Tag Archives: हिंदी आलेख

भारतीय साहित्य में महाश्वेतधारा के स्वप्न-हिंदी लेख चिंत्तन


         पश्चिम बंगाल की एक साहित्यकारा का यह तर्क हैरान करने वाला है कि नक्सलवाद फैलाने वालों को भी सपने देखने का हक है।   हम यह तो मानते हैं कि सभी लोगों को सपने देखने का हक है पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि कानून तोड़ने या बंदूक से दूसरे को मारने पर भी वह बने रहने दिया जाये।  एक बात तय रही कि बंदूक थामने वाला अपने विरोधी की बोलने की आजादी तो छोड़िये उसका जिंदा रहने का अधिकार भी नहीं स्वीकारता।  ऐसे में उसके सपने देखने के हक की बात कोई सात्यिकार करने लगे तो समझिये उसे अपने लेखकीय अहंकार से उपजी आत्मुग्धता के भाव ने धर दबोचा  है या अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव की अनुभूति ने कुंठित कर दिया है।

        पश्चिम बंगाल में कुछ साहित्यकार हमारी दृष्टि से गजब के हुए हैं।  इनमें शरत चंद्र और पूर्णिमा देवी के उपन्यास हमारे मन को भी बहुत भाये हैं।  पूर्णिमा देवी का स्वर्णलता उपन्यास एक अत्यंत रोचक रचना है।  एक बात निश्चित है कि पश्चिम बंगाल के लेखकों  की प्रसिद्ध रचनायें  बंगाल की सामाजिक  पृष्ठभूमि पर आधारित हैं।  उनकी रोचकता इसलिये भी अधिक बढ़ जाती है क्योंकि वहां की कुछ परंपरायें संपूर्ण भारतीय समाज से मेल खाती है। यहां कुछ शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि हम संपूर्ण भारतीय समाज में  सांस्कारिक, भाषाई तथा धार्मिक पंरपराओं में विभिन्नता पाते हैं।  सीधी बात कहें तो किसी भी एक क्षेत्रीय भाषा के साहित्य में संपूर्ण भारतीय समाज को नहीं जोड़ा जा सकता। कहा जाता था कि बंगाल जो आज सोचता है वह पूरा भारत कल सोचता है। यह बात तब कही जाती थी जब वहां जनवादी साहित्यकारों का गढ़ बन गया था।  उनका यह आत्मविश्वास राज्य से  निकटता के कारण बना।  उन्हें लगने लगा कि एक दिन उनके विचारों की राज्य प्रबंधन व्यवस्था पूरा देश स्वीकार कर लेगा।  इन जनवादी बुद्धिमानों का यह यकीन था कि वह एक दिन पूरे देश में लाल रंग फैला देंगे।

        अध्यात्मिक ज्ञानियों की दृष्टि में उनका विचार हमेशा ही सामाजिक सरोकारों से परे रहा है। पश्चिम बंगाल में सत्ता और जनवादियों का संयुक्त वर्चस्व लंबे समय तक रहा पर वहां को समाज फिर भी देश के ढांचे पर ही चला।  भारत में लोकतंत्र है इसलिये हमेशा ही किसी एक राज्य प्रबंधन विचाराधारा का लंबे समय तक चलना संभव नहीं है।  यही बंगाल में हुआ जब जनवादियों की प्रिय प्रबंधन विचारधारा भी पराजित हुई।  अब जनवादी बुद्धिमान बिना राज्य के सहयोग के मैदान संभाल रहे हैं और उनको इस बात का अफसोस है कि उनके पास आम भीड़ के पास अपनी बौद्धिक शक्ति का प्रमाण पेश करने का साधन नहीं है।   राज्य का समर्थन, धन और प्रतिष्ठा यह तीनों न हो तो आम मनुष्य में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने में कठिनाई होती  है।  जनवादियों के पास अब केवल अपनी विचार शक्ति ही बची है जिसके सहारे वह अपना अभियान चलाये हुए है।

   उनकी विचार शक्ति हमेशा ही राज्य पद, पैसे और प्रतिष्ठा के इर्दगिर्द ही घूमती है।  वह समाज में सभी को समान देखना चाहते हैं और अध्यात्मिक ज्ञान साधकों के लिये यह एक कभी पूरा न होने वाला सपना है।  जनवादी समाज के हर विषय में राज्य का हस्तक्षेप चाहते हैं। उनका मानना है कि समाज में सभी बुद्धिमान नहीं है इसलिये उनके समानता लाने का काम राज्य को करना चाहिये।  राज्य उनकी दृष्टि में एक श्वेत संस्था है।  उसमें सक्रिय लोगों के अज्ञानी, भ्रष्ट और अकुशल होने की कोई संभावना नहीं है-यह अलग बात है जिस व्यवस्था के प्रबंधन से  उनका मतभेद है उस पर इसी तरह के आरोप वह लगाते हैं।  जनवादी बुद्धिमानों  की यह राज्य के हमेशा पवित्र और श्वेत सोच उनको अयथार्थवादी बनाती है तो जो प्रबंधन उनकी  विचाराधारा से अलग चलता है उसके प्रति आक्रोशित करता है।  वह अपना आक्रोश अहिंसक तरीकेि से प्रचार माध्यमों में व्यक्त करते हैं पर उनके अनुयायी उससे आगे जाकर हिसक भी हो जाते हैं।  यह हिंसक तत्व समाज में कोई बदलाव नहीं ला सकते पर उनके विचारों में अपना प्रतिबिंब देखकर यह बुद्धिमान प्रसन्न होते है।

         देखा जाये तो साहित्यकारों में कुछ लिपिक तरह के भी होते हैं।  वह समाज में घटित किसी घटना को जस का तस अपनी रचना बना लेते हैं।  कुछ जोड़ते हैं कुछ घटाते हैं।  उनकी रचनायें किसी समस्या को उबारती हैं पर निष्कर्ष नहीं प्रस्तुत करती। उनको इनाम भी मिलते हैं। इससे उनका मनोबल इतना बढ़ जाता है कि अपने विचार को वह इस कदर प्रमाणित मान लेते है कि उससे प्रथक चलने वाले शेष  समाज को  बुद्धिहीन घोषित कर देते हैं।  उनके विचारों में दोहरापन है। एक तरफ वह समाज पर इसलिये राज्य का कठोर  नियंत्रण  देखना चाहते हैं कि सभी लोग बुद्धिमान नहीं है पर अपनी रचनाओं में निष्कर्ष प्रस्तुत न कर यह आशा करते हैं कि समाज स्वयं ही हल निकाले।

         सच बात तो यह है कि ऊपर हमने लिखा था कि भारतीय समाज में सांसरिक, भाषाई तथा धार्मिक संस्कारों की दृष्टि से  भिन्नता है पर  अध्यात्मिक दृष्टि से पूरा समाज एक है।  यही बात इस भिन्नता को खत्म कर देती है।  भारतीय अध्यात्म में श्रीवृद्धि करने वाले सभी परम पुरुष सभी जगह पूजे जाते हैं।  इसलिये भारतीय अध्यात्म विषय से परे होकर लिखने और सोचने वाले चाहे जितने भी अपने वैज्ञानिक विचारों को अंतिम सत्य माने पर उसे दूसरे लोग स्वीकार नहीं करते।  भारतीय अध्यात्म में राज्य, परिवार और व्यक्ति के संचालन के जो वैज्ञानिक तरीके प्रतिपादित किये गये हैं उनकी तुलना किसी विदेशी विचारधारा से हो ही नहीं सकती।  समाज में मनुष्य के बीच बुद्धि, धन, और ज्ञान के स्तर पर भेद रहेगा पर सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिये,  यह बात हमारा ही अध्यात्म दर्शन कहता है।  यह अलग बात है कि हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं के साहित्य के कुछ महानुभाव यह श्वेत धारा भी प्रवाहित करते हैं कि सभी लोग समान हो जायें तो समाज की दृष्टि भी समान हो जायेगी।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

 

मकर सक्रांति पर इलाहाबाद में महाकुंभ का प्रारंभ -हिंदी लेख और चिंत्तन


         मकर सक्रांति पर इलाहाबाद में महाकुंभ प्रारंभ हो गया।  यह बरसों पुरानी पंरपरा है और भारतीय संस्कृति का ऐक ऐसा हिस्सा है जिसे देखकर कोई  भी विदेशी चमत्कृत हो सकता है।  जहां तक भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का प्रश्न है उसकी दृष्टि से इसे सकाम भक्ति का प्रतीक माना जा सकता है। गंगा में नहाने से पुण्य मिलता है यही सोचकर अनेक श्रद्धालु इसमें नहाते हैं।  अनेक निष्काम श्रद्धालु भी हो सकते हैं जो मकर सक्रांति में गंगा में यह सोच नहाते हैं कि पुण्य मिले या नहंी हमें तो इसमें नहाना है।  इससे उनको मानसिक शांति मिलती है।  श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करने वाले ज्ञान साधक किसी भी प्रकार की भक्ति पद्धति का विरोध नहीं करते भले ही वह उनके हृदय के प्रतिकूल हो।

     यह तय है कि इस संसार में दो प्रकृति के लोग-असुर और दैवीय-रहेंगे।  चार प्रकार के भक्त-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी-भी यहां देखे जा सकते हैं।  उसी प्रकार त्रिगुणमयी माया -सात्विक, राजसी और तामसी-के वशीभूत होकर लोग यहां विचरण करेंगे। इसे परे कुछ योगी भी होंगे पर उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक होगी, यह भी  अंतिम सत्य है।  अंतर इतना रह जाता है कि ज्ञानी लोग मूल तत्वों को जानते है इसलिये सहअस्तित्व की भावना के साथ रहते हैं जबकि अज्ञानी अहंकारवश सभी को अपने जैसा दिखने के लिये प्रेरित करते हैं।  जो कुंभ में नहाने गये वह श्रेष्ठ हैं पर जो नहीं करने गये वह बुरे हैं यह भी बात नहीं होना चाहिए।

            जिन्कों भारतीय संस्कृति में दोष दिखते हैं उनके लिये यह कुंभ केवल एक पाखंड है।  ऐसी दोषदृष्टि रखने वाले अज्ञानियों से विवाद करना व्यर्थ हैै।  उन अज्ञानियों के अपने खोजे गये सांसरिक सत्य हैं पर अध्यात्मिक सिद्धि की समझ से उनका वास्ता कभी हो नहीं सकता क्योंकि उनके अहंकार इतना भरा है कि जैसे कि इस विश्व को बदलने की भारी श्ािक्त उनके पास है।

        बहरहाल अब अपनी बात गंगा और इलाहाबाद के महाकुंभ पर भी कर लें।  समाचार आया कि गंगा के प्रदूषित जल की वजह से नाराज चारों शंकराचार्य वहां नहीं आये।  उनके न आने के बावजूद इस खबर की परवाह किये बिना श्रद्धालू लोग नहाने पहुंचें।  शंकराचार्य आये या नहीं इसमें बहुत ही कम लोगों की दिलचस्पी  दिखाई।  यह उन लोगों के लिये बहुत निराशाजनक है जो हिन्दू धर्म को एक संगठित समूह में देखना चाहते हैं।  दरअसल विदेशी धर्मो को जिस तरह एक संगठन का रूप दिया गया है उससे प्रेरित कुछ हिन्दू धार्मिक विद्वान चाहते हैं कि हमारा समूह भी ऐसा बने।  यह हो नहीं पा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे धर्म के सांस्कृतिक भिन्नताये बहुत हैं।  भौगोलिक और आर्थिक स्थिति के अनुसार भोजन, रहन सहन और कार्य शैली में भिन्नतायें हैं।  मुख्य बात यह कि अपने  अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार  मानते हैं कि सारे विश्व के लोग एक जैसे नहीं बन सकते। इसके विपरीत विदेशी धर्मों के प्रचारक यह दावा करते हैं कि वह एकदिन सारे संसार को अपनी धार्मिक छतरी के अंदर लाकर ही मानेंगे।   इसके विपरीत हमारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि सभी मनुष्यों के साथ अन्व जीवों पर भी समान दृष्टि रखना चाहिये जबकि विदेशी धर्म प्रचारक यह दावा करते हैं कि हम तो सारे विश्व के लोगों को एक ही रंग में रंगेंगे ताकि उन पर सभी समान दृष्टि स्वतः पड़ेगी।   हम उन पर आक्षेप नहीं करते पर सच्चाई यह है कि पश्चिमी में सदियों से चल रही धार्मिक वैमनस्य की भावना ने हमारे देश को भी घेर लिया है।  भारत में कभी भी जातीय और धार्मिक संघर्ष का इतिहास नहीं मिलता जबकि विदेशों में धार्मिकता के आधार पर अनेक संघर्ष हो चुके हैं।

       बहरहाल समस्त भारतीय धर्म व्यक्ति के आधार पर वैसे ही संगठित हैं उनको किसी औपचारिक संगठन की आवश्यकता नहीं है।  अभी तो ढेर सारे प्रचार माध्यम हैं जब नहीं थे तब भी लाखों लोग इन कुंभों में पहुंचते थे। यह सब व्यक्ति आधारित संगठन का ही परिणाम है।  हमारे जो बुद्धिमान लोग हिन्दू धर्म को असंगठित मानते हैं उन्हें यह समझना चाहिये कि विदेशी विचाराधारायें पद पर आधारित संगठनों के सहारे चलती हैं।  चुने हुए लोग  पदासीन होकर भगवत्रूप होने का दावा प्रस्तुत करते हैं। इसके अलावा  वहां  पहले राष्ट्र फिर   समाज और अंत में  व्यक्ति आता  है जबकि हमारे यहां व्यक्ति पहले समाज और फिर राष्ट्र का क्रम आता है।  हमारा राष्ट्र इसलिये मजबूत है क्योंकि व्यक्ति मजबूत है जबकि दूसरे राष्ट्रों के लड़खड़ाते ही उनके लोग भी कांपने लगते हैं। महाकुंभ में हर वर्ग, जाति, समाज, भाषा और क्षेत्र के लोग आते हैं। उनको किसी संगठन की आवश्यकता नहीं है।

     चारों शंकराचार्य  जिस गंगा के प्रदूषित होने पर दुःखी हैं वह कई बरसों से दूषित हो चुकी है। ‘राम तेरी गंगा मैली’ फिल्म प्रदर्शित हुए बरसों हो गये हैं। जब वह दूषित होना प्रारंभ हुई थी तब भी अखबारों में समाचार आने लगे थे।  तब हिन्दू धर्म को सगठित रखने का दावा करने वाले यह शंकराचार्य कहां थे?  उन्होंने उसे रोकने के लिये क्या प्रयास किया? क्या लोगों को प्रेरणा दी!  देश की हर छोटी बड़ी घटना पर अपना चेहरा दिखाने के आदी अनेक  धार्मिक पुरुष हो चुके हैं।  इनमें कुछ शंकराचार्य भी हैं।   गंगा के प्रदूषित होने के समाचार उन्होंने  न देखे या न सुने हों यह संभव नहीं है।  अब उनका दुःखी होना सामयिक रूप से प्रचार पाने के अलावा कोई अन्य प्रयास नहीं लगता।

        दरअसल देखा यह गया है कि हमारे अनेक धार्मिक पुरुषों के यजमान अब ऐसे पूंजीपति भी हैं जो उद्योग चलाते हैं।  गंगा में प्रदूषण उद्योगों के कारण फैला है।  अगर इन शंकराचार्यों के साथ मिलकर अन्य धार्मिक शिखर पुरुष कोई अभियान छेड़ते तो यकीन मानिये उनको मिलने वाले दान पर बुरा प्रभाव पड़ सकता था।  सच बात तो यह है कि हमारे धर्म का आधार तत्वज्ञान है और जो संगठन बने हैं उनका संचालन वह माया करती है जिस पर यह संसार आधारित है।  धर्म रक्षा धन से ही संभव का सिद्धांत अपनाना बुरा नहीं है पर उसको वैसा परिणामूलक नहीं बनाया जा सकता जिसकी चाहत हमारे धार्मिक शिखर पुरुष करते है।  वह तत्वज्ञान से ही संभव है पर उसमें रमने वाला आदमी फिर जिस आनंद के साथ जीता है उसे हम रैदास के इस कथन से जोड़ कर देखें ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ तो बात समझ में आ सकती है।

         बहरहाल इलाहाबाद महाकुंभ में स्नान करने वाले श्रद्धालुओं को शुभकामनायें तथा मकर सक्रांति के पर्व पर सभी ब्लॉग मित्रों, पाठकों और प्रशंसकों को बधाई।  हां, प्रशंसक भी जोड़ने पड़ेंगे क्योंकि अनेक लोग अक्सर लिखते हैं कि हम आपके लेखकीय रूप के प्रशंसक  हैं।  जय श्रीराम, जय श्रीकृष्ण

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

 

नारी के विषय पर 23 माह पहले लिखा आज भी प्रासंगिक-हिंदी लेख


       इस लेखक के इन्टरनेट पर लिखे गए लेखों में एक है कन्या भ्रुण हत्या से मध्ययुगीन स्थिति की तरफ बढ़ता समाज-हिन्दी लेख। 11 फ़रवरी 2011 को लिखे गए इस लेख पर आज तक भी टिप्पणियाँ आती हैं।  इस पर कुछ टिप्पणीकारों ने यह भी लिखा कि  आपकी बात हमारे समझ में नहीं आयी तो  अनेक लोगों ने अपनी  व्यथा कथा भी कही है।  लिखने का अपना अपना तरीका होते है।  जब किसी विषय पर  गंभीरता से  लिखते हुए कोई डूब जाये तो भाषा सौंदर्य दूर हो जाता है और अगर शब्दों की चिंता करें तो दिमाग सतह पर आ जाता है।  हम जैसे हिंदी के गैर पेशेवर लेखकों के लिया यही मुश्किल है कि पाठक हमारे लेखों में भाषा सौन्दर्य न देखकर यह मान लेते हैं इनकी बात तो आम भाषा में लिखी गयी है इसलिए यह कोई मशहूर लेखक नहीं बन पाए।  बाज़ार के सहारे  मशहूर लेखकों को  पढ़कर भी  पाठक  निराश होते हैं की उन्होंने कोई नयी बात नहीं कही।  कन्या भ्रूण हत्या पर लिखे गए इस लेख में समाज की आंतरिक और बाह्य सत्यता का वर्णन किया गया था।  इसके लिए किसी खास घटना पर आंसू नहीं बहाए गए थे।   एक पेशेवर लेखक की तरह पाठकों का ध्यान सामयिक रूप से अपनी तरफ आकर्षित करने का यह कोई प्रयास नहीं था।
       आज मन में आया कि  भारतीय नारियों के प्रति अपराध पर कुछ नया लिखा जाए पर पता चला की पाठकों की नज़र आज भी इस पर पड़ी  हुई है तब लगा कि  इसे पुन: प्रस्तुत किया जाए।  पूरे लेख को हमें पढ़ा तो लगा कि  यह अब भी प्रासंगिक है।  11 फरवरी 2011 तथा 29 दिसंबर 2012 में करीब 23 महीने का अंतर है।  नारियों के प्रति बढ़ते अपराधों के लिए अनेक कारण है।  दरअसल कुछ ऐसे भी हैं जो सभीके सामने हैं, लोग जानते हैं, मानते भी हैं मगर बाहरी रूप से कोई स्वीकार नहीं करना चाहता है।  पुरुष ही नहीं नारियां भी शुतुर्मुर्गीय अंदाज़ में  बहस कर रहे हैं।  अभी हाल ही में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना हुई।  इस पर इतने प्रदर्शन हुए। अख़बारों में सम्पाकीय छपे। टीवी चैनलों पर बहसें  हुई।  सब कुछ प्रायोजित लगा।  हमें लगा कि  11 फरवरी 2011 को लिखा गया यह लेख अभी भी सीना तनकर खड़ा है और पेशेवर लेखकों को ललकार रहा हो ऐसा बोलकर और लिखकर दिखाओ।
 जिन्होंने बहस की उन्होंने कुछ न कुछ पाया होगा। चैनलों ने पांच मिनट  की बहस की तो पच्चीस  मिनट का विज्ञापन चलाया।  मगर सच कोई नहीं बोला।  वैसे तो .धनपतियों के हाथ में पूरी दुनिया है पर समाज उनके हाथ में पूरी तरह नहीं रहा था। उनके सहारे चल रहे प्रचार माध्यमों  ने यह काम भी कर दिखाया। उदारीकरण के चलते सार्वजानिक क्षेत्र कम हुआ है। सीधी बात कहें तो समाज की राज्य से अधिक निजी क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ गयी है।  मान सम्मान की रक्षा, सुरक्षित सेवाओं का प्रबंध तथा प्रजा हित को सर्वोपरि मानते हुए अपना काम जितना राज्य कर सकता है, निजी क्षेत्र के लिए यह संभव नहीं है।  राज्य के लिए अपने लोग महत्वपूर्ण होते हैं निजी क्षेत्र के लिए अपनी कमाई सर्वोपरि होती है।
                इससे भी अधिक  बात यह है की राज्य का जिम्मा अपने प्रजा को संभालना भी होता है और निजी क्षेत्र कभी इसे महत्व नहीं देता।
  निजी क्षेत्र कभी राज्य का प्रतीक  नहीं हो सकते।   जब निजी क्षेत्र अपने साथ राज्य के प्रतीक के रूप में अपनी ताकत दिखाते हैं तो कुछ ऐसी समस्याएँ उठ सकती हैं जिनकी कल्पना कुछ लोगों ने की भी होगी।  इस पर किसी ने  प्रकाश नहीं डाला। इसी अपेक्षा भी नहीं थी। कारण की बाज़ार के सौदागरों और प्रचार प्रबंधकों का या सिद्धान्त है की बहसें खूब हों पर इतनी कि  लोग बुद्धिमान न हो जाएँ।  इसलिए नारे लगाने तथा रुदन करने वाले बुद्धिजीवियों को आमंत्रित करते हैं।  इनमें कुछ एक हद तक व्यवस्था तो कुछ समाज की आलोचना करने की खानापूरी करते हैं।  इस विषय पर बहुत कुछ लिखने का मन है पर क्या करें अपने पास समय की सीमायें हैं।  पेशेवर बुद्धिजीवियों के मुकाबले हम जैसे आम लेखकों को समाज अधिक महत्व भी नहीं देता।  इसलिए जब समाज मिलता है अपनी बात कह जाते हैं। 

पहले लिखा गया लेख पढना चाहें तो पढ़ सकते हैं।

हो सकता है कि कुछ लोग हमारी बुद्धि पर ही संशय करें, पर इतना तय है कि जब देश के बुद्धिजीवी किसी समस्या को लेकर चीखते हैं तब उसे हम समस्या नहीं बल्कि समस्याओं या सामाजिक विकारों का परिणाम मानते हैं। टीवी और समाचार पत्रों के समाचारों में लड़कियों के विरुद्ध अपराधों की बाढ़ आ गयी है और कुछ बुद्धिमान लोग इसे समस्या मानकर इसे रोकने के लिये सरकार की नाकामी मानकर हो हल्ला मचाते हैं। उन लोगों से हमारी बहस की गुंजायश यूं भी कम हो जाती हैं क्योंकि हम तो इसे कन्या भ्रुण हत्या के फैशन के चलते समाज में लिंग असंतुलन की समस्या से उपजा परिणाम मानते है। लड़की की एकतरफ प्यार में हत्या हो या बलात्कार कर उसे तबाह करने की घटना, समाज में लड़कियों की खतरनाक होती जा रही स्थिति को दर्शाती हैं। इस पर चिंता करने वाले कन्या भ्रूण हत्या के परिणामों को अनदेखा करते हैं।

इस देश में गर्भ में कन्या की हत्या करने का फैशन करीब बीस-तीस साल पुराना हो गया है। यह सिलसिला तब प्रारंभ हुआ जब देश के गर्भ में भ्रुण की पहचान कर सकने वाली ‘अल्ट्रासाउंड मशीन’ का चिकित्सकीय उपयोग प्रारंभ हुआ। दरअसल पश्चिम के वैज्ञानिकों ने इसका अविष्कार गर्भ में पल रहे बच्चे तथा अन्य लोगों पेट के दोषों की पहचान कर उसका इलाज करने की नीयत से किया था। भारत के भी निजी चिकित्सकालयों में भी यही उद्देश्य कहते हुए इस मशीन की स्थापना की गयी। यह बुरा नहीं था पर जिस तरह इसका दुरुपयोग गर्भ में बच्चे का लिंग परीक्षण कराकर कन्या भ्रुण हत्या का फैशन प्रारंभ हुआ उसने समाज में लिंग अनुपात की  स्थिति को बहुत बिगाड़ दिया। फैशन शब्द से शायद कुछ लोगों को आपत्ति हो पर सच यह है कि हम अपने धर्म और संस्कृति में माता, पिता तथा संतानों के मधुर रिश्तों की बात भले ही करें पर कहीं न कहीं भौतिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की वजह से उनमें जो कृत्रिमता है उसे भी देखा जाना चाहिए। अनेक ज्ञानी लोग तो अपने समाज के बारे में साफ कहते हैं कि लोग अपने बच्चों को हथियार की तरह उपयोग करना चाहते हैं जैसे कि स्वयं अपने माता पिता के हाथों हुए। मतलब दैहिक रिश्तों में धर्म या संस्कृति का तत्व देखना अपने आपको धोखा देना है। जिन लोगों को इसमें आपत्ति हो वह पहले कन्या भ्रुण हत्या के लिये तर्कसंगत विचार प्रस्तुत करते हुए उस उचित ठहरायें वरना यह स्वीकार करें कि कहीं न कहीं अपने समाज के लेकर हम आत्ममुग्धता की स्थिति में जी रहे हैं।

जब कन्या भ्रुण हत्या का फैशन की शुरुआत हुई तब समाज के विशेषज्ञों ने चेताया था कि अंततः यह नारी के प्रति अपराध बढ़ाने वाला साबित होगा क्योंकि समाज में लड़कियों की संख्या कम हो जायेगी तो उनके दावेदार लड़कों की संख्या अधिक होगी नतीजे में न केवल लड़कियों के प्रति बल्कि लड़कों में आपसी विवाद में हिंसा होगी। इस चेतावनी की अनदेखी की गयी। दरअसल हमारे देश में व्याप्त दहेज प्रथा की वजह से लोग परेशान रहे हैं। कुछ आम लोग तो बड़े आशावादी ढंग से कह रहे थे कि ‘लड़कियों की संख्या कम होगी तो दहेज प्रथा स्वतः समाप्त हो जायेगी।’

कुछ लोगों के यहां पहले लड़की हुई तो वह यह सोचकर बेफिक्र हो गये कि कोई बात नहीं तब तक कन्या भ्रुण हत्या की वजह से दहेज प्रथा कम हो जायेगी। अलबत्ता वही दूसरे गर्भ में परीक्षण के दौरान लड़की होने का पता चलता तो उसे नष्ट करा देते थे। कथित सभ्य तथा मध्यम वर्गीय समाज में कितनी कन्या भ्रुण हत्यायें हुईं इसकी कोई जानकारी नहीं दे सकता। सब दंपतियों के बारे में तो यह बात नहीं कहा जाना चाहिए पर जिनको पहली संतान के रूप में लड़की है और दूसरी के रूप में लड़का और दोनों के जन्म के बीच अंतर अधिक है तो समझ लीजिये कि कहीं न कहंी कन्या भ्रुण हत्या हुई है-ऐसा एक सामाजिक विशेषज्ञ ने अपने लेख में लिखा था। अब तो कई लड़किया जवान भी हो गयी होंगी जो पहली संतान के रूप में उस दौर में जन्मी थी जब कन्या भ्रुण हत्या के चलते दहेज प्रथा कम होने की आशा की जा रही थी। मतलब यह कि यह पच्चीस से तीस साल पूर्व से प्रारंभ  सिलसिला है और दहेज प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही। हम दहेज प्रथा समाप्ति की आशा भी कुछ इस तरह कर रहे थे कि शादी का संस्कार बाज़ार के नियम पर आधारित है यानि धर्म और संस्कार की बात एक दिखावे के लिये करते हैं। अगर लड़कियां कम होंगी तो अपने आप यह प्रथा कम हो जायेगी, पर यह हुआ नहीं।

इसका कारण यह है कि देश में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। मध्यम वर्ग के लोग अब निम्न मध्यम वर्ग में और निम्न मध्यम वर्ग के गरीब वर्ग में आ गये हैं पर सच कोई स्वीकार नहीं कर रहा। इस कारण लड़कों से रोजगार के अवसरों में भी आकर्षण शब्द गायब हो गया है। लड़कियों के लिये वर ढूंढना इसलिये भी कठिन है क्योंकि रोजगार के आकर्षक स्तर में कमी आई है। अपनी बेटी के लिये आकर्षक जीवन की तलाश करते पिता को अब भी भारी दहेज प्रथा में कोई राहत नहीं है। उल्टे शराब, अश्लील नृत्य तथा विवाहों में बिना मतलब के व्यय ने लड़कियों की शादी कराना एक मुसीबत बना दिया है। इसलिये योग्य वर और वधु का मेल कराना मुश्किल हो रहा है।

फिर पहले किसी क्षेत्र में लड़कियां अधिक होती थी तो दीवाने लड़के एक नहीं  तो दूसरी को देखकर दिल बहला लेते थे। दूसरी नहीं तो तीसरी भी चल जाती। अब स्थिति यह है कि एक लड़की है तो दूसरी दिखती नहीं, सो मनचले और दीवाने लड़कों की नज़र उस पर लगी रहती है और कभी न कभी सब्र का बांध टूट जाता है और पुरुषत्व का अहंकार उनको हिंसक बना देता है। लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराध कानून व्यवस्था या सरकार की नाकामी मानना एक सुविधाजनक स्थिति है और समाज के अपराध को दरकिनार करना एक गंभीर बहस से बचने का सरल उपाय भी है।

              हम जब स्त्री को अपने परिवार के पुरुष सदस्य से संरक्षित होकर राह पर चलने की बात करते हैं तो नारीवादी बुद्धिमान लोग उखड़ जाते हैं। उनको लगता है कि अकेली घूमना नारी का जन्मसिद्ध अधिकार है और राज्य व्यवस्था उसको हर कदम पर सुरक्षा दे तो यह एक काल्पनिक स्वर्ग की स्थिति है। यह नारीवादी बुद्धिमान नारियों पर हमले होने पर रो सकते हैं पर समाज का सच वह नहीं देखना चाहते। हकीकत यह है कि समाज अब नारियों के मामले में मध्ययुगीन स्थिति में पहुंच रहा है। हम भी चुप नहीं  बैठ सकते क्योंकि जब नारियों के प्रति अपराध होता है तो मन द्रवित हो उठता है और लगता है कि समाज अपना अस्तित्व खोने को आतुर है।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior,madhya Pradesh

 

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

 

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

 

 

 

पिछड़ता सर्वशक्तिमान अमेरिका-हिन्दी लेख (america behind world level-hindi article)


कोई व्यक्ति कद काठी में ऊंचा हो, अपनी मांसपेशियों से शक्तिशाली दिखता हो, उसने सुंदर वस्त्र पहन रखे हों पर अगर उसके चेहरे पर काले धब्बे हैं आंखों में हमेशा ही निराशा झलकती है और बातचीत में निर्बुद्धि हो तो लोग उसके सामने आलोचनात्म्क बात न कहें पर पीठ पीछे उसके दुर्गुणों की व्याख्या करते है। तय बात है कि उसके शक्तिशाली होने के बावजूद लोग उसे पंसद नहंी करते। यही स्थिति समाजों, समूहों और राष्ट्रों की होती है।
न्यूज वीक पत्रिका के अनुसार दुनियां का सर्वशक्तिमान अमेरिका अब सर्वश्रेष्ठता में 11 वें स्थान पर खिसक गया है। भारत इस मामले में 78 वें नंबर पर है इसलिये उस पर हम हंस नहीं सकते पर जिन लोगों के लिये अमेरिका सपनों की दुनियां की बस्ती है उनके लिये यह खबर निराशाजनक हो सकती है। इस तरह की गणना शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर तथा राजनीतिक वातावरण के आधार पर की गयी है। यकीनन यह सभी क्षेत्र किसी भी देश के विकास का प्रतिबिम्ब होते हैं। हम जब अपने देश की स्थिति पर नज़र डालते हैं तो उसमें प्रशंसा जैसा कुछ नज़र नहीं आता। घोषित और अघोषित रूप से करोड़पति बढ़े हैं पर समाज के स्वरूप में कोई अधिक बदलाव नहीं दिखता।
सड़क पर कारें देखकर जब हम विकास होने का दावा करते हैं तो उबड़ खाबड़ गड्ढों में नाचती हुईं उनकी मुद्रा उसकी पोल खोल देती है। स्वास्थ्य का हाल देखें, अस्पताल बहुत खुल गये हैं पर आम इंसान के लिये वह कितने उपयोगी हैं उसे देखकर निराशा हाथ लगती है। आम इंसान को बीमार होने या घायल होने से इतना डर नहीं लगता जितना कि ऐसी स्थिति में चिकित्सा सहायता न मिल पाने की चिंता उसमें रहती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि विकास का स्वरूप हथियारों के जखीरे या आधुनिक सुविधा के सामानों की बढ़ोतरी से नहीं है। दुनियां का शक्तिशाली देश होने का दावा करने वाला अमेरिका दिन ब दिन आर्थिक रूप से संकटों की तरफ बढ़ता दिखाई देता है मगर शायद उसके भारतीय समर्थक उसे समझ नहीं पा रहे। दूसरी बात हम यह भी देखें कि अधिकतर भारतीयों ने अपनी वहां बसाहट ऐसी जगहों पर की है जहां उनके लिये व्यापार या नौकरी के अवसरों की बहुतायत है। यह स्थान ऐसे क्षेत्रों में हैं जहां अर्थव्यवस्था और शिक्षा के आधुनिक केंद्र है। अमेरिका भारत से क्षेत्रफल में बढ़ा है इसलिये अगर कोई भारतीय यह दावा करता है कि वह पूरे अमेरिका के बारे जानता है तो धोखा दे रहा है और खा भी रहा है, क्योंकि यह लोग यहां रहते हुए भी पूरे भारत को ही लोग नहीं जान पाते और ऐसे ही दूरस्थ स्थानों के बारे में टिप्पणियां करते हैं तब अमेरिका के बारे में उनका ज्ञान कैसे प्रमाणिक माना जा सकता है।
इसके बावजूद कुछ भारतीय हैं जिनका दूरस्थ स्थानों मे जाना होता है और वह अपनी बातों के इस बात का उल्लेख करते हैं कि अमेरिका में कई ऐसे स्थान हैं जहां भारत जैसी गरीबी और पिछड़ेपन के दर्शन होते हैं। फिर एक बात दूसरी भी है कि जब हमारे देश में किसी अमेरिकन की चर्चा होती है तो वह शिक्षा, चिकित्सा, राजनीति, व्यापार या खेल क्षेत्र में शीर्ष स्तर पर होता है। वहां के आम आदमी की स्थिति का उल्लेख भारतीय बुद्धिजीवी कभी नहीं करते। जबकि सत्य यह है अपने यहां आकर संपन्न हुए विदेशियों से अमेरिकी नागरिक बहुत चिढ़ते हैं और उन पर हमले भी होते हैं इसके समाचार कभी कभार ही मिलते हैं।
इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय बुद्धिजीवी अमेरिका को स्वर्ग वैसे ही दिखाया जाता रहा है जैसे कि धार्मिक लोग अपने अपने समूहों को दिखाते हैं।
अमेरिका के साथ कनाडा का भी बहुत आकर्षण भारत में दिखाया जाता है जबकि यह दोनों इतने विशाल देश है कि इनके कुछ ही इलाकों में भारतीय अधिक तादाद में हैं और जहां उनकी बसाहट है उसके बारे में ही आकर्षण जानकारी मिल पाती है। जहां गरीबी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, स्वास्थ्य चिकित्साओं का अभाव तथा बेरोजगारी है उनकी चर्चा बहुत कम होती है।
इस विषय पर एक जोरदार चर्चा देखने को मिली।
अमेरिका से लौटे एक आदमी ने अपने मित्र को बताया कि ‘मैं अपने अमेरिका के एक गांव में गया था और वहां भारत की याद आ रही थी। वहां भी बच्चे ऐसे ही घूम रहे थे जैसे यहां घूमते हैं। वह भी शिक्षा का अभाव नज़र आ रहा था।’
मित्र ने पूछा-‘पर वह लोग तो अंग्रेजी में बोलते होंगे।’
मित्र ने कहा-‘हां, उनकी तो मातृभाषा ही अंग्रेजी है।’
तब वह आदमी बोला-‘अरे, यार जब उनको अंग्रेजी आती है तो अशिक्षित कैसे कहे जा सकते हैं।’
दूर के ढोल सुहावने होते हैं और मनुष्य की संकीर्णता और अज्ञान ही इसका कारण होता है। अमेरिका हो या भारत मुख्य समस्या प्रचार माध्यमों के रवैये से है जो आम आदमी को परिदृश्य से बाहर रखकर चर्चा करना पसंद करते हैं। अनेक लोग अमेरिकी व्यवस्था पर ही भारत को चलाना चाहते हैं और चल भी रहा है, ऐसे में जिन बुराईयों को अपने यहां देख रहे हैं वह वहां न हो यह संभव नहीं है। कुछ सामाजिक विशेषज्ञ तो सीधे तौर पर भौतिक विकास को अपराध की बढ़ती संख्या से जोड़ते हैं। हम भारत में जब विकास की बात करते हैं तो यह विषय भी देखा जाना चाहिये।
आखिरी बात यह कि दुनियां का सर्वशक्तिमान कहलाने वाला अमेरिका जब सामाजिक विकास के स्तंभ कहलाने वाले क्षेत्रों में पिछड़ गया है तो हम भारत को जब अगला सर्वशक्तिमान बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं तो यकीनन इस 78 वें स्थान से भी गिरने के लिये तैयार होना चाहिए।
——–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

खेल का पीरियड-हिन्दी हास्य कविता (khel ki shiksha-hindi hasya kavita


खेल के पीरियड में
बहुत से छात्र नहीं आये,
यह सुनकर विद्यालय के
प्राचार्य तिलमिलाये
और अनुपस्थित छात्रों को फटकारा
‘‘तुम लोगों को शर्म नहीं आती
खेल के समय गायब पाये जाते हो,
क्या करोगे जिंदगी में सभी लोग,
बिना फिटनेस के ऊंचाई पर जाने के
सपने यूं ही सजाते हो,
अरे, खेलने में भी आजकल है दम,
पैसा नहीं है इसमें कम,
कोई खेल पकड़ लो,
दौलत और शौहरत को अपने साथ जकड़ लो,
देश का भी नाम बढ़ेगा,
परिवार का भी स्तर चढ़ेगा,
यही समय है जब अपनी सेहत बना लो
वरना आगे कुछ हाथ नहीं आयेगा।’’

एक छात्र बोला
‘‘माननीय
आप जो कहते है वह सही है,
मगर हॉकी या बल्ला पकड़ने से
अधिक प्रबंध कौशल होना
सफलता की गारंटी रही है,
पैसा तो केवल क्रिकेट में ही है
बाकी खेलों में तो बिना खेले ही
बड़े बड़े बड़े खेल हो जाते हैं,
जिन्होंने सीख ली प्रबंध की कला
वह चढ़ जाते हैं शिखर पर
नहीं तो बड़े बडे खिलाड़ी
मैदान पर पहुंचने से पहले ही
सिफारिश न होने पर फेल हो जाते हैं,
अच्छा खिलाड़ी होने के लिये जरूरी नहीं
कोई खेले मैदान पर जाकर खेल,
बस,
निकालना आना चाहिये उसमें से कमीशन की तरह तेल,
आपके यहां प्रबंध का विषय भी हमें पढ़ाया जाता है,
पर उसमें नये ढंग का तरीका नहीं बताया जाता है,
हम रोज अखबारों में पढ़ते हैं
जब होता है विद्यालय में खेल का पीरियड
तब हम खेल के प्रबंध पर चर्चा करते हैं,
किस तरह खेलों में नाम कमायें,
तय किया है कि ‘कुशल प्रबंधक‘ बन जायें,
आप बेफिक्र रहें
किसी से कुछ न कहें,
कोई न कोई आपके यहां का छात्र
खेल जगत में नाम कमायेगा,
मैदान पर नहीं तो
खेल प्रबंधन में जाकर
अपने साथ विद्यालय की इज्ज़त बढ़ायेगा,
उसकी खिलाड़ी करेंगे चाकरी,
खिलाड़िनों को भी नचायेगा,
भले ही न पकड़ता हो हॉकी,
बॉल से अधिक पकड़े साकी,
पर खेल जगत में नाम कमायेगा।’’

——————————–
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

गरीब का भला-हिन्दी व्यंग्य


अमेरिका में एक गोरी महिला पर आनलाईन आतंकवादी भर्ती करने का मुकदमा दर्ज हुआ है। बताया गया है कि वह लोगों को मीठी बातों में फंसाकर अपने जाल में फंसाती थी। दुनियां भर के गरीबों का भला करने की बात करती थी! भर्ती करने वालों को धन का प्रलोभन भी देती थी! वगैरह वगैरह! उस अमेरिकन ने अपना अंग्रेजी नाम बदल भी लिया था ताकि वह धर्म के नाम पर गैर अमेरिकन लोगों में अपनी पहचान बना सके।
यह आलेख केवल उस महिला पर ही नहीं है बल्कि उसकी प्रकटतः प्रकृत्तियों पर है जो अनेक जगह अनेक लोगों में देखने को मिलती है। जिसमें सबसे अधिक है गरीबों का भला करने की बात! इसलिये हिंसा कर महामानव के रूप में प्रतिष्ठत होने का एक ख्वाब जो एक हर चालाक बुद्धिमान देखता है।
गरीबों के भले की बात करते देखकर बुद्धिमानों पर कोई हंसता नहीं है क्योंकि लोगों की सोच स्वतंत्र नहीं रही। हम यहां भारत की क्या बात करें अमेरिका और ब्रिटेन में यही हालत हैं-आखिर उनकी शिक्षा पद्धति ही हमारे समाज ने अपनायी है।
गरीब का भला! मेहनतकश के साथ न्याय! दुनियां के उस आखिर आदमी के लिये लड़ने की बात जिसे दो समय की बात क्या एक समय के लिये भी खाना नहीं मिलता। इसके लिये जंग करने वाले बताते हैं कि दुनियां का पूरा पैसा कुछ व्यक्तियों, समाजों या राष्ट्रों के पास जा रहा है जिनको परास्त करना आवश्यक है ताकि दुनियां से गरीबी और भुखमरी मिट सके। इसके लिये वह बंदूकें, गोलियां और बम जुटाते हैं जैसे कि उनसे खाना बना रहे हों।
कुछ ऐसे भी हैं जो यह सब नहीं करते पर पर्दे के पीछे बैठकर फिल्में, टीवी धारावाहिक या रेडियों पर उनकी जंग का प्रचार करते हैं। अखबारों में लेख वगैरह लिखते हैं। दुनियां की पंक्ति में सबसे आखिर में खड़े भूखे, नंगे और बेकार आदमी का भला करने का यह ख्वाब खूब चलता है। कहते हैं कि आदमी अपनी विपरीत स्थितियों में मनोरंजन ढूंढता है। अमेरिका की सभ्यता धनाढ़य, गौरवर्ण तथा आधुनिक शिक्षित वर्ग की भीड़ से सजी है इसलिये उनको गरीब-भूखे-नंगे, निम्न वर्ग तथा अशिक्षित वर्ग के विषयों में मनोरंजन मिलता है जबकि हमारे भारत में सभी गरीब और भूखे नहीं है पर यहां उनके सामने ऐसा दृश्य प्रस्तुत करने वाला वर्ग प्रतिदिन विचरता है इसलिये उनको धनाढ्य तथा गौरवर्ण कथानकों में आनंद मिलता है। हम भारत ही क्या अधिकांश एशियाई देशों में यह दोष या गुण देखते हैं। यही कारण है कि इस इलाके में आतंकवाद जमकर पनपा है। मजे की बात यह है कि पूरे विश्व के लिये अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन भी एशियाई देशों के नेता भारत में ही हुआ है। कहते हैं कि गुलाब कांटों में तो कमल कीचड़ में पनपता है। भारत का अध्यात्मिक ज्ञान इतना प्रभावी इसलिये है क्योंकि यहां अज्ञान अधिक फलताफूलता रहा है। गरीब का भला और बेसहारों को सहारा देने के नाम पर एशिया के लोग बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं।
अमेरिका की उस महिला ने भी आखिर क्या प्रचार किया होगा? यही कि गरीबों का भला करने के लिये चंद लोगों का मरना जरूरी है या गोली और बम के धमाकों से भूखे के लिये रोटी पकेगी तो गरीब की गरीबी दूर हो जायेगी।
पंच तत्वों से बनी इस देह में जो मन रहता है उसे समझना कठिन है और जो समझ ले वही ज्ञानी है। आम इंसान अपना पूरा जीवन अपने स्वार्थों में लगाता है पर उसका मन कहीं न कहीं परमार्थी की उपाधि पाने के लिये भटकता है। अनेक ऐसे लोग हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी में किसी का भला नहीं किया पर ऐसे किस्से सुनाकर अपना दिल बहलाते हैं कि ‘हमने अमुक का भला किया’ या ‘अमुक को बचाया’। उनको गरीबों का भला करना तथा भूखे को रोटी खिलाना एक अच्छी बात लगती है बशर्ते स्वयं यह काम न करना पड़े। ऐसे में अगर कुछ लोग यह काम करते हैं तो वह उनकी प्रशंसा करते हैं पर अगर कोई ऐसा करने का दावा करने लगे तो उसे भी प्रशंसनीय मान लेते हैं। कुछ युवा क्रांतिकारी होने का सपना लेकर गरीबों का भला करने के लिये उपदेशकों की बातों में हिंसा भी करने को तैयार हो जाते हैं बशर्ते कि उनको सारी दुनियावी सुविधायें उपलब्ध करायी जायें और जिनके लिये पैसा खर्च होता है। मूल बात इसी पैसे पर आकर टिकती है जो धनपतियों के पास ही है जिनके विरुद्ध गरीबों के कथित मसीहा बोलते रहते हैं-इनमें बहुत कम ऐसे है जो अपनी जान देने निकलते हैं बल्कि अपनी बातों से दूसरे को अपनी जान देने को तैयार करते हैं-जन्नत में स्थाई सदस्यता दिलाने के वाद के साथ! ऐसे बहुत सारे मसीहा जिंदा हैं पर उनके बहुत सारे शगिर्द काल कलवित हो गये-और इन गुरुओं को इसकी बिल्कुल चिंता नहीं है क्योंकि उनके प्रायोजित विद्यालय निरंतर नये लड़कों का सृजन करते रहते हैं। मूल प्रश्न का उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया कि पैसा कहां से आता है?
कहते हैं कि दुनियां के सारे धर्म गरीबों का भला करना सिखाते हैं। यह एक मजाक के अलावा कुछ नहीं है। सारे धर्म के मतावलंबियों और सर्वशक्तिमान के बीच एक मध्यस्थ होता है जो उसका परिचय अपने समूह के लोगों से कराता है। सभी की भाषायें है और पहचान के लिये वस्त्रों के रंग भी तय हैं-गेरुआ, हरा, सफेल और अन्य रंग। नाम भी अब स्थानीय भाषा के नाम पर नहीं बल्कि धर्म की भाषा के आधार पर रखते जाते हैं। एक आदमी जब धर्म बदलता है तो नाम भी बदल देता है। अनेक लोग पैसा लेकर या भविष्य में विकास का वादा करने पर धर्म बदल देते हैं। यह एक क्रांतिकारी मजाक है जो अक्सर अनेक देशों में दिखाई देता है। अभी तक धार्मिक मध्यस्थ केवल सर्वशक्तिमान और इंसान के बची की कड़ी थी पर ऐसा लगता है कि जैसे कि उन्होंने अमीरों और गरीबों के बीच में भी अपना पुल बना लिया है। गरीबों को आतंक फैलाने तो अमीरों को उससे फैलते देखनें के मनोरंजन में व्यस्त रखने के लिये आतंक उनके लिये एक व्यापार हो गया है जिसे वह अपने ढंग से धर्म फैलाने या बचाने का संघर्ष भी कहते हैं कई जगह गरीबों के उद्धार की भी बात की जाती है। यकीनन अमीरों से उनको पैसा मिलता है। यह पैसा अमीर अपने एक नंबर के धंधे को बचाने या दो नंबर के धंधे को चलाने के लिये देते होंगे। दुनियां के सारे भाषाई, जातीय, धार्मिक तथा क्षेत्रीय समूहों पर ऐसी ही अदृश्य ताकतों की पकड़ है जिसमें मौलिक तथा स्वतंत्र सोच रखने वाले पागल या अयथार्थी समझे जाते हैं। इस बात का पूरा इंतजाम है कि हर व्यवस्था में तय प्रारूप में ही बहसें हों, विवाद हों और प्रचार तंत्र उनके इर्दगिर्द ही घूमता रहे। दो विचारों के बीच दुनियां के लोग भटकें-गरीब का भला और विकास-जिसमें अमीरों का वर्चस्व रहता है। इस दुनियां में दो प्रकार के लोग हैं एक तो वह जो गरीबों का भला होते देखना चाहते है-स्वयं कितना करते है यह एक अलग प्रश्न है-दूसरा वह वर्ग है जो विकास चाहता है। बीच बीच में भाषा, धर्म,जाति तथा क्षेत्रीय पहचान को लेकर भी बहसें और विवाद होते हैं पर उनमें भी गरीबों का भला या विकास का मुद्दा कहीं न कहीं होता है भले ही उसका नंबर दूसरा हो।
टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में चलने वाली इन बहसों से अलग होकर जब हम सड़क पर देखते हैं तो सारा दृश्य बदल जाता है। पेट्रोल का धुंआ उगलते विलासिता के प्रतीक वाहनों में सवार अमीर लोग अपनी राह चले जा रहे हैं। गरीब आदमी ठेले पर अपना सामान बेचने जा रहा है। अमीर चीज का भाव पूछता है गरीब बताता है। अमीर भाव कम करने के लिये कहता है। वह करता है कभी नहीं भी करता है। अस्पतालों में गरीब इलाज के लिये ठोकरें खाता नज़र आता है। सबसे बड़ी बात यह कि हम जैसे लेखक जब एक आदमी के रूप में धक्का खाते है तब अपने आप से सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा भला चाहता कौन है?
ऐसे ढेर सारे प्रश्नों से जूझते हुए जब कोई अखबार पढ़ते या टीवी देखते हुए गरीबों के कल्याण और मेहनतकश के न्याय पर बहस देखता और सुनता है तो उसे वह निरर्थक, अयथार्थ तथा काल्पनिक लगती है। शायद ऐसी बहसें बौद्धिक विलासिता का हिस्सा हैं पर इनके आयोजक इसका फोकट में नहीं करते। मुख्य बात यह कि पैसा कहां से आता है! शायद वहीं से आता होगा जहां से गोलियां, बम और बंदूकें खरीदने के लिये दिया जाता है। संभव है यह सब भयानक सामान बनाने वाले दलालों को अपना सामान बिकवाने के लिये पैसे देते हों। पहले आतंकी खरीदेगा तो फिर उससे बचने के लिये पहरेदार भी खरीदेगा। आतंकी एक, दो, तीन या चार होते है पर पहरेदार तो हजारों हैं। पूरी दुनियां में लाखों हैं। सब कुछ सोचते हुए आखिर वहीं खड़े हो जाते हैं और अपने आप से ही कहते हैं कि ‘कहां चक्कर में पड़ गये यार’। कुछ बेकार कवितायें लिखो या कोई चुटकुला लिखो। दिल बहलाने के लिये इससे अच्छा साधन क्या हो सकता है।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

नश्वर का शोक-हिन्दी हास्य व्यंग्य (nashvar ka dukh-hindi hasya vyangya)


आप कितने भी ज्ञानी ध्यानी क्यों न हों, एक समय ऐसा आता है जब आपको कहना भी पड़ता है कि ‘भगवान ही जानता है’। जब किसी विषय पर तर्क रखना आपकी शक्ति से बाहर हो जाये या आपको लगे कि तर्क देना ही बेकार है तब यह कहकर ही जान छुड़ाना पड़ती है कि ‘भगवान ही जानता है।’
अब कल कुछ लोगों ने छ दिसंबर पर काला दिवस मनाया। दरअसल यह किसी शहर में कोई विवादित ढांचा गिरने की याद में था। अब यह ढांचा कितना पुराना था और सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में इसका नाम क्या था, ऐसे प्रश्न विवादों में फंसे है और उनका निष्कर्ष निकालना हमारे बूते का नहीं है।
दरअसल इस तरह के सामूहिक विवाद खड़े इसलिये किये जाते हैं जिससे समाज के बुद्धिमान लोगों को उन पर बहस कर व्यस्त रखा जा सकें। इससे बाजार समाज में चल रही हेराफेरी पर उनका ध्यान न जाये। कभी कभी तो लगता है कि इस पूरे विश्व में धरती पर कोई एक ऐसा समूह है जो बाजार का अनेक तरह से प्रबंध करता है जिसमें लोगों को दिमागी रूप से व्यस्त रखने के लिये हादसे और समागम दोनों ही कराता है। इतना ही नहीं वह बहसें चलाने के लिये बकायदा प्रचार माध्यमों में भी अपने लोग सक्रिय रखता है। जब वह ढांचा गिरा था तब प्रकाशन से जुड़े प्रचार माध्यमों का बोलाबाला था और दृष्यव्य और श्रवण माध्यमों की उपस्थिति नगण्य थी । अब तो टीवी चैनल और एफ. एम. रेडियो भी जबरदस्त रूप से सक्रिय है। उनमें इस तरह की बहसे चल रही थीं जैसे कि कोई बड़ी घटना हुई हो।
अब तो पांच दिसंबर को ही यह अनुमान लग जाता है कि कल किसको सुनेंगे और देखेंगे। अखबारों में क्या पढ़ने को मिलेगा। उंगलियों पर गिनने लायक कुछ विद्वान हैं जो इस अवसर नये मेकअप के साथ दिखते हैं। विवादित ढांचा गिराने की घटना इस तरह 17 वर्ष तक प्रचारित हो सकती है यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। बाजार और प्रचार का रिश्ता सभी जानते हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसे प्रचार का कोई आर्थिक लाभ न हो। उत्पादकों को अपनी चीजें बेचने के लिये विज्ञापन देने हैं। केवल विज्ञापन के नाम पर न तो कोई अखबार छप सकता है और न ही टीवी चैनल चल सकता है सो कोई कार्यक्रम होना चाहये। वह भी सनसनीखेज और जज़्बातों से भरा हुआ। इसके लिये विषय चाहिये। इसलिये कोई अज्ञात समूह शायद ऐसे विषयों की रचना करने के लिये सक्रिय रहता होगा कि बाजार और प्रचार दोनों का काम चले।
बहरहाल काला दिवस अधिक शोर के साथ मना। कुछ लोगों ने इसे शौर्य दिवस के रूप में भी मनाया पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। वैसे भी शौर्य दिवस मनाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि वह तो किसी नवीन निर्माण या उपलब्धि पर मनता है और ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता काला दिवस वालों का स्यापा बहुत देखने लायक था। हम इसका सामाजिक पक्ष देखें तो जिन समूहों को इस विवाद में घसीटा जाता है उनके सामान्य सदस्यों को अपनी दाल रोटी और शादी विवाह की फिक्र से ही फुरसत नहीं है पर वह अंततः एक उपभोक्ता है और उसका मनोरंजन कर उसका ध्यान भटकाना जरूरी है इसलिये बकायदा इस पर बहसें हुईं।
राजनीतिक लोगों ने क्या किया यह अलग विषय है पर समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर हिन्दी के लेखकों और चिंतकों को इस अवसर पर सुनकर हैरानी होती है। खासतौर से उन लेखको और चिंतकों की बातें सुनकर दिमाग में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जो साम्प्रदायिक एकता की बात करते हैं। उनकी बात पर गुस्सा कम हंसी आती है और अगर आप थोड़ा भी अध्यात्मिक ज्ञान रखते हैं तो केवल हंसिये। गुस्सा कर अपना खूना जलाना ठीक नहीं है।
वैसे ऐसे विकासवादी लेखक और चिंतक भारतीय अध्यात्मिक की एक छोटी पर संपूर्ण ज्ञान से युक्त ‘श्रीमद्भागवत गीता’ पढ़ें तो शायद स्यापा कभी न करें। कहने को तो भारतीय अध्यात्मिक ग्रथों से नारियों को दोयम दर्जे के बताने तथा जातिवाद से संबंधित सूत्र उठाकर यह बताते हैं कि भारतीय धर्म ही साम्प्रदायिक और नारी विरोधी है। जब भी अवसर मिलता है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान पर वह उंगली उठाते है। हम उनसे यह आग्रह नहीं कर रहे कि वह ऐसा न करें क्योंकि फिर हम कहां से उनकी बातों का जवाब देते हुए अपनी बात कह पायेंगे। अलबत्ता उन्हें यह बताना चाहते हैं कि वह कभी कभी आत्ममंथन भी कर लिया करें।
पहली बात तो यह कि यह जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि उसी पश्चिम की देन है जिसका वह विरोध करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तो साफ कहता है कि न आत्मा पैदा होता न मरता है। यहां तक कि कुछ धार्मिक विद्वान तो श्राद्ध तक की परंपरा का भी विरोध करते हैं। अतः भारतीय अध्यात्मिक को प्राचीन मानकर अवहेलना तो की ही नहीं जा सकती। फिर यह विकासवादी तो हर प्रकार की रूढ़िवादिता का विरोध करते हैं कभी पुण्यतिथि तो कभी काला दिवस क्यों मनाते हैं?

सांप्रदायिक एकता लाने का तो उनका ढोंग तो उनके बयानों से ही सामने आ जाता है। उस विवादित ढांचे को दो संप्रदाय अपनी अपनी भाषा में सर्वशक्तिमान के दरबार के रूप में अलग अलग नाम से जानते हैं पर विकासवादियों ने उसका नाम क्या रखा? तय बात है कि भारतीय अध्यात्म से जुड़ा नाम तो वह रख ही नहीं सकते थे क्योंकि उसके विरोध का ही तो उनका रास्ता है। अपने आपको निष्पक्ष कहने वाले लोग एक तरफ साफ झुके हुए हैं और इसको लेकर उनका तर्क भी हास्यप्रद है कि वह अल्प संख्या वाले लोगों का पक्ष ले रहे है क्योंकि बहुसंख्या वालों ने आक्रामक कार्य किया है। एक मजे की बात यह है कि अधिकतर ऐसा करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के ही हैं।
इस संसार में जितने भी धर्म हैं उनके लोग किसी की मौत का गम कुछ दिन ही मनाते हैं। जितने भी धर्मो के आचार्य हैं वह मौत के कार्यक्रमों का विस्तार करने के पक्षधर नहीं होते। कोई एक मर जाता है तो उसका शोक एक ही जगह मनाया जाता है भले ही उसके सगे कितने भी हों। आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि किसी की उठावनी या तेरहवीं अलग अलग जगह पर रखी जाती हो। कम से कम इतना तो तय है कि सभी धर्मों के आम लोग इतने तो समझदार हैं कि मौत का विस्तार नहीं करते। मगर उनको संचालित करने वाले यह लेखक और चिंतक देश और शहरों में हुए हादसों का विस्तार कर अपने अज्ञान का ही परिचय ही देते हैं। । इससे यह साफ लगता है कि उनका उद्देश्य केवल आत्मप्रचार होता है।
आखिरी बात ऐसे ही बुद्धिजीवियों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से दूर होकर लिखने में शान समझते हैं। उनको यह जानकर कष्ट होगा कि श्रीगीता में अदृश्य परमात्मा और आत्मा को ही अमर बताया गया है पर शेष सभी भौतिक वस्तुऐं नष्ट होती हैं। उनके लिये शोक कैसा? यह प्रथ्वी भी कभी नष्ट होगी तो सूर्य भी नहीं बचेगा। आज जहां रेगिस्तान था वहां कभी हरियाली थी और जहां आज जल है वहां कभी पत्थर था। यह ताजमहल, कुतुबमीनार, लालाकिला और इंडिया गेट सदियों तक बने रहेंगे पर हमेशा नहीं। यह प्रथवी करोड़ों साल से जीवन जी रही है और कोई नहीं जानता कि कितने कुतुबमीनार और ताज महल बने और बिखर गये। अरे, तुमने मोहनजो दड़ो का नाम सुना है कि नहीं। पता नहीं कितनी सभ्यतायें समय लील गया और आगे भी यही करेगा। अरे लोग तो नश्वर देह का इतना शोक रहीं करते आप लोग तो पत्थर के ढांचे का शोक ढो रहे हो। यह धरती करोड़ों साल से जीवन की सांसें ले रही है और पता नहीं सर्वशक्तिमान के नाम पर पता नहीं कितने दरबादर बने और ढह गये पर उसका नाम कभी नहीं टूटा। बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि भगवान श्रीरामचंद्र जी के पहले भी अनेक राम हुए और आगे भी होंगे। मतलब यह कि राम का नाम तो आदमी के हृदय में हमेशा से था और रहेगा। उनके समकालीनों में परशुराम का नाम भी राम था पर फरसे के उपयोग के कारण उनको परशुराम कहा गया। भारत का आध्यात्मिक ज्ञान किसी की धरोहर नहीं है। लोग उसकी समय समय पर अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। जो ठीक है समाज उनको आत्मसात कर लेता है। यही कारण है कि शोक के कुछ समय बाद आदमी अपने काम पर लग जाता है। यह हर साल काला दिवस या बरसी मनाना आम आदमी को भी सहज नहीं ल्रगता। मुश्किल यह है कि उसकी अभिव्यक्ति को शब्दों का रूप देने के लिये कोई बुद्धिजीवी नहीं मिलता। जहां तक सहजयोगियों का प्रश्न है उनके लिये तो यह व्यंग्य का ही विषय होता है क्योंकि जब चिंतन अधिक गंभीर हो जाये तो दिमाग के लिये ऐसा होना स्वाभाविक ही है
सबसे बड़ी खुशी तो अपने देश के आम लोगों को देखकर होती है जो अब इस तरह के प्रचार पर अधिक ध्यान नहीं देते भले ही टीवी चैनल, अखबार और रेडियो कितना भी इस पर बहस कर लें। यह सभी समझ गये हैं कि देश, समाज, तथा अन्य ऐसे मुद्दों से उनका ध्यान हटाया जा रहा है जिनका हल करना किसी के बूते का नहीं है। यही कारण है कि लोग इससे परे होकर आपस में सौहार्द बनाये रखते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि इसी में ही उनका हित है। वैसे तो यह कथित बुद्धिजीवी जिन अशिक्षितों पर तरस खाते हैं वह इनसे अधिक समझदार है जो देह को नश्वर जानकर उस पर कुछ दिन शोक मनाकर चुप हो जाते हैं। ऐसे में उनसे यही कहना पड़ता है कि ‘भई, नश्वर निर्जीव वस्तु के लिये इतना शोक क्यों? वह भी 17 साल तक!
हां, चाहें तो कुछ लोग उनकी हमदर्दी जताने की अक्षुण्ण क्षमता की प्रशंसा भी कर सकते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

यह स्वयंवर-हिंदी हास्य व्यंग (the swyanvar-hindi vyang


जहां तक भारत की स्वयंवर परंपराओं से जुड़ी कथाओं की हमें जानकारी है तो उसके नायक नायिका तो नयी उम्र के एकदम ताजा पात्र होते थे पर इधर दूरदृश्य प्रसारणों (टीवी कार्यक्रम) में देख रहे हैं उस परंपरा के नाम पर एक तरह से पुराना कबाड़ सजाया जा रहा है।
उच्च शिक्षा-अजी, यही वाणिज्य स्नातक की-के दौरान महाविद्यालयों के आचार्य अपने अपने विषयों के पाठ्य पुस्तकें लाने के निर्देश साथ उनके लेखकों का नाम भी लिखाते थे। चूंकि अपने यहां शिक्षा के दौरान उस समय तक-अब पता नहीं क्या स्थिति है- आचार्य का वाक्य ब्रह्म वाक्य समझा जाता था इसलिये हम उन पुस्तकों ढूंढने निकलते थे। पुराने साथी छात्रों ने बता दिया कि इसके लिये ‘द्वितीय हस्त पुस्तकें (सैकिण्ड हैण्ड बुक्स) लेना बेहतर रहेगा। वह यह राय इसलिये देते थे कि वह अपनी पुस्तकें बेचकर आगे की पुस्तकें इसी तरह लाते थे। उनके मार्गदर्शन का विचार कर हम भी ‘द्वितीय हस्त पुस्तकें’ हम खरीद लाते थे अलबत्ता उनको बेचने कभी नहीं गये।
उस समय शहर में एक दुकान तो ऐसी थी जो उच्च और तकनीकी शिक्षा की द्वितीय हस्त पुस्तकों का ही व्यापार करती थी। पहले से दूसरे हाथ में जाती पुस्तकें उनके लिये कमीशन जुटाने का काम करती थी। हम सोचते थे कि ‘द्वितीय हस्त पुस्तकें’ खरीद रहे हैं पर बाद में जब थोड़ा भाषा ज्ञान हुआ तो पता लगा कि पुस्तकें तो पुस्तकें हैं उनके लिये द्वितीय हस्त -हो सकता है तृतीय और चतुर्थ भी हो- हम ही उनके लिये होते थे।
बहरहाल इतना तय रहा कि हमने अपनी उच्च शिक्षा ऐसी ‘द्वितीय हस्त पुस्तकों’ के सहारे ही प्राप्त की। इसलिये जब कहीं नयी पुरानी चीज की चर्चा होती है तब हमें उस द्वितीय हस्त पुस्तकों का ध्यान आता है।

देखा जाये तो हम जीवन में कभी न कभी द्वितीय हस्त या कहें पुराना माल बन ही जाते हैं। कम से कम शादी के मामले में तो यही होता है। पहली शादी का महत्व हमेशा ही रहता है दूसरी शादी का मतलब ही यही है कि आप सैकिण्ड हैंड हैं या आपकी साथी? इस पर विवाद हो सकता है।
इधर एक दूरदृश्य (टीवी कार्यक्रम) धारावाहिक में हमने देखा कि एक तलाकशुदा आदमी अपना स्वयंवर रचा रहा है। तब हमें भी सैकिण्ड पुस्तक का ध्यान आया। हम आज तक तय नहीं कर पाये कि उन पुस्तकों के लिये हम द्वितीय हस्त थे या वही हमारे लिये पुरानी थी। अलबत्ता उन पुस्तकों को पाठक मिला और हमें ज्ञान-इसका प्रमाण यह है कि हम इतना लिख लेते हैं कि लोगों की हाय निकल जाती है। फिर हम स्वयंवर प्रथा पर विचार करते हैं जिनका अध्यात्म पुस्तकों में-जी, वह बिल्कुल नयी खरीद कर लाते थे क्योंकि पाठ्य पुस्तकों के मुकाबले वह कुछ सस्ती मिलती थी-इस प्रथा का जिक्र पढ़ते रहे हैं। जहां तक हमारी जानकारी है स्वयंवर ताजा चेहरों के लिये आयोजित किया जाता था। तलाक शुदा या जीवन साथी खो चुके लोगों के लिये कभी कोई स्वयंवर आयोजित हुआ हो इसका प्रमाण नहीं मिलता। हम यह जरूर कहते हैं कि स्त्री के प्रति समाज के मानदण्ड अलग हैं पर जहां तक पहली शादी की बात है तो उसका ताजगी का पैमाना दोनों पर एक जैसा लागू होता है। वैसे हमारे यहां प्रचलित विदेशी विचार के अनुसार पहला प्यार ही आखिरी प्यार होता है पर देसी भाषा में ‘पहली शादी’ को ही आखिरी शादी माना गया है। उसके बाद आदमी हो या औरत- जहां तक सामाजिक रूप से शादी का प्रश्न है-बासी चेहरे की श्रेणी में आ जाते हैं। अगर स्त्री का दूसरा विवाह हो तो एकदम सादगी से होता है और पुरुष का कुछ धूमधाम से होने के बावजूद बारातियों का चेहरा बासी लगता है क्योंकि वह इतने खुश नहीं दिखते जितना पहली शादी में थे-यह अनुभव की हुई बात बता रहे हैं। तात्पर्य यह है कि यह स्वयंवर केवल ताजा चैहरे वाले नवयुवा वर्ग-जी, युवा वर्ग से पहले का वर्ग- के सदस्यों के लिये रहा है। इसमें लड़का लड़की आपस में दूर किसी दूसरे से भी नहीं मिले होते थे। इसलिये उनके विवाहों का वर्णन आज भी ताजगी से भरा लगता है।
अभी एक अभिनेत्री का स्वयंवर हुआ था। वह वर चुनने नहीं आई बल्कि मंगेतर चुनने आयी थी और फिर उसे प्रेमी बताने लगी। उसी अभिनेत्री का एक अभिनेत्रा से प्रेम संबंध कुछ दिन पहले ही विच्छेद हुआ था। देखा जाये तो उसे एकदम ताजा चेहरा नहीं माना जा सकता था क्योंकि अंततः उसने प्रचार माध्यमों में अनेक बार उस अभिनेता से प्रेम संबंध होने की बात स्वीकारी थी। मगर बाजार ने उसका स्वयंवर बेचा और कमाया भी।

इधर एक बड़े आदमी का बेटे ने भी दूरदृश्य धारावाहिकों में अपने को अभिनेता के रूप में स्थापित कर लिया है। उस पर मादक द्रव्यों के सेवन का आरोप तो एक बार लग ही चुका है साथ ही उसने एक विवाह भी किया जिसकी परिणति तलाक के रूप में हुई। अब उसके स्वयंवर का कार्यक्रम हो रहा है। देश में जो बौद्धिक जड़ता है उसे देखकर उसके कार्यक्रम की सफलता में कोई संदेह नहीं है। कहने को तो लोग कहते हैं कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों को पढ़ने से कुछ नहीं होता पर बाजार उसमें से बेचने योग्य परंपराओं क्यों ला रहा है? सच बात तो यह है कि हमारे धर्म ग्रंथों में शिक्षा, तत्व ज्ञान के साथ मनोरंजन भी है इसलिये उनका आकर्षण सदाबहार रहता है। दूसरा सच यह भी है कि रामायण, श्रीमद्भागवत, महाभारत, वेद, पुरान, उपनिषद जिस तरह लिखे गये हैं उसकी बराबरी अब कोई लिखने वाला कर ही नहीं सकता। शायद यही कारण है कि आधुनिक विद्वानों ने जहां तक हो सके समाज से उनको बहिष्कृत करने के लिये हर संभव प्रयास किया है क्योंकि उनके प्रचलन में रहते उनकी रचनायें प्रतिष्ठित नहीं हो पाती। आधुनिक भारत में विवेकानंद जैसे जो दिग्गज हुए हैं वह भी इन्हीं महाग्रंथों के अध्ययन के कारण हुए हैं। इसलिये बकायदा इन महाग्रंथों से समाज को दूर रखने का प्रयास किया गया। उसका परिणाम यह हुआ कि आजकल की नयी पीढ़ी के वही सदस्य अपने देश को समझ सकते हैं जिन्होंने घर पर इनका अध्ययन किया है, बाकी के लिये यह संभव नहीं है क्योंकि इनके अध्ययन के लिये कोई औपचारिक शिक्षा केंद्र नहीं है। अगर भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के लिये कोई शैक्षणिक केंद्र खुले तो आज भी लोग उसमें अपने बच्चों को ही नहीं पढ़ायेंगे बल्कि स्वयं भी जायेंगे। यह कमी पेशेवर संतों से नहीं पूरी हो सकती। ऐसे मे स्वयंवर जैसी व्यवस्था के बारे में किसी को अधिक पता नहीं है या फिर लोग ध्यान में नहीं ला रहे।
बाजार के प्रभाव में तो प्रचार माध्यम खलनायकों को नायक बनाये जा रहे हैं। पता नहीं वह कैसे वह इन सितारों को चमका रहे हैं जिनके चरित्र पर खुद इन्हीं प्रचार माध्यमों ने कभी दाग दिखाये हैं। देखा जाये तो यह स्वयंवर कार्यक्रम देश का मजाक उड़ाने जैसा ही है। अगर विदेशी लोग इनको देखेंगे तो यही सोचेंगे कि-‘अरे, यह कैसी इस देश की घटिया प्रथा है? जिसमें चाहे कभी भी किसी का स्वयंवर रचाया जा सकता है
वैसे बाजार जो कर रहा है उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। होना भी नहीं चाहिए पर लोगों में जागरुकता आ जाये तो हो सकता है ऐसे कार्यक्रम ऊंची वरीयता प्राप्त नहीं कर सकते। कम से कम सैकिण्ड हैण्ड पुस्तक को नया बेचने का काम तो करने से उन्हें रोका जा सकता है।
…………………………………………
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

चाणक्य नीति-अपने मुख में कटु शब्दों की खेती न करें


यदीच्छसि वशीकर्तंु जगदेकेन कर्मणा।
परापवादसस्येभ्यो गां चरंन्तीं निवारथ।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि यदि कोई मनुष्य अपने किसी एक काम से ही सारी पृथ्वी पर अपना नाम करना चाहता है तो बस दूसरों की निंदा त्याग दे। अपने मूंह में किसी दूसरे के प्रतिकूल लगने वाले शब्दों की खेती करना बंद कर देना चाहिए।

स जीवति गुणा यस्य धर्मः स जीवति।
गुणधर्मविहीनस्य जीवतं निष्प्रयोजनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि वही मनुष्य जीवित माना जाता है जिसमें गुण हों और उसने जीवन में धर्म धारण कर लिया है। गुण और धर्म के बिना मनुष्य का जीवन जीना व्यर्थ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिस मनुष्य में दूसरों को प्रभावित करने वाला गुण नहीं है और न ही उसका अपने स्वार्थ के अलावा कोई धर्म है वह जीवित होेते हुए भी मृतक समान है। अपने और परिवार का पेट तो सभी पालते हैं पर जो परोपकार करे वही सच्चा मनुष्य है।
मनुष्य का सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह स्वयं कोई धर्म या परोपकार किये बिना ही अपने को ज्ञानी और परोपकारी प्रमाणित करना चाहता है। इसके लिये वह दूसरों की निंदा करता है। अक्सर वार्तालाप में अज्ञानी लोग अपने मुख से दूसरे के लिये निंदात्मक शब्द कहकर यह साबित करते हैं कि अमुक दुर्गुण हमारे अंदर नहीं है या दूसरे के मुकाबले हमारे अंदर यह गुण है। देखा जाये तो इस विश्व में अधिकतर झगड़े इसी बात को लेकर होते हैं कि सभी अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं पर उसके लिये वह कोई सात्विक काम नहीं करना चाहते। ज्ञानी आदमी को किसी की न तो निंदा करना चाहिए न ही किसी में दोष देखना चाहिए। हो रहा है उल्टा! लोग एक दूसरे को नीचा बताते हुए आक्रामक रूप से अपनी श्रेष्ठता साबित करना चाहते हैं। सच बात तो यह है कि दूसरे के प्रति बुरा सोचना और बोलना अगर लोग कम कर दें तो पूरे विश्व में शांति स्वतः आ जाये।
…………………..

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप


gyan, hindi article, hindi sahitya,

इन्सान और सर्वशक्तिमान-हास्य व्यंग्य (bhagvan aur insan-hindi hasya vyangya


सर्वशक्तिमान ने एक नया इंसान तैयार किया और उसे धकियाने से पहले उसके सभी अंगों का एक औपचारिक परीक्षण किया। आवाज का परीक्षण करते समय वह इंसान बोल पड़ा-‘महाराज, नीचे सारे संसार का सारा ढर्रा बदल गया है और एक आप है कि पुराने तरीके से काम चला रहे हैं। अब आप इंसानों का भी पंख लगाना शुरु कर दीजिये ताकि कुछ गरीब लोग धनाभाव के कारण आकाश में उड़ सकें। अभी यह काम केवल पैसे वालों का ही रह गया।’
सर्वशक्तिमान ने कहा-‘पंख दूंगा तो गरीब क्या अमीर भी उड़ने लगेंगे। बिचारे एयरलाईन वाले अपना धंधा कैसे करेंगे? फिर पंख देना है तो तुम्हें इंसान की बजाय कबूतर ही बना देता हूं। मेरे लिये कौनसा मुश्किल काम है?
वह इंसान बोला-‘नहीं! मैं इंसान अपने पुण्यों के कारण बना हूं इसलिये यह तो आपको अधिकार ही नहीं है। जहां तक पंख मिलने पर अमीरों के भी आसमान में उड़ने की बात है तो आपने सभी को चलने और दौड़ने के लिये पांव दिये हैं पर सभी नहीं चलते। नीचे जाकर आप देखें तो पायेंगे कि लोग अपने घर से दस मकान दूर पर स्थित दुकान से सामान खरीदने के लिये भी कार पर जाते हैं। ऐसे लोगों पर आपकी मेहरबानी बहुत है और पंख मिलने पर भी हवाई जहाज से आसमान में उड़ेंगे। मुद्दा तो हम गरीबों का है!’

सर्वशक्तिमान ने कहा-‘वैसे तुम ठीक कहते हो कि पांव देने पर भी इंसान अब उसका उपयोग कहां करता है पर फिर भी पंख देने से तुम पक्षियों का जीना हराम कर दोगे। अभी तो तुम उड़ते हुए पक्षी को ही गुलेल मारकर नीचे गिरा देते हो। फिर तो तुम चाहे जब आकाश में उड़ाकर पकड़ लोगे।’

उस इंसान ने कहा-‘ऐसा कर तो इंसान आप का ही काम हल्का करता है। वरना तो आपका यह प्रिय जीव इंसान हमेशा हीं संकट में रहेगा। इनकी संख्या इतनी बढ़ जायेगी कि इंसान भाग भाग कर आपके पास जल्दी आता रहेगा।’
सर्वशक्तिमान ने कहा-‘अरे चुप! बड़ा आये मेरा काम हल्का करने वाले। वैसे ही तुम लोगों की वजह से हर एक दो सदी में अहिंसा का संदेश देने वाला कोई खास इंसान जमीन पर भेजना पड़ता है। वैसे तुम इंसानों ने वहां पर्यावरण इतना बिगाड़ दिया है कि नाम मात्र को पशु पक्षी भेजने पड़ते हैं। अधिक भेजे तो उनके लिये रहने की जगह नहीं बची है। सच तो यह है मुझे सभी प्रकार के जीव एक जैसे प्रिय हैं इसलिये सोचता हूं कि कुछ पशु पक्षी वहां मेरा दायित्व निभाते रहें। वह बिचारे भी मेरे नाम पर शहीद कर दिये जाते हैं इस कारण उनको अपने पास ही रखना पड़ता है। कभी सोचता हूं कि उनको दोबारा नीचे भेजूं पर फिर उन पर तरस आ जाता है। वैसे मैंने तुम इंसानों को इतनी अक्ल दी है कि बिना पंख आकाश में उड़ने के सामान बना सको।’
वह इंसान बोला-‘वह सामान तो बहुत है पर वहां पेट्रोल की वजह से एयर लाईनों में किराये बढ़े गये हैं और उसमें अमीर ही उड़ सकते हैं या आपके ढोंगी भक्त! गरीब आदमी का क्या?’

सर्वशक्तिमान ने कहा-‘गरीब आदमी जिंदा तो है न! अगर उसे पंख लगा दिये तो भी उड़ नहीं सकेगा। अभी गरीब आदमी को कहीं बैल की तरह हल में जोता जाता है और कहीं उसे घोड़े की जगह जोतकर रिक्शा खिंचवाया जाता है। अगर पंख दिये तो उसे अपने कंधे पर अमीर लोग ढोकर ले जाने पड़ेंगे। इंसान को इंसान पर अनाचार करने में मजा आता है और इस तरह तो गरीब पर अनाचार की कोई सीमा ही नहीं रहेगी। वैसे तुम क्यों फिक्र कर रहे हो।
वह इंसान बोला-‘महाराज, मैं तो बस जिंदगी भर आकाश में उड़ना चाहता हूं।’
सर्वशक्तिमान ने कहा-‘अब तो बिल्कुल नहीं। तुम इंसानों को अक्ल का खजाना दिया है पर तुम उसका इस्तेमाल पांव से चलने पर भी नहीं कर पाते तो उड़ते हुए तो वैसे ही वह अक्ल कम हो जाती है। इतनी सारी दुर्घटनाओं के शिकार असमय ही यहां चले आते हैं और जब तक उनके दोबारा जन्म का समय न आये तब तक उनको भेजना कठिन है। उनसे पूरा पुराना अभिलेखागार भरा पड़ा है। अगर तुमको आकाश में उड़ने के लिये पंख दिये तो फिर ऐसे अनेक पुराने अभिलेखागार बनाने होंगे। अब तुम जाओ बाबा यहां से! कुछ देर बाद कहोगे कि सांप की तरह विष वाले दांत दे दो। अमीर तो अपनी रक्षा कर लेता है गरीब कैसे करेगा? जबकि उससे अधिक विष अंदर रहता ही है भले दांत नहीं दिये पर उसने तुम इंसान कहां चूकते हो।’
सर्वशक्तिमान ने उस जीव को नीचे ढकेल दिया।
……………………………..

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जड़ समाज का चेतन चिंतन-हिन्दी व्यंग्य (hindi article on india & astralia)


आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री श्री केविन रूड किसी समय सफाई कर्मचारी का काम करते थे-यह जानकारी अखबार में प्रकाशित हुई देखी। अब वह प्रधानमंत्री हैं पर उन्होंने यह बात साहस के साथ स्वीकार की है। उनकी बात पढ़कर हृदय गदगद् कर उठा। एक ऐसा आदमी जिसने अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में पसीना बहाया हो और फिर शिखर पर पहुंचा हो यह आस्ट्रे्रलिया की एक सत्य कहानी है जबकि हमारे यहां केवल ऐसा फिल्मों में ही दिखाई देता है। यह आस्ट्रेलिया के समाज की चेतन प्रवृत्तियों का परिचायक है।
कभी कभी मन करता है कि हम भी ऐसी कहानी हिंदी में लिखें जिसमें नायक या नायिका अपना खून पसीना करते हुए समाज के शिखर पर जा बैठा हो पर फिर लगता है कि यह तो एक झूठ होगा। हम तो बरसों से इस देश में देख रहे हैं जड़ता का वातावरण है। अपने आसपास ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जिन्होंने जीवन भर पसीना बहाया और बुढ़ापे में भी उनका वही हाल है। उनके बच्चे भी अपना पसीना बहाकर दो जून की रोटी बड़ी मुश्किल से कमा रहे हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर देख रहे हैं। फिल्म, पत्रकारिता, धार्मिक प्रचार,संगीत समाज सेवा और अन्य आकर्षक पेशों में जो लोग चमक रहे थे आज उनकी औलादें स्थापित हो गयी हैं। पहले लोग प्रसिद्ध गुरु के नाम पर उसके उतराधिकारी शिष्य को भी गुरु मान लेते थे। अनेक लोग अपनी पहचान बनाने के लिये अपने गुरु का नाम देते थे पर आजकल अपने परिवार का नाम उपयोग करते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे हैं। समाज में परिवर्तन तो बस दिखावा भर है! यह परिवर्तन बहुत सहजता से होता है क्योंकि यहां गुरु को नहीं बल्कि को बाप को अपनी जगह छोड़नी पड़ती है।
नारा तो लगता है कि ‘गरीब को रोटी दो,मजदूर को काम दो।’ उसकी यही सीमा है। रोटी और काम देने का ठेका देने वाले अपने कमीशन वसूली के साथ समाज सेवा करते हैं। कोई गरीब या मजदूर सीधे रास्ते शिखर पर न पहुंचे इसका पक्का इंतजाम है। गरीबों और मजदूरों में कैंकड़े जैसी प्रवृत्ति पायी जाती है। वह किसी को अपने इलाके में अपने ही शिखर पर किसी अपने आदमी को नहीं बैठने दे सकते। वहां वह उसी को सहन कर सकते हैं जो इलाके, व्यवसाय या जाति के लिहाज से बाहर का आदमी हो। उनको तसल्ली होती है कि अपना आदमी ऊपर नहीं उठा। इस वजह स समाज में उसकी योग्य पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता। अगर कोई एक आदमी अपने समाज या क्षेत्र में शिखर पह पहुंच गया तो बाकी लोगों का घर में बैठना कठिन हो जायेगा न! बीबीयां कहेंगी कि देखो-‘अमुक कितना योग्य है?’
इसलिये अपने निकट के आदमी को तरक्की मत करने दो-इस सिद्धांत पर चल रहा हमारे देश का समाज जड़ता को प्राप्त हो चुका है। यह जड़ता कितना भयानक है कि जिस किसी में थोड़ी बहुत भी चेतना बची है उसे डरा देती है। फिल्मों और टीवी चैनलों के काल्पनिक पात्रों को निभाने वाले कलाकारों को असली देवता जैसा सम्मान मिल रहा है। चिल्लाने वाले पात्रों के अभिनेता वीरता की उपाधि प्राप्त कर रहे हैं। ठुमके लगाने का अभिनय करने वाली अभिनेत्रियां सर्वांग सुंदरी के सम्मान से विभूषित हैं।
उस दिन हम एक ठेले वाले से अमरूद खरीद रहे थे। वह लड़का तेजतर्रार था। सड़क से एक साधू महाराज निकल रहे थे। उस ठेले पर पानी का मटका रखा देखकर उस साधु ने उस लड़के से पूछा-‘बेटा, प्यास लगी है थोड़ा पानी पी लूं।’
लड़के ने कहा-‘थोड़ा क्या महाराज! बहुत पी लो। यह तो भगवान की देन है। पूरी प्यास मिटा लो।
साधु महाराज ने पानी पिया। फिर उससे बोले-‘यह अमरूद क्या भाव दे रहे हो। आधा किलो खुद ही छांट कर दे दो।’
लड़का बोला-‘महाराज! आप तो एक दो ऐसे ही ले लो। आपसे क्या पैसे लेना?’
साधु ने कहा-‘नहीं! हमारे पास पैसा है और उसे दिये बिना यह नहीं लेंगे। तुम तोल कर दो और हम पैसे देतेे हैं।
लड़के ने हमारे अमरूद तोलने के पहले उनका काम किया। उन साधु महाराज ने अपनी अंटी से पैसे निकाले और उसको भुगतान करते हुए दुआ दी-‘भले बच्चे हो! हमारी दुआ है तरक्की करो और बड़े आदमी बनो।’
वह लड़का बोला-‘महाराज, अब क्या तरक्की होगी। बस यही दुआ करो कि रोजी रोटी चलती रहे। अब तो बड़े आदमी के बेटे ही बड़े बनते हैं हम क्या बड़े बनेंगे?’
साधु महाराज तो चले गये पर उस लड़के को कड़वे सच का आभास था यह बात हमें देखकर आश्चर्य नहीं हुआ। इस देश में जो पसीना बहाकर रोटी कमा रहे हैं वह इस समाज का जितना सच जानते हैं और कोई नहीं जानता। वातानुकूलित कमरों और आराम कुर्सियों पर देश की चिंता करने वाले अपने बयान प्रचार माध्यमों में देकर प्रसिद्ध हो जाते हैं पर सच को वह नहीं जानते। उनके भौंपू बने कलमकार और रचनाकार भी सतही रूप से इस समाज को देखते हैं। उनकी चिंतायें समाज को उठाने तक ही सीमित हैं पर यह व्यक्तियों का समूह है और उसमें व्यक्तियों को आगे लाना है ऐसा कोई नहीं सोचता। चिंता है पर चिंतन नहीं है और चिंतन है तो योजना नहीं है और योजना है तो अमल नहीं है। जड़ता को प्राप्त यह समाज जब विदेशी समाजों को चुनौती देने की तैयारी करता है तो हंसी आती है।
अभी आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले होने पर यहां सामाजिक चिंतक और बुद्धिजीवी शोर मचा रहे थे। वह ललकार रहे थे आस्ट्रेलिया के समाज को! उस समाज को जहां एक आम मेहनतकश अपनी योग्यता से शिखर पर पहुंच सकता है। कभी अपने अंदर झांकने की कोई कोशिश न करता यह समाज आस्ट्रेलिया के चंद अपराधियों के कृत्यों को उसके पूरे समाज से जोड़ रहा था। इस जड़ समाज के बुद्धिजीवियों की बुद्धि भी जड़ हो चुकी है। वह एक दो व्याक्ति या चंद व्यक्तियों के समूहों के कृत्यों को पूरे समाज से जोड़कर देखना चाहते हैं। दुःखद घटनाओं की निंदा करने से उनका मन तब तक नहीं भरता जब तक पूरे समाज को उससे नहीं जोड़ लेते। समाज! यानि व्यक्तियों का समूह! समूह या समाज के अधिकांश व्यक्तियों का उत्थान या पतन समाज का उत्थान या पतन होता है। मगर जड़ चिंतक एक दो व्यक्तियों को उदाहरण बनाकर समाज का उत्थान या पतन दिखाते हैं।
विदेश में जाकर किसी भारतीय ने तरक्की की उससे पूरे भारतीय समाज की तरक्की नहीं माना जा सकता है। मगर यहां प्रचारित होता है। जानते हैं क्यों?
इस जड़ समाज के शिखर पर बैठे लोग और पालतू प्रचारक यहां की नयी पीढ़ी को एक तरह ये यह संदेश देते हैं कि ‘विदेश में जाकर तरक्की करो तो जाने! यहां तरक्की मत करो। यहां तरक्की नहीं हो सकती। यहां तो धरती कम है और जितनी है हमारे लिये है। तुम कहीं बाहर अपने लिये जमीन ढूंढो।’
सामाजिक संगठनों, साहित्य प्रकाशनों, फिल्मों, कला और विशारदों के समूहों में शिखर पर बैठे लोग आतंकित हैंे। वह अपनी देह से निकली पीढ़ी को वहां बिठाना चाहते हैं। इसलिये विदेश के विकास की यहां चर्चा करते हैं ताकि देश का शिखर उनके लिये बना रहे।
यहां का आम आदमी तो हमेशा शिखर पुरुषों को अपना उदाहरण मानता है। शिखर पुरुषों की जड़ बुद्धि हमेशा ही जड़ चिंतकों को सामने लाती है और वह उसी जड़ प्रवृत्ति को प्रचार करते है ताकि ‘जड़ चिंतन’ बना रहे। विकास की बात हो पर उनके आकाओं के शिखर बिगाड़ने की शर्त पर न हो। एक चेतनाशील समाज को जब जड़ समाज ललकारता है तब अगर हंस नहीं सकते तो रोना भी बेकार है।
……………………

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

आयु के अनुसार होता है मनोरंजन का स्वरूप-आलेख (age fector and entertainment-hindi article)


वह कौनसी संस्कृति और संस्कार है जिसके नष्ट होने का खतरा पैदा हो गया है जिसे बचाने के लिये इतने सारे बुद्धिजीवी लगे हुए हैं। सविता भाभी नाम की वेबसाईट और सच का सामना नाम का एक धारावाहिक इतने खतरनाक नहीं हो सकते कि वह भारतीय संस्कृति को नष्ट कर दें। भारतीयों की ताकत उनका ध्यान है जो वह अध्यात्मिक ज्ञान से अर्जित करते हैं। भारत के प्राचीन ग्रंथों में कहीं इसकी चर्चा नहीं है कि जुआ, अश्लीलता या यौन विषयों पर प्रतिबंध लगाया जाये।
हमारे प्राचीन ग्रंथ आत्मनियंत्रण का संदेश देते हैं पर यह अपेक्षा नहीं करते कि राज्य इसके लिये कार्यवाही करे। इन्हीं ग्रंथों में योग साधन, प्राणायम, ध्यान और मंत्रों की विधियां बतायी गयी हैं जिनसे शरीर और मन पर नियंत्रण रखा जा सकता है। इस देश के अधिकतर लोग आत्मनिंयत्रण के द्वारा ही जीवन व्यतीत करते हैं और इसी कारण ही भारतीय समाज विश्व का सबसे योग्य समाज भी माना जाता है। तीन प्रकार की प्रवृत्तियों के लोग-सात्विक, राजस और तामस-इस धरती पर हमेशा रहेंगे यह बात बिल्कुल स्पष्ट है। आचार विचार, रहन सहन, और खान पान के आधार आदमी की प्रवृत्तियां निर्धारित करती हैं और वह इन्हीं से पहचाना भी जाता है।
आदमी के अपराधों से निपटने का काम राज्य का है और सामान्य आदमी को स्वयं पर ही नियंत्रण रखना चाहिये। दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है या कह रहा है इससे अधिक आदमी अगर स्वयं पर ध्यान दे तो अच्छा है-यह हमारे ग्रंथों का स्पष्ट मत है।

समाज को संभालने का काम गुरु करें यह भी स्पष्ट मत है। फिर फिल्मों, धारावाहिकों, किताबों और वेबसाईटों का प्रभाव हमेशा क्षणिक रहता है उनमें इतनी ताकत नहीं है कि वह पूरा समाज बिगाड़ सकें-कम से कम भारतीय समाज इतना कमजोर नहीं है। यह समाज जीवन के सत्य और रहस्यों को जानता है जो समय समय पर महापुरुष इसे बता गये हैं। इसके बावजूद इस समाज को कमजोर मानने वाले भ्रम में हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह भ्रम उस बौद्धिक समाज को है जो शरीरिक श्रम से परे है। शारीरिक से परे आदमी को भय, आशांकायें और संदेह हमेशा घेरे रहते हैं। यही चंद लोग ऐसी फिल्मों, वेबसाईटों,धारवाहिकों और साहित्य से चिपका रहता है जो आदमी के मन में पहले सुख और बाद में संताप पैदा करता है। जो श्रम करने वाले लोग हैं ऐसा वैसा सब देखकर भूल जाते हैं पर बुद्धिजीवियों के चिंतन की सुई वहीं अटकी रहती है-यह तय करने में कि समाज इससे बिगड़ेगा कि बनेगा!
खासतौर से जिनकी उम्र बढ़ी हो गयी है या फिर जिनको समाज सुधारने का ठेका मिल गया है वह ऐसे सभी स्तोत्रों पर पर प्रतिबंध की मांग करते हैं जिनसे युवा मन विचलित होने की आशंका रहती है।

यह समस्या तो पूरे समाज में है। हर बुढ़े को आजकल के युवा असंयमित दिखते हैं तो हर बुढ़िया को युवती अहंकारी नजर आती है। बुढ़ापे में आदमी का अहंकार अधिक बढ़ जाता है और वह पुजना चाहता है। हम बरसों से सुन रहे हैं कि ‘जमाना बिगड़ गया है।’ हम छोटे थे तो समझते थे कि ‘वास्तव में जमाना बिगड़ गया होगा। अब देखते हैं तो सोचते हैं कि जमाना ठीक कब था। कहते हैं कि घोर कलियुग है पर बताईये सतयुग कब था? रावण त्रेतायुग में हुआ और कंस द्वापर में हुआ। अगर वह युग ठीक था तो फिर उनमें ऐसे दुराचारी कहां से आ गये? कुछ लोग कहते हैं कि उस समय आम आदमी में धर्म की भावना अधिक थी। अब क्या कम है? आम आदमी तो आज भी भला है-उसकी चर्चा अधिक नहीं होती यह अलग बात है। फिर आजकल के प्रचार माध्यम सनसनी फैलाने के लिये खलपात्रों में ही अच्छाई ढूंढते नजर आते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बुढ़ापे में जमाना सभी को भ्रष्ट नजर आता है।
जहां तक यौन और अश्लील साहित्य का सवाल है तो वह चालीस सालों से हम बिकते देख रहे हैं। वह बिकता भी खूब था। अनेक लोग पढ़ते थे पर फिर भी चालीस सालों में ऐसा नहीं लगता कि उससे जमाना बिगड़ गया। उम्र के हिसाब से आदमी चलता है। अनेक युवाओं ने ऐसा साहित्य पढ़ा पर अब उनमें से कई ऐसे भी हैं जो मंदिरों में दर्शन करने के लिये जाते हैं। युवा मन हिलोंरे मारता है। वह ऐसा देखना चाहता है जो नया हो। उस समय हर कोई हर युवा अपने हमउम्र विपरीत लैंगिक संपर्क बढ़ाना चाहता है। युवावस्था में विवाह होने पर जीवन साथी के प्रति दैहिक आकर्षण चरम पर पहुंच जाता है। समय के साथ वह कम होता जाता है पर प्रेम यथावत रहता है क्योंकि मन में तब एक स्वाभाविक प्रेम की ग्रंथि है जो एक दूसरे को बांधे रहती है। यह व्यक्तिगत संपर्क कभी समाज के लिये देखने की चीज नहीं होता बल्कि सभी लोग अपनी बात ढंके रहते हैं पर दूसरे के घर में झांकने की उनके अंदर एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो हर मनुष्य मनोरंजन पैदा करती है।
आदमी में मन है तो उसे मनोरंजन की आवश्यकता होती है। मनोरंजन का स्वरूप आयु के अनुसार तय होता है। युवावस्था में यौन विषय नवीनतम और आकर्षक लगता है तो अधेड़ावस्था में दौलत और शौहरत का नशा चढ़ जाता है। बुढ़ापे में जब शरीर के अंग शिथिल होते हैं तब सम्मान पाने का लोभ आदमी में पैदा होता है। ऐसे में आदमी दूसरे की निंदा और आत्मप्रवंचना कर अपने आपको दिलासा देता है कि वह अपना सम्मान बढ़ा रहा है। ऐसे में युवाओं के मनोरंजन के साधन उनको भारी तकलीफ देते हैं भले ही अपनी युवावस्था में वह भी उनमें लिप्त रहे हों।

कहने का तात्पर्य यह है कि अगर कोई व्यक्ति या समूह किसी दूसरे को हानि नहीं पहुंचा रहा है तो उसे अपनी आयु के अनुसार मनोरंजन प्राप्त करने का अधिकार है। यह समाज की एक सहज प्रक्रिया होना चाहिये। युवाओं के मन को किस प्रकार का मनोरंजन चाहिये यह तय करने का अधिकार उनको है न कि अधेड़ और बूूढ़े इसका निर्धारण करें। यहां यह भी याद रखने लायक बात है कि बड़ी आयु के लोग ही छोटी आयु के लोगों में संस्कार भरने का प्रयास करते हैं। इसलिये गुरु भी कहलाते हैं। यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह उनकी मन के पर्वत को मजबूत बनायें जिससे निकलने वाली मनोरंजन की नदी विषाक्त न हो भले ही वह यौन साहित्य वाले शहर से निकलती हो। इसकी बजाय उनको जबरन रोकने की चाहत एक मजाक ही है। सच तो यह है कि कभी कभी तो यह लगता है कि कुछ उत्पाद इसलिये ही लोकप्रिय हो जाते हैं कि उनका विरोध अधिक होता है। यह विरोध प्रायोजित लगता है। वेबसाईट पर प्रतिबंध और धारावाहिक के विरोध के बाद उनकी सार्वजनिक चर्चा अधिक होना इस बात का संदेह भी पैदा करती है। इस तरह के विरोध युवाओं की तरफ से नहीं होते जो इस बात का प्रमाण है कि वह उनके लिये मनोरंजन का साधन हैं पर वह इससे विचलित हो जायेंगे यह भी नहीं सोचना चाहिये। चलते रहना इस दुनियां का नियम है।
…………………………………..

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सविता भाभी पर प्रतिबन्ध -आलेख (hindi article ben on savita bhabhi)


सविता भाभी नाम की एक पौर्न साईट को बैन कर दिया गया है। बैन करने वालों का इसके पीछे क्या ध्येय है यह तो पता नहीं पर बैन के बाद इसे समाचार पत्र पत्रिकाओं में खूब स्थान मिला उससे तो लगता है कि इसके चाहने वालों की संख्या बढ़ेगी। पता नहीं इस पर बैन का क्या स्वरूप है पर कैसे यह संभव है कि बाहर लोग इससे भारत में न देख पायें।
यह साइट कैसे है यह तो पता नहीं पर अनुमान यह है कि यह किसी विदेशी साईट का देसी संस्करण होगी। गूगल, याहू, अमेजन और बिंग आदि सर्च इंजिनों तो सर्वव्यापी हैं और इन पर जाकर कोई भी इसे ढूंढ सकता है। यह अलग बात है कि इनके पास कोई ऐसा साफ्टवेयर हो जो भारतीय प्रयोक्ताओं को इससे रोक सके। तब भी सवाल यह है कि अगर विदेशों में अंग्रेजी में जो पोर्न वेबसाईटें हैं उनसे क्या भारतीय प्रयोक्ताओं को रोकना संभव होगा।
इस लेखक को तकनीकी जानकारी नहीं है इसलिये वह इस बात को नहीं समझ सकता है कि आखिर इस पर यह बैन किस तरह लगेगा?
लोगों को कैसे रहना है, क्या देखना है और क्या पहनना है जैसे सवालों पर एक अनवरत बहस चलती रहती है। कुछ बुद्धिजीवी और समाज के ठेकेदार उस हर चीज, किताब और विचार प्रतिबंध की मांग करते हैं जिससे लोगों की कथित रूप से भावनायें आहत होती हैं या उनके पथभ्रष्ट होने की संभावना दिखती है। अभी कुछ धर्माचार्य समलैंगिकता पर छूट का विरोध कर रहे हैं। कभी कभी तो लगा है इस देश में आवाज की आजादी का अर्थ धर्माचार्यों की सुनना रह गया है। इस किताब पर प्रतिबंध लगाओ, उस चीज पर हमारे धर्म का प्रतीक चिन्ह है इसलिये बाजार में बेचने से रोको।
हमारा धर्म, हमारे संस्कार और हमारी पहचान बचाने के लिये यह धर्माचार्य जिस तरह प्रयास करते हैं और जिस तरह उनको प्रचार माध्यम अपने समाचारों में स्थान देते हैं उससे तो लगता है कि धर्म और बाजार मिलकर इस देश की लोगों की मानसिक सोच को काबू में रखना चाहते है।

भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में वह शक्ति है जो आदमी को स्वयं ही नियंत्रण में रखती है इसलिये जो भी व्यक्ति इसका थोड़ा भी ज्ञान रखता है वह ऐसे प्रयासों पर हंस ही सकता है। दरअसल धर्म, भाषा, जाति, और नस्ल के आधार पर बने समूहों को ठेकेदार केवल इसी आशंका में जीते हैं कि कहीं उनके समूह की संख्या कम न हो जाये इसलिये वह उसे बचाने के लिये ऐसे षडयंत्र रचाते हैं जिनको वह आंदोलन या योजना करार देते हैं। सच बात तो यह है कि अधिक संख्या में समूह होने का कोई मतलब नहीं है अगर उसमें सात्विकता और दृढ़ चरित्र का भाव न हो।
इस लेखक ने कभी ऐसी साईटें देखने का प्रयास नहीं किया पर इधर उधर देखकर यही लगता है कि लोगों की रुचि इंटरनेट पर भी इसी प्रकार के साहित्य में है। इंटरनेट पर ही नहीं बल्कि कहीं भी यौन साहित्य से मस्तिष्क और देह में विकास उत्पन्न होते हैं यह बात समझ लेना चाहिये। ऐसा साहित्य वैसे भी बाजार में उपलब्ध है और इंटरनेट पर एक वेबसाईट पर रोक से कुछ नहीं होगा। फिर दूसरी शुरु हो जायेगी। समाज के कथित शुभचिंतक फिर उस पर उधम मचायेंगे। इस तरह उनके प्रचार का भी काम चलता रहेगा। समस्या तो जस की तस ही रह जायेगी। इस तरह का प्रतिबंध दूसरे लोगों के लिये चेतावनी है और वह ऐसा नहीं करेंगे पर भारत के बाहर की अनेक वेबसाईटें इस तरह के काम में लगी हुई हैं उनको कैसे रोका जायेगा?
इसलिये प्रयास यह होना चाहिये कि समाज में चेतना लायी जाये पर ऐसा कोई प्रयास नहीं हो रहा है। इसके बनिस्बत केवल नारे और वाद सहारे वेबसाईटें रोकी जा रही है पर लोगों की रुचि सत्साहित्य की तरफ बढ़े इसके लिये कोई प्रयास नहीं हो रहा है।

कुतर्कों को तर्क से काटना चाहिये। एक दूसरी बात यह भी है कि जब आप कोई सार्वजनिक रूप से किसी व्यक्ति, किताब, दृश्य या किताब को बहुत अच्छा कहकर प्रस्तुत करते हैं तो उसके विरुद्ध तर्क सुनने की शक्ति भी आप में होना चाहिये। न कि उन पर की गयी प्रतिकूल टिप्पणियों से अपनी भावनायें आहत होने की बात की जानी चाहिये। इस मामले में राज्य का हस्तक्षेप होना ही नहीं चाहिये क्योंकि यह उसका काम नहीं है। अगर ऐसी टिप्पणियों पर उत्तेजित होकर कोई व्यक्ति या समूह हिंसा पर उतरता है तो उसके विरुद्ध कार्यवाही होना चाहिये न कि प्रतिकूल टिप्पणी देने वाले को दंडित करना चाहिये। हमारा स्पष्ट मानना है कि या तो आप अपने धर्म, जाति, भाषा या नस्ल की प्रशंसा कर उसे सार्वजनिक मत बनाओ अगर बनाते हो तो यह किसी भी व्यक्ति का अधिकार है कि वह कोई भी तर्क देकर आपकी तारीफ की बखिया उधेड़ सकता है।
यह लेखक शायद ऐसी बातें नहीं कहता पर अंतर्जाल पर लिखते यह एक अनुभूति हुई है कि लोग पढ़ते और लिखते कम हैं पर ज्ञानी होने की चाहत उन्हें इस कदर अंधा बना देती है कि वह उन किताबों के लिखे वाक्यों की निंदा सुनकर उग्र हो जाते हैं। इस लेखक द्वारा लिखे गये अनेक अध्यात्म पाठों पर गाली गलौच करती हुई टिप्पणियां आती हैं पर उनमें तर्क कतई नहीं होता। हैरानी तो तब होती है कि विश्व की सबसे संपन्न भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा से जुड़े होने का दावा करने वाले लोग भी पौर्न साईटों, बिना विवाह साथ रहने तथा समलैंगिकता का विरोध करते हैं। बिना विवाह के ही लड़के लड़कियों के रहने में उनको धर्म का खतरा नजर आता है। यह सब बेकार का विरोध केवल अपनी दुकानें बचाने का अलावा कुछ नहीं है। ईमानदारी की बात तो यह है कि समाज में चेतना बाहर से नहीं आयेगी बल्कि उनके अंदर मन में पैदा करने लगेगी। कथित पथप्रदर्शक अपने भाषणों के बदल सुविधायें और धन लेते हैं पर जमीन पर उतर कर आदमी से व्यक्तिगत संपर्क उनका न के बराबर है।
कहने को तो कहते हैं कि आजकल की युवा पीढ़ी इनको महत्व नहीं देती पर वास्तविकता यह है कि लड़के लड़कियां विवाह करते ही इसी सामजिक दबाव के कारण हैं। कई लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताती हैं। कई लड़के और लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताते हैं। धर्म बदलकर विवाह करने पर उनको ससुराल पक्ष के संस्कार मानने ही पड़ते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि उन संस्कारों को उसकी ससुराल में ही बाकी लोग महत्व नहीं देते पर उसे मनवाकर अपनी धार्मिक विजय प्रचारित किया जाता है। विवाह एक संस्कार है इसे आखिर नई पीढ़ी तिलांजलि क्यों नहीं दे पाती? इसकी वजह यही है कि जाति, धर्म, भाषा और नस्ल के आधार पर बने समाज ठेकेदारों के चंगुल में इस कदर फंसे हैं कि उनसे निकलने का उनके पास कोई चारा ही नहीं है। आप अगर देखें। किस तरह लड़का प्यार करते हुए लड़की को उसके जन्म नाम को प्यार से पुकारता है और विवाह के लिये धर्म के साथ नाम बदलवाकर फिर उसी नाम से बुलाता है। इतना ही नहीं बाहर समाज में अपनी पहचान बचाने रखने के लिये लड़की भी अपना पुराना नाम ही लिखती है। समाज से इस प्रकार का समझौता एक तरह से कायरता है जिसे आज का युवा वर्ग अपना लेता है।

बात मुद्दे की यह है कि मनुष्य का मन उसे विचलित करता है तो नियंत्रित भी। उसे विचलित वही कर पाते हैं जो व्यापार करना चाहते हैं। फिर मनुष्य को एक मित्र चाहिये और वह ईश्वर में उसे ढूंढता है। अभी हाल ही में पश्चिम के वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य जब ईश्वर की आराधना करता है तो उसके दिमाग की वह नसें सक्रिय हो जाती हैं जो मित्र से बात करते हुए सक्रिय होती हैं। इसका मतलब साफ कि दिमाग की इन्हीं नसों पर व्यापारी कब्जा करते हैं। ईश्वर के मुख से प्रकट शब्द बताकर रची गयी किताबों को पवित्र प्रचारित किया जाता है। इसकी आड़ में कर्मकांड थोपते हुए धर्माचार्य अपने ही धर्म, जाति और समूहों की रक्षा का दिखावा करते हुए अपना काम चलाते हैं। मजे की बात है कि आधुनिक युग के समर्थक बाजार भी अब इनके आसरे चल रहा है। वजह यह है कि धर्म की आड़ में पैसे का लेनदेन बहुत पवित्र माना जाता है जो कि बाजार को चाहिये।
निष्कर्ष यह है कि कथित पवित्र पुस्तकों के यह कथित ज्ञानी पढ़ते लिखते कितना है यह पता नहीं पर उनकी व्याख्यायें लोगों को भटकाव की तरफ ले जाती हैं। आम व्यक्ति को समाज के रीति रिवाजों और कर्मकांडों का बंधक बनाये रखने का प्रयास होता रहा है और अगर कोई इनको नहीं मानता तो उसकी इसे आजादी होना चाहिये। यह आजादी कानून के साथ ही निष्पक्ष और स्वतंत्र बुद्धिजीवियों द्वारा भी प्रदान की जानी चाहिये।
किसी को बिना विवाह के साथ रहना है या समलैंगिक जीवन बिताना है या किसी को नग्न फिल्में देखना है यह उसका निजी विचार है। यह सब ठीक नहीं है और इसके नतीजे बाद में बुरे होते हैं पर इस पर कानून से अधिक समाज सेवी विचारक ही नियंत्रण कर सकते हैं। धर्म भी नितांत निजी विषय है। जन्म से लेकर मरण तक धर्म के नाम पर जिस तरह कर्मकांड थोपे जाते हैं अगर किसी को वह नापसंद है तो उसे विद्रोही मानकर दंडित नहीं करना चाहिये। कथित रूप से पवित्र पुस्तक की आलोचना करने वालों को अपने तर्कों से कोई धर्मगुरु समझा नहीं पाता तो वह राज्य की तरफ मूंह ताकता है और राज्य भी उसके द्वारा नियंत्रित समूह को अपनी हितैषी मानकर इन्हीं धर्माचार्यों को संरक्षण देता है और यही इस देश के मानसिक विकास में बाधक है।
इस लेखक का ढाई वर्ष से अधिक अंतर्जाल पर लिखते हुए हो गया है पर पाठक संख्या नगण्य है। देश में साढ़े सात करोड़ इंटरनेट प्रयोक्ता है फिर भी इतनी संख्या देखकर शर्म आती है क्योंकि अधिकतर लोग इन्हीं पौर्नसाईटों पर अपना वक्त बिताते हैं पर फिर भी अफसोस जैसी बात नहीं है। एक लेखक के रूप में हम यह चाहते हैं कि लोग हमारा लिखा पढ़ें पर स्वतंत्रता और मौलिकता के पक्षधर होने के कारण यह भी चाहते हैं कि वह स्वप्रेरणा से पढ़ें न कि बाध्य होकर। अपने प्राचीन ऋषियों. मुनियों, महापुरुषों तथा संतों ने जिस अक्षुण्ण अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन किया है वह मनुष्य मन के लिये सोने या हीरे की तरह है अगर उसे दिमाग में धारण किया जाये तो। अपनी बात कहते रहना है। आखिर आदमी अपने दैहिक सुख से ऊब जाता है और यही अध्यात्मिक ज्ञान उसका संरक्षक बनता है। हमने कई ऐसे प्रकरण देखे हैं कि आदमी बचपन से जिस संस्कार में पला बढ़ा और बड़े होकर जब भौतिक सुख की वजह से उसे भूल गया तब उसने जब मानसिक कष्ट ने घेरा तब वह हताश होकर अपने पीछे देखने लगता है। उसे पता ही नहीं चलता कि कहां से शुरु हुआ और कहां पहुंचा ऐसे में सब कुछ जानते हुए भी वह लौट नहीं पाता। जैसे कर्म होते हैं वैसे ही परिणाम! अगर देखा जाये तो समाज को डंडे के सहारे चलाने वाले कथित गुरु या धर्माचार्यों से बचने की अधिक जरूरत है क्योंकि वह तो अपने हितों के लिये समाज को भ्रमित करते हैं। मजे की बात यह है कि यह बाजार ही है जो कभी नैतिकता, धर्म और संस्कार की बात करता है और फिर लोगों के जज्बात भड़काने का काम भी करता है।
यह आश्चर्य की बात है कि इस देश के शिक्षित वर्ग का मनोरंजन से मन नहीं भरता। दिन भर टीवी पर अभिनेता और अभिनेत्रियों को देखकर वह बोर होता है तो कंप्यूटर पर आता है पर फिर वहां पर उन्हीं के नाम डालकर सच इंजिन में डालकर खोज करता है। यही हाल यौन साहित्य का है। टीवी और सीडी में चाहे वह कितनी बार देखता है पर कंप्यूटर में भी वही तलाशता है। ऐसे समाज से क्या अपेक्षा की जा सकती है। बाजार फिर उसका पैसा बटोरने के लिये कोई अन्य वेबसाईट शुरु कर देगा। इसलिये सच्चे समाज सेवी यह प्रयास प्रारंभ करें जिससे लोगों के मन में सात्विकता के भाव पुनः स्थापित किये जा सकें। शेष फिर कभी।
……………………………………

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

आपरेशन तो आसान है -हास्य व्यंग्य


सरकारी अस्पताल में एक सफाई कर्मचारी ने एक तीन साल के बच्चे के गले का आपरेशन कर दिया। उस बच्चे के गले में फोड़ा था और उसके परिवारजन डाक्टर के पास गये। वहां खड़े सफाई कर्मचारी ने उसका आपरेशन कर दिया। टीवी पर दिखी इस खबर पर यकीन करें तो समस्या यह नहीं है कि आपरेशन असफल हुआ बल्कि परिवारजन चिंतित इस बात से हैं कि कहीं बच्चे को कोई दूसरी बीमारी न हो जाये।
स्पष्टतः यह नियम विरोधी कार्य है। बावेला इसी बात पर मचा है। अधिकृत चिकित्सक का कहना है कि ‘मैंने तो सफाई कर्मचारी से कहा था कि बच्चा आपरेशन थियेटर में ले जाओ। उसने तो आपरेशन ही कर दिया।’
सफाई कर्मचारी ने कहा कि ‘डाक्टर साहब ने कहा तो मैंने आपरेशन कर दिया।’
संवाददाता ने पूछा कि ‘क्या ऐसे आपरेशन पहले भी किये हैं?’
सफाई कर्मचारी खामोश रहा। उसकी आंखें और उसका काम इस बात का बयान कर रहे थे कि उसने जो काम किया उसमें संभवतः वह सिद्ध हस्त हो गया होगा। यकीनन वह बहुत समय तक चिकित्सकों की ंसंगत में यह काम करते हुए इतना सक्षम हो गया होगा कि वह स्वयं आपरेशन कर सके। वरना क्या किसी में हिम्मत है कि कोई वेतनभोगी कर्मचारी अपने हाथ से बच्चे की गर्दन पर कैंची चलाये। बच्चे के परिवारजन काफी नाराज थे पर उन्होंने ऐसी चर्चा नहीं कि उस आपरेशन से उनका बच्चा कोई अस्वस्थ हुआ हो या उसे आराम नहीं है। बावेला इस बात पर मचा है कि आखिर एक सफाई कर्मचारी ने ऐसा क्यों किया?
इसका कानूनी या नैतिक पहलू जो भी हो उससे परे हटकर हम तो इसमें कुछ अन्य ही विचार उठता देख रहे हैं। क्या पश्चिमी चिकित्सा पद्धति इतनी आसान है कि कोई भी सीख सकता है? फिर यह इतने सारे विश्वविद्यालय और चिकित्सालय के बड़े बड़े प्रोफेसर विशेषज्ञ सीना तानकर दिखाते हैं वह सब छलावा है?
अपने यहां कहते हैं कि ‘करत करत अभ्यास, मूरख भये सुजान’। जहां तक काम करने और सीखने का सवाल है अपने लोग हमेशा ही सुजान रहे हैं। सच कहें तो उस सफाई कर्मचारी ने पूरी पश्चिमी चिकित्सा पद्धति की सफाई कर रखी दी हो ऐसा लग रहा है। इतनी ढेर सारी किताबों में सिर खपाते हुए और व्यवहारिक प्रयोगों में जान लगाने वाले आधुनिक चिकित्सक कठिनाई से बनते हैं पर उनको अगर सीधे ही अभ्यास कराया जाये तो शायद वह अधिक अच्छे बन जायें। इससे एक लाभ हो सकता है कि बहुत पैसा खर्च बने चिकित्सक और सर्जन अपनी पूंजी वसूल करने के लिये निर्मम हो जाते हैं। इस तरह जो अभ्यास से चिकित्सक बनेंगे वह निश्चित रूप से अधिक मानवीय व्यवहार करेंगे-हमारा यह आशय नहीं है कि किताबों से ऊंची पदवियां प्राप्त सभी चिकित्सक या सर्जन बुरा व्यवहार करते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने इसे बदनाम किया है।
पश्चिम विज्ञान से परिपूर्ण कुछ लोग ऐसे व्यवहार करते हैं गोया कि वह कोई भारी विद्वान हों। हमारे देश में लगभग आधी से अधिक जनसंख्या तो स्वयं ही अपना देशी इलाज करती है इसलिये इस मामले में बहस तो हो ही नहीं सकती कि यहां सुजान नहीं है। कहते हैं कि सारा विज्ञान अंग्रेजी में है इसलिये उसका ज्ञान होना जरूरी है। क्या खाक विज्ञान है?
अरे भई, किसी को को जुकाम हो गया तो उससे कहते हैं कि तुलसी का पत्ते चाय में डालकर पी लो ठीक हो जायेगा। ठीक हो भी जाता है। अब इससे क्या मतलब कि तुंलसी में कौनसा विटामिन होता है और चाय में कौनसा? अगर हम जुकाम से मुक्ति पा सकते हैं तो फिर हमें उसमें शामिल तत्वों के ज्ञान से क्या मतलब? अंग्रेजी की किताबों में क्या होता होगा? बीमारियां ऐसी होती है या इस कारण होती हैं। उनके अंग्रेजी नाम बता दिये जाते होंगे। फिर दवाईयों में कौनसा तत्व ऐसा होता है जो उनको ठीक कर देता है-इसकी जानकारी होगी। इस अभ्यास में पढ़ने वाले का वक्त कितना खराब होता होगा। फिर सर्जन बनने के लिये तो पता नहीं चिकित्सा छात्र कितनी मेहनत करते होंगे? उस सफाई कर्मचारी ने अपना काम जिस तरह किया है उससे तो लगता है कि देखकर कोई भी प्रतिभाशाली आदमी ध्यानपूर्वक काम करते हुए ही चिकित्सक या सर्जन बन सकता है।
चिकित्सा शिक्षा का पता नहीं पर इस कंप्यूटर विधा में हम कुछ पांरगत हो गये हैं उतना तो वह छात्र भी नहीं लगते जो विधिवत सीखे हैं। वजह यह है कि हमें कंप्यूटर और इंटरनेट पर काम करने का जितना अभ्यास है वह केवल अपने समकक्ष ब्लाग लेखकों में ही दिखाई देता है। संभव है कि हम कभी उन धुरंधर ब्लाग लेखकों से मिलें तो वह चक्करघिन्नी हो जायें और सोचें कि इसने कहीं विधिवत शिक्षा पाई होगी। अनेक छात्र कंप्यूटर सीखते हैं। उनको एक साल से अधिक लग जाता है। कंप्यूटर वह ऐसे सीखते हैं जैसे कि भारी काम कर रहे हों। हां, यह सही है कि उनकी कंप्यूटर की भाषा में कई ऐसे शब्द हैं जिनका उच्चारण भी हमसे कठिन होता है पर जब वह हमें काम करते देखते हैं तो वह हतप्रभ रह जाते हैं।
हमने आज तक कंप्यूटर की कोई किताब नहीं पढ़ी। हम तो कंप्यूटर पर आते ही नहीं पर यह शुरु से चिपका तो फिर खींचता ही रहा। सबसे पहले एक अखबार में फोटो कंपोजिंग में रूप में काम किया। उस समय पता नहीं था कि यह अभ्यास आगे क्या गुल खिलायेगा।
चिकित्सा विज्ञान की बात हम नहीं कह सकते पर जिस तरह कंप्यूटर लोग सीखते हुए या उसके बाद जिस तरह सीना तानते हैं उससे तो यही लगता है कि उनका ज्ञान भी एक छलावा है। अधिकतर कंप्यूटर सीखने वालों से मैं पूछता हूं कि तुम्हें हिंदी या अंग्रेजी टाईप करना आता है।
सभी ना में सिर हिला देते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि ‘कंप्यूटर का ज्ञान तुम्हारे लिये तभी आसान होगा जब तुम्हें दोनों प्रकार की टाईप आती होगी। कंप्यूटर पर तुम तभी आत्मविश्वास से कर पाओगे जब की बोर्ड से आंखें हटा लोगे।’
वह सुनते हैं पर उन पर प्रभाव नहीं नजर आता। वह कंप्यूटर का कितना ज्ञान रखते हैं पता नहीं? शायद लोग माउस से अधिक काम करते हैं इसलिये उन्हें पता ही नहीं कि इसका कोई रचनात्मक कार्य भी हो सकता है। यह आत्मप्रवंचना करना इसलिये भी जरूरी था कि आपरेशन करने वाले उस सफाई कर्मचारी के चेहरे में हमें अपना अक्स दिखाई देगा।
हमें याद उस अखबार में काम करना। वहां दिल्ली से आये कर्मचारियों ने तय किया कि हमें कंप्यूटर नहीं सिखायेंगे। मगर हमने तय किया सीखेंगे। दोनों प्रकार की टाईप हमें आती थी। हम उनको काम करते देखते थे। उनकी उंगलियों की गतिविधियां देखते थे। जब वह भोजनावकाश को जाते हम कंप्यूटर पर काम करते थे क्योंकि प्रबंधकों अपनी सक्रियता दिखाना जरूरी था। एक दिन हमने अपनी एक कविता टाईप कर दी। वह छप भी गयी। हमारे गुरु को हैरानी हुई। उसने कहा-‘तुम बहुत आत्मविश्वासी हो। कंप्यूटर में बहुत तरक्की करोगे।’
उस समय कंप्यूटर पर बड़े शहरों में ही काम मिलता था और छोटे शहरों में इसकी संभावना नगण्य थी। कुछ दिन बाद कंप्यूटर से हाथ छूट गया। जब दोबारा आये तो विंडो आ चुका था। दोबारा सीखना पड़ा। सिखाने वाला अपने से आयु में बहुत छोटा था। उसने जब देखा कि हम इसका उपयोग बड़े आत्मविश्वास से कर रहे हैं तब उसने पूछा कि ‘आपने पहले भी काम किया है।’
हमने कहा-‘तब विंडो नहीं था।’
कंप्यूटर एक पश्चिम में सृजित विज्ञान है। जब उसका साहित्य पढ़े बिना ही हम इतना सीख गये तो फिर क्या चिकित्सा विज्ञान में यह संभव नहीं है। पश्चिम का विज्ञान जरूरी है पर जरूरी नहीं है कि सीखने का वह तरीका अपनायें जो वह बताते हैं। खाली पीली डिग्रियां बनाने की बजाय तो छोटी आयु के बच्चों को चिकित्सा, विज्ञान, इंजीनियरिंग तथा कंप्यूटर सिखाने और बताने वाले छोटे केंद्र बनाये जाना चाहिये। अधिक से अधिक व्यवहारिक शिक्षा पर जोर देना चाहिये। हमारे देश में ‘आर्यभट्ट’ जैसे विद्वान हुए हैं पर यह पता नहीं कि उन्होंने कौनसे कालिज में शिक्षा प्राप्त की थी। इतने सारे ऋषि, मुनि और तपस्वियों ने वनों में तपस्या करते हुए अंतरिक्ष, विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र में सिद्धि प्राप्त की। पहले यकीन नहीं होता था पर अब लगता है कि इस देश में उड़ने वाले पुष्पक जैसे विमान, दूर तक मार करने वाले आग्नेयास्त्र और चक्र रहे होंगे। बहरहाल उस घटना के बारे में अधिक नहीं पता पर इससे हमें एक बात तो लगी कि पश्चिम विज्ञान हो या देशी सच बात तो यह है कि उनका सैद्धांतिक पक्ष से अधिक व्यवहारिक पक्ष है। कोई भी रचनाकर्म अंततः अपने हाथों से ही पूर्ण करना होता है। अतः अगर दूसरे को काम करते कोई प्रतिभाशाली अपने सामने देखे तो वह भी सीख सकता है जरूरी नहीं है कि उसके पास कोई उपाधि हो। वैसे भी हम देख चुके हैं कि उपाधियों से अधिक आदमी की कार्यदक्षता ही उसे सम्मान दिलाती है।
…………………………………
नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

भर्तृहरि शतक: मदद कर गाये नहीं वही भला आदमी


राजा भर्तृहरि कहते हैं कि
——————–

पद्माकरं दिनकरो विकची करोति
चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति
संत स्वयं परहिते विहिताभियोगाः

हिंदी में आशय-बिना याचना किये सूर्य नारायण संसार में प्रकाश का दान करते है। चंद्रमा कुमुदिनी को उज्जवलता प्रदान करता है। कोई प्रार्थना नहीं करता तब भी बादल वर्षा कर देते हैं। उसी प्रकार सहृदय मनुष्य स्वयं ही बिना किसी दिखावे के दूसरों की सहायता करने के लिये तत्पर रहते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज सेवा करना फैशन हो सकता है पर उससे किसी का भला होगा यह विचार करना भी व्यर्थ है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में समाज सेवा करने का समाचार आना एक विज्ञापन से अधिक कुछ नहीं होता। कैमरे के सामने बाढ़ या अकाल पीडि़तों को सहायता देने के फोटो देखकर यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह मदद है बल्कि वह एक प्रचार है। बिना स्वार्थ के सहायत करने वाले लोग कभी इस तरह के दिखावे में नहीं आते। जो दिखाकर मदद कर रहे हैं उनसे पीछे प्रचार पाना ही उनका उद्देश्य है। इससे समाज का उद्धार नहीं होता। समाज के सच्चे हितैषी तो वही होते हैं जो बिना प्रचार के किसी की याचना न होने पर भी सहायता के लिये पहुंच जाते हैं। जिनके हृदय में किसी की सहायता का भाव उस मनुष्य को बिना किसी को दिखाये सहायता के लिये तत्पर होना चाहिये-यह सोचकर कि वह एक मनुष्य है और यह उसका धर्म है। अगर आप सहायता का प्रचार करते हैं तो दान से मिलने वाले पुण्य का नाश करते हैं।
कहते हैं कि दान या सहायता देते समय अपनी आँखें याचक से नहीं मिलाना चाहिए क्योंकि इससे अपने अन्दर अंहकार और उसके मन में कुंठा के भाव का जन्म होता है। दान या सहायता में अपने अन्दर इस भाव को नहीं लाना चाहिए कि “मैं कर रहा हूँ*, अगर यह भाव आया तो इसका अर्थ यह है कि हमने केवल अपने अहं को तुष्ट किया।
————————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

%d bloggers like this: