Tag Archives: कविता

आंखो में भ्रम है-हिन्दी हाइकु


हर पड़ाव
हमारे सामने है
नए रूप में,

आँखों में भ्रम
पहचान नहीं है
बदलाव की,

जड़ बुद्धि में
एक जगह खड़ा
घमंडी सोच,

नए रूप में
अपने मिटने का
उसे भय है,

बड़ा खतरा
दुश्मन से नहीं
अपने से है,

निरंकुश है
इंसान का दिमाग
बिखरता है,

थोड़े भय में
काँपते हाथ पैर
हारा आदमी,

हाथ उठाता
आकाश की तरफ
रक्षा के लिए,

मुश्किल है
लोगों को समझाना
ज़िंदा दिल हो,

अपनी सोच
काबू में रखा करो
कटार जैसे,

नहीं तो कटो
बेआसरा होकर
जैसे घास हो।

अपनी शक्ति
अपने अंदर है
ढूंढो तो सही

अपने हाथ
याचक न बनाओ
यूं न फैलाओ

अपनी सोच
अपने हाथ लाओ
विजेता बनो।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

नये चेहरे की तलाश-हिन्दी कविता (search of new face-hindi poem)


जमाने को रास्ता बताने के लिए
हर रोज एक नया चेहरा क्यों चाहिए,
इंसानों को इंसानों से बचाने के लिए
रोज किसी नए चौकीदार का पहरा क्यों चाहिए,
यकीनन इस धरती पर लोग
कभी भरोसे लायक नहीं रहे
वरना कदम दर कदम
धोखे से बचने के लिए एक ईमानदार क्यों चाहिए।
——————
आओ
बेईमानों की भीड़ में
कोई ऐसा आदमी ढूंढकर
पहरे पर लगाएँ,
जिसकी ईमानदारी के चर्चे बहुत हों,
धोखा दिया हो
मगर कभी पकड़ा नहीं गया हो।
पुराने बदनाम हैं
इसलिए उसका चेहरा भी नया हो।

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शब्दों की जादूगरी-हिन्दी साहित्य कविता


मु्फ्त की हवाओं से
जिंदगी की सांस चलती,
पानी से बुझती प्यास की आग
जब गले में जलती।
सूरज की धूप अपने स्पर्श से
देह को मलती।
कुदरत से जिंदगी के साथ मिले मुफ्त
तोहफों की इंसान कहां करता कदर,
ख्वाब करते हैं उसे दर-ब-दर,
रेत में ढूंढता है पत्थर की कोड़ियां,
भरता है उससे अपनी बोरियां,
आंखों से देखने को आतुर है सोना
नींद बेचकर खरीदता है बिछौना,
कागज के नोटों का बना लिया ढेर,
मन को समझाता है
पूजकर पत्थर के शेर,
लाचार क्या कर सकता है
इसके अलावा,
आजाद अक्ल मिली है
पर साथ मिला जरूरतों की
गुलामी का छलावा,
अपना सोचने में लगती है देर,
अक्लमंद भी सजाते हैं सामने
सपनों का अंधेर
भला कहां है आम इंसान की गलती।।

 वह हर रोज तारीखों पर लिखते हैं।

इसलिए कलेंडर में हमेशा झांकते दिखते  हैं।

बाजार के सौदागरों के लिए दलालों ने

अपने कारिंदों के सहारे

जमाने में किये हैं इतने हादसे कि

पेशेवर कलमकारों के शब्द

उन्हीं पर कहीं रोते तो कहीं हंसते मिलते हैं।

———-

हम हादसों की तारीखें भूल जाते हैं

पर शब्दों के सौदागर

हर तारीख को कब्र से ढूंढ कर लाते हैं।

भूल न जाये जमाना उनके साथ जमाना

शब्दों की जादूगरी और उनका नाम

इसलिये हर रोज की तारीख का

हादसा याद दिलाते हैं।

 


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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ऐसे ही अफसाने-हिंदी व्यंग्य कविता (bade log-hindi vyangya kavita)


जब बहता था दरिया में पानी
तब भला कौन वादा करता था उसे लाने का।
कहीं बांध बनाये
कहीं रास्ता बदला
पानी को बनाकर बेचने की शय
जिन्होंने बिगाड़ दी प्रकृति की लय
अब वही करते हैं सभी जगह दावा
पानी का दरिया बहाने का।
छोटे ईमान के लोग
बड़े बन जाते हैं इस जमाने में
लेकर सहारा ऐसे ही अफसाने का।
………………………..

