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गलत समय पर बोलने से बृहस्पति को भी अपमान झेलना पड़ सकता है-विदुर नीति के आधार पर हिंदी चिंत्तन लेख


          कुछ लोगों का आदत होती है कि वह हमेशा ही कुछ बोलना चाहते हैं।  हम आपसी वार्तालाप में यह देखते हैं कि अनेक लोग एक तो फालतु बातें करते हैं या फिर असमय ऐसा विषय उठाते हैं जिस पर चर्चा करना व्यर्थ लगता है।  आज के आधुनिक युग में अभिव्यक्ति के साधनों का दायरा बढ़ा है तो यह भी देखने में आ रहा है कि कोई भी किसी भी विषय पर कुछ भी बोल सकता है।  कभी कभी तो कुछ लोगों के बोलने पर हंसी आ जाती है।   हमेशा विज्ञान पढ़ने वाले अर्थशास्त्र पर बोलते हैं तो गणित पढ़ने वाले अध्यात्मिक विषय पर अपना ज्ञान बघारते हैं।
       अगर किसी ने साधु का वेश घारण किया या  समाजसेवक का चोला पहन लिया तो समझ लीजिये वह अपने आपको हर विषय में पारंगत मान लेता है।  आम आदमी की बात छोड़िये समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा टीवी चैनलों में काम करने वाले बुद्धिमान तक उनके दावे को स्वीकार कर उनकी बातों को महत्व देते हैं। यह अलग बात है कि यह बातें विवादास्पर होती हैं जिन पर चर्चा करने से विज्ञापन का समय आसानी से पास होता है।
    आजकल वेश और पद एक तरह से महाविद्वान होने का प्रमाण पत्र बन गये हैं।  सबसे ज्यादा हंसी अध्यात्मिक तथा सामाजिक विषयों पर बोलने वालों पर आती है।  कई लोग तो ऐसे हैं कि जिन्होंने अध्यात्म का ज्ञान रटने के बाद  उसे सुनाने के लिये मैदान में उतर पढ़ते हैं।  कुछ तो शिष्यों का संग्रह कर समाज को सुधारने के लिये अभियान भी छेड़ देते हैं।  उनका सारा प्रयास नारों के सहारे होता है।  यही कारण है कि हमारे देश में कोई धार्मिक या सामाजिक अभियान कभी निर्णायक नहीं बन सका।
महाराज विदुर का कहना है कि

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अप्राप्तकालं वचं बृहस्पतिरपि ब्रुवन।

लभते बृदध्यवज्ञानामानं च भारत।।

      हिन्दी में भावार्थ-असमय अगर स्वयं बृहस्पति भी बोलें तो उन्हें अपमान झेलना पड़ेगा और उनको अपनी बुद्धि का तिरस्कार होगा।

 


द्वेष्यो न साधुर्भवति न  मेधावी न पण्डितः।


प्रिये शुभानि कार्याणि द्वेषये पापानि चैव ह।

 


हिन्दी में भावार्थ-जिससे मन में द्वेष हो जाता है वह साधु,
विद्वान और बुद्धिमान हो तो भी  भारी दोषों से युक्त प्रतीत होता है। जो
प्रिय है उसमें ढेर सारे दोष होने पर भी नहीं दिखते पर जिसके शत्रु भाव है
उसके सारे काम पापमय दिखते हैं।
               अनेक लोग शोक के अवसर पर हास्य का भाव पैदा करते हैं तो हास्य के भाव पर रुदन करते हैं।  एक दूसरी भी प्रवृत्ति देखी जाती है कि अधिकतर  लोग अपने भावनात्मक दुराग्रहों के साथ जीते हैं।  जिससे स्वार्थ पूरा होता है वह चाहे दुष्ट भाव वाला क्यों न हो, उनके लिये देव है पर  जिससे कोई स्वार्थ नहीं है वह उनके लिये महत्वहीन है।  अगर कोई विद्वान भी किसी व्यक्ति के अहंकार पर बौद्धिक प्रहार करता या  मानसिक आघात पहुंचाता है तो एक तरह वह शत्रु ही मान लिया जाता है।  असली दवा कड़वी होती उसी तरह अहंकार से भरे मनुष्यों के लिये सत्य सुनना कठिन है।  ऐसे में जिन लोगों ने अपने विद्वान होने का प्रमाण पत्र जोड़ लिया है उनसे सत्य पर बहस करना व्यर्थ है।
       बहरहाल जिन लोगों को अपना जीवन संवारना है उन्हें अपने विवेक से काम लेना चाहिये।  अपने अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर ज्ञान और विज्ञान का मस्तिष्क में संग्रह कर अपने जीवन में उस पर अमल करना सहज जीवन जीने का एक सहज उपाय है।  टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं में अनेक ऐसे विद्वान भी प्रकट होते हैं जो ज्ञानी हैं पर यकीनन वह अधिक प्रचार नहीं पाते।  वह निर्विवाद तक देते हैं जबकि आज के प्रचार माध्यम विवादास्पद विद्वानों को तरजीह देते हैं ताकि उनके निरर्थक बहसों के चलते उनके साथ बने रहें।
       कहने का अभिप्राय यह है कि हमें स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिये। उचित समय पर बोले और जिस विषय पर आधिकारिक ज्ञान हो उसी पर बोले।  ऐसा न करने पर तिरस्कार और अपमान झेलना पड़ता है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश 
poet and writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh
कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

