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Tag Archives: editorial
अध्यात्मिक विषय पर इंटरनेट पर निजी चर्चा पर वीडियो जारी करने का एकल प्रायोगिक प्रयास
अध्यात्म के विषय पर यह वीडियो एक प्रयोग के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है। अगर इस पर सही प्रतिक्रियायें मिली तो अन्य वीडियो भी प्रस्तुत किया जा रहा है। याद रखें यह एकल अव्यवसायिक प्रयास है। इसमें व्यवसायिक आकर्षण ढूंढना व्यर्थ होगा। http://youtu.be/zKkqSF7Z7CQ
प्रचार माध्यम अपने बलबूते पर देश में बदलाव नहीं ला सकते-हिन्दी लेख
देश में प्रचार माध्यमों की ताकत हमेशा ही रही है। वैसे इस बात का आभास अब अधिक हो रहा है। देश में किसी भी विषय पर अपने व्यवसायिक हितों के अनुसार आम लोगों में सकारात्मक दृष्टिकोण का निर्माण या विध्वंस करना इन प्रचार माध्यमों के लिये सहज हो गया है। पहले अखबार हुआ करते थे तब उनका प्रभाव इतना तीव्रतर नहीं था पर अब टीवी चैनलों और एफ एम रेडियो का न केवल तीव्र गति से लोगों के अंदर अपने विचारों को लोगों के दिमाग में समाविष्ट करा देते हैं वरऩ उसके वैचारिक प्रवाह तथा प्रभाव में नियमितता भी बनाये रखते हैं। अखबार एक बार प्रकाशित होने के बाद चौबीस घंटे के बाद सामने आता है जबकि टीवी चैनल और एफ एम रेडियो हर पल लोगों से जुड़े रहते हैं। यही नियमितता उनको कई गुना शक्ति देती है।
किस विषय को देशभक्ति से जोड़ना है और किसे अलग हटाना है तथा किस पर संवदेनाओ को भुनाना है और किसमे निर्लिप्त्ता का भाव रखना है, यह विषय देखकर प्रचार माध्यम अब बेहिचक अपने हितों के अनुकूल व्यवसायिक रणनीति बदलते रहते हैं। ऐसा लगता है कि देश के लोगों को एक समूह में एकत्रित कर अपनी तरफ निरंतर आकर्षित करने के लिये प्रचार माध्यम जीतोड़ प्रयास कर रहे हैं। अपने व्यवसायिक हितों के अनुसार किसी छोटे आंदोलन को राष्ट्रव्यापी और राष्ट्रव्यापी को सीमित विचार या क्षेत्र का बताने में प्रचार माध्यमों ने महारथ हासिल कर ली है। जहां सनसनी हो वहां तो यह प्रचार माध्यम खुलकर आक्रामक हो जाते हैं वहीं हादसों पर रुदन का सामूहिक आयोजन करने में भी देर नहीं करते।
हमने ऐसी कई खबरें देखी हैं जो पहले भी घटती थीं। पढ़ने पर आम पाठक उत्तेजित होते पर प्रचार माध्यम उनको छोटी कर छापते थे। अब ऐसी स्थिति देखते हैं कि उसी प्रकार की खबरों से कई दिन तक उत्तेजना फैलाने के लिये यह प्रचार माध्यम तत्पर होते है। वजह साफ है कि समाचार और बहसों के दौरान विज्ञापन का समय खूब पास होता हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी है। यह एक तर्क है पर व्यवहार में हम देखें तो यह आजादी प्रचार माध्यमों के केवल व्यवसायिक हितों तक ही सीमित है। स्वतः प्रकट होने वाली खबरों को देना और उन पर परंपरागत रूप से प्रतिष्ठित विद्वान बुलाकर बहस करना ही केवल अभिव्यक्ति नहीं है। उनकी इस बहस में विचारों की संकीर्णता अनेक बार देखी जा सकती है। आम लोगों के उत्तेजित बयानों से स्वयं को जिम्मेदारी से प्रथक रखते हुए समाचार बनाना इस बात का प्रतीक है कि कहीं न कहीं प्रचार माध्यम अपनी व्यवसायिक बाध्यताओं से बंधे हुए है।
बहरहाल हम प्रचार माध्यमों पर आक्षेप करने के साथ ही समाज की स्थिति पर भी देखें। हैरानी इस बात की है कि किसी घटना विशेष पर लोग अपनी तरफ से अपने मस्तिष्क में विचार निर्माण करने की बजाय इन्हीं प्रचार माध्यमों के विचार या राय से आगे बढ़ते हैं। जब कोई घटना इन प्रचार माध्यमों की वजह से अधिक चर्चित होती है तब हम आम लोगों की क्या कहें विशिष्ट लोग भी अपनी बात कहने के लिये आतुर होने लगते हैं। सभी को लगता है कि कहीं उस घटना पर प्रतिक्रिया नहीं दी तो लोग उन्हें समाज या धर्म सेवा से निवृत्त हुआ मान लेंगे और दोबारा छवि निर्माण उनके लिये कठिन है। जिस तरह फिल्म के अभिनेता और अभिनेत्रियां लगातार फिल्म इसलिये करते रहना चाहते हैं कि कहीं उनकी दर्शकों में छवि विस्मृत न हो जाये या फिर पत्रकार निरंतर खबरों के साथ सक्रिय रहते हैं कि कहीं उनके स्वामियों में उनकी निष्क्रिय छवि बनी रहे या फिर वकालत करने वाले लोग अपने काम में इस तरह लगे रहते हैं कि कहीं उनके पास मुकदमें कम न हो ताकि कहीं उनके अभ्यास अवरुद्ध होने पर लोग उनकी योग्यता पर संदेह न करने लगें, उसी तरह समाज, धर्म, कला और बौद्धिक कर्म करने वाले लोग भी हर विषय पर प्रतिक्रिया के लिये इस उद्देश्य से अपना श्रीमुख तैयार किये रहते हैं कि कहीं उनके अनुयायी उनके स्वास्थ्य या भावना पर संदेह न करने लगें। यह स्थिति दयनीय है।
ऐसे में कभी कभी तो यह लगता है कि अगर हम अखबार न पढ़ें या समाचार टीवी चैनल न देखें तो शायद अत्यंत प्रसन्नचित रहेंगे। एक समय था जब अखबार या टीवी देखकर उनके विषयों से प्रभावित थे। उनसे अपने अंदर विचारों का निर्माण या विध्वंस होता था मगर तब उनकी सामग्री चिंत्तनपरक थी। अब वह वह अनर्गल चिंत्तन दर्शकों और पाठकों पर थोपते हैं। पहले अनेक अखबार अपने संपादकीयों में जनता की आवाज को स्थान देते थे जबकि टीवी चैनल यह मानकर चलते हैं कि इस देश में लोग बाह्य प्रभाव से ही केवल हंसना या रोना जानते हैं। उनके पास अपना सोचने के लिये कुछ नहीं है। हंसने के नाम पर फुहड़पन तो रोने के नाम पर हादसे लोगों के सामने लाये जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सभी प्रचार माध्यम कोई चिंत्तनपरक सामग्री नहीं दे रहे पर मुख्य बात यह है कि वह उसकी प्रस्तुति को हल्का बना देते हैं या फिर उसको स्वयं ही एक महत्वहीन सामग्री बताते हैं। उससे भी बुरी बात यह कि वह हिन्दी के नाम हिंग्लिश लाद रहे हैं। उनके लिये शहरों में पढ़ रही युवा पीढ़ी ही उनकी प्रयोक्ता है। वह उसी से ही कमाना चाहते हैं। अनावश्यक रूप से अंग्रेजी शब्दों का उपयोग उनके द्वारा प्रकाशित या प्रसारित सामग्री को भद्दा बना रही है यह उनको कोई समझा नहीं सकता। इस तरह वह भारतीय समाज से अपना आत्मीय भाव खो रहे हैं। हम जैसे उन पाठकों को जो अपने प्रचार माध्यमों से आत्मीय भाव रखते रहे हैं अब उनसे दूरी अनुभव करने लगे हैं। यही कारण है कि उनकी देशभक्ति में व्यवसायिकता का पुट दिखने लगा है। उनका रुदन और हंसना दोनो ही अब हमें प्रभावित नहीं करता। यही कारण है कि हम अपने जज़्बात अंतर्जाल पर लिखकर भाषा, समाज तथा धर्म के प्रति अपने आत्मीय भाव को जिंदा रखने का प्रयास करते रहते हैं, जो इन्हीं प्रचार माध्यमों ने कभी पैदा किया था। इन सबके बावजूद एक बात तय है कि इन प्रचार माध्यामों के प्रभाव में पूरा देश है यह अलग बात है कि उसमें सकारात्मक जन चेतना पैदा करने के लिये जो कुशल प्रबंध चाहिये वह उनके पास नहीं है। वह भाव उभार सकते हैं पर स्थाई चेतना का निर्माण नहीं कर सकते।
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
कुछ फिक्सिंग कुछ मिक्सिंग–हिन्दी व्यंग्य चिंतन
फुटबाल में फिक्सिंग होती होगी इसका शक हमें पहले से ही था। इसका कारण यह है की हमारे देश में व्यसाय, खेल, फिल्म तथा अन्य क्षेत्रों में पूरी तरह से पश्चिमी संस्कृति घर कर चुकी है। ऐसे में हमारे देश के व्यवसाई और खिलाड़ी कोई ऐसा काम नहीं कर सकते जो पश्चिम वाले नहीं करें। पश्चिम वाले जो काम करें वह हमारे देश के लोग भी हर हाल में करेंगे यह भी निश्चित है। एक बात तय है कि सांसरिक विषयों में कोई मौलिक रूप के हमारे देश में अब होना संभव नहीं है। विश्व में हमारा देश आध्यात्मिक गुरु माना जाता है पर सांसरिक विषयों के मामले में तो पिछड़ा हुआ है। यह अलग बात है कि इन सांसरिक विषयों में भी हमारे अनेक प्राचीन सिद्धांत हैं जिनको अब लोग भूल चुके है । बात फुटबाल की हो रही है तो हम अपने क्रिकेट खेल को भी जोड़ लेते हैं। पूरी तरह व्यवसायिक हो चुके क्रिकेट खेल में फिक्सिग नहीं होती हो अब इस बात पर संदेह बहुत कम लोग को रह गया है। दूसरी बात यह कि मनोरंजन की दृष्टि से इस देखने वालों की संख्या अधिक है खेलने वाले बहुत कम दिखते हैं। फिर आजकल मनोरंजन के साधन इतने हो गये हैं कि क्रिकेट खेल के प्रतिबद्ध दर्शक अत्यंत कम रह गये हैं। अनेक विशेषज्ञ तो इस बात पर हैरान है कि भारत में चलने वाली क्लब स्तरीय प्रतियोगिता आखिर किस तरह के आर्थिक स्त्रोत पर चल रही है? अभी कल ही इस खेल के खिलाड़ियों की नीलामी हुई। अनेक खिलाड़ियों की कीमत देखकर अनेक विशेषज्ञों के मुंह खुले रह गये। एक विदेशी खिलाड़ी ने तो अपनी कीमत पर खुद ही माना है कि वह उसके लिये कल्पनातीत या स्वपनातीत है। ।
