Category Archives: अध्यात्म

पतंजलि योग विज्ञान-संतोष ही जीवन का सबसे बड़ा धन (patanjali yoga vigyan-santosh jivan ka dhan)


शौचात्स्वांगजुगुप्सा परैरसंसर्गः।।
हिन्दी में भावार्थ-
शौच करने से अपने अंगों में वैराग्य तथा दूसरों से संपर्क न रखने की इच्छा पैदा होती है।
सत्त्वशुद्धिसौमनरस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च।।
हिन्दी में भावार्थ-
इसके सिवा अंतकरण की शुद्धि, मन में प्रसन्नता, चित की एकाग्रता, इंद्रियों का वश में होना और आत्मसाक्षात्कार की योग्यता की अनुभूति भी होती है।
संतोषादनुत्तसुखलाभः।।
हिन्दी में भावार्थ-
संतोष से उत्तम दूसरा कोई सुख या लाभ नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम जब योग साधना करते हैं तब अपनी देह के समस्त अंगों की क्रियाओं को देख सकते हैं। हम अपनी खाने पीने तथा शौच की क्रियाओं को सामान्य बात समझ कर टालते हैं जबकि जीवन के आनंद का उनसे घनिष्ठ सम्बंध है। इसका अनुभव तभी किया जा सकता है जब हम योगासन, प्राणायाम, ध्यान तथा मंत्र जाप करें। हम जब शौच करते हैं तब अपनी देह से गंदगी निकलने के साथ ही अपने अंदर सुख का अनुभव करें। अगर ऐसा न हो तो समझ लेना चाहिए कि अभी हमारी देह में अनेक प्रकार के विकार रह गये हैं। जब हम शौच के समय अपने अंदर से विकार निकलने की अनुभूति होती है तब मन में एक तरह से वैराग्य भाव आता है और साथ ही मन में यह भी भाव आता है कि जितना हो सके अपने खान पान में सात्विक भाव का पालन किया जाये। ऐसी वस्तुऐं ग्रहण की जायें जो सुपाच्य तथा देह के लिये कम तकलीफदेह हों। इतना ही नहंी कम से कम भोजन किया जाये ताकि देह और मन में विकार न रहें यह अनुभूति भी होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि शौच से निवृत होने पर देह के स्वस्थ होने की अनुभूति होना चाहिए। इसके विपरीत अगर शरीर में थकावट या कमजोरी के साथ मानसिक तनाव का अनुभव तो समझ लेना चाहिए कि हमारी देह बिना योगसाधना के विकार नहीं निकाल सकती।
इतना ही नहीं अपनी देह की हर शारीरिक क्रिया के साथ हमें अपने अंदर संतोष का अनुभव हो तभी यह मानना चाहिए कि हम स्वस्थ हैं। इस संसार में संतोष ही सुख का रूप है। अपने मन में असंतोष से अपना ही खून जलाकर कोई सुखी नहीं रह सकता।

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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
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पतंजलि योग साहित्य-तप, स्वाध्याय तथा भक्ति हैं क्रियायोग (patanjali yoga sahitya-tap, swadhayay tathaa bhakti is kriya yog)


तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधान क्रियायोगः।।
हिन्दी में भावार्थ-
तप, स्वाध्याये तथा ईश्वर के प्रति प्राण केंद्रित करना तीनों ही क्रियायोग हैं।
समाधिभावनार्थः क्लेशतनुरणर्थश्च।।
हिन्दी में भावार्थ-
समाधि में प्राप्त सिद्धि से अज्ञान तथा अविद्या के कारण होने वाले क्लेशों का नाश होता है।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशा।।
हिन्दी में भावार्थ-
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश यह पांचों क्लेश है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना के आठ भाग हैं जिसमें समाधि का अत्यंत महत्व है। समाधि ध्यान का वह चरम शिखर है जहां मनुष्य इस दैहिक संसार से प्रथक ईश्वरीय लोक में स्थित हो जाता है। उसका अपने अध्यात्म से इस तरह योग या जुड़ाव हो जाता है कि उसकी देह में स्थित इंद्रिया निष्क्रिय और शिथिल हो जाती हैं और जब योगी समाधि से वापस लौटता है तो उसके लिये पूरा संसार फिर नवीन हो जाता है क्योंकि वह मन के सारे विकारों से निवृत होता है।
योगासन तथा प्राणायाम के बाद परम पिता परमात्मा के प्रति ध्यान लगाना भी योग हैं और इनको क्रियायोग कहा जाता है। इसमे सिद्धि होने पर किसी विषय का अध्ययन न करने या उसमें जानकारी का अभाव होने पर भी उसको जाना जा सकता है। ऐसे में अविद्या और अज्ञान से उत्पन्न क्लेश नहीं रह जाता है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि योग साधना की सीमा केवल योगासन और प्राणायाम तक ही केंद्रित नहीं है बल्कि ध्यान और समाधि भी उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा है। मनुष्य का अपना संकल्प भी इसमें महत्व रखता है।
सच तो यह है कि मनुष्य मन के इस संसार में दो ही मार्ग हैं एक तो है सहज योग जिसमें मनुष्य स्वयं संचालित होता है। दूसरा है असहज योग जिसमें मनुष्य अज्ञान तथा अविद्या के कारण इधर उधर प्रसन्नता तलाश करते हुए केवल तनाव ही पाता है। पूर्ण रूप से योग साधना का ज्ञान प्राप्त करने वाले मनुष्य तत्व ज्ञान की तरफ आकर्षित होते हैं तब उनका प्रयोजन इस नश्वर संसार से अधिक नहीं रह जाता है। योगासन तथा प्राणायाम करने वाले कुछ लोग अपने आपको सिद्ध समझने लगते हैं और तब वह दूसरों को चमत्कार दिखाकर अपनी दुकानें जमाते हैं। दरअसल वह योग का पूर्ण रूप नहीं जानते। जिन लोगों को योग साधना का पूर्ण ज्ञान होता है वह समाधि के द्वारा सिद्ध तो प्राप्त करते हैं पर उसकी आड़ में कोई धंधा नहीं करते क्योंकि उनके लिये इस संसार में कोई भी कार्य चमत्कार नहीं रह जाता।
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भर्तृहरि नीति शतक-वाणी और धन के रोगियों से दूर रहें (bhartrihari neeti shatak-vani aur dhna ke rogi se door rahem)


पुण्यैर्मूलफलैस्तथा प्रणयिनीं वृत्तिं कुरुष्वाधुना
भूश्ययां नवपल्लवैरकृपणैरुत्तिष्ठ यावो वनम्।
क्षधद्राणामविवेकमूढ़मनसां यन्नश्वाराणां सदा
वित्तव्याधिविकार विह्व्लगिरां नामापि न श्रूयते।।
हिन्दी में भावार्थ-
भर्तृहरि महाराज अपने प्रजाजनों से कहते हैं कि अब तुम लोग पवित्र फल फूलों खाकर जीवन यापन करो। सजे हुए बिस्तर छोड़कर प्रकृति की बनाई शय्या यानि धरती पर ही शयन करो। वृक्ष की छाल को ही वस्त्र बना लो लो। अब यहां से चले चलो क्योंकि वहां उन मूर्ख और संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों का नाम भी सुनाई नहीं देगा जो अपनी वाणी और संपत्ति से रोगी होने के कारण अपने वश में नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में तीन प्रकार के लोग पाये जाते हैं-सात्विक, राजस और तामस! श्रेष्ठता का क्रम जैसे जैस नीचे जाता है वैसे ही गुणी लोगों की संख्या कम होती जाती है। कहने का अभिप्राय यह है कि तामस प्रवृत्ति की संख्या वाले लोग अधिक हैं। उनसे कम राजस तथा उनसे भी कम सात्विक होते हैं। धन का मद न आये ऐसे राजस और सात्विक तो देखने को भी नहीं मिलते। जिन लोगों को भगवान ने वाणी या जीभ दी है वह उससे केवल आत्मप्रवंचना या निंदा में नष्ट करते हैं। किसी को नीचा दिखाने में अधिकतर लोगों को मज़ा आता है। किसी की प्रशंसा कर उसे प्रसन्न करने वाले तो विरले ही होते हैं। इस संसार के वीभत्स सत्य को ज्ञानी जानते हैं इसलिये अपने कर्म में कभी अपना मन लिप्त नहीं करते।
विलासित और अहंकार लिप्त इस संसार में में यह तो संभव नहीं है कि परिवार या अपने पेट पालने का दायित्व पूरा करने की बज़ाय वन में चले जायें, अलबत्ता अपने ऊपर नियंत्रण कर अपनी आवश्यकतायें सीमित करें और अनावश्यक लोगों से वार्तालाप न करें। उससे भी बड़ी बात यह कि परमार्थ का काम चुपचाप करें, क्योंकि उसका प्रचार करने पर लोग हंसी उड़ा सकते हैं। सन्यास का आशय जीवन का सामान्य व्यवहार त्यागना नहीं बल्कि उसमें मन के लिप्त न होने देने से हैं। अपनी आवश्यकतायें कम से कम करना भी श्रेयस्कर है ताकि हमें धन की कम से कम आवश्यकता पड़े। जहां तक हो सके अपने को स्वस्थ रखने का प्रयास करें ताकि दूसरे की सहायता की आवश्यकता न करे। इसके लिये योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान करना एक अच्छा उपाय है।