नारी के विषय पर 23 माह पहले लिखा आज भी प्रासंगिक-हिंदी लेख


       इस लेखक के इन्टरनेट पर लिखे गए लेखों में एक है कन्या भ्रुण हत्या से मध्ययुगीन स्थिति की तरफ बढ़ता समाज-हिन्दी लेख। 11 फ़रवरी 2011 को लिखे गए इस लेख पर आज तक भी टिप्पणियाँ आती हैं।  इस पर कुछ टिप्पणीकारों ने यह भी लिखा कि  आपकी बात हमारे समझ में नहीं आयी तो  अनेक लोगों ने अपनी  व्यथा कथा भी कही है।  लिखने का अपना अपना तरीका होते है।  जब किसी विषय पर  गंभीरता से  लिखते हुए कोई डूब जाये तो भाषा सौंदर्य दूर हो जाता है और अगर शब्दों की चिंता करें तो दिमाग सतह पर आ जाता है।  हम जैसे हिंदी के गैर पेशेवर लेखकों के लिया यही मुश्किल है कि पाठक हमारे लेखों में भाषा सौन्दर्य न देखकर यह मान लेते हैं इनकी बात तो आम भाषा में लिखी गयी है इसलिए यह कोई मशहूर लेखक नहीं बन पाए।  बाज़ार के सहारे  मशहूर लेखकों को  पढ़कर भी  पाठक  निराश होते हैं की उन्होंने कोई नयी बात नहीं कही।  कन्या भ्रूण हत्या पर लिखे गए इस लेख में समाज की आंतरिक और बाह्य सत्यता का वर्णन किया गया था।  इसके लिए किसी खास घटना पर आंसू नहीं बहाए गए थे।   एक पेशेवर लेखक की तरह पाठकों का ध्यान सामयिक रूप से अपनी तरफ आकर्षित करने का यह कोई प्रयास नहीं था।
       आज मन में आया कि  भारतीय नारियों के प्रति अपराध पर कुछ नया लिखा जाए पर पता चला की पाठकों की नज़र आज भी इस पर पड़ी  हुई है तब लगा कि  इसे पुन: प्रस्तुत किया जाए।  पूरे लेख को हमें पढ़ा तो लगा कि  यह अब भी प्रासंगिक है।  11 फरवरी 2011 तथा 29 दिसंबर 2012 में करीब 23 महीने का अंतर है।  नारियों के प्रति बढ़ते अपराधों के लिए अनेक कारण है।  दरअसल कुछ ऐसे भी हैं जो सभीके सामने हैं, लोग जानते हैं, मानते भी हैं मगर बाहरी रूप से कोई स्वीकार नहीं करना चाहता है।  पुरुष ही नहीं नारियां भी शुतुर्मुर्गीय अंदाज़ में  बहस कर रहे हैं।  अभी हाल ही में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना हुई।  इस पर इतने प्रदर्शन हुए। अख़बारों में सम्पाकीय छपे। टीवी चैनलों पर बहसें  हुई।  सब कुछ प्रायोजित लगा।  हमें लगा कि  11 फरवरी 2011 को लिखा गया यह लेख अभी भी सीना तनकर खड़ा है और पेशेवर लेखकों को ललकार रहा हो ऐसा बोलकर और लिखकर दिखाओ।
 जिन्होंने बहस की उन्होंने कुछ न कुछ पाया होगा। चैनलों ने पांच मिनट  की बहस की तो पच्चीस  मिनट का विज्ञापन चलाया।  मगर सच कोई नहीं बोला।  वैसे तो .धनपतियों के हाथ में पूरी दुनिया है पर समाज उनके हाथ में पूरी तरह नहीं रहा था। उनके सहारे चल रहे प्रचार माध्यमों  ने यह काम भी कर दिखाया। उदारीकरण के चलते सार्वजानिक क्षेत्र कम हुआ है। सीधी बात कहें तो समाज की राज्य से अधिक निजी क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ गयी है।  मान सम्मान की रक्षा, सुरक्षित सेवाओं का प्रबंध तथा प्रजा हित को सर्वोपरि मानते हुए अपना काम जितना राज्य कर सकता है, निजी क्षेत्र के लिए यह संभव नहीं है।  राज्य के लिए अपने लोग महत्वपूर्ण होते हैं निजी क्षेत्र के लिए अपनी कमाई सर्वोपरि होती है।
                इससे भी अधिक  बात यह है की राज्य का जिम्मा अपने प्रजा को संभालना भी होता है और निजी क्षेत्र कभी इसे महत्व नहीं देता।
  निजी क्षेत्र कभी राज्य का प्रतीक  नहीं हो सकते।   जब निजी क्षेत्र अपने साथ राज्य के प्रतीक के रूप में अपनी ताकत दिखाते हैं तो कुछ ऐसी समस्याएँ उठ सकती हैं जिनकी कल्पना कुछ लोगों ने की भी होगी।  इस पर किसी ने  प्रकाश नहीं डाला। इसी अपेक्षा भी नहीं थी। कारण की बाज़ार के सौदागरों और प्रचार प्रबंधकों का या सिद्धान्त है की बहसें खूब हों पर इतनी कि  लोग बुद्धिमान न हो जाएँ।  इसलिए नारे लगाने तथा रुदन करने वाले बुद्धिजीवियों को आमंत्रित करते हैं।  इनमें कुछ एक हद तक व्यवस्था तो कुछ समाज की आलोचना करने की खानापूरी करते हैं।  इस विषय पर बहुत कुछ लिखने का मन है पर क्या करें अपने पास समय की सीमायें हैं।  पेशेवर बुद्धिजीवियों के मुकाबले हम जैसे आम लेखकों को समाज अधिक महत्व भी नहीं देता।  इसलिए जब समाज मिलता है अपनी बात कह जाते हैं। 

