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व्यापार जज़्बातों का-हिन्दी शायरी


अपने जज़्बातों को दिल में रखो
बाहर निकले तो
तूफान आ जायेगा।
हर बाजार में बैठा हैं सौदागर
जो करता है व्यापार जज़्बातों का
वही तुम्हारी ख्वाहिशों से ही
तुमसे तुम्हारा सौदा कर जायेगा।
यहां हर कदम पर सोच का लुटेरा खड़ा है
देख कर ख्याल तुम्हारे
ख्वाब लूट जायेगा।
इनसे भी बच गये तो
नहीं बच पाओगे अपने से
जो सुनकर तुम्हारी बात
सभी के सामने असलियत गाकर
जमाने में मजाक बनायेगा।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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कबीर के दोहे-अपने सुंदर और बड़े मकान पर अंहकार न करो


संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि
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कबीर गर्व न कीजिए, ऊंचा देखि आवास
काल परौं भूईं लेटना, ऊपर जमसी घास

भावार्थ-अपना शानदार मकान और शानशौकत देख कर अपने मन में अभिमान मत पालो जब देह से आत्मा निकल जाती हैं तो देह जमीन पर रख दी जाती है और ऊपर से घास रख दी जाती है।
आज के संदर्भ में व्याख्या-यह कोई नैराश्यवादी विचार नहीं है बल्कि एक सत्य दर्शन है। चाहे अमीर हो या गरीब उसका अंत एक जैसा ही है। अगर इसे समझ लिया जाये तो कभी न तो दिखावटी खुशी होगी न मानसिक संताप। सबमें आत्मा का स्वरूप एक जैसा है पर जो लोग जीवन के सत्य को समझ लेते हैं वह सबके साथ समान व्यवहार करते हैं। हम जब किसी अमीर को देखते हैं तो उसको चमत्कृत दृष्टि से देखते हैं और कोई गरीब हमारे सामने होता है तो उसे हेय दृष्टि से देखते हैं। यह हमारे अज्ञान का प्रतीक है। यह अज्ञान हमारे लिए कष्टकारक होता है। जब थोडा धन आता है तो मन में अंहकार आ जाता है और अगर नहीं होता तो निराशा में घिर जाते हैं और अपने अन्दर मौजूद आत्मा को नहीं जान पाते। यह आत्मा जब हमारी देह से निकल जाता है तो फिर कौन इस शरीर को पूछता है, यह अन्य लोगों की मृतक देह की स्थिति को देख सीख लेना चाहिये।
कई शानदार मकान बनते हैं पर समय के अनुसार सभी पुराने हो जाते हैं। कई महल ढह गये और कई राजा और जमींदार उसमें रहते हुए पुजे पर समय की धारा उनको बहा ले गयी। इनमें से कई का नाम लोग याद तक नहीं करते। हां, इतिहास उन लोगों को याद करता है जो समाज को कुछ दे जाते हैं। वैसे अपने इहकाल में भी किसी धनी को वही लोग सम्मान देते हैं जो उससे स्वार्थ की पूर्ति करते हैं पर जो ज्ञानी,प्रतिभाशाली और दयालु है समाज उसको वैसे ही सम्मान देता है यह जाने बगैर कि उसका घर कैसा है?
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लड़ाई बढ़ाने का फायदा-हास्य व्यंग्य


वह कुटिल साधु अपने लिये स्थाई ठिकाना ढूंढने निकला था पर उसे कुछ समझ में नहीं आया कि कहां रुकें? वह चाहता था कि वह ऐसी जगह रुके जहां चारों तरफ पेड़ पौद्ये हों? जहां के निवासी मेहनती और धनी हों। पास में कोई नदी बहती हो। वह एक अपराधी था और राज्य के दबाव के चलते वह अपने धंधे छोड़कर दूसरा धंधा करना चाहता था। इसलिये उसने साधु का वेश बना लिया। वह चलता थक गया पर चलता जा रहा। आखिर वह थक कर एक पेड़ के नीच आंखें बंद कर बैठ गया। कुछ देर बार उसने आंखे खोली तो देखा सामने चार लोग जमीन पर बैठकर उसे देख रहे हैं। फिर उसने अपने चारों तरफ देखा तो दंग रह गया। वैसी ही जगह वहां थी जैसी वह चाहता था। उसने चारों तरफ देखा। पक्के मकान ही दिखाई दिये। खेतों में फसल लहरा रही थी तो पेड़ के झुंड उनके किनारे खडे थे दूर बहती नहर भी उसने देखी।
फिर उसने उन चारों लोगों की तरफ देखा और कहा-‘बच्चों तुम कौन हो? और यहां कैसे आये हो?’
उनमें एक न कहा-‘हम चारों आसपास के चार गावों के हैं। यहां दोपहर में गपशप करने के लिये मिलते हैं। आज आप यहां विराजे हैं। आपको ध्यान में देखकर हम चुपचाप बैठ गये कि आप ध्यान से निवृत हों तो कुछ आपसे ज्ञान की बात सुनें ताकि हमारे मन का संताप दूर हो जाये।’
साधु ने पूछा-‘तुम्हारे अंदर कैसा मानसिक संताप है?’
दूसरे ने कहा-‘बाबा, हमारे गांवों में आपसी दुश्मनी है। लोग हमारी मित्रता को देखकर ताने कसते हैं। कहते हैं कि तुम अपने गांव के वफादार नहीं हो और दुश्मन गांव वाले से दोस्ती करते हो। आप बताओ यहां एकता कैसे करवायें?
साधु ने कहा-‘उनमें लड़ाई बढ़ाकर फायदा उठाओ। एकता से तुम्हें क्या मिलने वाला है?’
चारों एक दूसरे का मूंह देखने लगे। तीसरा बोला-‘बाबा, दरअसल हम यही तो सोचते हैं कि एकता से हमें फायदा होगा कोई व्यापार करेंगे तो चारों गावों के ग्राहक मिलेंगे। अभी तो यह हाल है कि बीच में कोई दुकान खोलो तो दुश्मन गांव का आदमी रात को जलाकर भाग जाता है। हमारे गांव का आदमी इसलिये सामान नहीं खरीदता कि हमारी दुश्मन गांव वाले से दोस्ती है दूसरे गांव वाले द्वारा खरीदने का सवाल ही नहीं है। इसलिये बेकार घूम रहे हैं। वैसे अगर उनकी दुश्मनी से फायदा उठाने की कोई योजना हो तो हम उसी भी चलने को तैयार हैं एकता की बात भी तो हम अपने फायदे के लिये सोच रहे हैं।’
उस कुटिल साधु ने कहा-‘ठीक है! तुम अपने गांवों में जाओ और इस बात का हमारे बारे में प्रचार करो कि खूब चढ़ावा हमारे पास आ रहा है। इस पेड़ के नीचे आज ही हम एक कच्ची कुटिया बना लेते हैं। तुम जाकर दुश्मन गावों के लोगों द्वारा हम पर अधिक चढ़ावे की बात करो। उनमें होड़ लग जायेगी। अपने गांव की इज्जत दाव पर लगने के भय से लोग खूब चढ़ावा लायेंगे। गांव में जाकर बाहर के गांव के मुकाबले और गांव में जाति, भाषा और धर्म के मुकाबले इज्जत की बात करना। बस देखो! कैसे काम बनता है। इसमें तुम्हारा कमीशन भी बन जायेगा। हम यहां एक मूर्ति लगा लेते हैं तुम यहां पर उस प्रसाद तथा दूसरा सामान चढ़ाने का सामान बेचने का काम शुरू कर देना। बस! फिर देखो धन दौलत तुम्हारे कदम चूमने लगेगी।’
चैथे ने कहा-‘पर हम वहां जाकर यह झूठ कैसे बोलें कि आपके पास चढ़ावा बहुत आ रहा हैं अभी तो आपकी कुटिया भी नहीं बनी और बनेगी तो उसमें दिखाने के लिये भारी चढ़ावा कैसे आयेगा?’
साधु ने कहा-‘हम जनता को कुटिया के बाहर दर्शन देंगे। हमारी कुटिया में प्रवेश किसी का हाल फिलहाल तो नहीं होगा। जब हम अंदर हों तो तुम यहां पहरा देना और कहना कि ‘साधु महाराज अभी अंदर साधना और ध्यान कर रहे है। जैसे हम अभी बैठे बैठे नींद ले रहे थे और तुमको लगा कि हम ध्यान लगा रहे हैं। वैसे ही भक्तों को भी यही वहम बना रहेगा कि अंदर कुटिया में भारी चढ़ावा होगा। वैसे इस बहाने अनजाने में सही तुम्हारा दुश्मन गावों में एकता लाने का सपना भी पूरा कर लोगे, पर हां एकता की बात करना पर चारों गांवों एकता होने बिल्कुल नहीं देना। एकता उतनी होने देना तुम्हारे धंधे के लिये खतरा न हो और इज्जत की लड़ाई को कभी बंद नहीं होने देना।’

