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आधुनिक लोकतंत्र के सिद्ध-हिन्दी व्यंग्य (adhunik loktantra ke siddh-hindi vyangya


फिलीपीन के राजधानी मनीला में एक बस अपहरण कांड में सात यात्री मारे गये और दुनियां भर के प्रचार माध्यम इस बात से संतुष्ट रहे कि बाकी को बचा लिया गया। इस बस का अपहरण एक निलंबित पुलिस अधिकारी ने किया था जो बाद में मारा गया। पूरा दृश्य देखकर ऐसा लगा कि जैसे तय कर लिया गया था कि दुनियां भर के प्रचार माध्यमों को सनसनी परोसनी है भले ही अंदर बैठे सभी यात्रियों की जान चली जाये जो एक निलंबित पुलिस अधिकारी के हाथ में रखी एक 47 के भय के नीचे सांस ले रहे थे। एक आसान से काम को मुश्किल बनाकर जिस तरह संकट से निपटा गया वह कई तरह के सवाल खड़े करता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडमस्मिथ ने कहा था कि ‘लोकतंत्र में क्लर्क राज्य करते हैं।’ यह बात उस समय समझ में नहीं आती जब शैक्षणिक काल में पढ़ाई जाती है। बाद में भी तभी समझ में आती है जब थोड़ा बहुत चिंतन करने की क्षमता हो। वरना तो क्लर्क से आशय केवल फाईलें तैयार करने वाला एक लेखकर्मी ही होता है। उन फाईलों पर हस्ताक्षर करने वाले को अधिकारी कहा जाता है जबकि होता तो वह भी क्लर्क ही है। अगर एडमस्मिथ की बात का रहस्य समझें तो उसका आशय फाईलों से जुड़े हर शख्स से था जो सोचता ही गुलामों की तरह है पर करता राज्य है।
अपहर्ता निलंबित पुलिस अधिकारी ने अपनी नौकरी बहाल करने की मांग की थी। बस में पच्चीस यात्री थे। उसमें से उसने कुछ को उसने रिहा किया तो ड्राइवर उससे आंख बचाकर भाग निकला। उससे दस घंटे तक बातचीत होती रही। नतीजा सिफर रहा और फिर फिर सुरक्षा बलों ने कार्यवाही की। बस मुक्त हुई तो लोगों ने वहां जश्न मनाया। एक लोहे लंगर का ढांचा मुक्त हो गया उस पर जश्न! जो मरे उन पर शोक कौन मनाता है? उनके अपने ही न!
संभव है पुलिस अधिकारी की नाराजगी को देखते हुए कुछ बुद्धिजीवी उसका समर्थन भी करें पर सवाल यहां इससे निपटने का है।
अपहर्ता ने बस पकड़ी तो उससे निपटने का दायित्व पुलिस का था मगर उसकी मांगें मानने का अधिकार तो नागरिक अधिकारियों यानि उच्च क्लर्कों के पास ही था। आखिर उस अपहर्ता से दस घंटे क्या बातचीत होती रही होगी? इस बात को कौन समझ रहा होगा कि एक पूर्व पुलिस अधिकारी के नाते उसमें कितनी हिंसक प्रवृत्तियां होंगी। चालाकी और धोखे से उसका परास्त किया जा सकता था मगर पुलिस के लिये यह संभव नहीं था और जो नागरिक अधिकारी यह कर सकते थे वह झूठा और धोखा देने वाला काम करने से घबड़ाते होंगे।
अगर नागरिक अधिकारी या क्लर्क पहले ही घंटे में उससे एक झूठ मूठ का आदेश पकड़ा देते जिसमें लिखा होता कि ‘तुम्हारी नौकरी बहाल, तुम्हें तो पदोन्नति दी जायेगी। हमने पाया है कि तुम्हें झूठा फंसाया गया है और ऐसा करने वालों को हमने निलंबित कर दिया है। यह लो उनके भी आदेश की प्रति! तुम्हें तो फिलीपीन का सर्वोच्च सम्मान भी दिया जायेगा।’
उसके निंलबन आदेश लिखित में थे इसलिये उसे लिखा हुआ कागज देकर ही भरमाया जा सकता था। जब वह बस छोड़ देता तब अपनी बात से पलटा जा सकता था। यह किसने कहा है कि अपनी प्रजा की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख या उसके द्वारा नियुक्त क्लर्क-अजी, पद का नाम कुछ भी हो, सभी जगह हैं तो इसी तरह के लोग-झूठ नहीं बोल सकते। कोई भी अदालत इस तरह का झूठ बोलने पर राज्य को दंडित नहीं  कर सकती। पकड़े गये अपराधी को उल्टे सजा देगी वह अलग विषय है।
हम यह दावा नहीं करते कि अपराधी लिखित में मिलने पर मान जाता पर क्या ऐसा प्रयास किया गया? कम से कम यह बात तो अभी तक जानकारी में नहीं आयी।
किसी भी राज्य प्रमुख और उसके क्लर्क को साम, दाम, दण्ड और भेद नीति से काम करने का प्राकृतिक अधिकार प्राप्त है। अपनी प्रजा के लिये छल कपट करना तो राष्ट्रभक्ति की श्रेणी में आता है। मगर यह बात समझी नहीं गयी या कुछ होता दिखे इस प्रवृत्ति के तहत दस घंटे तक मामला खींचा गया कहना कठिन है।
बात केवल फिलीपीन की नहीं  पूरी दुनियां की है। सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस की है। नीतिगत निर्णय क्लर्क-जिनको हस्ताक्षर करने का अधिकार है उन क्लर्कों को अधिकारी कह कर बुलाया जाता है-लेते हैं। सजायें अदालतें सुनाती हैं। ऐसे में आपात स्थिति में संकट के सीधे सामने खड़ा पुलिस कर्मी दो तरह के संकट में होता है। एक तो यह कि उसके पास सजा देने का हक नहीं है। गलत तरह का लिखित आश्वासन देकर अपराधी को वह फंसा नहीं सकता क्योंकि वह उस पर यकीन नहीं करेगा यह जानते हुए कि कानून में उसके पास कोई अधिकारी नहीं है और बिना मुकदमे के दंड देने पर पुलिस कर्मचारी खुद ही फंस सकता हैै।
ऐसे में आधुनिक लोकतंत्र में क्लर्कों का जलजला है। संकट सामने हैं पर उससे निपटने का उनका सीधा जिम्मा नहीं है। मरेगा तो पुलिस कर्मचारी या अपराधी! इसलिये वह अपनी कुर्सी पर बैठा दर्शक की तरह कुश्ती देख रहा होता है। बात करने वाले क्लर्क भी अपने अधिकार को झूठमूठ भी नहीं छोड़ सकते। वह कानून का हवाला देते हैं ‘हम ऐसा नहीं कर सकते।’
जहां माल मिले वहां कहते हैं कि ‘हम ही सब कर सकते हैं’
पूरी दुनियां में अमेरिका और ब्रिटेन की नकल का लोकतंत्र है। वहां राज्य करने वाले की सीधी कोई जिम्मेदारी नहीं है। यही हाल अर्थव्यवस्था का है। कंपनी नाम का एक दैत्य सभी जगह बन गया है जिसका कोई रंग रूप नहीं है। जो लोग उन्हें चला रहे हैं उन पर कोई प्रत्यक्ष आर्थिक दायित्व नहीं है। यही कारण है कि अनेक जगह कंपनियों के चेयरमेन ही अपनी कंपनी को डुबोकर अपना घर भरते हैं। दुनियां भर के क्लर्क उनसे जेबे भरते हैं पर उनका नाम भी कोई नहीं ले सकता।
ऐसे में आतंकवाद एक व्यापार बन गया है। उससे लड़ने की सीधी जिम्मेदारी लेने वाले विभाग केवल अपराधियों को पकड़ने तक ही अपना काम सीमित रखते हैं। कहीं अपहरण या आतंक की घटना सामने आये तो उन्हें अपने ऊपर बैठे क्लर्कों की तरफ देखना पड़ता है जो केवल कानून की किताब देखते हैं। उससे अलग हटकर वह कोई कागज़ झूठमूठ भी तैयार नहीं कर सकते क्योंकि कौन उन पर सीधे जिम्मेदारी आनी है। जब घटना दुर्घटना में बदल जाये तो फिर डाल देते हैं सुरक्षा बलों पर जिम्मेदारी। जिनको रणनीति बनानी है वह केवल सख्ती से निपटने का दंभ भरते हैं। ऐसे में इन घटनाओं में अपनी नन्हीं सी जान लेकर फंसा आम इंसान भगवान भरोसे होता है।
मनीला की उस अपहृत बस में जब सुरक्षा बल कांच तोड़ रहे थे तब देखने वालों को अंदर बैठे हांगकांग के उन पर्यटकों को लेकर चिंता लगी होगी जो भयाक्रांत थे। ऐसे में सात यात्री मारे गये तो यह शर्मनाक बात थी। सब भी मारे जाते तो भी शायद लोग जश्न मनाते क्योंकि एक अपहृता मरना ही उनके लिए खुशी की बात थी। फिर अंदर बैठे यात्री किसे दिख रहे थे। जो बचे वह चले गये और जो नहीं बचे उनको भी ले जाया गया। आज़ाद बस तो दिख रही है।
अब संभव है क्लर्क लोग उस एतिहासिक बस को कहीं रखकर वहां उसका पर्यटन स्थल बना दें। आजकल जिस तरह संकीर्ण मानसिकता के लोग हैं तुच्छ चीजों में मनोरंजन पाते हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि यकीनन उस स्थल पर भारी भीड़ लगेगी। हर साल वहां मरे यात्रियों की याद में चिराग भी जल सकते हैं। उस स्थल पर नियंत्रण के लिये अलग से क्लर्कों की नियुक्ति भी हो सकती है। कहीं  उस स्थल पर कभी हमला हुआ तो फिर पुलिस आयेगी और कोई एतिहासिक घटना हुई तो उसी स्थान पर एक ही साल में दो दो बरसियां मनेंगी।
आखिरी बात यह कि अर्थशास्त्री एडस्मिथ अमेरिका या ब्रिटेन का यह तो पता नहीं पर इन दोनों  में से किसी एक का जरूर रहा था और उसने इन दोनों की स्थिति देखकर ही ऐसा कहा होगा। अब जब पूरे विश्व में यही व्यवस्था तो कहना ही पड़ता है कि गलत नहीं कहा होगा। आधुनिक लोकतंत्र में क्लर्क ही सिद्ध होते हैं।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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देशी अर्थशास्त्र भी देखना चाहिए-हिन्दी लेख