पहले लिखा गया लेख पढना चाहें तो पढ़ सकते हैं।

हो सकता है कि कुछ लोग हमारी बुद्धि पर ही संशय करें, पर इतना तय है कि जब देश के बुद्धिजीवी किसी समस्या को लेकर चीखते हैं तब उसे हम समस्या नहीं बल्कि समस्याओं या सामाजिक विकारों का परिणाम मानते हैं। टीवी और समाचार पत्रों के समाचारों में लड़कियों के विरुद्ध अपराधों की बाढ़ आ गयी है और कुछ बुद्धिमान लोग इसे समस्या मानकर इसे रोकने के लिये सरकार की नाकामी मानकर हो हल्ला मचाते हैं। उन लोगों से हमारी बहस की गुंजायश यूं भी कम हो जाती हैं क्योंकि हम तो इसे कन्या भ्रुण हत्या के फैशन के चलते समाज में लिंग असंतुलन की समस्या से उपजा परिणाम मानते है। लड़की की एकतरफ प्यार में हत्या हो या बलात्कार कर उसे तबाह करने की घटना, समाज में लड़कियों की खतरनाक होती जा रही स्थिति को दर्शाती हैं। इस पर चिंता करने वाले कन्या भ्रूण हत्या के परिणामों को अनदेखा करते हैं।

इस देश में गर्भ में कन्या की हत्या करने का फैशन करीब बीस-तीस साल पुराना हो गया है। यह सिलसिला तब प्रारंभ हुआ जब देश के गर्भ में भ्रुण की पहचान कर सकने वाली ‘अल्ट्रासाउंड मशीन’ का चिकित्सकीय उपयोग प्रारंभ हुआ। दरअसल पश्चिम के वैज्ञानिकों ने इसका अविष्कार गर्भ में पल रहे बच्चे तथा अन्य लोगों पेट के दोषों की पहचान कर उसका इलाज करने की नीयत से किया था। भारत के भी निजी चिकित्सकालयों में भी यही उद्देश्य कहते हुए इस मशीन की स्थापना की गयी। यह बुरा नहीं था पर जिस तरह इसका दुरुपयोग गर्भ में बच्चे का लिंग परीक्षण कराकर कन्या भ्रुण हत्या का फैशन प्रारंभ हुआ उसने समाज में लिंग अनुपात की  स्थिति को बहुत बिगाड़ दिया। फैशन शब्द से शायद कुछ लोगों को आपत्ति हो पर सच यह है कि हम अपने धर्म और संस्कृति में माता, पिता तथा संतानों के मधुर रिश्तों की बात भले ही करें पर कहीं न कहीं भौतिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की वजह से उनमें जो कृत्रिमता है उसे भी देखा जाना चाहिए। अनेक ज्ञानी लोग तो अपने समाज के बारे में साफ कहते हैं कि लोग अपने बच्चों को हथियार की तरह उपयोग करना चाहते हैं जैसे कि स्वयं अपने माता पिता के हाथों हुए। मतलब दैहिक रिश्तों में धर्म या संस्कृति का तत्व देखना अपने आपको धोखा देना है। जिन लोगों को इसमें आपत्ति हो वह पहले कन्या भ्रुण हत्या के लिये तर्कसंगत विचार प्रस्तुत करते हुए उस उचित ठहरायें वरना यह स्वीकार करें कि कहीं न कहीं अपने समाज के लेकर हम आत्ममुग्धता की स्थिति में जी रहे हैं।

जब कन्या भ्रुण हत्या का फैशन की शुरुआत हुई तब समाज के विशेषज्ञों ने चेताया था कि अंततः यह नारी के प्रति अपराध बढ़ाने वाला साबित होगा क्योंकि समाज में लड़कियों की संख्या कम हो जायेगी तो उनके दावेदार लड़कों की संख्या अधिक होगी नतीजे में न केवल लड़कियों के प्रति बल्कि लड़कों में आपसी विवाद में हिंसा होगी। इस चेतावनी की अनदेखी की गयी। दरअसल हमारे देश में व्याप्त दहेज प्रथा की वजह से लोग परेशान रहे हैं। कुछ आम लोग तो बड़े आशावादी ढंग से कह रहे थे कि ‘लड़कियों की संख्या कम होगी तो दहेज प्रथा स्वतः समाप्त हो जायेगी।’

कुछ लोगों के यहां पहले लड़की हुई तो वह यह सोचकर बेफिक्र हो गये कि कोई बात नहीं तब तक कन्या भ्रुण हत्या की वजह से दहेज प्रथा कम हो जायेगी। अलबत्ता वही दूसरे गर्भ में परीक्षण के दौरान लड़की होने का पता चलता तो उसे नष्ट करा देते थे। कथित सभ्य तथा मध्यम वर्गीय समाज में कितनी कन्या भ्रुण हत्यायें हुईं इसकी कोई जानकारी नहीं दे सकता। सब दंपतियों के बारे में तो यह बात नहीं कहा जाना चाहिए पर जिनको पहली संतान के रूप में लड़की है और दूसरी के रूप में लड़का और दोनों के जन्म के बीच अंतर अधिक है तो समझ लीजिये कि कहीं न कहंी कन्या भ्रुण हत्या हुई है-ऐसा एक सामाजिक विशेषज्ञ ने अपने लेख में लिखा था। अब तो कई लड़किया जवान भी हो गयी होंगी जो पहली संतान के रूप में उस दौर में जन्मी थी जब कन्या भ्रुण हत्या के चलते दहेज प्रथा कम होने की आशा की जा रही थी। मतलब यह कि यह पच्चीस से तीस साल पूर्व से प्रारंभ  सिलसिला है और दहेज प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही। हम दहेज प्रथा समाप्ति की आशा भी कुछ इस तरह कर रहे थे कि शादी का संस्कार बाज़ार के नियम पर आधारित है यानि धर्म और संस्कार की बात एक दिखावे के लिये करते हैं। अगर लड़कियां कम होंगी तो अपने आप यह प्रथा कम हो जायेगी, पर यह हुआ नहीं।