वह चारों चले गये। अगले दिन सुबह चारों गावों से भीड़ उस कुटिल साधु के पास तमाम तरह का सामान लिये चली आ रही थी और वह मंद मंद मुस्करा रहा था।
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प्रचार की मूर्ति-हास्य व्यंग्य कवितायेँ
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ओ आम इंसान!
तू क्यों
ख़ास कहलाने के लिए मरा जाता है.
खास इंसानों की जिन्दगी का सच
जाने बिना
क्यों बड़ी होने की दौड़ में भगा जाता है.
तू बोलता है
सुनकर उसे तोलता है
किसी का दर्द देखकर
तेरा खून खोलता है
तेरे अन्दर हैं जज्बात
जिनपर चल रहा है दुनिया का व्यापार
इसलिए तू ठगा जाता है.
खास इंसान के लिए बुत जैसा होना चाहिए
बोलने के लिए जिसे इशारा चाहिए
सुनता लगे पर बहरा होना चाहिए
सौदागरों के ठिकानों पर सज सकें
प्रचार की मूर्ति की तरह
वही ख़ास इन्सान कहलाता है.
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प्रचार की चाहत में उन्होंने
कुछ मिनटों तक चली बैठक को
कई घंटे तक चली बताया.
फिर समाचार अख़बार में छपवाया.
खाली प्लेटें और पानी की बोतलें सजी थीं
सामने पड़ी टेबल पर
कुर्सी पर बैठे आपस में बतियाते हुए
उन्होंने फोटो खिंचवाया
भोजन था भी कि नहीं
किसी के समझ में नहीं आया.
भला कौन खाने की सोचता
जब सामने प्रचार से ख़ास आदमी
बनने का अवसर आया.

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प्रचार ही होता है प्रमाण पत्र-हास्य व्यंग्य कविताएँ


रोगियों के लिये निशुल्क चिकित्सा शिविर
बहुत प्रचार कर उन्होंने लगाया
पंजीयन के लिये बस
पचास रुपये का नियम बनाया
खूब आये मरीज
इलाज में बाजार से खरीदने के लिये
एक पर्चा सभी डाक्टर ने थमाया
इस तरह अपने लिये उन्होंने
अपने धर्मात्मा होने का प्रमाण पत्र जुटाया
…………………………………….
ऊपर कमाई करने वालों ने
अपने लेने और देने के दामों को बढ़ाया
इसलिये भ्रष्टाचार विरोधी
पखवाड़े में कोई मामला सामने नहीं आया
धर्मात्मा हो गये हैं सभी जगह
लोगों ने अपने को समझाया

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कही पर अनसुनी बात भी अपना काम कर जाती-हिंदी शायरी


कभी-कभी उदास होकर
चला जाता हूँ भीड़ में
सुकून ढूँढने अपने लिए
ढूँढता हूँ कोई हमदर्द
पर वहाँ तो खडा रहता है
हर शख्स अपना दर्द साथ लिए
सुनता हूँ जब सबका दर्द
अपना तो भूल जाता हूँ
लौटता हूँ अपने घर वापस
दूसरों का दर्द साथ लिए

कोई नहीं सुनता पर फिर भी सुनाकर
दिल को तसल्ली तो हो जाती
दूसरे के दर्द की बात भला
अपने दिल में कहां ठहर पाती
कही पर अनसुनी बात भी अपना काम कर जाती
कभी सोचता हूँ कि
अगर इस जहाँ में दर्द न होता
तो हर शख्स कितना बेदर्द होता
फिर क्यों कोई किसी का हमदर्द होता
कौन होता वक्ता, कौन श्रोता होता
तब अकेला इंसान जीवन गुजारता
अपना दर्द पीने के लिए

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अपनी जुबान से स्वयं को आजाद बताते-हास्य कविता


फंदेबाज लाया अखबार और बोला
‘बापू हम लोग बेकार में अपनी
व्यवस्था का मजाक उड़ाते
बिचारे अंग्रेज भी ऐसी ही
व्यवस्था में अपनी सांस फंसी पाते
देखो अखबार में लिखा
वहां भी दफ्तरों में कागज पर
अधिक होता काम
जमीन पर लगता है जाम
फाईलों अधिक चलती हैं
व्यवस्था में लगे लोगों के कारण
वहां भी जनता अपने हाथ मलती है
तसल्ली हो गयी है
जो दर्द हमें दे गये यहां पर अंग्रेज
उसके अहसास में खुद भी जले जाते’

सुनकर पहले गुस्से में उसे देखा
और फिर मुस्कराते हुए बोले महाकवि दीपक बापू
‘फिर काहे आजादी का जश्न मनाते
जब उनके पदचिन्हों पर ही चल कर खुश हो जाते
यह आजादी कितना भ्रम है
यह तुम्हें अब आया ज्ञान
ज्ञानियों ने तो पहले ही लिया था मान
अंग्रेज जाते जाते अपनी शिक्षा और संस्कृति
यहां अपने अग्रजों को सौंप गये थे
आजादी के नाम गुलामी का छुरा घौंप गये थे
पूर्वजों की तरह जो चला रहे हैं व्यवस्था
नहीं हैं उनके व्यवस्थापक होने की अवस्था
कदम कदम पर अंग्रेजियत का बोलाबाला है
हर घर में लगा अक्ल का ताला है
बिना पढ़े लिखो
साहब जैसा हमेशा दिखो
जो लिखो कोई पढ़कर समझे नहीं
समझे तो कुछ पूछने की हिमाकत करे नहीं
अपने मतलब से नियम बनाओ
खुद न चलो दूसरे को चलाओ
अंग्रेजी पढ़कर रोटी मिलेगी
इस पर चले हैं सब देश में
फिर भी घूम रहे हैं बेरोजगार के वेश में
अंग्रेजों बिना किताब के नियम पर चलते हैं
पर यहां चलने से पहले नियम बनते हैं
कागजों में हो गयी आदमी की जिंदगी
नौकर बनने के लिये कर रहे हैं
बड़े बड़े लोगों की बंदगी
आजादी एक नारा थी
सच में मिली कहां
शिखर पर बैठे पुतलों के चेहरे बदले
जमीन में खड़ा आदमी तो अभी भी
मुश्किलों में है वहां
जिस पर है पद, पैसे और प्रतिष्ठा की शक्ति
उसकी करते हैं सब गुलामों जैसी भक्ति
बन गये हैं जो खास आदमी
वह समझतें है जैसे गुलाम हैं सब उनके आम आदमी
सच पर पहरे बहुत हैं
जितना बाहर आने की करता हम छिपाते
कोई हंसे नहीं इसलिये
अपनी जुबान से स्वयं को आजाद बताते
अंग्रेज जो अंग्रेजियत छोड़े गये
उसके हम भी गुलाम है
पर फिर भी आजादी की जंग कहां शुरू कर पाते
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टोपी के व्यापार का शुभारंभ-हास्य व्यंग्य


दीपक बापू बाहर जाने के लिये बाहर निकल रहे थे तो बा (गृहस्वामिनी) ने कहा-‘अभी बिजली नहीं आयी है इसलिये सर्वशक्तिमान के दरबार में दर्शन करने जा रहे हो नहीं तो अभी तक कंप्यूटर पर अपनी आखें झौंक रहे थे।’
दीपक बापू ने कहा-‘कैसी बात करती हो। लाईट चली गयी तो चली गयी। मैं तो पहले ही कंप्यूटर को पर्दा गिराने (शट डाउन) का संदेश भेज चुका था। अपने नियम का मैं पक्का हूं। सर्वशक्तिमान की कृपा है कि मैं ब्लाग लिख पा रहे हूं।
बा ने कहा-‘फंदेबाज बताता रहता है कि तुम्हारे हिट होने के लिये वह कई जगह मन्नतें मांगता है। तुम्हारे फ्लाप शो से वह भी दुःखी रहता है।
दीपक बापू ने कहा-‘तुम भी किसकी बात लेकर बैठ गयी। न वह पढ़ने में न लिखने में। आ जाता है फालतू की बातें करने। हमने कभी अपने फ्लाप रहने की परवाह नहीं की जो वह करता है। जिनके दोस्त ऐसे ही हों वह भला हिट ब्लागर बन भी कैसे सकता है।’

इतने में फंदेबाज ने दरवाजे पर दस्तक दी। दीपक बापू ने कहा-‘और लो नाम शैतान का। अच्छा खासा सर्वतशक्तिमान के दरबार में जा रहा था और यह आ गया मेरा समय खराब करने। साथ में किसी को लाया भी है।’
फंदेबाज उस आदमी को लेकर अंदर आया और बोला-‘दीपक बापू कहीं जा रहे थे क्या? लगता है घर में लाईट नहीं हैं वरना तुम इस तरह जाते नहीं।’
दीपक बापू ने कहा-‘ अब तुम कोई फालतू बात तो करना नहीं क्योंकि हमारे पास समय कम ही है। बताओ कैसे आये? आज हमारा हास्य कविता लिखने का कोई विचार नहीं है।’
फंदेबाज अपने साथ लाये आदमी की तरफ हाथ उठाते हुए बोला-‘ यह मेरा दोस्त टोपीबाज है। इसने कई धंधे किये पर हिट नहीं हो सका। आपको तो परवाह नहीं है कि हिट हैं कि फ्लाप पर हर आदमी फ्लाप होने का दर्द नहीं झेल सकता। इसे किसी तोते वाले ज्योतिषी ने बताया है कि टोपी के धंधे में इसे सफलता मिलेगी। इसलिये इसने झगड़ेबाज की जगह अपना नाम टोपीबाज कर लिया। यह धंधे के हिसाब से अपना नाम बदलता रहता है। यह बिचारा इतने धंधे कर चुका है कि अपना असली नाम तक भूल गया है। अब आप इसके धंधे का शुभारंभ करो। तोते वाले ज्योतिषी ने इसे बताया था कि किसी फ्लाप लेखक से ही उसका शुभारंभ करवाना। लोग उससे सहानुभूति रखते हैं इसलिये तुम्हें लाभ होगा।’

दीपक बापू ने उस टोपीबाज की तरफ दृष्टिपात किया और फिर अपनी टोपी पर दोनों हाथ लगाकर उसे घुमाया और हंसते हुए बोले-‘चलो! यह नेक काम तो हम कर ही देते हैं। वहां से कोई चार छहः टोपी खरीदनी है। इसकी दुकान से पहली टोपी हम खरीद लेंगे। वह भी नगद। वैसे तो हमने पिछली बार छहः टोपी बाजार से उधार खरीदी थी पर वह चुकायी नहीं। जब उस बाजार से निकलते हैं तो उस दुकान वाले रास्ते नहीं निकलते। कहीं उस दुकान वाले की नजर न पड़ जाये। अगर तुम्हारी दुकान वहीं है तो भैया हम फिर हम नहीं चलेंगे क्योंकि उस दुकानदार को देने के लिये हमारे पास पैसा नहीं है। वैसे सर्वशक्तिमान ने चाहा तो इसके यहां से टोपी खरीदी कहीं फलदायी हो गयी तो शायद कोई एकाध ब्लाग हिट हो जाये।
फंदेबाज बोला-‘अरे, तुम समझे नहीं। यह किसी टोपी बेचने की दुकान नहीं खोल रहा बल्कि यह तो ‘इसकी टोपी उसके सिर’ वाली लाईन में जा रहा है। हां, शुभारंभ आपसे करना चाहता है। आप इसे सौ रुपये दीजिये आपको अंतर्जाल का हिट लेखक बना देगा। इसके लिये वह घर पर बैठ कर अंग्रेजी का मंत्र जपेगा अब उसमें इसकी ऊर्जा तो खत्म होगी तो उसके लिये तो कुछ पैसा तो चाहिये न!
दीपक बापू ने कहा-‘कमबख्त, ऐसे व्यापार करने से तो न करना अच्छा। यह तो धोखा है, हम तो कभी हिट लेखक नहीं बन सकते। कहीं ठगीबाजी में यह पकड़ लिया गया तो हम भी धर जिये जायेंगे कि इसके धंधे का शुभारंभ हमने किया था।
फंदेबाज ने कहा-‘तुम्हें गलतफहमी हो गयी है कि इसे सौ रुपये देकर हिट लेखक बन जाओगे और यह कोई अंग्रेजी का मंत्र वंत्र नहीं जपने वाला। सौ रुपये नहीं यह तो करोड़ों के वारे न्यारे करने वाला है। यह तो आपसे शुरूआत है। इसलिये टोकन में सौ रुपये मांग रहा हूं। ऐसे धंधे में कोई पकड़ा गया है आजतक। मंत्र का जाप तो यह करेगा। कुछ के काम बनेंेगे कुछ के नहीं। जिनके बनेंगे वह इसका गुण गायेंगे और जिनके नहीं बनेंगे वह कौन शिकायत लेकर जायेंगे?’
दीपक बापू ने कहा-‘क्या तुमने हमें बेवकूफ समझ रखा है। ठगी के धंधे का शुभारंभ भी हम करें क्योंकि एक फ्लाप लेखक हैं।’
फंदेबाज ने कहा-‘तुम भी चिंता मत करो। कई जगह तुम्हारे हिट होने के लिये मन्नतें मांगी हैं। जब हिट हो जाओगे तो तुमसे किसी और बड़े धंधे का शुभारंभ करायेंगे।’
दीपक बापू ने आखें तरेर कर पूछा-‘तो क्या लूटपाट के किसी धंधे का शुभारंभ करवायेगा।’
बा ने बीच में दखल दिया और बोली-‘अब दे भी दो इस बिचारे को सौ रुपये। हो सकता है इसका ध्ंाधा चल निकले। कम से कम फंदेबाज की दोस्ती का तो ख्याल करो। हो सकता है अंग्रेजी के मंत्रजाप करने से आप कंप्यूटर पर लिखते हुए हिट हो जाओ।’
दीपक बापू ने सौ का नोट टोपीबाज की तरफ बढ़ा दिया तो वह हाथ जोड़ते हुए बोला-‘आपके लिये तो मैं सचमुच में अंग्रेजी में मंत्र का जाप करूंगा। आप देखना अब कैसे उसकी टोपी उसके सिर और इसकी टोपी उसके सिर पहनाने का काम शुरू करता हूं। घर घर जाकर अपने लिये ग्राहक तलाश करूंगा। कहीं न कहीं कोई समस्या तो होती है। सभी की समस्या सुनकर उनके लिये अंग्रेजी का मंत्र जपने का आश्वासन दूंगा जो अच्छी रकम देंगे उनके लिये वह जपूंगा और जो कम देंगे उनका फुरसत मे ही काम करूंगा।’
बा ने कहा-‘महाराज, आप हमारे इनके लिये तो आप जरूर अंग्रेजी का मंत्र जाप कर लेना। अगर हिट हो गये तो फिर आपकी और भी सेवा कर देंगे। आपका नाम अपने ब्लाग पर भी चापेंगे (छापेंगे)
अपना काम निकलते ही फंदेबाज बोला-‘अच्छा दीपक बापू चलता हूं। आज कोई हास्य कविता का मसाला मिला नहीं। यह दुःखी जीव मिल गया। अपने धंधे के लिये किसी फ्लाप लेखक की तलाश में था। यह पुराना मित्र है मैंने सोचा तुमसे मिलकर इसका काम करा दूं।’
दीपक बापू ने कहा-‘कमबख्त, इतने करोड़ो के बजट वाला काम शुरू किया है और दो लड्डे भी नहीं ले आये।’
फंदेबाज ने झुककर बापू के मूंह के पास अपना मूंह ले जाकर कहा-‘यह धंधा किस तरह है यह बताया था न! इसमेें लड्डू खाये जाते हैं खिलाये नहीं जाते।’
वह दोनो चले गये तो बा ने दोनों हाथ उठाकर ऊपर की तरफ हाथ जोड़कर कहा-‘चलो इस दान ही समझ लो। हो सकता है उसके अंग्रेजी का मंत्र से हम पर कृपा हो जाये।’
दीपक बापू ने कहा-‘यह दान नहीं है क्योंकि यह सुपात्र को नहीं दिया गया। दूसरा कृपा तो सर्वशक्तिमान ही करते हैं और उन्होंने कभी कमी नहीं की। हम तो उनकी कृपा से ब्लाग लिख रहे हैं उसी से हीं संतुष्ट हैं। फ्लाप और हिट तो एक दृष्टिकोण है। कौन किसको किस दृष्टि से देखता है पता नहीं। फिर अंतर्जाल पर तो जिसका आभास भी नहीं हो सकता उसके लिये क्या किसी से याचना की जाये।’
बा ने पूछा-‘पर यह मंत्र जाप की बात कर रहा था। फिर धंधे की बात कर रहा था समझ में नहीं आया।’
दीपक बापू ने कहा-‘इसलिये तो मैंने उसे सौ रुपये दे दिये कि वह तुम्हारी समझ में आने से पहले निकल ले। क्योंकि अगर तुम्हारे समझ में आ जाता तो तुम देने नहीं देती और बिना लिये वह जाता नहीं। समझ में आने पर तुम फंदेबाज से लड़ बैठतीं और वह पैसा लेकर भी वह अपना अपमान नहीं भूलता। फिर वह आना बंद कर देता तो यह कभी कभार हास्य कविताओं का मसाला दे जाता है उससे भी हाथ धो बैठते। यह तो सौ रुपये का मैंने दंड भुगता है।’
इतने में लाइट आ गयी और बा ने कहा-‘लो आ गयी बिजली! अब बैठ जाओ। फंदेबाज ने कोई मसाला दिया हो तो लिख डालो हास्य कविता।’
दीपक बापू ने कहा-‘अब तो जा रहे सर्वशक्तिमान के दरबार में। आज वह कोई मसाला नहीं दे गया बल्कि हमारी हास्य कविता बना गया जिसे दस को सुनायेगा। अभी तक हमने उसकी टोपी उड़ायी है आज वह उड़ायेगा।
…………………………………

समय समय की बात है-आलेख


उस दिन भारत ने पाकिस्तान को क्रिकेट मैच में हरा दिया तो सारे प्रचार माध्यम जनता को बहलाने फुसलाने में लग गये जैसे उनके हाथ केाई रहस्यमय खबर हाथ लग गयी। पच्चीस जून को भारत की 1983 के विश्व कप क्रिकेट कप में विजय का पच्चीसवां वर्ष भी बनाया गया। कायदे से मुझे उस दिन कुछ लिखना चाहिए था। पच्चीस वर्ष पूर्व मैं उस दिन एक बहुत बड़े अखबार के दफ्तर में था। वहां मैं फोटो कंपोजिंग में काम करता था पर मेरी खेल में रुचि को देखकर उस समय के खेल संपादक ने मुझ पर यह अनौपचारिक दायित्व रखा था कि मैं रेडियो पर आखों देखा हाल सुनकर खबर लिखकर उसे दूं। बस मैं जुट गया। मैंने पूरा आंखों देखा हाल सुना और अपनी खबर लिखी। इसी बीच ऐजेंसी के टेलिप्रिटर से भी खबरें आ रही थीं और उनका संकलन भी करता जा रहा था।

खेल संपादक जी के साथ मैंने बैठकर वह खबर बनाई और बाद में उसको कंप्यूटर पर टाईप किया। जब तक उस खबर की छापने वाली प्लेट नहीं बनी तब तक वहीं रुका रहा। उस दिन मैं बहुत खुश था। वह खबर छपी। उसके बाद मैं भारत की उस महान विजय पर कई दिन तक लेख लिखता रहा। अब क्रिकेट से लगाव बिल्कुल समाप्त हो गया है। उसमें वह आकर्षण नहीं रहा जो उस समय था। वजह यही रही कि तमाम ऐसी चर्चाओं ने इस खेल से विरक्त कर दिया जिसमें इस पर संदेह व्यक्त किये जाते रहे। विभिन्न चैनलों पर इस बारे में तमाम प्रसारण सामने आते थे तो मैं बदल देता था। मुझे लगता था कि इसमें अब मेरे लिये कोई आकर्षण नहीं बचा है। पिछले साल मैंने इस विषय पर कुछ लेख अपने ब्लाग/पत्रिका में लिखे थे पर उसमें इसकी आलोचना और व्यंग्य ही अधिक थे। वहां टीम की जो दुर्गति हुई उसके बाद तो बचाखुचा रोमांच भी इसमें समाप्त हो गया।

उस दिन घर के बाहर एक लड़के ने कहा-‘अंकल, आज तो मजा आ गया। भारत ने पाकिस्तान को हरा दिया।’
मैंने आश्चर्य चकित होकर पूछा-‘अच्छा तुम अभी तक क्रिकेट मैच देखते हों कुछ दिन पहले तो तुमने कहा था कि मैच देखना बेकार हैं तो मैंने छोड़ ही दिया है यह मैच देखना। तुम्हारे कहने पर ही मैंने इंटरनेट लगावाया था और ब्लाग लिखकर अपने हाथ मुफ्त में घिस रहा हूं।’

उसे मालुम है कि मै आजकल अंतर्जाल पर अपने ब्लाग/पत्रिका लिख रहा हूं। उसने मुझसे कहा-‘अंकल, आप तो ब्लाग पर लिख कर अपना मन बहला लेते हैं। मगर हम लोग भी क्या करें। हमें लिखना नहीं आता वरना हम भी ब्लाग लिखते। मजबूर होकर जो चैनल वाले दिखा रह हैं वही देख रहे हैं।’
क्या वह दिन थे। जब मैं सचिन की पारी देखने के लिये धूप में सायकिल पर घर आता था और कहां यह दिन है कि घर बैठे देखने पर भी नहीं देखता। हां, अभी बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता में भारत की जीत पर मैंने लिखा था पर वह भी इस संभावना के साथ कि इसका व्यवसायिक उपयोग अधिक होगा और कई लोग इसकी पुष्टि भी कर रहे हैं। वैसे ब्लाग लिखने के बाद तो मुझे अपना पाठ भी कम आनंद नहीं देता। धीरे-धीरे आम पाठकों की बढ़ती संख्या पर निरंतर दृष्टिपात करता हूं।

आज ओरकुट से एक व्यूज देखकर मैं वहां गया तो देखा किसी लड़की का प्रोफाइल है जहां उसने कबीरदास जी का मेरा पाठ पेस्ट कर रखा है। मेरे पाठ से पहले वहां विश शीर्षक भी लगा हुआ था। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने फिर नीचे दृष्टि डाली तो वहां दूसरे विश पर मेरे उसी ब्लाग का चाणक्य के पाठ का लिंक था। मैं सोच रहा था कि भला उसका किसी से शास्त्रार्थ चल रहा था या अंताक्षरी। पाठकों को बता दें अंताक्षरी जो फिल्मी गानो के आधार पर होती थी पहले ऐसे ही शास्त्रार्थ होते थे। जिनमे विद्वान लोग प्राचीन ग्रंथों के उद्धरण देकर आपस में वाद-विवाद करते थे और उनमें भी जीत हार होती थी। बहरहाल युवाओं की इस विषय पर रुचि देखकर किसी को भी अच्छा लग सकता है। इस बात की खुशी हुई कि किसी ने मेरी मेहनत का उपयोग अपने हित में किसी को अच्छा संदेश देने के लिये किया है। समय समय की बात है वह कैसे परिवर्तन लेता है कोई सोच भी नहीं सकता। हां, जो दृष्टा भाव से देखते हैं वह इसका आनंद उठाते हैं जो अहंकार में आकर अपने मन के अनुसार इसमें परिवर्तन करना चाहते हैं उनको भारी कष्ट होता है।
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दीपक भारतदीप
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खून की तरह दर्द भी बेचते हैं लोग-हिन्दी शायरी


शहर का गुलशन उन्होंने उजाड़ कर
अपने पत्थरों का घर सजा लिया
जब हवाओं ने दिया धोखा तो
साँसों का सिलेंडर लगा लिया

