Tag Archives: दर्शन

हैप्पी न्यू ईयर यानि नव वर्ष पर हिंदी व्यंग्य


               वर्ष 2013 आ गया। अनेक लोगों का कहना है की हम भारतीयों   को यह अंग्रेजी वर्ष नहीं मनाना   चाहिए।   खासतौर से यह बात हिन्दू धर्म को कट्टरता से मानने का दावा करने  वालों  की तरफ से कही  जाती है।  मगर इन लोगों का कोई प्रभाव नहीं होता।  आखिर क्यों?  सच बात तो यह है  कि अनेक लोगों की तरह हम भारतीय अध्यात्मवादी लोग  भी उनकी बात को महत्व देते रहे हैं ।  अब लगने लगा है कि  वेलेन्टाईन डे, क्रिस्मस  और न्यू ईयर जैसे अंग्रेजी पर्व भी अब भारतीय समाज का ऐसा हिस्सा बन  गए हैं, जिन्हें अलग करना अब संभव नहीं है।  दरअसल जिन लोगों ने इन पर्वों को हमेशा ही वक्र दृष्टि से देखते हुए अपने धर्म पर दृढ़ रहने का मत व्यक्त किया है वह सामाजिक गतिविधियों से जुड़े रहे हैं।  उन्होंने धार्मिक रूप से कभी अपने देश का अध्ययन नहीं किया।  हालांकि यह लोग अं्रग्रेजी शैली के समर्थक हैं पर वैसा सोच नहीं है।
         कम से कम एक बात माननी पड़ेगी कि अंग्रेजों ने हमारे समाज को जितना समझा उतने अपने ही लोग नहीं समझ पाये।  इन्हीं अंग्रेजों के अखबार ने एक मजेदार बात कही जो यकीनन हम जैसे चिंतकों के लिये रुचिकर थी।  अखबार ने  कहा कि भारत के धर्म पर आधारित संगठन और उनके शिखर पुरुष अपने भक्तों को वैसे ही अपने साथ जोड़े रखते हैं जैसे कि व्यवसायिक कंपनियां। वह अपने संगठन कंपनियों की तरह चलाते हैं कि उनके भक्त समूह बने रहें।
         हमने उनके नजरिये को सहज भाव से लिया।  हम यह तो पहले से मानते थे कि भारत में धर्म के नाम पर व्यापार होता है पर इससे आगे कभी विचार नहंी किया था।  जब यह नजरिया सामने आया तो फिर हमने उसी के आधार पर इधर उधर नजर दौड़ाई।  तब भारतीय धार्मिक संगठनों में वाकई यह गजब की व्यवसायिक प्रवृत्ति दिखाई दी।  जिस तरह देशी विदेशी कंपनियां अपने उत्पादों के विक्रय करने के लिये नयी पीढ़ी को  विज्ञापनों के  माध्यम से आकर्षित करने के अनेक तरह के उपक्रम करती हैं वैसे ही भारतीय धार्मिक संगठन और उनके शिखर पुरुष भी यही प्रयास करते हैं।  भले ही बड़े व्यवसायिक समूहों ने प्रचार माध्यमों से युवा पीढ़ी में  वेलेन्टाईन डे, क्रिस्मस  और न्यू ईयर जैसे अंग्रेजी पर्व अपने लाभ के लिये प्रचलित करने में योगदान दिया है पर भारतीय धार्मिक संगठन और उनके शिखर पुरुष भी इन्हीं पर्वों का उपयोग अपने भक्त समूह को बनाये रखने के लिये कर रहे हैं।  यही आकर इन्हीं पर्वों के विरोधी सामाजिक संगठन तथा कार्यकताओं के लिये ऐसी मुश्किल खड़ी होती है जिसे पार पाना संभव नहीं है।  अनेक मंदिरों में नर्ववर्ष पर विशेष भीड़ देखी जा सकती है।  इतना ही नही मंदिरों में  खास सज्जा भी देखी जा सकती है।  हम जैसे नियमित भक्त तो दिनों के हिसाब से मंदिरों में जाते रहते हैं-जैसे कि सोमवार को शंकर जी तो शनिवार को नवग्रह और मंगलवार को हनुमान जी-अगर कोई खास सज्जा न भी हो तो भी भक्तों को इसकी परवाह नहीं है।  परवाह तो किसी भक्त को नहीं है पर जो लोग इन मंदिरों के सेवक या स्वामी है उन्हें लगता है कि कुछ नया करते रहें ताकि युवा पीढ़ी उनकी तरफ आकर्षित रहे।  वह समाज में कोई नया भाव पैदा करने की बजाय उसमें मौजूद भाव का ही उपयोग करना चाहते हैं।   इतना ही नही इन मंदिरों में जाने पर केाई परिचित अगर बोले कि हैप्पी न्यू इयर तो भला भगवान की दरबार में हाजिरी का निर्मल भाव लेकर गया कौन भक्त अपने अंदर कटुता का भाव लाना चाहेगा।  इतना ही नहीं कुछ संगठित पंथ तो क्रिसमस, वेलेन्टाईन डे और नववर्ष पर अपने शिखर  पुरुषों को इन पर्वों के अवसर पर खास उपदेश भी दिलवाते हैं।
