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दर्द और जज़्बात-हिन्दी शायरी


किसे क्या सुनायें
लोगों के कान खुले दिखते हैं
पर सुरों का अंदर पहुंचना वर्जित है,
किसको क्या क्या दिखायें,
लोगों की आंखें खुली हैं
पर दृश्यों का पहुंचना वर्जित हैं,
कहें दीपक बापू
मतलब के इर्दगिर्द सिमट गया हैं जमाना
किससे मुलाकात कर दर्द बयान करें अपना
इंसानों के शरीर मेकअप से सज रहे हैं
पर जज़्बातों का अंदर पहुंचना वर्जित हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

आज का मनोरंजन साहित्य अपने समाज के कितने करीब-हिन्दी लेख


          हिंदी में जो भी टीवी चैनल हम देखते हैं उसमे प्रसारित हास्य हो या सामाजिक पृष्ठभूमि वाला धारावाहिक, उनकी कहानियों का आधार बड़े शहरों की बहुमंजलीय इमारतों में रहने वाले लोगों की दिनचर्या ही होती है। कहा जाता है की साहित्य समाज का दर्पण है और इन कहानियों को यदि साहित्य माना जाये तो फिर कहना पड़ेगा कि पूरा भारत एक सभ्य और सम्पन्न देश है। छोटे शहरों, गांवों और गली, मुहल्लों और छोटे बाजारों का अस्तित्व ही मिट चुका है। इसका आभास बहुत कम बुद्धिजीवियों को होगा कि वह बड़े शहरों से बाहर जिस समुदाय को केवल प्रयोक्ता या उपभोक्ता समझकर चल रहा है, वह छोटे शहरों और गांवों में रहता है वह मानसिक रूप से धीरे धीरे इस बात को समझता है कि देश के बड़े शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवी, रचनाकार, साहित्यकार, चित्रकार और फिल्मकार उसके साथ विदेशी जैसा व्यवहार कर रहे हैं। देखा तो यह भी जा रहा है कि हमारे देश के प्रसिद्ध बौद्धिक पुरुष किसी न किसी विदेशी समाज की सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक विचारधारा से प्रभावित होकर अपना काम करते हैं। छोटे शहरों में रहने वाले लेखक, कवि, रचनाकार तथा कलाकार भी इस बात को मानते हैं कि बड़े शहरों का न होने के कारण उनको कभी राष्ट्रीय परिदृश्य पर नहीं आ सकते। इस तरह हम देश में एक वैचारिक विभाजन देख सकते हैं।
            देश का शक्तिशाली बौद्धिक तबका अभी इस बात कि परवाह नहीं कर रहा है क्योंकि उसको लगता है कि देश में किसी भी प्रायोजित मुद्दे पर अपनी मुखर आवाज के दम पर चाहे जब लोगों को अपनी लय पर चला सकता है क्योंकि प्रचार माध्यम तो आखिर बड़े शहरों में ही चल रहे हैं और वहाँ केवल उसकी आवाज ही गूँजती है। सच कहें तो ऐसा लगता है कि देश केवल महानगर और राजधानियाँ रह गई हैं और छोटे श्हर उनके शासित प्रजा जहां के लोगों का अस्तित्व बेजुबानों से अधिक नहीं है।
                      कालांतर में इसके भयावह परिणाम होंगे। अभी तक देश का कथित बौद्धिक समुदाय सभी देश प्रेम तो कभी हादसों के समय समस्त लोगों को आंदोलित कर लेता है पर जैसे जैसे अधिक से अधिक लोगों में अपने छोटे शहर या गाँव की उपेक्षा का भाव होने की अनुभूति बढ़ती जाएगी वह उनके उठाया मुद्दों से विरक्ति दिखन लगेगा।
             टीवी चैनलों की कहानियों और कथानक साहित्य नहीं होते यह हम विशाल भारत की स्थिति को देखें तो साफ दिखाई देता है। विदेशी प्रष्ठभूमि की कहानी को देशी पात्रों के मिश्रण से तैयार करना वैसे भी साहित्य नहीं होता। व्यावसायिक रूप से यह इसलिए लाभप्रद दिखता है क्योंकि जिस हालत में रहता है उसे विपरीत कहानी देखना और सुनना चाहता है। भारत में छोटे शहरों में रहने वाले लोग बहुमंजलीय इमारतों में रहने वाले पात्रों को इसलिए देखते हैं क्योंकि उनके घर वैसे नहीं हैं और न वैसा माहोल मिलता है। कालांतर में वह इससे उसक्ता जाएगा और तब चित्तन और मनन का जब दौर चलगा तब उसका सोच अपनी उपेक्षा की तरफ जाएगा। तब देश के कथित बौद्धिक समुदाय के मुद्दों पर ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देगा जैसी वह अपेक्षा करेगा।

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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

सोने के दलाल, काली नीयत पाले-हिन्दी व्यंग्य कविता


कोयले की दलाली में ही
हाथ होते हैं काले,
वह तो सोने के दलाल होकर भी
काली नीयत हैं दिल में पाले,
मालिक होकर भी खुश होना
उनका ख्वाब नहीं है।
पेट में रोटी होने पर भी
पेटियां सोने से भरते रहने का सपना
जिंदा रखते हैं जो लोग
उन पर दौलत के अलावा
किसी का रुआब नहीं है।
—————————-
सभी का जमीर गहरी नींद सो गया है,
इसलिये यकीन अब महंगा हो गया है।
भरोसेमंदों ही लूटने लगे हैं ज़माने के घर
इंसानियत की वर्दी में शैतान खो गया है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
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कमीज और कफन में कमीशन-हिन्दी कविता (kamij aur kafan mein commision-hindi pooem


जिंदगी में दोस्ती और रिश्तों के चेहरे बदल जाते हैं,
कुदरत के खेल देखिये, नतीजे सभी में वही आते हैं।
कमीज पर क्या, कफन में भी कमीशन की चाहत है,
दवाई लेने के इंतजार मे खड़े, कब हम बीमारी पाते हैं।
हमारी खुशियों ने हमेशा जमाने को बहुत सताया है,
गम आया कि नहीं, यही जानने लोग घर पर आते हैं।
कहें दीपक बापू, भरोसा और वफा बिकती बाज़ार में
इंसानों में जिंदा रहे जज़्बा, यही सोच हम निभाये जाते हैं।
———
कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

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आसमान से रिश्ते तय होकर आते हैं-हिन्दी कविताएँ


उधार की रौशनी में
जिंदगी गुजारने के आदी लोग
अंधेरों से डरने लगे हैं,
जरूरतों पूरी करने के लिये
इधर से उधर भगे हैं,
रिश्त बन गये हैं कर्ज जैसे
कहने को भले ही कई सगे हैं।
————–
आसमान से रिश्ते
तय होकर आते हैं,
हम तो यूं ही अपने और पराये बनाते हैं।
मजबूरी में गैरों को अपना कहा
अपनों का भी जुर्म सहा,
कोई पक्का साथ नहीं
हम तो बस यूं ही निभाये जाते हैं।
————–
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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सफ़ेद चेहरा काला धंधा-हिन्दी व्यंग्य कविता (safed chehra kala dhandha-hindi vyangya kavita)


चेहरा निर्दोष लगे
वस्त्र सादा और धवल हों,
नारे लगाने में माहिर,
और घोषणाओं पर खुश हो जाये,
ऐसा आदमी आगे खड़ा कर दो
ज़माना उसकी मासूमियत देखकर
सारा दर्द भुला देगा।
काला धंधा छिपकर चलता रहे,
काला धन सफेद होकर पलता रहे,
गगनचुंबी कांच से बनी इमारतें सलामत रहें,
इसके लिये जरूरी है कि आम आदमी
अपनी निराशा भूलकर
आशा की किरण देखता रहे
कोई बुझा चिराग
नकली रौशनी से सूरज की तरह बड़ा कर दो
वरना वह झूठे सिंहासन को फांसी  पर झुला देगा।
————
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नोटों से भरा है दिल जिनका-हिन्दी कविता (noton se bhara hai dil jinka-hindi poem)


