Tag Archives: हिन्दी पत्रिका

चमचागिरी से ही बन जाती है चाट-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (chamchagiri se ban jati hai chat-hindi satire poem)


जिंदगी में सफलता के लिये
अब पापड़ नहीं बेलने पड़ते हैं
  चमचागिरी से ही बन जाती है चाट
बस, बड़े लोगों की दरबार में हाज़िर होकर
उनकी तारीफ में चंद शब्द ठेलने पड़ते हैं ।
——-
 


महंगाई ने इंसान की नीयत को
सस्ता बना दिया है,
पांच सौ और हजार के नोट
छापने के फायदे हैं
इसलिये  बड़े नोट के सायों   ने
बदनीयत लोगों को खरीदकर
थोकबंद जमा कर दिया है।
——–
अपने हाथों से ही सजा देना अपनी छबि
इंसान खो चुके हैं पहचान अच्छे बुरे की।
अपने आप बन रहे सभी मियां मिट्ठू
तारीफों में परोसते बात ऐसी, जो लगे छुरे की।
——–

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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नोटों से भरा है दिल जिनका-हिन्दी कविता (noton se bhara hai dil jinka-hindi poem)


हलवाई कभी अपनी मिठाई नहीं खाते
फिर भी तरोताजा नज़र आते हैं।
बेच रहे हैं जो सामान शहर में
उनकी दवा और सब्जी शामिल हैं जहर में
कहीं न उनके मुंह में भी जाता है
मग़र गज़ब है उनका हाज़मा
ज़हर को अमृत की तरह पचा जाते हैं।
———————–
सुनते हैं हर शहर में
दूध, दही और सब्जी के साथ
ज़हर बिक रहा है,
फिर भी मरने वालों से अधिक
जिंदा लोग घूमते दिखाई दे रहे हैं,
सच कहते हैं कि
पैसे में बहुत ताकत है
इसलिये नोटों से भरा है दिल जिनका
बिगड़ा नहीं उनका तिनका
बेशर्म पेट में जहर भी अमृत की तरह टिक रहा है।
———-

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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भूत केवल भारत में नज़र आता है-हास्य कविता (bharat men bhoot-hasya kavita)


पोते ने दादा से पूछा
‘‘अमेरिका और ब्रिटेन में
कोई इतनी भूतों की चर्चा नहीं करता,
क्या वहां सारी मनोकामनाऐं पूरी कर
इंसान करके मरता है,
जो कोई भूत नहीं बनता है।
हमारे यहां तो कहते हैं कि
जो आदमी निराश मरते हैं,
वही भूत बनते हैं,
इसलिये जहां तहां ओझा भूत भगाते नज़र आते हैं।’’

दादा ने कहा-
‘‘वहां का हमें पता नहीं,
पर अपने देश की बात तुम्हें बताते हैं,
अपना देश कहलाता है ‘विश्व गुरु’
इसलिये भूत की बात में जरा दम पाते हैं,
यहां इंसान ही क्या
नये बनी सड़कें, कुऐं और हैंडपम्प
लापता हो जाते हैं,
कई पुल तो ऐसे बने हैं
जिनके अवशेष केवल काग़ज पर ही नज़र आते हैं,
यकीनन वह सब भूत बन जाते हैं।’’
——–

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हिन्दी के अखबार-हिन्दी दिवस पर व्यंग्य कविता (hindi ke akhbar-hindi diwas par vyangya kavita)


अखबार आज का ही है
खबरें ऐसा लगता है पहले भी पढ़ी हैं
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

ट्रेक्टर की ट्रक से
या स्कूटर की बस से भिड़ंत
कुछ जिंदगियों का हुआ अंत
यह कल भी पढ़ा था
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

भाई ने भाई ने
पुत्र ने पिता को
जीजा ने साले को
कहीं मार दिया
ऐसी खबरें भी पिछले दिनों पढ़ चुके
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

कहीं सोना तो
कहीं रुपया
कहीं वाहन लुटा
लगता है पहले भी कहीं पढ़ा है
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

रंगे हाथ भ्रष्टाचार करते पकड़े गये
कुछ बाइज्जत बरी हो गये
कुछ की जांच जारी है
पहले भी ऐसी खबरें पढ़ी
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

अखबार रोज आता है
तारीख बदली है
पर तय खबरें रोज दिखती हैं
ऐसा लगता है पहले भी भी पढ़ी हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।
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लुटेरों को ज़ागीर मिली-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (luteron ko zagir mili-hindi vyangya kavitaen)


खज़ाना लूटकर लुटेरे
करने लगे व्यापार,
बांटने लगे उधार,
इस तरह साहुकारों और सौदागरों भी
ऊंची जमात में शामिल हो गये,
क्योंकि उन सामंतों को मिला अपना हिस्सा
जिनको ज़माने की जागीर मिली
विरासत में,
इंसानियत के कायदे रहे जिनकी हिरासत में,
उन्होंने दौलत और शौहरत की ख्वाहिश पूरी करने के लिये
दरियादिली के इरादे कब्र में दफन कर दिये,
और तसल्ली कर ली यह सोचकर कि
वह ऊंची जमात की दावतों में जाने के काबिल हो गये।
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पिछड़ता सर्वशक्तिमान अमेरिका-हिन्दी लेख (america behind world level-hindi article)


कोई व्यक्ति कद काठी में ऊंचा हो, अपनी मांसपेशियों से शक्तिशाली दिखता हो, उसने सुंदर वस्त्र पहन रखे हों पर अगर उसके चेहरे पर काले धब्बे हैं आंखों में हमेशा ही निराशा झलकती है और बातचीत में निर्बुद्धि हो तो लोग उसके सामने आलोचनात्म्क बात न कहें पर पीठ पीछे उसके दुर्गुणों की व्याख्या करते है। तय बात है कि उसके शक्तिशाली होने के बावजूद लोग उसे पंसद नहंी करते। यही स्थिति समाजों, समूहों और राष्ट्रों की होती है।
न्यूज वीक पत्रिका के अनुसार दुनियां का सर्वशक्तिमान अमेरिका अब सर्वश्रेष्ठता में 11 वें स्थान पर खिसक गया है। भारत इस मामले में 78 वें नंबर पर है इसलिये उस पर हम हंस नहीं सकते पर जिन लोगों के लिये अमेरिका सपनों की दुनियां की बस्ती है उनके लिये यह खबर निराशाजनक हो सकती है। इस तरह की गणना शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर तथा राजनीतिक वातावरण के आधार पर की गयी है। यकीनन यह सभी क्षेत्र किसी भी देश के विकास का प्रतिबिम्ब होते हैं। हम जब अपने देश की स्थिति पर नज़र डालते हैं तो उसमें प्रशंसा जैसा कुछ नज़र नहीं आता। घोषित और अघोषित रूप से करोड़पति बढ़े हैं पर समाज के स्वरूप में कोई अधिक बदलाव नहीं दिखता।
सड़क पर कारें देखकर जब हम विकास होने का दावा करते हैं तो उबड़ खाबड़ गड्ढों में नाचती हुईं उनकी मुद्रा उसकी पोल खोल देती है। स्वास्थ्य का हाल देखें, अस्पताल बहुत खुल गये हैं पर आम इंसान के लिये वह कितने उपयोगी हैं उसे देखकर निराशा हाथ लगती है। आम इंसान को बीमार होने या घायल होने से इतना डर नहीं लगता जितना कि ऐसी स्थिति में चिकित्सा सहायता न मिल पाने की चिंता उसमें रहती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि विकास का स्वरूप हथियारों के जखीरे या आधुनिक सुविधा के सामानों की बढ़ोतरी से नहीं है। दुनियां का शक्तिशाली देश होने का दावा करने वाला अमेरिका दिन ब दिन आर्थिक रूप से संकटों की तरफ बढ़ता दिखाई देता है मगर शायद उसके भारतीय समर्थक उसे समझ नहीं पा रहे। दूसरी बात हम यह भी देखें कि अधिकतर भारतीयों ने अपनी वहां बसाहट ऐसी जगहों पर की है जहां उनके लिये व्यापार या नौकरी के अवसरों की बहुतायत है। यह स्थान ऐसे क्षेत्रों में हैं जहां अर्थव्यवस्था और शिक्षा के आधुनिक केंद्र है। अमेरिका भारत से क्षेत्रफल में बढ़ा है इसलिये अगर कोई भारतीय यह दावा करता है कि वह पूरे अमेरिका के बारे जानता है तो धोखा दे रहा है और खा भी रहा है, क्योंकि यह लोग यहां रहते हुए भी पूरे भारत को ही लोग नहीं जान पाते और ऐसे ही दूरस्थ स्थानों के बारे में टिप्पणियां करते हैं तब अमेरिका के बारे में उनका ज्ञान कैसे प्रमाणिक माना जा सकता है।
इसके बावजूद कुछ भारतीय हैं जिनका दूरस्थ स्थानों मे जाना होता है और वह अपनी बातों के इस बात का उल्लेख करते हैं कि अमेरिका में कई ऐसे स्थान हैं जहां भारत जैसी गरीबी और पिछड़ेपन के दर्शन होते हैं। फिर एक बात दूसरी भी है कि जब हमारे देश में किसी अमेरिकन की चर्चा होती है तो वह शिक्षा, चिकित्सा, राजनीति, व्यापार या खेल क्षेत्र में शीर्ष स्तर पर होता है। वहां के आम आदमी की स्थिति का उल्लेख भारतीय बुद्धिजीवी कभी नहीं करते। जबकि सत्य यह है अपने यहां आकर संपन्न हुए विदेशियों से अमेरिकी नागरिक बहुत चिढ़ते हैं और उन पर हमले भी होते हैं इसके समाचार कभी कभार ही मिलते हैं।
इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय बुद्धिजीवी अमेरिका को स्वर्ग वैसे ही दिखाया जाता रहा है जैसे कि धार्मिक लोग अपने अपने समूहों को दिखाते हैं।
अमेरिका के साथ कनाडा का भी बहुत आकर्षण भारत में दिखाया जाता है जबकि यह दोनों इतने विशाल देश है कि इनके कुछ ही इलाकों में भारतीय अधिक तादाद में हैं और जहां उनकी बसाहट है उसके बारे में ही आकर्षण जानकारी मिल पाती है। जहां गरीबी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, स्वास्थ्य चिकित्साओं का अभाव तथा बेरोजगारी है उनकी चर्चा बहुत कम होती है।
इस विषय पर एक जोरदार चर्चा देखने को मिली।
अमेरिका से लौटे एक आदमी ने अपने मित्र को बताया कि ‘मैं अपने अमेरिका के एक गांव में गया था और वहां भारत की याद आ रही थी। वहां भी बच्चे ऐसे ही घूम रहे थे जैसे यहां घूमते हैं। वह भी शिक्षा का अभाव नज़र आ रहा था।’
मित्र ने पूछा-‘पर वह लोग तो अंग्रेजी में बोलते होंगे।’
मित्र ने कहा-‘हां, उनकी तो मातृभाषा ही अंग्रेजी है।’
तब वह आदमी बोला-‘अरे, यार जब उनको अंग्रेजी आती है तो अशिक्षित कैसे कहे जा सकते हैं।’
दूर के ढोल सुहावने होते हैं और मनुष्य की संकीर्णता और अज्ञान ही इसका कारण होता है। अमेरिका हो या भारत मुख्य समस्या प्रचार माध्यमों के रवैये से है जो आम आदमी को परिदृश्य से बाहर रखकर चर्चा करना पसंद करते हैं। अनेक लोग अमेरिकी व्यवस्था पर ही भारत को चलाना चाहते हैं और चल भी रहा है, ऐसे में जिन बुराईयों को अपने यहां देख रहे हैं वह वहां न हो यह संभव नहीं है। कुछ सामाजिक विशेषज्ञ तो सीधे तौर पर भौतिक विकास को अपराध की बढ़ती संख्या से जोड़ते हैं। हम भारत में जब विकास की बात करते हैं तो यह विषय भी देखा जाना चाहिये।
आखिरी बात यह कि दुनियां का सर्वशक्तिमान कहलाने वाला अमेरिका जब सामाजिक विकास के स्तंभ कहलाने वाले क्षेत्रों में पिछड़ गया है तो हम भारत को जब अगला सर्वशक्तिमान बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं तो यकीनन इस 78 वें स्थान से भी गिरने के लिये तैयार होना चाहिए।
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आधुनिक लोकतंत्र के सिद्ध-हिन्दी व्यंग्य (adhunik loktantra ke siddh-hindi vyangya


फिलीपीन के राजधानी मनीला में एक बस अपहरण कांड में सात यात्री मारे गये और दुनियां भर के प्रचार माध्यम इस बात से संतुष्ट रहे कि बाकी को बचा लिया गया। इस बस का अपहरण एक निलंबित पुलिस अधिकारी ने किया था जो बाद में मारा गया। पूरा दृश्य देखकर ऐसा लगा कि जैसे तय कर लिया गया था कि दुनियां भर के प्रचार माध्यमों को सनसनी परोसनी है भले ही अंदर बैठे सभी यात्रियों की जान चली जाये जो एक निलंबित पुलिस अधिकारी के हाथ में रखी एक 47 के भय के नीचे सांस ले रहे थे। एक आसान से काम को मुश्किल बनाकर जिस तरह संकट से निपटा गया वह कई तरह के सवाल खड़े करता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडमस्मिथ ने कहा था कि ‘लोकतंत्र में क्लर्क राज्य करते हैं।’ यह बात उस समय समझ में नहीं आती जब शैक्षणिक काल में पढ़ाई जाती है। बाद में भी तभी समझ में आती है जब थोड़ा बहुत चिंतन करने की क्षमता हो। वरना तो क्लर्क से आशय केवल फाईलें तैयार करने वाला एक लेखकर्मी ही होता है। उन फाईलों पर हस्ताक्षर करने वाले को अधिकारी कहा जाता है जबकि होता तो वह भी क्लर्क ही है। अगर एडमस्मिथ की बात का रहस्य समझें तो उसका आशय फाईलों से जुड़े हर शख्स से था जो सोचता ही गुलामों की तरह है पर करता राज्य है।
अपहर्ता निलंबित पुलिस अधिकारी ने अपनी नौकरी बहाल करने की मांग की थी। बस में पच्चीस यात्री थे। उसमें से उसने कुछ को उसने रिहा किया तो ड्राइवर उससे आंख बचाकर भाग निकला। उससे दस घंटे तक बातचीत होती रही। नतीजा सिफर रहा और फिर फिर सुरक्षा बलों ने कार्यवाही की। बस मुक्त हुई तो लोगों ने वहां जश्न मनाया। एक लोहे लंगर का ढांचा मुक्त हो गया उस पर जश्न! जो मरे उन पर शोक कौन मनाता है? उनके अपने ही न!
संभव है पुलिस अधिकारी की नाराजगी को देखते हुए कुछ बुद्धिजीवी उसका समर्थन भी करें पर सवाल यहां इससे निपटने का है।
अपहर्ता ने बस पकड़ी तो उससे निपटने का दायित्व पुलिस का था मगर उसकी मांगें मानने का अधिकार तो नागरिक अधिकारियों यानि उच्च क्लर्कों के पास ही था। आखिर उस अपहर्ता से दस घंटे क्या बातचीत होती रही होगी? इस बात को कौन समझ रहा होगा कि एक पूर्व पुलिस अधिकारी के नाते उसमें कितनी हिंसक प्रवृत्तियां होंगी। चालाकी और धोखे से उसका परास्त किया जा सकता था मगर पुलिस के लिये यह संभव नहीं था और जो नागरिक अधिकारी यह कर सकते थे वह झूठा और धोखा देने वाला काम करने से घबड़ाते होंगे।
अगर नागरिक अधिकारी या क्लर्क पहले ही घंटे में उससे एक झूठ मूठ का आदेश पकड़ा देते जिसमें लिखा होता कि ‘तुम्हारी नौकरी बहाल, तुम्हें तो पदोन्नति दी जायेगी। हमने पाया है कि तुम्हें झूठा फंसाया गया है और ऐसा करने वालों को हमने निलंबित कर दिया है। यह लो उनके भी आदेश की प्रति! तुम्हें तो फिलीपीन का सर्वोच्च सम्मान भी दिया जायेगा।’
उसके निंलबन आदेश लिखित में थे इसलिये उसे लिखा हुआ कागज देकर ही भरमाया जा सकता था। जब वह बस छोड़ देता तब अपनी बात से पलटा जा सकता था। यह किसने कहा है कि अपनी प्रजा की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख या उसके द्वारा नियुक्त क्लर्क-अजी, पद का नाम कुछ भी हो, सभी जगह हैं तो इसी तरह के लोग-झूठ नहीं बोल सकते। कोई भी अदालत इस तरह का झूठ बोलने पर राज्य को दंडित नहीं  कर सकती। पकड़े गये अपराधी को उल्टे सजा देगी वह अलग विषय है।
हम यह दावा नहीं करते कि अपराधी लिखित में मिलने पर मान जाता पर क्या ऐसा प्रयास किया गया? कम से कम यह बात तो अभी तक जानकारी में नहीं आयी।
किसी भी राज्य प्रमुख और उसके क्लर्क को साम, दाम, दण्ड और भेद नीति से काम करने का प्राकृतिक अधिकार प्राप्त है। अपनी प्रजा के लिये छल कपट करना तो राष्ट्रभक्ति की श्रेणी में आता है। मगर यह बात समझी नहीं गयी या कुछ होता दिखे इस प्रवृत्ति के तहत दस घंटे तक मामला खींचा गया कहना कठिन है।
बात केवल फिलीपीन की नहीं  पूरी दुनियां की है। सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस की है। नीतिगत निर्णय क्लर्क-जिनको हस्ताक्षर करने का अधिकार है उन क्लर्कों को अधिकारी कह कर बुलाया जाता है-लेते हैं। सजायें अदालतें सुनाती हैं। ऐसे में आपात स्थिति में संकट के सीधे सामने खड़ा पुलिस कर्मी दो तरह के संकट में होता है। एक तो यह कि उसके पास सजा देने का हक नहीं है। गलत तरह का लिखित आश्वासन देकर अपराधी को वह फंसा नहीं सकता क्योंकि वह उस पर यकीन नहीं करेगा यह जानते हुए कि कानून में उसके पास कोई अधिकारी नहीं है और बिना मुकदमे के दंड देने पर पुलिस कर्मचारी खुद ही फंस सकता हैै।
ऐसे में आधुनिक लोकतंत्र में क्लर्कों का जलजला है। संकट सामने हैं पर उससे निपटने का उनका सीधा जिम्मा नहीं है। मरेगा तो पुलिस कर्मचारी या अपराधी! इसलिये वह अपनी कुर्सी पर बैठा दर्शक की तरह कुश्ती देख रहा होता है। बात करने वाले क्लर्क भी अपने अधिकार को झूठमूठ भी नहीं छोड़ सकते। वह कानून का हवाला देते हैं ‘हम ऐसा नहीं कर सकते।’
जहां माल मिले वहां कहते हैं कि ‘हम ही सब कर सकते हैं’
पूरी दुनियां में अमेरिका और ब्रिटेन की नकल का लोकतंत्र है। वहां राज्य करने वाले की सीधी कोई जिम्मेदारी नहीं है। यही हाल अर्थव्यवस्था का है। कंपनी नाम का एक दैत्य सभी जगह बन गया है जिसका कोई रंग रूप नहीं है। जो लोग उन्हें चला रहे हैं उन पर कोई प्रत्यक्ष आर्थिक दायित्व नहीं है। यही कारण है कि अनेक जगह कंपनियों के चेयरमेन ही अपनी कंपनी को डुबोकर अपना घर भरते हैं। दुनियां भर के क्लर्क उनसे जेबे भरते हैं पर उनका नाम भी कोई नहीं ले सकता।
ऐसे में आतंकवाद एक व्यापार बन गया है। उससे लड़ने की सीधी जिम्मेदारी लेने वाले विभाग केवल अपराधियों को पकड़ने तक ही अपना काम सीमित रखते हैं। कहीं अपहरण या आतंक की घटना सामने आये तो उन्हें अपने ऊपर बैठे क्लर्कों की तरफ देखना पड़ता है जो केवल कानून की किताब देखते हैं। उससे अलग हटकर वह कोई कागज़ झूठमूठ भी तैयार नहीं कर सकते क्योंकि कौन उन पर सीधे जिम्मेदारी आनी है। जब घटना दुर्घटना में बदल जाये तो फिर डाल देते हैं सुरक्षा बलों पर जिम्मेदारी। जिनको रणनीति बनानी है वह केवल सख्ती से निपटने का दंभ भरते हैं। ऐसे में इन घटनाओं में अपनी नन्हीं सी जान लेकर फंसा आम इंसान भगवान भरोसे होता है।
मनीला की उस अपहृत बस में जब सुरक्षा बल कांच तोड़ रहे थे तब देखने वालों को अंदर बैठे हांगकांग के उन पर्यटकों को लेकर चिंता लगी होगी जो भयाक्रांत थे। ऐसे में सात यात्री मारे गये तो यह शर्मनाक बात थी। सब भी मारे जाते तो भी शायद लोग जश्न मनाते क्योंकि एक अपहृता मरना ही उनके लिए खुशी की बात थी। फिर अंदर बैठे यात्री किसे दिख रहे थे। जो बचे वह चले गये और जो नहीं बचे उनको भी ले जाया गया। आज़ाद बस तो दिख रही है।
अब संभव है क्लर्क लोग उस एतिहासिक बस को कहीं रखकर वहां उसका पर्यटन स्थल बना दें। आजकल जिस तरह संकीर्ण मानसिकता के लोग हैं तुच्छ चीजों में मनोरंजन पाते हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि यकीनन उस स्थल पर भारी भीड़ लगेगी। हर साल वहां मरे यात्रियों की याद में चिराग भी जल सकते हैं। उस स्थल पर नियंत्रण के लिये अलग से क्लर्कों की नियुक्ति भी हो सकती है। कहीं  उस स्थल पर कभी हमला हुआ तो फिर पुलिस आयेगी और कोई एतिहासिक घटना हुई तो उसी स्थान पर एक ही साल में दो दो बरसियां मनेंगी।
आखिरी बात यह कि अर्थशास्त्री एडस्मिथ अमेरिका या ब्रिटेन का यह तो पता नहीं पर इन दोनों  में से किसी एक का जरूर रहा था और उसने इन दोनों की स्थिति देखकर ही ऐसा कहा होगा। अब जब पूरे विश्व में यही व्यवस्था तो कहना ही पड़ता है कि गलत नहीं कहा होगा। आधुनिक लोकतंत्र में क्लर्क ही सिद्ध होते हैं।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बरसात का पानी और पैसे का खेल-हास्य कविताएँ (barsat ka pani aur paise ka khel-hasya kavitaen))


बच्चे को मैदान पर हॉकी खेलते देख
पुराने एक खिलाड़ी ने उससे कहा
‘‘बेटा, बॉल से हॉकी कुछ समय तक
तक खेलना ठीक है,
फिर कुछ समय बाद पैसे का खेल भी सीख,
अगर केवल हॉकी खेलेगा  तो
बाद में मांगेगा भीख।’’
———-
बरसात के पानी से मैदान भर गया
खिलाड़ी दुःखी हो गये
पर प्रबंधक खुश होकर कार्यकर्ताओं में मिठाई बांटने लगा
जब उससे पूछा गया तो वह बोला
‘‘अरे, यह सब बरसात की मेहरबानी है,
मैदान बनाने के लिये फिर मदद आनी है।
वैसे ही मैदान ऊबड़ खाबड़ हो गया था,
पैसा तो आया
पर कैसे खर्च करूं समझ नहीं पाया,
इधर उधर सब बरबाद हो गये,
इधर जांच करने वाले भी आये थे
तो जैसे मेरे होश खो गये,
अब तो दिखाऊंगा सारी बरसात की कारिस्तानी,
हो जायेगा फिर दौलत की देवी की मेहरबानी,
धूप फिर पानी सुखा देगी
अगर फिर बरसात हुई तो समझ लो
अगली किश्त भी अपने नाम पर आनी है,
तुम खाओ मिठाई
मुझे तो बस किसी तरह कमीशन खानी है।
———

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चेलागिरी-हिन्दी हास्य व्यंग्य (guru aur chela-hasya vyangya)


गुरुजी के पुराने भूतहे आश्रम  में आते ही चेले ने अपने बिना प्रणाम गुरु जी से कहा-‘गुरूजी जी आज आपकी सेवा में अंतिम दिन है। कल से नये गुरू की चेलागिरी ज्वाइन कर रहा हूं, सो आशीर्वाद दीजिये कि उनकी सेवा पूरे हृदय से कर सकूं और मुझे जीवन में मेवा मिल सके।’
सुबह सुबह यह बात सुनकर गुरूजी का रक्तचाप बढ़ गया। शरीर पसीने से नहा उठा। वह उनका इकलौता चेला था जिसकी वजह से लोग उनको गुरुजी की पदवी प्रदान करते थे। अगर वह इकलौता चेला उनको छोड़कर चला गया तो साथ ही उनकी गुरूजी की पदवी भी जानी थी। बिना चेले भला कौन गुरु कहला सकता है। उन्होंने चेले से कहा-‘यह क्या किसी कंपनी की नौकरी है जो छोड़कर जा रहा है। अरे, कोई  धर्म कर्म को व्यापार समझ रखा है जो नये गुरू की सेवा ऐसे ज्वाइन कर रहा है जैसे नई कंपनी प्रमोशन देकर बुला रही है। तू तो ऐसे बोल रहा है जैसे किसी कंपनी का प्रबंधक अपने प्रबंध निदेशक से बात करता है। सुबह सुबह क्या स्वांग रचा लिया है जो आज धमका रहा है। जो थोड़ी बहुत गुरु दक्षिण आती है उसमें से तुझे ईमानदारी से हिस्सा देता हूं। कभी कभी कोई दो लड्डू चढ़ाकर जाता है तो उसमें से भी आधा तेरे लिये बचा रखता हूं। अभी डेढ़ लड्डू खा जाता हूं अगर चाहूं तो पौने दो भी खा सकता हूं पर मैं ऐसा नहीं कर सकता। इतना ख्याल तेरा कौन रखेगा।’
चेला बोला-‘आपको इस नई दुनियां का नहीं पता। यह धर्म कर्म भी अब व्यापार हो गये है। आश्रम कंपनियों की तरह चल रहे हें। आपका यह पुराना आश्रम पहले तो फ्लाप था अब तो सुपर फ्लाप हो गया है। वह तो में एक था जो किसी नये अच्छे गुरू के इंतजार में आपकी शरण लेता रहा। अब तो फायदा वाले बाबा ने मुझे निमंत्रण भेजा है अपनी चेलागिरी ज्वाइन करने के लिये।’
गुरुजी हैरान रह गये-अरे, यह फायदा वाले बाबा तो बड़े ऊंचे हैं, भला तुझे कैसे निमंत्रण भेजा है? दूसरे हिट बाबाओं को चेले मर गये हैं क्या? सुन इस चक्कर में मत पड़ना। पहली बात तो उनके फाइव स्टार आश्रम में तेरा प्रवेश ही कठिन है फिर चेलागिरी ज्वाइन करने का तो सवाल ही नहीं।‘
चेले ने कहा ‘क्या बात करते हैं आप! इस गुरूपूर्णिमा के दिन वह मुझे दीक्षा देने वाले हैं। अब उनका धंधा बढ़ा गया है और उनको योग्य शिष्यों की जरूरत है। उनमें काले धन को सफेद करने का जो चमत्कार है उसकी वजह से उनको खूब चढ़ावा आता है। उसे संभालने के लिये उनको योग्य लोग चाहिऐं।’
गुरूजी ने कहा-‘भला तुझे काले धन को सफेद करने का कौनसा अभ्यास है?’
चेले ने कहा-‘धन है ही कहां जो सफेद कर सकूं। जब धन आयेगा तो अपने आप सारा ज्ञान प्राप्त होगा। कम से कम आपको इस बात पर थोड़ा शर्मिंदा तो होना चाहिए कि आपके पास कोई काला धन लेकर नहीं आया जिसे आप सफेद कर सकते जिससे मुझे भी अभ्यास हो जाता। वैसे मै वहां काम सीखकर आपके पास वापस भी आ सकता हूं ताकि आपकी गुरुदक्षिणा चुका सकूं।’’
चेला चला गया और गुरुजी अपने काम में लीन हो गये यह सोचकर कि ‘अभी तो फ्लाप हूं शायद लौटकर चेला हिट बना दे। कहीं गुरू गुड़ रह जाता है तो चेला शक्कर बनकर अपने गुरू को हिट बना देता है।’
कुछ दिन बात चेला रोता बिलखता और कलपता हुआ वापस लौटा और बोला-‘’गुरूजी, मैं लुट गया, बरबाद हो गया। आपके नाम पर मैंने अनेक लोगों से चंदा वसूल कर एक लाख एकत्रित किया था वह उस गुरू के एक फर्जी चेले ने ठग लिया। मुझे उसके एक चेले ने कहा कि गुरुजी को एक लाख रुपये दो और दो महीने में दो लाख करके देंगे। वह मुझे गुरूजी के पास ले भी गया। उन्होंने मुझे आशीवार्द भी दिया। बोले कुछ नहीं पर गुरूजी का चेला मुझसे बोला कि जब दो लाख देने के लिये बुलवायेंगे तभी से अपनी चेलागिरी भी प्रदान करेंगे। दो महीने क्या छह महीने हो गये। मैं आश्रम में गया तो पता लगा कि कोई ऐसा ही फर्जी चेला था जो आश्रम आता रहता था। फायदा वाले बाबा के पास कुछ अन्य लोगों को पास ले जाता और आशीर्वाद दिला देता। बाकी वह क्या करता है मालुम नहीं! हम सब बाबा के पास गये तो वह बोले‘कमबख्तों काले धन को सफेद करते उसका चूरमा बन जाता है। वह रकम बढ़ती नहीं घटकर मिलती है, ताकि उसे काग़जों में दिखाया जा सके। तुम लोगों के पहले के कौन गुरू हैं जो तुम्हें इतना भी नहीं समझाया’। अब तो आपकी शरण में आया हूं। मुझे चेलागिरी में रख लें।’’
गुरूजी ने कहा-‘फायदा वाले बाबा को यह नहीं बताया कि तुम्हारे गुरू कौन हैं?’
चेला बोला-‘‘बताया था तो वह बोले ‘कमबख्त! तुम्हारा धन तो काला ही नहीं था तो सफेद कैसे होता’, वैसे तुम्हारी ठगी का वैसा ठगी में गया’।’’
गुरूजी ने कहा-‘अब भई तू किसी तीसरे गुरू की शरण ले, तेरी जगह बाहर चाय की दुकान कााम करने वाले लड़के को पार्ट टाईम चेलागिरी का काम दे दिया है। वह भी मेरे नाम से इधर उधर से दान वसूल कर आता है पर कुछ हिस्सा देता है, तेरी तरह नहीं सौ फीसदी जेब में रख ले। वैसे वह कह रहा है कि ‘काले धन को सफेद करने का काम भी जल्दी शुरू करूंगा’, वह तो यह भी दावा कर रहा है कि इस आश्रम का सब कुछ बदल डालूंगा।’
चेले ने कहा-‘गुरुजी, कहीं वह यहां गुरूजी भी तो नहीं बदल डालेगा।’
गुरूजी एकदम करवट बदलकर बैठ गये और बोले-‘कैसी बातें कर रहा है। गुरूजी तो मैं ही रहूंगा।’
चेले ने कहा-‘गुरूजी, यह माया का खेल है। जब वह कह रहा है कि ‘सब कुंछ बदल डालूंगा तो फिर गुरूजी भी वही आदमी कैसे रहने देगा। ऐसे में आप मुझे दोबारा शरण में लें ताकि उस पर नज़र रख सकूं।’’
गुरूजी सोच में पड़ गये और बोले-‘मुश्किल यह है कि काले धन को सफेद करने का धंधा कभी मैंने किया नहीं। इसलिये उस पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। ठीक है तू अब उपचेला बन कर रह जा।’
चेले ने कहा-‘गुरूजी आप महान हैं जो उपचेला के पद पर ही पदावनत कर रख रहे हैं वरना तो मैं सफाई करने वाला बनकर भी आपकी सेवा करता रहूंगा। आपने न सिखाया तो क्या आपके नये चेले से काला धन सफेद करने का चमत्कार सीख लूंगा।’
इस तरह काले धन का सफेद करने के मामले पर दोनों ने अपने संबंध पुनः जोड़ लिये और उनको इंतजार है कि नया चेला कब से यह काम शुरू करता है।’

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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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तबादला-हिन्दी हास्य कविता (tabadla-hindi shaya kavita


अपने तबादले से वह खुश नहीं थे,
क्योंकि नयी जगह पर
ऊपरी कमाई के अवसर कुछ नहीं थे,
इसलिये अपने बॉस के जाकर बोले,
‘‘मैंने तो आपकी आज्ञा का पालन
हमेशा वफादार की तरह किया,
मेरी टेबल पर जो भी तोहफा आया
बाद में डाला अपनी जेब में
आपका हिस्सा पहले आपके हवाले किया,
यह आप मेरे पेट पर क्यों मार रहे लात,
जो तबादले की कर दी घात।’’

बॉस ने रुंआसे होकर कहा
‘‘शायद तुम्हें पता नहीं
तुम्हारी वज़ह से मेरे ऊपर भी
संभावित जांच की तलवार लटकी है,
प्रचार वालों की नज़र अब तुम पर भी अटकी है,
जब आता है अपने पर संकट
तब शिकार के रूप में पेश
अपना वफ़ादार ही किया जाता है,
दाना दुश्मन से निपटते हैं बाद में
पहले नांदा दोस्त मिटाया जाता है,
तुम्हारे सभी जगह चर्चे हैं,
कि जितनी आमदनी है
उससे कई गुना घर के खर्चे हैं,
भला कौन बॉस सहन कर सकता है
अपने मातहत से अपनी तुलना,
बता रहे हैं लोग तुमको मेरे बराबर अमीर
तुम भी अब जाकर सुनना,
अधिकारी के अगाड़ी तुम चल रहे थे,
जैसे हम तुम्हारे हिस्से पर ही पल रहे थे,
एक तो छोटे के पिछाड़ी चलना मुझे मंजूर न था,
फिर तुम्हारी वज़ह से
हमारी मुसीबत का दिन भी दूर न था,
इसलिये तुम्हारा तबादला कर दिया,
अपने वफादार भी हम नहीं कृपालु
यह साबित कर
बदनामी से बचने के लिये रफादफा मामला कर दिया,
तुम्हारी वफदारी का यह है इनाम,
बर्खास्तगी का नहीं किया काम,
तबादले पर ही खत्म कर दी बात।
———

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इश्क गुरु की महिमा-हिन्दी हास्य कविता (ishq guru ki mahima-hasya kavita)


आशिक ने माशुका से कहा
‘कल गुरूपूर्णिमा है
इसलिये तुमसे नहीं मिल पाऊंगा,
जिसकी कृपा से हुआ तुमसे मिलन
उस गुरु से मिलने
उनके गुप्त अड्डे पर जाऊंगा,
क्योंकि उन पर एक प्रेम प्रसंग को लेकर
कसा है कानून का शिकंजा
पड़ सकता है कभी भी उन पर धाराओं का पंजा
इसलिये इधर उधर फिर रहे हैं,
फिर भी चारों तरफ से घिर रहे हैं,
उन्होंने ही मुझे तुमसे प्रेम करने का रास्ता बताया,
इसलिये तुम्हें बड़ी मुश्किल से पटाया,
वही प्रेम पत्र लिखवाते थे,
बोलने का अंदाज भी सिखाते थे,
जितनी भी लिखी तुम्हें मैंने शायरियां,
अपने असफल प्रेम में उनसे ही भरी थी
मेरे गुरूजी ने अपनी डायरियां,
इसलिये कल मेरी इश्क से छुट्टी होगी।’

सुनकर भड़की माशुका
और लगभग तलाक की भाषा में बोली
‘अच्छा हुआ जो गुरुजी की महिमा का बखान,
धन्य है जो पूर्णिमा आई
हुआ मुझे सच का भान,
कमबख्त, इश्क गुरु से अच्छा किसी
अध्यात्मिक गुरु से लिया होता ज्ञान,
ताकि समय और असमय का होता भान,
मैं तो तुम्हें समझी थी भक्त,
तुम तो निकले एकदम आसक्त,
मंदिर में आकर तुमने मुझे अपने
धार्मिक होने का अहसास दिलाया,
मगर वह छल था, अब यह दिखाया,
कविता की बजाय शायरियां लिखते थे,
बड़े विद्वान दिखते थे,
अपनी और गुरुजी की असलियत बता दी,
इश्क की फर्जी वल्दियत जता दी,
इसलिये अब कभी मेरे सामने मत आना
कल से तुम्हारे इश्क से मेरी कुट्टी,
मैं तुमसे और तुम मुझसे पाओ छुट्टी।।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दरियादिल हो गये तंगदिल-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


प्यार में धोखा नहीं होता तो
सच्चे प्यार की पहचान कैसे होती,
दौस्ती में गद्दारी न होती तो
वफा की कीमत भला क्या होती,
जिंदगी की असलियत जिसने जान ली
उसे दिल के घायल होने की शिकायत नहीं होती।
———
जब तक मतलब था
दरियादिली उन्होंने दिखाई
फिर अचानक लापता हो गये,
हमने उनका पता ढूंढ निकाला
जब मिले दोबारा तो
उनकी तंगदिली देखकर हैरान हुए हम
इससे तो उनकी यादें बेहतर थी
पछताये जो फिर उनके पास गये।
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बरसात के मौसम का दर्शन-हिन्दी व्यंग्य (barsat ke mausam ka darshan-hindi vyangya)


पुरानी लोक कथा है जिसे सभी पढ़ या सुन चुके हैं। एक किसान अपनी दो बेटियों से मिलने गया। एक बेटी किसान के घर में ब्याही थी। वह उससे मिलकर अपने घर जाने को तैयार हुआ तो बेटी ने कहा-‘पिताजी, भगवान से प्रार्थना करिये इस बार बरसात जल्दी और अच्छी हो क्योंकि अब खेतों में बोहनी का समय निकल रहा है।’
किसान ने कहा-‘हां भगवान से प्रार्थना करूंगा कि इस बार अच्छी और जल्दी बारिश हो।’
उसके बाद वह अपनी दूसरी बेटी से मिलने गया तो चलते समय उस बेटी नेे कहा-‘पिताजी, भगवान से प्रार्थना करिये कि अभी बारिश न हो क्योंकि
हमारे मटके धूप में सूखने के लिये रखे हुए हैं अगर पानी पड़ा तो सब बरबाद हो जायेगा। फिर बारिश होते ही उनकी बिक्री भी कम हो जाती है।’
यह तो पुरानी कहानी है जिसमें वर्षा ऋतु को लेकर मनुष्य समाज का अंतर्विरोध दर्शाया गया है पर वर्तमान समय में तो यही अंतर्विरोध एक मनुष्य में ही सिमट गया है और खासतौर से शहरी सभ्यता में तो इसके दर्शन प्रत्यक्ष किये जा सकते हैं।
हमारा घर ऐसी कालोनी में है जिसमें अपनी बोरिंग से ही पानी आता है। पिछले पांच छह वर्षों से गर्मियों में जिस संकट का सामना करना पड़ता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस बार फरवरी से ही संकट प्रारंभ हुआ जो हैरानी की बात थी। पिछली बार बारिश अच्छी हुई थी इसलिये हमें आशा थी कि इस बार पानी का स्तर अधिक नीचे नहीं जायेगा मगर फरवरी से ही संकट प्रारंभ हो गया। पानी पांच मिनट आता फिर बंद हो जाता था। तब बार बार मशीन बंद कर चलाना पड़ता। अप्रैल आते आते यह दो मिनट तक रह गया। जून आते आते एक मिनट तक रह गया। दरअसल हमारा इलाका पानी की बहुलता के लिये जाना जाता है और अनेक कारखाने इसलिये वहां बड़ी बड़ी मशीने लगाकर उसका दोहन करने लगे हैं।
अब समस्या दूसरी थी। अगर बोरिंग खुलवाते हैं तो कमरे में जाने वाला पाईप भी गल चुका है और उसे भी बदलवाना पड़ेगा क्योंकि वहां से हवा पकड़ लेती है। दो साल पहले पाईप दस फुट बढ़वाया था और अब उसमें बढ़ने की संभावना है कि पता नहीं। सोचा जब तक चल रहा है चलने दो। कहीं खुलवाया तो इससे भी न चले जायें। दूसरी बोरिंग खुदवाना इस समय महंगा काम हो सकता है दूसरा यह कि हम भी प्रंद्रह वर्षों से अपनी इस आशा को जिंदा रखते रहे हैं कि कालौनी में सरकारी पानी की लाईन आ जायेगी।
बहरहाल ऐसे में हमें बरसात से ही आसरा था। हर रोज यही लगता था कि आज पानी ने साथ छोड़ा कि अब छोड़ा। पिछले शनिवार जब आकाश में बादल चिढ़ा रहे थे तब तो लग रहा था कि अब पानी भी चिढ़ाने वाला है। आकाश से बादल चले जा रहे और नीचे सूखा। फिर उमस ऐसी कि लगता था कि शायद नरक इसे ही कहा जाता है।
ऐसे में बरसात हुई तो मजा आ गया। उम्मीद है कि कम से कम पानी अभी तत्काल साथ नहीं छोड़ेगा मगर सड़कों क्या करें? रात को घर लौटते हुए घर पहुंचना किसी जंग से कम नहीं लगता। सभी जगह विकास कार्यों की वजह से कीचड़! कई जगह बाई पास मार्ग ढूंढना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह कि अपनी कालोनी की सड़क अब पूरी तरह से मिट्टी वाली हो गयी है और डंबर नाममात्र को भी नहीं है, मगर यही सडक अब एक तरह से पानी संचय का काम करती है क्योकि बाकी जगह तो मकान बन गये हैं। जगह जगह पानी भर गया है पर फिर भी सड़क बन जाये ऐसा ख्याल नहीं आता क्योंकि हमारी मुख्य समस्या तो पानी है।
शाम को घर आते हुए पानी की बूंदे गिर रही थीं, सड़कों से जूझते हुए बढ़ रहे थे पर फिर भी दिल में यह ख्याल नहीं आया कि बरसात बंद हो जाये।
खराब सड़क देखकर चिढ़ आती है कि ‘यहां डंबरीकरण क्यों नहीं हो रहा है’ पर तत्काल अपनी बोरिंग का ख्याल आता है तो सोचते हैं कि बरसात तो कभी कभी न थम जायेगी तो सड़क वैसे ही दिखाई देगी पर अगर पानी नहीं मिला तो सड़क पर ही कहीं जाकर सरकारी स्त्रोत से पानी भरना पड़ेगा।
पिछले ऐसा ही वाक्या हुआ।
एक हमारी जान पहचान के सज्जन है उनके यहां सरकारी नल से पानी आता है। संयोगवश उस दिन बरसात हो रही थी और वह हमारे साथ ही एक दुकान की छत के नीचे आसरा लिये खड़े हुए थे। पता नहीं कैसे वह बड़बड़ाये कि ‘हे भगवान, पानी बंद हो जाये तो घर पहुंच जाऊं।’
पास ही एक ग्रामीण अपनी साइकिल खड़ी करके वहां बैठा बीड़ी पी रहा था। वह बोला-‘भगवान और जोर से बारिस कर।
फिर वह उन सज्जन की तरफ मूंह कर बोला-‘कैसी बात कर रहे हो। हमारे गांव में बोरिंग से पानी बहुत कठिनाई से निकल रहा है। खेत सूखे पड़े हैं और आप हो कि बारिश शुरु हुई नहीं है कि उसे बंद करने की प्रार्थना करने लगे।’
उस ग्रामीण ने बात हमारे मन की कही थी पर हमारे अंदर भी वैसा ही अंतर्द्वंद्व था जैसा कि किसान के मन में बेटियों की वजह से आया होगा।
बहरहाल स्थिति यह है कि सड़कों की हालत यह है कि बरसात के दिनों मे घर से बाहर निकलने की इच्छा ही नही होती। वैसे भी हमारे देश के अध्यात्म दर्शन में वर्षा ऋतु में बाहर निकलना वर्जित किया गया है । वैसे कुछ समय पहले तक कहा जाता था कि वर्तमान समय में सड़कें आदि बन गयी हैं इसलिये अब इस धारा से मुक्ति पायी जानी चाहिए पर जब देश के विभिन्न शहरों की स्थिति देखते हैं तो यह धारा आज भी प्रभावी लगती है क्योंकि डंबरीकृत सड़कें्र एक बरसात में ही बह जाती हैं उस पानी से लबालब सड़क पर कहां सीवर लाईन का गटर है पता नहीं क्योंकि उनमें गिरने वालों की बहुत बड़ी संख्या रहती है-ऐसे समाचार अक्सर आते रहते हें तब लगता है कि वर्षा ऋतु में भारतीय अध्यात्म ज्ञान आज भी प्रासांगिक है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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काग़ज और जुबान-हिन्दी क्षणिकाऐं (kagaz aur juban-hindi short story)


कागज़ की ताकत
आम आदमी की जुबान से बढ़ी है,
वह चाहे कुछ भी बोले
सच है वही कारनामा
जिसकी कलम से लिखापढ़ी है।
———–
शहर में हर जगह कागज़    पर सड़क बन गयी,
सभी गांवों मे तालाब खुद गया,
और हर कालोनी में हराभरा पार्क खिलाखिलाता
नज़र आया।
शायद आम आदमी आंखों से देख नहीं पाते
वरना तो हर अखबार की
छपी रिपोर्टों में सुखद समाचारों का
झुंड हर रोज आया।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अंग्रेजी की सनसनी हिन्दी में-व्यंग्य कवितायें


हिन्दी में सनसनी खेज खबर भी
अंग्रेजी अखबार से ही क्यों आती है,
जो हिन्दी में हो
वह सनसनी क्यों नहीं बन पाती है।
डरे हुए हैं बंधुआ कलम मजदूर
उनकी कमजोरी
शायद परायी भाषा में छिप जाती है।
———
मखमली विकास तक ही
उनकी नज़र जाती है,
जहां पैबंद लगे हैं अभावों के
वहां पर आंखें बंद हो जाती हैं।
देसी गुलामों का नजरिया
विदेशी शहंशाहों को यहां गिरवी हैं,
जहां दलाली मिलती है
वहां जुबान दहाड़ती है
नहीं तो तालू से चिपक जाती है।
———

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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