         हम जैसे अध्यात्मिक व्यक्तियों की दिलचस्पी उन विवादों में नहीं होती जिनके आधार कमजोर हों।  जो सामाजिक कार्यकर्ता इन पर्वों को मनाये जाने का विरोध करते हैं वह अपने जीवन में उस पर अमल कर पाते हों यह संदेहपूर्ण है।  जब कोई समाज से जुड़ा है तो वह अपने बैरी नहंी बना सकता।  मान लीजिये हम नहीं मानते पर अगर कोई कह दे कि हैप्पी क्रिसमस, हैप्पी न्यू ईयर या हैप्पी वेलेन्टाईन डे तो क्या उसे लड़ने लगेंगे।  एक बात निश्चित है कि भारत में धर्म के विषय पर आज भी धार्मिक साधु, संतों और प्रवचको की बात अंतिम मानी जाती है।  सामाजिक कार्यकताओं को  इन पर्वो के विरोधी  अभियान के प्रति उनका समर्थन उस व्यापक आधार पर नहीं मिल पता यही कारण है कि इसमें सफलता नहीं मिलती।  हालांकि कुछ साधु, संत और प्रवचक इन सामाजिक कार्यकर्ताओं की बात का समर्थन करते हैं पर वह इतना व्यापक नहीं है।  चूंकि भारतीय धार्मिक संगठन और शिखर पुरुष भी  एक कंपनी की तरह अपने भक्त बनाये रखने की बाध्यता को स्वीकार करते हैं इसलिये वह उनके  तत्वज्ञान धारण करने की बजाय व्यवसायिक योजनाओं में जुटे रहते हैं।  हमारा मानना है कि केवल तत्वज्ञान के आधार पर हमेशा अपने पास भीड़ बनाये रखना कठिन है  और धार्मिक संगठन तथा उनके शिखर पुरुषों में यही बात आत्मविश्वास कम कर देती है।  यह आत्मविश्वास तब   ऋणात्मक स्तर पर पहुंच जाता है जब तत्वज्ञान को धारण करने से ऐसे पंथ या संगठनों के शिखर पुरुष स्वयं ही दूर होते हैं।  अपना नाम और धन जुटाने के चक्कर मे वह सब ऐसे प्रयास करते हैं जैसा कंपनियां करती है।  यही कारण है कि अंग्रेजी पर्व फिलहाल तो समाज में मनाये ही जा रहे हैं क्योंकि कहीं न कहीं धार्मिक तत्व उन्हें समर्थन दे रहे हैं।
          हमारे एक करीबी  मित्र ने सुबह मिलते ही कहा-’’हैप्पी न्यू ईयर!’’
          वह सब जानता था इसलिये हमने उससे कहा कि ‘‘हमारा नया वर्ष तो मार्च में आयेगा।’’
             वह बोला-‘‘यार, तुम कैसे अध्यात्मिकवादी हो।  कम से कम कुछ उदारता दिखाते हुए बोले ही देते कि ‘‘हैप्पी न्यू ईयर’’
    इससे पहले कि हम कुछ बोलते। एक अन्य परिचित आ गये। वह भी अपना हाथ मिलाने के लिये आगे बढ़ाते हुए बोले-‘‘नव वर्ष मंगलमय हो।’
     हमने हाथ बढ़ाते हुए उनसे कहा‘‘आपको भी नववर्ष की बधाई।’
     वह चले तो हमारे मित्र ने हमसे कहा‘‘उसके सामने तुमने अपना अध्यात्मिक ज्ञान क्यों नहीं बघारा।’’
       हमने अपने मित्र से कहा‘‘अपना अध्यात्मिक ज्ञान बघारने के लिये तुम्हीं बहुत हो।  अगर  इसी तरह हर मिलने वाले से नववर्ष पर बधाई मिलने पर ज्ञान बघारने लगे तो शाम तक घर नहीं पहुंचने वाले।’’
          एक धार्मिक शिखर पुरुष ने वेलेन्टाईन डे को मातृपितृ दिवस मनाने का आह्वान किया था।  अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओ को अच्छी लगी पर अनेक लोगों ने यह सवाल किया कि अगर वेलेन्टाईन डे को समाज से बहिष्कृत करना है तो फिर उसका नाम भी क्यों लिया जाये?  तय बात है कि दिन तो वह होना चाहिये पर हमारे हिसाब से मने।  यह बात तो ऐसे ही हो गयी कि मन में लिये कुछ ढूंढ रहा आदमी किसी व्यवसायिक कंपनी के पास न जाकर हमारी धार्मिक कंपनी की तरफ आये।
        हम जैसे योग साधकों और गीता पाठकों को लगता है कि  ऐसे विवाद किसी समाज की दिशा तय नहीं करते।  फिर यह अपने अध्यात्मिक ज्ञान  और सांसरिक विषयों दक्षता के अभाव के कारण आत्मविश्वास की कमी को दर्शान वाला भी है।  चाणक्य, विदुर, कौटिल्य और भर्तुहरि  जैसे महान दर्शनिकों ने हमारे अध्यात्मिक भंडार  ऐसा सृजन किया जिसमें ज्ञान तथा विज्ञान दोनों है।   तुलसी, सूर, रहीम और मीरा जैसे महानुभावों ने ऐसी रचनायें दी जिसके सामने  दूसरे देशों का साहित्य असहाय नज़र आता है। यह आत्मविश्वास जिसमें होगा वह अंग्रेजी पर्वो के इस प्रभाव से कभी परेशान नहीं होगा।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior

http://zeedipak.blogspot.com

 

भर्तृहरि नीति शतक-असिधारा व्रत का पालन करें (bhartrihari neeti shatak-asidhara vrat)


सन्तपन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषास्तान्प्रत्येष विशेष विक्रमरुची राहुर्न वैरायते।
द्वावेव प्रसते दिवाकर निशा प्रापोश्वरौ भास्करौ भ्रातः! पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषाकृतिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसमान में बृहस्पति समेत अनेक शक्तिशाली ग्रह हैं किन्तु पराक्रम में दिलचस्पी रखने वाला राहु उनसे कोई लड़ाई मोल नहीं लेता क्योंकि वह तो पूर्णिमा और अमावस्या के दिन अति देदीप्यमाान सूर्य तथा चंद्र को ही ग्रसित करता है।
असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः प्रियान्यारूया वतिर्मलिनमसुभंगेऽप्यसुकरं।
विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां सतां केनोद्दिष्टं विषमसिधाराव्रतमिदम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
सदाशयी मनुष्यों के लिये कठोर असिधारा व्रत का आदेश किसने दिया? जिसमें दुष्टों से किसी प्रकार की प्रार्थना नहीं की जाती। न ही मित्रों से धन की याचना की जाती है। न्यायिक आचरण का पालन किया जाता है। मौत सामने आने पर भी उच्च विचारों की रक्षा की जाती है और महान पुरुषों के आचरण की ही अनुसरण किया जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर मनुष्य को अपने पराक्रम में ही यकीन करना चाहिए न कि अपने लक्ष्यों को दूसरों के सहारे छोड़कर आलस्य बैठना चाहिए। इतना ही नहीं मित्रता या प्रतिस्पर्धा हमेशा अपने से ताकतवर लोगों की करना चाहिये न कि अपने से छोटे लोगों पर अन्याय कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए।
अनेक मनुष्य अपने आसपास के लोगों को देखकर अपने लिये तुच्छ लक्ष्य निर्धारित करते हैं। थोड़ा धन आ जाने पर अपने आपको धन्य समझते हुए उसका प्रदर्शन करते हैं। यह सब उनके अज्ञान का प्रमाण है। अगर स्थिति विपरीत हो जाये तो उनका आत्मविश्वास टूट जाता है और दूसरों के कहने पर अपना मार्ग छोड़ देते हैं। अनेक लोग तो कुमार्ग पर चलने लगते हैं। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य को भगवान ने दो हाथ, दो पांव तथा दो आंखों के साथ विचारा करने के लिये बुद्धि भी दी है। अगर मनुष्य असिधारा व्रत का पालन करे-जिसमें दुष्टों ने प्रार्थना तथा मित्रों से धना की याचना न करने के साथ ही किसी भी स्थिति में अपने सिद्धांतों का पालन किया जाता है-तो समय आने पर अपने पराक्रम से वह सफलता प्राप्त करता है।

————–
संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,Gwalior
Editor-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

भर्तृहरि नीति शतक-बदलाव दुनिया का स्वाभाविक नियम (badlav ka niyam-hindu dharma sandesh)


महाराज भर्तृहरि अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर कहते हैं 
———————————————————————–
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्

हिंदी में भावार्थ-परिवर्तन होते रहना संसार का नियम। जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु होना निश्चित है। जन्म लेना उसका ही सार्थक है जो अपने कुल की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है अर्थात समस्त समाज के लिये ऐसे काम करता है जिससे सभी का हित होता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर आदमी को किसी से भय लगता है तो वह अपने आसपास परिवर्तन आने के  से। उसे लगता है कि कोई उसकी जगह लेगा और उसका असितत्व मिट जाएगा।  कहीं भाषा तो कहीं धर्म और कहीं क्षेत्र के विवाद आदमी के हृदय में व्याप्त इसी भय की भावना का दोहन करने की दृष्टि से उन समूहों  के प्रमुख  उपयोग करते हैं। कई लोगों के हृदय में ऐसे भाव आते है जैसे- अगर पास का मकान बिक गया तो लगता है कि पता नहीं कौन लोग वहां रहने आयेंगे और हमसे संबंध अच्छे रखेंगे कि नहीं। उसी तरह कई लोग स्थान परिवर्तन करते हुए भय से ग्रस्त होते हैं कि पता नहीं कि वहां किस तरह के लोग मिलेंगे। जाति के आधार पर किसी दूसरे जाति वाले का भय पैदा किया जाता है कि अमुक जाति का व्यक्ति अगर यहां आ गया तो हमारे लिए विपत्ति खड़ी कर सकता है। अपने क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र से आये व्यक्ति का भय पैदा किया जाता है कि अगर वह यहाँ जम गया तो हमारा अस्तित्व खत्म कर देगा। कहने का अभिप्राय यह है कि बदलाव इस दुनिया का स्वाभाविक नियम है। कुछ  बुद्धिजीवी समाज में बदलाव लाने के लिए प्रयत्नशील दीखते हैं। कोई जातिपति मिटा रहा है तो कोई गरीबी से लड़ रहा है कोई अन्याय के विरुद्ध अभियान चला रहा है, यह सब दिखावा है। प्रकृति समय के अनुसार स्वत: बदलाव लाती है और मनुष्य के बूते कुछ नहीं है सिवाय दिखावा करने के।
  ———————
संकलक,लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

मनु दर्शन-क्रोध और गालियां देने के बुरे परिणाम होते हैं


मनु महाराज के अनुसार 
————————-
अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन्
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्

हिन्दी में भावार्थ-सन्यासी और श्रेष्ठ पुरुषों को दूसरे लोगों द्वारा कहे कटु वचनों को सहन करना चाहिए। कटु शब्द (गाली) का उत्तर वैसे ही शब्द से नहीं दिया जाना चाहिए और न किसी का अपमान करना चाहिए। इस नश्वर शरीर के लिये सन्यासी और श्रेष्ठ पुरुष को किसी से शत्रुता नहीं करना चाहिए।
क्रुद्धयन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रृष्टः कुशलं वदेत्
साप्तद्वाराऽवकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्
।।
 हिन्दी में भावार्थ – सन्यासी एवं श्रेष्ठ पुरुषों को कभी भी क्रोध करने वाले के प्रत्युत्तर में क्रोध का भाव व्यक्त नहीं करना चाहिए। अपने निंदक के प्रति भी सद्भाव रखना चाहिए। अपनी देह के सातों द्वारों -पांचों ज्ञानेंद्रियों नाक, कान, आंख, हाथ वाणी और विचार, मन तथा बुद्धि-से सद्व्यवहार करते हुए कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-सामान्य मनुष्य में सहिष्णुता और ज्ञान का अभाव होता है जबकि ज्ञानी लोग शांत और सत्य पथ पर दृढ़ता पूर्वक चलते हैं। फिर आजकल खान पान और रहन सहन की वजह से समाज में क्रोध, निराशा तथा हिंसका की भावना बढ़ रही है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार गुण ही गुणों को बरतते हैं। इस वैज्ञानिक सिद्धांत को ध्यान में रखें तो आजकल दवाईयों से उपजाये गये अन्न तथा सब्जियों का सेवन हर आदमी कर रहा है जिनसे शरीर के रक्त में विषैले तत्वों का बहना स्वाभाविक है। इन्हीं विषैले तत्वों का प्रभाव मनुष्य के मन, वचन, कर्म था वाणी पर पड़े बिना नहीं रह सकता जो अंततः व्यवहार में प्रकट होते हैं।  इसलिये जरा जरा सी बात पर उत्तेजित और निराश होने वाले लोगों को देखकर ज्ञानी विचलित नहीं होते क्योंकि वह जानते हैं कि मनुष्य तो गुणों के अधीन है और जिन तत्वों से वह संचालित हैं वह विषैले हैं।
तत्वज्ञानी इसलिये किसी की प्रशंसा से प्रसन्न होकर नाचते नहीं है तो गालियां देने पर भी अपने अंदर क्रोध को स्थान नहीं देते।  अगर कोई एक गाली देगा और उसके प्रत्तयुतर में दूसरा भी गाली देगा मगर फिर पहले वाला फिर गाली देगा। इस तरह अगर दोनों अज्ञानी हैं तो गालियां का समंदर बन जायेगा पर अगर एक ज्ञानी है तो वह चुपचाप गाली देने से वाले दूर हो जायेगा।  यही स्थिति क्रोध की है।  समय के अनुसार अच्छा और बुरा समय आता है और भले और लोग भी मिलते हैं। ज्ञानी लोग दूसरे का स्वभाव देखकर व्यवहार करते हैं जबकि अज्ञानी अपने स्वभाव के अनुसार दूसरे का चाल चरित्र देखना चाहते हैं। ऐसा न होने पर उनके अंदर क्रोध की उत्पति होती है जो कालांतर में मनुष्य देह को जलाता है।  
———————-
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
———————— 
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

संत कबीर दर्शन -प्रेम हमेशा बराबरी वालों में करना चाहिए


प्रीति ताहि सो कीजिये, जो आप समाना होय
कबहुक जो अवगुन पडै+, गुन ही लहै समोय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रीति उसी से करना चाहिए, जो अपने समान ही हृदय में प्रेम धारण करने वाले हों। यह प्रेम इस तरह का होना चाहिए कि समय-असमय किसी से भूल हो जाये तो उसे प्रेमी क्षमा कर भूल जायें।
यह तत वह तत एक है, एक प्रान दुइ गात
अपने जिये से जानिये, मेरे जिय की बात

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी लोगों की देह में जीव तत्व एक ही है। आपस में प्रेम करने वालों में कोई भेद नहीं होता क्योंकि दोनो के प्राण एक ही होता है। इस गूढ रहस्य को वे ही जानते हैं जो वास्तव में प्रेमी होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-प्रेम किया नहीं हो जाता है यह फिल्मों द्वारा संदेश इस देश में प्रचारित किया जाता है। सच तो यह है कि ऐसा प्रेम केवल देह में स्थित काम भावना की वजह से किया जाता है। प्रेम हमेशा उस व्यक्ति के साथ किया जाना चाहिए जो वैचारिक सांस्कारिक स्तर पर अपने समान हो। जिनका हृदय भगवान भक्ति में रहता है उनको सांसरिक विषयों की चर्चा करने वाले लोग विष के समान प्रतीत होते हैं। यहां दिन में अनेक लोग मिलते है पर सभी प्रेमी नहीं हो जाते। कुछ लोग छल कपट के भाव से मिलते हैं तो कुछ लोग स्वार्थ के भाव से अपना संपर्क बढ़ाते हैं। भावावेश  में आकर किसी को अपना सहृदय मानना ठीक नहीं है। जो भक्ति भाव में रहकर निष्काम से जीवन व्यतीत करता है उनसे संपर्क रखने से अपने आपको सुख की अनुभूति मिलती है।
वैसे बाज़ार तथा उसके प्रचार तंत्र ने प्रेम को केवल युवक युवती के इर्द गिर्द समेट कर रख दिया है जो कि केवल यौवन से उपजा एक भाव है।  कहीं न कहीं इसमें हवस का भाव रहता है। यही कारण है कि हमारे देश में आजकल कथित प्रेम में लिप्त प्रेमी और प्रेमियों के साथ ऐसे हादसे पेश आते हैं जिनसे उनकी जिंदगी तक समाप्त हो जाती है या फिर बदनामी का सामना करना पड़ता है। 
यौवन से उपजा यह आकर्षण प्रेम नहीं है पर अगर थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाये तो भी उसमें आर्थिक, सामाजिक तथा वैचारिक स्तर की समानता होना आवश्यक है वरना विवाह बाद जब आकर्षण कम होता है तब व्यक्तिगत विविधता तनाव का कारण बनती है।  कहते हैं कि बेटी हमेशा बड़े घर में देना चाहिये और बहु हमेशा छोटे घर से लाना चाहिये।  स्पष्टत इसके पीछे तर्क यही है कि विवाह बाद आर्थिक तथा सामाजिक सामंजस्य बना रहे।  अगर लड़की छोटे घर जायेगी तो तकलीफ उठायेगी। उसी तरह बहुत अगर अमीर घर से आयेगी तो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना कठिन हो जायेगा। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रेम क्षणिक पर जीवन व्यापक है इसलिये संबंध स्थापित करते समय सब तरह की बातों का ध्यान रखना चाहिये।
——————————

