‘गुरुजी,
अब तो आपकी सेवा में बहुत सारे
चेले आ गये हैं,
सभी आपके भक्तों को भा गये हैं,
मुझे अब समाज सेवा के लिये
आश्रम से बाहर जाने की
सहमति प्रदान करे,
किसी बड़ी संस्था में पद लेकर
आपका नाम रौशन करूं,
अनुमति प्रदान करें।’
सुनकर गुरु जी बोले
‘सीधी बात क्यों नहीं कहता
कि अब अपनी धार्मिक छवि को
नकदी में भुनाना चाहता है,
माया के लोभ में
ज्ञान को भुलाना चाहता है,
मगर भईये!
समाज सेवा में राजनीति चलती है,
बाहर लगते हैं जनकल्याण के नारे
अंदर कमीशन पाने की नीयत पलती है,
तुझे लग रहा है कि यह रास्ता सरल है,
मगर वहां बदनामी का खतरा हर पल है,
फिर तेरा अनुभव तो पूजा पाठ का है
राजनीति में एक तरह से तू तो उल्लू काठ का है,
वहां पहले से ही मौजूद बड़े बड़े धुरंधर हैं,
कुछ बाहर पेल रहे हैं डंड तो कुछ अंदर हैं,
उनकी आपस में तयशुदा होती जंग,
देखती है जनता बड़े चाव से
भले ही हालातों से तंग,
फिर तू समाज सेवा के नाम पर
कोई आंदोलन चलायेगा,
डंडे की मार खाकर यहीं लौट आयेगा,
भले ही मेरी वजह से
तेरे को कई समाज सेवक मानते हैं,
पर उनके इलाके में अगर तू घुसा
मार खायेगा
यह हम जानते हैं,
वहां जाकर नाकामी तेरे हाथ आयेगी,
यह बदनामी मेरे नाम के साथ भी जायेगी,
इसलिये अच्छा है
कहंी दूसरी जगह आश्रम बनाकर
तू भी स्वामी बन जा,
धर्म के धंधे में एक खंबे की तरह तन जा,
यहां डंडे का डर नहीं है,
कमाई पर कोई कर नहीं है,
अभी तक मैं अपना खजाना अकेला भरता था
अब अलग होकर दोनों ही
अपनी तिजोरी दुगुनी गति से भरें।’
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