वह होंगे स्वामी
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सुनकर मरणासन्न गुरुजी
उठकर बैठे और बोले,
‘‘कमबख्त
किस जन्म का बदला लेने आया है,
जो यह सादगी का नारा बताया है,
तुझे मैंने कितनी बार बताया है कि
आदमी गरीब है या अमीर है
अज्ञानी है कि संत है,
या आम है कि खास है
इसका पता उसके मरने पर
निकलने वाली अर्थी से चलता है,
जिनकी जिंदगी बेरौनक रही
उनकी अर्थी में कोई नहीं चलता है,
जो जलाते हर समय ज्ञान का प्रकाश
उनकी पार्थिव देह के चारों तरफ
घी का दीपक जलता है,
सजता है फूलों का बाग,
बजता है चारों तरफ विरह का राग
फिर गरीबों के कल्याण के व्यापार में
कुछ ही इंसानों का भला किया जाता है,
बाकी तो ज़माने से सोना लूटकर उसे गला दिया जाता है,
हमारी अर्थी और दाह संस्कार पर तुम
धूमधड़कारा करना
इसी शर्त पर हमें मंजूर है अभी मरना,
वरना अपनी बीमारी साथ लेकर जिंदा रहेंगे
चाहे जितना दर्द हम सहेंगे,
मरने से पहले प्रिय शिष्य के रूप में
तुम्हारी जगह किसी दूसरे का नाम
वसीयत में लिखायेंगे,
दौलत बहुत जरूरी है
यह मरने के बाद भी दिखायेंगे।’’
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चेले ने कहा गुरु से
‘महाराज,
ढेर सारा पैसा आ गया है,
अपना फाईव स्टार होटल नुमा
आश्रम भी बनकर लगता नया है,,
यह सब आपके चमत्कारों का परिणाम है,
सत्संग में आपके पीछे खड़े होकर
भभूत, घड़ी और अंगूठी दी मैंने
पर हवाओं का हुआ नाम है
मगर अब छवि बदलने का समय आया है,
ज्ञान के बिना यह अंधेरी माया है,
इसलिये अब लोगों को पुराने ग्रथों से
रटकर उपदेश दिया करें,
ज्ञानियों से भी वाह वाह लिया करें,
वरना कोई आपको संत नहीं मानेगा,
हर कोई जादूगर जानेगा।’’
सुनकर बोले गुरुजी
‘मूर्ख,
क्या धरा ज्ञान में,
चमक है बस दौलत की शान में,
भला,
तूने किसी ज्ञानी को अपने आश्रम में आते देखा,
किसी ज्ञानी को महलनुमा आश्रम में
घर बसाते देखा है
हमारा देश विश्व में विश्व गुरु इसलिये कहलाता है
क्योंकि अज्ञान के अंधेरे में ज्ञान रौशन हो पाता है,
इस काम के लिये ढेर सारे लोग हैं,
जिनको मुफ्त में ज्ञान बांटने और दान करने जैसे रोग हैं,,
अपने देश में बहुत तंगहाली है
इसलिये अपने चमत्कार की चारो तरफ लाली है,
अगर हमने चमत्कार छोड़कर ज्ञान बघारा तो
हर कोई हमें मरा जानेगा।
जिंदा रहकर चमत्कार करते रहे
तो हर कोई हमें अमर मानेगा।’’
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खज़ाना लूटकर लुटेरे
करने लगे व्यापार,
बांटने लगे उधार,
इस तरह साहुकारों और सौदागरों भी
ऊंची जमात में शामिल हो गये,
क्योंकि उन सामंतों को मिला अपना हिस्सा
जिनको ज़माने की जागीर मिली
विरासत में,
इंसानियत के कायदे रहे जिनकी हिरासत में,
उन्होंने दौलत और शौहरत की ख्वाहिश पूरी करने के लिये
दरियादिली के इरादे कब्र में दफन कर दिये,
और तसल्ली कर ली यह सोचकर कि
वह ऊंची जमात की दावतों में जाने के काबिल हो गये।
————–
कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अपने तबादले से वह खुश नहीं थे,
क्योंकि नयी जगह पर
ऊपरी कमाई के अवसर कुछ नहीं थे,
इसलिये अपने बॉस के जाकर बोले,
‘‘मैंने तो आपकी आज्ञा का पालन
हमेशा वफादार की तरह किया,
मेरी टेबल पर जो भी तोहफा आया
बाद में डाला अपनी जेब में
आपका हिस्सा पहले आपके हवाले किया,
यह आप मेरे पेट पर क्यों मार रहे लात,
जो तबादले की कर दी घात।’’
बॉस ने रुंआसे होकर कहा
‘‘शायद तुम्हें पता नहीं
तुम्हारी वज़ह से मेरे ऊपर भी
संभावित जांच की तलवार लटकी है,
प्रचार वालों की नज़र अब तुम पर भी अटकी है,
जब आता है अपने पर संकट
तब शिकार के रूप में पेश
अपना वफ़ादार ही किया जाता है,
दाना दुश्मन से निपटते हैं बाद में
पहले नांदा दोस्त मिटाया जाता है,
तुम्हारे सभी जगह चर्चे हैं,
कि जितनी आमदनी है
उससे कई गुना घर के खर्चे हैं,
भला कौन बॉस सहन कर सकता है
अपने मातहत से अपनी तुलना,
बता रहे हैं लोग तुमको मेरे बराबर अमीर
तुम भी अब जाकर सुनना,
अधिकारी के अगाड़ी तुम चल रहे थे,
जैसे हम तुम्हारे हिस्से पर ही पल रहे थे,
एक तो छोटे के पिछाड़ी चलना मुझे मंजूर न था,
फिर तुम्हारी वज़ह से
हमारी मुसीबत का दिन भी दूर न था,
इसलिये तुम्हारा तबादला कर दिया,
अपने वफादार भी हम नहीं कृपालु
यह साबित कर
बदनामी से बचने के लिये रफादफा मामला कर दिया,
तुम्हारी वफदारी का यह है इनाम,
बर्खास्तगी का नहीं किया काम,
तबादले पर ही खत्म कर दी बात।
———
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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आशिक ने माशुका से कहा
‘कल गुरूपूर्णिमा है
इसलिये तुमसे नहीं मिल पाऊंगा,
जिसकी कृपा से हुआ तुमसे मिलन
उस गुरु से मिलने
उनके गुप्त अड्डे पर जाऊंगा,
क्योंकि उन पर एक प्रेम प्रसंग को लेकर
कसा है कानून का शिकंजा
पड़ सकता है कभी भी उन पर धाराओं का पंजा
इसलिये इधर उधर फिर रहे हैं,
फिर भी चारों तरफ से घिर रहे हैं,
उन्होंने ही मुझे तुमसे प्रेम करने का रास्ता बताया,
इसलिये तुम्हें बड़ी मुश्किल से पटाया,
वही प्रेम पत्र लिखवाते थे,
बोलने का अंदाज भी सिखाते थे,
जितनी भी लिखी तुम्हें मैंने शायरियां,
अपने असफल प्रेम में उनसे ही भरी थी
मेरे गुरूजी ने अपनी डायरियां,
इसलिये कल मेरी इश्क से छुट्टी होगी।’
सुनकर भड़की माशुका
और लगभग तलाक की भाषा में बोली
‘अच्छा हुआ जो गुरुजी की महिमा का बखान,
धन्य है जो पूर्णिमा आई
हुआ मुझे सच का भान,
कमबख्त, इश्क गुरु से अच्छा किसी
अध्यात्मिक गुरु से लिया होता ज्ञान,
ताकि समय और असमय का होता भान,
मैं तो तुम्हें समझी थी भक्त,
तुम तो निकले एकदम आसक्त,
मंदिर में आकर तुमने मुझे अपने
धार्मिक होने का अहसास दिलाया,
मगर वह छल था, अब यह दिखाया,
कविता की बजाय शायरियां लिखते थे,
बड़े विद्वान दिखते थे,
अपनी और गुरुजी की असलियत बता दी,
इश्क की फर्जी वल्दियत जता दी,
इसलिये अब कभी मेरे सामने मत आना
कल से तुम्हारे इश्क से मेरी कुट्टी,
मैं तुमसे और तुम मुझसे पाओ छुट्टी।।
————
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कागज़ की ताकत
आम आदमी की जुबान से बढ़ी है,
वह चाहे कुछ भी बोले
सच है वही कारनामा
जिसकी कलम से लिखापढ़ी है।
———–
शहर में हर जगह कागज़ पर सड़क बन गयी,
सभी गांवों मे तालाब खुद गया,
और हर कालोनी में हराभरा पार्क खिलाखिलाता
नज़र आया।
शायद आम आदमी आंखों से देख नहीं पाते
वरना तो हर अखबार की
छपी रिपोर्टों में सुखद समाचारों का
झुंड हर रोज आया।
————
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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3.दीपक भारतदीप का चिंतन
गरजने वाले बरसते नहीं,
काम करने वाले कहते नहीं,
फिर क्यों यकीन करते हैं वादा करने वालों का
को कभी उनको पूरा करते नहीं।
———
जिनकी दौलत की भूख को
सर्वशक्तिमान भी नहीं मिटा सकता,
लोगों के भले का जिम्मा
वही लोग लेते हैं,
भूखे की रोटी पके कहां से
वह पहले ही आटा और आग को
कमीशन में बदल लेते हैं।
——–
अपने हाथों ही अपने भविष्य का ठेका
अंधों को दे दिया
अब रोते क्यों हो,
रौशनी बेचकर
अपनी आंखों से
अपनी तिजोरी में बढ़ती हरियाली देखकर
वह खुश हो रहे हैं,
आंसु बहाने से अच्छा है
तुम सोचो जरा
दंड मिले खुद को
ऐसे अपराध इस धरती पर बोते क्यों हो।
————–
उनके काम पर उंगली न उठाओ,
अपने हाथ से
सारे हक तुमने उनको दिये हैं,
कुदरत ने दिये थे जो तोहफे तुमको
उनका इस्तेमाल तुमने बेजा किया
जैसे मुफ्त में लिये हैं।
कुछ वादों को झूठ में देकर
दूसरों से हक लेकर
वह लोग अपने पेट भरते नहीं थकते
क्योंकि उसे भरने के लिये ही
वह दूसरों के लिये जिए हैं।
———–
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हिन्दी में सनसनी खेज खबर भी
अंग्रेजी अखबार से ही क्यों आती है,
जो हिन्दी में हो
वह सनसनी क्यों नहीं बन पाती है।
डरे हुए हैं बंधुआ कलम मजदूर
उनकी कमजोरी
शायद परायी भाषा में छिप जाती है।
———
मखमली विकास तक ही
उनकी नज़र जाती है,
जहां पैबंद लगे हैं अभावों के
वहां पर आंखें बंद हो जाती हैं।
देसी गुलामों का नजरिया
विदेशी शहंशाहों को यहां गिरवी हैं,
जहां दलाली मिलती है
वहां जुबान दहाड़ती है
नहीं तो तालू से चिपक जाती है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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