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मनुस्मृति-अन्य लोगों का अपमान करने वाली नष्ट होता है (admi ka apman na karen-manu smriti)


सुखं द्वावमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते।
सुखं चरति लोकेऽस्मिनन्मन्ता विनश्तिं

हिन्दी में भावार्थ-अन्य व्यक्तियों द्वारा अपमान किये जाने पर उनको माफ करने वाला मनुष्य सुखी की नींद लेनें के साथ संसार में सहजता से विचरता है परंतु दूसरों का अपमान करने वाला मनुष्य स्वयं ही नष्ट होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन को अगर दृष्टा भाव से देखा जाये तो यकीनन उसके प्रति सहजता का बोध होता है। मान और अपमान से परे होकर विचार करें तो फिर जीवन का एक अलग ही मजा है। श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि गुण ही गुणों में तथा इंद्रिया ही इंद्रियों में बरत रही हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि देह पर जो तत्व प्रभाव डालते हैं उनको अमृतमय या विष से व्याप्त होने का प्रभाव भी मनुष्य पर पड़ता है। जो गंदा खाते पीते हैं उनकी वाणी और विचार उसी अनुरूप होते हैं इसलिये उनसे सद्व्यवहार की अपेक्षा ज्ञानियों को नहीं करना चाहिए। अगर वह अपमान करते हैं तो उसकी अनदेखी कर देना ही उचित है। क्योंकि अगर उनका प्रतिकार उनकी शैली में ही किया जाये तो अपना ही रक्तचाप भी बढ़ जाता है। फिर स्वयं वाणी में कटुता और आंखों में विष व्याप्त होता जाता है। इसलिये अच्छा यही है कि अपने अपमान करने वालों को माफ कर दें। उसके बाद चिंतन और ध्यान करें तो इस बात का अहसास होगा कि हमने ठीक किया।
एक बात निश्चित यह है कि हर आदमी को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है और जो दूसरों का अपमान करते हैं वह तनाव की अग्नि में स्वयं का मन और तन जलाते हैं। उनकी शक्ति और बुद्धि धीरे धीरे पतन की तरफ बढ़ती है और अंततः नष्ट हो जाते हैं। अतः अपने मन में क्षमा का भाव हमेशा धारण करना चाहिए।

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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-सफलता के लिये जनविरोधी काम न करें (kotilaya ka arthashastra-safalta ke liye janvirodhi kaam na karen)


