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भारतीय साहित्य में महाश्वेतधारा के स्वप्न-हिंदी लेख चिंत्तन


         पश्चिम बंगाल की एक साहित्यकारा का यह तर्क हैरान करने वाला है कि नक्सलवाद फैलाने वालों को भी सपने देखने का हक है।   हम यह तो मानते हैं कि सभी लोगों को सपने देखने का हक है पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि कानून तोड़ने या बंदूक से दूसरे को मारने पर भी वह बने रहने दिया जाये।  एक बात तय रही कि बंदूक थामने वाला अपने विरोधी की बोलने की आजादी तो छोड़िये उसका जिंदा रहने का अधिकार भी नहीं स्वीकारता।  ऐसे में उसके सपने देखने के हक की बात कोई सात्यिकार करने लगे तो समझिये उसे अपने लेखकीय अहंकार से उपजी आत्मुग्धता के भाव ने धर दबोचा  है या अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव की अनुभूति ने कुंठित कर दिया है।

        पश्चिम बंगाल में कुछ साहित्यकार हमारी दृष्टि से गजब के हुए हैं।  इनमें शरत चंद्र और पूर्णिमा देवी के उपन्यास हमारे मन को भी बहुत भाये हैं।  पूर्णिमा देवी का स्वर्णलता उपन्यास एक अत्यंत रोचक रचना है।  एक बात निश्चित है कि पश्चिम बंगाल के लेखकों  की प्रसिद्ध रचनायें  बंगाल की सामाजिक  पृष्ठभूमि पर आधारित हैं।  उनकी रोचकता इसलिये भी अधिक बढ़ जाती है क्योंकि वहां की कुछ परंपरायें संपूर्ण भारतीय समाज से मेल खाती है। यहां कुछ शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि हम संपूर्ण भारतीय समाज में  सांस्कारिक, भाषाई तथा धार्मिक पंरपराओं में विभिन्नता पाते हैं।  सीधी बात कहें तो किसी भी एक क्षेत्रीय भाषा के साहित्य में संपूर्ण भारतीय समाज को नहीं जोड़ा जा सकता। कहा जाता था कि बंगाल जो आज सोचता है वह पूरा भारत कल सोचता है। यह बात तब कही जाती थी जब वहां जनवादी साहित्यकारों का गढ़ बन गया था।  उनका यह आत्मविश्वास राज्य से  निकटता के कारण बना।  उन्हें लगने लगा कि एक दिन उनके विचारों की राज्य प्रबंधन व्यवस्था पूरा देश स्वीकार कर लेगा।  इन जनवादी बुद्धिमानों का यह यकीन था कि वह एक दिन पूरे देश में लाल रंग फैला देंगे।

        अध्यात्मिक ज्ञानियों की दृष्टि में उनका विचार हमेशा ही सामाजिक सरोकारों से परे रहा है। पश्चिम बंगाल में सत्ता और जनवादियों का संयुक्त वर्चस्व लंबे समय तक रहा पर वहां को समाज फिर भी देश के ढांचे पर ही चला।  भारत में लोकतंत्र है इसलिये हमेशा ही किसी एक राज्य प्रबंधन विचाराधारा का लंबे समय तक चलना संभव नहीं है।  यही बंगाल में हुआ जब जनवादियों की प्रिय प्रबंधन विचारधारा भी पराजित हुई।  अब जनवादी बुद्धिमान बिना राज्य के सहयोग के मैदान संभाल रहे हैं और उनको इस बात का अफसोस है कि उनके पास आम भीड़ के पास अपनी बौद्धिक शक्ति का प्रमाण पेश करने का साधन नहीं है।   राज्य का समर्थन, धन और प्रतिष्ठा यह तीनों न हो तो आम मनुष्य में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने में कठिनाई होती  है।  जनवादियों के पास अब केवल अपनी विचार शक्ति ही बची है जिसके सहारे वह अपना अभियान चलाये हुए है।

   उनकी विचार शक्ति हमेशा ही राज्य पद, पैसे और प्रतिष्ठा के इर्दगिर्द ही घूमती है।  वह समाज में सभी को समान देखना चाहते हैं और अध्यात्मिक ज्ञान साधकों के लिये यह एक कभी पूरा न होने वाला सपना है।  जनवादी समाज के हर विषय में राज्य का हस्तक्षेप चाहते हैं। उनका मानना है कि समाज में सभी बुद्धिमान नहीं है इसलिये उनके समानता लाने का काम राज्य को करना चाहिये।  राज्य उनकी दृष्टि में एक श्वेत संस्था है।  उसमें सक्रिय लोगों के अज्ञानी, भ्रष्ट और अकुशल होने की कोई संभावना नहीं है-यह अलग बात है जिस व्यवस्था के प्रबंधन से  उनका मतभेद है उस पर इसी तरह के आरोप वह लगाते हैं।  जनवादी बुद्धिमानों  की यह राज्य के हमेशा पवित्र और श्वेत सोच उनको अयथार्थवादी बनाती है तो जो प्रबंधन उनकी  विचाराधारा से अलग चलता है उसके प्रति आक्रोशित करता है।  वह अपना आक्रोश अहिंसक तरीकेि से प्रचार माध्यमों में व्यक्त करते हैं पर उनके अनुयायी उससे आगे जाकर हिसक भी हो जाते हैं।  यह हिंसक तत्व समाज में कोई बदलाव नहीं ला सकते पर उनके विचारों में अपना प्रतिबिंब देखकर यह बुद्धिमान प्रसन्न होते है।

         देखा जाये तो साहित्यकारों में कुछ लिपिक तरह के भी होते हैं।  वह समाज में घटित किसी घटना को जस का तस अपनी रचना बना लेते हैं।  कुछ जोड़ते हैं कुछ घटाते हैं।  उनकी रचनायें किसी समस्या को उबारती हैं पर निष्कर्ष नहीं प्रस्तुत करती। उनको इनाम भी मिलते हैं। इससे उनका मनोबल इतना बढ़ जाता है कि अपने विचार को वह इस कदर प्रमाणित मान लेते है कि उससे प्रथक चलने वाले शेष  समाज को  बुद्धिहीन घोषित कर देते हैं।  उनके विचारों में दोहरापन है। एक तरफ वह समाज पर इसलिये राज्य का कठोर  नियंत्रण  देखना चाहते हैं कि सभी लोग बुद्धिमान नहीं है पर अपनी रचनाओं में निष्कर्ष प्रस्तुत न कर यह आशा करते हैं कि समाज स्वयं ही हल निकाले।

         सच बात तो यह है कि ऊपर हमने लिखा था कि भारतीय समाज में सांसरिक, भाषाई तथा धार्मिक संस्कारों की दृष्टि से  भिन्नता है पर  अध्यात्मिक दृष्टि से पूरा समाज एक है।  यही बात इस भिन्नता को खत्म कर देती है।  भारतीय अध्यात्म में श्रीवृद्धि करने वाले सभी परम पुरुष सभी जगह पूजे जाते हैं।  इसलिये भारतीय अध्यात्म विषय से परे होकर लिखने और सोचने वाले चाहे जितने भी अपने वैज्ञानिक विचारों को अंतिम सत्य माने पर उसे दूसरे लोग स्वीकार नहीं करते।  भारतीय अध्यात्म में राज्य, परिवार और व्यक्ति के संचालन के जो वैज्ञानिक तरीके प्रतिपादित किये गये हैं उनकी तुलना किसी विदेशी विचारधारा से हो ही नहीं सकती।  समाज में मनुष्य के बीच बुद्धि, धन, और ज्ञान के स्तर पर भेद रहेगा पर सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिये,  यह बात हमारा ही अध्यात्म दर्शन कहता है।  यह अलग बात है कि हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं के साहित्य के कुछ महानुभाव यह श्वेत धारा भी प्रवाहित करते हैं कि सभी लोग समान हो जायें तो समाज की दृष्टि भी समान हो जायेगी।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com