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
———————— 
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

संत कबीरदास के दोहे-मित्रता से भक्ति और सत्संग में बाधा आती है (bhakti aur satsang-kabir das ji ke dohe)


दुनिया सेती दोसती, होय भजन के भंग
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुनिया के लोगों के साथ मित्रता बढ़ाने से भगवान की भक्ति में  बाधा आती है। एकांत में बैठकर भगवान राम का स्मरण करना चाहिये या साधुओं की संगत करना चाहिए तभी भक्ति प्राप्त हो सकती है।
ऊजल पहिनै कापड़ा, पान सुपारी खाय
कबीर गुरु की भक्ति बिन, बांधा जमपुर जाय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोग साफ-सुथरे कपड़े पहन कर पान और सुपारी खाते हुए जीवन व्यतीत करते हैं। गुरु की भक्ति के बिना उनका जीवन निरर्थक व्यतीत करते हुए मृत्यु को प्राप्त होते हैं
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय  व्याख्या-भक्ति लोग अब जोर से शोर मचाते हुए कर रहे हैं। मंदिरों और प्रार्थना घरों में फिल्मी गानों की तर्ज पर भजन सुनकर लोग ऐसे नृत्य करते हैं मानो वह भगवान की भक्ति कर रहे हैं। समूह बनाकर दूर शहरों में मंदिरों में स्थित प्रतिमाओं के दर्शन करने जाते हैं। जबकि इससे स्वयं और दूसरों को दिखाने की भक्ति तो हो जाती है, पर मन में संतोष नहीं होता। मनुष्य भक्ति करता है ताकि उसे मन की शांति प्राप्त हो जाये पर इस तरह भीड़भाड़ में शोर मचाते हुए भगवान का स्मरण करना व्यर्थ होता है क्योंकि हमारा ध्यान एक तरफ नहीं लगा रहता। सच तो यह है कि भक्ति और साधना एकांत में होती है। जितनी ध्यान में एकाग्रता होगी उतनी ही विचारों में स्वच्छता और पवित्रता आयेगी। अगर हम यह सोचेंगे कि कोई हमारे साथ इस भक्ति में सहचर बने तो यह संभव नहीं है। अगर कोई व्यक्ति साथ होगा या हमारा ध्यान कहीं और लगेगा तो भक्ति भाव में एकाग्रता नहीं आ सकती। अगर हम चाहते हैं कि भगवान की भक्ति करते हुए मन को शांति मिले तो एकांत में साधना का प्रयास करना चाहिए।
कहने का अभिप्राय यह है कि भक्ति और सत्संग का मानसिक लाभ तभी मिल सकता है जब उसे एकांत में किया जाये। अगर शोर शराबे के साथ भीड़ में भक्ति या भजन गायेंगे तो फिर न केवल अपना ध्यान भंग होगा बल्कि दूसरे के कानों में भी अनावश्यक कटु स्वर का प्रसारण करेंगे। 
————————————–

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
———————— 
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

संत कबीर के दोहे-अपनी मति नहीं तो बड़े होने से क्या लाभ (bade hone se kya labh-hindu dharma sandesh)


हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि तो हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं और लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो वह भी लोग भी भ्रम में हो जाते हैं और उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं।
यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता।
कभी कभी तो लगता है कि जनकल्याण का नारा देने वाले लोग बड़े पद पर प्रतिष्ठत हो गये हैं पर लगता नहीं कि उनके पास अपनी मति है क्योंकि वह दूसरों की राय लेकर काम करने आदी हो गये हैं। ऐसे लोगों के लिये कल्याण तो बस दिखावा है वह तो उसके नाम पर सुख तथा एश्वर्य प्राप्त करने में ही अपने को धन्य समझते हैं।

——————-
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

संत कबीर दर्शन-जैसे पदार्थ भक्षण करते हैं वैसे ही विचार हो जाते हैं


जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं
कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत गीता के संदेश के अनुसार गुण ही गुणों में बरतते हैं। जिस तरह का मनुष्य भोजन ग्रहण करता है और जिस वातावरण में रहता है उसका प्रभाव उस पर पड़ता ही है। अगर हम यह मान लें कि हम तो आत्मा हैं और पंच तत्वों से बनी यह देह इस संसार के पदार्थों के अनुसार ही आचरण करती है तब इस बात को समझा जा सकता है। अनेक बार हम कोई ऐसा पदार्थ खा लेते हैं जो मनुष्य के लिये अभक्ष्य है तो उसके तत्व हमारे रक्त कणों में मिल जाते हैं और उसी के अनुसार व्यवहार हो जाता है।
आज जो हम समाज में तनाव और बीमारियों की बाहुलता देख रहे हैं वह सभी इसी खान पान के कारण उपजी हैं। कहते हैं कि स्वस्था शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है, इसका आशय यही है कि सात्विक भोजन से जहां मन प्रसन्न रहता है वहीं तामस प्रकार का भोजन शरीर और मन के लिये कष्टकारक होता है।

—————-
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

पतंजलि योग दर्शन-प्राणायाम से मन और विचार दृढ़ होते हैं (patanjali yog darshan-pranayam aur man)