आधुनिक अर्थशास्त्र के अनुसार सभी प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन कर ही आर्थिक नीतियां बनायी जानी चाहिये। वैसे अर्थशास्त्र के अनुसार पागलों और सन्यासियों को छोड़कर सभी के क्रियाकलापों का ही अध्ययन किया जाता है । हालांकि इस बात का कहीं उल्लेख तो नहीं मिलता पर आधुनिक अर्थशास्त्र में संभवतः अध्यात्मिक ग्रंथों का उल्लेख नहीं किया जाता। अध्यात्म उस जीवात्मा का नाम है जो इस देह को धारण करती है और जब इस उसकी चेतना के साथ मनुष्य काम करता है तो उसकी गतिविधियां बहुत पवित्र हो जाती हैं जो अंततः उसकी तथा समाज की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करती है। इस देह के साथ मन, बुद्धि और अहंकार तीनों प्रकृतियां स्वाभाविक रूप से अपना काम करती हैं और मनुष्य को अपने अध्यात्म से अपरिचित रखती हैं। आधुनिक अर्थशास्त्र उससे अपरिचित लगता है।
वैसे ही आज के सारे अर्थशास्त्री केवल बाजार, उत्पादन तथा अन्य आर्थिक समीकरणों के अलावा अन्य किसी पर तथ्य पर विचार व्यक्त नहीं कर पाते। कम कम से प्रचार माध्यमों में चर्चा के लिये आने वाले अनेक अर्थशास्त्रियों की बातों से से तो ऐसा ही लगता है। कहीं शेयर बाजार, महंगाई या राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषय पर चर्चा होती है तो कथित रूप से अर्थशास्त्री सीमित वैचारिक आधार के साथ अपना विचार व्यक्त करते हैं जिसमें अध्यात्म तो दूर की बात अन्य विषयों से भी वह अनभिज्ञ दिखाई देते हैं। थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाये कि अध्यात्मिक ज्ञान का कोई आर्थिक आधार नहीं है तो भी आज के अनेक अर्थशास्त्री अन्य राजनीतिक, प्रशासनिक तथा प्रबंधकीय तत्वों को अनदेखा कर जाते हैं। यही कारण है कि महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, तथा खाद्य सामग्री की कमी के पीछे जो बाजार को प्रभावित करने वाले नीतिगत, प्राकृतिक भौगोलिक विषयों के अलावा अन्य कारण है उनको नहीं दिखाई देते हैं।
हम यहां आधुनिक अर्थशास्त्र की आलोचना नहीं कर रहे बल्कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित उन प्राचीन अर्थशास्त्रीय सामग्रियों का संकलित करने का आग्रह कर रहे हैं जो आज भी प्रासंगिक हैं। कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो नाम से ही प्रमाणिक है जबकि चाणक्य नीति में भी आर्थिक विषयों के साथ जीवन मूल्यों की ऐसी व्याख्या है जिससे उसे भी जीवन का अर्थशास्त्र ही कहा जाना चाहिये- आधुनिक अर्थशास्त्र के अनुसार भी नैतिक शास्त्र का अध्ययन तो किया ही जाना चाहिये जिनको जीवन मूल्य शास्त्र भी कहा जाता है। आज की परिस्थतियों में यही नैतिक मूल्य अगर काम करें तो देश की अर्थव्यवस्था का स्वरूप एक ऐसा आदर्श सकता है जिससे अन्य राष्ट्र भी प्रेरणा ले सकते हैं।
आधुनिक अर्थशास्त्री अपने अध्ययनों में भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘कुशल प्रबंध का अभाव’ एक बहुत बड़ा दोष मानते हैं। देश के कल्याण और विकास के लिये दावा करने वाले शिखर पुरुष नित्य प्रतिदिन नये नये दावे करने के साथ ही प्रस्ताव प्रस्तुंत करते हैं पर इस ‘कुशल प्रबंध के अभाव के दोष का निराकरण करने की बात कोई नहीं करता। भ्रष्टाचार और लालफीताशाही इस दोष का परिणाम है या इसके कारण प्रबंध का अभाव है यह अलग से चर्चा का विषय है। अलबत्ता लोगों को अपने अध्यात्मिक ज्ञान से परे होने के कारण लोगों में समाज के प्रति जवाबदेही की कमी हमेशा परिलक्षित होती है।
हम चाहें तो जिम्मेदार पद पर बैठे लोगों की कार्यपद्धति को देख सकते हैं। छोटा हो या बड़ा हो यह बहस का विषय नहीं है। इतना तय है कि भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और लापरवाही से काम करने की प्रवृत्ति सभी में है। देश में फैला आतंकवाद जितना बाहर से आश्रय से प्रत्यक्ष आसरा ले रहा है तो देश में व्याप्त कुप्रबंध भी उसका कोई छोटा सहयोगी नहीं है। हर बड़ा पदासीन केवल हुक्म का इक्का बनना चाहता है जमीन पर काम करने वालों की उनको परवाह नहीं है। उद्योग और पूंजी ढांचों के स्वामी की दृष्टि में उनके मातहत ऐसे सेवक हैं जिनको केवल हुक्म देकर काम चलाया जा सकता है। दूसरी भाषा में कहें तो अकुशल या शारीरिक श्रम को करना निम्न श्रेणी का काम मान लिया गया है। हमारी श्रीमद्भागवत गीता इस प्रवृत्ति को खारिज करती है। उसके अनुसार अकुशल या शारीरिक श्रम को कभी हेय नहीं समझना चाहिये। संभव है कुछ लोगों को श्रीगीता की यह बात अर्थशास्त्र का विषय न लगे पर नैतिक और राष्ट्रीय आधारों पर विचार करें तो केवल हुक्म देकर जिम्मेदारी पूरी करवाने तथा हुक्म लेकर उस कार्य को करने वालों के बीच जो अहं की दीवार है वह अनेक अवसर परसाफ दिखाई देती है। किसी बड़े हादसे या योजनाओं की विफलता में इसकी अनुभूति की जा सकती है। कुछ लोगों का मानना है कि उनका काम केवल हुक्म देना है और उसके बाद उनकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है मगर वह कार्य को अंजाम देने वालो लोगों की स्थिति तथा मनोदशा का विचार नहीं करते जबकि यह उनका दायित्व होता है। इसके अलावा किसी खास कार्य को संपन्न करने के लिये उसकी तैयारी तथा उसे अन्य जुड़े मसलों से किस तरह सहायता ली जा सकती है इस पर योजना बनाने के लिये जिस बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता है वह शायद ही किसी में दिखाई देती है। सभी लोग केवल इस प्रयास में है कि यथास्थिति बनी रहे और इस भाव ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में जड़ता की स्थिति पैदा कर दी है।
इसके अलावा एक बात दूसरी भी है कि केवल आर्थिक विकास ही जीवन की ऊंचाई का प्रमाण नहीं है वरन् स्वास्थ्य, शिक्षा तथा वैचारिक विकास भी उसका एक हिस्सा है जिसमें अध्यात्मिक ज्ञान की बहुत जरूरत होती है। इससे परे होकर विकास करने का परिणाम हमारे सामने है। जैसे जैसे लोगों के पास धन की प्रचुरता बढ़ रही है वैसे वैसे उनका नैतिक आधार सिकुड़ता जा रहा है।
ऐसे में लगता है कि कि हम पश्चात्य समाज पर आधारित अर्थशास्त्र की बजाय अपने ही आध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित सामग्री का अध्ययन करें। पाश्चात्य अर्थशास्त्र
वहां के समाजों पर आधारित जो अब हमारे ही देश के अध्यात्मिक ज्ञान पर अनुसंधान कर रहे हैं। यहां यह भी याद रखने लायक है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन केवल भगवान भक्ति तक ही सीमित नहीं है और न ही वह हमें जीवन देने वाली उस शक्ति के आगे हाथ फैलाकर मांगने की प्रेरणा देता है बल्कि उसमें इस देह के साथ स्वयं के साथ ही परिवार, समाज तथा राष्ट्र के लिये अच्छे और बड़े काम करने की प्रेरणा भी है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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आशिक, माशुका और सच-हिंदी हास्य कविता (lover and truth-hindi hasya kavita


आशिक ने दोस्त से कहा
‘‘यार, सोचता हूं
सच की मशीन पर बैठकर
साक्षात्कार कराऊं।
वैसे भी कहा गया है कि
त्रिया चरित्र के बारे में कोई नहीं जानता
हर कोई अपने अनुमान को सही मानता
आजकल के घोर कलियुग में तो
कहना ज्यादा कठिन है
इसलिये सच पता करने का
यह पश्चिमी मार्ग अपनाऊं।’’
सुनकर दोस्त ने कहा
‘‘किस मूर्ख ने कहा है कि
सच के सामने की मशीन से
अपनी जिंदगी का प्रमाणपत्र पाओ
दोस्त! तुम जिस इश्क के चक्कर में हो
वह भी पश्चिमी मार्ग है
जिसमें आदमी और औरत चलते है
एक अकेले राही की तरह
चाहने वालों के नाम
स्टेशन की तरह बदल जाते हैं
फिर तुम कौन दूध के धुले हो
कहीं उसने कह दिया कि
तुम भी गर्म आसन (हाॅट सीट) पर
बैठकर अपना सच बताओ
तो फिर कहां जाओगे
झूठ बोलते पकड़े जाओगे
आओगे मेरे पास पूछने कि
‘रूठी प्रेयसी को कैसे मनाऊं।’
तब मेरा जवाब यही होगा कि
‘मैं खुद ही भुगत रहा हूं
तुम्हें रास्ता कहां से बताऊं।’’
…………………………………

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जड़ समाज का चेतन चिंतन-हिन्दी व्यंग्य (hindi article on india & astralia)


आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री श्री केविन रूड किसी समय सफाई कर्मचारी का काम करते थे-यह जानकारी अखबार में प्रकाशित हुई देखी। अब वह प्रधानमंत्री हैं पर उन्होंने यह बात साहस के साथ स्वीकार की है। उनकी बात पढ़कर हृदय गदगद् कर उठा। एक ऐसा आदमी जिसने अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में पसीना बहाया हो और फिर शिखर पर पहुंचा हो यह आस्ट्रे्रलिया की एक सत्य कहानी है जबकि हमारे यहां केवल ऐसा फिल्मों में ही दिखाई देता है। यह आस्ट्रेलिया के समाज की चेतन प्रवृत्तियों का परिचायक है।
कभी कभी मन करता है कि हम भी ऐसी कहानी हिंदी में लिखें जिसमें नायक या नायिका अपना खून पसीना करते हुए समाज के शिखर पर जा बैठा हो पर फिर लगता है कि यह तो एक झूठ होगा। हम तो बरसों से इस देश में देख रहे हैं जड़ता का वातावरण है। अपने आसपास ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जिन्होंने जीवन भर पसीना बहाया और बुढ़ापे में भी उनका वही हाल है। उनके बच्चे भी अपना पसीना बहाकर दो जून की रोटी बड़ी मुश्किल से कमा रहे हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर देख रहे हैं। फिल्म, पत्रकारिता, धार्मिक प्रचार,संगीत समाज सेवा और अन्य आकर्षक पेशों में जो लोग चमक रहे थे आज उनकी औलादें स्थापित हो गयी हैं। पहले लोग प्रसिद्ध गुरु के नाम पर उसके उतराधिकारी शिष्य को भी गुरु मान लेते थे। अनेक लोग अपनी पहचान बनाने के लिये अपने गुरु का नाम देते थे पर आजकल अपने परिवार का नाम उपयोग करते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जा रहे हैं। समाज में परिवर्तन तो बस दिखावा भर है! यह परिवर्तन बहुत सहजता से होता है क्योंकि यहां गुरु को नहीं बल्कि को बाप को अपनी जगह छोड़नी पड़ती है।
नारा तो लगता है कि ‘गरीब को रोटी दो,मजदूर को काम दो।’ उसकी यही सीमा है। रोटी और काम देने का ठेका देने वाले अपने कमीशन वसूली के साथ समाज सेवा करते हैं। कोई गरीब या मजदूर सीधे रास्ते शिखर पर न पहुंचे इसका पक्का इंतजाम है। गरीबों और मजदूरों में कैंकड़े जैसी प्रवृत्ति पायी जाती है। वह किसी को अपने इलाके में अपने ही शिखर पर किसी अपने आदमी को नहीं बैठने दे सकते। वहां वह उसी को सहन कर सकते हैं जो इलाके, व्यवसाय या जाति के लिहाज से बाहर का आदमी हो। उनको तसल्ली होती है कि अपना आदमी ऊपर नहीं उठा। इस वजह स समाज में उसकी योग्य पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता। अगर कोई एक आदमी अपने समाज या क्षेत्र में शिखर पह पहुंच गया तो बाकी लोगों का घर में बैठना कठिन हो जायेगा न! बीबीयां कहेंगी कि देखो-‘अमुक कितना योग्य है?’
इसलिये अपने निकट के आदमी को तरक्की मत करने दो-इस सिद्धांत पर चल रहा हमारे देश का समाज जड़ता को प्राप्त हो चुका है। यह जड़ता कितना भयानक है कि जिस किसी में थोड़ी बहुत भी चेतना बची है उसे डरा देती है। फिल्मों और टीवी चैनलों के काल्पनिक पात्रों को निभाने वाले कलाकारों को असली देवता जैसा सम्मान मिल रहा है। चिल्लाने वाले पात्रों के अभिनेता वीरता की उपाधि प्राप्त कर रहे हैं। ठुमके लगाने का अभिनय करने वाली अभिनेत्रियां सर्वांग सुंदरी के सम्मान से विभूषित हैं।
उस दिन हम एक ठेले वाले से अमरूद खरीद रहे थे। वह लड़का तेजतर्रार था। सड़क से एक साधू महाराज निकल रहे थे। उस ठेले पर पानी का मटका रखा देखकर उस साधु ने उस लड़के से पूछा-‘बेटा, प्यास लगी है थोड़ा पानी पी लूं।’
लड़के ने कहा-‘थोड़ा क्या महाराज! बहुत पी लो। यह तो भगवान की देन है। पूरी प्यास मिटा लो।
साधु महाराज ने पानी पिया। फिर उससे बोले-‘यह अमरूद क्या भाव दे रहे हो। आधा किलो खुद ही छांट कर दे दो।’
लड़का बोला-‘महाराज! आप तो एक दो ऐसे ही ले लो। आपसे क्या पैसे लेना?’
साधु ने कहा-‘नहीं! हमारे पास पैसा है और उसे दिये बिना यह नहीं लेंगे। तुम तोल कर दो और हम पैसे देतेे हैं।
लड़के ने हमारे अमरूद तोलने के पहले उनका काम किया। उन साधु महाराज ने अपनी अंटी से पैसे निकाले और उसको भुगतान करते हुए दुआ दी-‘भले बच्चे हो! हमारी दुआ है तरक्की करो और बड़े आदमी बनो।’
वह लड़का बोला-‘महाराज, अब क्या तरक्की होगी। बस यही दुआ करो कि रोजी रोटी चलती रहे। अब तो बड़े आदमी के बेटे ही बड़े बनते हैं हम क्या बड़े बनेंगे?’
साधु महाराज तो चले गये पर उस लड़के को कड़वे सच का आभास था यह बात हमें देखकर आश्चर्य नहीं हुआ। इस देश में जो पसीना बहाकर रोटी कमा रहे हैं वह इस समाज का जितना सच जानते हैं और कोई नहीं जानता। वातानुकूलित कमरों और आराम कुर्सियों पर देश की चिंता करने वाले अपने बयान प्रचार माध्यमों में देकर प्रसिद्ध हो जाते हैं पर सच को वह नहीं जानते। उनके भौंपू बने कलमकार और रचनाकार भी सतही रूप से इस समाज को देखते हैं। उनकी चिंतायें समाज को उठाने तक ही सीमित हैं पर यह व्यक्तियों का समूह है और उसमें व्यक्तियों को आगे लाना है ऐसा कोई नहीं सोचता। चिंता है पर चिंतन नहीं है और चिंतन है तो योजना नहीं है और योजना है तो अमल नहीं है। जड़ता को प्राप्त यह समाज जब विदेशी समाजों को चुनौती देने की तैयारी करता है तो हंसी आती है।
अभी आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले होने पर यहां सामाजिक चिंतक और बुद्धिजीवी शोर मचा रहे थे। वह ललकार रहे थे आस्ट्रेलिया के समाज को! उस समाज को जहां एक आम मेहनतकश अपनी योग्यता से शिखर पर पहुंच सकता है। कभी अपने अंदर झांकने की कोई कोशिश न करता यह समाज आस्ट्रेलिया के चंद अपराधियों के कृत्यों को उसके पूरे समाज से जोड़ रहा था। इस जड़ समाज के बुद्धिजीवियों की बुद्धि भी जड़ हो चुकी है। वह एक दो व्याक्ति या चंद व्यक्तियों के समूहों के कृत्यों को पूरे समाज से जोड़कर देखना चाहते हैं। दुःखद घटनाओं की निंदा करने से उनका मन तब तक नहीं भरता जब तक पूरे समाज को उससे नहीं जोड़ लेते। समाज! यानि व्यक्तियों का समूह! समूह या समाज के अधिकांश व्यक्तियों का उत्थान या पतन समाज का उत्थान या पतन होता है। मगर जड़ चिंतक एक दो व्यक्तियों को उदाहरण बनाकर समाज का उत्थान या पतन दिखाते हैं।
विदेश में जाकर किसी भारतीय ने तरक्की की उससे पूरे भारतीय समाज की तरक्की नहीं माना जा सकता है। मगर यहां प्रचारित होता है। जानते हैं क्यों?
इस जड़ समाज के शिखर पर बैठे लोग और पालतू प्रचारक यहां की नयी पीढ़ी को एक तरह ये यह संदेश देते हैं कि ‘विदेश में जाकर तरक्की करो तो जाने! यहां तरक्की मत करो। यहां तरक्की नहीं हो सकती। यहां तो धरती कम है और जितनी है हमारे लिये है। तुम कहीं बाहर अपने लिये जमीन ढूंढो।’
सामाजिक संगठनों, साहित्य प्रकाशनों, फिल्मों, कला और विशारदों के समूहों में शिखर पर बैठे लोग आतंकित हैंे। वह अपनी देह से निकली पीढ़ी को वहां बिठाना चाहते हैं। इसलिये विदेश के विकास की यहां चर्चा करते हैं ताकि देश का शिखर उनके लिये बना रहे।
यहां का आम आदमी तो हमेशा शिखर पुरुषों को अपना उदाहरण मानता है। शिखर पुरुषों की जड़ बुद्धि हमेशा ही जड़ चिंतकों को सामने लाती है और वह उसी जड़ प्रवृत्ति को प्रचार करते है ताकि ‘जड़ चिंतन’ बना रहे। विकास की बात हो पर उनके आकाओं के शिखर बिगाड़ने की शर्त पर न हो। एक चेतनाशील समाज को जब जड़ समाज ललकारता है तब अगर हंस नहीं सकते तो रोना भी बेकार है।
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डरपोक और कमअक्ल -व्यंग्य कविता (akhri sach-hindi vyangya kavita)


डरपोक लोगों के समाज में
बहादुर बाहर से किराये पर लाये जाते हैं.
किसी गरीब को न देना पड़े मुआवजा
इसलिए किसी की कुर्बानी
कहाँ दी गयी
इससे न होता उनका वास्ता
उधार के शहीदों के गीत
चौराहे पर गाये जाते हैं.

कमअक्लों की महफ़िल में
बाहरी अक्लमंदों के
चर्चे सुनाये जाते हैं
किसी कमजोर की पीठ थपथपाने से
अपनी इज्जत छोटी न हो जाए
इसलिए उनको दिए इसके दाम
सभी के सामने सुनाये जाते हैं.
घर का ब्राह्मण बैल बराबर
ओन गाँव का सिद्ध
यूंही नहीं कहा जाता
दौलतमंदों और जागीरदारों की चौखट पर
हमेशा नाक रगड़ने वाले समाज की
आज़ादी एक धोखा लगती है
फिर भी उसके गीत गाये जाते हैं.
———————
उसने कहा ”मैं आजाद हूँ
खुद सोचता और बोलता हूँ.”
उसके पास पडा था किताबों का झुंड
हर सवाल पर
वह ढूंढता था उसमें ज़वाब
फिर सुनाते हुए यही कहता कि
‘वही आखिर सच है जो मैं कहता हूँ

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सविता भाभी पर प्रतिबन्ध -आलेख (hindi article ben on savita bhabhi)


सविता भाभी नाम की एक पौर्न साईट को बैन कर दिया गया है। बैन करने वालों का इसके पीछे क्या ध्येय है यह तो पता नहीं पर बैन के बाद इसे समाचार पत्र पत्रिकाओं में खूब स्थान मिला उससे तो लगता है कि इसके चाहने वालों की संख्या बढ़ेगी। पता नहीं इस पर बैन का क्या स्वरूप है पर कैसे यह संभव है कि बाहर लोग इससे भारत में न देख पायें।
यह साइट कैसे है यह तो पता नहीं पर अनुमान यह है कि यह किसी विदेशी साईट का देसी संस्करण होगी। गूगल, याहू, अमेजन और बिंग आदि सर्च इंजिनों तो सर्वव्यापी हैं और इन पर जाकर कोई भी इसे ढूंढ सकता है। यह अलग बात है कि इनके पास कोई ऐसा साफ्टवेयर हो जो भारतीय प्रयोक्ताओं को इससे रोक सके। तब भी सवाल यह है कि अगर विदेशों में अंग्रेजी में जो पोर्न वेबसाईटें हैं उनसे क्या भारतीय प्रयोक्ताओं को रोकना संभव होगा।
इस लेखक को तकनीकी जानकारी नहीं है इसलिये वह इस बात को नहीं समझ सकता है कि आखिर इस पर यह बैन किस तरह लगेगा?
लोगों को कैसे रहना है, क्या देखना है और क्या पहनना है जैसे सवालों पर एक अनवरत बहस चलती रहती है। कुछ बुद्धिजीवी और समाज के ठेकेदार उस हर चीज, किताब और विचार प्रतिबंध की मांग करते हैं जिससे लोगों की कथित रूप से भावनायें आहत होती हैं या उनके पथभ्रष्ट होने की संभावना दिखती है। अभी कुछ धर्माचार्य समलैंगिकता पर छूट का विरोध कर रहे हैं। कभी कभी तो लगा है इस देश में आवाज की आजादी का अर्थ धर्माचार्यों की सुनना रह गया है। इस किताब पर प्रतिबंध लगाओ, उस चीज पर हमारे धर्म का प्रतीक चिन्ह है इसलिये बाजार में बेचने से रोको।
हमारा धर्म, हमारे संस्कार और हमारी पहचान बचाने के लिये यह धर्माचार्य जिस तरह प्रयास करते हैं और जिस तरह उनको प्रचार माध्यम अपने समाचारों में स्थान देते हैं उससे तो लगता है कि धर्म और बाजार मिलकर इस देश की लोगों की मानसिक सोच को काबू में रखना चाहते है।

भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में वह शक्ति है जो आदमी को स्वयं ही नियंत्रण में रखती है इसलिये जो भी व्यक्ति इसका थोड़ा भी ज्ञान रखता है वह ऐसे प्रयासों पर हंस ही सकता है। दरअसल धर्म, भाषा, जाति, और नस्ल के आधार पर बने समूहों को ठेकेदार केवल इसी आशंका में जीते हैं कि कहीं उनके समूह की संख्या कम न हो जाये इसलिये वह उसे बचाने के लिये ऐसे षडयंत्र रचाते हैं जिनको वह आंदोलन या योजना करार देते हैं। सच बात तो यह है कि अधिक संख्या में समूह होने का कोई मतलब नहीं है अगर उसमें सात्विकता और दृढ़ चरित्र का भाव न हो।
इस लेखक ने कभी ऐसी साईटें देखने का प्रयास नहीं किया पर इधर उधर देखकर यही लगता है कि लोगों की रुचि इंटरनेट पर भी इसी प्रकार के साहित्य में है। इंटरनेट पर ही नहीं बल्कि कहीं भी यौन साहित्य से मस्तिष्क और देह में विकास उत्पन्न होते हैं यह बात समझ लेना चाहिये। ऐसा साहित्य वैसे भी बाजार में उपलब्ध है और इंटरनेट पर एक वेबसाईट पर रोक से कुछ नहीं होगा। फिर दूसरी शुरु हो जायेगी। समाज के कथित शुभचिंतक फिर उस पर उधम मचायेंगे। इस तरह उनके प्रचार का भी काम चलता रहेगा। समस्या तो जस की तस ही रह जायेगी। इस तरह का प्रतिबंध दूसरे लोगों के लिये चेतावनी है और वह ऐसा नहीं करेंगे पर भारत के बाहर की अनेक वेबसाईटें इस तरह के काम में लगी हुई हैं उनको कैसे रोका जायेगा?
इसलिये प्रयास यह होना चाहिये कि समाज में चेतना लायी जाये पर ऐसा कोई प्रयास नहीं हो रहा है। इसके बनिस्बत केवल नारे और वाद सहारे वेबसाईटें रोकी जा रही है पर लोगों की रुचि सत्साहित्य की तरफ बढ़े इसके लिये कोई प्रयास नहीं हो रहा है।

कुतर्कों को तर्क से काटना चाहिये। एक दूसरी बात यह भी है कि जब आप कोई सार्वजनिक रूप से किसी व्यक्ति, किताब, दृश्य या किताब को बहुत अच्छा कहकर प्रस्तुत करते हैं तो उसके विरुद्ध तर्क सुनने की शक्ति भी आप में होना चाहिये। न कि उन पर की गयी प्रतिकूल टिप्पणियों से अपनी भावनायें आहत होने की बात की जानी चाहिये। इस मामले में राज्य का हस्तक्षेप होना ही नहीं चाहिये क्योंकि यह उसका काम नहीं है। अगर ऐसी टिप्पणियों पर उत्तेजित होकर कोई व्यक्ति या समूह हिंसा पर उतरता है तो उसके विरुद्ध कार्यवाही होना चाहिये न कि प्रतिकूल टिप्पणी देने वाले को दंडित करना चाहिये। हमारा स्पष्ट मानना है कि या तो आप अपने धर्म, जाति, भाषा या नस्ल की प्रशंसा कर उसे सार्वजनिक मत बनाओ अगर बनाते हो तो यह किसी भी व्यक्ति का अधिकार है कि वह कोई भी तर्क देकर आपकी तारीफ की बखिया उधेड़ सकता है।
यह लेखक शायद ऐसी बातें नहीं कहता पर अंतर्जाल पर लिखते यह एक अनुभूति हुई है कि लोग पढ़ते और लिखते कम हैं पर ज्ञानी होने की चाहत उन्हें इस कदर अंधा बना देती है कि वह उन किताबों के लिखे वाक्यों की निंदा सुनकर उग्र हो जाते हैं। इस लेखक द्वारा लिखे गये अनेक अध्यात्म पाठों पर गाली गलौच करती हुई टिप्पणियां आती हैं पर उनमें तर्क कतई नहीं होता। हैरानी तो तब होती है कि विश्व की सबसे संपन्न भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा से जुड़े होने का दावा करने वाले लोग भी पौर्न साईटों, बिना विवाह साथ रहने तथा समलैंगिकता का विरोध करते हैं। बिना विवाह के ही लड़के लड़कियों के रहने में उनको धर्म का खतरा नजर आता है। यह सब बेकार का विरोध केवल अपनी दुकानें बचाने का अलावा कुछ नहीं है। ईमानदारी की बात तो यह है कि समाज में चेतना बाहर से नहीं आयेगी बल्कि उनके अंदर मन में पैदा करने लगेगी। कथित पथप्रदर्शक अपने भाषणों के बदल सुविधायें और धन लेते हैं पर जमीन पर उतर कर आदमी से व्यक्तिगत संपर्क उनका न के बराबर है।
कहने को तो कहते हैं कि आजकल की युवा पीढ़ी इनको महत्व नहीं देती पर वास्तविकता यह है कि लड़के लड़कियां विवाह करते ही इसी सामजिक दबाव के कारण हैं। कई लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताती हैं। कई लड़के और लड़कियां धर्म बदल कर विपरीत संस्कार वाले लड़कों से विवाह कर बाद में पछताते हैं। धर्म बदलकर विवाह करने पर उनको ससुराल पक्ष के संस्कार मानने ही पड़ते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि उन संस्कारों को उसकी ससुराल में ही बाकी लोग महत्व नहीं देते पर उसे मनवाकर अपनी धार्मिक विजय प्रचारित किया जाता है। विवाह एक संस्कार है इसे आखिर नई पीढ़ी तिलांजलि क्यों नहीं दे पाती? इसकी वजह यही है कि जाति, धर्म, भाषा और नस्ल के आधार पर बने समाज ठेकेदारों के चंगुल में इस कदर फंसे हैं कि उनसे निकलने का उनके पास कोई चारा ही नहीं है। आप अगर देखें। किस तरह लड़का प्यार करते हुए लड़की को उसके जन्म नाम को प्यार से पुकारता है और विवाह के लिये धर्म के साथ नाम बदलवाकर फिर उसी नाम से बुलाता है। इतना ही नहीं बाहर समाज में अपनी पहचान बचाने रखने के लिये लड़की भी अपना पुराना नाम ही लिखती है। समाज से इस प्रकार का समझौता एक तरह से कायरता है जिसे आज का युवा वर्ग अपना लेता है।

बात मुद्दे की यह है कि मनुष्य का मन उसे विचलित करता है तो नियंत्रित भी। उसे विचलित वही कर पाते हैं जो व्यापार करना चाहते हैं। फिर मनुष्य को एक मित्र चाहिये और वह ईश्वर में उसे ढूंढता है। अभी हाल ही में पश्चिम के वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य जब ईश्वर की आराधना करता है तो उसके दिमाग की वह नसें सक्रिय हो जाती हैं जो मित्र से बात करते हुए सक्रिय होती हैं। इसका मतलब साफ कि दिमाग की इन्हीं नसों पर व्यापारी कब्जा करते हैं। ईश्वर के मुख से प्रकट शब्द बताकर रची गयी किताबों को पवित्र प्रचारित किया जाता है। इसकी आड़ में कर्मकांड थोपते हुए धर्माचार्य अपने ही धर्म, जाति और समूहों की रक्षा का दिखावा करते हुए अपना काम चलाते हैं। मजे की बात है कि आधुनिक युग के समर्थक बाजार भी अब इनके आसरे चल रहा है। वजह यह है कि धर्म की आड़ में पैसे का लेनदेन बहुत पवित्र माना जाता है जो कि बाजार को चाहिये।
निष्कर्ष यह है कि कथित पवित्र पुस्तकों के यह कथित ज्ञानी पढ़ते लिखते कितना है यह पता नहीं पर उनकी व्याख्यायें लोगों को भटकाव की तरफ ले जाती हैं। आम व्यक्ति को समाज के रीति रिवाजों और कर्मकांडों का बंधक बनाये रखने का प्रयास होता रहा है और अगर कोई इनको नहीं मानता तो उसकी इसे आजादी होना चाहिये। यह आजादी कानून के साथ ही निष्पक्ष और स्वतंत्र बुद्धिजीवियों द्वारा भी प्रदान की जानी चाहिये।
किसी को बिना विवाह के साथ रहना है या समलैंगिक जीवन बिताना है या किसी को नग्न फिल्में देखना है यह उसका निजी विचार है। यह सब ठीक नहीं है और इसके नतीजे बाद में बुरे होते हैं पर इस पर कानून से अधिक समाज सेवी विचारक ही नियंत्रण कर सकते हैं। धर्म भी नितांत निजी विषय है। जन्म से लेकर मरण तक धर्म के नाम पर जिस तरह कर्मकांड थोपे जाते हैं अगर किसी को वह नापसंद है तो उसे विद्रोही मानकर दंडित नहीं करना चाहिये। कथित रूप से पवित्र पुस्तक की आलोचना करने वालों को अपने तर्कों से कोई धर्मगुरु समझा नहीं पाता तो वह राज्य की तरफ मूंह ताकता है और राज्य भी उसके द्वारा नियंत्रित समूह को अपनी हितैषी मानकर इन्हीं धर्माचार्यों को संरक्षण देता है और यही इस देश के मानसिक विकास में बाधक है।
इस लेखक का ढाई वर्ष से अधिक अंतर्जाल पर लिखते हुए हो गया है पर पाठक संख्या नगण्य है। देश में साढ़े सात करोड़ इंटरनेट प्रयोक्ता है फिर भी इतनी संख्या देखकर शर्म आती है क्योंकि अधिकतर लोग इन्हीं पौर्नसाईटों पर अपना वक्त बिताते हैं पर फिर भी अफसोस जैसी बात नहीं है। एक लेखक के रूप में हम यह चाहते हैं कि लोग हमारा लिखा पढ़ें पर स्वतंत्रता और मौलिकता के पक्षधर होने के कारण यह भी चाहते हैं कि वह स्वप्रेरणा से पढ़ें न कि बाध्य होकर। अपने प्राचीन ऋषियों. मुनियों, महापुरुषों तथा संतों ने जिस अक्षुण्ण अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन किया है वह मनुष्य मन के लिये सोने या हीरे की तरह है अगर उसे दिमाग में धारण किया जाये तो। अपनी बात कहते रहना है। आखिर आदमी अपने दैहिक सुख से ऊब जाता है और यही अध्यात्मिक ज्ञान उसका संरक्षक बनता है। हमने कई ऐसे प्रकरण देखे हैं कि आदमी बचपन से जिस संस्कार में पला बढ़ा और बड़े होकर जब भौतिक सुख की वजह से उसे भूल गया तब उसने जब मानसिक कष्ट ने घेरा तब वह हताश होकर अपने पीछे देखने लगता है। उसे पता ही नहीं चलता कि कहां से शुरु हुआ और कहां पहुंचा ऐसे में सब कुछ जानते हुए भी वह लौट नहीं पाता। जैसे कर्म होते हैं वैसे ही परिणाम! अगर देखा जाये तो समाज को डंडे के सहारे चलाने वाले कथित गुरु या धर्माचार्यों से बचने की अधिक जरूरत है क्योंकि वह तो अपने हितों के लिये समाज को भ्रमित करते हैं। मजे की बात यह है कि यह बाजार ही है जो कभी नैतिकता, धर्म और संस्कार की बात करता है और फिर लोगों के जज्बात भड़काने का काम भी करता है।
यह आश्चर्य की बात है कि इस देश के शिक्षित वर्ग का मनोरंजन से मन नहीं भरता। दिन भर टीवी पर अभिनेता और अभिनेत्रियों को देखकर वह बोर होता है तो कंप्यूटर पर आता है पर फिर वहां पर उन्हीं के नाम डालकर सच इंजिन में डालकर खोज करता है। यही हाल यौन साहित्य का है। टीवी और सीडी में चाहे वह कितनी बार देखता है पर कंप्यूटर में भी वही तलाशता है। ऐसे समाज से क्या अपेक्षा की जा सकती है। बाजार फिर उसका पैसा बटोरने के लिये कोई अन्य वेबसाईट शुरु कर देगा। इसलिये सच्चे समाज सेवी यह प्रयास प्रारंभ करें जिससे लोगों के मन में सात्विकता के भाव पुनः स्थापित किये जा सकें। शेष फिर कभी।
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यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

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जिंदगी में ‘शार्टकट’ रास्ता मत ढूंढो यार-vyangya kavita


जीवन में कामयाबी के लिये
शार्टकट(छौटा रास्ता) के लिये
मत भटको यार
भीड़ बहुत है सब जगह
पता नहीं किस रास्ते
फंस जाये अपनी कार
तब सोचते हैं लंबे रास्ते
ही चले होते तो हो जाते पार
…………………………
धरती की उम्र से भी छोटी होती हमारी
फिर भी लंबी नजर आती है
जिंदगी में कामयाबी के लिये
छोटा रास्ता ढूंढते हुए
निकल जाती है उमर
पर जिंदगी की गाड़ी वहीं अटकी
नजर आती है
…………………..
जिंदगी मे दौलत और शौहरत
पाने के वास्ते
ढूंढते रहे वह छोटे रास्ते
खड़े रहे वहीं का वहीं
नाकाम इंसान की सनद
बढ़ती रही उनके नाम की तरफ
आहिस्ते-आहिस्ते

………………….

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पत्थर कभी कलम से अधिक घाव नहीं कर पाते-हिंदी शायरी


यूं तो जंग है हर कदम पर
हम ही अमन का
पैगाम लिये चले आते हैं
तुम डरपोक समझो या
अमन का मसीहा
देखो
किसी पर हम क्या पत्थर उछालें
पत्थर ही उनसे टकरा जाते हैं।

कभी कभी गुस्सा आता है हमें
पर अमृत समझ पी जाते हैं
नहीं समझता जमाना
पर अपने दिल का हाल
कागज पर लफ्जों में बयां कर जाते हैं
पत्थर उड़ाने वाले भी
कौन होते कामयाब
कुछ का बहता खून
कुछ ही अपने ही नाखून
खुद के शरीर में चुभोये जाते है।

गोरे चेहरे अपनी काली नीयत
कितनी देर छिपा सकते हैं
उनके ख्याल आंखों के दरवाजे
पर आ ही जाते हैं
बहुत अभ्यास किया जिंदगी में
अनुभव से यही पाया
पत्थर कभी कलम से
अधिक घाव नहीं कर पाते हैं।

………………..

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भर्तृहरि शतक-बेइज्जती से भी भूख कहाँ मिटती है


भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्तं न किंचित्फलं त्यकत्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला।
भुक्तं मानिववर्जितं परगुहेध्वाशंक्या काकवततृष्णे दुर्गतिपापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ।।

हिंदी में भावार्थ- राजा भर्तृहरि कहते हैं कि अनेक दुर्गम और कठिन देशों में गया पर वहां कुछ भी न मिला। अपनी जाति और कुल का अभिमान त्याग कर दूसरों की सेवा की पर वह निष्फल गयी। आखिर में कौवे की भांति भयभीत और अपमानित होकर दूसरों के घरों में आश्रय ढूंढता रहा। अपने मन की तृष्णा यह सब झेलने पर भी शांत नहीं हुई।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मन की तृष्णा आदमी को हर तरह का अपमान और दुर्गति झेलने को विवश करती है। कहते हैं कि जिसने पेट दिया है वह उसके लिये भोजन भी देगा पर आदमी को इस पर विश्वास नहीं है। इसके अलावा वह केवल दैहिक आवश्यकताओं से संतुष्ट नहीं होता। उसके मन में तो भोग विलास और प्रदर्शन के लिये धन पाने की ऐसी तृष्णा भरी रहती है जो उसे अपने से कम ज्ञानी और निम्न कोटि के लोगों की सेवा करने को विवश कर देती है जिनके पास धन है। वह उनकी सेवा में प्राणप्रण से इस आशा जुट जाता है कि वह धनी आदमी उस पर प्रसन्न होकर धन की बरसात कर देगा।
आदमी अपने से भी अल्प ज्ञानी बाहुबली और पदारूढ़ व्यक्ति के इर्दगिर्द घूमने लगता है कि वह उसका प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचा देगा। किसी भी आदमी की ऐसी तृष्णा शांत नहीं होती। इस दुनियां में हर बड़ा आदमी अपने से छोटे लोगों की सेवा तो लेता है पर अपने जैसा किसी को नहीं बनाता। छोटा आदमी धन और मान सम्मान पाने की इसी तृष्णा की वजह से इधर उधर भटकता है पर कभी उसके हाथ कुछ नहीं आता। मगर फिर भी वह चलता जाता है। उसकी तृष्ण उसे इस अंतहीन सिलसिले से परे तब तक नहीं हटने देती जब तक वह देह धारण किये रहता है।
जीवन के मूल तत्व को जानने वाले ज्ञानी इससे परे होकर विचार करते हैं और इसलिये जो मिल गया उससे संतुष्ट होकर भगवान की भक्ति में लीन हो जाते हैं। वह अपने तृष्णाओं के वशीभूत होकर इधर उधर नहीं भटकते जो कभी शांत ही नहीं होती।
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क्रिकेट मैचों का अर्थशास्त्र किसी के समझ में नहीं आता-आलेख


क्रिकेट का अर्थशास्त्र कई लोगों की समझ में नहीं आया। एक समय क्रिकेट के दीवाने इस देश में बहुत थे पर उनको इस खेल से कुछ लेना था तो केवल दिल की खुशी-क्योंकि देश के प्रति जज्बात जुड़े होत थे। मगर अब दीवानगी जिन युवाओं को है वह केवल इसलिये है क्योंकि वह वैसा ही अमीर क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहते हैं जैसे कि वह पर्दे पर देखते हैं। बाकी जो लोग देख रहे हैं वह केवल टाईम पास की दृष्टि से देखते हैं इनमें वह भी लोग हैं जिनका इस खेल से मोहभंग हो गया था पर बीस ओवरीय विश्व कप के बाद वह फिर इस खेल की तरफ आकृष्ट हुए हैं। जहां तक क्रिकेट में देश प्रेम ढूंढने वाली बात है तो वह बेकार है।

पूरे विश्व में सभी जगह मंदी का प्रकोप है। सभी कंपनियां मंदी को रोना रो रही हैं पर क्रिकेट के प्रयोजन के लिये वह सब तैयार हैं। सच बात तो यह है कि क्रिकट अब केवल एक खेल नहीं हैं बल्कि एक व्यवसाय है। इसमें जो खिलाड़ी आ रहे हैं वह खेल प्रेम की वजह से कम कमाने की भावना से अधिक सक्रिय हैं। जब किसी नये खिलाड़ी को लोग देखते हैं तो कहते हैं कि‘ देखो आ गया नया माडल’।
कभी क्रिकेट की बात याद आती है तो अपनी दीवानगी अब अजीब लगती है। विश्व कप 2007 प्रारंभ होने से पूर्व जब भारतीय टीम वेस्टइंडीज रवाना हो रही थी तब ही उसके बुरे लक्षण दिखने लगे थे पर भारतीय प्रचार माध्यम है कि मान ही नहीं रहे थे। वह लगे थे बस इस बात पर कि भारतीय टीम जीतेगी और जरूर जीतेगी। उस समय भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाडि़यों की शारीरिक भाषा देखकर ही लग रहा था कि वह पस्त टीम के सदस्य है। मैंने उस समय कृतिदेव फोंट में एक लेख लिखा था ‘क्रिकेट में सब चलता है यार,’। यूनिकोड में होने के कारण उसे लोग पढ़ नहीं पाये और अब वह पता नहीं कहां है। बहरहाल उसमें इस खेल से जो मुझे निराशा हुई थी उसकी खुलकर चर्चा की थी। इस खेल पर जितना मैंने समय खर्च किया उतना अगर वह साहित्य लेखन में खर्च करता तो शायद बहुत बड़े उपन्यास लिख लिये होते। उस समय मुझे अपने ब्लाग लिखने के तरीके के बारे में अधिक मालुम नहीं था। इधर विश्व कप प्रतियोगिता शुरु होने वाली थी और मैं उस पर ही लिखता जा रहा था। शीर्षक तो मैंने ब्लागस्पाट पर लिखे पर अपनी अन्य सामग्री कृतिदेव में लिखी। ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर अंग्रेजी फोंट की जगह कृतिदेव फोंट सैट कर दिये जिससे मेरे पाठ मुझे तो पढ़ाई आते थे पर दूसरों को समझ में नहीं आते थे। यही हाल वर्डप्रेस के ब्लागों का भी था। उसे अपने UTF-8 में कृतिदेव में लिखकर प्रकाशित कर देता था। वह भी मेरे पढ़ाई में आते थे पर बाकी लोग उनको देखकर नाराज हो गये। उन्होंने मुझसे संवाद कायम किया पर मेरे जवाब उनकी समझ से परे थे।
इसी उठापटक के चलते भारतीय टीम हार गयी। मैंने सोचा था कि ब्लाग तैयार कर लूं फिर जमकर दूसरे दौर के क्रिकेट मैच देखूंगा पर वाह री किस्मत! वह पहले ही ढेर हो गयी। तब पहला बड़ा पाठ ‘मेमनों ने किया शेरों का शिकार‘ यह लेख मैंने लिखा’। नारद ने अपने यहां एक विशेष स्तंभ बनाया था जो क्रिकेट के पाठ अपने यहां रख लेता था। मेरे पाठ वहां पर देखकर अन्य ब्लाग लेखक मित्र भड़क गये। होते होते मैंने ब्लाग स्पाट का हिंदी टूल समझ लिया और पहला पाठ पढ़ने योग्य वह भी क्रिकेट पर लिखा। उससे एक पाठक खुश हो गया पर उसने एक बड़े खिलाड़ी के लिये अभद्र शब्द लिख दिया। मैंने वह अभद्र शब्द हटाने की वजह से अपना पूरा पाठ ही हटा लिया।

उसके बाद ब्लाग लिखने की राह पर चलते गये तो लगा कि अच्छा ही हुआ अब जबरदस्ती क्रिकेट में मन नहीं लगाना पड़ेगा। इससे इतना दुःख हुआ कि टीम की हार के बाद प्रचार माध्यमों की हालत देखकर अच्छा लगा। उन्होंने क्रिकेट खिलाडि़यों के विज्ञापन ही हटा लिये। यह क्रम करीब आठ महीने चला पर जैसे ही बीस ओवरीय विश्व कप भारत ने जीता तो प्रचार माध्यमों को संजीवनी मिल गयी। भारत के तीन कथित महान खिलाडि़यों को फिर से येनकेन प्रकरेण टीम में लाया गया जो बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता में शामिल नहीं हुए। उस प्रतियोगिता में भारत के जीतनं पर यह आशंका हो गयी थी कि एक बार प्रचार माध्यम फिर क्रिकेट को भुनाना चाहेंगें। वही हुआ भी। एक बेकार सी कविता‘बीस का नोट पचास में नहीं चलेगा’ इसी उद्देश्य से लिखी गयी थी कि अब उन तीन खिलाडि़यों को फिर से अवसर मिलेगा जिनको टीम से हटाने की बात चल रही है। हैरानी की बात यह है कि आज जब उस कविता को देखता हूं तो मुझे स्वयं ही बेसिरपैर की लगती है पर वह फिर जबरदस्त हिट लेती है। फिर मैं सोचता हूं कि अगर वह बेसिरपैर की है तो भला इस क्रिकेट नाम के खेल का कौनसा सिर पैर है। यह न तो खेल लगता है न कोई व्यापार। हर कोई इसका अपने हिसाब से उपयोग कर रहा है। कभी कभी कुछ महान हस्तियां क्रिकेट के विकास की बात करती है पर क्या इस खेल को भला किसी विकास या प्रचार की आवश्यकता है?
आज हालत यह है कि जिस दिन मुझे पता लग जाता है कि क्रिकेट मैच है उस दिन कोई भी टीवी समाचार चैनल खोलने की इच्छा नहीं होती सिवाय दिल्ली दूरदर्शन के। वजह मैच वाले दिन टीवी चैनल एक घंटे में से कम से कम तीस मिनट तो मैच पर लगाते ही हैं-बाकी के लिये लाफ्टर शो और फिल्म के समाचार उनके पास तो वेस ही होते हैं। टीम जीत जाती है तो अगले दिन अखबार के मुखपृष्ठ देखते ही नीचे वाली खबरों में ध्यान स्वतः चला जाता है क्योंकि पता है कि ऊपर जो खबर है वह मेरे पढ़ने लायक नहीं है। वहां किसी बड़े खिलाड़ी का गेंद फैंकते या बल्लेबाजी करते हुए बड़ा फोटो होता है। एक दिवसीय मैंचों की विश्व रैकिंग में भारत नंबर एक पर पहुंच गया है इस पर सभी अखबारों ने प्रसन्नता जाहिर की है। ठीक है 2006 में शर्मनाक हार को भुलाने के लिये उनको कोई तो बहाना चाहिये।
दरअसल अनेक लोगों का मन तब ही इस खेल से विरक्त होने लगा था जब टीम के सदस्यों पर फिक्सिंग वगैरह की आरोप टीम के पुराने सदस्यों ने ही लगाये थे। कुछ खिलाडि़यों पर प्रतिबंध भी लगा। सच क्या है कोई नहीं जानता। क्या क्रिकेट जनता के पैसों से चल रहा है या विज्ञापन उसका आधार है? कोई नहीं जानता। कुछ लोगों को यह खेल अब अपने ऊपर जबरन थोपना लगता है क्योंकि उनको समाचार चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं पर वह सब सामग्री देखनी पड़ती है जिसे वह देखना नहीं चाहते।
फिर भी वह देखते हैं। वह बिचारे करें भी क्या? सभी लोगों को समय काटने के लिये ब्लाग लिखना तो आता नहीं। हालांकि अनेक लोग यह सवाल तो करते ही हैं कि आखिर इस मंदी में भी यह क्रिकेट चल कैसे रहा है? लोगों के पास न तो चिंतन और मनन का समय है और न क्षमता कि इसके क्रिकेट के अर्थशास्त्र पर दृष्टिपात करें। इसलिये क्रिकेट है कि बस चल रहा है तो चल रहा है।
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पहले अपने दिल का ख्याल करने वाला होना चाहिए-हिंदी शायरी


यूं तो बिखरा पड़ा है चारों ओर
कुदरत का खजाना
बटोरने वाला चाहिए
बेजान चीजों पर दिल लगाने
को सब हो जाते हैं तैयार
जानदार की परवाह
करने वाले होना चाहिए
इस जहां में दूसरों की कदर कौन करेगा
पहले अपने दिल का ख्याल करने वाला
दिमाग से सोचने वाला इंसान चाहिए
………………………….

किसी के पास ज्ञान का
किसी के पास विज्ञान का
किसी की पास शिक्षा का है ठेका
किसी ने लिया है
इंडियन आइडियल बनाने का
किसी के पास है विश्व चैंपियन
बनाने का ठेका
पालक अपने बालकों को
उनसे पास भेजकर सोचते हैं
सब काम अपने आप हो जायेंगे
अब वह सिरमौर ही बनकर घर आएंगे

जो सफल हो जाते हैं वह
गाते हैं ठेकेदारों की महिमा
जो असफल हौं वह अपनी
किस्मत को दोष देकर रह जाते हैं
हर तरह की गारंटी वाला
सब जगह चल रहा है ठेका

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मोबाइल और ध्यान-हास्य कविता


फंदेबाज ने राह चलते हुए
रोक लिया और लगा गुस्सा होने
‘दीपक बापू यह क्या बात हुई
हम जब भी तुम्हारा मोबाइल खटखटाते
उसका स्विच आफॅ पाते
स्कूटर की डिग्गी में भला
कहीं ऐसे मोबाइल बंदकर क्यों ले जाते
हम तुम्हारे दोस्त हैं
तुम्हारे फ्लाप ब्लाग अगर हिट हो जायें तो
इसकी खबर पहले सुनने के लिये ही
रोज तुम्हारे मोबाइल की घंटी बजाते
तुम सुबह अपने ब्लाग की दशा
देखकर ही जरूर घर से बाहर जाते
मालुम है मिलते तो वह तुम्हें
हमेशा फ्लाप ही हैं पर
तुम फिर भी कहां बाज आते
तुम्हारी चिंता कम हुई हो
यह जानने के लिये ही
हम तुमसे करते हैं सुबह संपर्क
पर तुम्हार रवैया देख कर खफा हो जाते’

सुनकर बोले महाकवि दीपक बापू
‘हमारे फ्लाप होने की चिंता बहुत हैं तुमको
इसलिये सुबह से शाम तक
मिस काल ही लगाते
कभी काम पड़ता है तभी
करते हो मोबाइल पर बात
पर कभी ब्लाग के बारे में पूछते हो
याद हमें नहीं आता
तुम्हें हमारे मोबाइल बंद होने से अधिक
फिक्र इस बात की है कि
हम क्यों नहीं अपने साथ
राह पर यह संकट भी ले जाते
जिससे चाहकर भी तुम निजात नहीं पाते
पर तुमसे नहीं सीखना मोबाइल का उपयोग
दिमाग में नहीं भरना रोग
याद रखना
सारी दुनिया मानती है कि
भारतीयों की ताकत उनका ध्यान है
मोबाइल वालों को कहां इसका ज्ञान है
राह पर वाहन चलाते हुए
कितने मोबाइल वाले दूसरे की गाडि़यों में
घुस कर दम तोड़ गये
खबरों के लिये सनसनी छोड़ गये
हमें मोबाइल पर पद्मश्री मिलने की
खबर मिलने की संभावना हो तब भी
रास्ते में उसे बंद ही रखेंगे
कहीं तुम्हारे मिस काल पर आया ध्यान
स्कूटर कहां घुस जाये इसका नहीं रहेगा भान
जिंदा रहते तो नहीं फैला सके लिखकर सनसनी
न मिला सम्मान
घुस गये किसी गाड़ी में
तो बन जायेगी एक खबर हमारे नाम की
फैलायेंगे खबरची तमाम सनसनी
इसलिये मोबाइल को खोलकर साथ नहीं ले जाते

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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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टोपी के व्यापार का शुभारंभ-हास्य व्यंग्य


दीपक बापू बाहर जाने के लिये बाहर निकल रहे थे तो बा (गृहस्वामिनी) ने कहा-‘अभी बिजली नहीं आयी है इसलिये सर्वशक्तिमान के दरबार में दर्शन करने जा रहे हो नहीं तो अभी तक कंप्यूटर पर अपनी आखें झौंक रहे थे।’
दीपक बापू ने कहा-‘कैसी बात करती हो। लाईट चली गयी तो चली गयी। मैं तो पहले ही कंप्यूटर को पर्दा गिराने (शट डाउन) का संदेश भेज चुका था। अपने नियम का मैं पक्का हूं। सर्वशक्तिमान की कृपा है कि मैं ब्लाग लिख पा रहे हूं।
बा ने कहा-‘फंदेबाज बताता रहता है कि तुम्हारे हिट होने के लिये वह कई जगह मन्नतें मांगता है। तुम्हारे फ्लाप शो से वह भी दुःखी रहता है।
दीपक बापू ने कहा-‘तुम भी किसकी बात लेकर बैठ गयी। न वह पढ़ने में न लिखने में। आ जाता है फालतू की बातें करने। हमने कभी अपने फ्लाप रहने की परवाह नहीं की जो वह करता है। जिनके दोस्त ऐसे ही हों वह भला हिट ब्लागर बन भी कैसे सकता है।’

इतने में फंदेबाज ने दरवाजे पर दस्तक दी। दीपक बापू ने कहा-‘और लो नाम शैतान का। अच्छा खासा सर्वतशक्तिमान के दरबार में जा रहा था और यह आ गया मेरा समय खराब करने। साथ में किसी को लाया भी है।’
फंदेबाज उस आदमी को लेकर अंदर आया और बोला-‘दीपक बापू कहीं जा रहे थे क्या? लगता है घर में लाईट नहीं हैं वरना तुम इस तरह जाते नहीं।’
दीपक बापू ने कहा-‘ अब तुम कोई फालतू बात तो करना नहीं क्योंकि हमारे पास समय कम ही है। बताओ कैसे आये? आज हमारा हास्य कविता लिखने का कोई विचार नहीं है।’
फंदेबाज अपने साथ लाये आदमी की तरफ हाथ उठाते हुए बोला-‘ यह मेरा दोस्त टोपीबाज है। इसने कई धंधे किये पर हिट नहीं हो सका। आपको तो परवाह नहीं है कि हिट हैं कि फ्लाप पर हर आदमी फ्लाप होने का दर्द नहीं झेल सकता। इसे किसी तोते वाले ज्योतिषी ने बताया है कि टोपी के धंधे में इसे सफलता मिलेगी। इसलिये इसने झगड़ेबाज की जगह अपना नाम टोपीबाज कर लिया। यह धंधे के हिसाब से अपना नाम बदलता रहता है। यह बिचारा इतने धंधे कर चुका है कि अपना असली नाम तक भूल गया है। अब आप इसके धंधे का शुभारंभ करो। तोते वाले ज्योतिषी ने इसे बताया था कि किसी फ्लाप लेखक से ही उसका शुभारंभ करवाना। लोग उससे सहानुभूति रखते हैं इसलिये तुम्हें लाभ होगा।’

दीपक बापू ने उस टोपीबाज की तरफ दृष्टिपात किया और फिर अपनी टोपी पर दोनों हाथ लगाकर उसे घुमाया और हंसते हुए बोले-‘चलो! यह नेक काम तो हम कर ही देते हैं। वहां से कोई चार छहः टोपी खरीदनी है। इसकी दुकान से पहली टोपी हम खरीद लेंगे। वह भी नगद। वैसे तो हमने पिछली बार छहः टोपी बाजार से उधार खरीदी थी पर वह चुकायी नहीं। जब उस बाजार से निकलते हैं तो उस दुकान वाले रास्ते नहीं निकलते। कहीं उस दुकान वाले की नजर न पड़ जाये। अगर तुम्हारी दुकान वहीं है तो भैया हम फिर हम नहीं चलेंगे क्योंकि उस दुकानदार को देने के लिये हमारे पास पैसा नहीं है। वैसे सर्वशक्तिमान ने चाहा तो इसके यहां से टोपी खरीदी कहीं फलदायी हो गयी तो शायद कोई एकाध ब्लाग हिट हो जाये।
फंदेबाज बोला-‘अरे, तुम समझे नहीं। यह किसी टोपी बेचने की दुकान नहीं खोल रहा बल्कि यह तो ‘इसकी टोपी उसके सिर’ वाली लाईन में जा रहा है। हां, शुभारंभ आपसे करना चाहता है। आप इसे सौ रुपये दीजिये आपको अंतर्जाल का हिट लेखक बना देगा। इसके लिये वह घर पर बैठ कर अंग्रेजी का मंत्र जपेगा अब उसमें इसकी ऊर्जा तो खत्म होगी तो उसके लिये तो कुछ पैसा तो चाहिये न!
दीपक बापू ने कहा-‘कमबख्त, ऐसे व्यापार करने से तो न करना अच्छा। यह तो धोखा है, हम तो कभी हिट लेखक नहीं बन सकते। कहीं ठगीबाजी में यह पकड़ लिया गया तो हम भी धर जिये जायेंगे कि इसके धंधे का शुभारंभ हमने किया था।
फंदेबाज ने कहा-‘तुम्हें गलतफहमी हो गयी है कि इसे सौ रुपये देकर हिट लेखक बन जाओगे और यह कोई अंग्रेजी का मंत्र वंत्र नहीं जपने वाला। सौ रुपये नहीं यह तो करोड़ों के वारे न्यारे करने वाला है। यह तो आपसे शुरूआत है। इसलिये टोकन में सौ रुपये मांग रहा हूं। ऐसे धंधे में कोई पकड़ा गया है आजतक। मंत्र का जाप तो यह करेगा। कुछ के काम बनेंेगे कुछ के नहीं। जिनके बनेंगे वह इसका गुण गायेंगे और जिनके नहीं बनेंगे वह कौन शिकायत लेकर जायेंगे?’
दीपक बापू ने कहा-‘क्या तुमने हमें बेवकूफ समझ रखा है। ठगी के धंधे का शुभारंभ भी हम करें क्योंकि एक फ्लाप लेखक हैं।’
फंदेबाज ने कहा-‘तुम भी चिंता मत करो। कई जगह तुम्हारे हिट होने के लिये मन्नतें मांगी हैं। जब हिट हो जाओगे तो तुमसे किसी और बड़े धंधे का शुभारंभ करायेंगे।’
दीपक बापू ने आखें तरेर कर पूछा-‘तो क्या लूटपाट के किसी धंधे का शुभारंभ करवायेगा।’
बा ने बीच में दखल दिया और बोली-‘अब दे भी दो इस बिचारे को सौ रुपये। हो सकता है इसका ध्ंाधा चल निकले। कम से कम फंदेबाज की दोस्ती का तो ख्याल करो। हो सकता है अंग्रेजी के मंत्रजाप करने से आप कंप्यूटर पर लिखते हुए हिट हो जाओ।’
दीपक बापू ने सौ का नोट टोपीबाज की तरफ बढ़ा दिया तो वह हाथ जोड़ते हुए बोला-‘आपके लिये तो मैं सचमुच में अंग्रेजी में मंत्र का जाप करूंगा। आप देखना अब कैसे उसकी टोपी उसके सिर और इसकी टोपी उसके सिर पहनाने का काम शुरू करता हूं। घर घर जाकर अपने लिये ग्राहक तलाश करूंगा। कहीं न कहीं कोई समस्या तो होती है। सभी की समस्या सुनकर उनके लिये अंग्रेजी का मंत्र जपने का आश्वासन दूंगा जो अच्छी रकम देंगे उनके लिये वह जपूंगा और जो कम देंगे उनका फुरसत मे ही काम करूंगा।’
बा ने कहा-‘महाराज, आप हमारे इनके लिये तो आप जरूर अंग्रेजी का मंत्र जाप कर लेना। अगर हिट हो गये तो फिर आपकी और भी सेवा कर देंगे। आपका नाम अपने ब्लाग पर भी चापेंगे (छापेंगे)
अपना काम निकलते ही फंदेबाज बोला-‘अच्छा दीपक बापू चलता हूं। आज कोई हास्य कविता का मसाला मिला नहीं। यह दुःखी जीव मिल गया। अपने धंधे के लिये किसी फ्लाप लेखक की तलाश में था। यह पुराना मित्र है मैंने सोचा तुमसे मिलकर इसका काम करा दूं।’
दीपक बापू ने कहा-‘कमबख्त, इतने करोड़ो के बजट वाला काम शुरू किया है और दो लड्डे भी नहीं ले आये।’
फंदेबाज ने झुककर बापू के मूंह के पास अपना मूंह ले जाकर कहा-‘यह धंधा किस तरह है यह बताया था न! इसमेें लड्डू खाये जाते हैं खिलाये नहीं जाते।’
वह दोनो चले गये तो बा ने दोनों हाथ उठाकर ऊपर की तरफ हाथ जोड़कर कहा-‘चलो इस दान ही समझ लो। हो सकता है उसके अंग्रेजी का मंत्र से हम पर कृपा हो जाये।’
दीपक बापू ने कहा-‘यह दान नहीं है क्योंकि यह सुपात्र को नहीं दिया गया। दूसरा कृपा तो सर्वशक्तिमान ही करते हैं और उन्होंने कभी कमी नहीं की। हम तो उनकी कृपा से ब्लाग लिख रहे हैं उसी से हीं संतुष्ट हैं। फ्लाप और हिट तो एक दृष्टिकोण है। कौन किसको किस दृष्टि से देखता है पता नहीं। फिर अंतर्जाल पर तो जिसका आभास भी नहीं हो सकता उसके लिये क्या किसी से याचना की जाये।’
बा ने पूछा-‘पर यह मंत्र जाप की बात कर रहा था। फिर धंधे की बात कर रहा था समझ में नहीं आया।’
दीपक बापू ने कहा-‘इसलिये तो मैंने उसे सौ रुपये दे दिये कि वह तुम्हारी समझ में आने से पहले निकल ले। क्योंकि अगर तुम्हारे समझ में आ जाता तो तुम देने नहीं देती और बिना लिये वह जाता नहीं। समझ में आने पर तुम फंदेबाज से लड़ बैठतीं और वह पैसा लेकर भी वह अपना अपमान नहीं भूलता। फिर वह आना बंद कर देता तो यह कभी कभार हास्य कविताओं का मसाला दे जाता है उससे भी हाथ धो बैठते। यह तो सौ रुपये का मैंने दंड भुगता है।’
इतने में लाइट आ गयी और बा ने कहा-‘लो आ गयी बिजली! अब बैठ जाओ। फंदेबाज ने कोई मसाला दिया हो तो लिख डालो हास्य कविता।’
दीपक बापू ने कहा-‘अब तो जा रहे सर्वशक्तिमान के दरबार में। आज वह कोई मसाला नहीं दे गया बल्कि हमारी हास्य कविता बना गया जिसे दस को सुनायेगा। अभी तक हमने उसकी टोपी उड़ायी है आज वह उड़ायेगा।
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यहां तो सभी स्वप्रेरणा से लिख रहे हैं-आलेख


आज मैंने कुछ अंग्रेजी ब्लाग से सामग्री लेकर अनुवाद टूल पर चिपकाई। हिंदी में कर उसे पढ़ने का विचार किया पर उनकी विषय सामग्री में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। अनुवाद टूल अंग्रेजी से हिंदी में सही अनुवाद नही कर रहा पर इसके बावजूद मैं दोनों को सामने रखकर कर पढ़ लेता हूं। हां, इस पर अधिक मेहनत पड़ती है पर अगर लिखने लायक कुछ मिल जाये तो बुरा भी नहीं लगता। आजकल सीएनएन के ब्लाग मुझे दिखाई दे रहे हैं सभी पर अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार की छाया है। इसमें मेरी दिलचस्पी नहीं है। सच तो यह है कि राजनीतिक विषयों में अब परहेज होने लगी है। उन पर लिखा केवल एक सीमित अवधि के लिये ही होता और बाद में उन पर अपने हाथ से लिखा गया पाठ स्वयं भी पढ़ने की इच्छा नहीं होती। भारत में जिन लोगों को समय पास करने के लिये कुछ नहीं है उनके लिये इस पर वक्त खराब करना ठीक लगता है।

मैं प्रतिदिन कोई न कोई अंग्रेजी ब्लाग पढ़ता हूं। जो ब्लाग मुझे पढ़ने में ठीकठाक लगे उन पर थोड़ा बहुत कुछ लिख लेता हूं। उन पर मनोरंजन, तकनीकी, धर्म और अन्य विषयों पर जो सामग्री होती है वह ऐसी है जैसे हमारे हिंदी के ब्लाग लेखक लिखते है। अगर कहूं तो उनकी प्रस्तुति अधिक प्रभावी होती है-हो सकता है कि भाषा की वजह से मुझे लगता हो।
इसके अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद में नब्बे प्रतिशत शुद्धता ने थोड़ा मुझे सोचने के लिए प्रेरित किया है और मेरी केवल उसमें ही दिलचस्पी है। अनेक लोगों का मत है कि अंग्रेजी से सही अनुवाद न होने से उनको निराशा है। यह बात मेरे समझ में नहीं आती। आखिर वह ऐसा क्या पढ़ना चाहते हैं जो हिंदी में नहीं है। शायद उनके मन में वर्षोें से जो गुलामी की भावना ने कुंठा भर दी है उसका ही यह परिणाम है कि वह यह नहीं सोचते कि हिंदी में लिखने वाले भी अच्छा लिखते हैं। पूरा दोष उनका भी नहीं है। स्वतंत्रता के पश्चात! अनेक लोगों ने ऐसा लिखा कि जो विदेशों में प्रिय हो। विदेशों मे प्रिय था यहां की गरीबी और अंधविश्वासों से भरे सामाजिक जीवन में व्याप्त कठिनाईयों से उपजे दर्द से लिखा गया साहित्य।

कई लोगों ने अंग्रेजी में लिखकर अपना नाम महान लोगों की श्रेणी में लिखवाया। फिर उनकी रचनाएं हिंदी में आईं। हिंदी की किसी बड़ी रचना को अंग्रेजी में भेजने का प्रयास नहंी हुआ। इस क्रम में यह हुआ कि जो लोग हिंदी में लिख रहे थे वह भी वही लिखने लगे जो यहां के लोगों के लिए अत्यंत बोर करने वाले विषय हैं। उनकी भाषा हिंदी रह गयी पर विषयों के चयन में अंग्रेजी शैली का प्रभाव रहा।

हिंदी के पाठक अपने जीवन में संघर्ष करने के आदी है और अपने दर्द का विसर्जन वह पसीने के रूप में कर देते हैं। वह चाहते हैं हृदय को प्रसन्न करने वाली रचनाओं के साथ कोई संदेश। उनकी पसंद यह है कि उनके सामने ऐसी कहानी और कवितायें पढ़ने के लिये आयें जिनमें संघर्ष के साथ विजय का संदेश हो। उनके विश्वास को पुष्ट करता हो।

यह बात मैं स्वयं एक आम पाठक के रूप में ही कह रहा हूं। अगर रात है तो उसकी सुबह होगी। और सुबह है तो रात भी होगी। दैहिक समस्याओं के साथ जीने की आदत है और कोई अपने शब्दों या तस्वीरों के साथ उसे उबाराना चाहता है तो वह मेरा प्रिय लेखक नहीं हो सकता। जो जीवन में संघर्ष के प्रेरित कर सके और मेरे विश्वास को पुष्ट करे वह रचना मेरे दिल को छू जाती है।

पिछले तीन चार दिन से देख रहा हूं कि मेरे दो ब्लाग अंग्रेजी अनुवाद टूल से देखने के प्रयास हो रहे हैं। सोचता हूं क्या कोई अंग्रेजी भाषा के पाठक भी हिंदी में लिखे पाठ को पढ़ना चाहते हैं। वैसे मैं आजकल इस टूल से अपने पाठ सुधार कर प्रस्तुत नहीं कर रहां। अगर मुझे लगा कि इसकी आवश्यकता है तो फिर उनकी प्रस्तुति करूंगा।
इधर उर्दू के टूल के भी ऐसे ही होने की खबर है। मतलब यह कि अंग्रेजी और उर्दू के पाठक हिंदी को थोड़ा कम कठिनाई से पढ़ेंगे बनस्बित हिंदी पाठकों के उनकी भाषाओं को बहुत कठिनाई से पढ़ पाने से। अभी मेरे पास कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं आई कि हिंदी के पाठों को अन्य भाषाओं के लोग कोई बहुत अधिक संख्या में पढ़ रहे हैं। भविष्य के गर्भ में क्या है कौन जानता है? हालांकि हम हिंदी वालों के पास अपनी स्वप्रेरणा के अलावा और कोई पूंजी नहीं है जबकि अंग्रेजी और उर्दू के साथ उनको चाहने वाले पाठक और प्रायोजक दोनों ही हैं। हिंदी में अभी बहुत कम संख्या में पाठ है पर इसके लिये हमारे देश के हिंदी ब्लागरों ने स्वप्रेरणा से कार्य किया है उसका कोई सानी नहीं है। सच जानना चाहें तो जितनी ज्ञानवद्र्धक और उत्कृष्ट रचनाऐं हिंदी में हैं उतना अन्य भाषाओं में आनुपातिक रूप से अधिक होंगी इस यकीन करना कठिन है।
अब कोई कह सकता है कि अंग्रेजी में पढ़ा ही कितना है? उसका जवाब है कि अंग्रेजी टूल से पढ़ने के बाद मुझे यह लगता है कि उनमें भी विषयों में बहुत कमी है। उनमें अधिकतर राजनीतिक और अपने देश की ज्वलंत विषयों से संबंधित सामग्री होती है जो हमारे काम की नहीं होती। एक बात है इस टूल से हम अंग्रेजी के पाठ पढ़ने के लिये अनुवादकों के मोहताज नहीं है। किसी दिन अवसर मिला तो किसी अंग्रेजी का पाठ हिंदी में प्रस्तुत कर यह भी साबित कर दूंगा।

क्रिकेट मैच के दौरान नृत्य कार्यक्रम:एक विचार


अभी चल रही प्रतियोगिता में क्रिकेट मैचों के दौरान ‘चीयर गर्ल’ की भूमिका पर अनेक लोग सवाल उठा रहे हैं।  कई लोग ऐसे देश की संस्कृति के विरुद्ध तो कई इसे क्रिकेट खेल से इतर बता रहे हैं। मुझे लगता है कि ऐसा करने वाले लोग संभवतः केवल इसमें क्रिकेट को देखना चाहते हैं-शायद यही वजह है कि वह ऐसी आपत्तियां उठा रहे है। मुझे लगता है कि ऐसी आपत्तियां उठाने की कोई वजह नहीं हैं।

मैं बरसों से क्रिकेट खेल देख रहा हूं और अब कभी कभार देखता हूं। पहले लगन के  साथ पूरा मैच देखता था पर अब मन में आता है और जब भारत के जीतने की आशा लगती है तब देखता हू। मतलब यह कि पहले जैसा कोई लगाव नहीं है पर अंतर्राष्ट्रीय मैचों में थोड़ी दिलचस्पी रहने के बावजूद मैने एक भी मैच नहंी देखा है। इस बारे में खबरें अक्सर समाचार पत्रों और टीवी पर दिख जातीं है और उनसे नजरे बचाना मुश्किल है। मैच के दौरान नृत्य पेश करने को लेकर अनेक  लेख मैने सब जगह देखे हैं और मुझे इसके विरोध का आधार अभी तक मजबूत नहीं दिखाई दिया।

अभी जब भारत ने ट्वंटी-ट्वंटी विश्व कप प्रतियोगिता में विजय हासिल की तो देश में जिस तरह  जश्न मनाया गया तो उसी समय  मैने यह अपना विचार लिख दिया था कि बाजार इसे भुनाने का प्रयास करेगा क्योंकि उसको यहां अपने लिये कमाई का एक जरिया दिख रहा है। उस प्रतियोगिता में भी ऐसे नृत्य थे और लोगोंं ने इसे देखा पर शायद राष्ट्रप्रेम के जज्बे में इसकी अनदेखी करते रहे। इसके बाद भी देश में एक ट्वंटी-ट्वंटी का मैच हुआ उसमें भी वह सब दिखाया गया-अब  चूंकि प्रतियोगिता लंबी है इसी कारण यह चर्चा का विषय बना। मतलब इस प्रतियोगिता के शुरू होने से पहले ही यह सबको पता था कि ऐसा होगा फिर अचानक उसका विरोध शुरू होना मेरी समझ से परे है। दरअसल यह नृत्य कार्यक्रम एक तरह से ट्वंटी-ट्वंटी का हिस्सा बन गया है और देखा जाये तो बिना राष्ट्रप्रेम के जज्बे के इन मैचों के लिये मैदान और टीवी चैनलों पर भीड़ जुटाना शायद बाजार वालों के लिये कठिन होता। फिर इसमें किसी प्रदेश या देश की भावना नहीं जुड़ी और इन टीमों के अंतर्राट्रीय खिलाड़ी होने के बावजूद इन मैचों का कोई खास महत्व नहीं है। ऐसे में बाजार मे मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ जानते हैं कि इन मैचों में अतिरिक्त कुछ जोड़कर ही इनको लोकप्रिय बनाया जा सकता है।
प्रचार माध्यम भी कई बार टीमों के साथ फिल्मी हीरो और हीरोइन का नाम जोड़कर अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को यह संदेश देते नजर आते हैं कि इनके साथ कोई राष्ट्रप्रेम या प्रदेशप्रेम के जज्बात जोड़ना ठीक नहीं होगा। पहले कई अवसरों अंतर्राष्ट्रीय मैचोंे में अनेक विवाद उठ चुके हैं तब देश के नाम की आड़ लेकर मुद्दा उठाया जाता था पर अब इसमें यह संभव नहीं है। यह पूर्णतः मनोरंजक क्रिकेट है और इसमें प्रतिस्पर्घा की भावना खिलाडि़यों में धन को लेकर है न कि देश के नाम को लेकर। कई क्रिकेट प्रेमी इन मैचों की परवाह नहीं कर रहे क्योंकि वह देश के नाम पर होने वाली प्रतिस्पर्धा को देखने के इतने आदी है कि उनको इसमें मजा नहीं आ सकता है।

कुल मिलाकर इन मैचों पर लोग विवाद खड़े कर उसे और अधिक लोकप्रिय बना रहे हैं। जहां तक सार्वजनिक रूप से नृत्य दिखाने का प्रश्न है तो कई स्टेडियमों में इस तरह के कार्यक्रम होते रहते हैं फिर इसे क्रिकेट के साथ दिखाने पर आपत्ति उठाना कोई तार्किक नहीं लगता। क्रिकेट अब दो भागों के बंट चुका है एक है प्रतिस्पर्धात्मक क्रिकेट और दूसरा है मनोरंजक क्रिकेट। यह दूसरा वाला रूप है और इसमे केवल क्रिकेट खेल पर शायद दर्शक जुटाना शायद कठिन होता इसीलिये यह मनोरंजक कार्यक्रम इसका हिस्सा बनाया गया है। जिसे देखना है वह देख रहा है जिसको नहीं देखना वह मूंह फेर रहा है। मेरा आशय यह नहीे कि  ऐसा होना ठीक है  बल्कि मेरा विचार है कि अपनी विचारधारा किसी पर नहीं थोपना चाहिए। मुझे यह मैच प्रभावित नहीं कर पाता इसलिये नहीं देख रहा और जो देख रहे उन पर  कोई आपत्ति व्यक्त करने की इच्छा भी नहीं है। इस तरह के बदलाव देखने की आदत मुझे है और मैं मानता हूं कि आगे चलकर एक दिवसीय और टेस्ट मैचों में भी यह दिखाई दे तो आश्चर्य नहीं होगा।

 

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