फुटबॉल चूंकि भारत में अधिक नहीं खेला जाता इसलिये उसके मैचों में फिक्सिंग का अनुमान किसी को नहीं है पर देश जो खेलप्रेमी इन फुटबॉल मैचों को देखते हैं उनको अनेक बार ऐसा लगता है कि कुछ खिलाड़ी अनेक बार अपने स्तर से कम प्रदर्शन करते हैं या फिर कोई पूरी की पूरी टीम अप्रत्याशित रूप से हार जाती है। अभी कुछ समय पहले संपन्न फुटबॉल विश्व के दौरान अनेक मैच शुकशुबहे का कारण बने। क्रिकेट हो या फुटबॉल इन खेलों में अब जमकर पैसा बरस रहा है। यह पैसा खेल से कम उससे इतर गतिविधियों के कारण अधिक है। अनेक खिलाड़ियों को कंपनियां अपना ब्रांड एम्बेसेडर बना लेती है। भारत में तो अनेक खिलाड़ी ऐसे भी हैं जिन्होंने बीसीसीआई की कथित राष्ट्रीय टीम का मुंह तक नहीं देखा पर करोड़पति हो गये हैं। अनेक खिलाड़ियों पर स्पॉट फिक्सिंग की वजह से प्रतिबंध लगाया गया है जो कि इस बात का पं्रमाण है कि फिक्सिंग होती है। यहां यह भी बता दें कि जिन खिलाड़ियों पर यह प्रतिबंध लगे वह प्रचार माध्यमों के ‘स्टिंग ऑपरेशन’ की वजह से लगे न कि बीसीसीआई की किसी संस्था की जांच में वह फंसे। इसका मतलब यह कि जिनका ‘स्टिंग ऑपरेशन’ नहीं हुआ उनके भी शुद्ध होने की पूरी गांरटी नहीं हो सकती। सीधी बात यह कि जो पकड़ा गया वह चोर है और जिस पर किसी की नज़र नहीं है वह साहुकार बना रह सकता है।
हमारा मानना है कि खेलों में फिक्सिंग अब रुक ही नहीं सकती। इसका कारण यह है कि एक नंबर और दो नंबर दोनों तरह के धनपति इसमें संयुक्त रूप से शामिल हो गये हैं। दोनों में एक तरह से मूक साझोदारी हो सकती है कि तुम भी कमाओ, हम भी कमायें। यह भी संभव है कि दो नंबर वाले एक नबर वालों का चेहरा आगे कर चलते हों और एक नंबर वाले भी अपनी सुरक्षा के लिये उनका साथ मंजूर करते हों। क्रिकेट से कहीं अधिक महंगा खेल फुटबॉल है। उसमें शक्ति भी अधिक खर्च होती है। दूसरी बात यह कि दुनियां में कोई भी व्यवसाय क्यों न हो कुछ सफेद और काले रंग के संयोजन से ही चलता है। अब चूंकि भारतीय अध्यात्म दर्शन की बात तो कोई करता नहीं इसलिये हम अंग्रेज लेखक जार्ज बर्नाड शॉ के इसी सूत्र को दोहराते हैं कि इस दुनियां में कोई भी आदमी दो नंबर का काम किये बिना अमीर नहीं हो सकता। साथ ही यह भी जो सेठ साहुकार फुटबॉल या अन्य खेलों के खिलाड़ियों को पाल रहे हैं वह उनके खेल को अपने अनुसार प्रभावित न करते हों यह संभव नहीं है। इस तरह की फिक्सिंग के सबूत मिलना संभव नहीं है पर मैच देखकर परिणाम पूरी की पूरी कहानी बयान कर ही देता है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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हैप्पी न्यू ईयर यानि नव वर्ष पर हिंदी व्यंग्य
वर्ष 2013 आ गया। अनेक लोगों का कहना है की हम भारतीयों को यह अंग्रेजी वर्ष नहीं मनाना चाहिए। खासतौर से यह बात हिन्दू धर्म को कट्टरता से मानने का दावा करने वालों की तरफ से कही जाती है। मगर इन लोगों का कोई प्रभाव नहीं होता। आखिर क्यों? सच बात तो यह है कि अनेक लोगों की तरह हम भारतीय अध्यात्मवादी लोग भी उनकी बात को महत्व देते रहे हैं । अब लगने लगा है कि वेलेन्टाईन डे, क्रिस्मस और न्यू ईयर जैसे अंग्रेजी पर्व भी अब भारतीय समाज का ऐसा हिस्सा बन गए हैं, जिन्हें अलग करना अब संभव नहीं है। दरअसल जिन लोगों ने इन पर्वों को हमेशा ही वक्र दृष्टि से देखते हुए अपने धर्म पर दृढ़ रहने का मत व्यक्त किया है वह सामाजिक गतिविधियों से जुड़े रहे हैं। उन्होंने धार्मिक रूप से कभी अपने देश का अध्ययन नहीं किया। हालांकि यह लोग अं्रग्रेजी शैली के समर्थक हैं पर वैसा सोच नहीं है।
कम से कम एक बात माननी पड़ेगी कि अंग्रेजों ने हमारे समाज को जितना समझा उतने अपने ही लोग नहीं समझ पाये। इन्हीं अंग्रेजों के अखबार ने एक मजेदार बात कही जो यकीनन हम जैसे चिंतकों के लिये रुचिकर थी। अखबार ने कहा कि भारत के धर्म पर आधारित संगठन और उनके शिखर पुरुष अपने भक्तों को वैसे ही अपने साथ जोड़े रखते हैं जैसे कि व्यवसायिक कंपनियां। वह अपने संगठन कंपनियों की तरह चलाते हैं कि उनके भक्त समूह बने रहें।
हमने उनके नजरिये को सहज भाव से लिया। हम यह तो पहले से मानते थे कि भारत में धर्म के नाम पर व्यापार होता है पर इससे आगे कभी विचार नहंी किया था। जब यह नजरिया सामने आया तो फिर हमने उसी के आधार पर इधर उधर नजर दौड़ाई। तब भारतीय धार्मिक संगठनों में वाकई यह गजब की व्यवसायिक प्रवृत्ति दिखाई दी। जिस तरह देशी विदेशी कंपनियां अपने उत्पादों के विक्रय करने के लिये नयी पीढ़ी को विज्ञापनों के माध्यम से आकर्षित करने के अनेक तरह के उपक्रम करती हैं वैसे ही भारतीय धार्मिक संगठन और उनके शिखर पुरुष भी यही प्रयास करते हैं। भले ही बड़े व्यवसायिक समूहों ने प्रचार माध्यमों से युवा पीढ़ी में वेलेन्टाईन डे, क्रिस्मस और न्यू ईयर जैसे अंग्रेजी पर्व अपने लाभ के लिये प्रचलित करने में योगदान दिया है पर भारतीय धार्मिक संगठन और उनके शिखर पुरुष भी इन्हीं पर्वों का उपयोग अपने भक्त समूह को बनाये रखने के लिये कर रहे हैं। यही आकर इन्हीं पर्वों के विरोधी सामाजिक संगठन तथा कार्यकताओं के लिये ऐसी मुश्किल खड़ी होती है जिसे पार पाना संभव नहीं है। अनेक मंदिरों में नर्ववर्ष पर विशेष भीड़ देखी जा सकती है। इतना ही नही मंदिरों में खास सज्जा भी देखी जा सकती है। हम जैसे नियमित भक्त तो दिनों के हिसाब से मंदिरों में जाते रहते हैं-जैसे कि सोमवार को शंकर जी तो शनिवार को नवग्रह और मंगलवार को हनुमान जी-अगर कोई खास सज्जा न भी हो तो भी भक्तों को इसकी परवाह नहीं है। परवाह तो किसी भक्त को नहीं है पर जो लोग इन मंदिरों के सेवक या स्वामी है उन्हें लगता है कि कुछ नया करते रहें ताकि युवा पीढ़ी उनकी तरफ आकर्षित रहे। वह समाज में कोई नया भाव पैदा करने की बजाय उसमें मौजूद भाव का ही उपयोग करना चाहते हैं। इतना ही नही इन मंदिरों में जाने पर केाई परिचित अगर बोले कि हैप्पी न्यू इयर तो भला भगवान की दरबार में हाजिरी का निर्मल भाव लेकर गया कौन भक्त अपने अंदर कटुता का भाव लाना चाहेगा। इतना ही नहीं कुछ संगठित पंथ तो क्रिसमस, वेलेन्टाईन डे और नववर्ष पर अपने शिखर पुरुषों को इन पर्वों के अवसर पर खास उपदेश भी दिलवाते हैं।
हम जैसे अध्यात्मिक व्यक्तियों की दिलचस्पी उन विवादों में नहीं होती जिनके आधार कमजोर हों। जो सामाजिक कार्यकर्ता इन पर्वों को मनाये जाने का विरोध करते हैं वह अपने जीवन में उस पर अमल कर पाते हों यह संदेहपूर्ण है। जब कोई समाज से जुड़ा है तो वह अपने बैरी नहंी बना सकता। मान लीजिये हम नहीं मानते पर अगर कोई कह दे कि हैप्पी क्रिसमस, हैप्पी न्यू ईयर या हैप्पी वेलेन्टाईन डे तो क्या उसे लड़ने लगेंगे। एक बात निश्चित है कि भारत में धर्म के विषय पर आज भी धार्मिक साधु, संतों और प्रवचको की बात अंतिम मानी जाती है। सामाजिक कार्यकताओं को इन पर्वो के विरोधी अभियान के प्रति उनका समर्थन उस व्यापक आधार पर नहीं मिल पता यही कारण है कि इसमें सफलता नहीं मिलती। हालांकि कुछ साधु, संत और प्रवचक इन सामाजिक कार्यकर्ताओं की बात का समर्थन करते हैं पर वह इतना व्यापक नहीं है। चूंकि भारतीय धार्मिक संगठन और शिखर पुरुष भी एक कंपनी की तरह अपने भक्त बनाये रखने की बाध्यता को स्वीकार करते हैं इसलिये वह उनके तत्वज्ञान धारण करने की बजाय व्यवसायिक योजनाओं में जुटे रहते हैं। हमारा मानना है कि केवल तत्वज्ञान के आधार पर हमेशा अपने पास भीड़ बनाये रखना कठिन है और धार्मिक संगठन तथा उनके शिखर पुरुषों में यही बात आत्मविश्वास कम कर देती है। यह आत्मविश्वास तब ऋणात्मक स्तर पर पहुंच जाता है जब तत्वज्ञान को धारण करने से ऐसे पंथ या संगठनों के शिखर पुरुष स्वयं ही दूर होते हैं। अपना नाम और धन जुटाने के चक्कर मे वह सब ऐसे प्रयास करते हैं जैसा कंपनियां करती है। यही कारण है कि अंग्रेजी पर्व फिलहाल तो समाज में मनाये ही जा रहे हैं क्योंकि कहीं न कहीं धार्मिक तत्व उन्हें समर्थन दे रहे हैं।
हमारे एक करीबी मित्र ने सुबह मिलते ही कहा-’’हैप्पी न्यू ईयर!’’
वह सब जानता था इसलिये हमने उससे कहा कि ‘‘हमारा नया वर्ष तो मार्च में आयेगा।’’
वह बोला-‘‘यार, तुम कैसे अध्यात्मिकवादी हो। कम से कम कुछ उदारता दिखाते हुए बोले ही देते कि ‘‘हैप्पी न्यू ईयर’’
इससे पहले कि हम कुछ बोलते। एक अन्य परिचित आ गये। वह भी अपना हाथ मिलाने के लिये आगे बढ़ाते हुए बोले-‘‘नव वर्ष मंगलमय हो।’
हमने हाथ बढ़ाते हुए उनसे कहा‘‘आपको भी नववर्ष की बधाई।’
वह चले तो हमारे मित्र ने हमसे कहा‘‘उसके सामने तुमने अपना अध्यात्मिक ज्ञान क्यों नहीं बघारा।’’
हमने अपने मित्र से कहा‘‘अपना अध्यात्मिक ज्ञान बघारने के लिये तुम्हीं बहुत हो। अगर इसी तरह हर मिलने वाले से नववर्ष पर बधाई मिलने पर ज्ञान बघारने लगे तो शाम तक घर नहीं पहुंचने वाले।’’
एक धार्मिक शिखर पुरुष ने वेलेन्टाईन डे को मातृपितृ दिवस मनाने का आह्वान किया था। अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओ को अच्छी लगी पर अनेक लोगों ने यह सवाल किया कि अगर वेलेन्टाईन डे को समाज से बहिष्कृत करना है तो फिर उसका नाम भी क्यों लिया जाये? तय बात है कि दिन तो वह होना चाहिये पर हमारे हिसाब से मने। यह बात तो ऐसे ही हो गयी कि मन में लिये कुछ ढूंढ रहा आदमी किसी व्यवसायिक कंपनी के पास न जाकर हमारी धार्मिक कंपनी की तरफ आये।
हम जैसे योग साधकों और गीता पाठकों को लगता है कि ऐसे विवाद किसी समाज की दिशा तय नहीं करते। फिर यह अपने अध्यात्मिक ज्ञान और सांसरिक विषयों दक्षता के अभाव के कारण आत्मविश्वास की कमी को दर्शान वाला भी है। चाणक्य, विदुर, कौटिल्य और भर्तुहरि जैसे महान दर्शनिकों ने हमारे अध्यात्मिक भंडार ऐसा सृजन किया जिसमें ज्ञान तथा विज्ञान दोनों है। तुलसी, सूर, रहीम और मीरा जैसे महानुभावों ने ऐसी रचनायें दी जिसके सामने दूसरे देशों का साहित्य असहाय नज़र आता है। यह आत्मविश्वास जिसमें होगा वह अंग्रेजी पर्वो के इस प्रभाव से कभी परेशान नहीं होगा।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak “Bharatdeep”,Gwalior
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
मकर सक्रांति पर इलाहाबाद में महाकुंभ का प्रारंभ -हिंदी लेख और चिंत्तन
मकर सक्रांति पर इलाहाबाद में महाकुंभ प्रारंभ हो गया। यह बरसों पुरानी पंरपरा है और भारतीय संस्कृति का ऐक ऐसा हिस्सा है जिसे देखकर कोई भी विदेशी चमत्कृत हो सकता है। जहां तक भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का प्रश्न है उसकी दृष्टि से इसे सकाम भक्ति का प्रतीक माना जा सकता है। गंगा में नहाने से पुण्य मिलता है यही सोचकर अनेक श्रद्धालु इसमें नहाते हैं। अनेक निष्काम श्रद्धालु भी हो सकते हैं जो मकर सक्रांति में गंगा में यह सोच नहाते हैं कि पुण्य मिले या नहंी हमें तो इसमें नहाना है। इससे उनको मानसिक शांति मिलती है। श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करने वाले ज्ञान साधक किसी भी प्रकार की भक्ति पद्धति का विरोध नहीं करते भले ही वह उनके हृदय के प्रतिकूल हो।
यह तय है कि इस संसार में दो प्रकृति के लोग-असुर और दैवीय-रहेंगे। चार प्रकार के भक्त-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी-भी यहां देखे जा सकते हैं। उसी प्रकार त्रिगुणमयी माया -सात्विक, राजसी और तामसी-के वशीभूत होकर लोग यहां विचरण करेंगे। इसे परे कुछ योगी भी होंगे पर उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक होगी, यह भी अंतिम सत्य है। अंतर इतना रह जाता है कि ज्ञानी लोग मूल तत्वों को जानते है इसलिये सहअस्तित्व की भावना के साथ रहते हैं जबकि अज्ञानी अहंकारवश सभी को अपने जैसा दिखने के लिये प्रेरित करते हैं। जो कुंभ में नहाने गये वह श्रेष्ठ हैं पर जो नहीं करने गये वह बुरे हैं यह भी बात नहीं होना चाहिए।
जिन्कों भारतीय संस्कृति में दोष दिखते हैं उनके लिये यह कुंभ केवल एक पाखंड है। ऐसी दोषदृष्टि रखने वाले अज्ञानियों से विवाद करना व्यर्थ हैै। उन अज्ञानियों के अपने खोजे गये सांसरिक सत्य हैं पर अध्यात्मिक सिद्धि की समझ से उनका वास्ता कभी हो नहीं सकता क्योंकि उनके अहंकार इतना भरा है कि जैसे कि इस विश्व को बदलने की भारी श्ािक्त उनके पास है।
बहरहाल अब अपनी बात गंगा और इलाहाबाद के महाकुंभ पर भी कर लें। समाचार आया कि गंगा के प्रदूषित जल की वजह से नाराज चारों शंकराचार्य वहां नहीं आये। उनके न आने के बावजूद इस खबर की परवाह किये बिना श्रद्धालू लोग नहाने पहुंचें। शंकराचार्य आये या नहीं इसमें बहुत ही कम लोगों की दिलचस्पी दिखाई। यह उन लोगों के लिये बहुत निराशाजनक है जो हिन्दू धर्म को एक संगठित समूह में देखना चाहते हैं। दरअसल विदेशी धर्मो को जिस तरह एक संगठन का रूप दिया गया है उससे प्रेरित कुछ हिन्दू धार्मिक विद्वान चाहते हैं कि हमारा समूह भी ऐसा बने। यह हो नहीं पा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे धर्म के सांस्कृतिक भिन्नताये बहुत हैं। भौगोलिक और आर्थिक स्थिति के अनुसार भोजन, रहन सहन और कार्य शैली में भिन्नतायें हैं। मुख्य बात यह कि अपने अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार मानते हैं कि सारे विश्व के लोग एक जैसे नहीं बन सकते। इसके विपरीत विदेशी धर्मों के प्रचारक यह दावा करते हैं कि वह एकदिन सारे संसार को अपनी धार्मिक छतरी के अंदर लाकर ही मानेंगे। इसके विपरीत हमारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि सभी मनुष्यों के साथ अन्व जीवों पर भी समान दृष्टि रखना चाहिये जबकि विदेशी धर्म प्रचारक यह दावा करते हैं कि हम तो सारे विश्व के लोगों को एक ही रंग में रंगेंगे ताकि उन पर सभी समान दृष्टि स्वतः पड़ेगी। हम उन पर आक्षेप नहीं करते पर सच्चाई यह है कि पश्चिमी में सदियों से चल रही धार्मिक वैमनस्य की भावना ने हमारे देश को भी घेर लिया है। भारत में कभी भी जातीय और धार्मिक संघर्ष का इतिहास नहीं मिलता जबकि विदेशों में धार्मिकता के आधार पर अनेक संघर्ष हो चुके हैं।
बहरहाल समस्त भारतीय धर्म व्यक्ति के आधार पर वैसे ही संगठित हैं उनको किसी औपचारिक संगठन की आवश्यकता नहीं है। अभी तो ढेर सारे प्रचार माध्यम हैं जब नहीं थे तब भी लाखों लोग इन कुंभों में पहुंचते थे। यह सब व्यक्ति आधारित संगठन का ही परिणाम है। हमारे जो बुद्धिमान लोग हिन्दू धर्म को असंगठित मानते हैं उन्हें यह समझना चाहिये कि विदेशी विचाराधारायें पद पर आधारित संगठनों के सहारे चलती हैं। चुने हुए लोग पदासीन होकर भगवत्रूप होने का दावा प्रस्तुत करते हैं। इसके अलावा वहां पहले राष्ट्र फिर समाज और अंत में व्यक्ति आता है जबकि हमारे यहां व्यक्ति पहले समाज और फिर राष्ट्र का क्रम आता है। हमारा राष्ट्र इसलिये मजबूत है क्योंकि व्यक्ति मजबूत है जबकि दूसरे राष्ट्रों के लड़खड़ाते ही उनके लोग भी कांपने लगते हैं। महाकुंभ में हर वर्ग, जाति, समाज, भाषा और क्षेत्र के लोग आते हैं। उनको किसी संगठन की आवश्यकता नहीं है।
चारों शंकराचार्य जिस गंगा के प्रदूषित होने पर दुःखी हैं वह कई बरसों से दूषित हो चुकी है। ‘राम तेरी गंगा मैली’ फिल्म प्रदर्शित हुए बरसों हो गये हैं। जब वह दूषित होना प्रारंभ हुई थी तब भी अखबारों में समाचार आने लगे थे। तब हिन्दू धर्म को सगठित रखने का दावा करने वाले यह शंकराचार्य कहां थे? उन्होंने उसे रोकने के लिये क्या प्रयास किया? क्या लोगों को प्रेरणा दी! देश की हर छोटी बड़ी घटना पर अपना चेहरा दिखाने के आदी अनेक धार्मिक पुरुष हो चुके हैं। इनमें कुछ शंकराचार्य भी हैं। गंगा के प्रदूषित होने के समाचार उन्होंने न देखे या न सुने हों यह संभव नहीं है। अब उनका दुःखी होना सामयिक रूप से प्रचार पाने के अलावा कोई अन्य प्रयास नहीं लगता।
दरअसल देखा यह गया है कि हमारे अनेक धार्मिक पुरुषों के यजमान अब ऐसे पूंजीपति भी हैं जो उद्योग चलाते हैं। गंगा में प्रदूषण उद्योगों के कारण फैला है। अगर इन शंकराचार्यों के साथ मिलकर अन्य धार्मिक शिखर पुरुष कोई अभियान छेड़ते तो यकीन मानिये उनको मिलने वाले दान पर बुरा प्रभाव पड़ सकता था। सच बात तो यह है कि हमारे धर्म का आधार तत्वज्ञान है और जो संगठन बने हैं उनका संचालन वह माया करती है जिस पर यह संसार आधारित है। धर्म रक्षा धन से ही संभव का सिद्धांत अपनाना बुरा नहीं है पर उसको वैसा परिणामूलक नहीं बनाया जा सकता जिसकी चाहत हमारे धार्मिक शिखर पुरुष करते है। वह तत्वज्ञान से ही संभव है पर उसमें रमने वाला आदमी फिर जिस आनंद के साथ जीता है उसे हम रैदास के इस कथन से जोड़ कर देखें ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ तो बात समझ में आ सकती है।
बहरहाल इलाहाबाद महाकुंभ में स्नान करने वाले श्रद्धालुओं को शुभकामनायें तथा मकर सक्रांति के पर्व पर सभी ब्लॉग मित्रों, पाठकों और प्रशंसकों को बधाई। हां, प्रशंसक भी जोड़ने पड़ेंगे क्योंकि अनेक लोग अक्सर लिखते हैं कि हम आपके लेखकीय रूप के प्रशंसक हैं। जय श्रीराम, जय श्रीकृष्ण
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak “Bharatdeep”,Gwalior
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2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
बाबा रामदेव की योगाचार्य के रूप में ही सर्वश्रेष्ठ छवि दिखती है-हिंदी लेख
बाबा रामदेव ने अपना अनशन स्थगित कर दिया है। उन्होंने देश का विदेशों जमा काला धन वापस लाने के लिये अपना अभियान बहुत समय से चला रखा है और इसके लिये उनको भारी जनसमर्थन भी मिला है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाने पर ऐसा ही समर्थन अन्ना हजारे को भी मिलता रहा है। जनकल्याण के लिये नारे लगाने और आंदोलन चलाने वालों को यहां समर्थन मिलना कोई बड़ी बात नहीं है पर इन प्रयासों के परिणाम क्या निकले यह आज तक कभी विश्लेषण कर बताया नहीं जाता। बहरहाल अन्ना हजारे को जहां केवल अपनी आंदोलन की अनशन शैली के कारण जाना जाता है तो बाबा रामदेव को पहले एक योग शिक्षक के रूप में प्रसिद्धि मिली।
हम जब अन्ना हजारे साहब और स्वामी रामदेव के आंदोलनों की तुलना करते हैं तो पाते हैं कि कमोवेश दोनों ही किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते दिखे। वैसे दोनों में कोई तुंलना करना इसलिये भी व्यर्थ है क्योकि दोनों के सांगठनिक ढांचा प्रथक आधारों टिका है। फिर मुद्दा भी अलग है। अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाते रहे हैं जबकि स्वामी रामदेव काले धन पर बरसते रहे हैं।
हम दोनों के व्यक्तित्वों की बात करें तो बाबा रामदेव ने कम आयु में जो प्रतिष्ठा प्राप्त की उसका श्रेय उनकी योग शिक्षा को जाता है। काले धन के विरुद्ध वह अगर अपना अभियान नहीं भी चलाते तो उनकी लोकप्रियता योग शिक्षा की वजह से चरम पर पहुंच गयी थी। जिस योग विज्ञान के जनक पतंजलि ऋषि रहे हैं वह उनके नाम पर चला जा रहा था। काले धन के विरुद्ध अभियान से उनकी प्रतिष्ठा में कोई वृद्धि तो दर्ज नहीं बल्कि विवादों से उनके व्यक्तित्व की छवि आहत होती नजर आती है। योग साधकों की दृष्टि से योग शिक्षा तथा समाज के लिये आंदोलन अलग अलग विषय हैं। अन्ना जहां आंदोलन की वजह से लोकप्रिय हुए तो स्वामी रामदेव योग शिक्षा से लोकपिय्रता प्राप्त कर आंदोलन के लिये तत्पर हुए।
उन्हें आंदोलन करना चाहिए या नहीं यह उनका निजी विषय है। हम जैसे आम लोग उन्हें राय देने का अधिकार नहीं रखते। इतना अवश्य है कि देश के योग साधकों तथा अध्यात्मिक जिज्ञासुओं के लिये स्वामी रामदेव के क्रियाकलाप अन्य लोगों से अधिक दिलचस्पी का विषय होते हैं। पतंजलि योग एक महान विज्ञान है और हमारे पावन ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता का वह एक महत्वपूर्ण विषय है। इसलिये तत्वाज्ञान साधकों में बाबा रामदेव की गतिविधियों को अत्यंत व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाता है। जब अन्ना हजारे साहब के क्रियाकलाप की चर्चा होती है तो उसमें अध्यात्मिक श्रद्धा का पुट नहीं होता जबकि बाबा रामदेव के समय संवदेनाओं की लहरें हृदय में गहराई बढ़ जाती हैं।
यह पता नहीं कि बाबा रामदेव का गीता के बारे में अध्ययन कितना है पर उनके अनशन पर अध्यात्मिक विश्लेषकों की राय अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती है। यह अनशन राजसी कर्म में आता है। सात्विक, राजस तथा तामस भावों का चक्र कुछ ऐसा है कि आदमी इनमें घूमता रहता है। यह गुण किसी में स्थाई रूप से नहीं रहते। कर्मो के अनुसार मनुष्य के भाव बदलते हैं। सुबह आदमी जहां सात्विक होता है तो दोपहर राजस वृत्ति उसे घेर लेती है और रात के अंधेरे को वैसे भी तमस कहा जाता है। उस समय थका हारा आदमी आलस्य तथा निद्रा में लीन हो जाता है। अलबत्ता ज्ञानी तीनों स्थितियों में अपने आप नियंत्रण रखता है और अज्ञानी अपने भटकाव को नहीं समझ पाता-तामस तथा राजस भाव को क्या समझेगा वह अपने अंदर के ही सात्विक भाव को भी नहीं देख पाता। योगी इन तीनों गुणों से परे होता है क्योंकि वह कर्म चाहे कोई भी करे उसमें अपना भाव लिप्त नहीं होने देता। स्वामी रामदेव ने अभी वह स्थिति प्राप्त नहीं की यह साफ लगता है।
सच बात कहें तो हम जैसे आम लेखक, योग साधक तथा तथा ज्ञान पाठकों के लिये बाबा रामदेव का सर्वश्रेष्ठ रूप तो योग शिक्षक का ही है। स्वामी रामदेव अपने योग शिविरों में अपनी शिक्षा से लाभ उठाने वालों को सामने बुलाकर लोगों को दिखाते हैं मगर क्या वह अपने आंदोलन से लाभ उठाने वालों के नाम गिना सकते हैं। वह कह सकते हैं कि यह तो संपूर्ण समाज के लिये तो प्रश्न उठता है कि क्या लोगों को इससे कोई लाभ हुआ?