इसका कारण यह है कि देश में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। मध्यम वर्ग के लोग अब निम्न मध्यम वर्ग में और निम्न मध्यम वर्ग के गरीब वर्ग में आ गये हैं पर सच कोई स्वीकार नहीं कर रहा। इस कारण लड़कों से रोजगार के अवसरों में भी आकर्षण शब्द गायब हो गया है। लड़कियों के लिये वर ढूंढना इसलिये भी कठिन है क्योंकि रोजगार के आकर्षक स्तर में कमी आई है। अपनी बेटी के लिये आकर्षक जीवन की तलाश करते पिता को अब भी भारी दहेज प्रथा में कोई राहत नहीं है। उल्टे शराब, अश्लील नृत्य तथा विवाहों में बिना मतलब के व्यय ने लड़कियों की शादी कराना एक मुसीबत बना दिया है। इसलिये योग्य वर और वधु का मेल कराना मुश्किल हो रहा है।

फिर पहले किसी क्षेत्र में लड़कियां अधिक होती थी तो दीवाने लड़के एक नहीं  तो दूसरी को देखकर दिल बहला लेते थे। दूसरी नहीं तो तीसरी भी चल जाती। अब स्थिति यह है कि एक लड़की है तो दूसरी दिखती नहीं, सो मनचले और दीवाने लड़कों की नज़र उस पर लगी रहती है और कभी न कभी सब्र का बांध टूट जाता है और पुरुषत्व का अहंकार उनको हिंसक बना देता है। लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराध कानून व्यवस्था या सरकार की नाकामी मानना एक सुविधाजनक स्थिति है और समाज के अपराध को दरकिनार करना एक गंभीर बहस से बचने का सरल उपाय भी है।

              हम जब स्त्री को अपने परिवार के पुरुष सदस्य से संरक्षित होकर राह पर चलने की बात करते हैं तो नारीवादी बुद्धिमान लोग उखड़ जाते हैं। उनको लगता है कि अकेली घूमना नारी का जन्मसिद्ध अधिकार है और राज्य व्यवस्था उसको हर कदम पर सुरक्षा दे तो यह एक काल्पनिक स्वर्ग की स्थिति है। यह नारीवादी बुद्धिमान नारियों पर हमले होने पर रो सकते हैं पर समाज का सच वह नहीं देखना चाहते। हकीकत यह है कि समाज अब नारियों के मामले में मध्ययुगीन स्थिति में पहुंच रहा है। हम भी चुप नहीं  बैठ सकते क्योंकि जब नारियों के प्रति अपराध होता है तो मन द्रवित हो उठता है और लगता है कि समाज अपना अस्तित्व खोने को आतुर है।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior,madhya Pradesh

 

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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अन्ना हजारे के आंदोलन की छवि पर उठ रहे हैं सवाल-हिन्दी लेख


                    अन्ना हजारे की टीम ने एक बार फिर जनलोकपाल बनाने के लिये अपना आंदोलन प्रारंभ कर दिया है।  अगर जरूरत पड़ी  और स्वास्थ्य न ेसाथ दिया तो अन्ना हजारे स्वयं भी अनशन पर बैठ सकते हैं।  अगर मगर किन्तु परंतु और यह वह के चक्कर में अन्ना हजारे जी का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपनी उज्जवल छवि खो चुका है इसका पता तो इसके पा्ररंभ होने के एक दिन पहले ही इंटरनेट पर उन लोगों को चल गया होगा जो लेखन और रचनाओं के माध्यम से ब्लाग लिखने के साथ ही उसे पढ़ने वालों का मार्ग भी देखते हैं।  सर्च इंजिनों में इस आंदोलन के लिये खोज कम हुई है यह हम बड़े सादगी से लिख रहे हैं हकीकत यह है कि लोगों की रुचि इसमें खत्म हो गयी लगती है।  कुछ लोग यह कहें कि पूरे भारत की जनता इंटरनेट से जुड़ी नहीं है इसलिये इस आधार इस आंदोलन की लोकप्रियता कम होने की बात ठीक नहीं है पर हमारा अनुभव यह कहता है कि जब प्रचार माध्यमों में इस आंदोलनों का जोर था तब इंटरनेट पर भी इसकी खोज जमकर हो रही थी।  कहने का अभिप्राय यह है कि समाज की रुचियों में समानता होती है यह अलग बात है कि लोग अपने अपने स्तर के अनुसार साधनों का चयन कर समान विषयों से जुड़ते हैं।            आखिर यह सब कैसे हो गया? इस आंदोलन से भले ही कुछ चेहरे चमके हों, अनेक लोगों को बौद्धिक विलास का सामग्री मिली हो तथा इसके समाचारों के साथ ही बहसें प्रसारित कर समाचार चैनलों ने भले ही विज्ञापनों के लिये जमकर समय का इस्तेमाल किया हो पर इसका परिणाम वहीं का वहीं है जहां से यह प्रारंभ हुआ था। अगर हम परिणामों को आंकड़ों में नापें तो सामने शून्य ही आता है।

अन्ना हजारे के साथ जुड़े संगठनो के कर्णधारों ने उनके चेहरे का खूब उपयोग किया पर यह साफ दिखाई दिया कि कहीं न कहीं उनके लक्ष्य अस्पष्ट थे।  साफ बात यह है कि अन्ना और उनकी टीम आज भी दो अलग भाग दिखाई देते हैं।  अन्ना अकेले हैं पर उनके साथ जुड़े अन्य लोग अपने संगठन उनके पीछे लाकर स्वयं के  चेहरे चमकाने के अलावा कुछ नहीं कर पाये। जब यह अंादोलन अपने स्वर्णिम दौर  में था तब लोगों की भावनायें उच्च स्तर पर उसके साथ जुड़ी थीं।  उन भावनाओं से विभोर होकर आंदोलन के कर्णधार अनेक  तरह के ऐसे बयान देने लगे थे जिससे आंदोलन के लक्ष्य तथा विचार अस्पष्ट दिखाई देने लगे  थे।  उनके शब्दों में उत्साह  अधिक पर  गंभीर तथा स्पटतः विचारों का अभाव दिखाई देने लगा था।  उनकी कोई स्पष्ट योजना नही थी न ही  भविष्य के स्परूप की कोई कल्पना थी।  खाली बयानबाजी तथा अस्पष्ट वादों के बीच यह आंदोलन लंबे समय तक लोकप्रिय नहीं बना रह सका।

अब सब थम चुका है।  हमारा मानना है कि अन्ना अब शायद ही स्वयं अनशन पर बैठें क्योंकि वह हवा का रुख देखकर अपनी चाल चलने वाली ऐसी शख्सियत हैं जो अपने इसी गुण की वजह से लोकप्रिय हैं।  प्रचार माध्यम अन्ना हजारे के आंदोलन को फ्लाप शो कर रहे हैं तो यह बात मानना ही पड़ती है।  यकीनन अन्ना यह सब भांपने में माहिर हैं और वह अपने कदम उस तरह आगे न बढ़ायें जैसे कि उनकी टीम अपेक्षा कर रही है। इतना अनुमान तो प्रचार प्रबंधको ने लगा ही लिया होगा कि इस बार यह आंदोलन अब उनके लिये विज्ञापन प्रसारित करने का इतना समय नहीं दिला सकता।  अगर हम वर्तमान समय में लोकप्रियता का आधार तय करें तो वह केवल यही है कि किसी शख्सियत की लोकप्रियता उतनी ही होती है जितनी वह प्रचार  माध्यमों को विज्ञापन के बीच प्रसारित खाली समय में अपनी जगह बना सके।  अन्ना समाचारों में तो हैं पर विज्ञापनों के लिये समय जुटाने का सामर्थ्य उनके आंदोलन में अब उतना नहीं है।  यही कारण है कि प्रचार माध्यम अब शायद इस आंदोलन के लिये वैसे काम न करें जैसे कि पहले करते रहे थे।  9 अगस्त से बाबा रामदेव भी अपना आंदोलन चलाने वाले हैं। वह इस समय देश में लगातार इसका प्रचार कर रहे हैं।  उनके इस आंदोलन की स्थिति पर भी लिखेंगे पर पहले अवलोकन करें।

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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ओसामा बिन लादेन की मौत पर विवाद तो चलते ही रहेंगे-हिन्दी लेख (osama bin laden ki maur par vivad-hindi lekh or article)


                       ओसामा बिन लादेन अब इस धरती पर नहीं है यह बात तय है। विवाद इस बात पर है कि वह कब और कहां मरा? अमेरिकी स्वयं ही मामले को संदेहास्पद बना रहे हैं। उनकी कुछ बातें दिलचस्प है।

पाकिस्तान को कार्यवाही का नहीं पता
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                             अमेरिकन रणनीतिकारों का सबसे बड़ा झूठ यह कि पाकिस्तान को अमेरिकी सैन्य कार्यवाही का पता नहीं था। एक सैनिक की मौत पर ही  डरने वाला अमेरिका इतना बड़ा जोखिम नहीं ले सकता था। उसकी सेना अपने हेलीकॉप्टर उस पाकिस्तान में उतारने वाली थी जहां आतंकवादियों के पास भी विमान गिराने वाली मिसाइलें रहती हैं। यह संभव नहीं है कि इतने सारे हेलीकॉप्टर बाहर से उड़ कर आये और पाकिस्तानी सेना में किसी के पास जानकारी न हो। सभी अधिकारियों को नहीं तो अमेरिका के खास अधिकारियो को इसकी जानकारी होगी। दरअसल अमेरिका पाकिस्तान को बचा रहा है ताकि वह अपने ही धर्मबंधु देशों की नाराजगी का शिकार न हो। दूसरी बात यह कि वह ओसामा बिन लादेन को शरण देने के आरोपों से भी पाक रणनीतिकारों का बचा रहा है।
केवल बच्चा गवाह बन रहा है
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                  पाकिस्तान के एक बच्चे के अलावा कोई दूसरा गवाह नहीं है यह बताने वाला कि मरने वाला ओसामा बिन लादेन ही था। लादेन की लाश किसी ने नहीं देखी। कोई मरा वह कोई भी हो सकता था। बच्चा सारी बात बता रहा है पर वह यह दावा नहीं कर सकता कि उसे उपहार में दो खरगोश देन वाला बिन लादेन ही था। कोई बड़ा गवाह न मिलना इस बात का प्रमाण है कि कहीं न कहीं दाल में काला है।

परिवार को लेकर विरोधी बयान
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                             एक तरफ अमेरिका दावा कर रहा है कि इस हमले में बिन लादेन की एक पत्नी मारी गयी तो दो पकड़ी गयीं। इधर पाकिस्तान कह रहा है कि लादेन का परिवार उसके पास सुरक्षित है। सवाल यह है कि उसकी पत्नियों को प्रचारक लोग सामने क्यों नहीं ला रहे। पाकिस्तान कह रहा है कि लादेन के परिवार को उसके देश भेज दिया जायेगा। अगर लादेन को समुद्र में दफनाया गया तो उसके परिवार के लोगों को क्या वहां ले जाया गया? अगर नहीं तो क्यों?
यहां यह बात याद रखने लायक है कि मरने वाला लादेन ही था इसकी पुष्टि उसके परिवार के वही सदस्य ही कर सकते हैं जो इस हमले में समय उसके पास थे। अब सवाल यह है कि उनमें से कोई क्या कभी प्रचार माध्यमों के पास आकर बतायेगा कि वह लादेन ही था?

