आज यह ब्लाग/पत्रिका की पाठ पठन/पाठक संख्या एक लाख को पार कर गयी। इस ब्लाग/पत्रिका के साथ इसके लेखक संपादक के दिलचस्प संस्मरण जुड़े हुए हैं। यह ब्लाग जब बनाया तब लेखक का छठा ब्लाग था। उस समय दूसरे ब्लाग/पत्रिकाओं पर यूनिकोड में न रखकर सामान्य देव फोंट में रचनाएं लिख रहा था। वह किसी के समझ में नहीं आते थे। ब्लाग स्पाट के हिंदी ब्लाग से केवल शीर्षक ले रहा था। इससे हिन्दी ब्लाग लेखक उसे सर्च इंजिन में पकड़ रहे थे पर बाकी पाठ उनकी समझ में नहीं आ रहा था। यूनिकोड में रोमन लिपि में लिखना इस लेखक के लिये कठिन था। एक ब्लाग लेखिका ने पूछा कि ‘आप कौनसी भाषा में लिख रहे हैं, पढ़ने में नहीं आ रहा।’ उस समय इस ब्लाग पर छोटी क्षणिकायें रोमन लिपि से यूनिकोड में हिन्दी में लिखा इस पर प्रकाशित की गयीं। कुछ ही मिनटों में किसी अन्य ब्लाग लेखिका ने इस पर अपनी टिप्पणी भी रखी। इसके बावजूद यह लेखक रोमन लिपि में यूनिकोड हिंदी लिखने को तैयार नहीं था। बहरहाल लेखिका को इस ब्लाग का पता दिया गया और उसने बताया कि इसमें लिखा समझ में आ रहा है। उसके बाद वह लेखिका फिर नहीं दिखी पर लेखक ने तब यूनिकोड हिन्दी में लिखना प्रारंभ किया तब धीरे धीरे बड़े पाठ भी लिखे।
उसके बाद तो बहुत अनुभव हुए। यह ब्लाग प्रारंभ से ही पाठकों को प्रिय रहा है। यह ब्लाग तब भी अधिक पाठक जुटा रहा था जब इसे एक जगह हिन्दी के ब्लाग दिखाने वाले फोरमों का समर्थन नहीं मिलता था। आज भी यहां पाठक सर्वाधिक हैं और एक लाख की संख्या इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी अपनी गति से अंतर्जाल पर बढ़ रही है। मुख्य बात है विषय सामग्री की। इस ब्लाग पर अध्यात्मिक रचनाओं के साथ व्यंग, कहानी, कवितायें भी हैं। हास्य कवितायें अधिक लोकप्रिय हैं पर अध्यात्मिक रचनाओं की तुलना किसी भी अन्य विधा से नहीं की जा सकती। लोगों की अध्यात्मिक चिंतन की प्यास इतनी है कि उसकी भरपाई कोई एक लेखक नहीं कर सकता। इसके बाद आता है हास्य कविताओं का। यकीनन उनका भाव आदमी को हंसने को मजबूर करता है। हंसी से आदमी का खून बढ़ता है। दरअसल एक खास बात नज़र आती है वह यह कि यहां लोग समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा किताबों जैसी रचनाओं को अधिक पसंद नहीं करते। इसके अलावा क्रिकेट, फिल्म, राजनीति तथा साहित्य के विषय में परंपरागत विषय सामग्री, शैली तथा विधाओं से उन पर प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपने से बात करती हुऐ पाठ पढ़ना चाहते हैं। अंतर्जाल पर लिखने वालों को यह बात ध्यान रखना चाहिये कि उनको अपनी रचना प्रक्रिया की नयी शैली और विधायें ढूंढनी होंगी। अगर लोगों को राजनीति, क्रिकेट, फिल्म, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों पर परंपरागत ढंग से पढ़ना हो तो उनके लिये अखबार क्या कम है? अखबारों जैसा ही यहां लिखने पर उनकी रुचि कम हो जाती है। हां, यह जरूर है कि अखबार फिर यहां से सामग्री उठाकर छाप देते हैं। कहीं नाम आता है कहीं नहीं। इस लेखक के गांधीजी तथा ओबामा पर लिखे गये दो पाठों का जिस तरह उपयेाग एक समाचार पत्र के स्तंभकार ने किया वह अप्रसन्न करने वाला था। एक बात तय रही कि उस स्तंभकार के पास अपना चिंतन कतई नहीं था। उसने इस लेखक के तीन पाठों से अनेक पैरा लेकर छाप दिये। नाम से परहेज! उससे यह लिखते हुए शर्म आ रही थी कि ‘अमुक ब्लाग लेखक ने यह लिखा है’। सच तो यह है कि इस लेखक ने अनेक समसामयिक घटनाओं पर चिंतन और आलेख लिखे पर उनमें किसी का नाम नहीं दिया। उनको संदर्भ रहित लिखा गया इसलिये कोई समाचार पत्र उनका उपयोग नहीं कर सकता क्योंकि समसामयिक विषयों पर हमारे प्रचार माध्यमों को अपने तयशुदा नायक और खलनायकों पर लिखी सामग्री चाहिये। इसके विपरीत यह लेखक मानता है कि प्रकृत्तियां वही रहती हैं जबकि घटना के नायक और खलनायक बदल जाते हैं। फिर समसामयिक मुद्दों पर क्या लिखना? बीस साल तक उनको बने रहना है इसलिये ऐसे लिखो कि बीस साल बाद भी ताजा लगें-ऐसे में किसी का नाम देकर उसे बदनाम या प्रसिद्ध करने
से अच्छा है कि अपना नाम ही करते रहो।
मुख्य बात यह है कि लोग अपने से बात करते हुऐ पाठ चाहते हैं। उनको फिल्म, राजनीति, क्रिकेट तथा अन्य चमकदार क्षेत्रों के प्रचार माध्यमों द्वारा निर्धारित पात्रों पर लिख कर अंतर्जाल पर प्रभावित नहीं किया जा सकता। अपनी रचनाओं की भाव भंगिमा ऐसी रखना चाहिये जैसी कि वह पाठक से बात कर रही हों। यह जरूरी नहीं है कि पाठक टिप्पणी रखे और रखे तो लेखक उसका उत्तर दे। पाठक को लगना चाहिये कि जैसे कि वह अपने मन बात उस पाठ में पढ़ रहा है या वह पाठ पढ़े तो वह उसके मन में चला जाये। अगर वह परंपरागत लेखन का पाठक होता तो फिर इस अंतर्जाल पर आता ही क्यों? अपने मन की बात ऐसे रखना अच्छा है जैसे कि सभी को वह अपनी लगे।
इस अवसर पर बस इतना ही। हां, जिन पाठकों को इस लेखक के समस्त ब्लाग/पत्रिकाओं का संकलन देखना हो वह हिन्द केसरी पत्रिका को अपने यहां सुरक्षित कर लें। इस पत्रिका के पाठकों के लिये अब इस पर यह प्रयास भी किया जायेगा कि ऐसे पाठ लिखे जायें जो उनसे बात करते हुए लगें।
लेखक संपादक दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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लिखने वाला हर व्यक्ति साहित्यकार नहीं माना जाता। एक तो क्लर्क होते हैं जो पत्र वगैरह लिखते हैं और उसमें उनके विषय के अनुसार कुछ न कुछ मौलिक होता है। उसी तरह लोग एक दूसरे को पत्र लिखते हैं और वह भी कई बार बेहतर शब्दों का उपयोग करने के बावजूद साहित्यकार नहीं कहलाते। उसी तरह ईमेल और उसके विस्तार ब्लाग पर लिखने वाले सभी लोग साहित्यकार नहीं बन जायेंगे। हां, दूसरा यह भी सच है कि ब्लाग पर लिखने वाले साहित्यकार अवश्य आयेंगे।
आखिर किसी विषय को साहित्य कब कहा जाता है? साहित्य उसी रचना को कहा जाता है जो अनाम व्यक्तियों को दृष्टिगत सार्वभौमिक विषय पर लिखी जाती है और उसमें किसी को संबोधित नहीं किया जाता है। जहां किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को ध्यान में रखकर लिखा गया भले ही उसमें किसी को संबोधन न हो फिर भी वह साहित्य नहीं है। उसी तरह चाहे भले ही किसी पाठ का विषय सार्वभौमिक हो पर अगर वह किसी व्यक्तिविशेष को संबोधित हो तो भी वह साहित्य नहीं है।
आशय यह है कि मौलिक रूप से किसी व्यक्ति द्वारा लिखा गया आलेख, कहानी, कविता और व्यंग्य अगर सार्वभौमिक लक्ष्य के साथ सभी व्यक्तियों के पढ़ने के लिये लिखा गया है वही साहित्य है।
अंतर्जाल पर ब्लाग कोई अलग से विधा नहीं है। जिस तरह कंप्यूटर कलम, टेबल, अलमारी,कागज,दराज तथा लिखने पढ़ने वाली अन्य वस्तुओं का एक समूह है उसी तरह ब्लाग उसमें एक लिफाफे की तरह है। अब इस लिफाफे का उपयोग कौन कैसे करता है वही उसकी भूमिका और स्वरूप को तय करेगा।
अब इसमें यह भी हो सकता है कि क्लर्क की तरह लिफाफा भेजने वाला कहीं कविता लिखकर प्रकाशित कर देगा तो कहीं अपने रिश्तेदारों और मित्रों को पत्र-ईमेल और उसका विस्तार पटल ब्लाग-के रूप में लिखने वाला भी आगे चलकर समाज से सरोकार लिखने वाले विषयों की तरफ उन्मुख होगा तो वह भी साहित्यकार बन जायेगा।
इधर हिंदी ब्लाग जगत काफी दिलचस्प दौर में पहुंच रहा है। कई ऐसे लेखक और लेखिकायें जो आज से दो वर्ष पहले तक ऐसे लिखते थे जैसे कि उनको कुछ नहीं आता। उस समय यह संभावना नहीं लगती थी कि वह कोई सार्थक लेखन कर पायेंगे पर अपने अभ्यास से वह अब चमत्कृत करने लगे हैं। उनका अभ्यास अब भी जारी है। अब वह गंभीर विषय लिखने का प्रयास कर रहे हैं उसमें शब्दों और वाक्यों को हिंदीमय बनाने में वह जोरदार प्रयास कर रहे हैं। नियमित टिप्पणीकार भी उनके पाठों पर गंभीर रूप से लिखने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि ब्लाग लेखकों का एक मित्र समूह अब तैयारी कर रहा है वैश्विक काल में प्रवेश कर रही हिंदी को नया स्वरूप देने का। इनमें से अधिकतर इस लेखक के मित्र हैं और अनेक बार अपनी टिप्पणियां कर प्रभावित करते रहे हैं। इनमें से एक ने तो लिखा था कि ‘अंतर्जाल पर हिंदी को स्थापित करने में आपका योगदान याद रखने लायक होगा’।
उसकी इस टिप्पणी से से लेखक डर गया था था। इस लेखक आखिर इस ब्लाग जगत में कितने मित्र हैं? यह लेखक उन पर लिखना चाहता है पर कुछ कहना कठिन है। इसमें संदेह नहीं है कि उनकी मित्रता और स्नेह ने मुझे प्रेरित किया पर उनके नामों को लेकर हमेशा संशय में बना रहता है। अगर शब्दों को चैहरा माना जाये तो ऐसा लगता है कि वह तीन या चार होंगे। हां, यह सच है कि जहां व्यक्ति आपको नहीं दिखता वहां शब्द ही चैहरा हो जाता है। अगर आप अंतर्जाल पर सक्रिय हैं तो शब्दों से चैहरे को देखने का अभ्यास प्रारंभ कर दीजिये।
एक महिला लेखिका आजकल बहुत आक्रामक और दिलचस्प लिखने लगी हैं। उन्होंने लक्ष्य कर रखा है कुछ बड़े ब्लाग लेखकों को! वह पहले कवितायें लिखती थीं। ऐसा लगता था कि जैसे कौने में बैठी कोई मासूम महिला कविता लिखने का अभ्यास कर रही है। उनकी कवितायें पढ़कर हंसी आती थी पर अब उनका लिखा अब पढ़ने में यह लेखक चूकता नहीं है। दरअसल जो सार्वभौमिक विषय पर लिखने वाले लेखक (साहित्यकार!) हैं ब्लाग पर चटखारे लेकर लिखे गये पाठों पर अपनी दृष्टि अवश्य डालते हैं बनिस्बत अन्य सामग्री के। इसलिये ब्लाग पर वाद विवाद कर लिखी गयी सामग्री हिंदी के फोरमों पर अधिक हिट पाती है।
आज इस लेखक ने अपने वर्डप्रेस के पर स्टेटकांउटर लगाया। ऐसा पहले भी लगाया था पर गलत ढंग से तब ऐसा लगता था कि वह सही जानकारी नहीं दे रहा है पर अब ढंग से लगाया तो पता लगा कि रिपोर्ट सही है और वास्तव में वहां हिट अधिक हैं। वर्डप्रेस के ब्लाग की अपेक्षा कर मैं ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर लिख रहा था पर मजा नहीं आ रहा। वहां पर हिट के लिये ब्लागवाणी पर निर्भर रहना पड़ता है और फिर लक्ष्य केवल ब्लाग लेखक ही रह जाते हैं। इस लेखक ने ब्लागवाणी से वर्डप्रेस के सारे ब्लाग हटा लिये थे और सोचा कि ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर लिखने के बाद यहां पाठ लाया जायेगा पर लगता है अब बदलाव करना पड़ेगा। गूगल की पैज रैंक के अनुसार इस लेखक के तीन ब्लाग हिट हैं और इनमें दो वर्डप्रेस पर हैं। पहले लगता था कि कोई ऐजेंसी हिट कर भ्रमित कर रही है पर आज लगा कि वाकई वह ब्लाग हिट हैं। उस दिन इस लेखक का कंप्यूटर ठीक करने आये एक इंजीनियर ने बताया था कि वह हिंदी पढ़ने के लिये वेब दुनियां पर जाता है। इधर यह भी देखा जा रहा है कि वेबदुनियां से अच्छी संख्या में पाठक आ रहे हैं। इसलिये अपने हिट ब्लाग पर नियमित रूप से लिखने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर होगा। वैसे भी यह ब्लाग पाठक संख्या पचास हजार पार करने वाला है और यह इस मामूली लेखक के लिये एक उपलब्धि तो होगी। इस अंतर्जाल पर इस लेखक के बीस लिफाफे यानि ब्लाग हैं। इस हिट ब्लाग पर अब नियमित रूप से लिखने का प्रयास होगा।
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‘एक समय भारत और पाकिस्तान कश्मीर समस्या हल करने के कगार पर पहुंच गये- यह वाक्य जब अपने ईमेल पर तरकश की तरह लगे समाचारों में पढ़ें तो यह अपने आपको यह समझाना कठिन हो जाता है कि ब्लाग पढ़ रहे हैं या टीवी देख रहे हैं।
अक्सर टीवी पर सुनते हैं कि भारी तूफान में फंसी नौका के डूबने की उम्मीद है या इस मंदी में औद्योगिक वस्तुओं में मूल्य के साथ ही किस्म में भी गिरावट की उम्मीद है। सच बात तो यह है कि टीवी वाले आशंका और भय शब्द का उपयोग वहां नहीं करते जहां जरूरी है। संभव है उनके लिये भय और आशंका वाले विषय चूंकि सनसनी फैलाने वाले होते हैं और उससे ही उनको प्रतिष्ठा
मिलने की संभावना बलवती होती है इसलिये ही उनको उम्मीद शब्द के उपयोग करने की सूझती है। जब वह आशंका और भय की जगह उम्मीद शब्द का उपयोग करते हैं तो हमारा दिल बैठ जाता है पर इसकी परवाह किसे है।
अगर कोई तूफान में डूबेगी तो ही खबर बनेगी और तभी तो उसका बताने का कोई मतलब होगा।
यही हाल कगार का भी है। कई बार द्वार की जगह वह कगार शब्द का उपयोग करते हैं। हां दरवाजा या द्वार चूंकि हल्के भाव वाले इसलिये शायद वह कगार -जो कि डराने वाले होता है-उसका उपयोग करते हैं। कगार शब्द का उपयोग ऐसे होना चाहिये जहां विषय या वाक्य का आशय पतनोन्मुख होता है। जैसै मुंबई धमाकों के बाद भारत और पाकिस्तान युद्ध के कगार पर पहुंच गये थे। जहां समझौते वाली बात हो वहां ‘निकट’, दरवाजे या द्वारा शब्द ही लगता है। अगर भारत और पाकिस्तान कभी कश्मीर पर समझौते के द्वार-वैसे यह खबर पुरानी है पर अब ईमेल दी गयी है-तक पहुंंचे तो इसमें आश्चर्य नहीं हैं। दोनों कई बार आपसी समझौतों के निकट पहुंचते हैं पर युद्ध के कगार पर लौट आते हैं।
इस आलेख का उद्देश्य किसी की मजाक उड़ाना नहींं है क्योंकि यह लेखक हिंदी का सिद्ध होने का दावा नहीं करता। एक पाठक के में सहजता से पढ़ने में अड़चन आती है तो पूछना और बताना तो पड़ता ही है। हिंदी ब्लाग जगत में अनेक उत्साही लोग हैं और उनकी हिंदी पर संदेह करना स्वयं को धोखा देना होगा पर यह भी सच है कि इस टीवी ने हमारी भाषा को भ्रमित कर दिया है। अगर बचपन से हिंदी न पढ़ी होती तो शायद इसे पचा जाते। अब सोचा कि लोगों का ध्यान इस तरफ आकर्षित करें। अंतर्जाल पर लिखने वाले हिंदी लेखकों का लिखा बहुत लंबे समय तक पढ़ा जाने वाला है। अंतर्जाल पर सक्रिय लोगों को देखें तो बहुत कम ऐसे हैं मिलते हैं जो हमारी तरह सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं और शायद अति उत्साह में उनको इस बात का ध्यान नहीं रहता कि कगार और निकट में अंतर होता है। फिर टीवी पर अक्सर कगार उम्मीद, आशा और आशंका का उपयोग करते हुए उसके भाव का ध्यान नहीं रख पाते। कगार या आशंका हमेशा निराशा का द्योतक होते हैं और उससे हिंदी का श्रोता उसी रूप में लेता है। यह अलग बात है कि पाठकों और श्रोताओं में भी कुछ लोग शायद इस बात को नहीं समझते होंगे। हां, जो हिंदी में बचपन से रचे बसे हैं वह यह देखकर असहज होते हैं और बहुत देर बात उनको समझ में आता है कि लिखने या बोलने वाले का आशय पतनोन्मुख नहीं बल्कि उत्थानोन्मुक था।
हिंदी ब्लाग जगत में कुछ लोग उसके उत्थान के लिये बहुत अच्छे प्रयास कर रहे हैं उनकी प्रशंसा करना चाहिये और हमारी उनको शुभकामनायें है कि वह मातृभाषा को शिखर पर ले जायें पर उसके लिये उनको आशा आशंका और उम्मीद और कगार के भाव को हृदंयगम करना होगा। हालांकि अनेक लोग मात्रा और वाक्यों के निर्माण में भारी त्रुटियां करते हैं पर इस आलेख का आशय उन पर टिप्पणियां करना नहीं है बल्कि शब्दों के भावों के अनुसार उनका उपयोग हो यही संदेश देना है। हालांकि हम इस गलती पर वहां टिप्पणी कर ध्यान दिला सकते थे पर ब्लाग जगत में कोई सिखाने वाली बात कहते हुए यह पता नहीं लगता कि ब्लाग लेखक किस प्रवृति का है दूसरा यह कि ब्लाग पर इस तरह की गलती पहले भी एक दो जगह देखने को मिली है। इसलिये सोचा कि चलो अपने पाठको और मित्रों को सचेत कर दें।
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लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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दीपक भारतदीप द्धारा
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‘आपके लिखने की शैली दीपक भारतदीप से एकदम मिलती जुलती है’-हिंदी के ब्लाग एक ही जगह दिखाने वाले वेबसाईट संचालक ने यह बात मुझे तब लिखी जब मैंने अपने छद्म नाम के दूसरे ब्लाग को अपने यहां दिखाने का आग्रह किया। इस बात ने मुझे स्तब्ध कर दिया। इसका सीधा आशय यह था कि मेरे लिये यहां छद्म नाम से लिखने का अवसर नहीं था। दूसरा यह कि उस समय तक मैं इतना लिख चुका था कि अधिकतर ब्लाग लेखक मेरी शैली से अवगत हो चुके थे। छद्म नाम के उस ब्लाग पर मैंने महीनों से नहीं लिखा पर ब्लाग स्पाट पर वह मेरा सबसे हिट ब्लाग है। सुबह योगसाधना से पहले कभी कभी ख्याल आता है तो मैं अपने ब्लाग के व्यूज को देखता हूं। रात 10 बजे से 6 बजे के बीच उन्हीं दो ब्लाग पर ही पाठक आने के संकेत होते हैं बाकी पर शून्य टंगा होता है। अपने लिखने पर मैं कभी आत्ममुग्ध नहीं होता पर इतना अनुभव जरूर हो गया है कि कुछ लोग ऐसे हैं जो मुझे पढ़ने से चूक नहीं सकते। यही कारण है कि छद्म ब्लाग पर लिखना करीब करीब छोड़ दिया क्योंकि वहां मेरे परिचय का प्रतिबिंब मुझे नहीं दिखाई देता-आर्थिक लाभ तो खैर होना संभव ही नहीं है।
मुझे याद है कि मैंने यह ब्लाग केवल बेकार के विषयों पर लिखने के लिये बनाया था। इस ब्लाग पर पहली रचना के साथ ही यह टिप्पणी मिली थी कि ‘हम तो इसे ऐसा वैसा ब्लाग समझ रहे थे पर आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं।’
उस समय इस टिप्पणी पर लिखी बात मेरे समझ में नहीं आयी पर धीरे धीरे यह पता लग गया कि ब्लाग नाम लोकप्रियता के शिखर से जुड़ा था।
उस दिन अखबार में पढ़ा हिंदी भाषी क्षेत्रों मेें 4.2 करोड़ इंटरनेट कनेक्शन हैं। इस लिहाज से हिंदी में सात्विक विषयों के ब्लाग पढ़ने की संख्या बहुत कम है। ऐसा नहीं है कि हिंदी के ब्लाग लोग पढ़ नहीं रहे पर उनको तलाश रहती है ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने की। जिन छद्म ब्लाग की बात मैंने की उन पर ऐसा वैसा कुछ नहीं है पर वह उनके नाम में से तो यही संकेत मिलता है। यही कारण है कि लोग उसे खोलकर देखते हैं। मैंने उन ब्लाग पर अपने सामान्य ब्लाग के लिंक लगा दिये हैं पर लोग उनके विषयों में दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि वहां से पाठक दूसरे विषयों की तरफ जाते ही नहीं जबकि दूसरे सामान्य ब्लाग पर इधर से उधर पाठकों का आना जाना दिखता है। मैंने उन दोनों ब्लाग से तौबा कर ली क्योंकि उन पर लिखना बेकार की मेहनत थी। न नाम मिलना न नामा।
वर्डप्रेस पर भी दो ब्लाग है जिन पर मैंने अपने नाम के साथ मस्तराम शब्द जोड़ दिया। तब दोनों ब्लाग अच्छे खासे पाठक जुटाने लगे। तब एक से हटा लिया और उस पर पाठक संख्या कम हो गयी पर दूसरे पर बना रहा। वह ब्लाग भी प्रतिदिन अच्छे खासे पाठक जुटा लेता है। तब यह देखकर आश्चर्य होता है कि लोग ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने को बहुत उत्सुक हैं और उनकी दिलचस्पी सामान्य विषयों में अधिक नहीं हैं। अभी हाल ही में एक सर्वे में यह बात कही गयी है कि इंटरनेट पर यौन संबंधी साहित्य पढ़ना अधिक घातक होता है बनिस्बत सामान्य स्थिति में। एक तो यौन संबंधी साहित्य वैसे ही दिमागी तौर पर तनाव पैदा करता है उस पर कंप्यूटर पर पढ़ना तो बहुत तकलीफदेह होता है। इस संबंध में हानियों के बारे में खूब लिखा गया था और उनसे असहमत होना कठिन था।
उन ब्लाग की पाठक संख्या अन्य ब्लाग की संख्या को चिढ़ाती है और अपने ब्लाग होने के बावजूद मुझे उन ब्लाग से बेहद चिढ़ है। वह मुझे बताते हैं कि मेरे अन्य विषयों की तुलना में तो यौन संबंधी विषय ही बेहद लोकप्रिय है। सच बात तो यह है कि पहले जानता ही नहीं था कि मस्तराम नाम से कोई ऐसा वैसा साहित्य लिखा जाता है। मेरी नानी मुझे मस्तराम कहती थी इसलिये ही अपने नाम के साथ मस्तराम जोड़ दिया। इतना ही नहीं अपने एक दो सामान्य ब्लाग पर पाठ लिखने के एक दिन बाद-ताकि विभिन्न फोरमों पर तत्काल लोग न देख पायें’-मस्तराम शब्द जोड़कर दस दिन तक फिर कुछ नहीं लिखा तो पता लगा कि उस पर भी पाठक आ रहे हैं। तब बरबस हंसी आ जाती है। अनेक मिलने वाले ऐसी वैसी वेबसाईटों के बारे में पूछते हैंं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों के इंटरनेट कनेक्शन लेने वाले शायद इस उद्देश्य से लेते हैं कि ‘ऐसा वैसा’ पढ़े और देख सकें।
उस दिन एक जगह अपने कागज की फोटो स्टेट कराने गया। वह दुकानदार साइबर कैफे भी चलाता है। उस दिन वह अपने बिल्कुल अंदर के कमरे में था तो मैं इंटरनेट के केबिनों के बीच से होता हुआ वहां तक गया। धीरे धीरे चलते हुए मैं काचों से केबिन में झांकता गया। आठ केबिन में छह को देख पाया और उनमें तीन पर मैंने लोगों को ‘ऐसे वैसे‘ ही दृश्य देखते पाया और बाकी क्या पढ़ रहे थे यह जानने का अवसर मेरे पास नहीं था।
सामान्य रूप से भी यौन संबंधी मनोरंजन साहित्य और सीडी कैसिट उपलब्ध हैं पर इंटरनेट भी एक फैशन हो गया है सो लोग सक्रिय हैं पर उनकी मानसिकता में भी एसा वैसा ही देखने और पढ़ने की इच्छा है। यह कोई शिकायत नहीं है क्योंकि लोगों की ‘यौन संबंधी मनोरंजन साहित्य’ पढ़ने की इच्छा बरसों पुरानी है पर सात्विक साहित्य पढ़ने वालों की भी कोई कमी नहीं है-यह अलग बात है कि वह अभी समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों को ही देखने में सक्रिय हैं और इंटरनेट पर देखने और पढ़ने की उनमें इच्छा अभी बलवती नहीं हो रही है। जिनमें ऐसा वैसा पढ़ने की इच्छा होती है उनके लिये इंटरनेट खोलने की तकलीफ कुछ भी नहीं है पर सात्विक पढ़ने वालों के लिये अभी भी बड़ी है। कहते हैं कि व्यसन और बुरी आदतें आदमी का आक्रामक बना देती हैं पर सात्विक भाव में तो सहजता बनी रहती है।
ऐसा नहीं है कि सामान्य ब्लाग@पत्रिकाओं पर पाठक कोई कम हैं पर उनमें बढ़ोतरी अब नहीं हो रही है। ब्लागस्पाट के ब्लाग तो वैसे ही अधिक पाठक नहीं जुटाते पर वर्डप्रेस के ब्लाग पर नियमित रूप से उनकी संख्या ठीकठाक रहती है। सामान्य विषयों में भी अध्यात्म विषयों के साथ हास्यकवितायें, व्यंग्य और चिंतन के पाठकों की संख्या अच्छी खासी है-कुछ पाठ तो दो वर्ष बाद भी अपने लिये पाठक जुटा रहे हैं। यह कहना भी कठिन है कि ऐसा वैसा पढ़ने वालों की संख्या अधिक है या सात्विक विषय पढ़ने वालों की। इतना जरूर है कि ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने पर जो हानियां होती हैं उनके बारे में पढ़कर उन लोगों के प्रति सहानुभूति जाग उठी जो उसमें दिलचस्पी लेते हैं।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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सुनने में आ रहा है कि मनोरंजन के आधार पर वेबसाइटों को पुरस्कार की बात चल रही है। आज शाम को ईमेल खोलते ही पाडकास्ट का जाने क्या मेरे सामने आया और मेरा हाथ क्रास पर चला गया और वह हाथ से निकल गया। सुबह एक ब्लाग पढ़ा था उसमें भी उसकी चर्चा भी थी और एक ब्लाग में मेरी एक कविता का लिंक भी था जिसमें उसके शीर्षक के साथ एक किलो का टैग लगाने की शिकायत भी दर्ज थी।
दरअसल इस पाठ के तीस हजार पाठक संख्या पार करने पर कल कविता लिख कर मैंने गलती की थी। आज यह संपादकीय लिखने का मन ही नहीं कर रहा था क्योंकि हम कोई व्यवसायिक लोग तो हैं नहीं कि लिखना जरूरी है। इसका एक पैसा मिलता नहीं बल्कि गांठ से इंटरनेट कनेक्शन का पैसा और जाता है। हां, अपने गुरूजी के आदेशानुसार जो तस्वीर दिखाई जा रही है उसके पीछे देखने का प्रयास कर रहा हूं। अब समझ में आ गया है कि क्यों ब्लाग लेखकों को एक मजदूर समझा जा रहा है। दरअसल यह गलत फहमी बाहर फैली हुई है कि हिंदी के सभी ब्लाग लेखक पैसा लेकर लिख रहे हैं। हिंदी के चार नियमित फोरमों के अलावा अनेक वेबसाइटों ने हमारे ब्लाग अपने यहां लिंक कर रखे हैं। यह वेब साइटें दूसरी वेबसाईटों को लिंक नहीं करतीं क्योंकि शिकायत करने पर उनके डोमेन छिनने का खतरा रहता है पर ब्लाग को चाहे जैसे लिंक करतीं हैं। इनके साथ लिंक देख कर लोग यह समझते हैं कि उसी वेबसाइट के लिये यह लिखा गया हैं। अभी आम लोगों में यह समझ नहीं है कि यह ब्लाग एक स्वतंत्र लेखक का है। कुछ ब्लाग लेखक पैसा लेकर लिख रहे हैं पर अधिकांश तो फ्री में लिख रहे हैं। जिन्होंने डोमेन लिया है उनमें में भी सक्रिय लोगों ने कमाया है वह भी इतना नहीं कि वह उससे अपने परिवार का खर्चा चला सकें।
ऐसा प्रचार हो रहा है कि ब्लाग लेखक तो फ्री में ब्लाग लिख रहे हैं और हालत यह है कि उनको एक मजदूर की तरह देखा जा रहा है। नारद के एक कर्णधार ने कहा लिखा था कि वेबसाइटों को ब्लाग नहीं माना जा सकता है पर हालत यह है कि अब वेबसाईटों को ही ब्लाग कहकर प्रचारित किया जा रहा है।
बहरहाल इस ब्लाग के साथ मेरी दिलचस्प यादें हैं। मैंने यूनिकोड में सबसे पहले इसी ब्लाग पर क्षणिका लिखी थी और उस पर पहली टिप्पणी मिली थी। दूसरे ब्लाग पर नारद के लिये जद्दोजहद चल रही थी। एक महिला ने दूसरे ब्लाग पर टिप्पणी लिखते हुए पूछा था कि मैं किस फोंट में लिख रहा था-सामान्य देव फोंट में होने के कारण वह उसके पढ़ने में नहीं आ रहा था। मैंने उसे सामान्य हिंदी फोंट में जवाब भेजा तो रोमन में उसने यही सवाल किया। तब मैंने रोमन में ही उसे अपने इसी ब्लाग का पता दिया, पर इसी बीच उसने एक सवाल किया था ‘आप एक पोस्ट लिखने का कितना पैसा लेते हैं।’
मैंने जवाब दिया कि मेरे एक पोस्ट की कीमत दो हजार रुपये है पर मित्रों के लिये यह काम मैं फ्री में कर देता हूं। आप तो यह बताईये करना क्या है? इसी बीच उसका जवाब आया कि ‘वाह, आपका यह ब्लाग तो पढ़ने में आ रहा है।’
मैंने उसे दूसरा ईमेल किया कि वह क्या चाहती है? पर वह फिर नहीं आयी। बात आयी गयी खत्म हो गयी, पर पिछले कुछ दिनों से हुए वाक्यात ये यह लगने लगा है कि कुछ ब्लाग लेखकों को वाकई पैसे देकर लिखवाया जा रहा है। हम छोटे शहर के हैं इसलिये कोई इस बारे में दांवपैंच नहीं जानते इसलिये फ्री में ही लिखे जा रहे हैं। पर कोई बात नहीं! मुख्य विषय लिखना है और उससे भी बड़ा मजा स्वतंत्र लेखन में है। जहां आपको विज्ञापन और धन का विचार आता है वहां गुलाम बनकर रह जाते हैं। मैं पत्रकार रह चुका हूं और सारे छलकपटों के बारे में जानता हूं। पर मेरे संस्कार ऐसे हैं कि मैं स्वयं कर नहीं सकता यही कारण है कि पत्रकारिता जगत से बाहर आ गया। चालाकियों को समझने के लिये अधिक समय नहीं लगता। लिखना मेरा जीवन है इसलिये लिखता हूं-प्रतिदिन आठ सौ पाठ पढ़े जा रहे हैं। हो सकता है कि इसमें कोई धोखा हो पर परवाह किसे है?
यह ब्लाग वर्डप्रेस पर है और इस पर लिखने का मतलब है कि अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर होना। यहां फोरमों से अधिक हिट बाहर से आते हैं। ब्लागस्पाट के ब्लाग के लिये हिंदी फोरमों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। मेरे वर्डप्रेस के तीन ब्लाग हिंदी के सबसे लोकप्रिय फोरम ब्लागवाणी पर नहीं है पर उन पर भी जमकर पाठक आते हैं। हिंदी फोरमों पर यह ब्लाग आते हैं और वहां मेरे मित्र बन गये हैं इसलिये वहां भी जितना समय मिलता है सक्रिय रहता हूं। वहां से अधिक पाठकों की अपेक्षा तो मैं नहीं करता क्योंकि मेरा लक्ष्य आम पाठक तक पहुंचना है। मेरी सबसे बड़ी ताकत ब्लाग मित्र और मेरे पाठक हैंं। यह और ईपत्रिका मेरे प्रारंभ से ही हिट ब्लाग हैं। इसका कारण यह रहा है कि इनको फोरमों पर बाद में ले गया और लिखना पहले ही शुरू कर चुका था। तीस हजार पाठक संख्या पार कर इस ब्लाग ने अपनी ताकत मुझे बता दी और यही मैं ब्लाग मित्रों और पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं। यह ब्लाग आगे चलकर अनेक वेबसाईटों को चुनौती देने वाला है यही कारण कि आलोचक विचलित होकर अनेक ऐसे मुद्दे उठा रहे हैं जो बेसिर पैर के हैं। शेष फिर कभी। सभी पाठकों और ब्लाग लेखकों का इस अवसर पर आभार ज्ञापित करता हूं और आगे आने वाले संभावित संघर्षों मेंें उनसे सहयोग की अपेक्षा करता हूं। आलोचकों से मेरा साफ कहना है कि आप मेरे लिये कोई आर्थिक मदद का स्त्रोत निर्माण करें फिर मुझे लिखना सिखाये। फोकट में खोपड़ी खाने की आवश्यकता नहीं। आगे चलकर टैग की संख्या हजार भी कर सकता हूं क्योंकि भई हम कोई व्यवसायिक ब्लागर थोड़े ही है। बिना धनार्जन के भला कोई व्यवसाय होता है।
यह आलेख ‘दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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दीपक भारतदीप द्धारा
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