हलवाई कभी अपनी मिठाई नहीं खाते
फिर भी तरोताजा नज़र आते हैं।
बेच रहे हैं जो सामान शहर में
उनकी दवा और सब्जी शामिल हैं जहर में
कहीं न उनके मुंह में भी जाता है
मग़र गज़ब है उनका हाज़मा
ज़हर को अमृत की तरह पचा जाते हैं।
———————–
सुनते हैं हर शहर में
दूध, दही और सब्जी के साथ
ज़हर बिक रहा है,
फिर भी मरने वालों से अधिक
जिंदा लोग घूमते दिखाई दे रहे हैं,
सच कहते हैं कि
पैसे में बहुत ताकत है
इसलिये नोटों से भरा है दिल जिनका
बिगड़ा नहीं उनका तिनका
बेशर्म पेट में जहर भी अमृत की तरह टिक रहा है।
———-

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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लोग अपने से बात करते हुए पाठ अंतर्जाल पर पढ़ना चाहते हैं-संपादकीय


आज यह ब्लाग/पत्रिका की पाठ पठन/पाठक संख्या एक लाख को पार कर गयी। इस ब्लाग/पत्रिका के साथ इसके लेखक संपादक के दिलचस्प संस्मरण जुड़े हुए हैं। यह ब्लाग जब बनाया तब लेखक का छठा ब्लाग था। उस समय दूसरे ब्लाग/पत्रिकाओं पर यूनिकोड में न रखकर सामान्य देव फोंट में रचनाएं लिख रहा था। वह किसी के समझ में नहीं आते थे। ब्लाग स्पाट के हिंदी ब्लाग से केवल शीर्षक ले रहा था। इससे हिन्दी ब्लाग लेखक उसे सर्च इंजिन में पकड़ रहे थे पर बाकी पाठ उनकी समझ में नहीं आ रहा था। यूनिकोड में रोमन लिपि में लिखना इस लेखक के लिये कठिन था। एक ब्लाग लेखिका ने पूछा कि ‘आप कौनसी भाषा में लिख रहे हैं, पढ़ने में नहीं आ रहा।’ उस समय इस ब्लाग पर छोटी क्षणिकायें रोमन लिपि से यूनिकोड में हिन्दी में लिखा इस पर प्रकाशित की गयीं। कुछ ही मिनटों में किसी अन्य ब्लाग लेखिका ने इस पर अपनी टिप्पणी भी रखी। इसके बावजूद यह लेखक रोमन लिपि में यूनिकोड हिंदी लिखने को तैयार नहीं था। बहरहाल लेखिका को इस ब्लाग का पता दिया गया और उसने बताया कि इसमें लिखा समझ में आ रहा है। उसके बाद वह लेखिका फिर नहीं दिखी पर लेखक ने तब यूनिकोड हिन्दी में लिखना प्रारंभ किया तब धीरे धीरे बड़े पाठ भी लिखे।

उसके बाद तो बहुत अनुभव हुए। यह ब्लाग प्रारंभ से ही पाठकों को प्रिय रहा है। यह ब्लाग तब भी अधिक पाठक जुटा रहा था जब इसे एक जगह हिन्दी के ब्लाग दिखाने वाले फोरमों का समर्थन नहीं मिलता था। आज भी यहां पाठक सर्वाधिक हैं और एक लाख की संख्या इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी अपनी गति से अंतर्जाल पर बढ़ रही है। मुख्य बात है विषय सामग्री की। इस ब्लाग पर अध्यात्मिक रचनाओं के साथ व्यंग, कहानी, कवितायें भी हैं। हास्य कवितायें अधिक लोकप्रिय हैं पर अध्यात्मिक रचनाओं की तुलना किसी भी अन्य विधा से नहीं की जा सकती। लोगों की अध्यात्मिक चिंतन की प्यास इतनी है कि उसकी भरपाई कोई एक लेखक नहीं कर सकता। इसके बाद आता है हास्य कविताओं का। यकीनन उनका भाव आदमी को हंसने को मजबूर करता है। हंसी से आदमी का खून बढ़ता है। दरअसल एक खास बात नज़र आती है वह यह कि यहां लोग समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा किताबों जैसी रचनाओं को अधिक पसंद नहीं करते। इसके अलावा क्रिकेट, फिल्म, राजनीति तथा साहित्य के विषय में परंपरागत विषय सामग्री, शैली तथा विधाओं से उन पर प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपने से बात करती हुऐ पाठ पढ़ना चाहते हैं। अंतर्जाल पर लिखने वालों को यह बात ध्यान रखना चाहिये कि उनको अपनी रचना प्रक्रिया की नयी शैली और विधायें ढूंढनी होंगी। अगर लोगों को राजनीति, क्रिकेट, फिल्म, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर परंपरागत ढंग से पढ़ना हो तो उनके लिये अखबार क्या कम है? अखबारों जैसा ही यहां लिखने पर उनकी रुचि कम हो जाती है। हां, यह जरूर है कि अखबार फिर यहां से सामग्री उठाकर छाप देते हैं। कहीं नाम आता है कहीं नहीं। इस लेखक के गांधीजी तथा ओबामा पर लिखे गये दो पाठों का जिस तरह उपयेाग एक समाचार पत्र के स्तंभकार ने किया वह अप्रसन्न करने वाला था। एक बात तय रही कि उस स्तंभकार के पास अपना चिंतन कतई नहीं था। उसने इस लेखक के तीन पाठों से अनेक पैरा लेकर छाप दिये। नाम से परहेज! उससे यह लिखते हुए शर्म आ रही थी कि ‘अमुक ब्लाग लेखक ने यह लिखा है’। सच तो यह है कि इस लेखक ने अनेक समसामयिक घटनाओं पर चिंतन और आलेख लिखे पर उनमें किसी का नाम नहीं दिया। उनको संदर्भ रहित लिखा गया इसलिये कोई समाचार पत्र उनका उपयोग नहीं कर सकता क्योंकि समसामयिक विषयों पर हमारे प्रचार माध्यमों को अपने तयशुदा नायक और खलनायकों पर लिखी सामग्री चाहिये। इसके विपरीत यह लेखक मानता है कि प्रकृत्तियां वही रहती हैं जबकि घटना के नायक और खलनायक बदल जाते हैं। फिर समसामयिक मुद्दों पर क्या लिखना? बीस साल तक उनको बने रहना है इसलिये ऐसे लिखो कि बीस साल बाद भी ताजा लगें-ऐसे में किसी का नाम देकर उसे बदनाम या प्रसिद्ध करने
से अच्छा है कि अपना नाम ही करते रहो।
मुख्य बात यह है कि लोग अपने से बात करते हुऐ पाठ चाहते हैं। उनको फिल्म, राजनीति, क्रिकेट तथा अन्य चमकदार क्षेत्रों के प्रचार माध्यमों द्वारा निर्धारित पात्रों पर लिख कर अंतर्जाल पर प्रभावित नहीं किया जा सकता। अपनी रचनाओं की भाव भंगिमा ऐसी रखना चाहिये जैसी कि वह पाठक से बात कर रही हों। यह जरूरी नहीं है कि पाठक टिप्पणी रखे और रखे तो लेखक उसका उत्तर दे। पाठक को लगना चाहिये कि जैसे कि वह अपने मन बात उस पाठ में पढ़ रहा है या वह पाठ पढ़े तो वह उसके मन में चला जाये। अगर वह परंपरागत लेखन का पाठक होता तो फिर इस अंतर्जाल पर आता ही क्यों? अपने मन की बात ऐसे रखना अच्छा है जैसे कि सभी को वह अपनी लगे।
इस अवसर पर बस इतना ही। हां, जिन पाठकों को इस लेखक के समस्त ब्लाग/पत्रिकाओं का संकलन देखना हो वह हिन्द केसरी पत्रिका को अपने यहां सुरक्षित कर लें। इस पत्रिका के पाठकों के लिये अब इस पर यह प्रयास भी किया जायेगा कि ऐसे पाठ लिखे जायें जो उनसे बात करते हुए लगें।