फिक्सिंग के लिये बदनाम है पाकिस्तान
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                      लादेन को गोली या बम से ही मरना था। जिस मार्ग पर वह चला वही सामने से आती गोली या ऊपर से गिरने वाले बम के साथ ही बंद हो जाता है। यह सच है। अमेरिका लादेन को मारने के इतने प्रयास कर चुका है कि उसके सेना की गज़ब की क्षमता और अचूक निशाने देखकर लगता है कि वह कई बार मरा होगा। एबटाबाद में उसका मरना कोई बड़ी बात नहीं है। पाकिस्तान हमेशा ही उसका खैरख्वाह रहा है। मगर जिस तरह अमेरिका और पाकिस्तानी रणनीतिकार ओसामा बिन लादेन की औपचारिक मौत के बाद जिस तरह नाटकबाजी कर रहे हैं उससे फिक्सिंग का शक होता है। वैसे भी पाकिस्तान की क्रिकेट टीम फिक्ंिसग के लिये बदनाम हैं। पाकिस्तान की टीम के बारे में कहा जाता है कि वह हमेशा ही हारना फिक्स करती है उसी तरह पाकिस्तान के रणनीतिकार भी अमेरिका से अपना पिटना फिक्स करते हैं। यह अलग बात है कि बाद में अमेरिका उनके घावों पर मरहम लगाता है। फिर पैसे की भी मदद करता है। ऐसे में यह संभव नहीं है कि पाकिस्तानी रणनीतिकार अपने आका की बात का किसी तरह प्रतिवाद करें।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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महंगाई का अर्थशास्त्र-हिन्दी व्यंग्य (black economics-hindi satire article)