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शोर और शांति-हिन्दी कविता (shor aur shanti)


शोर कर रही भीड़ में
शांति कराने के लिये
बहुत तेज आवाज में शोर मचाओगे
तो तुम भी शांति के मसीहा हो जाओगे।
अंधेरे में खड़े लोगों से
रौशनी का वादा करते रहो
तारीफों के कसीदे पढ़े जाते रहेंगे,
लोग भूल जायेंगे अपनी तकलीफ
तब कोई नहीं देखेगा तुम्हारी तरफ
जब सचमुच चिराग जलाओगे।

………………………….
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कल्पना से परे-हिंदी व्यंग्य कविता (kalpna se pare-hindi vyangya kavita


बरसात में सड़क पर चलते हुए
जब पानी से भरे छोटे छोटे समंदर
और कीचड़ के पहाड़ों से गिरता टकराता हूं।
तब याद आती है
सुबह अखबार में छपी तरक्की की खबरें
और उसे सभी में बांटने के लिये
शोर करते लोगों के जूलूस की फोटो याद
तब बरबस हंसी आ जाती है
उनको कल्पनातीत पाता हूं।
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अकेला अक्षर-हिंदी कविता (akshara,shabda & bhasha-hindi kavita)


कभी शब्द नहीं बनता
अकेला शब्द कभी भाषा नहीं बनता।
कई मिलकर बनाते हैं एक भाव समूह
जिससे उनका निज परिचय बनता।
एक का अस्तित्व कौन जानेगा
जब तक दूसरा नहीं दिखेगा
कहीं से पढ़कर ही कोई अपने हाथ से लिखेगा
भाषा में एक अकेला शब्द अहंकार भी है
जिसके भाव के इर्द गिर्द घूम रहा हर कोई
विनम्रता से परे सारी जनता।
अक्षर का अकेलापन
शब्द का बौनापन
बृहद भाषा समूह के बिना दर्दनाक होता है
जो जान लेता है
वही सच्चा लेखक बनता

…………………………..
नजर और नजरिया-हिन्दी शायरी (nazar aur nazariya-hindi shayri)
अपनी पीर किसे दिखाऊं
हर शख्स आकंठ डूबा है
अपनी ही तकलीफों में
किसको अपना समंदर दिखाऊं।

लोगों के नजर और नजरिये में
इतना फर्क आ जाता है
जो सोचते और देखते है
अल्फाजों में बयां दूसरा ही बन जाता है
सुनते कुछ हैं
समझ में कुछ और ही आता है
पहले उनको अपना दर्द दिखाऊं
या इलाज करना सिखाऊं

………………………

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डरपोक और कमअक्ल -व्यंग्य कविता (akhri sach-hindi vyangya kavita)


डरपोक लोगों के समाज में
बहादुर बाहर से किराये पर लाये जाते हैं.
किसी गरीब को न देना पड़े मुआवजा
इसलिए किसी की कुर्बानी
कहाँ दी गयी
इससे न होता उनका वास्ता
उधार के शहीदों के गीत
चौराहे पर गाये जाते हैं.

कमअक्लों की महफ़िल में
बाहरी अक्लमंदों के
चर्चे सुनाये जाते हैं
किसी कमजोर की पीठ थपथपाने से
अपनी इज्जत छोटी न हो जाए
इसलिए उनको दिए इसके दाम
सभी के सामने सुनाये जाते हैं.
घर का ब्राह्मण बैल बराबर
ओन गाँव का सिद्ध
यूंही नहीं कहा जाता
दौलतमंदों और जागीरदारों की चौखट पर
हमेशा नाक रगड़ने वाले समाज की
आज़ादी एक धोखा लगती है
फिर भी उसके गीत गाये जाते हैं.
———————
उसने कहा ”मैं आजाद हूँ
खुद सोचता और बोलता हूँ.”
उसके पास पडा था किताबों का झुंड
हर सवाल पर
वह ढूंढता था उसमें ज़वाब
फिर सुनाते हुए यही कहता कि
‘वही आखिर सच है जो मैं कहता हूँ

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‘पूंजी’ के प्रेमी-(hindi tripadam)


हिंसा सजी है
उनके शब्दों में
क्रांति दिखाते।

‘पूंजी’ के प्रेमी
‘पूंजीवाद के बैरी
भ्रांति फैलाते।

कहीं की जंग
उसका इतिहास
यहाँ बिछाते।

विचार युद्ध
जो जीता नहीं गया
यहां भी लाते।

बिना पति के ‘पूंजी’
सजकर नाचेगी
कैसे दिखाते।

गरीब श्रम
कभी आजाद होगा
बस नारे लगाते।

सच से परे
उनकी दुनियां है
उसे छिपाते।

पसीना पति
उनके खाली नारे
न सुन पाते।

क्रांति काफिले
आकाश में चलते
नीचे न आते।

पेट की भूख
रोटी से ही बुझती
वादे सताते।

खुले बाजार
अपना ही बिकना
वह छिपाते।

वाद व नारे
संसार में बजते
काम न आते

……………………..

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इश्तिहार और दर्शक-त्रिपदम (hindi tripadam)


इश्तिहार
प्यारे मजमून
धोखे से भरे।

अनजाने में
सामने आ जाये तो
दिल में भरे।

कामयाबी के
ढेर सारे सपने
सोने से भरे।

झूठे हों तो भी
देखने की कीमत
दर्शक भरे।

तस्वीर में
चमकते चेहरे
रंग से भरे।

अलसुबह
देख वह चेहरे
आईना डरे।

मेला या खेल
नट और खिलाड़ी
पैसे से भरे।

पैसे के लिये
इश्तिहारी खेल
सच से परे।

खामोश देखो
जब सिक्के न हों
जेब में भरे।

इश्तिहार
पढ़कर करना
याद से परे।

……………………..

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जिंदगी में ‘शार्टकट’ रास्ता मत ढूंढो यार-vyangya kavita


जीवन में कामयाबी के लिये
शार्टकट(छौटा रास्ता) के लिये
मत भटको यार
भीड़ बहुत है सब जगह
पता नहीं किस रास्ते
फंस जाये अपनी कार
तब सोचते हैं लंबे रास्ते
ही चले होते तो हो जाते पार
…………………………
धरती की उम्र से भी छोटी होती हमारी
फिर भी लंबी नजर आती है
जिंदगी में कामयाबी के लिये
छोटा रास्ता ढूंढते हुए
निकल जाती है उमर
पर जिंदगी की गाड़ी वहीं अटकी
नजर आती है
…………………..
जिंदगी मे दौलत और शौहरत
पाने के वास्ते
ढूंढते रहे वह छोटे रास्ते
खड़े रहे वहीं का वहीं
नाकाम इंसान की सनद
बढ़ती रही उनके नाम की तरफ
आहिस्ते-आहिस्ते

………………….

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पत्थर कभी कलम से अधिक घाव नहीं कर पाते-हिंदी शायरी


यूं तो जंग है हर कदम पर
हम ही अमन का
पैगाम लिये चले आते हैं
तुम डरपोक समझो या
अमन का मसीहा
देखो
किसी पर हम क्या पत्थर उछालें
पत्थर ही उनसे टकरा जाते हैं।

कभी कभी गुस्सा आता है हमें
पर अमृत समझ पी जाते हैं
नहीं समझता जमाना
पर अपने दिल का हाल
कागज पर लफ्जों में बयां कर जाते हैं
पत्थर उड़ाने वाले भी
कौन होते कामयाब
कुछ का बहता खून
कुछ ही अपने ही नाखून
खुद के शरीर में चुभोये जाते है।

गोरे चेहरे अपनी काली नीयत
कितनी देर छिपा सकते हैं
उनके ख्याल आंखों के दरवाजे
पर आ ही जाते हैं
बहुत अभ्यास किया जिंदगी में
अनुभव से यही पाया
पत्थर कभी कलम से
अधिक घाव नहीं कर पाते हैं।

………………..

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अपने फायदे के लिए बनाये कायदे-हिन्दी व्यंग्य कविता


हक की बात करते हैं लोग सभी
फर्ज पर बहस नहीं करते कभी।।।
अपने फायदे के लिये बनाये कायदे
वह भी मौका पड़े, याद आते हैं तभी।।
दिखाने के लिये लोग अहसान करते हैं
नाम मदद, पर कीमत मांगते हैं सभी।।
रोटियों का ढेर भले भरा हो जिनके गले तक
उनकी भूख का शेर पिंजरे में नहीं जाता कभी।।
नारों से पेट भरता तो यहां भूख कौन होता
दिखाते हैं सब, पेट में नहीं डालता कोई कभी।।
गरीब के साथ जलना जरूरी है, भूख की आग का
उसके कद्रदानों की रोटी पक सकती है तभी।।

…………………………….

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इन्सान जमीन पर कटते रहे-व्यंग्य कविता


लुटता रहा पूरा शहर
मगर लोग देखते रहे।
‘खराब ज़माना आ गया है’
एक दूसरे से बस यही कहते रहे।

‘बचाने के लिये जंग कर
जान गंवाने या
शरीर पर जख्म लेने से
अच्छा अमन है’
यही सोचकर आपस में हंसते रहे।

फिर भी
आसमान की तरफ देखकर
वहां से किसी फरिश्ते के जमीन पर आकर
खुद को बचाने की उम्मीद में
इंसान खामोशी से जमीन पर कटते रहे।।

…………………………….

हिंदी साहित्य,मनोरंजन,हिंदी शायरी,शेर,समाज

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चीजें बेच सके बाज़ार में वही है असली इश्क -हास्य व्यंग्य कविताएँ


उनके कान खुले हैं
पर सुनते हैं कि नहीं कैसे बताएं
क्योंकि उनको सुनाया कई बार है दर्द अपना
पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि वह कोई दवा लाएं
————————–
इश्क तो असल अब वही है
जिसके नाम पर कोई उत्पाद
बाज़ार में बिकता है
औरत हो या मर्द
असल में जज्बातों खरीददार होता है बाज़ार में
भले ही माशूक और आशिक के तौर पर दिखता है
————————–
शब्द बिके नहीं बाज़ार में
तो पढ़े भी नहीं जाते
बिकने लायक लिखें तो
समझने लायक नहीं रह जाते
शब्दों के सौदागरों बनते हैं हमदर्द
पर दिल में उनके जज़्बात कभी
पहुँच नहीं पाते
नहीं बनी कोई ऐसी तराजू
जिसमें शब्दों को तौल पाते
—————————–

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