जमाने में लगा दी आग
अब दर्द की महफ़िल सजाते हैं
टिमटिमाते बल्बों की रौशनी के नीचे
अब उस पर बतियाते हैं
कुछ हंसते तो कुछ रोते हैं अमीर वहां
लोगों के घावों को अपनी बातों में सजा लिया

इंसान सभी एक जैसे दिखते हैं
पर कुछ ही होते हैं खुद्दार
बाकी तो बाजार में बिकते हैं
दर्द के धंधेबाजों को किसी से कोई मतलब नहीं
जिसका मिला उसका ही दूकान में सजा लिया
खून की तरह दर्द भी बेचते हैं लोग
कोई बाजार में नहीं देखे इसलिए चेहरा छुपा लिया
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दीपक भारतदीप

आखिर इसमें खास क्या है-व्यंग्य


जहां तक मेरी जानकारी है खबर में यही था कि अमेरिका में राष्ट्रपति पद उम्मीदवार ओबामा अपनी जेब में रखने वाले पर्स में कुछ पवित्र प्रतीक रखते हैं और उसमें सभवतः हनुमान जी की मूर्ति भी है, पर इसकी पुष्टि नहीं हो पायी है।
यह खबर देश के प्रमुख समाचार माध्यम ऐसे प्रकाशित कर रहे हैं जैसे कि कोई उनके हाथ कोई खास खबर लग गयी है और देश का कोई खास लाभ होने वाला है। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि जिस अखबार में मैंने यह खबर पढ़ी उसमें साफ लिखा था कि ‘इसकी पुष्टि नहंी हो पायी।‘

जिस तरह इस खबर का प्रचार हो रहा है उससे लगता है कि अगर इसकी पुष्टि हो जाये तो फिर ओबामा की तस्वीरों की यहां पूजा होने लगेगी। जब पुष्टि नहीं हो पायी है तब यह शीर्षक आ रहे हैं ‘हनुमान भक्त ओबामा’, ओबामा करते हैं हनुमान जी में विश्वास’ तथा ‘हनुमान जी की मूति ओबामा के पर्स में’ आदि आदि। एक खबर जिसकी पुष्टि नहीं हो पायी उसे जबरिया सनसनीखेज और संवेदनशीन बनाने का प्रयास। यह कोई पहला प्रयास नहीं है।
अगर मान लीजिये ओबामा हनुमान जी में विश्वास रखते भी हैं तो क्या खास बात है? और नहीं भी करें तो क्या? वैसे हम कहते हैं कि भगवान श्रीराम और हनुमान जी हिंदूओं के आराध्यदेव हैं पर इसका एक दूसरा रूप भी है कि विश्व में जितने भी भगवान के अवतार या उनके संदेश वाहक हुए हैं इन्हीं प्रचार माध्यमों से सभी जगह प्रचार हुआ है और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में जो आकर्षण है उससे कोई भी प्रभावित हो सकता है। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण और हनुमान के चरित्र विश्व भर में प्रचारित हैं और कोई भी उनका भक्त हो सकता है। श्रीरामायण और श्रीगीता पर शोध करने में कोई विदेशी या अन्य धर्म के लोग भी पीछे नहीं है।

ओबामा हनुमान जी भक्त हैं पर इस देश में असंख्य लोग उनके भक्त हैं। मैं हर शनिवार और मंगलवार को मंदिर अवश्य जाता हूं और वहां इतनी भीड़ होती है कि लगता है कि अपने स्वामी भगवान श्रीराम से अधिक उनके सेवक के भक्त अधिक हैं। कई जगह भगवान के श्रीमुख से कहा भी गया है कि मुझसे बड़ा तो मेरा सेवक और भक्त है-हनुमान जी के चरित्र को देखकर यह प्रमाणित भी होता है। भगवान श्रीराम की पूजा अर्चना के लिए कोई दिन नियत हमारे नीति निर्धारकों ने तय नहीं किया इसलिये उनके मंदिरों में लोग रोज आते जाते हैं और किसी खास पर्व के दिन पर ही उनके मंदिरों में भीड़ होती है और उस दिन भी हनुमान के भक्त ही अधिक आते हैं। यानि भारत के लोगों में हृदय में भगवान श्रीराम और हनुमान जी के लिये एक समान श्रद्धा है और उनकी कृपा भी है। फिर ओबामा को लेकर ऐसा प्रचार क्यों?

लोगों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश बेकार है कि देखो हमारे भगवान सब जगह पूजे जा रहे हैं इसलिये फिक्र की बात नहीं है अभी किसी दूसरे देश में किसी पर की है कभी हम पर भी करेंगे। इस प्रचार तो वही प्रभावित होंगे कि जिनको मालुम ही नहीं भक्ति होती क्या है? भक्ति कभी प्रचार और दिखावे के लिये नहीं होती। इतना शोर मच रहा है कि जैसे ओबामा ने पर्स में हनुमान जी मूर्ति रख ली तो अब यह प्रमाणित हो गया है कि हनुमान जी वाकई कृपा करते हैं। मगर इस प्रमाण की भी क्या आवश्यकता इस देश में है? यहां ऐसे एक नहीं हजारों लोग मिल जायेंगे जो बतायेंगे कि किस तरह हनुमान जी की भक्ति से उनको लाभ होते हैं। जिन लोगों में भक्ति भाव नहीं आ सकता उनके लिये यह प्रमाण भी काम नहीं करेगा। भगवान श्रीराम के निष्काम भाव से सेवा करते हुए श्री हनुमान जी ने उनके बराबर दर्जा प्राप्त कर लिया-जहां भगवान श्रीराम का मंदिर होगा वहां हनुमान जी की मूर्ति अधिकतर होती है पर हनुमान जी मंदिर में भगवान श्रीराम की मूर्ति हो यह आवश्यक नहीं है- पर ओबामा उनकी तस्वीर पर्स में रखकर क्या बनने वाले हैं। पांच साल अधिक से अधिक दस साल अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के अलावा उनके पास कोई उपलब्धि नहीं रहने वाली है। तात्कालिक रूप से यह उपलब्धि अधिक लगती है पर इतिहास की दृष्टि से कोई अधिक नहीं है। अमेरिका के कई राष्ट्रपति हुए हैं जिनके नाम हमें अब याद भी नहीं रहते। फिर अगर उनके हाथ सफलता हाथ लगती है तो वह किसकी कृपा से लगी मानी जायेगी। जहां तक मेरी जानकारी है तीन अलग-अलग प्रतीकों की बात की जा रही है जिनमें एक हनुमान जी की मूर्ति भी है। फिर यह प्रचार क्यों?

भारत सत्य का प्रतीक है और अमेरिका माया का। माया जब विस्तार रूप लेती है तो मायावी लोग सत्य के सहारे उसे स्थापित करने का प्रयास करते हैं। जिनके पास इस समय माया है उनको अमेरिका बहुत भाता है इसलिये वहां की हर खबर यहां प्रमुखता से छपती है। अगर वह धार्मिक संवेदनशीलता उत्पन्न करने वाली हो तो फिर कहना ही क्या? एक बात बता दूं कि इस बारे में मैंने एक ही अखबार पढ़ा है और उसमें इसकी पुष्टि न करने वाली बात लिखी हुई। तब संदेह होता है कि यह सच है कि नहीं। और है भी तो मेरा सवाल यह है कि इसमें खास क्या है? क्या हनुमान जी की भक्ति करने वाले मुझ जैसे लोगों को किसी क्रे प्रमाण या विश्वास के सहारे की आवश्यकता है?