लेखक संपादक दीपक भारतदीप,ग्वालियर 

समाज हिलता नजर आता हास्य व्यंग्य कविता (javani divani aur budhapa-hindi hasya kavita)


जब वह जवान थे
तब तक लिये खूब लिये उन्होंने मजे
अब बुढ़ापे में नैतिक चक्षु जगे।
किताबों में छिपाकर खूब पढ़ा यौन साहित्य
जब मन में आया
वयस्कों के लिये लगी फिल्म देखने
स्कूल छोड़कर भगे।
अब बुढ़ापे में आया है
समाज का ख्याल
उठा रहे अश्लीलता का सवाल
मचा रहे धमाल
युवाओं को संयम का उपदेश देने लगे।
………………………..
फिल्म और किताब पर
उनको समाज हिलता नजर आता है।
भले अपनी जवानी में
नैतिकता का मतलब न समझा हो
बुढ़ापे में जवानों को समझाने में
कुछ अलग ही मजा आता है।

…………………

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कल के बड़े और आज के बच्चे-हिंदी हास्य कवितायें( badi aur bachche-hindi haysa kavita


बेटे ने मां से कहा
‘‘मां, मुझे पैसा दो तो
कार खरीद कर लाऊं
कालिज उससे जाकर अपनी छबि बनाऊं
पापा, नोटों की भरी पेटी रखकर
दौरे पर गये हैं
मुझे अपने दोस्तों में रुतवा दिखाना है
क्योंकि सभी नये हैं
पता नहीं पापा कब आयेंगे
तब तक अपनी इस मोटर साइकिल पर जाऊंगा तो
सभी मेरी हंसी उड़ायेंगे।’

सुनकर मां गद्गद्वाणी में बोली
‘बेटा, तुम्हारे पापा समाज सेवक है
सभी जानते हैं
उनको इसलिये मानते हैं
यह पेटी उन्हीं चंदे के नोटों से भरी है
जो सूखा राहत बांटने के लिये यहां धरी है
माल तो यह सभी अपना है
सूखा पीड़ितों के लिये तो बस एक सपना है
पर तुम्हारे पापा कागज पत्रक पूरे करने के लिये
दौरे पर गये हैं
उनका नया होना जरूरी है
क्योंकि यह नोट भी नये हैं
यह दौरा कर वह राहत बंटवा रहे हैं
सच तो यह है कि
बांट सकें जिनको
उन मरे लोगों के नाम छंटवा रहे हैं
अगर अभी पैसा खर्च कर ले आओगे
अपने पापा पर शक की सुई घुमाओगे
इसलिये आने दो उनको
इस भरी पेटी से तुम्हारी कार का पैसा निकालकर
तुम्हारे हाथों से इसका
और तुम्हारी राहत का उद्घाटन करायेंगे।

…………………………
आज के बच्चे
अपने माता पिता के बाल्यकाल से
अधिक तीक्ष्ण बुद्धि के पाये जाते
यह सच कहा जाता है।
किस नायिका का किससे
चल रहा है प्रेम प्रसंग
अपने जन्मदिन पर नायक की
किस दूसरे नायक से हुई जंग
कौन गायक
किस होटल में मंदिर गया
कौन गीतकार आया नया
कौनसा फिल्मी परिवार
किस मंदिर में करने गया पूजा
कहां जायेगा दूजा
रेडियो और टीवी पर
इतनी बार सुनाया जाता है।
देश का हर बच्चा ज्ञान पा जाता है।

……………………………

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