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सबसे अधिक कायर लोग नायक बनाये जाते हैं-हिन्दी हास्य व्यंग्य कवितायें


कायरों की सेना क्या युद्ध लड़ेगी
सबसे अधिक कायर लोग नायक बनाये जाते हैं।
कुछ खो जाने के भय से सहमे खड़े है
भीड़ में भेड़ों की तरह लोग,
चिंता है कि छिन न जायें
तोहफे में मिले मुफ्त के भोग,
इसलिये लुटेरे पहरेदार बनाये जाते हैं।
————
अब तो पत्थर भी तराश कर
हीरे बनाये जाते हैं,
पर्दे पर चल रहे खेल में
कैमरे की तेज रोशनी में
बुरे चेहरे भी सुंदरता से सजाये जाते हैं।
ख्वाब और सपनों के खेल को
कभी हकीकत न समझना,
खूबसूरत लफ्ज़ों की बुरी नीयत पर न बहलना,
पर्दे सजे है अब घर घर में
उनके पीछे झांकना भी मुश्किल है
क्योंकि दृश्य हवाओं से पहुंचाये जाते हैं।
————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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माँगा जो हिसाब-हास्य व्यंग और कविता (hisab-hindy hasya vyang aur kavia)


दीपक बापू अपने घर से बाहर निकले ही थे कि सेवक ‘सदाबहार’जी मिल गये। दीपक बापू ने प्रयास यह किया कि किसी तरह उनसे बचकर निकला जाये इसलिये इस मुद्रा में चलने लगे जैसे कि किसी हास्य कविता के विषय का चिंतन कर रहे हों जिसकी वजह से उनका ध्यान सड़क पर जा रहे किसी आदमी की तरफ नहीं है। मगर सदाबहार समाज सेवक जी हाथ में कागज पकड़े हुए थे और उनका काम ही यही था कि चलते चलते शिकार करना। वह कागज उनके रसीद कट्टे थे जिसे लोग पिंजरा भी कहते हैं।
‘‘ऐ, दीपक बापू! किधर चले, इतना बड़ी हमारी देह तुमको दिखाई नहंी दे रही। अरे, हमारा पेट देखकर तो तीन किलोमीटर से लोग हमको पहचान जाते हैं और एक तुम हो कि नमस्कार तक नहीं करते।’उन्होंने दीपक बापू को आवाज देकर रोका
उधर दीपक बापू ने सोचा कि’ आज पता नहीं कितने से जेब कटेगी?’
उन्होंने समाज सेवक जी से कहा-‘नमस्कार जी, आप तो जानते हो कि हम तो कवि हैं इसलिये जहां भी अवसर मिलता है कोई न कोई विषय सोचते हैं। इसलिये कई बार राह चलते हुए आदमी की तरफ ध्यान नहीं जाता। आप तो यह बतायें कि यह कार यात्रा छोड़कर कहां निकल पड़े?’
सेवक ‘सदाबहार’जी बोले-अरे, भई कार के बिना हम कहां छोड़ सकते हैं। इतना काम रहता है कि पैदल चलने का समय ही नहीं मिल पाता पर समाज सेवा के लिये तो कभी न कभी पैदल चलकर दिखाना ही पड़ता है। कार वहां एक शिष्य के घर के बाहर खड़ी की और फिर इधर जनसंपर्क के लिये निकल पड़े। निकालो पांच सौ रुपये। तुम जैसे दानदाता ही हमारा सहारा हो वरना कहां कर पाते यह समाज सेवा?’
दीपक बापू बोले-‘किसलिये? अभी पिछले ही महीने तो आपका वह शिष्य पचास रुपये ले गये था जिसके घर के बाहर आप कार छोड़कर आये हैं।’
सेवक ‘सदाबहार’-अरे, भई छोटे मोटे चंदे तो वही लेता है। बड़ा मामला है इसलिये हम ले रहे हैं। उसने तुमसे जो पचास रुपये लिये थे वह बाल मेले के लिये थे। यह तो हम बाल और वृद्ध आश्रम बनवा रहे हैं उसके लिये है। अभी तो यह पहली किश्त है, बाकी तो बाद में लेते रहेंगे।’
दीपक बापू ने कहा-‘पर जनाब! आपने सर्वशक्तिमान की दरबार बनाने के लिये भी पैसे लिये थे! उनका क्या हुआ?
सदाबहार जी बोले-‘अरे, भई वह तो मूर्ति को लेकर झगड़ा फंसा हुआ है। वह नहीं सुलट रहा। हम पत्थर देवता की मूर्ति लगवाना चाहते थे पर कुछ लोग पानी देवता की मूर्ति लगाने की मांग करने लगे। कुछ लोग हवा देवी की प्रतिमा लगवाने की जिद्द करने लगे।’
दीपक बापू बोले-‘‘तो आप सभी की छोटी छोटी प्रतिमायें लगवा देते।’
सदाबहार जी बोले-कैसी बात करते हो? सर्वशक्तिमान का दरबार कोई किराने की दुकान है जो सब चीजें सजा लो। अरे, भई हमने कहा कि हमने तो पत्थर देवता के नाम से चंदा लिया है पर लोग हैं कि अपनी बात पर अड़े हुए हैं। इसलिये दरबार का पूरा होना तो रहा। सोचा चलो कोई दूसरा काम कर लें।’
दीपक बापू बोले-पर सुना है कि उसके चंदे को लेकर बहुत सारी हेराफेरी हुई है। इसलिये जानबूझकर झगड़ा खड़ा किया गया है। हम तो आपको बहुत ईमानदार मानते हैं पर लोग पता नहीं आप पर भी इल्जाम लगा रहे हैं। हो सकता है कि आपके चेलों ने घोटाला किया हो?
सदाबहार जी एक दम फट पड़े-‘क्या बकवाद करते हो? लगता है कि तुम भी विरोधियों के बहकावे मंें आ गये हो। अगर तुम्हें चंदा न देना हो तो नहीं दो। इस संसार में समाज की सेवा के लिये दान करने वाले बहुत हैं। तुम अपना तो पेट भर लो तब तो दूसरे की सोचो। चलता हूं मैं!’
दीपक बापू बोले-हम आपकी ईमानदारी पर शक कर रहे हैं वह तो आपके चेले चपाटों को लेकर शक था!
सदाबहार जी बोले-ऐ कौड़ी के कवि महाराज! हमें मत चलाओ! हमारे चेले चपाटों में कोई भी ऐसा नहीं है। फिर हमारे विरोधी तो हम पर आरोप लगा रहे हैं और तुम चालाकी से हमारे चेलों पर उंगली उठाकर हमें ही घिस रहे हो! अरे, हमारे चेलों की इतनी हिम्मत नहीं है कि हमारे बिना काम कर जायें।’
दीपक बापू बोले-‘मगर मूर्ति विवाद भी तो उन लोगों ने उठाया है जो आपके चेले हैं। हमने उनकी बातें भी सुनी हैं। इसका मतलब यह है कि वह आपके इशारे पर ही यह विवाद उठा रहे हैं ताकि दरबार के चंदे के घोटाले पर पर्दा बना रहे।’
सर्वशक्तिमान बोले-‘वह तो कुछ नालायक लोग हैं जिनको हमने घोटाले का मौका नहीं दिया वही ऐसे विवाद खड़ा कर रहे हैं। हमसे पूछा चंदे के एक एक पैसे का हिसाब है हमारे पास!
दीपक बापू बोले-‘तो आप उसे सार्वजनिक कर दो। हमें दिखा दो। भई, हम तो चाहते हैंें कि आपकी छबि स्वच्छ रहे। हमें अच्छा नहीं लगता कि आप जो भी कार्यक्रम करते हैं उसमें आप पर घोटाले का आरोप लगता है।
सदाबहार जी उग्र होकर बोले-‘देखो, कवि महाराज! अब हम तो तुम से चंदा मांगकर कर पछताये। भविष्य में तो तुम अपनी शक्ल भी नहीं दिखाना। हम भी देख लेंगे तो मुंह फेर लेंगे। अब तुम निकल लो यहां से! कहां तुम्हारे से बात कर अपना मन खराब किया। वैसे यह बात तुम हमारे किसी चेले से नहीं कहना वरना वह कुछ भी कर सकता है।’
सदाबहार जी चले गये तो दीपक बापू ने अपनी काव्यात्मक पंक्तियां दोहराई।
हमारी कौड़ियों से ही उन्होंने
अपने घर सजाये
मांगा जो हिसाब तो
हमें कौड़ा का बता दिया।
खता बस इतनी थी हमारी कि
हमने सच का बयां किया।’
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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एक नंबर, दो नंबर-हास्य व्यंग्य कथा


वह दोनों एक ही कार्यालय में काम करते थे पर बोस की नजरों में इनमें एक पहला नंबर और दूसरा दो नंबर कहलाता था। पहला नंबर हर काम को जल्दी कर अपने बास के पास पहुंच जाता और अपनी प्रशंसा पाने के लिये दूसरे की निंदा करता। बोस भी उसकी हां मां हा मिलाता और दूसरे नंबर वाले को डांटता।
दूसरे नंबर का कर्मचारी चुपचाप उसकी डांट सुनता और अपने काम में लगा रहता था।
एक दिन पहले नंबर वाले कर्मचारी ने दूसरे नंबर वाले से कहा-‘यार, तुम्हें शर्म नहीं आती। रोज बोस की डांट सुनते हो। जरा ढंग से काम किया करो। तुम्हें तो डांट पड़ती है बोस तुम्हारे पीछे मुझसे ऐसी बातें कहता है जो मैं तुमसे कह नहीं सकता।’
दूसरे कर्मचारी ने कहा-‘तो मत कहो। जहां तक काम का सवाल है तुम केवल फोन से आयी सूचनायें और चिट्ठियां इधर उधर पहुंचाने का काम करते हो। तुम बोस की चमचागिरी करते हो। उसके घर के काम निपटाते हो। बोस तुम्हारे द्वारा दी गयी सूचनायें और पत्रों के निपटारे का काम मुझे देता है और हर प्रकरण पर दिमाग लगाकर काम करना पड़ता है। कई पत्र लिखकर स्वयं टाईप भी करने पड़ते हैं तुम तो बस उनकी जांच ही करते हो पर उससे पहले मुझे जो मेहनत पड़ती है वह तुम समझ ही नहीं सकते। कभी कुछ ऊंच नीच हो जायेगा तो इस कंपनी से बोस भी नौकरी से जायेगा और मैं भी।’
पहले कर्मचारी ने कहा-‘उंह! क्या बकवास करते हो। यह काम मैं भी कर सकता हूं। तुम कहो तो बोस से कहूं इसमें से कुछ खास विषय की फाइलें मुझे काम करने के लिये दे। अपने जवाबों को टाईप भी मैं कर लिया करूंगा। मुझे हिंदी और अंग्रेजी टाईप दोनों ही आती हैं।’
दूसरे कर्मचारी ने कहा-‘अगर तुम्हारी इच्छा है तो बोस से जाकर कह दो।’
पहले कर्मचारी ने जाकर बोस को अपनी इच्छा बता दी। बोस राजी हो गया और उसने दूसरे कर्मचारी का कुछ महत्वपूर्ण काम पहले नंबर वाले को दे दिया।
पहले कर्मचारी ने बहुत दिन से टाईप नहीं किया था दूसरा वह पिछले तीन वर्षों से बोस की चमचागिरी के कारण कम काम करने का आदी हो गया था और दूसरे कर्मचारी के बहुत सारे महत्वपूर्ण कामों के बारे में जानता भी नहीं था-उसका अनुमान था कि दूसरे कर्मचारी के सारे काम बहुत सरल हैं जिनको कर वह बोस को प्रसन्न करता है।

उसके सारे पूर्वानुमान गलत निकले। वह न तो पत्रों के जवाब स्वयं तैयार कर पाता न ही वह दूसरे कर्मचारी की तरह तीव्र गति से टाईप कर पाता। काम की व्यस्तता की वजह से वह बोस की चमचागिरी और उसके घर का काम नहीं कर पाता।
बास की पत्नी के फोन उसके पास काम के लिये आते पर उनको करने का समय निकालना अब उसके लिये संभव नहीं रहा था। इससे उसका न केवल काम में प्रदर्शन गिर रहा था बल्कि बास की पत्नी नाराजगी भी बढ़ रही थी और एक दिन बास ने कंपनी के अधिकारियों को उसके विरुद्ध शिकायतें की और उसका वहां से निष्कासन आदेश आ गया।
वह रो पड़ा और दूसरे वाले कर्मचारी से बोला-‘यह मैंने क्या किया? अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली। अब क्या कर सकता हूं?’
दूसरे कर्मचारी ने कहा-‘तुम चिंता मत करो। कंपनी के उच्चाधिकारी मेरी बात को मानते हैं। मैं उनसे फोन पर बात करूंगा। बस तुम एक बात का ध्यान रखना कि यहां अपने साथियों से वफादारी निभाना सीखो। याद रखो अधिकारी के अगाड़ी और गधे के पिछाड़ी नहीं चलना चाहिए।’
दूसरे कर्मचारी के प्रयासों से पहला कर्मचारी बहाल हो गया। दूसरे कर्मचारी की शक्ति देखकर बोस ने उसे तो डांटना बंद कर दिया पर पहले वाले को तब तक परेशान करता रहा जब तक स्वयं वह वहां से स्थानांतरित होकर चला नहीं गया।
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कविराज की ब्लाग पत्रिका का विमोचन-हास्य व्यंग्य


कविराज जल्दी जल्दी घर जा रहे थे और अपनी धुन में सामने आये आलोचक महाराज को देख नहीं सके और उनसे रास्ता काटकर आगे जाने लगे। आलोचक महाराज ने तुरंत हाथ पकड़ लिया और कहा-‘क्या बात है? कवितायें लिखना बंद कर दिया है! इधर आजकल न तो अखबार में छप रहे हो और न हमारे पास दिखाने के लिये कवितायें ला रहे हो। अच्छा है! कवितायें लिखना बंद कर दिया।’
कविराज बोले-‘महाराज कैसी बात करते हो? भला कोई कवि लिखने के बाद कवितायें लिखना बंद कर सकता है। आपने मेरी कविताओं पर कभी आलोचना नहीं लिखी। कितनी बार कहा कि आप मेरी कविता पर हस्ताक्षर कर दीजिये तो कहीं बड़ी जगह छपने का अवसर मिल जाये पर आपने नहीं किया। सोचा चलो कुछ स्वयं ही प्रयास कर लें।’
आलोचक महाराज ने अपनी बीड़ी नीचे फैंकी और उसे पांव से रगड़ा और गंभीरता से शुष्क आवाज में पूछा-‘क्या प्रयास कर रहे हो? और यह हाथ में क्या प्लास्टिक का चूहा पकड़ रखा है?’
कविराज झैंपे और बोले-‘कौनसा चूहा? महाराज यह तो माउस है। अरे, हमने कंप्यूटर खरीदा है। उसका माउस खराब था तो यह बदलवा कर ले जा रहे हैं। पंद्रह दिन पहले ही इंटरनेट कनेक्शन लगवाया है। अब सोचा है कि इंटरनेट पर ब्लाग लिखकर थोड़ी किस्मत आजमा लें।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम्हें रहे ढेर के ढेर। हमने चूहा क्या गलत कहा? तुम्हें मालुम है कि हमारे देश के एक अंग्रजीदां विद्वान को इस बात पर अफसोस था कि हिंदी में रैट और माउस के लिये अलग अलग शब्द नहीं है-बस एक ही है चूहा। हिंदी में इसे चूहा ही कहेंगे। दूसरी बात यह है कि तुम कौनसी फिल्म में काम कर चुके हो कि यह ब्लाग बना रहे हो। इसे पढ़ेगा कौन?’
कविराज ने कहा-‘अब यह तो हमें पता नहीं। हां, यह जरूर है कि न छपने के दुःख से तो बच जायेंगे। कितने रुपये का डाक टिकट हमने बरबाद कर दिया। अब जाकर इंटरनेट पर अपनी पत्रिका बनायेंगे और जमकर लिखेंगे। हम जैसे आत्ममुग्ध कवियों और स्वयंभू संपादकों के लिये अब यही एक चारा बचा है।’
‘हुं’-आलोचक महाराज ने कहा-‘अच्छा बताओ तुम्हारे उस ब्लाग या पत्रिका का लोकार्पण कौन करेगा? भई, कोई न मिले तो हमसे कहना तो विचार कर लेंगे। तुम्हारी कविता पर कभी आलोचना नहीं लिखी इस अपराध का प्रायश्चित इंटरनेट पर तुम्हारा ब्लाग या पत्रिका जो भी हो उसका लोकार्पण कर लेंगे। हां, पर पहली कविता में हमारे नाम का जिक्र अच्छी तरह कर देना। इससे तुम्हारी भी इज्जत बढ़ेगी।’
कविराज जल्दी में थे इसलिये बिना सोचे समझे बोल पड़े कि -‘ठीक है! आज शाम को आप पांच बजे मेरे घर आ जायें। पंडित जी ने यही मूहूर्त निकाला है। पांच से साढ़े पांच तक पूजा होगी और फिर पांच बजकर बत्तीस मिनट पर ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण होगा।’
‘ऊंह’-आलोचक महाराज ने आंखें बंद की और फिर कुछ सोचते हुए कहा-‘उस समय तो मुझे एक संपादक से मिलने जाना था पर उससे बाद में मिल लूंगा। तुम्हारी उपेक्षा का प्रायश्चित करना जरूरी है। वैसे इस चक्कर में क्यों पड़े हो? अरे, वहां तुम्हें कौन जानता है। खाली पीली मेहनत बेकार जायेगी।’
कविराज ने कहा-‘पर बुराई क्या है? क्या पता हिट हो जायें।’
कविराज वहां से चल दिये। रास्ते में उनके एक मित्र कवि मिल गये। उन्होंने पूरा वाक्या उनको सुनाया तो वह बोले-‘अरे, आलोचक महाराज के चक्कर में मत पड़ो। आज तक उन्होंने जितने भी लोगो की किताबों का विमोचन या लोकर्पण किया है सभी फ्लाप हो गये।’
कविराज ने अपने मित्र से आंखे नचाते हुए कहा-‘हमें पता है। तुम भी उनके एक शिकार हो। अपनी किताब के विमोचन के समय हमको नहीं बुलाया और आलोचक महाराज की खूब सेवा की। हाथ में कुछ नहीं आया तो अब उनको कोस रहे हो। वैसे हमारे ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण तो इस माउस के पहुंचते ही हो जायेगा। इन आलोचक महाराज ने भला कभी हमें मदद की जो हम इनसे अपने ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करायेंगे?’
मित्र ने पूछा-‘अगर वह आ गये तो क्या करोगे?’
कविराज ने कहा-‘उस समय हमारे घर की लाईट नहीं होती। कह देंगे महाराज अब कभी फिर आ जाना।’
कविराज यह कहकर आगे बढ़े पर फिर पीछे से उस मित्र को आवाज दी और बोले-‘तुम कहां जा रहे हो?’
मित्र ने कहा-‘आलोचक महाराज ने मेरी पत्रिका छपने से लेकर लोकार्पण तक का काम संभाला था। उस पर खर्च बहुत करवाया और फिर पांच हजार रुपये अपना मेहनताना यह कहकर लिया कि अगर मेरी किताब नहीं बिकी तो वापस कर देंगे। उन्होंने कहा था कि किताब जोरदार है जरूर बिक जायेगी। एक भी किताब नहीं बिकी। अपनी जमापूंजी खत्म कर दी। अब हालत यह है कि फटी चपलें पहनकर घूम रहा हूं। उनसे कई बार तगादा किया। बस आजकल करते रहते हैं। अभी उनके पास ही जा रहा हूं। उनके घर के चक्कर लगाते हुए कितनी चप्पलें घिस गयी हैं?’

कविराज ने कहा-‘किसी अच्छी कंपनी की चपलें पहना करो।’
मित्र ने कहा-‘डायलाग मार रहे हो। कोई किताब छपवा कर देखो। फिर पता लग जायेगा कि कैसे बड़ी कंपनी की चप्पल पहनी जाती है।’
कविराज ने कहा-‘ठीक है। अगर उनके घर जा रहे हो तो बोल देना कि हमारे एक ज्ञानी आदमी ने कहा कि उनकी राशि के आदमी से ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करवाना ठीक नहीं होगा!’
मित्र ने घूर कर पूछा-‘कौनसी राशि?’
कविराज ने कहा-‘कोई भी बोल देना या पहले पूछ लेना!’
मित्र ने कहा-‘एक बात सोच लो! झूठ बोलने में तुम दोनों ही उस्ताद हो। उनसे पूछा तो पहले कुछ और बतायेंगे और जब तुम्हारा संदेश दिया तो दूसरी बताकर चले आयेंगे। वह लोकार्पण किये बिना टलेंगे नहीं।’
कविराज बोले-‘ठीक है बोल देना कि लोकार्पण का कार्यक्रम आज नहीं कल है।’
मित्र ने फिर आंखों में आंखें डालकर पूछा-‘अगर वह कल आये तो?’
कविराज ने कहा-‘कल मैं घर पर मिलूंगा नहीं। कह दूंगा कि हमारे ज्ञानी ने स्थान बदलकर ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करने को कहा था आपको सूचना नहीं दे पाये।’
मित्र ने कहा-‘अगर तुम मुझसे लोकर्पण कराओ तो एक आइडिया देता हूं जिससे वह आने से इंकार कर देंगे। वैसे तुम उस ब्लाग पर क्या लिखने वाले हो? कविता या कुछ और?’
कविराज ने कहा-‘सच बात तो यह है कि आलोचक महाराज पर ही व्यंग्य लिखकर रखा था कि यह माउस खराब हो गया। मैंने इंजीनियर से फोन पर बात की। उसने ही ब्लाग बनवाया है। उसी के कहने से यह माउस बदलवाकर वापस जा रहा हूं।’
मित्र ने कहा-‘यही तो मैं कहने वाला था! आलोचक महाराज व्यंग्य से बहुत कतराते हैं। इसलिये जब वह सुनेंगे कि तुम पहले ही पहल व्यंग्य लिख रहे हो तो परास्त योद्धा की तरह हथियार डाल देंगे। खैर अब तुम मुझसे ही ब्लाग पत्रिका का विमोचन करवाने का आश्वासन दोे। मैं जाकर उनसे यही बात कह देता हूं।’
वह दोनों बातें कर रह रहे थे कि वह कंप्यूटर इंजीनियर उनके पास मोटर साइकिल पर सवार होकर आया और खड़ा हो गया और बोला-‘आपने इतनी देर लगा दी! मैं कितनी देर से आपके घर पर बैठा था। आप वहां कंप्यूटर खोलकर चले आये और उधर मैं आपके घर पहुंचा। बहुत देर इंतजार किया और फिर मैं अपने साथ जो माउस लाया था वह लगाकर प्रकाशित करने वाला बटन दबा दिया। बस हो गयी शुरुआत! अब चलिये मिठाई खिलाईये। इतनी देर आपने लगाई। गनीमत कि कंप्यूटर की दुकान इतने पास है कहीं दूर होती तो आपका पता नहीं कब पास लौटते।’

कविराज ने अपने मित्र से कहा कि-’अब तो तुम्हारा और आलोचक महाराज दोनों का दावा खत्म हो गया। बोल देना कि इंजीनियर ने बिना पूछे ही लोकार्पण कर डाला।’
मित्र चला गया तो इंजीनियर चैंकते हुए पूछा-‘यह लोकार्पण यानि क्या? जरा समझाईये तो। फिर तो मिठाई के पूरे डिब्बे का हक बनता है।’
कविराज ने कहा-‘तुम नहीं समझोगे। जाओ! कल घर आना और अपना माउस लेकर यह वापस लगा जाना। तब मिठाई खिला दूंगा।’
इंजीनियर ने कहा-‘वह तो ठीक है पर यह लोकार्पण यानि क्या?’
कविराज ने कुछ नहीं कहा और वहां से एकदम अपने ब्लाग देखने के लिये तेजी से निकल पड़े। इस अफसोस के साथ कि अपने ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण वह स्वयं नहीं कर सके।
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प्रचार ही होता है प्रमाण पत्र-हास्य व्यंग्य कविताएँ


रोगियों के लिये निशुल्क चिकित्सा शिविर
बहुत प्रचार कर उन्होंने लगाया
पंजीयन के लिये बस
पचास रुपये का नियम बनाया
खूब आये मरीज
इलाज में बाजार से खरीदने के लिये
एक पर्चा सभी डाक्टर ने थमाया
इस तरह अपने लिये उन्होंने
अपने धर्मात्मा होने का प्रमाण पत्र जुटाया
…………………………………….
ऊपर कमाई करने वालों ने
अपने लेने और देने के दामों को बढ़ाया
इसलिये भ्रष्टाचार विरोधी
पखवाड़े में कोई मामला सामने नहीं आया
धर्मात्मा हो गये हैं सभी जगह
लोगों ने अपने को समझाया

…………………….

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जब सम्मान मिल जाये तभी कविताओं पर नाराज होना-हास्य व्यंग्य


अगर आप मुझसे पूछें कि ब्लाग क्यों लिखते हो?’ तो मेरा सीधा जवाब यही होगा कि मेरे पास मनोरंजन के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं है। जब भारत की क्र्रिकेट टीम पिछले साल विश्व कप में भाग लेने वेस्ट इंडीज गयी थी तो मैंने उसके छोटी टीमों से मैच न देखने का निर्णय केवल ब्लाग बनाने की वजह से लिया था। यह एक बहुत बड़ी कुर्बानी थी। उस समय मैंने सोचा कि ब्लाग पर मैच दर मैच जीतती जा रही बीसीसीआई की टीम पर लिख कर ब्लाग लिखने का मजा भी लेंगे पर ऐसा हुआ नहीं। हमने जिस दिन हमने ब्लाग पर पहली पोस्ट रखी उसी दिन हमारी पत्नी ने टीवी देखकर बताया कि अपनी टीम हार गयी है। ब्लाग अभी संकट में ही लग रहा था और ऐसे में हमारे पास दुखी होने के अलावा कोई चारा नहीं था।

बहरहाल इधर क्रिकेट अपने मस्तिष्क से विदा हो रहा था और ब्लाग अपनी जगह बना रहा था। ब्लाग जब पढ़ने लायक बना तो हम संकट में पड़ गये कि इसके लिये पाठक कहां से लायें? नारद पर आने के बाद यह समस्या दूर हुई तो ब्लाग एक नशे की तरह चला आया। हमारा एक और नशा था दुनियां भर के समाचार सुनने का। टीवी चैनलों पर खबरें सुनते और उस पर अपना टिप्पणी जैसा लिखने का प्रयास करते। इधर क्रिकेट फ्लाप हुआ तो सारे चैनल उसे बचाने में लग गये। हमें इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई। दिक्कत यह आयी कि समाचार चैनलों से समाचार गायब होते चले गये और वही फिल्म और क्रिकेट सितारे वहां भी दिखाई देने लगे जिनको देखते हुए पहले ही बोर हो चुके थे। हालत यह होगयी कि टीवी चैनलों पर होने वाली प्रतियोगितायें भी समाचार चैनलों पर प्रमुख खबर बनने लगी।

जिन लोगों को समाचार सुनने का नशा होता है उनको कोई और बात रास नहीं आती। कोई समाचार सुना और फिर अपने सामने मौजूद व्यक्ति को जबरन अपनी टिप्पणी सुनाकर ही उनको चैन मिलता है। हम उससे अलग लिखकर अपना मन हल्का करते है। समाचार चैनलों के प्रबंधकों के लिये वही अब खबर होती है जो सनसनी फैलाने वाली हो जबकि यह आवश्यक नहीं है। समाचार सुनने वाले कहीं का भी पढ़ेंगे और सुनेंगे और सनसनी से उनको मतलब नहीं होता। देश हो या विदेश कहीं का भी समाचार हो उससे सुनने वाले लोगों को एक सुकून मिलता है। हम अपने परिवार के बुजुर्गों की तरह ही समाचार सुनने के नशे के आदी थे। अब उनसे निराशा होने लगी तो क्या करता? अब मेरा सौभाग्य है कि मुझे यह ब्लाग लिखने का अवसर मिल गया और इसे मैंने अपनी पत्रिका बना डाला। जो मुझे पढ़ते हैं वह अपने भाग्य का फैसला स्वयं करें क्योंकि हो सकता है कि कुछ लोग बड़ी उम्मीद से मेरी पत्रिका को खोलते हों और कविता पढ़कर गुस्सा हो जाते हों। हां, याद आया क्रिकेट पर लिखी गयी एक हास्य कविता पर एक पाठक बहुत नाराज भी हुआ था। उस हास्य कविता को छहः सो लोग पढ़ चुके हैं और जब वह मुझे प्रतिकूल टिप्पणी याद आती है तो सोचता हूं कि उसे हटा दूं पर इतनी मेहनत से लिखी गयी कविता को नष्ट करना आसान नहीं है।

मेरी मुश्किल यह है कि जब मैं घर आता हूं तो घड़ी आधे घंटे पर-यानि साढ़े-केंद्रित होती है और जो भी चैनल खोलता हूंु उसमें आधा घंटा क्रिकेट और फिल्म पर लग जाता है। इतना सब्र मेरे पास नहीं है। तब तक तो मैं दो कवितायें लिखकर पोस्ट कर सकता हूं-यह अलग बात है कि अपने ब्लाग फोरमों पर दिखने के कारण संकोच होता है कि भाई लोग यहां भी आम पाठकों जैसी प्रतिकूल टिप्पणियां न करने लगें। फिर समाचारों का प्रस्तुतीकरण इतना निष्प्रभावी होता है कि लगता है कि समाचार नहीं सुनाये जा रहे बल्कि आय के रूप में भुनाये जा रहे हैं।

अभी हाल ही में एक समाचार की बानगी देखें। समाचार चैनल घोषणा करता है कि ‘कातिल अब केवल तीन मिनट दूर‘। हमें बहुत उत्सुकता हुई। यह घोषणा समाचार शुरू होने के पंद्रह मिनट पहले ही हो रही थी। हमने सभी चैनल बदलकर देखा कि क्या इस प्रसिद्ध हो चुके हत्याकांड में कोई नयी जानकारी है क्या? सभी चैनल उस समय मनोरंजन के समाचार देने में व्यस्त थे। आखिर वह समय भी आया जब उस चैनल ने अपने समाचार शुरू किये। सब कुछ घिसापिटा मामला। जब यह पंक्तियां लिख रहा हूं तब तक असली अपराधी का पता ही नहीं है। उन तीन मिनटों के चक्कर में पैंतालीस मिनट बेकार गये। अगर समाचार चैनलों की माने तो भारतीय क्रिकेट और फिल्म आधी दुनियां है और शेष हिस्से में बाकी सब है।
मेरी कवितायें वही लोग सराह सकते हैं जो मेरी तरह से ऐसे निराश हों कि उनको दिल बहलाने का कोई और ठिकाना नहीं मिलता हो। वैसे जिस व्यक्ति ने मेरी क्रिकेट पर लिखी गयी हास्य कविता पर गुस्सा जताया था वह भी कहीं ऐसे ही त्रस्त रहा होगा वरना मेरी कविता पढ़ता ही क्यों? यह चैनल वाले जबरन अपने कार्यक्रम थोप रहे हैं और उसका भुगतान हम किसी न किसी रूप में करते ही है-चाहे वह डिस्क कनेक्शन का किराया हो या विज्ञापन वाली चीजें खरीदने के लिये दिया गया मूल्य जिसमें विज्ञापन का खर्चा भी शामिल होता है। उस पर लोग अपनी झल्लाहट निकाल नहीं सकते। हां, एक अनाम लेखक जिसका ब्लाग उपलब्ध है उसे तो कोसा ही जा सकता है-मन में आये तो सारा गुस्सा ही उस पर उतार दो।
जैसे समाचार चैनल अपनी खबरें कम करते गये मैं ब्लाग@पत्रिकाओं पर अपनी कवितायें बढ़ाता गया। व्यंग्यकार होने की वजह से गुस्से को हास्य में बदलने का थोड़ा अभ्यास है इसलिये हास्य कविता लिखने में मजा आता है। सत्य यह है कि मैैने ब्लाग@पत्रिका लिखने से पहले बहुत लिखा है पर वह इतना नहीं है जितना यहां लिखा है। मैं कभी अपने जीवन में हास्य कविता लिखूंगा यह तो सोचा भी नहीं था पर प्रचार और प्रकाशन माध्यमों से उपजी निराशा ने मुझसे वह करवा लिया जिसकी संभावना कभी मुझे भी नहीं लगी थी।
एक लेखक के पास अपने विचार होते हैं पर उनको जागृत करने के लिये बाहरी प्रेरणा मिलना भी जरूरी है। अभी तक मुझे यह प्रेरणा नवीनतम विषय के रूप में प्रचार और प्रकाशन माध्यमों से मिलती थी। अब भी पूरा अखबार चाट जाता हूं, टीवी देख लेता हूं पर मुझे अपने लिखने लायक कुछ नहीं मिलता। अरे, बड़ी कविता क्या, क्षणिका लिखने तक की सामग्री नहीं मिलती। अब लिखने की ललक लगी हो तो क्या करें? ऐसे में ब्लाग पढ़ते हुए अपने लिखने के लिये विषय जुटाता हूं। एक बात की तसल्ली है कि लिखने लायक खूब सामग्री मिल जाती है। लोगों के पाठ पढ़कर ही अपने लिये कविताओं और आलेखों की सामग्री जुटा रहा हूं। ऐसा नहीं है कि मै इसे छिपाता हूं। ब्लाग लेखकों के ब्लाग पर अपनी कविता भी लिख कर आता हूं कि मैं इसे अपने ब्लाग पर रखने वाला हूं। मतलब यह कि ब्लाग लेखक इतने व्यापक विषयों पर लिख रहे हैं। शायद यही कारण है कि कई व्यवसायिक संगठनों और उन पर आश्रितों को परेशानी है। क्योंकि स्वतंत्र लेखन का मतलब है कि व्यवस्था के किसी तंत्र का शासन नहीं स्वीकार करना और यही यथास्थितिवादियों के लिये चिंता की बात है।

कल को कहीं मुझे सम्मान मिल गया तो बरसों पुराने बुद्धिजीवी क्या करेंगे? वैसे यकीन करिये कि कई ऐसे लेखक सम्मानित हो चुके हैं जिनकी कोई रचना मैंने नहीं पढ़ी। समस्या दूसरी भी आने वाली है। नाम होगा कि बदनाम होंगे यह एक अलग विचार का विषय है पर ऐसा भी हो सकता है कि सम्मान वगैरह देकर कोई लोग प्रचार पाना चाहें ऐसे में उन लोगों का क्या होगा जो अपनी रचनााओं का बोझ उठायें बरसों से इस कतार में खड़े हैं।
मुद्दे की बात यह है कि हास्य कवितायें लिखना मेरी मजबूरी है। अब कहीं कोई मेरे पढ़ने लायक कोई हास्य या व्यंग्य प्रस्तुत नहीं कर रहा तो सोचता हूं कि चलो अपना ही लिखकर आनंद ले लो। हां, याद आया कि अब इस हिंदी ब्लाग जगत में भी बहुत सारे अच्छे व्यंग्य पढ़ने को मिल रहे हैं। ऐसे में मुझे चिढ़ आ जाती है कि मैं क्यों वैसा नहीं लिख पा रहा। इसलिये भी हास्य व्यंग्य जबरन लिखने का प्रयास करता हूं। सोचने की बात है कि दिन में दो व्यंग्य पढ़ लिये तो फिर मैं क्या करुं? मेरे दिमाग में फिर कीड़ा कुलबुलाने लगता है कि कुछ लिखो।

ऐसे में मेरी हास्य कविताओं से नाखुश लोगों को सलाह है कि वह झेल जायें तो कितना अच्छा है? मैं भी कितना झेल रहा हूं यह बता दिया। अगर सारी व्यवस्था मेरे हिसाब से ठीक हो जाये तो ही वह मेरी हास्य कविताओं से बच सकते हैं। अगर टीवी चैनलों पर समाचार ठीकठाक आते हों और समाचार पत्र पत्रिकाओं में ढंग का पढ़ने को मिल जाये तो मैं क्यों अपने विषयों के दूसरे ब्लाग लेखकों के पाठों की खाक छानता फिरुं? एक बात और हिंदी भाषा में जितने भी मशहूर उपन्यास और कहानियां संकलन हैं मैं पढ़ चुका हूं। मेरा पसंदीदा उपन्यास है अन्नपूर्णादेवी का ‘स्वर्णलता’।
एक बात और अपनी हास्य कविताओं के पाठकों की संख्या देखने में भी मुझे संकोच होता है क्योंकि मुझे स्वयं भी अटपटा लगता है। हां गद्य रचनाओं में अवश्य दिलचस्पी लेता हूं। जब मैं इतना एडजस्ट करता हूं तो पाठक मुझे इतना भी नहीं कर सकते। क्या वह यह जानकर संतुष्ट नहीं होंगे कि मुझे इन हास्य कविताओं की वजह से कोई सम्मान नहीं मिलने वाला। जब मिल जाये तभी आपत्ति उठायें तो ठीक रहेगा। अभी तो भाई में भी आम आदमी की तरह घूमता हूं। अभी पिछली एक रेल यात्रा में सामान्य टिकिट लेकर आरक्षण वाली बोगी में चढ़ गया और उसकी वजह से जो मुझे झेलना पड़ा। उसकी व्यथा में जब लिखूंगा तो आंखोंपानी आ जायेगा। उस पर मैंने कोई हास्य कविता नहीं लिखी क्या यही कम है। शेष फिर कभी

सड़क पर बेकार चलने वालों का संरक्षण जरूरी-व्यंग्य



मैं बेकार हूं और आगे भी कार खरीदने की कोई संभावना नहीं है। इसलिये जिस तरह सड़को पर कारों की संख्या बढ़ रही है मेरी चिंता भी बढ़ रही है। ऐसा कोई नहीं आता जिस दिन किसी साइकिल, मोटर साइकिल या स्कूटर सवार द्वारा कार या जीप को टक्कर मार देने पर उसके मालिक को गुस्से में दरवाजा खोलते हुए बाहर निकलकर लड़ते नहीं देखता हूं।

उस दिन एक गैस का सिलैंडर साफ करने वाला गरीब शख्स साइकिल पर जा रहा था तो एक जगह रेल का फाटक बंद होने के कारण रुक गया । उसी समय एक कार भी धीमी होती हुई रुक गयी। दोनों के बीच फासला बहुत कम था और पता नहीं कैसे साइकिल वाले की कैरियर से बंधा छोटा गैस सिलैंडर कार से टकरा गया। वह साइकिल से उतरा और इधर से एक सफेद चूड़ीदार पायजामा पहना व्यक्ति नीचे उतरा और उस साइकिल वाले को पास बुलाया और उसे थप्पड़ दे मारा। उस समय मैं दूसरी तरफ था इससे पहले मै कुछ कहता फाटक खुल गया और वह गरीब अपने गाल पर हाथ रखकर मन मसोसता चला गया।

उस दिन मैं साइकिल पर जा रहा था। तभी एक कार मेरे पास से गुजरते हुए दाहिनी तरफ रुक गयी और मैंने संतुलित होते हुए भी अपने को बचा लिया। उसमें कार चालक और उसका साथी उतरा और अपनी गाड़ी से उतरे और ऐसे देखने लगे जैसे मैंने उनकी बेटी को छेड़ दिया हो।
एक बोला‘-देखकर नहीं चलते।’

मैंने गुस्से में कहा-‘ तुम अचानक कैसे मुड़ जाते हो।’

वह दोनों कार वाले एक दुकान की तरफ चला गये। उसी समय मेरी जान पहचान वाले दो लोग वहां से निकले और मुझसे बोले-‘‘ठीक है, जाने दो आजकल किसी से लड़ने का समय नहीं है।’

मैं पसीने से नहाया हुआ था। बरसों से साइकिल पर सवार करते हुए मैंने कभी किसी को टक्कर नहीं मारी। स्वयं एक बार गिर कर अपनी पेंट फाड़ डाली थी पर उसके बाद इतना सतर्क रहता हूं कि कहीं भी थोड़ा संशय देखता हूं उतर कर चलता हूं। अब अगर इसी तरह की सतर्कता रखूं तो मुझे साइकिल ही पैदल घसीटकर अपने आपको यह विश्वास दिलाना पड़ेगा कि ‘साइकिल चलाते रहना सेहत के लिए स्वास्थ्यवद्र्धक है।’

उस दिन दिल्ली की घटना मैंने टीवी पर देखी थी। किसी लड़की के लड़कों ने कपड़े फाड़ डाले थे। उस समय उसकी मां भी उसके साथ थी। लड़के तो भाग गये पर उनके साथ एक लड़की वहीं घटना स्थल पर ही खड़ी रही। शायद उसने अपने दोस्तों को बचाने के लिये स्वयं को पकड़वाया था। वह बता रही थी कि यह लड़की ऐसे कार चला रही थी और वैसे चला रही थी। इसने ओवरटेक किया या टक्कर दी। हमने आवाज दी तो वह रुकी नहीं। वगैरह।वगैरह
मतलब यह एक सामान्य मामला था, पर उसने उस कार चालक लड़की को भरे राह अपमानित कराया। मुझ पर इस घटना की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वजह यह दो कार चालकों का मामला था और मैं तो बेकार हूं मेरे लिये तो दोनों एक ही जैसा संकट है।
इस तरह की घटनाएं अनेक होती हैं। कल मै स्कूटर पर जा रहा था तो मेरे आगे एक बाइक पर सवार एक लड़की ने एक कार को टक्कर मार दी। कार उसके दाहिने से होती हुई उसके बायें जाकर रुकने वाली थी और इसी कारण वह अपनी बाइक को नहीं रोक सकी। सो टक्कर हुई। दो धुरंधर लोग बाहर निकले। अपनी कार देखने लगे जैसे कोई चोर उनकी बालकनी में घुस आया हो। उस लड़की को देखा जो अपने चेहरे पर चुनरी को नकाव की तरह बांधे हुए थी। लड़की बिना कुछ कहे अपने थोड़ी दूर पैट्रोल पंप पर चली गयी और वह दोनों लड़के शायद क्रोध का प्रदर्शन करना चाहते थे पर फिर रुक गये। मैं सोच रहा था कि कोई दर्दनाक दृश्य प्रस्तुत होगा पर नहीं हुआ। मैंने अपने दिल को तसल्ली दी।

ऐसी घटनाएं एक नहीं अनेक हो रहीं हैं। जिनके पास कार है वह उनके दिमाग आसमान में है जैसे बाकी लोगों के लिये यह सड़क है ही नहीं। कम से कम बेकार लोगों के लिये तो सड़क पर चलना ऐसे ही जैसे गुलाम चल रहे हों। जिनके पास कार है उनमें कुछ लोगों की मनस्थिति यह है कि‘हम अंदर कार में हैं तो बाहर कुछ देख नहीं सकते और कार बाहर है पर वह स्वयं कुछ देख नहीं सकती। फिर हम इतनी सुंदर कार लेकर चल रहे हैं तो लोग हमें ही देखें। नहीं देखते और टक्कर मारते हैं तो इसका मतलब उपेक्षा कर रहे हैं।सो सिखाओ सबक!

आजकल कार एक पैमाना हो गयी है अमीरी के प्रदर्शन के लिये। हालांकि लोग इसी कारण उच्च रक्तचाप, मधुमेह तथा राजरोगों का शिकार हो रहे हैं पर इससे क्या? जब मरेंगे तब मरेंगे पर तब तक तो अपनी कार से या तो किसी को रौंदेंगे या टक्कर मारने वाले के कपड़े फाड़ेंगे। उस दिन एक कार वाले ने मेरे एक मित्र जो स्कूटर चला रहा था उससे दो हजार रुपये झटक लिये। इधर सस्ती कारों का सिललिस शूरू होने वाला है ऐसे में मुझे चिंता हो रही है कि मुझ जैसे बेकार का क्या होगा? वैसे तो दुनियां भर के कानून बने हुए हैं पर लोगों को पता न होने से कई कार वाले इसका लाभ उठाते हैं। किसी को गाली देना या थप्पड़ मारना कानूनन जुर्म है पर जिनके विरुद्ध यह अपराध किये जाते हैं वह निरीह होते है। ऐसे में भविष्य में बेकार लोगों के लिये सड़क पर घूमना कठिन हो जायेगा तब अपनी रक्षा के लिये लोग ऐसे कानूनों की जानकारी लेकर कार्रवाई करेंगे तभी कुछ बचाव हो पायेगा।

एक मुश्किल दूसरी भी है जिन लोगों के पास कार है वही अतिक्रमण कर सड़कों को छोटा किये हुए हैं। फिर दादागिरी इतनी कि जैसे उनको कार खरीदने के अलावा बाप ने सड़क भी बना कर दी है। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जिन्होंने शायद ही ड्राइविंग लाइसेंस लिया हो पर किसी कार वाले से लाइसेंस मांगने की हिमाकत कर भी कौन सकता है? कार चलाने के तरीके से भी ऐसा लगता है कि पहिया घुमाने की जानकारी तो कहीं से भी ली होगी पर सड़क पर चलाने का प्रशिक्षण लिया हो यह संभव नहीं लगता। मेरे विचार से तो ऐसे आधिकारिक केंद्र बनाये जाने चाहिए जहां से प्रशिक्षण प्राप्त कार चालकों को ही सड़क पर कार चलाने की अनुमति हो। केवल कार के पुर्जों की जानकारी लेकर चलाना ही काफी नहीं है। सड़क पर किस तरह चलें और लोगों से किस तरह का व्यवहार करें इसके लिये भी प्रशिक्षण होना आवश्यक है। सड़क पर बेकार चलने वालों के आत्मसम्मान की रक्षा के लिये यह आवश्यक है।

इस ब्लाग (पत्रिका) की पाठक संख्या बीस हजार के पार


12 दिसंबर 2007 को इस हजार की संख्या पार कर चुके इस ब्लाग ने कल बीस हजार की पाठक संख्या को पार कर लिया। इस संख्या को पार करने वाला यह मेरा  दूसरा ब्लाग है।
इस ब्लाग के साथ मेरी दिलचस्प याद जुड़ी हुई है। ब्लागस्पाट पर टाईप करते हुए यूनिकोड में अपनी पहली पोस्ट छोटी कविता के रूप  में इसी पर रखी-क्योंकि मुझे उसमें बड़ी पोस्ट लिखने में दिक्कत आ रही थी-और सबसे पहला कमेंट भी इस पर आया। उससे पहले मैंने सभी तीनों ब्लाग पर कृतिदेव की पोस्ट रखी थी और मैं मानकर चल रहा था कि अब उसी से आगे जाना है। जब कुछ ब्लाग  लेखक उन ब्लाग पर मुझसे यूनिकोड में लिखने को कह रहे थे तो भी मैं उसकी परवाह नहीं कर रहा था। ऐसे में कोई महिला ब्लाग लेखिका (जिससे  बाद में  फिर संपर्क नहीं हो सका) ने मुझे इस  बारे में ईमेल भेजकर रोमन हिंदी में लिख रही थी कि मेरे ब्लाग पढ़ने मेंे नही आ रहे तब मैंने उसे इस ब्लाग का पता दिया। उसने लिखा-‘वहां तो सब पढ़ने में आ रहा है। वाह,वाह बढ़िया  । मगर उसने कोई कमेंट इस पर नहीं लिखी। हां, मैने तब यूनिकोड में लिखने का निर्णय लिया।

नारद पर उसी समय इसे पंजीकृत नहीं कराया पर ब्लागवाणी के अभ्युदय के साथ ही दोनों जगह इसे पहुंचाया और हिंदी ब्लाग पर तो यह पहले से ही था। यह मेरा ऐसा ब्लाग रहा है जो बिना फोरम पर दिखे भी वर्डप्रेस के डेशबोर्ड पर नंबर एक पर आया था। फोरमों पर दिखने से पहले ही यह ब्लाग अपने लिये तीन  हजार पाठक जुटा चुका था। तब अनुभव की कमी के कारण मुझे समझ में कुछ नहीं आता था पर बाद में यह बात समझ में आयी कि ब्लाग का मार्ग फोरमों से आगे भी जाता है। ब्लाग की डालरों में बताने वाली वेब साईट के मुताबिक यह मेरा सबसे महंगा ब्लाग है। हालांकि फिर भी यह अन्य ब्लाग लेखकों के ब्लाग के मुकाबले बहुत सस्ता है पर फिर भी मैं इससे संतुष्ट हूं। मुझे इस ब्लाग से एक ही संदेश मिलता है‘डटे रहो, तुम जिस रास्ते पर चल रहे हो उससे विचलित नहीं हो’। जिस तरह से पिछले पंद्रह दिन से यह ब्लाग व्यूज ले रहा था उससे मुझे लग रहा था कि  आज शाम तक यह जादूई आंकड़ा पार करेगा पर कल इसने अपने पुराने तेवर दिखाये जब मैं इस पर पोस्ट डालने लगा तो उसी समय यह इस आंकड़े को पार करने की तैयारी में लग रहा  था और आज तो यह उससे भी आगे जा रहा है।

नीचे इस ब्लाग की प्रथम बीस पोस्ट जिन्हें अधिक पाठकों ने देखा और विभिन्न फोरमों से मिलने वाले व्यूज की संख्या। यह स्पष्ट संदेश कि अध्यात्म और व्यंग्य पर ही मुझे लिखते रहना चाहिए। अपने ब्लाग लेखक मित्रों, पाठकों और समय समय पर तकनीकी विषय पर सहायता देने वाले मित्रों का मैं हृदय से आभारी रहूंगा। दूसरों को बहुत लघु लगने वाली यह उपलब्धि मेरे लिये बहुत महत्वपूर्ण है।

प्रथम बीस पोस्ट

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रहीम के दोहे:सुख में अंहकार दु:ख में कुं 244 
चाणक्य नीति:विद्या की शोभा उसकी सिद्धि  205 
मेरा परिचय=दीपक भारतदीप, ग्वालियर  202 
चाणक्य नीति:परोपकार मधुमक्खी से सीखें  175 
पहले आतंकवाद आया कि पर्यावरण प्रदूषण  175 
रहीम के दोहे:जहाँ उम्मीद हो वहीं जाएं  146 
रहीम के दोहे:मछली का जल प्रेम प्रशंसनीय  142 
चाणक्य नीति: कुत्ते और कौवे से गुण ग्रहण 126 
चतुराई से मुट्ठी में कर लो-हास्य कविता  123 
चलना ज़रा संभल कर-हास्य कविता  119 
आज नवमी-भक्तों के रक्षक हैं भगवान् श्रीर 117 
रहीम के दोहे:परिश्रम कर भोजन ग्रहण करें  115 
चाणक्य नीति:पांच वस्तुओं का संग्रह अवश्य 115 
चाणक्य नीति:बेमौसम राग अलापना हास्यास्पद 115 
दादा-पोते की राजनीति और मनोरंजन  112 
मन के बहरों के आगे क्या बीन बजाना  111 
चाणक्य नीति:क्रोध उतना ही करें जितना निभ 104 
दिल हुआ इधर से उधर  103 
असल पर नक़ल का राज  101 
चाणक्य नीति:प्रेम और व्यवहार बराबरी वाले १००
चाणक्य नीति:मनुष्य को हर विधा में पारंगत 100

Referrer Views (पाठकों के आने के मार्ग)

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blogvani.com 718
narad.akshargram.com 369
hi.wordpress.com/tag/%E0%A4%9A%E0%A4%… 223
filmyblogs.com/hindi.jsp 187
botd.wordpress.com 165
chitthajagat.in 151
 

दर्द की बजाय लिखना पसंद है संघर्ष पर


अंतर्र्जाल पर मैं लिखता हूं इसका अर्थ यह कदापि नहीं लिया जाना चाहिए कि मै किसी उच्च मध्यम परिवार से हूं। सत्य तो यह है कि मेरा जन्म निम्न मध्यम वर्ग में हुआ और बोर्ड की परीक्षा के बाद भी मैंने मजदूरी की और ठेला चलाया। जिस दुकान पर मैं नौकरी करता था वह थोक की दुकान थी और सामान दूसरी दुकान पर पहुंचाने के लिये मुझे कई बार ठेला चलाना पड़ता था। यह बात मैने अपने पिताजी से भी छिपाई थी। कई बार मेरे पैरों में कीलें घुसकर खून निकाल चुकीं हैं। अपने उस नौकरी के दौरान भी दोपहर जब मैं घर पर आता था तो लिखता था-उसमें कोई पीड़ा नहीं बल्कि जीवन के प्रति आशावाद होता था। आज नहीं तो कल मेरा होगा-यह विश्वास मेरे जीवन की अनमोल पूंजी रहा है।

मैं आजकल आपने काम पर स्कूटर पर जाता हूं पर मेरा साइकिल से अभी भी नाता हैं। मेरा काम भी अब शारीरिक श्रम करने का नहीं है पर फिर मैं उसमें कोई अपनी तरफ से नहीं रखता। शारीरिक श्रम करने वाले को बेचारा या गरीब कहना शायद कुछ लोगों को सहज लगता है पर मुझे नहीं। इसलिये जो लोग गरीब के दर्द पर कहानियां या कविताएं लिखकर वाह’-वाह जुटाते हैं उनमें मेरी रुचि नहीं रही। इस देश में परिश्रम करने वालों की कमी नहीं है पर वह भी ऐसे दर्द भरी रचनाओं को पसंद नहीं करते। हां, एसी कमरों तथा होटलों के भोजन करने वालों को एकांत में बैठकर उनके हृदय में ऐसी संवेदनशील रचनाएं दर्द का रस पैदा करतीं हैं तो वह खुश हो जाते हैं। दर्द भी एक रस है और जिनके पास सब कुछ है पर दर्द नहीं है वह इस रस से वंचित रहते हैं और इसी कारण उनको गरीबों के दर्द पर बनीं फिल्में और रचनाएं पसंद आती हैं। हमारे देश के कुछ विख्यात फिल्मकार और लेखक इसी दर्द के सहारे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर चुके हैं पर उनको यहां कोई पूछता भी नहीं था। हां, जब उनको इस देश से बाहर ख्याति मिली तो यहां भी उनको पुरस्कारों प्रदान किये गये पर आम आदमी भावनात्मक रूप से कभी उनसे नहीं जुड़ा।

मैने एक मजदूर के रूप में देखा है मुझे रोटी या सहानुभूति की नहीं सम्मान और प्यार की आवश्यकता होती है और ऐसे में और लोगों की बात क्या करें अपने भी पीछे हट जाते हैं। अपने जीवन में हर चीज अपने परिश्रम से बनाते हुए मैंने एक बात देखी है कि गरीब और मजदूर के दर्द और भावनाओं पर कुछ लोग व्यापार करते हैं। भले ही उनको पैसा अधिक नहीं मिलता पर सम्मान और नाम उन्होंने खूब कमाया। किसी गरीब मजदूर के बीमार होने पर उस पर कुछ असली तो कुछ नकली कथा लिखकर लोगों को दर्द का रस बेचा।
मैं अपनी कविताओं और कविताओं के हमेशा संघर्ष के भाव इसलिये स्थापित कर पाता हूं क्योंकि मेरा यह अनुभव रहा है कि परिश्रम करने से आत्मविश्वास बढ़ता है। इस देश में गरीब और मजदूर के कल्याण के नारे लगाने वाले बुद्धिजीवियों का लंबे समय तक वर्चस्व रहा है और उन्होंने शैक्षणिक तथा सामाजिक संस्थानों इस तरह घुसपैठ कर ली कि उनके ढांचे से बने समाज में लोग आज भी दर्द के रस में प्रफुल्लित होना चाहते हैं-उनमें आत्मविश्वास की कमी है क्योंकि वह परिश्रम नहीं करते और इसलिये दर्द का रस उनमे पैदा ही नहीं होता। जिनके पास धन की कमी है उन्हें जीवित रहने के लिये संघर्ष करना पड़ता है और बीमारी और अन्य सामाजिक संकटों में भी उसे कोई संवेदना न तो कोई देता है न वह चाहता है। वह थोड़ा सम्मान और प्रेम चाहता है और वह कोई नहीं देता।

मेरी पत्नी कई बार ठेला वालों से सामान खरीदते समय मोलभाव करती है तो मैं उसे मना करते हुए कहता हूं कि-‘यह मेहनत कर रहा है तो समाज पर उसे उपकार ही समझो क्योंकि अगर वह ऐसा न करता तो पेट पालने के लिये अपराध भी कर सकता है।’

यह मेरे अंदर मौजूद कोई दर्द नहीं है बल्कि यह अपने जीवन संघर्ष के अनुभव से मिला एक यथार्थ है। अपने जीवन के संघर्ष में मैंने इस बात का अनुभव किया है कि अधिकतर लोग परिश्रम इसलिये करते हैं कि उनका सम्मान किसी के पैरो के तले कुचला न जाये। मैं यह दावा भी नहीं करता कि मैं परिश्रम करने वालों के प्रति मै बहुत संवेदनशील हैं क्योंकि इसका अर्थ यह है कि उनके श्रम को कम कर देखना।
मै आजकल इतना शारीरिक श्रम नहीं करता। जब मैं जमकर शारीरिक श्रम करता था तब भी मै हास्य व्यंग्य लिखता था और जब भी कभी पसीना नहा जाता हूं तब भी मुझे वैसा ही लिखने में मजा आता है। इसलिये जिन लेखकों को यह भ्रम हो कि वह दर्द पर लिखकर लोकप्रियता अर्जित करेंगे उन्हें इस भ्रम का निवारण कर लेना चाहिए। इस देश के परिश्रम करने वाला भी वैसा ही अच्छा पढ़ना चाहता है जैसा कभी कभी कुर्सियों पर काम करने वाले लोग-जो दर्द की फिल्म देखकर या रचना पढ़कर उसके रस से प्रफुल्लित हो जाते है-कभी पढ़ने को इच्छुक होते हैं। इसलिये मुझे दर्द की बजाय संघर्ष पर लिखना पसंद है।

जब तक अंतर्जाल की माया, रहेगी इस ब्लाग की काया-हास्य कविता


ब्लाग पर लिख गया एक
कमेंट एक पाठक
‘ दीपक बापू  जब क्रिकेट खेल फ्लाप हो चला था
तब आपके ब्लाग पर हास्य कविता पढ़ने को
हमारा मन मचला था
अब फिर शुरू हो गया है
शोरशराबे के साथ यह खेल
मन हमारा कंप्यूटर की बजाय
टीवी पर देता है हमको ठेल
मैं तो पढ़ना चाहता हूं
मैच देखते हुए आपकी कविता
पर पत्नी खोल देती है वायलूम तेज
बहने लगती है घर में संघर्ष सरिता
आपकी कविता पढ़ने को
मेरा मन बहुत करता है
पर पूरा घर मैच पर मरता है
आप तो फ्लाप थे पहले ही
हमारा आपका हिट देखने का
सपना लगता है अधूरा ही रहेगा
क्रिकेट अब फिर जमकर रहेगा
आप ही बतायें
कैसे इस मुसीबत से निजात पायें’

पढ़कर हैरान हुए
अपने ब्लाग केा सुपर फ्लाप 
देखकर पहले ही चकराये थे
लोग भाग रहे है क्रिकेट की तरफ
इसी कारण हुआ है
यह बद से बदतर हाल
अब यह समझ पाये थे
अपनी टोपी घुमाकर कहें दीपक बापू
‘अपने घर से लड़कर कभी
हमारी हास्य कविता तो पढ़ना भी नहीं
लगे रहो क्रिकेट में
अधिक दिन मन में नहीं बसेगा
25 वर्ष तक रहा हमारे मन भी
अब तो ख्याल भी नहीं आता है
इधर हम भी मुक्त होकर लिख रहे हैं
यह सोचकर कि कोई नहीं पढ़ने वाला है
तो चाहे जैसे लिखते जाओ
कौन रोकने टोकने वाला है
फ्लाप होकर भी हम खुश हैं
क्रिकेट ने किया है बुरा हाल
पर फिर भी चंद पढ़ने वाले बचे हैं
उनके लिये लिखते जा रहे हैं
अफसोस तुमसे हिट नहीं पा रहे हैं
पर तुम फिक्र न करो
हमारा लिखा तो बना रहेगा अंतर्जाल पर
इसलिये जब फिर ऊब जाओ
तो इधर का रुख कर लेना
अपने हिट का कोटा पूरा कर देना
ब्याज में अपने परिवार का भी
हिसाब व्यूज में भर देना
हमारा यह ब्लाग कोई अखबार नहीं है
जो कबाड़ में बिक जायेगा
या कोई किताब नहीं है जो
 अल्मारी में लगी चीजों की भीड़ में खो जायेगा
बनी रहेगी इस ब्लाग की काया
जब तक अंतर्जाल की है माया
जिसको हमने भी अभी तक नहीं समझ पाया
भला तुम्हें और क्या समझायें

इंटरनेट के वायरस यानि आजकल के नये भूत- व्यंग्य


कंप्यूटर के वायरस ऐसे ही लगते हैं जैसे प्रेतात्माएं। पहले जैसे हारर फिल्मों में भूतों द्वारा चीजें उठाने और फेंकने के दृश्य देखते थे तो सोचते थे कहीं ऐसा भी होता है। जब कंप्यूटर पर काम करते थे तो सुनते थे कि कोई वायरस भी होते हैं पर इंटरनेट पर काम करते हुए तो यह वायरस बिलकुल प्रेतात्माओं के तरह लगते हैं। पूरी की पूरी मेहनत से लिखी गयी सामग्री अपने सामने लापता हो जाती हैं पर हम उसे बचा नहीं पाते। आजकल हमारे कंप्यूटर में वायरसों का जमावडा लगता है और हम जब इंटरनेट में दाखिल होते हैं तो मानकर चलते हैं कि इन प्रेतात्माओं से बचना चाहिए पर नहीं बच पाते।

होता यह है हम अपने जीमेल से विभिन्न फोरमों में दाखिल होते हैं और वहाँ कोई ब्लोग पढ़ते हैं तो कमेन्ट लगाते हैं और जब वहाँ से विदा होते हैं तो सब कुछ हवा हो जाता है। जीमेल फिर दोबारा नहीं खुलता। एक दिन एक ब्लोग पर कमेन्ट लगाकर दूसरा ब्लोग खोला और उसके लिए बहुत बड़ी कमेन्ट इंडिक पर लिखी और उसे नीचे (minimise) किया तो पता लगा कि सब कुछ बंद हो गया। बहुत देर इन्तजार किया और फिर कंप्यूटर बंद कर दोबारा चालू किया और हमारे द्वारा लिखा गया कमेन्ट अब अपना अस्तित्व खो चुका था।

इसी तरह जब वर्डप्रेस पर जाकर कभी कभी हम व्युज और कमेन्ट देखने जाते हैं और फिर उसे नीचे रखकर इंडिक टूल पर लिखते हैं और कहीं उसे नीचे रखते हैं तो पता लगा कि सब बंद हो गया। एक बार मनु स्मृति के दो श्लोक जो हमने बहुत मेहनत से टंकित किये थे एक बार हवा हुए तो फिर उनको दुबारा लिखने का साहस नहीं हुआ। कल तो मैंने एक बहुत बडा व्यंग्य लिखा और हवा हो गया। कोई वायरस है और हमारी पोस्टों को लील रहा है। अगर केवल इंडिक टूल खोलकर लिखें और उसी फिर अपने कंप्यूटर में सेव करें तो हो जाता है पर अगर किसी दूसरी वेब साईट से लौटें है तो पता लगता है कि कोई ऐसा वायरस है जो माऊस में घुसा बैठा है और वह फिर इंडिक को नीचे(minimise) करने पर पूरे कंप्यूटर पर कब्जा कर लेता है और तब तक नहीं जाता जब तक उसे बंद न कर लें। मतलब यह कि उस प्रेतात्मा को विचार कर ही काम करना पड़ता है अगर किसी जगह से पढ़ लिख कर लौटे हैं तो पहले सारी प्रोग्राम बन कर फिर इंडिक खोलते हैं क्योंकि ऐसे में वायरस से ख़तरा काम हो जाता है अगर कहीं गेमैल भी खुला पडा है और वर्डप्रेस भी साथ में नीचे (minimise) पडा है तो फिर खतरा लगता है।

अभी कंप्यूटर में वायरसों का बोलबाला है और ऐसे में जब अपने मेहनत से लिखे पर पानी फिरते देखता हूँ तो दुख होता है। दुबारा लिखने का मन भी नहीं करता।
मेरे कंप्यूटर इंजीनीयर ने पहले ही बता दिया था कि इंटरनेट के उपयोग से मेरा कंप्यूटर अक्सर खराब हुआ करेगा। मैंने सोचा कि सावधानी से उपयोग करूंगा तो फिर काहेका खतरा! पर अब लगता है कि उसने सही कहा था। इसलिए अब जब लिखता हूँ तो अपनी हर पोस्ट पर लिखते समय यह भय बना रहता है कि वह कोई वायरस उसे न लेकर उडे। कई बार अगर इंडिक के साथ जीमेल खुले होने पर तो उसे अपने कंप्यूटर में विक्पीडिया के टूल में इसलिए सेव नहीं करता कि कहीं इंडिक को नीचे(minimise) करूं और पता लगा कि हेंग हो गया इसलिए जीमेल से किसी ब्लोग पर जाकर सेव करता हूँ ताकि मेहनत निरर्थक न चली जाये। कंप्यूटर का वायरस ऐसी हालत में किसी भूत-प्रेत से कम नहीं लगता। किसी दूसरी वेव साईट और वेब पेज से लौटने पर यह वायरस हमारे पीछे भूत की तरह चला आता है और फिर जब तक इंटरनेट के सब प्रोग्राम बंद नहीं करते वह बना रहता है। शुरुआती दिनों में इंटरनेट पर जिस मनमानी से इधर-उधर विचरण करते थे अब वह नहीं हो पाता और यह वायरस भूत की तरह अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाता है।

चजई-लो तय कर दी ब्लोग की परिभाषा-हास्य व्यंग्य


ब्लोग क्या है? मेरे लिए एक ऐसी डायरी जिसे कोई भी पढ़ सकता है. अंग्रेजी के लोग इसका कैसे इस्तेमाल करते हैं इससे मेरा मतलब नहीं पर में जानता हूँ की इसका भारतीय लेखक इसी रूप में इस्तेमाल करेंगे. मैं इस पर नहीं लिखता तो एक रजिस्टर पर लिखता. मैंने अपने रजिस्टर पर आज से छः वर्ष पूर्व ऊपर अपने एक लेखक मित्र के कहने पर मजाक में लिख दिया ”दीपक बापू कहिन”.जब मैं ब्लोग बनाने बैठा तो मेरे सामने कोई लक्ष्य नहीं था इसलिए जब वर्डप्रेस का यूजर नेम देखा तो यही भर दिया. मुझे पता नहीं था कि मेरे ब्लोग का यही पता बनने वाला था.

उसी दिन ब्लोग स्पॉट पर भी ब्लोग ठोक दिया. उसमें पता नहीं कैसे छोटा एड्रेस डाला पर लिख दिया दीपक भारतदीप का चिंतन जो कि दूसरे रजिस्टर पर लिखा था. हाँ, यह जरूर है कि मेरा उद्देश्य लोगों तक अपनी बात पहुंचाना था. धीरे-धीर इसका मतलब समझने लगा और मैं अब इसे अपनी पत्रिकाओं की तरह मानता हूँ. जिस कागज पर रजिस्टर बनता है उसी पर ही अख़बार. जो कागज आप घर में लिखकर रखते रहें वह डायरी और जो अगर वह दूसरे पढ़ने लगें तो पर्चा हो जाता . अखबार को पर्चा भी कहा जाता है. मैं दूसरों की परिभाषा पर अपनी परिभाषा चढाने का सामर्थ्य रखता हूँ क्योंकि जो उनको रचते हैं वह भी मेरी तरह इंसान होते हैं. अगर आप में खुद चिंतन करने की ताकत हैं तो आप दूसरों के कहे चलने पर अपने रस्ते पर चलते हुए उसका नामकरण भी खुद करें-तब तो में आपको लेखक मान सकता हूँ.

मुझे कोई प्रकाशक नहीं मिला, मैंने अपने प्रकाशन के लिए कहीं दस्तक नहीं दी पर मैं लोगों को पढता हूँ और जानता हूँ कि कौन क्या लिखता है. मैं अक्सर सोचता हूँ क्या तुलसीदास जी के बाद कोई दूसरा पैदा ही नहीं हुआ जो भारतीय जनमानस को प्रभावित कर सके. इसलिए भाई लोग एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए विदेशी लेखकों के नाम लेते हैं. ब्लोग जगत पर भी कई लोग दूसर देशों के कूड़े-करकट जैसे वाक्यांश आकर यहाँ लिखते हैं.

अगर कोई बात दीपक भारतदीप ने कही है तो उसका उपाय यही हो सकता है कि किसी विदेशी लेखक का लिखा ले आओ खुद तो उसका मुकाबला कर नहीं कर सकते. वह ब्लोग लिख रहा है और हम भी. उसे कैसे बड़ा बन जाने दें. ऐसा सदियों से हो रहा है. विदेश से मान्यता हो जाये तो यहाँ सब हिट हैं. अमुक अंग्रेजी लेखक हमारे देश का है सीना फुलाते हैं, और इधर बैठकर अपने देश के स्वभाषी लेखक को पढ़ते नहीं क्योंकि वह लिखता क्या होगा उससे तो हम ही अच्छा लिखते हैं. फिल्म वाले भी हर साल अपनी कोई फिल्म लेकर ओस्कर में पहुंच जाते हैं, और यहाँ खूब प्रचार करते हैं. फिर पिटकर लौटते हैं तो भी सीना तानकर कि हम वहाँ गए थे तो.

मुझे याद आता है कि बचपन में मैंने एक सेल देखी थी जिस पर लिखा था ”विदेश से रिजेक्ट जूते और कपडों की सेल’ . गजब की भीड़ थी-खरीददारों की भीड़ उस पर टूट पडी थी. तब मैंने अपने चाचाजी से पूछा था-”यह क्या है -”

उनका जवाब यहाँ लिखने के लिए नहीं है. जिसका आशय यही था कि विदेशियों से थप्पड़ भी खाकर आयेंगे तो भी शान से यहाँ आयेंगे, और लोग अपना गाल सबको दिखाएँगे कि देख यहाँ उस विदेशी का थप्पड़ पड़ा था. तब से कुछ ऐसा घुसा कि मैंने हमेशा ही अंग्रेजी से उत्पन हर विचार को अपने ढंग से देखने का सिलसिला शुरू किया. जो इस देश के लेखक विदेशी लेखों के अनुवाद -अगर वह तकनीकी विषय से संबंधित नहीं है-प्रस्तुतु करते हैं उनको कभी सम्मान से नहीं देखता. इस देश में क्या लेखकों और विद्वानों की कमी है?
हर चीज के लिए विदेशी लेखकों के संदर्भ देने वालों की मर्जी है दें, मगर हम कहते हैं कि महाराज कुछ अपना भी तो जोडो खाली-पीली अनुवाद दिए जा रहे हो.
हमारे देश में विद्वानों की कमी नहीं है. हर प्रकार के विषय पर उनका संदर्भ दिया जा सकता है जिन नये विषयों पर उपलब्ध नहीं हो हमारे पास ले आओ. फट से बना देंगे, और अंग्रेजों के पास ले जाओ. वह यकीन नहीं करेंगे और करेंगे तो ऐसा कि वह हमारा उद्धरण वहाँ देंगे. हमने ब्लोग की परिभाषा जो तय की है. वह यह है कि
‘ ब्लोग वास्तव में एक निज पत्रक है जिसका पत्र-पत्रिकाओं, व्यक्तिगत डायरी, विज्ञापन स्थल और म्यूजियम की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है और इसका स्वरूप इसके मालिक की योग्यता से निर्धारित होता है. कुछ निज पत्रक के लेखकों में इतनी योग्यता होगी कि वेब साईटों का बोझ भी अपने कंधे पर ढो लेंगे और कुछ ऐसे होंगे जिनको वेब साईटें भी विकास पथ पर नहीं ले जा सकेंगी.”

इससे अलग कोई परिभाषा के लिए इस देश का अन्य लेखक दे तू मुझे बताना पर कोई विदेशी लेखक का नाम मत लिखना. यह किसी अंग्रेजी ब्लोग पर भी नहीं छापना क्योंकि कोई अंग्रेज अगर उसे पढ़ लेगा और अपने नाम से छाप देगा तो फिर तुम उसे पढ़कर यहाँ आकर सुनाओगे. भारत में भी हम जैसे कई लेखक हैं जो हो सकता है कोई और परिभाषा गढ़ ले और तब उसे यही कहना पड़ेगा जो मैं कह रहा हूँ”महाराज कुछ अपना सुनाओ’

याद रखना यह मेरा हास्य आलेख आज ही प्रभाव नहीं खोयेगा, इसे आगे भी पढा जायेगा.

असल पर नक़ल का राज-हास्य कविता


आँख के अंधे अगर हाथी को
पकड कर उसके अंगों को
पकड लें
अपने बुद्धि के अनुसार
उसके अंगों का बयान
कुछ का कुछ कर लें
तो चल भी सकता है
पर अगर अक्ल के अंधे
रबड़ के हाथी को पकड़ कर
असल समझने लगें तो
कैसे हजम हो सकता है

कभी सोचा भी नहीं था कि
नक़ल इतना असल हो जायेगा
आदमी की अक्ल पर
विज्ञापन का राज हो जायेगा
हीरा तो हो जायेगा नजरों से दूर
पत्थर उसके भाव में बिकता नजर आएगा
कौन कहता है कि
झूठ से सच हमेशा जीत सकता है
छिपा हो परदे में तो ठीक
यहाँ तो भीड़ भरे बाजार में
सच तन्हाँ लगता है
इस रंग-बिरंगी दुनिया का हर रंग भी
नकली हो गया है
काले रंग से भी काला
आदमी के मन का लगता है

इससे तो अकेले में गीत गुनगुनाएं-हिंदी शायरी


जब वह पास थे तो ऐसा लगता कि
बस हमेशा के लिए साथ हैं
और कभी अलग नहीं होंगे
जब दूर चले गए तो ऐसा लगता है कि
वह कोई हवा का झोंका था तो
जो हमारे पास से गुजर गया
हम उसे गलतफहमी में
अपना समझते होंगे

वादों के तूफानों में कई बार
उन्होने हमें उडाया होगा
अपने लिए सामानों का समंदर
हमसे लेकर जुटाया होगा
हम तो समझते थे दिल का रिश्ता
क्या पता था कि वह दिल के नहीं
हमारी चीजों के कद्रदान होंगे
हमें कितने सपने दिखाते थे
ख़्वाबों के अंबार जुटाते थे
क्या पता था वह हमें
फुर्सत का सामान समझते होंगे
——————–

दिल का दर्द किसे सुनाएँ
कान से सुनते हैं सब
पर दिल के बहरे नजर आयें
जो बोलते हैं जुबान से
पर हमदर्दी के अल्फाज
बोलने की बजाय गूंगे हो जाएं
आंखों से देखते हैं पर
किसी की तकलीफ देखने से
अपने का अंधा बनायें
इससे अच्छा है अपने दर्द
को अकेले में चिल्ला कर
खुद को ही सुनाएं
नहीं तो कोई गीत गुनगुनाएं
——————-

कुछ लोगों के लिए समाज सेवा फैशन है


आखिर समाज सेवा है क्या? उसका स्वरूप क्या है? यह आज तक कोई नहीं समझ पाया। हमें तो अपने धर्म ग्रंथों से यही सन्देश पाया है की सहृदय, दयालु, परोपकारी और दानशील बनो-अब यह पता नहीं है की इससे समाजसेवा होती है की नहीं।

आए दिन कहीं न कहीं सुंदरी प्रतियोगिता होती है तो कहीं नाच-गाने के कार्यक्रमों को ही प्रतियोगिता के रूप में पेश किया जाता है जिसके विजेता अपना अगला कार्यक्रम ‘समाज सेवा” बताते हैं। कई बडे लोग अपने नाम के आगे समाज सेवी का परिचय लगवाते हैं तो कुछ बुद्धिजीवी भी और कुछ नहीं तो अपने नाम के आगे ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ शब्द लगवाकर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। कहा जाता है जो कुछ नहीं कर सकता वह राजनीति में चला जाता है और जो नहीं कर सकता वह समाज सेवा में चला जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह हो गई है की अब समाज सेवा के लिए धन जुटाने हेतु प्रतिष्ठित खेलों के मैच और नाच-गाने के कार्यक्रम भी आयोजित किये जाने लगे हैं-उनसे कितनी सेवा होती है कभी पता ही नहीं चलता।

वैसे किसी गरीब की आर्थिक सहायता करना, असहाय बीमार की सेवा सुश्रुपा करना और जिन्हें विद्या की आवश्यकता है पर वह प्राप्त करने में असमर्थ हैं उनका मार्ग प्रशस्त करना ऐसे कार्य हैं जो हर समर्थ व्यक्ति को करना चाहिए। इसे दान की श्रेणी में रखा जाता है और यह समर्थ व्यक्ति का दायित्व है कि वह करे। इतना ही नहीं करने के बाद उसका प्रचार न करे क्योंकि यह अहंकार की श्रेणी में आ जायेगा और उस दान का महत्व समाप्त हो जायेगा। कहते भी हैं कि नेकी कर और दरिया में डाल। अगर हम अपनी बात को साफ ढंग से कहें तो उसका आशय यही है कि व्यक्ति की सेवा तो समझ में आती है पर समाज सेवा एक ऐसा शब्द है जो कतिपय उन कार्यों से जोडा जाता है वह किये तो दूसरों के जाते हैं पर उसमें कार्यकर्ता की अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढाने में सहायक होते है- और कहीं न कहीं तो इसके लिए उनको आर्थिक फायदा भी होता है।

आजकल टीवी और अखबारों में तथाकथित समाज सेवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम आते रहते हैं। अगर उनकी कुल गणना की जाये तो शायद हमारे समाज को विश्व का सबसे ताक़तवर समाज होना चाहिऐ पर ऐसा है नहीं क्योंकि उनसे कोई व्यक्ति लाभान्वित नहीं होता जो समाज की एक भौतिक और वास्तविक इकाई होता है। समाज सेवा बिना पैसे के तो संभव नहीं है और समाज सेवा के नाम पर कई लोगों ने इसलिए अपनी दुकाने खोल रखीं है ताकि धनाढ्य वर्ग के लोगों की धार्मिक और दान की प्रवृति का दोहन किया जा सके। कई लोग समाज सेवा को राजनीति की सीढियां चढ़ने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। आजकल समाज सेवा की नाम पर जो चल था है उसे देखते हुए तो अब लोग अपने आपको समाज सेवक कहलाने में भी झिझकने लगे हैं। समाज सेवा एक फैशन हो गया है।

एक आदमी उस दिन बता रहा था कि सर्दी के दिनों में एक दिन वह एक जगह से गुजर रहा था तो देखा एक कार से औरत आयी और उसने सड़क के किनारे सो रहे गरीब लोगों में कंबल बांटे और फुर्र से चली गयी। वहाँ कंबल ले रहे एक गरीब ने पूछा’आप कौन हैं, जो इतनी दया कर रहीं है?’

उसने हंसकर कहा-‘मैं कोई दया नहीं कर रहीं हूँ। ईश्वर ने जो दिया है उसे ही बाँट रही हूँ। मैं तो कुछ भी नहीं हूँ। यह सब भगवान की रची हुई माया है।’

उस आदमी ने वहाँ खडे होकर यह घटना देखी थी। उसका कहना था कि ‘कंबल भी कोई हलके नहीं रहे होंगे।’
ऐसे अनेक लोग है जो सच में समाज सेवा करते हैं पर प्रचार से दूर रहते हैं. कुछ धनी लोग दान करना चाहते हैं पर नाम नहीं देना चाहते इसलिए वह बिचोलियों का इस्तेमाल करते हैं जो समाजसेवा की आड़ में उनके पास पहुच जाते हैं, और चूंकि उनका मन साफ होता है इसलिए कोई सवाल जवाब नहीं करते-पर इससे तथाकथित समाज सेवियों की बन आती है।

आज के ही अखबार में पढा कि एक गरीब लड़की के इलाज के लिए पैसे देने की पेशकश लेकर एक आदमी उनके दफ्तर में पहुंच गया पर उसने शर्त रखी कि वह उसका नाम नहीं बताएँगे। उस अखबार ने भी उसकी बताई राशि तो छाप दी पर नाम नहीं लिखा। अब चूंकि वह एक प्रतिष्ठित अखबार है तो वह रकम वहाँ तक पहुंच जायेगी पर कोई तथाकथित समाज सेवी संस्था होती तो हो सकता है उसके लोग उसमें अपनी भी जुगाड़ लगाते। मैंने पहले ही यह बात साफ कर दी थी की व्यक्ति की सेवा तो समझ में आती है समाज सेवा थोडा भ्रम पैदा करती है। व्यक्ति की अपनी जरूरतें होती हैं और उसको समाज से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।

अब तो कई बार समाज सेवा शब्द भी मजाक लगने लगता है जब उसके नाम पर संगठन बनाए जाते हैं और कहीं तो आन्दोलन भी चलते हैं। आन्दोलन शब्द ही राजनीति से जुडा है पर उसमें विवाद होते हैं उसकी वजह से सामाजिक आन्दोलन के नेता अपने को सामाजिक कार्यकर्ता ही कहते हैं। यह अलग बात है की सुविधानुसार वह करते तो किसी न किसी तरह वह सुर्खियों में बने रहते हैं। सच तो यह है समाज सेवा अभी तक साफ सुथरा शब्द है इसलिए कई लोग इसकी आड़ में अपनी छबि चमकाते हैं। ऐसा नहीं है की देश में गरीबों और निराश्रितों की सेवा करने वाले संगठन नहीं है पर वह इस प्रचार से दूर रहते हुए अपने काम करते हैं और जो प्रचार करते हैं वह व्यक्ति की सेवा कम अपने नाम के लिए ज्यादा काम करते हैं। उनका लक्ष्य समाज सेवा यानि आत्म प्रचार और विज्ञापन है।

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