देश की जो स्थितियां हैं किसी से छिपी नहीं है पर हमारा समाज कैसा है इस पर विश्लेषण कौन करता है? रुग्ण, आलसी तथा संवेदनहीन समाज की दवा योग शिक्षा तो हो सकती है पर कोई आंदोलन उसे दोबारा प्राणवायु देगा इस पर यकीन करना कठिन है। वैसे रामदेव जी ने अपने आंदोलन के दौरान भी योग शिविर लगाया पर बाद में उनके भाषण से जो नकारात्मक प्रभाव होता है वह भी किसी मानसिक बीमारी से कम दर्द नहीं देता। वैसे हम बाबा रामदेव के आंदोलन का विरोध नहीं कर रहे क्योंकि ज्ञान साधना से इतना तो पता लग गया है कि देहधारी योग साधना से मन विचार, और बुद्धि को शुद्ध तो कर लेता है पर फिर उसका मूल स्वभाव उसके काम में लगा ही देता है हालांकि वह उसमें भी पवित्रता लाने का प्रयास करता है। स्वामी रामदेव ने योगाभ्यास से जहां दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक शक्ति पाई है उसमें संदेह नहीं है पर कहीं न कहीं उनके अंदर प्रतिष्ठा पाने का मोह रहा है जो उनको ऐसे आंदोलन में लगा रहा है। बहरहाल हम उनकी योग शिक्षक वाली भूमिका को सराहते हें और आंदोलन की बात करें तो उसके लिये पेशेवर विश्लेषकों का ढेर सारा समूह है जो माथापच्ची कर रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं है भारतीय योग विधा को आमजन में लोकप्रिय बनाने में स्वामी रामदेव के योगदान को आसानी से नहीं भुलाया जा सकता.
लेखक-दीपक राज कुकरेजा‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर, मध्यमप्रदेश
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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बसंत पंचमी पर विशेष हिन्दी लेख-संवेदनाओं की गहराई तय करती है सुख का पैमाना(special hindi article on basant panchami-samvednaon ke gahrai tay karte hai sukh ka paimana)
बसंत पंचमी का दिन भारतीय मौसम विज्ञान के अनुसार समशीतोष्ण वातावरण के प्रारंभ होने का संकेत है। मकर सक्रांति पर सूर्य नारायण के उत्तरायण प्रस्थान के बाद शरद ऋतु की समाप्ति होती है। हालांकि विश्व में बदले हुए मौसम ने अनेक प्रकार के गणित बिगाड़ दिये हैं पर सूर्य के अनुसार होने वाले परिवर्तनों का उस पर कोई प्रभाव नहीं है। एक बार सूर्य नारायण अगर उत्तरायण हुए तो सर्दी स्वतः अपनी उग्रता खो बैठती है। यह अलग बात है कि धीमे धीरे यह परिवर्ततन होता है। फिर अपने यहां तो होली तक सर्दी रहने की संभावना रहती है। पहले दीवाली के एक सप्ताह के अंदर स्वेटर पहनना शुरु करते थे तो होली के एक सप्ताह तक उनको ओढ़ने का क्रम चलता था। अब तो स्थिति यह है दीवाली के एक माह बाद तक मौसम गर्म रहता है और स्वेटर भी तब बाहर निकलता है जब कश्मीर में बर्फबारी की खबर आती है।
हमारी संस्कृति के अनुसार पर्वों का विभाजन मौसम के अनुसार ही होता है। इन पर्वो पर मन में उत्पन्न होने वाला उत्साह स्वप्रेरित होता है। सर्दी के बाद गर्मी और उसके बाद बरसात फिर सर्दी का बदलता क्रम देह में बदलाव के साथ ही प्रसन्नता प्रदान करता है। ऐसे में दीपावली, होली, रक्षाबंधन, रामनवमी, दशहरा, मकरसक्रांति और बसंतपंचमी के दिन अगर आदमी की संवेदनाऐं सुप्तावस्था में भी हों तब ही वायु की सुगंध उसे नासिका के माध्यम से जाग्रत करती है। यह अलग बात है कि इससे क्षणिक सुख मिलता है जिसे अनुभव करना केवल चेतनाशील लोगों का काम है।
हमारे देश में अब हालत बदल गये हैं। लोग आनंद लेने की जगह एंजायमेंट करना चाहते हैं जो स्वस्फूर्त नहीं बल्कि कोशिशों के बाद प्राप्त होता है। उसमें खर्च होता है और जिनके पास पैसा है वह उसके व्यय का आनंद लेना चाहते है। तय बाद है कि अंग्रेजी से आयातित यह शब्द लोगों का भाव भी अंग्रेजियत वाला भर देता है। ऐसे में बदलती हवाओं का स्पर्श भले ही उसकी देह के लिये सुखकर हो पर लोग अनुभूति कर नहीं पाते क्योंकि उनका दिमाग तो एंजॉजमेंट पाने में लगा है। याद रखने वाली बात यह है कि अमृत पीने की केवल वस्तु नहीं है बल्कि अनुभूति करने वाला विषय भी है। अगर श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित विज्ञान को समझें तो यह पता लगता है कि यज्ञ केवल द्रव्य मय नहीं बल्कि ज्ञानमय भी होता है। ज्ञानमय यज्ञ के अमृत की भौतिक उत्पति नहीं दिखती बल्कि उसकी अनुभूति करनाी पड़ती है यह तभी संभव है जब आप ऐसे अवसरों पर अपनी देह की सक्रियता से उसमें पैदा होने वाली ऊर्जा को अनुभव करें। यह महसूस करें कि बाह्य वतावररण में व्याप्त सुख आपके अंदर प्रविष्ट हो रहा है तभी वह अमृत बन सकता है वरना तो एक आम क्षणिक अनुभूति बनकर रह जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि आपकी संवदेनाओं की गहराई ही आपको मिलने वाले सुख की मात्रा तय करती है। यह बात योग साधकों से सीखी जा सकती है।
जब हम संवेदनाओं की बात करें तो वह आजकल लोगों में कम ही दिखती हैं। लोग अपनी इंद्रियों से व्यक्त हो रहे हैं पर ऐसा लगता है कि उथले हुए हैं। वह किसी को सुख क्या देंगे जबकि खुद लेना नहीं जानते। अक्सर अनेक बुद्धिजीवी हादसों पर समाज के संवेदनहीन होने का रोना रोते हैं। इस तरह रोना सरल बात है। हम यह कहते हैं कि लोग दूसरों के साथ हादसे पर अब रोते नहीं है पर हमारा सवाल यह है कि लोग अपने साथ होने वाले हादसों पर भी भला कहां ढंग से रो पाते है। उससे भी बड़ी बात यह कि लोग अपने लिये हादसों को खुद निमंत्रण देते दिखाई देते है।
यह निराशाजनक दृष्टिकोण नहीं है। योग और गीता साधकों के लिये आशा और निराशा से परे यह जीवन एक शोध का विषय है। इधर सर्दी में भी हमारा योग साधना का क्रम बराबर जारी रहा। सुबह कई बार ऐसा लगता है कि नींद से न उठें पर फिर लगता था कि अगर ऐसा नहीं किया तो फिर पूरे दिन का बंटाढार हो जायेगा। पूरे दिन की ऊर्जा का निर्माण करने के लिये यही समय हमारे पास होता है। इधर लोग हमारे बढ़ते पेट की तरफ इशारा करते हुए हंसते थे तो हमने सुबह उछलकूद वाला आसन किया। उसका प्रभाव यह हुआ है कि हमारे पेट को देखकर लोग यह नहीं कहते कि यह मोटा है। अभी हमें और भी वजन कम करना है। कम वजन से शरीर में तनाव कम होता है। योग साधना करने के बाद जब हम नहाधोकर गीता का अध्ययन करते हैं तो लगता है कि यही संसार एक बार हमारे लिये नवीन हो रहा है। सर्दियों में तेज आसन से देह में आने वाली गर्मी एक सुखद अहसास देती है। ऐसा लगता है कि जैसे हमने ठंड को हरा दिया है।
यह अलग बात है कि कुछ समय बाद वह फिर अपना रंग दिखाती है पर क्रम के टूटने के कारण इतनी भयावह नहीं लगती। बहरहाल हमारी बसंत पंचमी तो एक बार फिर दो घंटे के शारीरिक अभ्यास के बाद ही प्रारंभ होगीं पर एक बात है कि बसंत की वायु हमारे देह को स्पर्श कर जो आंनद देगी उसका बयान शब्दों में व्यक्त कठिन होगा। अगर हम करें भी तो इसे समझेगा कौन? असंवदेनशील समाज में किसी ऐसे आदमी को ढूंढना कठिन होता है जो सुख को समझ सके। हालाकि यह कहना कि पूरा समाज ऐसा है गलत होगा। उद्यानों में प्रातः नियमित रूप से धूमने वालों को देखें तो ऐसा लगता है कि कुछ लोग ऐसे हैं जिनके इस तरह का प्रयास एक ऐसी क्रिया है जिसके लिये वह अधिक सोचते नहीं है। बाबा रामदेव की वजह से योग साधना का प्रचार बढ़ा है पार्कों में लोगों के झुड जब अभ्यास करते दिखते हैं तो एक सुखद अनुभूति होती है उनको सुबह पार्क जाना है तो बस जाना है। उनका क्रम नही टूटता और यही उनकी शक्ति का कारण भी बनता है। इस संसार में हम चाहे लाख प्रपंच कर लें पर हम तभी तक उनमें टिके रह सकते हैं जब तक हमारी शारीरिक शक्ति साथ देती है। इसलिये यह जरूरी है कि पहला काम अपने अंदर ऊर्जा संचय का करें बाकी तो सब चलता रहता है। बसंत पंचमी के इस अवसर पर सभी पाठकों तथा ब्लॉग लेखक मित्रों को हातदिक बधाई और शुभकामनाएँ।
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सलमान रुशदी की द सैटेनिक वर्सेज किताब और जयपुर साहित्य सम्मेलन में विवाद-हिन्दी लेख
जयपुर में साहित्यकार सम्मेलन (Jaipur Literature Festival} आजकल विश्व के समाचारों की सुर्खियों में है। आमतौर से साहित्यकारों के सम्मेलन समाचारों में वह प्रमुखता नहीं पाते जिसकी आयोजक अपेक्षा करते हैं पर इस सम्मेलन को विवाद ने चर्चा का विषय बना दिया है। द सैटेनिक वर्सेज (The Satanic Verses) के लेखक सलमान रुश्दी (Salman Rushdie) हमेशा विवादों में रहे है। अपने ही धर्म के प्रतिकूल किताब ‘‘ द सेटेनिक वर्सेज’’ लिखने वाले लेखक सलमान रुश्दी ने इसके पहले और बाद में अनेक किताबें लिखीं पर उनकी पहचान हमेशा इसी किताब की वजह से रही। हालांकि इस विवादास्पद किताब के बाद उनकी चर्चा अन्य किताबों की वजह से नहीं बल्कि बार शादियां कर बीवियां बदलने की वजह से होती रही है। हम जैसे अंग्रेजी से अनभिज्ञ लोगों को यह तो पता नहीं कि उनकी रचनाओं का स्तर क्या है पर कुछ विशेषज्ञ उनको उच्च रचनाकार नहीं मानते। अनेक अंग्रेजी विशेषज्ञों ने तो यहां तक लिखा था कि रुशदी की सैटनिक वर्सेज भी अंग्रेजी भाषा और शिल्प की दृष्टि से कोई उत्कृष्ट रचना नहीं है, अगर उन्होंने अपने धर्म के प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं की होती और उनको तूल नहीं दिया जाता तो शायद ही कोई इस किताब को जानता।
हम जब बाजार और प्रचार के संयुक्त प्रयासों को ध्यान से देखें तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि सलमान रुशदी ही क्या अनेक रचनाकार केवल इसलिये लोकप्रिय होते हैं क्योंकि प्रकाशक ऐसे प्रचार की व्यवस्था करते है ताकि उनकी किताबें बिकें। अपने विवाद के कारण ही सैटेनिक वर्सेज अनेक भाषाओं में अनुवादित होकर बिकी। भारत में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया इस कारण कभी इसका अन्य भाषा में प्रकाशन नहीं हुआ। इतना हीं नहीं किसी समाचार पत्र या पत्रिका ने इसके अंशों के प्रकाशन का साहस भी नहीं किया-कम से कम कम हिन्दी वालों में तो ऐसा साहस नहीं दिखा। इतना ही नहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थन में अनेक अवसर भीड़ जुटाने वालों में भी कोई ऐसा नहीं दिखा जिसने इस पर से प्रतिबंध हटाने की मांग की हो। हमारे लिये यह भूली बिसरी किताब हो गयी है।
इधर कहीं राजस्थान के जयपुर शहर में साहित्य सम्मेलन हो रहा है। टीवी चैनलों के प्रसारण में वहां रुश्दी की किताब हमने रखी देखी। इसी सम्मेलन दो लोगों ने उसके अंश वाचन का प्रयास भी किया जिनको रोक दिया गया। जयपुर में हो रहे इस सम्मेलन की चर्चा भी इसलिये अधिक हुई क्योंकि उसमें सलमान रुशदी के आने की संभावना थी वरना शायद ही कोई चैनल इसे इस तरह स्थान देता। बहरहाल पता चला कि धमकियों की वजह से सलमान रुशदी जयपुर में नहीं आ रहे बल्कि वीडियो काफ्रेंस से संबोधित करेंगे। ऐसा लगता है कि इस बार भी बाज़ार और प्रचार का कोई फिक्स खेल चल रहा है। इसको नीचे लिखे बिंदुओं के संदर्भ में देखा जा सकता है।
1. एक तरफ सैटेनिक वर्सेज के अंश पड़ने से दो महानुभावों को रोका जाता है दूसरी तरफ सलमान रुश्दी को इतना महत्व दिया जाता है कि उनके न आने पर उनको वीडियो प्रेस कांफ्रेंस के जरिये संबोधित करेंगे। यह विरोधाभास नहीं तो और क्या है कि जिस लेखक को अपनी विवादास्पद पुस्तक के जरिये प्रसिद्धि के कारण ही इतना बड़ा सम्मान दिया जा रहा है उसी के अंश वाचन पर रोक लग रही है।
2. दूसरी बात यह कि इस पुस्तक पर देश में प्रतिबंध लगा था वह क्या हट गया है जो इसको प्रदर्शनी में रखा गया। हालांकि टीवी चैनलों पर हमने जो प्रदर्शनी देखी वह जयपुर की है या अन्यत्र जगह ऐसा हुआ है इसकी जानकारी हमें नहीं है। अगर प्रतिबंध नहीं हटा तो इसे भारत नहीं लाया जाना चाहिए था। यह अलग बात है कि हट गया हो पर इसकी विधिवत घोषणा नहीं की गयी हो।
ऐसा लगता है जयपुर साहित्यकार सम्मेलन में सलमान रुश्दी के नाम के जरिये संभवत अन्य लेखकों को प्रकाशन बाज़ार विश्व में स्थापित करना चाहता है। यह संदेह इसलिये भी होता है क्योंकि सलमान रुश्दी के भारत आगमन की संभावनाओं के चलते ही हमें लगा था कि वह शायद ही आयें। उनके बाज़ार और प्रचार के संपर्क सूत्र उनसे कोई भी न आने का बहाना बनवा देंगे। देखा जाये तो प्रकाशन बाज़ार और प्रचार माध्यम हमेशा विवादास्पद और सनसनी के सहारे अपना काम चलाते हैं जिस कारण हिन्दी क्या किसी भी भाषा में साहित्यक रचनायें न के बराबर हो रही है। संभवतः जयपुर सम्मेलन अपने ही विश्व मे ही क्या उस शहर में ही प्रसिद्धि नहीं पाता जहां यह हो रहा है। सलमान रुश्दी के आने की घोषणा और फिर न आना एक तरह से तयशुदा योजना ही लगती है। आयोजक ने सैटेनिक वर्सेस के अंश पढ़ने से दो लोगों को इसलिये रोका क्योंकि इससे यहां लोग भड़क सकते है तो क्या उनका यह डर नहीं था कि सलममान रुशदी आने पर भी यह हो सकता है। ऐसे में यह शक तो होगा कि यह सब प्रचार के लिए था।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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ग्रेटर नोएडा मामलाः निम्न और मध्यम के संघर्ष का प्रचार विश्वसनीय नहीं-हिन्दी लेख (great noeda-fighting between lower and middl class-hindi article)
ग्रेटर नोएडा मसले पर टीवी चैनलों पर जमकर बहस हो रही है। मामला देखें तो न्यायपालिका के उस निर्णय का है जो ज़मीन अधिगृहीत करने वाली संस्था तथा भूस्वामियों के बीच दिया गया है। यह ज़मीन अधिगृहीत कर भवन निर्माताओं को दी गयी थी जिन्होंने मकान बनाने का सपना दिखाकर मध्यमवर्गीय लोगों से पैसा ले लिया। अब न्यायालय के निर्णय के बाद किसान जमीन वापस मांग रहे हैं और मकान का सपना देख रहे मध्यम वर्गीय लोग आर्तनाद करते हुए सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं।
कभी कभी तो इस तरह प्रचारित किया जा रहा है कि मध्यम वर्गीय समाज और किसानों के बीच यह जंग है। स्पष्टतः यह प्रचार और बहस विज्ञापनों के बीच सामग्री जुटाने का प्रयास भर है। मध्यम वर्गीय समाज और किसान बड़ी संख्या में है पर प्रत्यक्ष इस विवाद में उनके आपसी चर्चा योग्य कोई तत्व कहीं स्थापित नहीं हो सकते पर उनको लक्ष्य करके ही बहस और प्रचार हो रहा है जबकि मुख्य समस्या भवन निर्माताओं और भूमि अधिगृहीत करने वाली संस्था के बीच है। न किसानों से सीधे जमीन मध्यम वर्गीय लोगों को दी न ही उन्होंने ली। अलबत्ता पैसा मकान देने वालों का ही फंसा है।
हम जैसे लोगों के लिये समाज को किसान तथा मध्यमवर्ग में बांटना कठिन है क्योंकि यह तो केवल अंग्रेजों की राजनीति रही है कि फूट डालो राज करो जो अब भी जारी है।
मामला अभी चल रहा है पर एक बात तय रही है कि किसानों का जमीन बहुत जल्दी आसानी से मिल जायेगी यह लगता नहीं है अलबत्ता मध्यम वर्गीय लोगों के मकान लेने का सपना जरूरी महंगा हो जायेगा। संभव है कई लोगों का पूरा भी न हो। इस बहस में व्यवस्था की नाकामी कोई नहीं देख पा रहा है। किसान और मध्यम वर्गीय समाज आंदोलनों पर उतारू हैं जबकि दोनों ने कुछ गंवाया ही है। ऐसे में सवाल यह है कि इसमें कमा कौन रहा है?
सच बात तो यह है कि देश में उदारीकरण के बाद ऐसी अदृश्य शक्तियां कार्यरत हो गयी हैं जिनके हाथों की लंबाई का अंदाज नहीं लगता। आर्थिक शिखर पुरुष यह तो चाहते हैं कि देश का कानून उनके लिये उदार हो पर उस सीमा तक जहां से उनका काम शुरु होता है। बाकी जनता का नियंत्रण तो वह अपने व्यवसायिक कौशल से कर लेंगे। इसके अलावा जब पूंजीपतियों और उत्पादकों के हित की बात आती है तो हमारे देश के आर्थिक रणनीतिकार, विश्लेषक और चिंतकों की बुद्धि तीव्र गति पकड़ लेती हैं पर जब आम आदमी या उपभोक्ता की बात आती है तो सभी की सोच समाप्त होती दिखती है। हम पहले भी लिख चुके हैं कि देश में लाइसैंसीकरण प्रणाली पर भारतीय आर्थिक शिखर पुरुष लंबे समय हमेशा नाराजगी जताते रहे है पर उनके काम नहीं रुकते इसलिये अब कहना भी बंद कर दिया है।
हम ग्रेटर नोएडा के मामले में देखें तो आधिकारिक सस्थाओं ने ज़मीन अधिगृहीत कर बड़े भवन निर्माताओं को सौंप दी। संभवतः छोटे भवन निर्माता दिल्ली के पास की जमीन इसलिये नहीं खरीद सकते होंगे क्योंकि ऐसे तमाम कानून हैं जिससे कृषि योग्य जमीन को आवासीय स्थल में परिवर्तित होने से रोकते हैं। एक सामान्य आदमी के लिये यह संभव नहीं है कि वह कहीं जमीन खरीद का भवन बना सके। जबकि बड़े बड़े पूंजीपतियों ने देश के अनेक भाग चिन्हित कर कृषि भूमि योग्य जमीन को खरीदा क्योंकि उनके साथ ऐसी संस्थायें खड़ी थी जिनके ऐसे कानून बाधक नहीं होते और जो इसके लिये अधिकृत हैं कि देश की आवास समस्या का हल करें।
बड़े धनपति अब देश के कानून में बदलाव की मांग नहीं करते क्योंकि उनके लिये हर काम आसान हो गया है। इस तरह देश शक्तिशाली और कमजोर दो भागों में बंट गया है। मध्यम वर्ग भी तक शक्तिशाली वर्ग के सहारे चलकर कमजोर पर भारी रहता था पर लगता है कि अब वह अप्रासांगिक होता जा रहा है। शक्तिशाली वर्ग का बस नहीं चलता वरना वह विदेश में सीधे जाकर यहां का काम चलाये। उनको अमेरिका, इंग्लैंड,फ्रांस और अन्य पश्चिमी देशों में अपना पैसा रखना पसंद है। उसकी तिजोरियां वहीं है और तय बात है कि उनकी आत्मा भी वहीं बसती है। इसलिये अनेक आर्थिक, सामाजिक तथा कला क्षेत्र के शिखर पुरुष कभी कभी ऐसे बयान देते हैं जैसे कि वह विदेशी हों। अब उदारीकरण के बाद तो ऐसे हो गया है कि किसान, निम्न और मजदूर वर्ग को मध्यम वर्ग से लड़ाकर शक्तिशाली वर्ग इस देश में अपना राज चलाता दिखता है। ऐसा लगता है कि वह इन विवादों से निजी संबंध नहीं रखता जबकि वह उसी के पैदा किये हुए हैं। एक तरफ किसान है जिन्होंने मजबूरी में जमीन दी तो दूसरी तरफ मध्यम वर्गीय लोग हैं जिनके सपनों पर ही अनेक शक्तिशाली लोग धनवान हो गये जिनके हाथ में गया धन फिर कभी लौटकर समाज के पास वापस नहीं आता।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak “Bharatdeep”,Gwalior
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असली सोना तो आदमी का पसीना है-त्रावणकोर से मिले खजाने पर विशेष हिन्दी लेख (asli sona hai admi ka pasina -special article on travancor khazana)
त्रावणकोर के पद्मनाभ मंदिर में सोने का खजाना मिलने को अनेक प्रकार की बहस चल रही है। एक लेखक, एक योग साधक और एक विष्णु भक्त होने के कारण इस खजाने में इस लेखक दिलचस्पी बस इतनी ही है कि संसार इस खजाने के बारे में क्या सोच रहा है? क्या देख रहा है? सबसे बड़ा सवाल इस खजाने का क्या होगा?
कुछ लोगों को यह लग रहा है कि इस खजाने का प्रचार अधिक नहीं होना चाहिए था क्योंकि अब इसके लुट जाने का डर है। इतिहासकार अपने अपने ढंग से इतिहास का व्याख्या करते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञानियों का अपना एक अलग नजरिया होता है। दोनों एक नाव पर सवारी नहीं करते भले ही एक घर में रहते हों। इस समय लोग स्विस बैंकों में कथित रूप से भारतीयों के जमा चार लाख करोड़ के काले धन की बात भूल रहे हैं। इसके बारे में कहा जा रहा था कि यह रकम अगर भारत आ जाये तो देश के हालत सुधर जायें। अब त्रावनकोर के पद्मनाभ मंदिर के खजाने की राशि पांच लाख करोड़ तक पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है। बहस अब स्विस बैंक से हटकर पद्मनाभ मंदिर में पहुंच गयी है।
हमारी दिलचस्पी खजाने के संग्रह की प्रक्रिया में थी कि त्रावणकोर के राजाओं ने इतना सोना जुटाया कैसे? इससे पहले इतिहासकारों से यह भी पूछने चाहेंगे कि उनके इस कथन की अब क्या स्थिति है जिसमें वह कहते हैं कि भारत की स्वतंत्रता के समय देश के दो रियासतें सबसे अमीर थी एक हैदराबाद दूसरा ग्वालियर। कहा जाता है कि उस समय हैदराबाद के निजाम तथा ग्वालियर के सिंधियावंश के पास सबसे अधिक संपत्ति थी। त्रावणकोर के राजवंश का नाम नहीं आता पर अब लगता है कि इसकी संभावना अधिक है कि वह सबसे अमीर रहा होगा। मतलब यह कि इतिहास कभी झूठ भी बोल सकता है इसकी संभावना सामने आ रही है। बहरहाल त्रावणकोर के राजवंश विदेशी व्यापार करता था। बताया जाता है कि इंग्लैंड के राजाओं के महल तक उनका सामान जाता था। हम सब जानते हैं कि केरल प्राकृतिक रूप से संपन्न राज्य रहा है। फिर त्रावणकोर समुद्र के किनारे बसा है। इसलिये विश्व में जल और नभ परिवहन के विकास के चलते उसे सबसे पहले लाभ होना ही था। पूरे देश के लिये विदेशी सामान वहां के बंदरगाह पर आता होगा तो यहां से जाता भी होगा। पहले भारत का विश्व से संपर्क थल मार्ग से था। यहां के व्यापारी सामान लेकर मध्य एशिया के मार्ग से जाते थे। तमाम तरह के राजनीतिक और धार्मिक परिवर्तनों के चलते यह मार्ग दुरुह होता गया होगा तो जल मार्ग के साधनों के विकास का उपयोग तो बढ़ना ही था। भारत में उत्तर और पश्चिम से मध्य एशियाई देशों से हमले हुए पर जल परिवहन के विकास के साथ ही पश्चिमी देशों से भी लोग आये। पहले पुर्तगाली फिर फ्रांसिसी और फिर अंग्रेज। ऐसे में भारत के दक्षिणी भाग में भी उथल पुथल हुई। संभवत अपने काल के शक्तिशाली और धनी राज्य होने के कारण त्रावनकोर के तत्कालीन राजाओं को विदेशों से संपर्क बढ़ा ही होगा। खजाने के इतिहास की जो जानकारी आ रही है उसमें विदेशों से सोना उपहार में मिलने की भी चर्चा है। यह उपहार फोकट में नहीं मिले होंगे। यकीनन विदेशियों को अनेक प्रकार का लाभ हुआ होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मार्ग से भारत में आना सुविधाजनक रहा होगा। विदेशियों ने सोना दिया तो उनको क्या मिला होगा? यकीनन भारत की प्रकृतिक संपदा मिली होगी जिसे हम कभी सोने जैसा नहीं मानते। बताया गया है कि त्रावणकोर का राजवंश चाय, कॉफी और काली मिर्च के व्यापार से जुड़ा रहा है। मतलब यह कि चाय कॉफी और काली मिर्च हमारे लिये सोना नहीं है पर विदेशियों से उसे सोने के बदले लिया।
सोना भारतीयों की कमजोरी रहा है तो भारत की प्राकृतिक और मानव संपदा विदेशियों के लिये बहुत लाभकारी रही है। केवल त्रावणकोर का राजवंश ही नहीं भारत के अनेक बड़े व्यवसायी उस समय सोना लाते और भारत की कृषि और हस्तकरघा से जुड़ी सामग्री बाहर ले जाते थे।
सोने की खदानों में मजदूर काम करता है तो प्रकृतिक संपदा का दोहन भी मजदूर ही करता है। मतलब पसीना ही सोने का सृजन करता है।
अपने लेखों में शायद यह पचासवीं बार यह बात दोहरा रहे हैं कि विश्व के भूविशेषज्ञ भारत पर प्रकृति की बहुत कृपा मानते हैं। यहां भारत का अर्थ व्यापक है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान नेपाल, श्रीलंका,बंग्लादेश और भूटान भी शामिल है। इस पूरे क्षेत्र को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता रहा है पर पाकिस्तान से मित्रता की मजबूरी के चलते इसे हम लोग आजकल दक्षिण एशिया कहते हैं।
कहा जाता है कि कुछ भारतीय राज्य तो ऐसे भी हुए हैं जिनका तिब्बत तक राज्य फैला हुआ था। दरअसल उस समय के राजाओं में आत्मविश्वास था और इसका कारण था अपने गुरुओं से मिला अध्यात्मिक ज्ञान! वह युद्ध और शांति में अपनी प्रजा का हित ही सोचते थे। अक्सर अनेक लोग कहते हैं कि केवल अध्यात्मिक ज्ञान में लिप्तता की वजह से यह देश विदेशी आक्राताओं का शिकार बना। यह उनका भ्रम है। दरअसल अध्यात्मिक शिक्षा से अधिक आर्थिक लोभ की वजह से हमें सदैव संकटों का सामना करना पड़ा। समय के साथ अध्यात्म के नाम पर धार्मिक पांखड और उसकी आड़ में आमजन की भावनाओं से खिलवाड़ का ही यह परिणाम हुआ कि यहां के राजा, जमीदार, और साहुकार उखड़ते गये।
सोने से न पेट भरता है न प्यास बुझती है। किसी समय सोने की मुद्रायें प्रचलन में थी पर उससे आवश्यकता की वस्तुऐं खरीदी बेची जाती थी। बाद में अन्य धातुओं की राज मुद्रायें बनी पर उनके पीछे उतने ही मूल्य के सोने का भंडार रखने का सिद्धांत पालन में लाया जाता था। आधुनिक समय में पत्र मुद्रा प्रचलन में है पर उसके पास सिद्धातं यह बनाया गया कि राज्य जितनी मुद्रा बनाये उतने ही मूल्य का सोना अपने भंडार में रखे। गड़बड़झाला यही से शुरु हुआ। कुछ देशों ने अपनी पत्र मुद्रा जारी करने के पीछे कुछ प्रतिशत सोना रखना शुरु किया। पश्चिमी देशों का पता नहीं पर विकासशील देशों के गरीब होने कारण यही है कि जितनी मुद्रा प्रचलन में है उतना सोना नहीं है। अनेक देशों की सरकारों पर आरोप है कि प्रचलित मुद्रा के पीछे सोने का प्रतिशत शून्य रखे हुए हैं। अगर हमारी मुद्रा के पीछे विकसित देशों की तरह ही अधिक प्रतिशत में सोना हो तो शायद उसका मूल्य विश्व में बहुत अच्छा रहे।
विशेषज्ञ बहुत समय से कहते रहे हैं कि भारतीयों के पास अन्य देशों से अधिक अनुपात में सोना है। मतलब यह सोना हमारी प्राकृतिक तथा मानव संपदा की वजह से है। यह देश लुटा है फिर भी यहां इतना सोना कैसे रह जाता है? स्पष्टतः हमारी प्राकृतिक संपदा का दोहन आमजन अपने पसीने से करता है जिससे सोना ही सोने में बदलता है। सोना लुटने की घटनायें तो कभी कभार होती होंगी पर आमजन के पसीने से सोना बनाने की पक्रिया कभी थमी नहीं होगी।
भारत में आमजन जानते हैं कि सोना केवल आपातकालीन मुद्रा है। कुछ लोग कह रहे थे कि स्विस बैंकों से अगर काला धन वापस आ जाये तो देश विकास करेगा मगर उतनी रकम तो हमारे यहां मौजूद है। अगर ढूंढने निकलें तो सोने के बहुत सारे खजाने सामने आयेंगे पर समस्या यह है कि हमारे यहां प्रबंध कौशल वाले लोग नहीं है। अगर होते तो ऐसे एक नहीं हजारों खजाने बन जाते। प्रचार माध्यम इस खजाने की चर्चा खूब कर रहे हैं पर आमजन उदासीन है। केवल इसलिये उसे पता है कि इस तरह के खजाने उसके काम नहीं आने वाले। सुनते हैं कि त्रावणकोर के राजवंश ने अपनी प्रजा की विपत्ति में भी इसका उपयोग नहीं किया था। इसका मतलब है कि उस समय भी वह अपने संघर्ष और परिश्रम से अपने को जिंदा रख सकी थी। बहरहाल यह विषय बौद्धिक विलासिता वाले लोगों के लिये बहुत रुचिकर है तो अध्यात्मिक साधकों के लिये अपना बौद्धिक ज्ञान बघारने का भी आया है। जिनके सिर पर सोन का ताज था वही कटे जिनके पास खजाने हैं वही लुटे जो अपने पसीने से अपनी रोटी का सोना कमाता है वह हमेशा ही सुरक्षित रहा। हमारे देश में पहले अमीरी और खजाने भी दिख रहे हैं पर इससे बेपरवाह समाज अधिक है क्योंकि उसके पास सोना के रूप में बस अपना पसीना है। यह अलग बात है कि उसकी एक रोटी में से आधी छीनकर सोना बनाया जाता है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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श्री यशवंत सोनावने की हत्या राज्य को सीधी चुनौती-हिन्दी लेख (murder of shri yashwant sonawane-hindi lekh)
मालेगांव के उपजिलाधीश श्रीयशवंत सोनावने को जिंदा जला दिया गया। वह तेल माफियाओं को अपने दुष्कर्मों से रोकने की कार्यवाही कर रहे थे। एक आम आदमी के लिये यह खबर डरावनी है पर प्रचार माध्यमों में सक्रिय प्रायोजित बुद्धिजीवी शायद ही इसकी अनुभूति कर पायें। एक आदमी को जिंदा जला देना वैसे ही डराने वाली खबर है। अगर किसी दूरस्थ गांव में किसी आम इंसान को जिंदा जलाने की घटना होती है तो शायद यह सोचकर संवेदनायें व्यक्त कर काम चलाया जा सकता है कि वहां असभ्य और कायर लोगों का निवास होगा। अगर किसी सरकारी अधिकारी को जला दिया जाये तो यह भी कहा जा सकता है कि बिना सुरक्षा के वह वहां गया क्यों? मगर नासिक जैसा भीड़ वाला शहर और वहां भी अगर उपजिलाधिकारी को जिंदा जला दिया जाये तो देश के लिये खतरनाक संकेत हैं।
आधुनिक व्यवस्था में जिलाधिकारी एक तरह से अपने जिले के राजा होता है। आयुक्त, राज्य के गृह सचिव तथा मंत्रियों का पद उससे बड़ा होता है पर जहां तक प्रत्यक्ष राज्य संचालन का विषय है सभी जानते हैं कि जिलाधीश अपने जिले का इकलौता नियंत्रक होता है। पुलिस या अन्य राजकीय विभाग का कोई प्रमुख उसके आदेश की अनदेखी नहीं कर सकता। जहां तक आम लोगों का सवाल है वह सभी जिलाधीश के पास नहीं जाते पर यह जानते हैं कि जिलाधीश उनका ऐसा रक्षक है जिससे पूरा जिला संविधानिक रूप से सुरक्षित है। जिलाधीश के साथ उपजिलाधीश भी होते हैं जो अपने हिस्से का काम जिलाधीश की तरह ही करते हैं। इनकी भूमिका न केवल प्रशासक की होती है बल्कि उनको दंडाधिकारी का अधिकार भी प्राप्त होता है-एक तरह से देश की न्याय व्यवस्था का प्रारंभिक द्वार भी उनके पद से ही शुरु होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिलाधीश तथा उसके अंतर्गत कार्यरत उपजिलाधीशों का समूह ही असली राजा है जिससे प्रजा मानती है। ऐसे में मालेगांव में श्रीयशवंत सोनावने को जिंदा जलाना भारी चिंता का कारण है। जब कहीं राजा जैसा ओहदा रखने वाले के साथ ऐसी भीषण घटना हो सकती है तो आम आदमी का क्या होगा? यकीनन यह प्रश्न पूछना बेकार है। कभी बड़े लोगों पर हमले को लेकर ऐसे प्रश्न करना केवल बौद्धिक विलासिता जैसा लगता है।
आंतकवाद और अपराधी से राज्य को लड़ना पड़ता है। राज्य से जुड़ी संस्थायें और पदाधिकारी अपना काम करते भी हैं। ऐसे में निचले स्तर पर कुछ छोटे कर्मचारियों के साथ हादसे हो भी जाते हैं पर वह राज्य के अस्तित्व को चुनौती देते हुए नहीं लगते। जिस तरह सैनिक मरते हैं पर सेनापति युद्ध बंद नहीं करता पर अगर सेनापति मर जाये तो अच्छी खासी सेना जीतती लड़ाई हारकर भागती है। शतरंज में भी खिलाड़ी बादशाह को शह देने से पहले वज़ीर को मारने के लिये तत्पर होकर चाले चलते हैं। अच्छे खिलाड़ी तो कभी पैदल मारने में वक्त नहीं गंवाते।
जिलाधीश और उपजिलाधीश राजधानियों में स्थापित राज्य के आभामंडल के ऐसे सेनापित होते हैं जिनके अंतर्गत जिले के राजकीय कर्मी अपने काम में लगे रहते हैं। ऐसे उपजिलाधीश को वह भी जिंदा जलाया जाना भारत के विशाल राज्य को एक बहुत बड़े संकट का संकेत दे रहा है। हम जब भारत के अखंड होने के दावे करते हैं तो उसके पीछे संवैधानिक व्यवस्था है। उसी संवैधानिक व्यवस्था में जिलाधीश और उपजिलाधीश के पद एक बहुत बड़ी बुनियाद हैं। इस पर कार्यरत व्यक्ति पूरे देश में अपना दायित्व अपने स्वभाव, विचार तथा कार्यप्रणाली के अनुसार करते हैं। उनके काम करने का ढंग चाहे जैसा भी हो पर कम से कम देश को एक रखने के पीछे उनकी प्रारंभिक कार्यवाही का बहुत बड़ा योगदान है।
श्री यशवंत सोनावने के साथ किया गया निर्मम व्यवहार जिस तरह शहर में हुआ वह यह प्रश्न भी उत्पन्न कर रहा है कि क्या वाकई देश आगे जा रहा है पीछे जंगल राज्य की तरफ फिसल रहा है। पैसे की अंधी दौड़ में अंग्रेजों जैसे वेशभूषा पहनने के बावजूद हम आदिमयुग की तरफ लौट रहे हैं। एक होनहार अधिकारी के साथ ऐसा हादसा देश में कार्यरत अन्य राजकीय अधिकारियों को डरा सकती है। ऐसे में प्रजा की सुरक्षा की बात तो गयी भाड़ में, राज्य को स्वयं के अस्तित्व की सोचना होगा क्योंकि उसके हाथ पांव राजकीय अधिकारी और कर्मचारी है जो कुंठित होकर रह गये तो राज्य का अस्तित्व ही संकट में आ जायेगा। शिखर पुरुषों के लिये ऐसी घटनाऐं बहुत बड़ी चुनौती है। उन्हें अपनी व्यवस्था के ऐसे छेद बंद करने होंगे जो आगे ऐसे संकट न खड़ा करें।
ईमानदारी के यज्ञ में प्राणाहुति देने वाले श्रीयशवंत सोनावने को हम भावभीनी और आत्मिक श्रद्धांजलि देते हैं। वह ईमानदार थे, बहुत सारे लोग बेईमान हैं। दरअसल ईमानदारी एक संस्कार है। इसका मतलब यह कि जो बेईमान हैं उनको संस्कार नहीं दिये गये जो कि माता पिता का दायित्व होता है। जब संस्कार आदत बन जाते हैं तब वह जिंदगी का अभिन्न हिस्सा होते हैं। बेईमानी भी एक ऐसी आदत है जो कि कुसंस्कार है जो कि माता पिता से ही मिलते हैं जो यह सिखाते हैं कि केवल पैसा कमाओ, खाओ पीयो और समाज में इज्जत बनाओ। यही कारण है कि जिससे सभी को दूसरों का भ्रष्टाचार दिखता है और अपना नहीं। कई लोग तो इसे भारतीय समाज का हिस्सा मानकर चुप बैठ गये हैं। जिस तरह पहले ईमानदारों के बीच बेईमान नफरत का हिस्सा बनता था उसी तरह अब बेईमानों में एक ईमानदार बनता है। श्री यशवंत सोनावने इसी नफरत का शिकार बने। दूसरी बात कहें तो भ्रष्टाचार और अपराध अब देश की समस्या नहीं बल्कि ईमानदार और उनका संस्कार बन गये हैं। हम परम पिता परमात्मा से प्रार्थना करते हैं तो वह श्री यशवंत सोनावने के परिवार को यह हादसा सहन करने की शक्ति प्रदान करे।
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murder of shri yashawant sonawane,dupty colletor of malegaon,maharashtra, shraddhanjali
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
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पिछड़ता सर्वशक्तिमान अमेरिका-हिन्दी लेख (america behind world level-hindi article)
कोई व्यक्ति कद काठी में ऊंचा हो, अपनी मांसपेशियों से शक्तिशाली दिखता हो, उसने सुंदर वस्त्र पहन रखे हों पर अगर उसके चेहरे पर काले धब्बे हैं आंखों में हमेशा ही निराशा झलकती है और बातचीत में निर्बुद्धि हो तो लोग उसके सामने आलोचनात्म्क बात न कहें पर पीठ पीछे उसके दुर्गुणों की व्याख्या करते है। तय बात है कि उसके शक्तिशाली होने के बावजूद लोग उसे पंसद नहंी करते। यही स्थिति समाजों, समूहों और राष्ट्रों की होती है।
न्यूज वीक पत्रिका के अनुसार दुनियां का सर्वशक्तिमान अमेरिका अब सर्वश्रेष्ठता में 11 वें स्थान पर खिसक गया है। भारत इस मामले में 78 वें नंबर पर है इसलिये उस पर हम हंस नहीं सकते पर जिन लोगों के लिये अमेरिका सपनों की दुनियां की बस्ती है उनके लिये यह खबर निराशाजनक हो सकती है। इस तरह की गणना शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर तथा राजनीतिक वातावरण के आधार पर की गयी है। यकीनन यह सभी क्षेत्र किसी भी देश के विकास का प्रतिबिम्ब होते हैं। हम जब अपने देश की स्थिति पर नज़र डालते हैं तो उसमें प्रशंसा जैसा कुछ नज़र नहीं आता। घोषित और अघोषित रूप से करोड़पति बढ़े हैं पर समाज के स्वरूप में कोई अधिक बदलाव नहीं दिखता।
सड़क पर कारें देखकर जब हम विकास होने का दावा करते हैं तो उबड़ खाबड़ गड्ढों में नाचती हुईं उनकी मुद्रा उसकी पोल खोल देती है। स्वास्थ्य का हाल देखें, अस्पताल बहुत खुल गये हैं पर आम इंसान के लिये वह कितने उपयोगी हैं उसे देखकर निराशा हाथ लगती है। आम इंसान को बीमार होने या घायल होने से इतना डर नहीं लगता जितना कि ऐसी स्थिति में चिकित्सा सहायता न मिल पाने की चिंता उसमें रहती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि विकास का स्वरूप हथियारों के जखीरे या आधुनिक सुविधा के सामानों की बढ़ोतरी से नहीं है। दुनियां का शक्तिशाली देश होने का दावा करने वाला अमेरिका दिन ब दिन आर्थिक रूप से संकटों की तरफ बढ़ता दिखाई देता है मगर शायद उसके भारतीय समर्थक उसे समझ नहीं पा रहे। दूसरी बात हम यह भी देखें कि अधिकतर भारतीयों ने अपनी वहां बसाहट ऐसी जगहों पर की है जहां उनके लिये व्यापार या नौकरी के अवसरों की बहुतायत है। यह स्थान ऐसे क्षेत्रों में हैं जहां अर्थव्यवस्था और शिक्षा के आधुनिक केंद्र है। अमेरिका भारत से क्षेत्रफल में बढ़ा है इसलिये अगर कोई भारतीय यह दावा करता है कि वह पूरे अमेरिका के बारे जानता है तो धोखा दे रहा है और खा भी रहा है, क्योंकि यह लोग यहां रहते हुए भी पूरे भारत को ही लोग नहीं जान पाते और ऐसे ही दूरस्थ स्थानों के बारे में टिप्पणियां करते हैं तब अमेरिका के बारे में उनका ज्ञान कैसे प्रमाणिक माना जा सकता है।
इसके बावजूद कुछ भारतीय हैं जिनका दूरस्थ स्थानों मे जाना होता है और वह अपनी बातों के इस बात का उल्लेख करते हैं कि अमेरिका में कई ऐसे स्थान हैं जहां भारत जैसी गरीबी और पिछड़ेपन के दर्शन होते हैं। फिर एक बात दूसरी भी है कि जब हमारे देश में किसी अमेरिकन की चर्चा होती है तो वह शिक्षा, चिकित्सा, राजनीति, व्यापार या खेल क्षेत्र में शीर्ष स्तर पर होता है। वहां के आम आदमी की स्थिति का उल्लेख भारतीय बुद्धिजीवी कभी नहीं करते। जबकि सत्य यह है अपने यहां आकर संपन्न हुए विदेशियों से अमेरिकी नागरिक बहुत चिढ़ते हैं और उन पर हमले भी होते हैं इसके समाचार कभी कभार ही मिलते हैं।
इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय बुद्धिजीवी अमेरिका को स्वर्ग वैसे ही दिखाया जाता रहा है जैसे कि धार्मिक लोग अपने अपने समूहों को दिखाते हैं।
अमेरिका के साथ कनाडा का भी बहुत आकर्षण भारत में दिखाया जाता है जबकि यह दोनों इतने विशाल देश है कि इनके कुछ ही इलाकों में भारतीय अधिक तादाद में हैं और जहां उनकी बसाहट है उसके बारे में ही आकर्षण जानकारी मिल पाती है। जहां गरीबी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, स्वास्थ्य चिकित्साओं का अभाव तथा बेरोजगारी है उनकी चर्चा बहुत कम होती है।
इस विषय पर एक जोरदार चर्चा देखने को मिली।
अमेरिका से लौटे एक आदमी ने अपने मित्र को बताया कि ‘मैं अपने अमेरिका के एक गांव में गया था और वहां भारत की याद आ रही थी। वहां भी बच्चे ऐसे ही घूम रहे थे जैसे यहां घूमते हैं। वह भी शिक्षा का अभाव नज़र आ रहा था।’
मित्र ने पूछा-‘पर वह लोग तो अंग्रेजी में बोलते होंगे।’
मित्र ने कहा-‘हां, उनकी तो मातृभाषा ही अंग्रेजी है।’
तब वह आदमी बोला-‘अरे, यार जब उनको अंग्रेजी आती है तो अशिक्षित कैसे कहे जा सकते हैं।’
दूर के ढोल सुहावने होते हैं और मनुष्य की संकीर्णता और अज्ञान ही इसका कारण होता है। अमेरिका हो या भारत मुख्य समस्या प्रचार माध्यमों के रवैये से है जो आम आदमी को परिदृश्य से बाहर रखकर चर्चा करना पसंद करते हैं। अनेक लोग अमेरिकी व्यवस्था पर ही भारत को चलाना चाहते हैं और चल भी रहा है, ऐसे में जिन बुराईयों को अपने यहां देख रहे हैं वह वहां न हो यह संभव नहीं है। कुछ सामाजिक विशेषज्ञ तो सीधे तौर पर भौतिक विकास को अपराध की बढ़ती संख्या से जोड़ते हैं। हम भारत में जब विकास की बात करते हैं तो यह विषय भी देखा जाना चाहिये।
आखिरी बात यह कि दुनियां का सर्वशक्तिमान कहलाने वाला अमेरिका जब सामाजिक विकास के स्तंभ कहलाने वाले क्षेत्रों में पिछड़ गया है तो हम भारत को जब अगला सर्वशक्तिमान बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं तो यकीनन इस 78 वें स्थान से भी गिरने के लिये तैयार होना चाहिए।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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कंप्यूटर पर लिखने का अपना तरीका-हिन्दी लेख (computer par hindi likhne ka apna tarika)
अंतर्जाल पर अगर लिखते रहें तो अच्छा है, पर पढ़ना एक कठिन काम है। दरअसल लिखते हुए दोनों हाथ चलते हैंे और आंखें बंद रहती हैं तब तो ठीक है क्योंकि तब सामने से आ रही किरणों से बचाव होने के साथ दोनों हाथों के रक्त प्रवाह का संतुलन बना रहता है।
लिखते हुए आंखें बंद करने की बात से हैरान होने की आवश्यकता नहीं है। अगर आपको टाईपराइटिंग का ज्ञान है और लिखते भी स्वतंत्र और मौलिक हैं तो फिर की बोर्ड पर उंगलियों और दिमाग का काम है आंखों से उसका कोई लेना देना नहीं है।
सच बात तो यह है कि कंप्यूटर पर काम करते हुए माउस थकाता है न कि की बोर्ड-अपने अनुभव से लेखक यही बात समझ सका है।
जब भी इस लेखक ने कंप्यूटर खोलकर सीधे लिखना प्ररंभ किया है तब लगता है कि आराम से लिखते जाओ। हिन्दी टाईप का पूरा ज्ञान है इसलिये उंगलियां अपने आप कीबोर्ड पर अक्षरों का चयन करती जाती हैं। एकाध अक्षर जब अल्ट से करके लेना हो तब जरूर कीबोर्ड की देखना पड़ता है वरना तो दो सो से तीन सौ अक्षर तो ं कब टंकित हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। हालत यह होती है कि सोचते हैं कि चार सौ शब्दों का कोई लेख लिखेंगे पर वह आठ सौ हजार तक तो पहुंच ही जाता है। यही वजह है कि अनेक बार कवितायें लिखकर काम चला लेते हैं कि कहीं गद्य लिखने बैठे तो फिर विषय पकड़ना कठिन हो जायेगा।
अगर कहीं माउस पकड़ कर अपने विभिन्न ब्लागों की पाठक संख्या देखने या अन्य ब्लाग पढ़ने का प्रयास किया तो दायां हाथ जल्दी थक जाता है। वैसे फायर फाक्स पर टेब से काम कर दोनों हाथ सक्रिय रखे जा सकते हैं पर तब भी आंखें तो खुली रखनी पड़ेंगी। फिर आदत न होने के कारण उसमें देर लगती है तब माउस से काम करने का लोभ संवरण नहीं हो पाता। वैसे एक कंप्यूटर विशारद कहते हैं कि अच्छे कंप्यूटर संकलक तथा संचालक कभी माउस का उपयेग नहंी करते। शायद वह इसलिये क्योंकि वह थकावट जल्दी अनुभव नहीं करते होंगे।
आंखें बंद कर टंकण करने का एक लाभ यह भी है कि आप सीधे अपने विचारों को तीव्रता से पकड़ सकते हैं जबकि आंखें खोलकर लिखने से एकाग्रता तो कम होती है साथ ही दूसरे विचार की प्रतीक्षा करनी पड़ती है और कभी कभी तो एक विचार निकल जाता है दूसरा दरवाजे पर खड़ा मिलता है। तब पहले को पकड़ने के चक्कर में दूसरा भी लड़खड़ा जाता है और वाक्य कुछ का कुछ बन जाता है। कंप्यूटर का सबसे अधिक असर आंखों पर पड़ता है पर एक हाथ माउस पकड़ना भी कम हानिकारक नहीं है। वैसे हमारे देश में लोग इस बात की परवाह कहां करते हैं। अधिकतर लोग पश्चिमी में अविष्कृत सुविधाजनक साधनों का उपयोग तो करते हैं पर उससे जुड़ी सावधानियों को अनदेखा कर जाते हैं।
वैसे कंप्यूटर से ज्यादा हानिकारक तो हमें मोबाईल लगता है। उन लोगों की प्रशंसा करने का मन करता है तो उस पर इतने छोटे अक्षर देखकर टाईप करते हैं। उनकी स्वस्थ आंखें और हाथ देखकर मन प्रसन्न हो उठता है। उस एक मित्र ने हमसे कहा ‘यार, तुम्हारा मोबाईल बंद था, तब मैंने तुम्हें एसएमएस भेजा। तुमने कोई जवाब भी नहीं दिया।’
हमें आश्चर्य हुआ। उससे हमने कहा कि ‘मैं तो कभी मोबाईल पर मैसेज पढ़ता नहीं। तुमने अपने मैसेज में क्या भेजा था?’
‘तुम्हारे ब्लाग की तारीफ की थी। वहां कमेंट लिखने में शर्म आ रही थी क्योंकि वहां किसी ने कुछ लिखा नहीं था कि हम उसकी नकल कर कुछ लिख जाते। तुम्हारी पोस्ट एक नज़र देखी फिर उसे बंद कर दिया। तब ख्याल आया कि चलो तुम्हें एसएमएस कर देते हैं। किसी ब्लाग की एक लाख संख्या पार होने पर तुम्हारा पाठ था।’
हमने कहा‘अच्छा मजाक कर लेते हो!’
मित्र ने कहा‘ क्या बात करते हो। तुम्हारे साथ भला कभी मजाक किया है?’
हमने कहा-‘नहीं! मेरा आशय तो यह है कि तुमने अपने साथ मजाक किया। इतना बड़ा कंप्यूटर तुम्हारे पास था जिस पर बड़े अक्षरों वाला कीबोर्ड था पर तुमने उसे छोड़कर एक छोटे मोबाईल पर संदेश टाईप कर अपनी आंखों तथा हाथ को इतनी तकलीफ दी बिना यह जाने कि हम उस संदेश को पढ़ने का प्रयास करेंगे या नहीं।’
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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अपने सदगुरु स्वयं बने-विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष लेख (apne sadguru svyan bane-paryavaran par lekh)
पर्यावरण के लिये कार्य करने पर माननीय जग्गी सद्गुरु को सम्मानित किया जाना अच्छी बात है। जब कोई वास्तविक धर्मात्मा सम्मानित हो उस पर प्रसन्नता व्यक्त करना ही चाहिए वरना यही समझा जायेगा कि आप स्वार्थी हैं।
आज विश्व में पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। दरअसल इस तरह के दिवस मनाना भारत में एक फैशन हो गया है जबकि सच यह है कि जिन खास विषयों के लिये पश्चिम को दिन चाहिये वह हमारी दिनचर्या का अटूट हिस्सा है मगर हमारी वर्तमान सभ्यता पश्चिम की राह पर चल पड़ी है तो इनमें से कई दिवस मनाये जाना ठीक भी लगता है।
पर्यावरण की बात करें तो भला किस देश में इतने बड़े पैमाने पर तुलसी के पौद्ये को प्रतिदिन पानी देने वाले होंगे जितना भारत में है। इसके अलावा भी हर दिन लोग धार्मिक भावनाओं की वजह से पेड़ों पौद्यों पर पानी डालते हैं और वह बड़ी संख्या में है। यह बात जरूर है कि प्राकृतिक संपदा की बहुलता ने इस देश के लोगों को बहुत समय तक उसके प्रति लापरवाह बना दिया था पर जब जंगल की कमियों की वजह से पूरे विश्व के साथ विश्व में गर्मी का प्रकोप बढ़ा तो विशेषज्ञों के सतत जागरुक प्रयासों ने लोगों में चेतना ला दी और अधिकतर नयी बनी कालोनी में अनेक लोग पेड़ पौद्ये लगाने का काम करने लगे हैं-यह अलग बात है कि इसके लिये वह सरकारी जमीन का ही अतिक्रमण करते हैं और नक्शे में अपने भूखंड में इसके लिये छोड़ी गयी जमीन पर अपना पक्का निर्माण करा लेते हैं। प्रकृति के साथ यह बेईमानी है पर इसके बावजूद अनेक जगह पेड़ पौद्यों का निवास बन रहा है।
एक बात सच है कि हमारे जीवन का आधार जल और वायु है और उनका संरक्षण करना हमारा सबसे बड़ा धर्म है। एक पेड़ दस वातानुकूलित यंत्रों के बराबर वायु विसर्जित करता है यही कारण है गर्मियों के समय गांवों में पेड़ों के नीचे लोगों का जमघट लगता है और रात में गर्मी की तपिश कम हो जाती है। इसके अलावा गर्मियों में शाम को उद्यानों में जाकर अपने शरीर को राहत भी दिलाई जा सकती है। कूलर और वाताकुलित यंत्र भले ही अच्छे लगते हैं पर प्राकृतिक हवा के बिना शरीर की गर्मी सहने की क्षमता नहीं बढ़ती है। उनकी ठंडी हवा से निकलने पर जब कहीं गर्मी से सामना हो जाये तो शरीर जलने लगता है।
इसलिये पेड़ पौद्यों का संरक्षण करना चाहिए। सच बात तो यह है कि पर्यावरण के लिये किसी सद्गुरु की प्रतीक्षा करने की बजाय स्वयं ही सद्गुरु बने। कोई भी महान धर्मात्मा सभी जगह पेड़ नहीं लगवा सकता पर उससे प्रेरणा लेना चाहिए और जहां हम पेड़ पौद्ये लगा सकते हैं या फिर जहां लगे हैं वहां उनका सरंक्ष कर सकते हैं तो करना चाहिए। दरअसल पेड़ पौद्यों को लगाना, उनमें खिलते हुए फूलों और लगते हुए फलों को देखने से मन में एक अजीब सी प्रसन्नता होती है और ऐसा मनोरंजन कहीं प्राप्त नहीं हो सकता। इसे एक ऐसा खेल समझें जिससे जीवन का दांव जीता जा सकता है।
प्रसंगवश एक बात कहना चाहिए कि पेड़ पौद्यों से उत्पन्न प्राणवायु का सेवन तो सभी करते हैं पर उनको धर्म के नाम स्त्रियां ही पानी देती हैं। अनेक महिलाऐं तुलसी के पौद्ये में पानी देते देखी जाती हैं। वैसे अनेक पुरुष भी यही करते हैं पर उनकी संख्या महिलाओं के अनुपात में कम देखी जाती है। इससे एक बात तो लगती है कि पेड़ पौद्यो तथा वन संरक्षण का काम हमारे लिये धर्म का हिस्सा है यह अलग बात है कि कितने लोग इसकी राह पर चल रहे हैं। आजकल उपभोक्तावादी युग में फिर भी कुछ सद्गुरु हैं जो यह धर्म निभा रहे हैं और जरूरत है उनके रास्ते पर चलकर स्वयं सद्गुरु बनने की, तभी इतने बड़े पैमाने पर हो रहे पर्यावरण प्रदूषण को रोका जा सकता है।
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संकलक लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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