आयत्याञ्प तदात्वे च यत्स्यादास्वादपेशलम्।
तदेव तस्य कुर्वीत न लोकद्विष्टमाचरेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
भविष्य की अच्छी संभावनाओं को देखते हुए बुद्धिसे जो कार्य करने में अच्छा लगे वही प्रारंभ करे परंतु कभी भी सफलता के लिये जनविरोधी काम न करें।
श्लाघ्या चानन्दनीया च महतामुफ्कारिता।
करले कल्याणगायत्ते स्वल्पापि सुमहोदयम्।
हिन्दी में भावार्थ-
उच्च पुरुषों का उपकार कर्म अत्यंत प्रिय तथा आनंदमय लगता है वह अगर किसी का भी थोड़ा कल्याण करते हैं तो उसका महान उदय होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर मनुष्य में पूज्यता और अहंकार का भाव होता है। जब किसी को धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तो फूलकर कुप्पा नहीं समाता और कई लोगों का तो मन ही विचलित हो जाता है। शक्ति आने पर ही अनेक लोग संतुष्ट नहीं होते बल्कि उसका प्रभाव समाज पर दृष्टिगोचर हो और वह डरे इसी उद्देश्य से कुछ लोग अपने बड़प्पन का दुरुपयोग करने लगते हैं। आजकल हम देख सकते है कि देश में अमीरों, उच्च पदस्थ तथा बाहूबली लोगों का आतंक पूरे समाज पर दिखाई देता है। शक्तिशाली वर्ग के लोग अपनी शक्ति से छोटों को संरक्षण देने की बजाय अपनी शक्ति का उपयोग उनको दबाकर आत्म संतुष्टि कर लेते हैं। यही कारण है कि समाज में वैमनस्य का भाव बढ़ रहा है।
हम अनेक लोगों का उनके धन, पद और बल की वजह से बड़ा मान लेते हैं पर सच यह है कि वह समाज का भला करना नहीं जानते। बड़े आदमी की थोड़ी कृपा से छोटे आदमी प्रसन्न हो सकत हैं पर इसको समझने की बजाय उसे कुचलकर अपने आप को खुश करना चाहते हैं।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को न छाया मिले, पथिक को फल लागे अति दूर-यह कहावत अधिकतर बड़े लोगों पर लागू होती है। ऐसे लोगों को बड़ा मानना ही एक तरह से गलत है। बड़ा आदमी तो वह है जो लोकहित में अपनी शक्ति का उपयोग करता है न कि जनविरोधी काम करके अपने अहंकार की संतुष्टि! अतः धल, उच्च पद या बाहूबल होने पर छोटे और कमजोर आदमी को संरक्षण देना चाहिये ताकि समाज को एक नई दिशा मिल सके।
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भर्तृहरि नीति शतक-असिधारा व्रत का पालन करें (bhartrihari neeti shatak-asidhara vrat)


सन्तपन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषास्तान्प्रत्येष विशेष विक्रमरुची राहुर्न वैरायते।
द्वावेव प्रसते दिवाकर निशा प्रापोश्वरौ भास्करौ भ्रातः! पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषाकृतिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसमान में बृहस्पति समेत अनेक शक्तिशाली ग्रह हैं किन्तु पराक्रम में दिलचस्पी रखने वाला राहु उनसे कोई लड़ाई मोल नहीं लेता क्योंकि वह तो पूर्णिमा और अमावस्या के दिन अति देदीप्यमाान सूर्य तथा चंद्र को ही ग्रसित करता है।
असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः प्रियान्यारूया वतिर्मलिनमसुभंगेऽप्यसुकरं।
विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां सतां केनोद्दिष्टं विषमसिधाराव्रतमिदम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
सदाशयी मनुष्यों के लिये कठोर असिधारा व्रत का आदेश किसने दिया? जिसमें दुष्टों से किसी प्रकार की प्रार्थना नहीं की जाती। न ही मित्रों से धन की याचना की जाती है। न्यायिक आचरण का पालन किया जाता है। मौत सामने आने पर भी उच्च विचारों की रक्षा की जाती है और महान पुरुषों के आचरण की ही अनुसरण किया जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर मनुष्य को अपने पराक्रम में ही यकीन करना चाहिए न कि अपने लक्ष्यों को दूसरों के सहारे छोड़कर आलस्य बैठना चाहिए। इतना ही नहीं मित्रता या प्रतिस्पर्धा हमेशा अपने से ताकतवर लोगों की करना चाहिये न कि अपने से छोटे लोगों पर अन्याय कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए।
अनेक मनुष्य अपने आसपास के लोगों को देखकर अपने लिये तुच्छ लक्ष्य निर्धारित करते हैं। थोड़ा धन आ जाने पर अपने आपको धन्य समझते हुए उसका प्रदर्शन करते हैं। यह सब उनके अज्ञान का प्रमाण है। अगर स्थिति विपरीत हो जाये तो उनका आत्मविश्वास टूट जाता है और दूसरों के कहने पर अपना मार्ग छोड़ देते हैं। अनेक लोग तो कुमार्ग पर चलने लगते हैं। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य को भगवान ने दो हाथ, दो पांव तथा दो आंखों के साथ विचारा करने के लिये बुद्धि भी दी है। अगर मनुष्य असिधारा व्रत का पालन करे-जिसमें दुष्टों ने प्रार्थना तथा मित्रों से धना की याचना न करने के साथ ही किसी भी स्थिति में अपने सिद्धांतों का पालन किया जाता है-तो समय आने पर अपने पराक्रम से वह सफलता प्राप्त करता है।

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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-आलस्य छोड़कर नियत समय पर काम प्रारंभ करना श्रेयस्कर


न कार्यकालं मतिमानतिक्रामेत्कदायन।
कथञ्चिदेव भवति कार्ये योगः सुदृर्ल्लभः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ज्ञानी और बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि अपने कार्य को निश्चित समय पर पूरा करे और इसमें किसी प्रकार की कोताही न बरते। कारण यह कि किसी भी कार्य में मन लगाना दुर्लभ है। फिर जीवन में संयोग बार बार नहीं आते।
सतां मार्गेण मतिमान् काले कर्म्म समाचरेत्।
काले समाचरन्साधु रसवत्फल्मश्नुते।।
हिन्दी में भावार्थ-
ज्ञानी और बुद्धिमान मनुष्य को सत्य मार्ग पर स्थिर होकर समय आने अपना कार्य निश्चित रूप से आरंभ करना चाहिऐ। समय पर कार्य करने पर सारे फल प्रकट होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य स्वभाव में आलस्य का भाव स्वाभाविक रूप से रहता है। संत कबीर दास जी ने कहा भी है कि ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में प्रलय हो जायेगी बहुरि करेगा कब।’ हर मनुष्य सोचता है कि अपना काम तो वह कभी भी कर सकता है पर ऐसा सोचते हुए उसका समय निकलता जाता है। चतुर मनुष्य इस बात को जानते हैं इसलिये ही वह विकास के पथ पर चलते हैं। अक्सर लोग अपनी असफलता और निराशा को लेकर भाग्य को कोसते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि विकास का समय हर आदमी के पास आता है और जो अपने ज्ञान और विवेक से उसका लाभ उठाते हैं उनकी पीढ़ियों का भी भविष्य सुधर जाता है। संसार में सफल और प्रभावशाली व्यक्त्तिव का स्वामी, उद्योगपति, तथा प्रतिष्ठाप्राप्त लोगों की संख्या आम लोगों से कम होती है इसका कारण यह है कि सभी लोग समय का महत्व नहीं समझते और आलस्य के भाव से ग्रसित रहते हैं।
जीवन में निरंतर सक्रिय रहने से मनुष्य के चेहरे और मन में स्फूर्ति बनी रहती है और बड़ी आयु होने पर भी उसका अहसास नहीं होता। आलस्य मनुष्य का एक बड़ा शत्रु माना जाता है इसलिये उससे मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर है। कोई काम सामने आने पर उसको तुरंत प्रारंभ कर देना चाहिये यही जीवन में सफलता का मूलमंत्र है। 

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पतंजलि योग सूत्र-स्मृति और संस्कारों का रूप एक जैसा (patanjali yog darshan in hindi-sankar aur manushya ki smriti)


जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानष्यानन्तर्य स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पतंजलि योग सूत्र के अनुसार जाति, देश काल इन तीनों से संपर्क टूटने पर भी स्वाभाविक कर्म संस्कारों में बाधा नहीं आती क्योंकि स्मृति और संस्कारों का एक ही रूप होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इस श्लोक में योग के संस्कारिक रूप को समझ सकते हैं। जब मनुष्य बच्चा होता है तब उसके अपने घर परिवार, रिश्तेदारी, विद्यालय तथा पड़ौस के लोगों से स्वाभाविक संपर्क बनते हैं। वह उनसे संसार की अनेक बातें ऐसी सीखता है जो उसके लिये नयी होती हैं। वह अपने मन और बुद्धि के तत्वों में उन्हें स्वाभाविक रूप से इस तरह स्थापित करता है जीवन भर वह उसकी स्मृतियों में बनी जाती हैं। कहा भी जाता है कि बचपन में जो संस्कार मनुष्य में आ गये फिर उनसे पीछा नहीं छूटता और न छोड़ना चाहिए क्योंकि वह कष्टकर होता है।
यही कारण है कि माता पिता तथा गुरुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें। संभव है बाल्यकाल में अनेक बच्चे उनकी शिक्षा पर ध्यान न दें पर कालांतर में जब वह उनकी स्थाई स्मृति बनती है तब वह उनका मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिये बच्चों के लालन पालन में मां की भूमिका सदैव महत्वपूर्ण मानी गयी है क्योंकि बाल्यकाल में वही अपने बच्चे के समक्ष सबसे अधिक रहती है और इसका परिणाम यह होता है कि कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो अपनी मां को भूल सके।
इसलिये हमारे अध्यात्मिक संदेशों में अच्छी संगत के साथ ही अच्छे वातावरण में भी निवास बनाने की बात कहीं जाती है। अक्सर लोग कहते हैं कि पास पड़ौस का प्रभाव मनुष्य पर नहीं पड़ता पर यह गलत है। अनेक बच्चे तो इसलिये ही बिगड़ जाते हैं क्योंकि उनके बच्चे आसपास के गलत वातावरण को अपने अंदर स्थापित कर लेते हैं।
यही नहीं आज के अनेक माता पिता बाहर जाकर कार्य करते हैं और सोचते हैं कि उनका बच्चा उनकी तरह ही अच्छा निकलेगा तो यह भ्रम भी उनको नहीं पालना चाहिये क्योंकि किसी भी मनुष्य की प्रथम गुरु माता की कम संगत बच्चों को अनेक प्रकार के संस्कारों से वंचित कर देती है। ऐसे लोग सोचते हैं कि उनका बच्चा बड़ा होकर ठीक हो जायेगा या हम उसे संभाल लेंगे तो यह भी भ्रामक है क्योंकि जो संस्कार कच्चे दिमाग में स्मृति के रूप में स्थापित करने का है वह अगर निकल गया तो फिर अपेक्षायें करना निरर्थक है। युवा होने पर दिमाग पक्का हो जाता है और सभी जानते हैं कि पक्की मिट्टी के खिलोने नहीं बन सकते-वह तो जैसे बन गये वैसे बन गये। दरअसल हम जिससे संस्कार कहते हैं वह प्रारम्भिक काल में स्थापित स्मृतियों का विस्तार ही हैं इसलिये अगर हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे बच्चे आगे चलकर वह काम करें जो हम स्वयं चाहते हैं तो उसकी शिक्षा पहले ही देना चाहिए। यह स्मृतियां इस तरह की होती हैं कि देश, काल तथा जाति से कम संपर्क रहने न बिल्कुल न होने पर भी बनी रहती हैं और मनुष्य अपने संस्कारों से भ्रष्ट नहीं होता है अगर किसी लोभवश वह अपना पथ छोड़ता भी है तो उसे भारी कष्ट उठाना पड़ता है और फिर अपने स्थान पर वापस आता है।
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मनुस्मृति-त्रिदंडी मनुष्य ही सिद्ध कहलाता है (tri dandi manushya hi siddha-manu smriti in hindi)


वाग्उण्डोऽडःकायादण्डस्तथैव च।
वसयैते निहिता बुद्धौ त्रिडण्डीति स उच्यते
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य सोच विचार कर वाणी का प्रयोग करते हुए देह और मन पर अपना नियंत्रण बनाये रखते हैं उसे त्रिदंडी कह जाता है।
त्रिदण्डमेतिन्निक्षप्य सर्वभूतेषु मानवः।
कामक्रोधी तु संयभ्य ततः सिद्धिं नियच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य सभी जीवों के साथ मन, शरीर वह वाणी तीनों प्रकार के दंडों का पालन करते हुए व्यवहार करता है वह किसी को पीड़ा नहीं देता। उसका काम व क्रोध के साथ ही अपने आचरण पर भी संयम रहता है जिसके कारण वह सिद्ध कहलाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने कर्मों से मन, शरीर और वाणी के द्वारा बंधा रहता है। जिस तरह का कोई कर्म करता है वैसा ही उसे परिणाम प्राप्त होता है। सिद्ध व्यक्ति वही है जो दृष्टा की तरह अपने मन, शरीर और वाणी को अभिव्यक्त होते देखता है। इसलिये वह उन पर नियंत्रण करता है। दृष्टा होने के कारण मनुष्य के किसी भी कर्म के प्रति अकर्ता का भाव पैदा होता है जिससे उसके अंतर्मन में विद्यमान अहंकार की भावना प्रायः समाप्त हो जाती है।
ऐसा निरंकार मनुष्य मन, वचन और शरीर से संयम पूर्वक जीवन व्यतीत करता है और इससे न केवल वह अपना बल्कि दूसरे लोगों के जीवन का भी उद्धार करता है। इससे दूसरे लोग भी प्रसन्न होते हैं और उसका सिद्ध की उपाधि प्रदान करते हैं। जिन मनुष्यों के पास तत्व ज्ञान है वह अपने मुख से आत्मप्रचार कर अपने व्यवहार और आचरण से ही अपनी सिद्धि को प्रमाण करते है। जिनको ऐसा सिद्ध बनना है उनको चाहिये कि वह मन, वचन और देह के दंडों पर अभ्यास से नियंत्रण करें।
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पतंजलि योग सूत्र-समाधि के मध्य में विषयों का ज्ञान पूर्व संस्कारों की वजह से आता है (patnjali yog sootra-samdhi pad)


द्रष्टृदृश्यघोपरक्तं चितं सर्वार्थम्
हिन्दी में भावार्थ-
द्रष्टा और दृश्य-इन दो रंगों से रंगा चित्त सभी अर्थवाला हो जाता है।
तदंसख्येयवासनाभिश्चिन्नमपि परार्थ संहृत्यकारित्वात।
हिन्दी में भावार्थ-
वह चित्त असंख्येय वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे के लिए है क्योंकि वह सहकारिता के भाव से काम करने वाला है।
विशेषंषर्शिन आत्मभावभावनविनिवृत्तिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष करने वाले योगी की आत्माभावविषयक भावना सर्वथा निवृत्त हो जाती है।
तदा विवेनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-
उस समय चित्त विवेक की तरफ झुककर कैवल्य के अभिमुख हो जाता है।
तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्राणि संसकारेभ्यंः।
हिन्दी में भावार्थ-
उसके अंतराल में दूसरे पदार्थों का ज्ञान पूर्वसंस्कारों से होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि का योग सूत्र संस्कृत में है और उसके हिन्दी अनुवाद का अर्थ इतना किल्ष्ट होता है कि सीधी भाषा में बहुत कम विद्वान उसकी व्याख्या कर पाते हैं। हम यहां सीधी सादी भाषा में कहें तो हमारा चित्त या बुद्धि इस देह के कारण है और उसे आत्मा समझना अज्ञान का प्रमाण है। हमारे मन और बुद्धि में विचारों का क्रम आता जाता है जो केवल सांसरिक विषयों से संबंधित होता है। अध्यात्मिक विषयों के लिये हमें अपने अंदर संकल्प धारण करना पड़ता है और जब हम आत्मा और मन का अंतर समझ लेंगे तो दृष्टा की तरह जीने का आनंद ले पायेंगे।
एक तो संसार का दृश्य है और दूसरा वह दृष्टा आत्मा है जिसके बीच में यह देह स्थित है। पंच तत्वों से बनी इस देह की मन, बुद्धि तथा अहंकार की प्रकृतियों को अहंता, ममता और वासना की भावनायें बांधे रहती हैं। हम दृष्टा हैं पर कर्तापन का अहंकार कभी यह बात समझने नहीं देता। तत्वज्ञान के अभाव मनुष्य को दूसरा चतुर मायावी मनुष्य चाहे जब जहां हांक कर ले जाता है। इस संसार दो प्रकार के मनुष्य है एक वह जो शासक हैं दूसरे जो शासित हैं। निश्चित रूप से शासक चतुर मायावी मनुष्यों की संख्या कम और शासित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है पर अगर तत्वज्ञान को जो समझ लें तो वह न तो शासक बनता है न शासित। योगी बनकर अपना जीवन आंनद से व्यतीत करता है।
एक बात दूसरी यह भी है इस विश्व में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग और असहज योग। योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर जो बिना ज्ञान के चलते हैं वह सांसरिक विषयों में चक्कर में अपना जीवन तबाह कर लेते हैं और जो ज्ञानी हैं वह उसे संवारते रहते हुए सुख अनुभव करते हैं। अतः आत्मा और चित्त का भेद समझना जरूरी है।
दूसरी बात हम समाधि या ध्यान के विषय में यह भी समझ लें कि जब हम उसमें लीन होने का प्रयास करते हैं तब हमारे अंदर विषयों का घेर आने लगता है। उनसे विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उन विषयों से उत्पन्न विकार हैं जो उस समय भस्म होने आते हैं। जब वह पूरी तरह से भस्म होते हैं तब ध्यान आसानी से लग जाता है। ध्यान से जो मन को शांति मिलती है उससे बुद्धि में तीक्ष्णता आती है और प्रसन्न हो जाता है।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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संत कबीर दर्शन-समाज हित न करे वह बड़ा आदमी किस काम का


