Tag Archives: मनोरंजन

राज्य प्रबंध का समाज में हस्तक्षेप अधिक नहीं होना चाहिये-हिन्दी लेख


                    भारत में सामाजिक, आर्थिक, धाार्मिक, शिक्षा पत्रकारिता, खेल, फिल्म, टीवी तथा अन्य सभी सार्वजनिक विषयों में राज्य का हस्तक्षेप हो गया है।  अनेक ऐसे काम जो समाज को ही करना चाहिये वह राज्य प्रबंध पर निर्भर हो गये हैं। ऐसे में जब कोई राजनीतिक बदलाव होता है तो हर क्षेत्र में उसके प्रभाव देखने को मिलते हैं।  देश में गत साठ वर्षों से राजनीतिक धारा के अनुसार ही सभी सार्वजनिक विषयों तथा उनसे संबद्ध संस्थाओं में राज्य का हस्तक्षेप का हस्तक्षेप हुआ तो विचाराधाराओं के अनुसार ही वहां संचालक भी नियुक्त हुए।  हमारे देश में तीन प्रकार की राजनीतिक विचाराधारायें हैं-समाजवादी, साम्यवादी और दक्षिणपंथी।  उसी के अनुसार रचनाकारों के भी तीन वर्ग बने-प्रगतिशील जनवादी तथा परंपरावादी।  अभी तक प्रथम दो विचाराधारायें संयुक्त रूप से भारत की प्रचार, शिक्षा तथा सामाजिक निर्माण में जुटी रहीं हैं पर परिणाम ढाक के तीन पात।  उल्टे समाज असमंजस की स्थिति में है।

                    पिछले साल हमारे देश में एतिहासिक राजनीतिक परिवर्तन हुआ। पूरी तरह से दक्षिणपंथी संगठन राजनीतिक परिवर्तन के संवाहक बन गये।  भारत में यह कभी अप्रत्याशित लगता  था पर हुआ।  अब दक्षिणपंथी संगठन अपने प्रतिपक्षी विचाराधाराओं की नीति पर चलते हुए वही कर रहे है जो पहले वह करते रहे थे।  प्रतिपक्षी विचाराधारा के विद्वान शाब्दिक विरोध करने के साथ ही  हर जगह अपने मौजूदा तत्वों को प्रतिरोध  के लिये तत्पर बना रहे हैं।

                    इस लेखक ने तीनों प्रकार के बुद्धिजीवियों के साथ कभी न कभी बैठक की है।  प्रारंभ  में दक्षिण पंथ का मस्तिष्क पर  प्रभाव था पर श्रीमद्भागवत गीता, चाणक्य नीति, कौटिल्य, मनुस्मृति, भर्तुहरि नीति शतक, विदुर नीति तथा अन्य ग्रंथों पर अंतर्जाल पर लिखते लिखते अपनी विचाराधारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से मिल गयी है।  हमें लगता है कि हमारे अध्यात्मिक दर्शन में न केवल आत्मिक वरन् भौतिक विषय में भी ढेर सारा ज्ञान है। पश्चिमी अर्थशास्त्र में दर्शन शास्त्र का अध्ययन नहीं होता और हमारे यहां दर्शन शास्त्र में भी अर्थशास्त्र रहता है।  दक्षिणपंथ की विचाराधारा से यही सोच हमें प्रथक करती है।

          बहरहाल हमारा मानना है कि समाजवाद और साम्यवादियों की विचाराधारा के आधार  पर समाज और उसकी संस्थाओं का राज्य प्रबंध की शक्ति से  ही चलाया गया था।  अब अगर राज्य प्रबंध बदल गया है तो अन्य संस्थाओं में  दक्षिणपंथी विद्वानों का नियंत्रण चाहें तो न चाहें तो होगा तो जरूर।  अध्यात्मिक विचारधारा के संवाहक होने की दृष्टि से हम भी चाहते हैं कि परिवर्तन हो। आखिर समाज और उसके विचार विमर्श तथा शिक्षण की संस्थाओं में जनमानस के दिमाग में परिवर्तन की वही चाहत तो है जो लोगों ने राज्य प्रबंध में बदलाव कर जाहिर की है।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
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श्रीमद्भागवत् गीता में ज्ञान और विज्ञान से सतर्त संपर्क रखने का संदेश-श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष लेख


            आज पूरे देश में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनायी जा रही है। हमारे धार्मिक परंपराओं में भगवान श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के चरित्र का बहुत बड़ा स्थान है। हमारे देश में इन दोनों की मान्यता का क्षेत्र इतना व्यापक है कि देश की भूगौलिक तथा एतिहासिक विभिन्नता का कोई प्रभाव इनकी लोकप्रियता पर नहीं पड़ता। हर जगह भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के नाम पर अनेक पर्व मनाये जाते हैं। उनका रूप भिन्न हो सकता है पर भक्तों की  आस्था या विश्वास में कोई अंतर नहीं रहता।  महाराष्ट्र में लोग हांडी फोड़ने के सामूहिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं तो वृंदावन में मंदिरों की उत्कृष्ट सजावट का दर्शन करने भक्तगण एकतित्र होते हैं। उत्तर भारत में कहीं भगवान के मंदिरों में छप्पन भोग सजते हैं तो कहीं भजन संगीत के कार्यक्रम होते हैं।

            जैसा कि श्रीमद्भागवत गीता में भक्तों के चार प्रकार -आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी-बताये गये हैं। जहां अन्य भक्त भगवान के रूप का चित्त में स्मरण करते हैं वहीं ज्ञानी और साधक उनके संदेशों पर चिंत्तन करते हैं। वृंदावन में उनकी बाल लीलाओं पर भक्त चर्चा करते हैं पर ज्ञान साधकों के लिये कुरुक्षेत्र के महाभारत युद्ध के दौरान उनकी भूमिका का चिंत्तन रोमांच पैदा करता है। जहां उन्होंने गीता के माध्यम से उस अध्यात्मिक ज्ञान की स्थापना की जो आज भी विद्वानों को आकर्षित करता है वही ज्ञान साधकों में जीवन में आत्मविश्वास से रहने की कला प्रदान की।  यह अलग बात है कि जिस श्रीमद्भावगत गीता के ज्ञान की शक्ति पर हमारा देश जिस श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान की वजह से विश्व का अध्यात्मिक गुरु कहलाया उसे पवित्र मानकर लोगों ने सजा तो लिया पर उसके ज्ञान को समझने का प्रयास कितने करते हैं यह अलग से सर्वेक्षण करने का विषय है।

            श्रीमद्भागवत् गीता में ज्ञान के साथ विज्ञान को भी अपनाने की बात कही गयी है। इसका मतलब साफ है कि व्यक्ति को संसार में होने वाले भौतिक परिवर्तनों तथा उत्पादित सामानों के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिये।  उसमें यह स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य यदि योगाभ्यास करे तो वह अत्यंत शक्तिशाली हो जाता है।  जैसा कि हम जानते हैं कि शक्तिशाली व्यक्ति में ही संयम और आत्मविश्वास होता है। जिस व्यक्ति में भय, संशय, और अज्ञान है वह स्वयं ही संकट में रहने के साथ ही दूसरों के लिये भी समस्या खड़ी करता है।

            हमने देखा है कि अक्सर कथित रूप से विभिन्न धर्मों की रक्षा करने वाले ठेकेदार अनेक प्रकार के खतरनाक उपाय करते हैं। इतना ही नहीं ऐसे लोग अपने समूहों को पहनावे, खान पान, रहन सहन और मनोरंजन के नाम पर कथित रूप से अश्लीलता, व्यसन, तथा अपराध से बचने के लिये प्रतिबंध के दायरे में लाने का प्रयास करते हैं।  उन्हें लगता है कि वह लोगों को पहनावे और खानपान के विषयों पर दबाव डालकर धर्म को बचा सकते हैं।  यकीनन वह अज्ञानी है। अज्ञान से भय और भय से क्रूरता पैदा होती है।   हम पूरे विश्व में धर्म के नाम पर जो हिंसक संघर्ष देख रहे हैं वह अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव का परिणाम है। इसका मतलब यह कथित धर्म रक्षक यह मानते हैं कि वह उनके समुदाय के लोग केवल देह से ही मनुष्य हैं और बुद्धि से उनको प्रशिक्षित करने का माद्दा धर्म के शाब्दिक प्रचार में हो ही नहीं सकता। वह इस संसार के गुण, कर्म और फल के आपसी संबंध को नहीं देख पाते।  उनके लगता है कि उनके धर्म समूह पर निंयत्रण केवल अस्त्र शस्त्र और दैहिक दंड से ही हो सकता है। सामान्य मनुष्य सीमित क्षेत्र में अपने परिवार के हितों तक ही सक्रिय रहता है जबकि  अतिवाद अपना क्षेत्र व्यापक कर प्रचार कर समाज सेवक की स्वयंभू की उपाधि धारण करते  जो अंततः उनको धन भी दिलाने का काम भी करती है।

            धर्म के नाम पर संघर्ष होने पर उनसे जुड़े समूहों के सामान्य लोगों को सबसे अधिक हानि होती है।  हमने देखा है कि मध्य एशिया में धर्मों के उपसमूहों के बीच भी भारी संघर्ष चल रहा है।  वहां के हिंसक दृश्य जब टीवी या समाचार पत्रों में देखने को मिलते हैं तब देह में सिहरन पैदा होती है।  हम अपने पड़ौस में देख रहे हैं जहां धर्म के नाम पर देश की नीति अपनायी गयी है। वहां भी भारी हिंसा होती रहती है।  हमारे देश में हालांकि उस तरह का वातावरण नहीं है पर फिर भी कुछ लोग धर्म के नाम पर वाचाल कर ऐसी बातें कहते हैं जिनसे विवाद खड़े  होते हैं।  खासतौर से जिनके पास पद, पैसा और प्रचार शक्ति है वह तो इस तरह मानते हैं कि वह एक तरह से धर्म विशेषज्ञ हैं और चाहे जैसी बात कह देते हैं।  खासतौर से श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान पर कुछ विद्वान बोलते हैं तो यह देखकर आश्चर्य होता है उनकी भाव भंगिमा कभी यह प्रमाणित नहीं करती कि वह उसके संदेशा के मार्ग का अनुसरण भी कर रहे हैं।

            श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करने पर अनेक रोचक अनुभव होते हैं। एक तो यह कि इस संसार चक्र के मूल तत्व समझ में आने लगते हैं तो दूसरा यह कि हर बार कोई न कोई श्लोक इस तरह सामने आता है जैसे कि वह पहली बार आया हो। निष्कार्म कर्म और निष्प्रयोजन दया का अर्थ भी समझना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि होती है। कर्म, अकर्म, और विकर्म का भेद अत्यंत रुचिकर है।  हम यहां श्रीमद्भागवत गीता पर चर्चा करने बैठें तो कई पृष्ट कम पड़ जायें और उसका ज्ञान आत्मसात हो जाये चंद पंक्तियों में अपनी कही जा सकती है।  गीता के ज्ञान का भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों में ही प्रचार करने का आदेश दिया है।  यह बात भारतीय विचारधारा को श्रेष्ठ बनाती है  जबकि पाश्चात्य विचाराधाराओं के ग्रंथों के  सृजक अपने अनुयायियों को अभक्तों को भी भक्त बनाकर उनमें अपनी सामग्री का प्रचार करने का आदेश देते हैं।

            यह आश्चर्य ही है कि आज भी पूरे विश्व में श्रीमद्भागवत गीता ऐसे होती है जैसे कि नवीनतमत रचना है। हम जैसे ज्ञान साधकों के लिये श्रीमद्भागवत गीता ऐसा बौद्धिक आधार है जिस पर जीवन सहजभाव से टिकाया जा सकता है। ऐसे ग्रंथ के सृजक भगवान श्रीकृष्ण को हृदय से नमन।  इस पर ब्लॉग लेखकों तथा पाठ के पाठकों को हार्दिक बधाई। जय श्रीकृष्ण।

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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रोटी पर राजनीति-हिंदी व्यंग्य कविता


दूसरे को विष देने के लिये सभी तैयार

पर  हर कोई खुद अमृत चखता है,

घर से निकलता है  अपनी  खुशियां ढूंढने

पूरा ज़माना बड़े जोश के साथ

दूसरों को सताने के लिये

दर्द की पुड़िया भी साथ रखता है।

कहें दीपक बापू

बातें बहुत लोग करते हैं

सभी का भला करने की

मगर आमादा रहते

अपना मतलब निकालने के वास्ते,

जुबां से करते गरीबों की मदद की बात

आंखें उनकी ढूंढती अपनी कमीशने के रास्ते,

बेबसों की मदद का नारा लोग  देते,

पहले अपने लिये दान का चारा लेते,

नाटकीय अंदाज में सभी को रोटी

दिलाने के लिये आते वही सड़कों पर

जिनके घर में चंदे से भोजन पकता है।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

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मनोरंजन के लिए-हिंदी व्यंग्य कविता


देश में तरक्की बहुत हो गयी है

यह सभी कहेंगे,

मगर सड़कें संकरी है

कारें बहुत हैं

इसलिये हादसे होते रहेंगे,

रुपया बहुत फैला है बाज़ार में

मगर दौलत वाले कम हैं,

इसलिये लूटने वाले भी

उनका बोझ हल्का कर

स्वयं ढोते रहेंगे।

कहें दीपक बापू

टूटता नहीं तिलस्म कभी माया का,

पत्थर पर पांव रखकर

उस सोने का पीछा करते हैं लोग

जो न कभी दिल भरता

न काम करता कोई काया का,

फरिश्ते पी गये सारा अमृत

इंसानों ने शराब को संस्कार  बना लिया,

अपनी जिदगी से बेजार हो गये लोगों ने

मनोरंजन के लिये

सर्वशक्तिमान की आराधना को

खाली समय

पढ़ने का किस्सा बना लिया,

बदहवास और मदहोश लोग

आकाश में उड़ने की चाहत लिये

जमीन पर यूं ही गिरते रहेंगे।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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मनोरंजन के बाज़ार में बिकती सनसनी-हिंदी व्यंग्य कविता


किसी की कामयाबी पर

कौन जश्न मनाता है,

एक दूसरे की तबाही पर ही

सभी को मजा लेना आता है।

कहें दीपक बापू

दिल बहलाने के लिये

चाहिये लोगों को कोई न कोई बहाना,

चलते को गिराकर

अपनी ताकत का अहसास कराते हैं सभी

वक्त खराब करना लगता है

किसी गिरे इंसान को ऊपर उठाना,

बिक जाती है मनोरंजन के बाज़ार में

इसलिये सरलता से सनसनी,

बनते घर की कोई खबर नहीं,

टूटते पर सभी की भोहें तनी,

कुदरत ने इंसान को दिये

हंसने के कई तरीके

मगर उसे दूसरों के रोने पर ही

जश्न मनाना आता है।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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क्षमा करो और भूल जाओ-हिंदी व्यंग्य कविता


आस्तीनों में कभी सांप पलते नहीं देखे हैं,

शायद इंसानों की बही में दर्ज

अपनी कारनामों के ऐसे ही लेखे हैं,

जिनके लिये भले आदमी ने की दुआ

शिखर पर चढ़ने के लिये लिये

उसके कंधे पर पांव रखकर बढ़ गये,

उनके नाम के स्तंभ जमीन पर गढ़ गये,

इतना होता तो ठीक था

दुआ करने वालों ने कुछ पाया नहीं,

सिवाय वादों के कुछ उनके हिस्से में आया नहीं।

कहें दीपक बापू

क्यों परेशान हो

खजूर के पेड़ों से

खडे़ किये तुमने

क्षमा करो और भूल जाओ

बड़ा होना लिखा रहता है  उनकी किस्मत में

बांटने का बल आया नहीं,

इसलिये उनके  हिस्से में कभी

फल होता नहीं

साथ निभाती छाया नहीं।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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रुपये की गिरती कीमत से देश की प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव संभव -हिंदी लेख चिंत्तन


                        जिस तरह रुपये की अंतर्राष्ट्रीय कीमत तेजी से गिरी है उससे देश की अर्थव्यवस्था को लेकर अनेक तरह की आंशकायें जन्म लेने लगी हैं।  फिलहाल इस बात की संभावना नहीं लगती कि रुपया का मूल्य आत्मसम्मान योग्य हो पायेगा। इन आशंकाओं के बीच एक प्रश्न भी उठता है कि आखिर रुपये का आत्मसम्मान योग्य अंतर्राष्ट्रीय मूल्य कितना रहना चाहिये? जहां तक हमारी याद्दाश्त है पंद्रह से बीस वर्ष पूर्व तक एक डॉलर का मूल्य  28 रुपया हुआ करता था।  अब वह 68 रुपये हो गया है।  इस पर हमारे देश की सरकारों का बजट भी घाटे वाला हुआ करता है।  घाटे का बजट होने का मतलब यह है कि सरकार उतनी राशि के नये नोट जारी कर ही  खर्च की पूर्ति करती है।  इसकी कोई सीमा तय नहीं है कि पता नहीं पर नये नोटों से मुद्रास्फीति बढ़ती है।

                        हमारे देश के आर्थिक रणनीतिकार इस घाटे के बजट को विकास के लिये आवश्यक कदम मानते हैं।  हम उनकी बात मान लेते हैं पर ऐसा लगता है कि इस सुविधा को अब एक आवश्यक मजबूरी मान लिया गया है।  अभी तक हमने धन के असमान वितरण को सुना था पर अब वह कदम कदम पर दिखने लगा है।  हजार और पांच सौ नोटों के प्रचलन ने छोटे मूल्य के नोटों के प्रचलन को कम कर दिया है पर फिर भी उनकी आवश्यकता अनुभव होती है।  पहले सौ रुपये का नोट तुड़वाकर उसे दस तथा पांच में सहजता से बदला जा सकता था पर अब पांच सौ नोट पास में है तो साइकिल या गाड़ी में हवा भरवाने के लिये छोटे नोट पहले से ही छांटकर रखने पड़ते हैं।  बाज़ार में खाने पीने का सामान महंगा है, सब्जियां महंगी हैं, दूध भी सस्ता नहीं है पर सीमित मात्रा में क्रय करना हो तो अनेक जगह पांच सौ का नोट बड़ा दिखने लग  जाता है। हजार का नोट किसी को दो तो वह हाथ से पकड़ कर देखने लगता है कि नकली तो नहीं है।  अगर पांच सौ या हजार का नोट पुराना हो तो लेने वाला आदमी संकोच भी करता है।  दस से लेकर सौ तक नोट कोई भी सहजता से लेता है पर उसके आगे का नोट लेने में आदमी सतर्कता बरतता है।

                        नकली नोटों ने असली मुद्रा का सम्मान कम कर दिया है। स्थिति यह है कि बैंकों के एटीएम से भी नकली नोट निकलने की शिकायतें आने लगी हैं। ऐसे में अगर किसी को सौ का नोट हाथ में दो और वह उसे गौर से देखे तो उसके सामने यह दावा करना निरर्थक होता है कि वह एटीएम से निकाला गया है।  लोग कह देते हैं कि एटीएम से नकली नोट निकलते हैं।

                        देश के हालात ऐसे हैं कि समझ में नहीं आता कि महंगाई इतनी तेजी से कब तक बढ़ेगी!  विशेषज्ञ बताते हैं कि विकसित देशों की मुद्रा सौ तक ही होती है।  अमेरिका डॉलर या ब्रिटेन के पौंड में सौ से ऊपर का नोट नहीं छापा जाता है।  भारत में अनेक लोग इसी के आधार पर पांच सौ या नोट छापने का विरोध करते हैं। हम अपनी कोई राय नहीं पा रहे पर इतना तय है कि पांच सौ और हजार के नोटों के प्रचलन के बाद महंगाई ने गुणात्मक रूप से अपने कदम बढ़ाये हैं।  नये नोट प्रचलन में आते ही गायब हो जाते हैं और पुराने बाहर आकर अपना रूप दिखाते हैं।  नये नोटों के आने मुद्रास्फीति के कारण महंगाई बढ़ती है और ऐसे में नोट ज्यादा देने पड़ते हैं।  उनमें पुराने नोटों होने पर  लेने में आनाकानी होती है और यहीं से मुद्रा के सम्मान का प्रश्न उठना प्रारंभ होता है। एकदम नये नोट चल जायें और पुरानों को चलाने में जद्दाजेहद करनी पड़े तक अपनी देश की मुद्रा को लेकर पीड़ा तो होती ही है।

                        कहा जाता है कि देश की आजादी के समय डॉलर का मूल्य एक रुपये के बराबर था। इस हिसाब से तो एक रुपये का यही मूल्य विश्व बिरादरी में हमारा आत्म सम्मान लौटा सकता है।  यह एक कल्पना हो सकती है पर असंभव नहीं है।  अमेरिका के हथियारों के अलावा कोई दूसरी चीज भारत में प्रसिद्ध नहीं है। इस मद में इतना खर्चा नहीं होता कि डॉलर इतना दमदार बना रहे। अलबत्ता अमेरिका जाने वाले भारतीयों नोट के बदले डॉलर खर्च करने के लिये  लगते हैं जिससे शायद इस तरह का असंतुलन पैदा होता हो तो कह नहीं सकते।  इसका कोई तोड़ आर्थिक रणनीतिकारों को ढूंढना चाहिये।  रुपये की गिरती कीमत देश की विश्व पटल पर ही राष्ट्रीय स्तर पर खतरों का संकेत दे रही है।  अमेरिका दुनियां का सबसे शक्तिशाली देश हथियारों की वजह से नहीं डॉलर के सम्मान के कारण माना जाता है। हमारा रुपया अगर सम्मान खोयेगा तो फिर किसी अन्य तरह से सम्मान पाने की आशा करना व्यर्थ होगा।  अध्यात्मिक विषय के कारण हमारी श्रेष्ठता विश्व में मानी जाती है पर जब सम्मान की बात आये तो विश्व का हर समाज केवल धनिकों को ही मानता है। फिर अध्यात्म वाले सम्मान या अपमान की सोचते ही कब हैं? जब हम विश्व में सम्मान पाने की बात करते हैं तो वह सांसरिक विषयों का ही भाग है और उसमें मुद्रा का सम्मान ही देश का सम्मान होता है। जब देश की मुद्रा का मूल्य बढ़ेगा तो विश्व में हमारे समाज का सम्मान निश्चित रूप से बढ़ेगा।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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लुटेरों की खता नहीं है-हिन्दी व्यंग्य कविता


 दौलत की दौड़ में बदहवास है पूरा जमाना

या धोखा है हमारे नजरिये में

यह हमें भी पता नहीं है,

कभी लोगो की चाल पर

कभी अपने ख्याल पर

शक होता है

दुनियां चल रही अपने दस्तूर से दूर

सवाल उठाओ

जवाब में होता यही दावा

किसी की भी खता नहीं है।

कहें दीपक बापू

शैतान धरती के नीचे उगते हैं,

या आकाश से ज़मीन पर झुकते हैं,

सभी चेहरे सफेद दिखते हैं,

चमकते मुखौटे बाजार में बिकते हैं,

उंगली उठायें किसकी तरफ

सिलसिलेवार होते कसूर पर

इंसानियत की दलीलों से जहन्नुम में

जन्नत की तलाश करते लोगों की नज़र में

पहरेदार की तलाशी होना चाहिये पहले

कहीं अस्मत लुटी,

कहीं किस्मत की गर्दन घुटी,

लुटेरों की खता नही है।

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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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गोरी मेम का सिख बुजुर्ग पर हमला:नस्लवाद के साथ अंग्रेजवाद पर भी सवाल-हिंदी लेख


      घटना इंग्लैंड की है पर संदर्भ भारत से भी जुड़ा है।  व्यस्तम सड़क पर एक अंग्रेज युवा महिला ने एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग सिख व्यक्ति को बुरी तरह पीटा। वहां आते जाते लोग यह दृश्य देखकर खामोश रहे।  उस अंग्रेज युवती ने सिख बुजुर्ग को क्यों पीटा? उनकी गलती थी या किसी भ्रम में पड़कर उस युवती ने उनका अपमान किया? क्या उसने उनको गैर अंग्रेज होने की वजह से मारा? इन प्रश्नों पर भारतीय प्रचार माध्यमों ने अधिक प्रकाश नहीं डाला बल्कि वहां व्याप्त नस्लवाद का प्रमाण कहकर यहां दर्शकों के हृदय में वेदना पैदा की।  तय बात है कि यह उनका एक व्यवसायिक प्रयास है।  इस पर बहस कहीं नहीं होती दिखी क्योंकि इस घटना से जुड़े अनेक तथ्य अंधेरे में है।  एक बात निश्चित है कि उस युवती के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं था कि वह किसी बुजुर्ग को इतनी बेरहमी से पीटे।  उस अंग्रेजी मेमसाहब में अपने गोरे रंग का अहंकार था या फिर भारतीय कौम से घृणा का भाव यह पता नहीं चल पाया।  हम इस वेदनापूर्ण दृश्य को देखकर भावविह्ल तो हो गये पर चिंत्तन की क्षमता नहीं खोयी।

         संभव है यह नस्लवाद का परिणाम हो पर हम इसे उस अंग्रेजवाद से जोड़कर भी देख रह हैं जो अब हमारे देश में आ गया है।  सड़क पर चलते हुए केवल अपनी जान बचाने की सोचो बाकी जो हो रहा है उससे मुंह फेर लो-यही अंग्रेजवाद है।  जिस तरह वह लड़की बुजुर्ग को पीट रही थी वह बुरा था पर जो लोग देखकर भी खामोश थे वह भी कम बुरे नहीं थे।  संभव है कि वहां अधिकतर नस्लवादी मौजूद हों पर सभी नहंी हो सकते। देखने वालों में कुछ खुश होते होंगे कि एक भारतीय पिट रहा है पर सभी की सोच ऐसी नहंी हो सकती। जिनकी थी उनकी परवाह हम नहंी करते पर जिनको यह अच्छा नहीं लगा होगा उन्होंने क्या किया? उनकी खामोशी में ही छिपा है वह अंग्रेजवाद जिसकी मौजूदगी हम अपने देश में ं भी अनेक अवसरों पर देख चुके हैं।

             हमारे देश के प्रचार माध्यमों में ऐसी अनेक खबरें आयी हैं जिसमें अनेक स्त्री पुरुष सामूहिक हिंसा और अपमान का शिकार भीड़ के बीच होते दिखाये गये। घटना के दौरान   अपराधी कम दर्शक ज्यादा रहे!  सभी अपराधियों के साथ कहीं पर विरोध में कोई प्रयास होता नहीं दिखा।  अकेला निरीह मनुष्य कुछ अपराधियों से सार्वजनिक रूप से मार खा रहा है या अपमान झेल रहा है।  पास में भीड़ खड़ी है एकदम बुत की तरह!  ऐसा लगता है कि पास में मनुष्य नहीं पत्थर खड़े हैं-यह भी कह सकते हैं कि पत्थर की बनी मानवी  मूर्तियां खड़ी हैं।  कहा जाता है कि अंग्रेज लोग मरने से डरते हैं पर अब भारत में भी यही बात दिखने लगी है।

     ऐसा क्यों हुआ? हमें शिक्षा तथा मनोरंजन के साधनों में व्याप्त अंग्रेजी प्रवृत्ति इसके लिये जिम्मेदार दिखती है।  अंग्रेजी शिक्षा पद्धति में अध्ययन करने के बाद आदमी केवल नौकरी या गुलामी लायक ही रह जाता है।  गुलाम या नौकर कभी साहसी नहीं हो सकता।  हमारे यहां सर्वशिक्षा अभियान चल रहा है। इसका मतलब क्या है?  कहा जाता है कि सभी को साक्षर तो होना चाहिये ताकि अपने जीवन के रोजमर्रा का काम आराम से किया जा सके।  हमारा मानना है कि शिक्षित या साक्षर न होना कोई अभिशाप नहीं है।  हमने देखा है कि निरक्षर व्यक्ति भी अपना काम पड़ने पर शिक्षित की शरण लेकर आगे बढ़ जाते हैं।  अनेक निरक्षर लोगों को रुपये का रंग देखकर ही यह पहचान हो जाती है कि उसका मूल्य क्या है?  मुश्किल तब लगती है जब शिक्षित लोग कायरों जैसा व्यवहार करते हैं।  उस समय कायर बनाने वाली  पूरी शिक्षा पद्धति बेकार लगती है।  बची खुशी बहादुरी फिल्मों ने छीन ली।

      बहुत समय हमने एक फिल्म देखी थी।  मुंबई शहर पर आधारित उस कहानी में खलपात्र एक महिला को सरेआम निर्वस्त्र करता है और आम लोग केवल देख रहे हैं।  उस फिल्म को देखकर हमें लगा कि यह केवल बड़े शहर होने के कारण मुंबई में ही संभव है क्योंकि उस नायिक का आवास एक सभांत कालौनी में था।  उस समय छोटे शहरों  में इतने सभ्रांत लोगों की संख्या नहीं दिखती थी जो ऐसे कठोर व्यवहार पर उत्तेजित होने पर भी  खलपात्र पर कार्यवाही नहंी करते।  जैसे जैसे शहरों में सभ्रांत वर्ग बढ़ा वैसे कायरता बढ़ी है।  उस समय कथित असभ्रांत  समाज के सदस्यों से -जिसमें हम उस समय अपने को शामिल पाते थे- उत्तेजना  में आकर अन्याय के विरुद्ध  खलपात्र पर हमले होने की संभावनायें तो रहती थीं पर अब फिल्मों ने वह भी समाप्त कर दिया है।  अधिकतर फिल्मों में खलपात्र से सामना करने वाले नायकों की मां या पिता का कत्ल या बहिन से बलात्कार होने के इतने दृश्य दिखाये जा चुके हैं कि अब सभ्रांत हो या असभ्रांत वर्ग वह डरपोक हो गया है। किन्हीं किन्हीं फिल्मों में सहनायकों को मरते भी दिखाया है। खलपाात्र का नाश अकेला नायक करता है उस समय भीड़ केवल तालियां बजाने या बधाईयां देने के लिये आती है।  हर फिल्म में नायक को ही विजय मिलती है पर यह भी देखा जा रहा है कि यह भूमिकायें अब फिल्मी बच्चों के लिये सुरक्षित हो गयी हैं। ऐसे में आम युवक या युवती यथार्थ में खलपात्रों का सामना करने की कल्पना भी नहीं कर सकता। जहां नायकत्व पाने का सपना नहीं देखा जा सकता वहां खलपात्रों का मार्ग सुगम हो जाता है-अपने समाज में हम इसके प्रभाव देख सकते हैं। भारतीय शिक्षा तथा फिल्मों पर अंग्रेजी प्रभाव है। शिक्षा और फिल्मों का प्रभाव समाज पर पड़ता है और ऐसे में हम नायकत्व पाने का सपना मर जाने के बाद जीवंत अभिनय करने की संभावनाओं का जिंदा नहीं रख सकते। शिक्षा तथा फिल्मों का मूलरूप से आधार अंग्रेजवाद ही है। अंग्रेेंजी जैसी अवैज्ञानिक भाषा का जहां विद्वान लोग केवल इसलिये समर्थन करते हों कि वह विदेश में नौकरी पाने का जरिया है और जहां अग्रेजियत को आधुनिकता और अंग्रेजवाद को सर्वश्रेष्ठ जीवन प्रणाली माना जाता हो वहां वीरों की उपस्थिति  होेने की आशा करना ही व्यर्थ है।

     हम अंग्रेजों से असभ्रांत भारतीय की तरह व्यवहार की अपेक्षा नहीं कर सकते। खासतौर से तब जब वह मानते हैं कि भारत में उनकी भाषा, जीवन शैली तथा विचारधारा का अनुकरण किया जा रहा हो। दूसरी बात यह भी है कि हमें जिन्होंने असभ्रांत से सभ्रांत बनाया उनसे वीरता की आशा कैसी की जा सकती है।  याद रहे भारत में  अंग्र्रेजी अपनी वीरता से नहीं वरन् चालाकी से राज्य करते रहे। फूट डालो राज्य करो वाली नीति उन्होंने यहां अपनायी।  राज्य करने की यह नीति उन्होंने अपने देश में न  बनाये रखें यह संभव नहीं है। एक गौरवर्ण युवती एक भारतीय बुजुर्ग को पीट रही है तो वहां खड़े अंग्रेज दर्शक अपने को प्रथक रखते हैं तो यह उसका प्रमाण है कि वहां समाज भी  बंटा है। ऐसा नहीं है कि इंग्लैंड के उन दर्शकों ने कभी भारतीय  सिख देखा नहीं होगा पर वह उन बुजुर्ग सिख को  पिटते देखकर अपने प्रथम समाज तथा  अपने से अलग अनुभव कर खामोश रहे।  एक गोरी मेम बुजुर्ग सिख को पीट रही है तो यह नस्लवाद का मुद्दा मानकर  हम  सुविधाजनक स्थिति में हो सकते हैं पर अगर विचार करेंगे तो अपनी अपनी स्वयं की नस्ल पर ही शर्म आने लगेगी जो दूसरों का अंधानुकरण करने लगती है।  इस घटना के बाद भी ब्रिटेन और अमेरिका में जाकर अपना जीवन गुजारने का सपना देखने वाले कम नहीं होंगे।  उनके लिये वहां की धरती आज भी  स्वर्ग है।

        सच यह है कि अंग्रेज न सभ्य है न सभ्रांत! उनकी गोरी चमड़ी और चालाकियां उनके व्यक्तित्व को चमकदार बनाती है।  वह अहिंसा की बात करते हैं पर सबसे अधिक एतिहासिक हिंसक घटनायें उनके नाम हैं। भारत के विभाजन के बाद जो हिंसा हुई वह अंग्रेजों के नाम ही है।  इस धरती पर परमाणु बम का उपयोग एक ही बार हुआ है और वह  भी ब्रिटेन के उस समय के सहयोगी राष्ट्र अमेरिका ने ही किया।  कथित मानवाधिकारों की रक्षा  के लिये यही दोनों राष्ट्र प्रतिबद्धता भी खूब दिखाते हैं। दरअसल इन गोरों का एक ही लक्ष्य है अपना मतलब साधना। उनकी संस्कृति, संस्कार और सभ्यता यही है और यही उन्होंने पूरे विश्व को सिखाया है। यह कैसे संभव है कि वह अपनी असलियत भूल जायें। ब्रिटेन के बारे में कहा जाता है कि वहां के लोग अपनी परंपराओं से प्रेम करते हैं,  यही स्वार्थ सिद्धि की परंपरा उनकी वास्तविक स्थिति है। ऐसे में नस्लवाद का आरोप लगाकर इस घटना को हल्का नहीं किया जा सकता क्योंकि यहां पीटने और पिटने से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि सार्वजनिक स्थान पर भीड़ के सामने यह किया गया।

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
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अपना दर्द-हिंदी कविता


शहर में सजती  महफिलों में हम बस यूं ही जाते रहे,

खुद रहे उदास हमेशा, लोगो का दिल  बहलाते रहे।

जिंदगी से टूटे इंसान अपनी जोड़ी दौलत दिखलाते

खुशी नहीं पायी कभी, काले बालों में सफेदी लाते रहे।

अपनी हंसी दूसरों के दर्द से बहते आंसुओं में ढूंढते

अपने दिल के दर्द की क्या दवा पाते, उसे छिपाते रहे।

कहें दीपक बापू जिंदगी की कहानी सभी की एक जैसी

चेहरे बदलते देखकर  अदाओं मे यूं ही  नयापन पाते रहे।

—————————

 

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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क्रिकेट फिक्सिंग पर हास्य कविता


पोते ने दादा से पूछा
‘‘दादाजी, यह टीवी पर बार बार क्रिकेट
का
समाचार आता ह,
चलती बहस में कोई मुस्कराता
कोई आस्तीर ऊपर कर गुर्राता,
मगर न बल्ला दिख रहा है
न गेंद नजर आ रही है,
कहीं मैदान पर हरियाली भी
नहीं छा रही है,
बातें मेरी समझ में नहीं आ रही है,
इतना पता है कहीं स्पॉट फिक्सिंग 
कहीं सट्टे की लहर छा रही है,
आप ही समझाओ यह क्या हो रहा है?
दादा ने हंसते हुए कहा
‘‘बेटा,
तेरा आईपीएल का खत्म हो गया खेल,
टीवी से चिपका रहा तू हो गया फेल,
मगर क्रिकेट के धंधे वालों की हो
गयी चांदी
तिजोरियां भर गयी उनकी रुपये और सोने
से
सट्टे की आई जो आंधी,
अभी चैंपियन ट्राफी शुरु होने में
समय बाकी है,
खाली समय में टीवी चैनलों के विज्ञापन
का समय
पास होता रहे
यह बहसें उन्होंने इसलिये पर्दे पर
टांकी है,
लोग भूल न जायें क्रिकेट को
इसलिये खाली समय में कर रहे फिक्स
झगड़ा
इसमें ही मिक्स है इस्तीफों का भी
रगड़ा,
अगर देखते रहना है क्रिकेट तो
बंद कर लो अक्ल के दरवाजे,
उसी पर आंख लगाओ जो पर्दे पर विराजे,
इसलिये मत पूछो यह क्या हो रहा है।
 

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर

jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior

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कुसंग से सारे काम बिगड़ जाते हैं-तुलसी दास के दोहे (tulsidas ke dohe-kusang se sare kam bigad jate hain)


 

 

       जिन लोगों को अपना जीवन सहजता, सरलता तथा सम्मान के साथ बिताना है उन्हें अन्य काम करने की बजाय केवल अपनी संगत पर ही आत्ममंथन करना चाहिये। गलत आदमी की संगत कभी भी सुफल देने वाली नहीं होती।  अक्सर अनेक लोग गलत आदमी की संगत करते हुए यह सोचते हैं कि हमारा कोई भी मित्र हो उससे हमें क्या परेशानी? वह अच्छा हो या बुरा? उसका आचरण उसकी समस्या है।  यह गलत सोच है।  जब आप समाज में विचरते हैं तो यह भी देखा जाता है कि आपकी संगत किन लोगों से है। जिन लोगों ने आपका व्यवहार नहीं देखा है वह केवल आपकी संगत देखकर ही आपके व्यक्तित्व पर विचार करते हैं। ऐसे में दुष्ट, क्रूर तथा अपराधी से आपका संबंध आपकी छवि बिगाड़ देता है।

कविवर तुलसीदास  कहते हैं कि

 

——————

 

तुलसीकिएं कुंसग थिति,  होहिं दाहिने बाम।

 

कहि सुनि सुकुचिअ सूम खल, रत हरि संकंर नाम।

 

       सामान्य भाषा  से भावार्थ-कुसंग करने से महत्वपूर्ण लोग भी बदनामी प्राप्त करते हैं।  वह अपनी प्रभुता गंवाकर लघुता को प्राप्त करते हैं।  यदि किसी स्त्री पुरुष का नाम देवी देवता के नाम पर रखा जाये पर बुरी संगत होने के कारण वह भी अप्रतिष्ठत हो जाते हैं।  उनका नाम कहीं भी सम्मान से नहीं लिया जाता।

 

बसि कुसंग  चाह सुजनता, ताकी आस निरास।

 

तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास।

 

           सामान्य भाषा में भावार्थ-जब कोई कुसंग करने के बावजूद अपने काम में सफलता और प्रतिष्ठा के लिये निहारता है तो उसकी कामना पूरी नहीं होती।  कुसंग की वजह से न केवल बनते हुए काम  बिगड़ते हैं बल्कि समाज में बदनामी भी होती है। मगध के पास होने के कारण विष्णुपद तीर्थ का नाम भी गया पड़ गया।

       दूसरी बात यह भी है कि हम चाहें या न नहीं हम पर संगत का प्रभाव पड़ता ही है।  जब हम किसी व्यसनी, असामाजिक तत्व या पाखंडी से संगत करते हैं तो उसके प्रति हमारे हृदय में नकारात्मक भाव पैदा होता है। इसके विपरीत अब हम किसी ईमानदार, आचरणवान तथा सहज भाव के व्यक्ति से संपर्क करते हैं तो उसके प्रति सकारात्मक भाव पैदा होता है। नकारात्मक भाव से मन में क्लेश होता है तो सकारात्मक भाव प्रसन्नता देने वाला होता है।  इतना ही नहीं अनेक लोग कुंसगियों के संगत में रहते हुए भी अपराध न करते हुए अपने कुसंगियों के साथ रहने के कारण ही फंस जाते हैं।  किसी व्यक्ति के अपराध करने पर सबसे पहले उसके मित्रों पर दृष्टि जाती हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि अपनी संगत पर हमेशा ही विचार करते रहना चाहिये। जिन लोगों के आचरण में दोष है उनसे दूरी बनाना अपने लिये ही श्रेयस्कर है।

     

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’

Gwalior, Madhya Pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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गर्मी में खामोशी देती है बर्फ जैसी ठंडक-हिन्दी चिंत्तन लेख


    उत्तर भारत में अब गर्मी तेजी से बढ़ती जा रही है। जब पूरा विश्व ही गर्म हो रहा हो तब नियमित रूप से गर्मी में रहने वाले लोगों को  पहले से अधिक संकट झेलने के लिये मानसिक रूप से तैयार होना ही चाहिये।  ऐसा नहीं है कि हमने गर्मी पहले नहीं झेली है या अब आयु की बजह से गर्मी झेलना कठिन हो रहा है अलबत्ता इतना अनुभव जरूर हो रहा है कि गर्मी अब भयानक प्रहार करने वाली साबित हो रही है।  मौसम की दूसरी विचित्रता यह है कि प्रातः थोड़ा ठंडा रहता है जबकि पहले गर्मियों में निरंतर ही आग का सामना होता था।  प्रातःकाल का यह मौसम कब तक साथ निभायेगा यह कहना कठिन है।

   मौसम वैज्ञानिक बरसों से इस बढ़ती गर्मी की चेतावनी देते आ रहे हैं।  दरअसल इस धरती और अंतरिक्ष के बीच एक ओजोन परत होती है  जो सूर्य की किरणों को सीधे जमीन पर आने से रोकती है।  अब उसमे छेद होने की बात बहुत पहले सामने आयी थी।  इस छेद से निकली सीधी किरणें देश को गर्म करेंगी यह चेतावनी पहुत पहले से वैज्ञानिक देते आ रहे हैं।  लगातार वैज्ञानिक यह बताते आ रहे हैं कि वह छेद बढ़ता ही जा रहा है। अब कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि विश्व में विकास के मंदिर कारखाने ऐसी गैसें उत्सजर्तित कर रहे हैं जो उसमें छेद किये दे रही हैं तो कुछ कहते हैं कि यह गैसे वायुमंडल में घुलकर गर्मी बढ़ा रही हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि ओजोन पर्त के बढ़ते छेद की वजह से गर्मी बढ़ रही है या फिर गैसों का उपयोग असली संकट का कारण है या फिर दोनों ही कारण इसके लिये तर्कसंगत माने, यह हम जैसे अवैज्ञानिकों के लिये तय करना कठिन है ।  बहरहाल विश्व में पर्यावरण असंतुलन दूर करने के लिये अनेक सम्मेलन हो चुके हैं। अमेरिका समेत विश्व के अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्ष उनमें शािमल होने की रस्म अदायगी करते हैं। फिर गैस उत्सर्जन के लिये विकासशील देशों को जिम्मेदार बताकर विकसित राष्ट्रों के प्रमुख अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। यह अलग बात है कि अब इस असंतुलन के दुष्प्रभाव विकसित राष्ट्रों को भी झेलनी पड़ रहे है।

        एक बात तय है कि आधुनिक कथित राजकीय व्यवस्थाओं वाली विचाराधारायें केवल रुदन तक ही सभ्यता को ले जाती हैं।  लोकतंत्र हो या तानाशाही या राजतंत्र कोई व्यवस्था लोगों की समस्या का निराकरण करने के लिये राज्यकर्म में लिप्त लोगों को प्रेरित करते नहीं लगती। दरअसल विश्व में पूंजीपतियों का वर्चस्प बढ़ा है। यह नये पूंजीपति केवल लाभ की भाषा जानते हैं। समाज कल्याण उनके लिये निजी नहीं बल्कि शासन तंत्र का विषय  है। वह शासनतंत्र जिसके अनेक सूत्र इन्हीं पूंजीपतियों के हाथ में है।  यह पूंजीपति यह तो चाहते है कि विश्व का शासनतंत्र उनके लाभ के लिये काम करता रहे। यह वर्ग तो यह भी चाहता है कि  शासनतंत्र आम आदमी तथा पर्यावरण की चिंता करता तो दिखे, चाहे तो समस्या हल के लिये दिखावटी कदम भी उठाये पर उनके हितों पर कुठाराघात बिल्कुल न हो। जबकि सच यह है कि यही इन्हीं पूंजीपतियों  के विकास मंदिर अब वैश्विक संकट का कारण भी बन रहे हैं। सच बात तो यह है कि वैश्विक उदारीकरण ने कई विषयों को  अंधरे में ढकेल दिया है।  आर्थिक विकास की पटरी पर पूरा विश्व दौड़ रहा है पर धार्मिक, सामाजिक तथा कलात्मक क्षेत्र में विकास के मुद्दे में नवसृजन का मुद्दा अब गौण हो गया है।  पूंजीपति इस क्षेत्र में अपना पैसा लगाते हैं पर उनका लक्ष्य व्यक्तिगत प्रचार बढ़ाना रहता है। उसमें भी वह चाटुकारों के साथ ही ऐसे शिखर पुरुषों को प्रोत्साहित करते हैं जो उनकी पूंजी वृद्धि में गुणात्मक योगदान दे सकें।  अब वातानुकूलित भवनों, कारों, रेलों तथा वायुयानों की उपलब्धता ने ऐसे पूंजीपतियों को समाज के आम आदमी सोच से दूर ही कर दिया है।

          बहरहाल अगले दो महीने उत्तरभारत के लिये अत्ंयंत कष्टकारक रहेंगे।  जब तक बरसात नहीं आती तब तक सूखे से दुर्गति के समाचार आते रहेंगे।  यह अलग बात है कि बरसात के बाद की उमस भी अब गर्मी का ही हिस्सा हो गयी है।  इसका मतलब है कि आगामी अक्टुबर तक यह गर्म मौसम अपना उग्र रूप दिखाता रहेगा।  कुछ मनोविशेषज्ञ मानते हैं कि गर्मी का मौसम सामाजिक तथा पारिवारिक रूप से भी तनाव का जनक होता है। यही सबसे बड़ी समस्या हेाती है। सच बात तो यह है कि कहा भी जाता है कि तन की अग्नि से अधिक मन की अग्नि जलाती हैं संकट तब आता है जब आप शांत रहना चाहते हैं पर सामने वाला आपके मन की अग्नि भड़काने के लिये तत्पर रहता है।  ऐसे में हम जैसे लोगों के लिये ध्यान ही वह विधा है जो ब्रह्मास्त्र का काम करती है।  जब कोई गर्मी के दिनों में हमारे दिमाग में गर्मी लाने का प्रयास करे ध्यान में घुस जायें।  वैसे भी गर्मी के मार से लोग जल्दी थकते  लोग अपनी उकताहट दूसरे की तरफ धकेलने का प्रयास करते हैं।  उनसे मौन होकर ही लड़ा जा सकता है।  वहां मौन ही बरफ का काम कर सकता है 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

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पैसा कभी ठंड तो कभी गर्मी पैदा करता है-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


               आजकल भारत में बेमौसम क्रिकेट मैच के आयोजन हो रहे हैं।  पहले जब भारत में कोई विदेशी क्रिकेट टीम आती थी तो उसके लिये सर्दी का मौसम तय हुआ करता था। उस काल में  नवंबर से फरवरी तक ही टेस्ट मैचों का आयोजन होता था। भारतीय टीम भी तभी विदेशों में जाती थी जब वहां का मौसम इस खेल के अनुकूल होता था।  जब से इस खेल ने फिल्म और टीवी की तरह मनोरंजक के साथ ही व्यवसायिक रूप लिया है तब से इसका कोई मौसम नहीं रहा।

             कभी देश भक्ति का वास्ता देकर क्रिकेट प्रेमियों को आकर्षित किया गया था। अब शहरों की प्रतिष्ठा का विषय बनाया गया है। तय बात है कि बड़े शहरों के नाम पर बने इन क्लबों के बीच होने वाले व्यवसायिक मैचों को वैसह हार्दिक अभिनंदनीय मान्यता नहीं है जैसे दो देशों के बीच होने वाले मैचों को मिलती थी।  एक सज्जन उस दिन कह रहे थे कि यह क्लबस्तरीय प्रतियोगिता होना देश का गौरव है।  होगी भई, कौन इसका विरोध कर सकता है?  फिर छोटे शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवी इस पर अपनी प्रतिकूल टिप्पणियां दे भी तो उसे सुनने वाला कौन है?  क्लब स्तरीय इस प्रतियोगिता से खेल का क्या लेना देना है, यह आज तक समझ में नहंी आया।  कुछ लोगों इसे खेल के विकास के लिये अत्यंत उपयुक्त बताया है। इस पर हंसी आती है।  खेलों का विकास कैसे होता है यह आज तक समझ में नहीं आया।  अगर अधिक से अधिक लोगों उसे खेलने लगें और उसे ही विकास कहा जाये तो भी बात जमती नहीं क्योंकि क्रिकेट खेलने वाले हमारे देश में बहुत सारे लोग हैं।   वह सारे लोग क्रिकेट खेलते हैं जिन्हे मैदान और साथ मिल जाते हैं। अगर खिलाड़ियों को अधिक पैसा मिलना ही विकास है तो फिर प्रश्न आता है कि कितने खिलाड़ियों को यह पैसा मिल रहा है?  पैसा कमाने वालों की संख्या हजार या डेढ़ हजार से ऊपर दिख नहीं सकती। जिस देश में करोड़ों बेरोजगार हों वहां यह संख्या विकास का स्वरूप नहीं दिखाती।

      यह प्रतियोगिता शुद्ध रूप से मनोरंजन के लिये है।  अगर अपने पास समय है।  टीवी पर कोई ढंग का कार्यक्रम नहीं आ रहा हो तब अगर क्रिकेट का अभिनय करते क्रिकेट खिलाड़ियों को देखना बुरा नहीं है।  बीच बीच में विज्ञापनों का भी मनोंरजन आ ही जाता है।  कुछ बिफरे हुए आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता के साथ मनोरंजन के क्षेत्र जैसा व्यवहार होना चाहिये।  यह उनका अपना नजरिया है पर एक बात तय है कि गर्मी के मौसम में इस खेल का आयोजन करना कोई सरल काम नहीं है। कहते हैं कि पैसा आदमी में गर्मी पैदा करता है पर जब इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता का आयोजन इस तर्क का जनक भी है कि यही पैसा ठंड का काम भी करता है।

   टीवी की बात हो रही है तो आजकल दो कॉमेडी धारावाहिक आते हैं।  दोनों का समय टकराता है। तब चैनल बदल बदल कर उनको देखना पड़ता है।  हमेशा ही अपने साथ बोरियत का सामान लेकर चलने वाले लोगों के लिये  कॉमेडी  अच्छा विषय है।  यह अलग बात है कि कॉमेडी प्रस्तुत करने वाले को भी कुछ विनोदप्रिय होना चाहिये। दोनों कॉमेडी धारावाहिक देखकर लगता नहीं है कि उनके साथ कोई लेखकीय न्याय हो रहा है।  हमारे देश के धनपति साहित्य, कला, खेल, फिल्म और अन्य मनोरंजक व्यवसायों से पैसा तो कमाना चाहते हैं पर उसके लिये प्रतिभाओं की खोज उनके बूते का नहीं है। सच बात तो यह है कि पाश्चात्य व्यवसायी भी पैसा कमाते हैं पर उनकी अपने काम से प्रतिबद्धता होती है। कुछ नया करना उनका मौलिक स्वभाव है।  उनकी यह प्रवृत्ति उनका प्रबंध कौशल बढ़ाती है।  इसके विपरीत भारतीय व्यवसायी पैसा कमाते हैं पर उनकी काम से अधिक कमाई से प्रतिबद्धता रहती है। कुछ नया करने की बजाय वह उपलब्ध व्यवस्था और साधनों का ही उपयोग करते हैं। यही कारण है कि फिल्म और टीवी प्रसारणों में अंग्रेजी फिल्मों और धारावाहिकों की नकल दिखती है।  खास बात यह कि भारत में लेखक को एक दोयम दर्जे का जीव माना जाता है। दूसरी बात यह कि हमारे देश में हिन्दी  मनोरंजक  कार्यक्रम मुबंई में बनते जहां की मूल भाषा भले ही मराठी है पर हिन्दी एक तरह से खिचड़ी भाषा बन गयी है।  यही कारण है कि मुंबईया फिल्म और धारावाहिकों की हिन्दी उत्तर भारत की मूल हिन्दी भाषा का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इन दोनों कारणों से हिन्दी कार्यक्रम अमौलिक हो जाते हैं।  बड़े बड़े दिग्गज हिन्दी लेखक हिन्दी फिल्मों में काम करने गये पर बेरंग वापस लौटे आये। इसका कारण यह कि मुंबई के थैलीशाह हिन्दी लेखक के मनोविज्ञान को नहीं समझते।  स्थिति यह है कि इतने सारे हिन्दी धारावाहिक तथा फिल्मों के पुरस्कार वितरण समारोह होते हैं वहां उसे लिखने वाले को सम्मान मिलने वाली घटना सामने नहीं आती। सच बात तो कहें कि हमें लगता है कि इन फिल्मों और धारावाहिकों के कथा, पटकथा और संवाद लेखकों की हैसियत स्पॉट बॉय से अधिक नहीं होगी।  यही कारण है कि भाषा की दृष्टि से हिन्दी कार्यक्रम स्तरीय नहीं होते।  कल्पनाशक्ति का अभाव साफ दिखता है। यही कारण है कि कॉमेडी कार्यक्रमों में पुरुष अभिनेताओं को महिलाओं के वस्त्र पहनाकर हास्य का भाव पैदा किया जाता है।

               पहले कहा जाता था कि हिन्दी गरीबों की भाषा है। यह अलग बात है कि ऐसा कहने वाले प्रसिद्धि भी हिन्दी में अधिक पाते रहे हैं।  अब हिन्दी वालों के पास पैसा भी खूब है।  यही कारण है कि अब क्लब स्तरीय प्रतियोगिता का प्रसारण हिन्दी में भी हो रहा है। यह भी एक तरह से अंग्रेजी व्यवसायियों की प्रबंध कुशलता का परिणाम है।  जबकि भारतीय मनोरंजन व्यवसायी हिन्दी का खाकर उसे दुत्कारते भी हैं। हिन्दी लेखकों के प्रति असम्मान का भाव रखन उसकी भाषा को दुत्कारने जैसा ही है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

बाज़ार में बिकते सपनों के सौदे-विडियो पर चर्चा


सपनों का सौदा और बाज़ार-हिन्दी कविताhttp://youtu.be/xVyay7jtBqA

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