किसी भी देश की मुद्रा पर अर्थशास्त्र में अनेक बातें पढ़ने को मिलती हैं पर उसके संख्यांक पर कहीं अधिक पढ़ने को नहीं मिलता अर्थात मुद्रा एक से लेकर एक हजार तक के अंक में छापी जाये या नहीं इस पर अधिक चर्चा नहीं मिलती। हम सीधी बात कहें तो डालर या सौ रुपये से ऊपर हो या नहीं इस पर अर्थशास्त्री अधिक विस्तार से विचार नहीं रखते। वजह शायद यह है कि आधुनिक अर्थशास्त्र की संरचना भी पुरानी है और तब शायद यह मुद्दा अधिक विचार योग्य नहीं था। इसलिये नये संदर्भ ंअब अर्थशास्त्र में जोड़ा जाना आवश्यक लगता है। हम बात कर रहे हैं भारत के सौ रुपये के ऊपर से नोटों की जिनका प्रचलन ऐसी समस्यायें पैदा कर रहा है जिनकी जानकारी शायद अर्थ नियंत्रण कर्ताओं को नहीं है। कभी कभी तो लगता है कि काली अर्थव्यवस्था के स्वामी अपने काला अर्थशास्त्र भी यहां चलाते हैं।
कुछ समय पूर्व योग शिक्षक स्वामी रामदेव ने बड़े अंक वाली मुद्रा छापने का मसला उठाया था पर उसे भारतीय प्रचार माध्यमों ने आगे नहीं बढ़ाया। एक दौ टीवी चैनल ने इस पर चर्चा की तो अकेले बाबा रामदेव के मुकाबले अनेक वक्ता थे जो भारत में पांच सौ और हजार के नोटों के पक्षधर दिखाई दिये क्योंकि वह सभी बड़े शहरों के प्रतिबद्ध तथा पेशेवर विद्वान थे जो संभवत प्रचार माध्यमों द्वारा इसी अवसर के लिये तैयार रखे जाते हैं कि कब कोई बहस हो और उनसे मनमाफिक बात कहलवाई जाये। यही हुआ भी! एक ऐसे ही विद्वान ने कहा कि ‘बड़े अंक की मुद्रा से उसे ढोने में सुविधा होती है और महंगाई बढ़ने के कारण रुपये की कीमत गिर गयी है इसलिये हजार और पांच सौ के नोट छापने जरूरी है।’
हैरानी होती है यह देखकर कि एक बहुत ही महत्व के मुद्दे पर कथित बुद्धिजीवी खामोश हैं-शायद कारों में घूमने, ऐसी में बैठने वाले तथा होटलों में खाना खाने वाले यह लोग नहीं जानते कि छोटे शहरों और गांवों के लिये आज भी हजार और पांच सौ का नोट अप्रासंगिक है। अनेक वस्तुऐं महंगी हुईं है पर कई वस्तुऐं ऐसी हैं जो अभी भी इतनी सस्ती हैं कि पांच सौ और हजार के नोट उससे बहुत बड़े हैं। टीवी, फ्रिज, कार, कंप्यूटर खरीदने में पांच सौ का नोट सुविधाजनक है पर सब्जियां तथा किराने का सामान सीमित मात्रा में खरीदने पर यह नोट बड़ा लगता है। दूसरा यह भी कि जिस अनुपात में आधुनिक सामानों के साथ उपभोक्ता वस्तुओं में मूल्य वृद्धि हुई है उतनी सेवा मूल्यों में नहीं हुई। मजदूरों की मजदूरी में वृद्धि बहुंत कम होती है तथा लघू तथा ग्रामीण व्यवसायों में भी कोई बजट इतना बड़ा नहीं होता। वहां अभी भी सौ रुपये तक का नोट भी अपनी ताकत से काम चला रहा है तब पांच सौ तथा हजार के नोट छापना एक तरह से अर्थशास्त्र को चुनौती देता लगता है।
साइकिल के दोनों पहियों में हवा आज भी एक रुपये में भरी जाती है तो दुपहिया वाहनों के लिए दो रुपये लगते हैं। बढ़ती महंगाई देखकर यह विचार मन में आता है कि कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था को हजार और पांच सौ नोटों के प्रचलन योग्य बनाने का प्रयास तो नहीं हो रहा है। कभी कभी तो लगता है कि जिन लोगों के पास पांच सौ या हजार के नोट बहुत बड़ी मात्रा मैं है वह उसे खपाना चाहते हैं इसलिये बढ़ती महंगाई देखकर खुश हो रहै हैं क्योंकि उसकी जावक के साथ आवक भी उनके यहां बढ़ेगी। दूसरी बात यह भी लगती है कि शायद पांच सौ और हजार नोटों की वजह से पांच तथा दस रुपये के सिक्के और नोट कम बन रहे हैं। इससे आम अर्थव्यवस्था में जीने वाले आदमी के लिये परेशानी हो रही है। आम व्यवस्था इसलिये कहा क्योंकि हजार और पांच सौ नोट उसके समानातंर एक खास अर्थव्यवस्था का प्रतीक हैं इसलिये ही अधिक रकम ढोने के लिये जो तर्क दिया जा रहा है जो केवल अमीरों के लिये ही सुविधाजनक है।
अनेक जगह कटे फटे पुराने नोटों की वजह से विवाद हो जाता है। अनेक बार ऐसे खराब छोटे नोट लोगों के पास आते हैं कि उनका चलना दूभर लगता है। उस दिन एक दुकानदार ने इस लेखक के सामने एक ग्राहक को पांच का पुराना नोट दिया। ग्राहक ने उसे वापस करते हुए कहा कि ‘कोई अच्छा नोट दो।’
दुकानदार ने उसके सामने अपनी दराज से पांच के सारे नोट रख दिये और
कहा कि ‘आप चाहें इनमें से कोई भी चुन लो। मैंने ग्राहकों को देने के लिये सौ नोट कमीशन देकर लिये हैं।’
वह सारे नोट खराब थै। पता नहीं दुकानदार सच कहा रहा था या झूठ पर पांच के वह सभी नोट बाज़ार में प्रचलन योग्य नहीं लगते थे। पुरानी मुद्रा नहीं मुद्रा को प्रचलन से बाहर कर देती है-यह अर्थशास्त्र का नियम है। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि नयी मुद्रा पुरानी मुद्रा को प्रचलन में ला देती है पर इसके पीछे तार्किक आधार होना चाहिए। ऐसे पुराने और फटे नोट बाज़ार में प्रचलन में रहना हमारी बैकिंग व्यवस्था के लिये बहुत बड़ी चुनौती है।
हम यहां बड़ी मुद्रा के प्रचलन का विरोध नहीं कर रहे पर अर्थनियंत्रणकर्ताओं को छोटे और बडे नोटों की संरचना के समय अर्थव्यवस्था में गरीब, अमीर और मध्यम वर्ग के अनुपात को देखना चाहिए। वैसे यहां इस बात उल्लेख करना जरूरी है कि जितने भी विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र हैं उनकी मुद्रा का अंतिम संख्यांक सौ से अधिक नहीं है। इसलिये जो देश को शक्तिशाली और विकसित बनाना चाहते हैं वह यह भी देखें कि कहंी यह बड़ी मुद्रा असंतुलन पैदा कर कहीं राष्ट्र को कमजोर तो नहीं कर देगी। कहीं हम आधुनिक अर्थशास्त्र को पढ़कर कहीं काला अर्थशास्त्र तो नहीं रचने जा रहे यह देखना देश के बुद्धिमान लोगों का दायित्व है।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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लोग अपने से बात करते हुए पाठ अंतर्जाल पर पढ़ना चाहते हैं-संपादकीय


आज यह ब्लाग/पत्रिका की पाठ पठन/पाठक संख्या एक लाख को पार कर गयी। इस ब्लाग/पत्रिका के साथ इसके लेखक संपादक के दिलचस्प संस्मरण जुड़े हुए हैं। यह ब्लाग जब बनाया तब लेखक का छठा ब्लाग था। उस समय दूसरे ब्लाग/पत्रिकाओं पर यूनिकोड में न रखकर सामान्य देव फोंट में रचनाएं लिख रहा था। वह किसी के समझ में नहीं आते थे। ब्लाग स्पाट के हिंदी ब्लाग से केवल शीर्षक ले रहा था। इससे हिन्दी ब्लाग लेखक उसे सर्च इंजिन में पकड़ रहे थे पर बाकी पाठ उनकी समझ में नहीं आ रहा था। यूनिकोड में रोमन लिपि में लिखना इस लेखक के लिये कठिन था। एक ब्लाग लेखिका ने पूछा कि ‘आप कौनसी भाषा में लिख रहे हैं, पढ़ने में नहीं आ रहा।’ उस समय इस ब्लाग पर छोटी क्षणिकायें रोमन लिपि से यूनिकोड में हिन्दी में लिखा इस पर प्रकाशित की गयीं। कुछ ही मिनटों में किसी अन्य ब्लाग लेखिका ने इस पर अपनी टिप्पणी भी रखी। इसके बावजूद यह लेखक रोमन लिपि में यूनिकोड हिंदी लिखने को तैयार नहीं था। बहरहाल लेखिका को इस ब्लाग का पता दिया गया और उसने बताया कि इसमें लिखा समझ में आ रहा है। उसके बाद वह लेखिका फिर नहीं दिखी पर लेखक ने तब यूनिकोड हिन्दी में लिखना प्रारंभ किया तब धीरे धीरे बड़े पाठ भी लिखे।

उसके बाद तो बहुत अनुभव हुए। यह ब्लाग प्रारंभ से ही पाठकों को प्रिय रहा है। यह ब्लाग तब भी अधिक पाठक जुटा रहा था जब इसे एक जगह हिन्दी के ब्लाग दिखाने वाले फोरमों का समर्थन नहीं मिलता था। आज भी यहां पाठक सर्वाधिक हैं और एक लाख की संख्या इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी अपनी गति से अंतर्जाल पर बढ़ रही है। मुख्य बात है विषय सामग्री की। इस ब्लाग पर अध्यात्मिक रचनाओं के साथ व्यंग, कहानी, कवितायें भी हैं। हास्य कवितायें अधिक लोकप्रिय हैं पर अध्यात्मिक रचनाओं की तुलना किसी भी अन्य विधा से नहीं की जा सकती। लोगों की अध्यात्मिक चिंतन की प्यास इतनी है कि उसकी भरपाई कोई एक लेखक नहीं कर सकता। इसके बाद आता है हास्य कविताओं का। यकीनन उनका भाव आदमी को हंसने को मजबूर करता है। हंसी से आदमी का खून बढ़ता है। दरअसल एक खास बात नज़र आती है वह यह कि यहां लोग समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा किताबों जैसी रचनाओं को अधिक पसंद नहीं करते। इसके अलावा क्रिकेट, फिल्म, राजनीति तथा साहित्य के विषय में परंपरागत विषय सामग्री, शैली तथा विधाओं से उन पर प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपने से बात करती हुऐ पाठ पढ़ना चाहते हैं। अंतर्जाल पर लिखने वालों को यह बात ध्यान रखना चाहिये कि उनको अपनी रचना प्रक्रिया की नयी शैली और विधायें ढूंढनी होंगी। अगर लोगों को राजनीति, क्रिकेट, फिल्म, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर परंपरागत ढंग से पढ़ना हो तो उनके लिये अखबार क्या कम है? अखबारों जैसा ही यहां लिखने पर उनकी रुचि कम हो जाती है। हां, यह जरूर है कि अखबार फिर यहां से सामग्री उठाकर छाप देते हैं। कहीं नाम आता है कहीं नहीं। इस लेखक के गांधीजी तथा ओबामा पर लिखे गये दो पाठों का जिस तरह उपयेाग एक समाचार पत्र के स्तंभकार ने किया वह अप्रसन्न करने वाला था। एक बात तय रही कि उस स्तंभकार के पास अपना चिंतन कतई नहीं था। उसने इस लेखक के तीन पाठों से अनेक पैरा लेकर छाप दिये। नाम से परहेज! उससे यह लिखते हुए शर्म आ रही थी कि ‘अमुक ब्लाग लेखक ने यह लिखा है’। सच तो यह है कि इस लेखक ने अनेक समसामयिक घटनाओं पर चिंतन और आलेख लिखे पर उनमें किसी का नाम नहीं दिया। उनको संदर्भ रहित लिखा गया इसलिये कोई समाचार पत्र उनका उपयोग नहीं कर सकता क्योंकि समसामयिक विषयों पर हमारे प्रचार माध्यमों को अपने तयशुदा नायक और खलनायकों पर लिखी सामग्री चाहिये। इसके विपरीत यह लेखक मानता है कि प्रकृत्तियां वही रहती हैं जबकि घटना के नायक और खलनायक बदल जाते हैं। फिर समसामयिक मुद्दों पर क्या लिखना? बीस साल तक उनको बने रहना है इसलिये ऐसे लिखो कि बीस साल बाद भी ताजा लगें-ऐसे में किसी का नाम देकर उसे बदनाम या प्रसिद्ध करने
से अच्छा है कि अपना नाम ही करते रहो।
मुख्य बात यह है कि लोग अपने से बात करते हुऐ पाठ चाहते हैं। उनको फिल्म, राजनीति, क्रिकेट तथा अन्य चमकदार क्षेत्रों के प्रचार माध्यमों द्वारा निर्धारित पात्रों पर लिख कर अंतर्जाल पर प्रभावित नहीं किया जा सकता। अपनी रचनाओं की भाव भंगिमा ऐसी रखना चाहिये जैसी कि वह पाठक से बात कर रही हों। यह जरूरी नहीं है कि पाठक टिप्पणी रखे और रखे तो लेखक उसका उत्तर दे। पाठक को लगना चाहिये कि जैसे कि वह अपने मन बात उस पाठ में पढ़ रहा है या वह पाठ पढ़े तो वह उसके मन में चला जाये। अगर वह परंपरागत लेखन का पाठक होता तो फिर इस अंतर्जाल पर आता ही क्यों? अपने मन की बात ऐसे रखना अच्छा है जैसे कि सभी को वह अपनी लगे।
इस अवसर पर बस इतना ही। हां, जिन पाठकों को इस लेखक के समस्त ब्लाग/पत्रिकाओं का संकलन देखना हो वह हिन्द केसरी पत्रिका को अपने यहां सुरक्षित कर लें। इस पत्रिका के पाठकों के लिये अब इस पर यह प्रयास भी किया जायेगा कि ऐसे पाठ लिखे जायें जो उनसे बात करते हुए लगें।

लेखक संपादक दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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