प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।
हिन्दी में भावार्थ-
प्राणवायु को बाहर निकालने और अंदर रोकने के निरंतर अभ्यास चित्त निर्मल होता है।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुपन्न मनसः स्थितिनिबन्धनी।।
हिन्दी में भावार्थ-
विषयवाली प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर भी मन पर नियंत्रण रहता है।
विशोका वा ज्योतिवस्ती।
हिन्दी में भावार्थ-
इसके अलावा शोकरहित प्रवृत्ति से मन नियंत्रण में रहता है।
वीतरागविषयं वा चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-
वीतराग विषय आने पर भी मन नियंत्रण में रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग दर्शन में प्राणायाम का बहुत महत्व है। योगासनों से जहां देह के विकार निकलते हैं वहीं प्राणायाम से मन तथा विचारों में शुद्धता आती है। जैसा कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते आ रहे हैं कि इस विश्व में मनोरोगियों का इतना अधिक प्रतिशत है कि उसका सही आंकलन करना संभव नहीं है। अनेक लोगों को तो यह भी पता नहीं कि वह मनोविकारों का शिकार है। इसका कारण यह है कि आधुनिक विकास में भौतिक सुविधाओं की अधिकता उपलब्धि और उपयेाग के कारण सामान्य मनुष्य का शरीर विकारों का शिकार हो रहा है वहीं मनोरंजन के नाम पर उसके सामने जो दृश्य प्रस्तुत किये जा रहे है वह मनोविकार पैदा करने वाले हैं।
ऐसी अनेक घटनायें आती हैं जिसमें किसी फिल्म या टीवी चैनल को देखकर उनके पात्रों जैसा अभिनय कुछ लोग अपनी जिंदगी में करना चाहते हैं। कई लोग तो अपनी जान गंवा देते हैं। यह तो वह उदाहरण सामने आते हैं पर इसके अलावा जिनकी मनस्थिति खराब होती है और उसका दुष्प्रभाव मनुष्य के सामान्य व्यवहार पर पड़ता है उसकी अनुभूति सहजता से नहीं हो जाता।
प्राणायाम से मन और विचारों में जो दृढ़ता आती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है मगर जो लोग प्राणायाम करते और कराते हैं वह जानते हैं कि आज के समय में प्राणायाम ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिससे समाजको बहुत लाभ हो सकता है।

———-
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

श्रीगुरु ग्रंथ साहिब-प्रभु का नाम कभी पुराना नहीं पड़ता (shriguru granth sahib-prabhu ka naam)


‘निरभउ निरंकार सच नाम।
जा का कीआ सगल जहान।।
हिन्दी में भावार्थ-
निर्भय निरंकार का नाम ही सच है। उसी परमात्मा का यह पूरा संसार है।
‘सचु पुराणा होवे नाही।’
हिन्दी में भावार्थ-
इस संसार में समय के साथ सब वस्तु पुरानी हो जाती है लेकिन प्रभु का नाम कभी भी पुराना नहीं पड़ता।
‘आदि सच जुगादि सच।
है भी सच, नानक होसी भी सच।।
हिन्दी में भावार्थ-
परमात्मा का नाम अनेक युगों से सच के रूप में मौजूद है। उसके नाम की शक्ति को कोई चुनौती नहीं दे सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-मनुष्य देह शिशुकाल, बाल्यकाल, युवावस्था तथा वुद्धावस्था से गुजरती हुई अंततः समाप्त हो जाती है पर यह संसार सदैव बना रहता है क्योंकि उसका आधार परमात्मा का संकल्प है। भगवान के नाम स्मरण करने से नित एक नवीन स्फूर्ति अनुभव होती है। हृदय में प्रतिदिन श्रद्धा तथा विश्वास के नाम लेते रहें तब भी ऐसा नहीं लगता कि वह पुराना है।
नित ध्यान, स्मरण तथा सत्संग में रत रहने वालों को परमात्मा का नाम कभी पुराना अनुभव नहीं हो सकता। अनेक लोग यह कहते हैं कि भगवान का नाम तो केवल वृद्धावस्था में लिया जाना चाहिये पर यह उनका वहम है। भगवान का नाम लेने की प्रवृत्ति अगर बचपन में ही नहंी पड़ी तो फिर वृद्धावस्था में भी उसकी आदत नहीं पड़ सकती। देह पुरानी पड़ जाती है पर उसमें विचर रहा मन तो आदतों का दास है। इसलिये अगर प्रारंभ में उसे ध्यान, नाम स्मरण तथा सत्संग का अभ्यास नहीं मिला तो वह बाद में उसके लिये लालायित भी नहीं होता। इसलिये प्रारंभ से ही समय मिलने पर परमात्मा का स्मरण करना चाहिये ताकि बाद में उसके लिये पछताना न पड़े।

————-
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

मनु स्मृति-अपने ऊपर निर्भर काम को ही हाथ में लें (apna hath jagnnath-manu smriti)


यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयतनेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा को शांति मिलती हो वही करना चाहिए। जिससे इसके विपरीत स्थिति हो तो उस काम को त्याग देना चाहिए।
सर्वे परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो कार्य दूसरे के अधीन है वह दुःखदायी होता है। जिस काम पर अपना पूरी तरह से नियंत्रण हो उसी से ही सुख मिलता है। यही सुख और दुःख का लक्षण है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हमारे सामने कोई कार्य उपस्थित होता है तो उसके परिणामों, प्रकृति तथा स्वरूप पर अवश्य विचार करना चाहिए। कभी कोई कार्य दबाव या परप्रेरणा से नहीं करना चाहिऐ। इसके अलावा जो कार्य पूरे या आंशिक रूप से दूसरे पर निर्भर हो उसे अपने हाथ में न लें तो ही अच्छा। क्योंकि तब लक्ष्य की प्राप्ति दूसरे की गतिविधि पर निर्भर हो जाती है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि दूसरा आदमी अगर अंदर ही अंदर द्वेष रखता है तो वह जानबूझकर उस काम का अपना पूरा या आंशिक दायित्व नहीं निभाता तब अपना लक्ष्य या अभियान संकट में पड़ जाता है।
इसके अलावा किसी भी कार्य को करते हुए इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि उससे अपने मन और अंतरात्मा को संतोष मिलेगा या नहीं। जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा में क्लेश होता हो उससे करने का विचार ही छोड़ दें तो ही अच्छा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने हाथ से किये जाने वाले कार्यों पर विचार करना चाहिए ताकि उनके परिणामों को लेकर बाद में पछताना न पड़े। बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी काम को करने से पहले उसके हर पहलू पर विचार कर लेते हैं।

————————–
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

भर्तृहरि शतक-हिमालय से मलय पर्वत अधिक श्रेष्ठ (himalya and malay parvat-bhartrihari shatak)


किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव।
मन्यामहे मलयमेव यदाश्रयेण कंकोलनिम्बकुटजा अपि चंन्दनाः स्युः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चांदी के रंग के उस हिमालय की संगत से भी क्या लाभ होता है, जहां के वृक्ष केवल वृक्ष ही रह गये। हम तो उस मलयाचल पर्वत को ही धन्य मानते हैं जहां निवास करने वाले कंकोल, नीम और कुटज आदि के वृक्ष भी चंदनमय हो गये।
पातितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः।
प्रायेण साधुवृत्तीनामस्थायिन्यो विपत्तयः।
हिन्दी में भावार्थ-
जमीन पर गेंद पटकी जाये तो फिर भी वापस आ जाती है। उसी प्रकार साधु भी अपने सद्गुणों की सहायता से अपनी विपत्तियों का निवारण कर लेते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज यहां संगति के प्रभाव की चर्चा कर रहे हैं। मनुष्यों में वही श्रेष्ठ है जिसके सद्गुणों से दूसरे भी सुधरते हैं। सभी मनुष्यों के संपर्क एक दूसरे से होते हैं और व्यवसाय, नौकरी या पर्यटन में दौरान अनेक व्यक्ति मिलते और बिछड़ते हैं। जब तक साथ चलने का लक्ष्य रहता है आपस में बेहतर संबंध स्थापित होते हैं। सभी अपना काम मिलकर करते हैं पर एक दूसरे के अंदर ऐसा प्रभाव नहीं डाल पाते कि आपसी गुणों का स्वाभाविक रूप से विनिमय हो जाये। हिमालय पर्वत पर अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण वृक्षों को वास होता है पर वह चंदन नहीं हो जाते जबकि मलय पर्वत पर चाहे जो भी पेड़ हो उसमें चंदन की सुगंध आ जाती है। मनुष्यों में जो श्रेष्ठ होते हैं वह न केवल अपने से बड़े बल्कि अपने से छोटे लोगों को भी अपने गुणों से ऐसा प्रभावित करते हैं कि वह उनमें भी आ जाते हैं।
इसी कारण अपने गुणों को पहचान कर उनमें श्रीवृद्धि करना चाहिये। इससे अनेक लाभों में यह भी है कि उनके सहारे ही हम जीवन पथ पर विपत्तियों से लड़ते हुए आगे बढ़ते हैं। जिस तरह गेंद जमीन पर पटक दिये जाने पर फिर वापस आती है वैसे ही साधु भी अपने गुणों के सहारे संकट काट लेते हैं। इससे प्रेरणा लेते हुए अपने अंदर साधुत्व का भाव लाना चाहिये। मनुष्य वही श्रेष्ठ है जो अपने सत्गुणों से दूसरे का मन तो प्रसन्न करता ही उसे अपने अंदर ऐसे गुण लाने की प्रेरणा भी देता है।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

दिल और दुनिया-हिन्दी शायरी


रिश्ते किसी तरह निभाऐं,

दिल में न हो पर

दुनियां को दिखाऐं।

सभी टूटे हुए हैं जमाने से

पर छिपा रहे हैं

आप भी छिपायें।

———

अपनी नीयत में कभी खोट

नहीं पालना

जला कर राख कर देगा।

छलियों पर नज़र रखना पर

छल को दिल में जगह

कभी मत देना

तुम्हें ही खाक कर देगा।

———–

लोग दिखाने के लिये दर्द दिखा रहे हैं

तुम भी हमदर्दी दिखा देना।

जिनको सच में है तकलीफ

वह बताने नहीं आयेंगे

तुम उन तक पहुंच कर मदद बांटना

हमदर्दी का पाठ दुनियां को सिखा देना।

———

पल पल धोखा खाकर भी

किसी से गद्दारी मत करना।

जिन्होंने तोड़े हैं दिल

वह भी कोई जन्नत में नहीं गये

वफा जिनको नहीं आयी

बना नहीं सके वह दोस्त नये,

तुम हर दर्द भूल जाओगे

बस अपने हाथ से

सभी जगह वफादारी का लफ्ज भरना।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

भर्तृहरि शतक-धनहीन होने पर भी विद्वान रत्न के समान (garib vidvan bhee ratna saman-hindu dharma sandesh)


शास्त्रोपस्कृतशब्द सुंदरगिरः शिष्यप्रदेयाऽऽगमा विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभर्निर्धनाः।
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयस्त्वर्थ विनाऽपीश्वराः कुत्स्या स्युः कुपरीक्षका हि मणयो यैरर्घतः पातिताः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ग्रंथों का अध्ययन से उसमें वर्णित शब्दों के ज्ञान को धारण कर सुंदर वाणी बोलने के साथ ही शिष्यों को उनका उपदेश करने वाले विद्वान तथा काव्य की मधुर धारा प्रवाहित करने वाले कवि जिस राज्य में निर्धन होते हैं, उसका राजा या राज्य प्रमुख अयोग्य कहा जाता है। विद्वान धनहीन होने पर भी रत्न के समान है और उसका सम्मान सभी जगह होता है और जो ऐसे रत्नों का अपमान करता है वह निंदा योग्य है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इस संदेश को आज की नई सभ्यता में देखें तो यह दायित्व पूरे समाज का है कि वह लोगों को तत्व ज्ञान तथा सत्य का उपदेश देने वाले विद्वानो के साथ ही कवियों और लेखकों को भी संरक्षण दे। राज्य प्रमुख का तो यह उच्चतर दायित्व है पर आजकल जिस तरह पूंजीवाद ने व्यापक आधार बनाया है तो उसके शिखर पुरुषों को भी इस तरह ध्यान देना चाहिए। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शिखरों पर बैठे माननीय लोगों की उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि आजकल समाज में कोई अपने बच्चे को अध्यात्मिक ज्ञान न तो देना चाहता है न ही किसी से प्राप्त करने के लिये प्रेरित करता है। यही हाल साहित्य का है। इस देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो अपने लड़के या लड़की का किसी भी भाषा का लेखक होना पसंद करे-सिवाय अंग्रेजी के। इसका कारण यही है कि हमारे उच्च शिखर पुरुषों ने यह मान लिया है कि समाज को वैचारिक, साहित्यक तथा अध्यात्मिक मार्ग पर आगे ले जाने वाले विद्वानों, कवियों और लेखकों को संरक्षण देने की आवश्यकता नहीं है। उनकी उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि समाज में हर कोई अपने बच्चे को चिकित्सक, अभियंता, उच्च श्रेणी का अध्यापक तथा प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहता है जो अधिक से अधिक धन का स्वयं दोहन कर सके क्योंकि विद्वानों या लेखकों को आश्रय देने वाला कोई नहीं है।
इसी कारण हमारे समाज में एक ‘खिचड़ी संस्कृति’ बन गयी है। आपने देखा होगा कि आजकल अनेक लोग यह शिकायत करते हैं कि ‘बुढ़ापे में बच्चे उनकी देखभाल नहीं करते।’ उनसे पूछिये कि ‘क्या आप इसके लिये जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि आपने ही ऐसे संस्कार नहीं दिये।’
हमारे शिखर पुरुष कानून के द्वारा समाज को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह एक बेकार का प्रयास है। एक तरफ आप पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण न केवल स्वयं कर रहे बल्कि अपने बच्चों को भी उस पर चलते देखना चाहते हैं। फिर उनसे देशी व्यवहार की आशा करना कहां तक उचित है?
देश की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रक्रिया में विद्वानों की निष्क्रियता समाज के लिये घातक होती है, इसलिये जितना हो सके सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक शिखर बैठे लोग उनको संरक्षण दें या फिर समाज के बिगड़ने का रोना बंद कर दें।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

संत कबीर वाणी-परमात्मा के नाम के मतवालों में मद नहीं होता (bhakti aur ahankar-sant kabirdas ke dohe)


राता माता नाम का, मद का माता नांहि।
मद का माता जो फिरै, सौ मतवाला काहि।

संत कबीरदास का कहना है कि जो भक्त परमात्मा का नाम लेता है वह कभी मद में नहीं आता। वह तो भगवान की भक्ति में मतवाला रहकर हर चीज से अंजान हो जाता है। जो मद में चूर है वह भला कहां मतवाला हो सकता है।
राता माता नाम का पीया पे्रम अघाय।
मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय।।
संत कबीरदास जी का कहना है कि जो भक्त परमात्मा के नाम का अनुरागी है वह उसका रस पीकर तृप्त होता है। उसमें तो केवल भगवान के दर्शन का प्यास होती है, वह मोक्ष प्राप्त करने का विचार भी नहीं करता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कभी कभी तो यह लगता है कि कुछ लोग धर्म का ढोंग करते हैं। वह दूसरों पर प्रभाव जमाने के लिये भक्ति करते हैं। उनके जुबान पर भगवान का नाम आता है और वहीं से बाहर चला जाता है। उनके हृदय में तो केवल माया का वास होता है।
जिनमें भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा होती है वह चुपचाप घर में रहकर या मंदिर में जाकर उसका नाम लेते हुए पूजा या ध्यान करते हैं। अपने यहां हर शहर और मोहल्ले में मंदिर होते हैं जहां करोड़ों लोग चुपचाप जाकर अपनी श्रद्धा के अनुसार परमात्मा का नाम लेते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जो दिन या वार के हिसाब से तमाम तरह के आयोजन कर यह दिखाते हैं कि वह भगवान के भक्त हैं। भगवान के नाम पर आयोजन करने के लिये वह चंदा लेते हैं। कहीं कहीं तो ऐसे लोग मंदिरों के निर्माण के लिये पैसा भी वसूल करते हैं। सरकारी जमीन पर कब्जा कर धार्मिक स्थान बनाने की परंपरा चल पड़ी है। इसमें सभी धर्मों के लोग शामिल हैं। ऐसे लोगों का भगवान की भक्ति का भाव नहीं होता बल्कि इस तरह वह नाम और धन का अपने लिये संग्रह करते हैं। जिनका भगवान के प्रति अगाध विश्वास है वह चुपचाप रहते हैं। किसी को दिखाने का न तो उनमें मोह होता है न ही विचार आता है। वह तो मतवाले होते हैं और जो दिखावे मेें यकीन करते हैं उनको मद आ जाता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

</strong

%d bloggers like this: