जा सकता है। क्षमा ही सदा क्रोध का नाश करती है और सदाचार का भाव अपने अंदर कुलक्षणों को समाप्त करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक मनुष्य है जिनमें अहंकार की भावना बहुत होती है और ऐसे लोगों का समझाना न केवल कठिन काम है बल्कि एक तरह से अपना समय व्यर्थ करना है। आजकल तो ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जो किताबी ज्ञान प्राप्त करने के बाद विविध विषयों पर इस तरह बहस करते हैं कि जैसे कि उन जैसा कोई विद्वान इस संसार में नहीं है। वैसे भी कहा जाता है कि बुद्धिजीवियों की बहस के निष्कर्ष नहीं निकलते। उसी तरह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान ग्रंथ पढ़ कर उसे रटने वाले अनेक विद्वान भी हैं जिनको शब्द और अर्थ सभी याद है पर ज्ञान धारण भी किया जाता है वह नहीं जानते। इसलिये कहीं सत्संग चर्चा करिये तो हर कोई अपने ज्ञान बघारेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आजकल कोई किसी की सुनता नहीं है इसलिये किसी से ज्ञान या सत्संग चर्चा करने की बजाय अकेले में बैठकर चिंतन या ध्यान करना ही श्रेयस्कर है।
अगर अपना कहीं अपयश फैल रहा हो तो विनम्रता पूर्वक अपनी बात रखना चाहिये। जो लोग जीवन में हमेशा ही दूसरों के साथ विनम्रता के साथ व्यवहार और वार्तालाप करते हैं उनका कभी भी अपयश नहीं फैलता। उसी तरह अगर अपने ऊपर आने वाले संकट का पराक्रम से ही किया जा सकता है। क्रोध और निराशा से कार्य करने वालों को न सफलता मिलती है न यश-यह बात ध्यान रखना चाहिये।
……………………..

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शत्रुओं और विरोधियों के दो प्रकार (two type of friend and animy-kautilya


सहज कार्यजश्वव द्विविधः शत्रु सच्यते।
सहज स्वकुलोत्पन्न कार्यजः स्मृतः।
हिंदी में भावार्थ-
शत्रु दो प्रकार के होते हैं-एक तो जो स्वाभाविक रूप से बनते हैं दूसरे वह जो कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक शत्रु कुल में उत्पन्न होता है तो दूसरा अपने कार्य के कारण बन जाता है।
उच्छेदापचयो काले पीडनं कर्षणन्तथा।
इति विधाविदः प्राहु, शत्रौ वृतं चतुविंघम्।।
हिंदी में भावार्थ-
उच्छेद, अपचय, समय पर पीड़ा देना और कर्षण यह चार प्रकार की स्थिति विद्वान बताते हैं।
वर्तमान संबंध में संपादकीय-ऐसा कोई जीव इस प्रथ्वी पर नहीं है जिसका कोई शत्रु न हो। बड़े बड़े महापुरुष इस प्रकृत्ति के नियम का उल्लंघन नहीं कर पाये। शत्रु दो प्रकार के बनते हैं। एक तो जो स्वाभाविक रूप होते ही हैं दूसरे हमारे कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक रूप शत्रु या विरोधी परिवार, समाज तथा कुल की वजह से बनते हैं। जैसे बिल्ली चूहे की तो कुत्ता बिल्ली का दुश्मन होता है। उसी तरह इंसानों में भी कुछ रिश्ते आपस में प्रतिस्पर्धा पैदा करते हैं। जहां कुल बड़ा होता है वहां आपस में लोग एक दूसरे के विरोधी या दुश्मन पैदा होते हैं। आपने देखा होगा कि किसी आदमी को तब हानि नहीं पहुंचाई जा सकती जब उसका अपना कोई शत्रु न हो। बड़े शत्रु को हराने के लिये छोटे शत्रु से समझौता करना चाहिये यह इसलिये कहा गया है कि क्योंकि दो शत्रुओं से एक साथ लड़ना संभव नहीं होता।

हम यहां शत्रु के साथ विरोधी की भी चर्चा करें तो बात आसानी से समझी जा सकती है। हम जब कोई अपना कार्य करते हैं तो वही कार्य करने वाला अन्य व्यक्ति स्वाभाविक रूप से हमें शत्रु भाव से देखता है। वह इस बात से आशंकित रहता है कि कहीं उसका प्रतिस्पर्धी उससे आगे न निकल जाये। तब वह इस बात का प्रयास भी करता है कि आपको नाकाम किया जाये, आपकी मजाक उड़ायी जाये और तमाम तरह का दुष्प्रचार कर आपका मनोबल गिराया जाये। वह आपके ही छोटे शत्रु या विरोधी को अपना मित्र बना लेता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस दैहिक जीवन में शत्रु या विरोधी से मुक्त रहना संभव नहीं है। अतः शत्रु और विरोधी की गतिविधियों को नजर रखें। वह आपकी उपेक्षा करने के साथ ही आपके कार्यसिद्धि के साधनों को हानि पहुंचा सकते हैं। शत्रु या विरोधी की प्रकृत्ति को समझें तो हमेशा सतर्क रहकर उसका मुकाबला कर सकते हैं। याद रहे आपके शत्रु या विरोधी कभी भी आपकी सफलता को न तो स्वीकार कर सकते हैं न ही पचा सकते हैं।
………………………………..

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

%d bloggers like this: