सुखं द्वावमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते।
सुखं चरति लोकेऽस्मिनन्मन्ता विनश्तिं।
हिन्दी में भावार्थ-अन्य व्यक्तियों द्वारा अपमान किये जाने पर उनको माफ करने वाला मनुष्य सुखी की नींद लेनें के साथ संसार में सहजता से विचरता है परंतु दूसरों का अपमान करने वाला मनुष्य स्वयं ही नष्ट होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन को अगर दृष्टा भाव से देखा जाये तो यकीनन उसके प्रति सहजता का बोध होता है। मान और अपमान से परे होकर विचार करें तो फिर जीवन का एक अलग ही मजा है। श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि गुण ही गुणों में तथा इंद्रिया ही इंद्रियों में बरत रही हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि देह पर जो तत्व प्रभाव डालते हैं उनको अमृतमय या विष से व्याप्त होने का प्रभाव भी मनुष्य पर पड़ता है। जो गंदा खाते पीते हैं उनकी वाणी और विचार उसी अनुरूप होते हैं इसलिये उनसे सद्व्यवहार की अपेक्षा ज्ञानियों को नहीं करना चाहिए। अगर वह अपमान करते हैं तो उसकी अनदेखी कर देना ही उचित है। क्योंकि अगर उनका प्रतिकार उनकी शैली में ही किया जाये तो अपना ही रक्तचाप भी बढ़ जाता है। फिर स्वयं वाणी में कटुता और आंखों में विष व्याप्त होता जाता है। इसलिये अच्छा यही है कि अपने अपमान करने वालों को माफ कर दें। उसके बाद चिंतन और ध्यान करें तो इस बात का अहसास होगा कि हमने ठीक किया।
एक बात निश्चित यह है कि हर आदमी को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है और जो दूसरों का अपमान करते हैं वह तनाव की अग्नि में स्वयं का मन और तन जलाते हैं। उनकी शक्ति और बुद्धि धीरे धीरे पतन की तरफ बढ़ती है और अंततः नष्ट हो जाते हैं। अतः अपने मन में क्षमा का भाव हमेशा धारण करना चाहिए।
——–
संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com
————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
Like this:
पसंद करें लोड हो रहा है...
दीपक भारतदीप द्धारा
|
अध्यात्म, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू धर्म, hindi sahitya, hindu dharma, society में प्रकाशित किया गया
|
Also tagged अध्यात्म, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू धर्म, hindi sahitya, hindu dharma, society
|
लिखना पढ़ना चातुरी, यह संसारी जेव।
जिस पढ़ने सों पाइये, पढ़ना किसी न सेव।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि लिखना, पढ़ना चतुराई करना यह तो संसार की सामन्य बातें हैं। जिस परमात्मा का नाम पढ़कर समझना चाहिये उसे कोई नहीं मानता।
ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पण्डित कवी अनेक।
राम रता इन्द्री जिता, कोटी मध्ये अनेक।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं इस संसार में ज्ञानी और विद्वान बहुत मिले। पण्डित और कवि भी बहुत हैं। परन्तु राम भक्ति में लीन अपनी इंद्रियों को जीतने वाला करोड़ो में कोई एक होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी यही कहा कि हजारों में कोई एक मुझे भजता है। उन हजारों में भी कोई एक मुझे हृदय से भजता है।
मनुष्य का मन जब संसार के कार्य से ऊब जाता है तब वह कुछ नया चाहता है। कुछ लोग फिल्म और धारावाहिक देखकर मनोरंजन करते हैं तो कुछ गाने सुनकर। कुछ लोग भगवान भक्ति भी यह सोचकर करते हैं कि इससे मन को राहत मिल जाये। उनमें श्रद्धा का अभाव होता है इसलिये भक्ति करने के बाद उनके आचार, विचार और कर्म में कोई अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो सच्ची श्रद्धा से भगवान की भक्ति कर पाते हैं।
इस संसार में जिसे अवसर मिलता है वह पढ़ता लिखता तो अवश्य ही है और इस कारण उसमें चतुराई भी आती है। मगर इससे लाभ कुछ नहीं है। ऐसे कई प्रसंग अब सामने आने लगेे हैं जिसमें पढ़े लिखे लोग ही धर्म परिवर्तन कर दिखाते हैं कि उनमें समाज और परिवार के प्रति विद्रोह है। धर्म परिवर्तन कर विवाह करने वाले अधिकतर लोग शिक्षित ही रहे हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को शिक्षित तो बना देती है पर अध्यात्मिक ज्ञानी नहीं। कहने को यही शिक्षित कहते हैं कि धर्म क्या चीज है पर भारतीय अध्यात्म ज्ञान के अभाव मेें वही धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। आप उनसे पूछिये कि धर्म अगर कोई चीज नहीं है तो उसे बदला क्यों? अगर आप देश में चल रहे भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर चल रहे झगड़ों को देखें तो उनमें शिक्षित लोग ही अधिक लिप्त हैं। इससे यह तो जाहिर हो जाता है कि शिक्षित होने से इंसान ज्ञानी नहीं हो जाता। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आदमी भटकाव की राह पर चला जाता है। इसलिये जितना हो सके अपने घर पर अध्यात्मिक ज्ञान की पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
</strong
Like this:
पसंद करें लोड हो रहा है...
दीपक भारतदीप द्धारा
|
अध्यात्म, कला, धर्म, समाज, हिंदी साहित्य, हिन्दू, hindu, sandesh में प्रकाशित किया गया
|
Also tagged अध्यात्म, कला, धर्म, समाज, हिंदी साहित्य, हिन्दू, edcation, hindu, reilgion, sandesh
|
द्वावेव वर्णयेन्नित्यमनध्यायो प्रयत्नतः।
स्वाध्यायभूमिंचाशुद्धामात्मानं चाशुचिंतद्विजः।।
हिंदी में भावार्थ-जो स्थान पवित्र और शुद्ध नहीं है वहां अध्ययन नहीं करना चाहिये। उसी तरह स्वयं शुद्ध हुए बिना भी व्यक्ति को अध्ययन नहंी करना चाहिये। शुद्ध और पवित्र स्थान पर स्वयं शुद्ध भाव से संपन्न व्यक्ति ही विद्या सही तरह से प्राप्त कर सकता है।
पशुमण्डुकमर्जारश्वसर्पनकुलाखुभिः।
अंतरागमने विद्यादनाध्यायमहर्निशमम्।।
हिंदी में भावार्थ-चूहा, बिल्ली,श्वान,गाय,मेढक,नेवला और सांप अगर गुरु और शिष्य के बीच उस समय निकल जायें जब विद्याध्ययन चल रहा हो तो उसे उस दिन बंद कर देना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में विद्यालयों की जो दशा है उसे सभी जानते है। देश में बहुत कम विद्यालय ऐसे होंगे जो अपने यहां साफ सफाई का का ध्यान रखते होंगे। सरकारी क्षेत्र के हों या निजी क्षेत्र के विद्यालय उनके साफ सफाई का ख्याल बहुत ही कम रखा जाता है। आज की वर्तमान पीढ़ी पर उसकी शिक्षा को लेकर तमाम तरह के कटाक्ष किये जाते हैं पर इस बात पर कितने लोग ध्यान दे रहे हैं कि उनको शिक्षा दिये जाने वाले स्थान कितने साफ सुथरे हैं। गांवों मेें चले जाईये तो विद्यालयों के नाम बड़े आकर्षक होते हैं पर उनके जर्जर भवनों की हालत और वहां व्याप्त गंदगी को देखें तो अपनी व्यवस्था को कोसना पड़ता है पर उसकी जिम्मेदारी लेने वाले लोग भी हमारे बीच में से ही होते है। वह नन्हें नन्हें मासूम बालक बालिकायें शिक्षा प्राप्त करते हैं पर पास ही व्याप्त गंदगी का उन पर क्या मानसिक दुष्प्रभाव पड़ता है इस पर कोई विचार नहीं करता।
निजी क्षेत्र के विद्यालय भी कम अव्यवस्था वाले नहीं है। उनके विद्यालयों के नाम भले ही आकर्षक हों पर उनका लक्ष्य केवल पैसा कमाना होता है। यह मानसिक अपवित्रता किस तरह बालक बालिकाओं को शिक्षित कर पायेगी यह भी विचार का विषय है? वह किताबों का अध्ययन कर अक्षरज्ञान तो प्राप्त कर लेते हैं पर नैतिक ज्ञान-जो कि पढ़ाने से अधिक शिक्षकों तथा प्रबंधकों के आचरण से आता है-उनमें नहीं स्थापित हो पाता। यही बालक-बालिकायें जब समाज और राष्ट्र के उच्च पद पर पहुंचते हैं तो फिर उनका लक्ष्य भी केवल धनार्जन करना ही रह जाता है।
अगर देश के विद्यालयों और महाविद्यालयों में ही पवित्रता और साफ सफाई की व्यवस्था रखी जाये तो शायद अपने देश को उस नैतिक संकट से मुक्त किया जा सकता है जिसके लिये विश्व भर में बदनामी हो रही है। देशभक्ति और समाज सेवा के गीत सुनाने से व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठ नहीं हो जाता बल्कि बचपन से उसे अपने आचरण और व्यवहार से सिखाना पड़ता है। यह नैतिक दायित्व माता पिता के साथ ही गुरुजन और शिक्षा प्रबंधकों का है जिसे पूरा करना आवश्यक है।
………………………
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
Like this:
पसंद करें लोड हो रहा है...