कभी उजड़ता तो कभी महकता है चमन-कविता


जिनको देखने के लिय मचलता है मन
अगर वह पास आते हैं तो
हो जाता है अमन
बातें होतीं हैं प्यारी
कभी होती है तकरार भी भारी
पर प्रेम के पथ पर
चलने वाले कभी रुकते नहीं
लगता है जहां खड़े हैं
कदम उनके बरसों तक थमें रहेंगे यहीं
पर मिलना और बिछुड़ना तो
इस दुनियां की रीति है
चले जाते हैं वह जब आंखों से दूर
अंधियारी हो जाती है यह दुनियां
वीरान हो जाता हे चमन

फिर चलता है यादों का
कभी खत्म ना होने वाला दौर
कहीं चैन नहीं आता न मिलता कोई ठौर
कभी हंसते हुए बात करने की याद आती
जो हुई थी तकरार वह भी मन भाती
बिछ+ड़ गये अब क्या
फिर कभी आयेंगे
जीवन को महकायेंगे
जिंदगी की तरह धरती के भी कायदे हैं
कभी उजड़ता तो कभी महकता है चमन
…………………………………

दीपक भारतदीप

सारी पीड़ाऐ बाहर ले आता है पसीना-कविता एवं आलेख


आज आजश्री जयप्रकाश मानस का एक आलेख पढ़कर यह विचार मेरे हृदय में आया कि आजकल हमारे समाज में परिश्रम में बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है और इसी कारण हमारा विकास चहुंमुखी नहीं हो पाता। ऐसे एक नहीं अनेक किस्से मेरे सामने आते है जब जब लगता है कि लोग न केवल स्वयं ही परिश्रम करने में अपने को छोटा समझते हैं बल्कि दूसरे को भी हेय व्यक्ति मानकर उससे घृणा तक करते हैंं। यही कारण है कि हमारे समाज में जो श्रमिक वर्ग है वह अपने को अपेक्षित अनुभव करता है।
अभी कुछ दिने पहले मेरे सामने एक रोचक किस्सा आया था। एक जगह जगह शादी के रिश्ते में हमें भी मध्यस्थ की भूमिका निभाने का अवसर मिला। लड़के को लड़की पसंद थी पर लड़की को बात पसंद नहीं आ रही थी तो लड़की के पिता ने उसे समझाते हुए कहा-‘देखो बेटी! तुम काम से जी चुराने की आदी हो। सुबह नौ बजे उठती हो। यह ऐसा घर है जिसमें सारे काम नौकर करते हैं। लड़का अधिक सुंदर नहीं है पर घर ठीक है। ऐसा धनाढ्य घर मिलना कठिन है। तुम्हें घर में कामकाज अधिक नहीं करना पड़ेगा।’
मुझे यह जानकर हैरानी हुई की लड़की को खाना बनाना भी नहीं आता था-यह उसके साथ आयी एक महिला ने बताई। वह लोग ऐसा घर ढूंढ रहे थे जहां लड़की को काम कम करना पड़े। जिस तरह उसके पिताजी उससे अपनी बात कह रहे थे उससे तो यह लगता था कि वह स्वयं भी ऐसी ही परिश्रम को छोटा समझते होंगे तभी तो उनकी लड़की में यह बात आयी।

परिश्रम करने वाले लड़कों को कोई लड़की ही नहीं देना चाहता भले ही वह परिवार का भरण पोषण करने में सक्षम हो। इसलिये हर कोई कुर्सी पर बैठने की नौकरी चाहता है। मेरी पत्नी को अन्य महिलायें कहतीं हैं कि ‘सारा काम स्वयं ही क्यों करती हो? कोई नौकरानी क्यों नहीं रख लेती। तुम तो पैसा बचा रही हो।’
मैं कई बार सायकल पर बाहर जाता हूं तो भी यही लोग कहते हैं कि पैसा बचा रहे हो। यह श्रम को हेय दृष्टि से देखने जाने की प्रवृति इस समाज में है और इसे छोड़ना चाहिए। इसी पर कुछ पंक्तियां हैं।

लोग तरस खाने लग जाते हैं
देखकर मेरे बदन से बहता पसीना
मुझे बिल्कुल नहीं आती शर्म
यह पसीना है जिससे जीवन में
मिल पाता है सत्य का नगीना
तन और मन की बहुत सारी पीड़ाऐ
बाहर ले आता है पसीना
जो डरते हैं श्रम करने से
उनका भी क्या जीना
लाइलाज दर्द पालकर
ढूंढते हैं उसका इलाज इधर-उधर
रुका पानी विष हो जाता है
सभी जानते हैं
फिर भी शरीर में पालते है
जिनकी देह से निकला पसीना
उनको भला दवायें क्यों पीना
श्रमेव जयते इसलिये कहा गया है
यही है सच में जीवन जीना
……………………….
दीपक भारतदीप

जैसा कहते हैं वैसा लिख, जैसा समझाते हैं वैसा दिख -हास्य व्यंग्य


अंतर्जाल पर कुछ हिंदी ब्लाग लेखक एग्रीगेटरों पर हिट्स और टिप्पणियों के आगे कुछ सोच नहीं पाते और इनमें वह लोग हैं जिनके बारे में कथित रूप से यह कहा जाता है कि वह बहुत बड़े पुरोधा हैं। दरअसल कुछ लोगों ने प्रारंभ में अपने ब्लाग बनाये तो उनको यह लगने लगा है कि उनका नाम अब इतिहास में दर्ज होना चाहिए। जब आदमी में यह भाव होता है तो वह हास्यजनक स्थिति से गुजरता है।

असल में एक ऐसा ब्लाग है जिसमें सब ब्लाग की चर्चा होती है। एग्रीगेटर वह जगह है जहां देश के करीब-करीब सभी ब्लाग एक जगह दिखाये जाते हैं और वहां त्वरित गति से वैसे ही पाठ प्रदर्शित होते हैं जैसे ही उसे कोई ब्लाग लेखक प्रकाशित करता है। सारे ब्लाग लेखक अपनी सुविधा के अनुसार यहां जाकर अपने ब्लाग देखते हैं और दूसरों के पढ़ते हैं। अपनी सुविधानुसार टिप्पणियां भी लिखते हैं। आम पाठक अगर इतनी त्वरित गति से किसी ब्लाग का पाठ पढ़ना चाहे तो उसके सामने दो ही मार्ग हैं या तो वह अपनी पसंद के ब्लाग को अपने यहां इस तरह कंप्यूटर पर सैट करे जिससे उसे हर समय उसे खोलने का अवसर मिले या वह इन एग्रीगेटरों-जिनकों मैं चैपाल भी कहता हूं-पर जाकर वहां देखे। कुछ लोग इन्हीं ब्लाग को लेकर चर्चा करते हैं और उसका लेखक अपने मित्रों को इससे प्रभावित करता है।

कुछ ब्लाग लेखकों को यहां बहुत जबरदस्त हिट और टिप्पणियां मिलतीं हैं। इनमें एक दो एग्रीगेटरों ने पसंद का भी प्रबंध किया है जहां अनेक ब्लाग लेखकों के ब्लाग चमकते है। यहीं से शुरू होता है ब्लाग लेखकों का भ्रम और आपस में ही विवाद। चारों चैपालों को देखा जाय तो इन पंक्तियों के लेखक के सारे ब्लाग एक तरह से फ्लाप हैं। कभी कभार किसी पाठ पर पच्चीस हिटस होते हैं पर पसंद के नाम पर जीरो। मतलब यह है कि उसके लिए भी कोई आदमी चाहिए जो वहां पसंद में शामिल कराये। इन पंक्तियों का लेखक ऐसा आग्रह कभी अपने मित्र ब्लाग लेखकों से नहीं कर सकता।

सब ब्लाग की चर्चा करने के लिए किसी को फुरसत है और वह महाशय इसका संचालन करते हैं। किसी ब्लाग लेखक को ब्लाग जगत में साहित्यकारों की दुर्दशा-यानि हिट और टिप्पणियां कम- नजर आयी और वह तमाम तरह से उन पर बरस रहा था। उसके ब्लाग पर 18 टिप्पणियां थीं और लोग उसमें पूछ रहे थे कि भाई उन साहित्यकारों के नाम भी बताओ। मतलब यह कि तुम्हारी भड़ास तो निकल गयी हमारी भी निकल जाती। उसमें मेरे मित्र भी थे और ऐसे थे जो वाकई मेहनत से लिखते हैं। यह अलग बात है कि उनमें सभी को पर्याप्त हिट और टिप्पणियां मिल जातीं है और उनको यह यकीन था कि वह उन फ्लाप साहित्यकारों में नहीं है। मुझे यह कहने में कदापि संकोच नहीं है कि हिंदी के कुछ लेखक बहुत भोले हैं वह इन चालाकियों को समझते नहीं है और शायद इसलिये अपने ही साथियों को हास्यास्पद स्थिति में पहुंचा देते हैं। अगर मै कहूं कि उन अट्ठारह लोगों में सारे मित्र हैं तो मुझे अपनी यह सफाई भी देनी पड़ेगी कि आखिर उन मित्रों ने ऐसा क्यों किया? उनसे मांगना ठीक नहीं है क्योंकि यह हिट पोस्ट लिख उनको बताना चाहता हूं कि ऐसी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मत दो जिससे लिखने वाले हतोत्साहित हों।

ब्लाग लेखक ने तीन अन्य ब्लाग लेखकों की प्रशंसा में लिखा कि उनके पाठकों की कुल संख्या में बाकी कथित साहित्यकारों की पाठक् संख्या सिमट जाती है। इनमें तीनों ही मेरे मित्र हैं और उनके अच्छा लिखने की बात को मैं चुनौती नहीं दे सकता। मैंने तो अपने सारे हथियार ही डाल दिए हैं कि भाई इन एग्रीगेटरों पर हिट और टिप्पणियां की संख्या बढ़ा पाना मेरे बूते का नहीं है। मैं शायद यह पाठ नहीं लिखता अगर उस ब्लाग लेखक का पाठ मेरी दृष्टि में नहीं आता। मगर फुरसत में बैठे हमारे मित्र सीधा हमला करने की बजाय ऐसी टेढ़ी चालें चलते नजर आते हैं कि हम सोचते हैं कि चलो आज इनसे भी निपट लो वरना यह हिंदी ब्लाग जगत को हानि पहुंचाने से बाज नहीं आयेंगे। अपने कथित चर्चा में यह महाशय मेरे ब्लाग का पाठ जरूर दिखाते हैं। उससे पहले अपने मित्रों को खुश करते हुए उनके नाम लिखते हैं फिर आखिर में पुंछल्ला में हमारा ब्लाग/पत्रिका भी लिंक करते है। तीन महीने पहले एक विवाद में वह भी सामने आ गये थे पर मैंने उन पर लिखी एक पोस्ट वापस ले ली।

साहित्यकारों की दुर्दशा पर आंसू बहाती उस पोस्ट पर उन्होंने प्रशंसा भरी नजरों से टिप्पणी की और अपनी चर्चा में सबसे पहले ब्लाग के रूप में लिंक किया जैसे वह उस दिन की सर्वश्रेष्ठ पोस्ट हो। फिर उसकी तारीफ में कसीदे पड़े। आजीवन हिंदी ब्लाग जगत के कथित सेवक फुरसत में बैठे साहब को अब यह समझाना जरूरी है कि ब्लाग जगत में बाहर से पाठक न मिलने का रोना सभी रो रहे हैं और साहित्यकारों के अलावा यह काम कोई और नहीं कर सकता। मेरे मित्र समीर लाल (उड़न तश्तरी)- जो उन तीन ब्लागरों में से है- कहते हैं कि शीर्षक लगाकर एक बार हिट मिल सकता है, पर काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। साहित्यकारों की दुर्दशा लिखकर एग्रीगेटरों पर हिट और टिप्पणियां ले ली मगर आगे उस पाठ का क्या होना है? फुरसत में बैठकर लोगों को सोचना चाहिए। मेरे ब्लाग/पत्रिकाओं पर ब्लाग लेखकों के व्यूज केवल 10 से 12 प्रतिशत हैं। कल मेरा एक छह महीने पहले बना ब्लाग दस हजार पार करने वाला है और शायद अगले हफते उसके साथ बना ब्लाग भी पार करेगा। दो ब्लाग बीस हजार से पार कर चुके हैं और एक तीसरा इसी राह पर है। यह संख्या वर्डप्रेस के ब्लाग की है जबकि ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर मैंने मात्र छह माह पहले-यानि ब्लाग बनाने के एक साल बाद- ही काउंटर लगाया है और वहां की कुल संख्या तीस हजार तो दिखती है और पिछली भी माने तो पचास हजार से कम नहीं होगी। हम मोटा आंकड़ा 1 लाख बीस हजार मान लें।

साहित्यकारों की रचनाएं कुछ ब्लाग लेखकों को उबाऊ लग सकतीं हैं और वह उनको पढ़ते नहीं है। पढ़ते होते तो हिट की संख्या से पता चल जाता। मैं ब्लाग देखकर ही बता देता हूं कि कौन पढ़कर लिखता है और कौन केवल हांकने के लिए लिखता है। इसका मतलब यह है कि ब्लाग लेखक ने साहित्यकारों को बिल्कुल नहीं पढ़ा और फुरसत वाले साहब ने उनका आंखें मूंदकर समर्थन कर दिया। लोगों ने वाहवाही कर दी। किसी हिट ब्लाग लेखक में इतना साहस नहीं है जो ऐसा लिख सके। मैं और मेरे ब्लाग तो फ्लाप हैं इसलिये लिख रहे हैं। क्या पता यह पाठ हिट हो जाये और कई दिन से चल रहा बनवास कुछ देर के लिए रुक जाये। क्या करेंगे? अब तो कभी ब्लाग देखकर लिंक कर लेते हैं जहां से कोई हिट आता नहीं अगली बार से वह भी बंद। होने दो। पहले पंद्रह देखते थे अब पांच देखते हैं। यहां परवाह किसको है। अगर ब्लाग जगत के मित्रों की परवाह है तो उनसे तो निबाह लेंगे और उनसे तो आगे भी संपर्क रहना है और पाठकों की संख्या! अरे भाई इंतजार करो कल नहीं तो परसों बता देंगे कि दस हजार में कितने व्यूज ब्लाग लेखकों से आये और कितने पाठकों से। ब्लाग लेखकों में भी उड़न तश्तरी की पाठों की संख्या से घटाकर यह भी देखेंगे कि उनके अलावा कितने और ब्लाग लेखकों की हैं। किसी भी ब्लाग जगत को एग्रेगेटरों के हिट पर इतना नहीं नाचना चाहिए कि लगने लगे कि हिंदी ब्लाग जगत में तीर मार लिया। कोई कविता लिख रहा है या गध या पद्यनुमा-यही शब्द उस ब्लाग लेखक ने उपयोग किया था-तुम उनकी दुर्दशा पर मजाक उड़ा रहे हो और वह तुम्हारे हिट्स और टिप्पणियों पर हंसते है। वह लोग अपना पसीना बहाकर लिख रहे हैं और मै भी। मेरे पर कोई हंस ले पर अगर कोई मेरे या दूसरे के परिश्रम पर हंसता है तो मुझे ही अपनी हंसी उड़ाने का अवसर देता है और न चाहते हुए भी मेरी कलम चल पड़ती है। कभी हास्य व्यंग्य लिखने तो कभी हास्य कविता लिखने।

कहता है वह जैसा मैं कहता हूं वैसा लिख
जैसा समझाता हूं वैसा दिख
स्वयं है शब्द भंडार से खाली
बन रहा है साहित्य का माली
चंद शेर कभी कहे नहीं
लिखता है ख्याल उधार लेकर कहीं
फिर भी मशहूर हो गया है
इसलिये बेशंऊर हो गया है
सिखाता है जमाने को लिखना
अपने जैसा सबको दिखना
आसमान में अपना नाम चमकने की चाह ने
उसे बेजार बना दिया है
झूठी वाहवाही ने बेकार बना दिया है
लिखने के बातें तो खूब करता है
पर वह पढ़ता है कि नहीं
बस कहता यही है
जैसा मैं कहता हूं वैसा लिख
जैसा समझाता हूं वैसा दिख

कहैं दीपक बापू
अपने भ्रम में तुम जी लो
हिट और टिप्पणियों को घोल पी लो
मगर इतना न इतराओ
कि फिर अपने पर ही शरमाओ
हम तो फ्लाप ही ठीक है
हमें यह संदेश नहीं देना कि
जैसा हम कहते हैं वैसा लिख
जैसा समझाते हैं वैसा दिख

पास के विद्वान भी बैल बन जाते-हास्य कविता


आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू मैं
हीरो का ब्लाग पढ़कर आया
हिंदी तो ढंग से पढ़ना नहीं आती
पर उसका अंग्रेजी ब्लाग पर पढ़कर
मैंने अपने भतीजे से टिप्पणी लिखवाई
पहली बार अंतर्जाल पर मौज मनाई
सैंकड़ों लोगों के नाम लिखे थे नीचे
मैंने कर दिया सबको पीछे
तुम इसलिये फ्लाप हो
क्योंकि कुछ बनने से पहले ही अपना ब्लाग बनाया’

नाक पर चश्मा लटकाकर
उसे घूरते हुए देखने लगे
जैसे अभी खा जायेंगे
फिर सोचकर बोले
‘दोष तुम्हारा नहीं हमारा है
बात करते हैं तुमसे इसलिये
क्योंकि अकेला होना हमें नहीं गवारा है
तुम्हारे लिये तो वही हिट है
जिसको समझने में तुम्हारी बुद्धि अनफिट है
दूर बैठा कितना भी ढोल है
तुम्हें सुहावना लगेगा
बाहर से लगता है आकर्षक
अंदर जिसमें पोल है
वही तुमको फलता लगेगा
दूर होते तुमसे तो
कुछ हम भी तुमको ऊंचे नजर आते
पास के विद्वान भी घर में बैल बन जाते
जो दृश्य आंख से आगे न जाता हो
जो स्वर कान से पार न पाता हो
जिसका स्पर्श ही तुम्हारे लिए अंसभव
वही तुमको भाता है
मेरे पास हो इसलिये तुम्हारे लिए
अपना यह प्रपंच नहीं रचाया
दुनियां भर में फैले गुणवान और विद्वानों से
बन जायें संपर्क इसलिये यह ब्लाग बनाया
…………………………………..

यहां तो सभी स्वप्रेरणा से लिख रहे हैं-आलेख


आज मैंने कुछ अंग्रेजी ब्लाग से सामग्री लेकर अनुवाद टूल पर चिपकाई। हिंदी में कर उसे पढ़ने का विचार किया पर उनकी विषय सामग्री में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। अनुवाद टूल अंग्रेजी से हिंदी में सही अनुवाद नही कर रहा पर इसके बावजूद मैं दोनों को सामने रखकर कर पढ़ लेता हूं। हां, इस पर अधिक मेहनत पड़ती है पर अगर लिखने लायक कुछ मिल जाये तो बुरा भी नहीं लगता। आजकल सीएनएन के ब्लाग मुझे दिखाई दे रहे हैं सभी पर अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार की छाया है। इसमें मेरी दिलचस्पी नहीं है। सच तो यह है कि राजनीतिक विषयों में अब परहेज होने लगी है। उन पर लिखा केवल एक सीमित अवधि के लिये ही होता और बाद में उन पर अपने हाथ से लिखा गया पाठ स्वयं भी पढ़ने की इच्छा नहीं होती। भारत में जिन लोगों को समय पास करने के लिये कुछ नहीं है उनके लिये इस पर वक्त खराब करना ठीक लगता है।

मैं प्रतिदिन कोई न कोई अंग्रेजी ब्लाग पढ़ता हूं। जो ब्लाग मुझे पढ़ने में ठीकठाक लगे उन पर थोड़ा बहुत कुछ लिख लेता हूं। उन पर मनोरंजन, तकनीकी, धर्म और अन्य विषयों पर जो सामग्री होती है वह ऐसी है जैसे हमारे हिंदी के ब्लाग लेखक लिखते है। अगर कहूं तो उनकी प्रस्तुति अधिक प्रभावी होती है-हो सकता है कि भाषा की वजह से मुझे लगता हो।
इसके अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद में नब्बे प्रतिशत शुद्धता ने थोड़ा मुझे सोचने के लिए प्रेरित किया है और मेरी केवल उसमें ही दिलचस्पी है। अनेक लोगों का मत है कि अंग्रेजी से सही अनुवाद न होने से उनको निराशा है। यह बात मेरे समझ में नहीं आती। आखिर वह ऐसा क्या पढ़ना चाहते हैं जो हिंदी में नहीं है। शायद उनके मन में वर्षोें से जो गुलामी की भावना ने कुंठा भर दी है उसका ही यह परिणाम है कि वह यह नहीं सोचते कि हिंदी में लिखने वाले भी अच्छा लिखते हैं। पूरा दोष उनका भी नहीं है। स्वतंत्रता के पश्चात! अनेक लोगों ने ऐसा लिखा कि जो विदेशों में प्रिय हो। विदेशों मे प्रिय था यहां की गरीबी और अंधविश्वासों से भरे सामाजिक जीवन में व्याप्त कठिनाईयों से उपजे दर्द से लिखा गया साहित्य।

कई लोगों ने अंग्रेजी में लिखकर अपना नाम महान लोगों की श्रेणी में लिखवाया। फिर उनकी रचनाएं हिंदी में आईं। हिंदी की किसी बड़ी रचना को अंग्रेजी में भेजने का प्रयास नहंी हुआ। इस क्रम में यह हुआ कि जो लोग हिंदी में लिख रहे थे वह भी वही लिखने लगे जो यहां के लोगों के लिए अत्यंत बोर करने वाले विषय हैं। उनकी भाषा हिंदी रह गयी पर विषयों के चयन में अंग्रेजी शैली का प्रभाव रहा।

हिंदी के पाठक अपने जीवन में संघर्ष करने के आदी है और अपने दर्द का विसर्जन वह पसीने के रूप में कर देते हैं। वह चाहते हैं हृदय को प्रसन्न करने वाली रचनाओं के साथ कोई संदेश। उनकी पसंद यह है कि उनके सामने ऐसी कहानी और कवितायें पढ़ने के लिये आयें जिनमें संघर्ष के साथ विजय का संदेश हो। उनके विश्वास को पुष्ट करता हो।

यह बात मैं स्वयं एक आम पाठक के रूप में ही कह रहा हूं। अगर रात है तो उसकी सुबह होगी। और सुबह है तो रात भी होगी। दैहिक समस्याओं के साथ जीने की आदत है और कोई अपने शब्दों या तस्वीरों के साथ उसे उबाराना चाहता है तो वह मेरा प्रिय लेखक नहीं हो सकता। जो जीवन में संघर्ष के प्रेरित कर सके और मेरे विश्वास को पुष्ट करे वह रचना मेरे दिल को छू जाती है।

पिछले तीन चार दिन से देख रहा हूं कि मेरे दो ब्लाग अंग्रेजी अनुवाद टूल से देखने के प्रयास हो रहे हैं। सोचता हूं क्या कोई अंग्रेजी भाषा के पाठक भी हिंदी में लिखे पाठ को पढ़ना चाहते हैं। वैसे मैं आजकल इस टूल से अपने पाठ सुधार कर प्रस्तुत नहीं कर रहां। अगर मुझे लगा कि इसकी आवश्यकता है तो फिर उनकी प्रस्तुति करूंगा।
इधर उर्दू के टूल के भी ऐसे ही होने की खबर है। मतलब यह कि अंग्रेजी और उर्दू के पाठक हिंदी को थोड़ा कम कठिनाई से पढ़ेंगे बनस्बित हिंदी पाठकों के उनकी भाषाओं को बहुत कठिनाई से पढ़ पाने से। अभी मेरे पास कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं आई कि हिंदी के पाठों को अन्य भाषाओं के लोग कोई बहुत अधिक संख्या में पढ़ रहे हैं। भविष्य के गर्भ में क्या है कौन जानता है? हालांकि हम हिंदी वालों के पास अपनी स्वप्रेरणा के अलावा और कोई पूंजी नहीं है जबकि अंग्रेजी और उर्दू के साथ उनको चाहने वाले पाठक और प्रायोजक दोनों ही हैं। हिंदी में अभी बहुत कम संख्या में पाठ है पर इसके लिये हमारे देश के हिंदी ब्लागरों ने स्वप्रेरणा से कार्य किया है उसका कोई सानी नहीं है। सच जानना चाहें तो जितनी ज्ञानवद्र्धक और उत्कृष्ट रचनाऐं हिंदी में हैं उतना अन्य भाषाओं में आनुपातिक रूप से अधिक होंगी इस यकीन करना कठिन है।
अब कोई कह सकता है कि अंग्रेजी में पढ़ा ही कितना है? उसका जवाब है कि अंग्रेजी टूल से पढ़ने के बाद मुझे यह लगता है कि उनमें भी विषयों में बहुत कमी है। उनमें अधिकतर राजनीतिक और अपने देश की ज्वलंत विषयों से संबंधित सामग्री होती है जो हमारे काम की नहीं होती। एक बात है इस टूल से हम अंग्रेजी के पाठ पढ़ने के लिये अनुवादकों के मोहताज नहीं है। किसी दिन अवसर मिला तो किसी अंग्रेजी का पाठ हिंदी में प्रस्तुत कर यह भी साबित कर दूंगा।

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