संत शिरोमणि कबीर दास कहते हैं कि
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हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय
अनेक बड़े लोग   हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं तो अन्य  लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो वह भी लोग भी भ्रम में हो जाते हैं और उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं। आजकल ऐसे अनेक साधू और संत देखने को मिल जायेंगे जो साहूकारों की तरह संपति संग्रह और ऋण बांटने का काम करते हैं, कुछ तो सत्ता की दलाली में लगे हुए हैं।
यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता। अत: ऐसे लोगों को आदर्श नहीं मानना चाहिए।

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संत कबीर दास के दोहे-प्रेम के घर तक पहुंचना आसान नहीं (prem ka ghar-sant kabir vani)


प्रीति बहुत संसार में, नाना विधि की सोय
उत्तम प्रीति सो जानिए, सतगुरू से जो होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में प्रेम करने वाले बहुत हैं और प्रेम करने के अनेक तरीके  और विधियां भीं हैं पर सच्चा प्रेम तो वही है जो परमात्मा से किया जाये।
जब लग मरने से डरैं, तब लगि प्रेमी नाहिं
बड़ी दूर है प्रेम घर, समझ लेहू मग माहिं
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मृत्यु का भय है तब तक प्रेम हो नहीं सकता हैं प्रेम का घर तो बहुत दूर है और उसे पाना आसान नहीं है।
वर्तमान  सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे जन जीवन में फिल्मों का प्रभाव अधिक हो गया है जिसमें प्रेम का आशय केवल स्त्री पुरुष के आपस संबंध तक ही सीमित हैं। सच तो यह है कि अब कोई पिता अपनी बेटी से और भाई अपनी बहिन से यह कहने में भी झिझकता है कि ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं’ क्योंकि फिल्मी में नायक-नायिका के प्रेम प्रसंग लोगों के मस्तिष्क में इस तरह छाये हुए हैं कि उससे आगे कोई सोच ही नहीं पाता। किसी से कहा जाये कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं तो उसके दिमाग में यह आता है कि शायद यह फिल्मी डायलाग बोल रहा हैं। वैसे इस संसार में प्रेम को तमाम तरह की विधियां हैं पर सच्चा प्रेम वह है जो भगवान भक्ति और स्मरण के रूप में किया जाये। प्रेम करो-ऐसा संदेश देने वाले अनेक लोग मिल जाते हैं पर किया कैसे किया जाये कोई नहीं बता सकता। प्रेम करने की नहीं बल्कि हृदय में धारण किया जाने वाला भाव है। उसे धारण तभी किया जा सकता है जब मन में निर्मलता, ज्ञान और पवित्रता हो। स्वार्थ पूर्ति की अपेक्षा में किया जाने वाला प्रेम नहीं होता यह बात एकदम स्पष्ट है।

अगर किसी आदमी के भाव में निच्छलता नहीं है तो वह प्रेम कभी कर ही नहीं सकता। हम प्रतिदिन व्यवहार में सैंकड़ों लोगों से मिलते हैं। इनमें से कई अपने व्यवहार से खुश कर देते हैं और स्वाभाविक रूप उनके प्रति प्र्रेम भाव आता है पर अगर उनमें से अगर किसी ने गलत व्यवहार कर दिया तो उस पर गुस्सा आता है। इससे जाहिर होता है कि हम उससे प्रेम नहीं करते। प्रेम का भाव स्थाई है जिससे किया जाता है उसके प्रति फिर कभी मन में दुर्भाव नहीं आना चाहिए।
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भर्तृहरि नीति दर्शन-ज्ञान का अहंकार मनुष्य को मदांध बना देता है (gyan ka ahankar-hindu dharma sandesh)


यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः
हिंदी में भावार्थ –जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
हिंदी में भावार्थ – बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि तथा अहंकार स्वाभाविक रूप से रहते हैं। अच्छे से अच्छे ज्ञानी को कभी न कभी यह अहंकार आ जाता है कि उसके पास सारे संसार का अनुभव है। इस पर आजकल अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लोग तो यह मानकर चलते हैं कि उनके पास हर क्षेत्र का अनुभव है जबकि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बिना उनकी स्थिति अच्छी नहीं है। सच तो यह है कि आजकल जिन्हें गंवार समझा जाता है वह अधिक ज्ञानी लगते हैं क्योंकि वह प्रकृति से जुड़े हैं और आधुनिक शिक्षा प्राप्त आदमी तो एकदम अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गये हैं। इसका प्रमाण यह है कि आजकल हिंसा में लगे अधिकतर युवा आधुनिक शिक्षा से संपन्न हैं। इतना ही नहीं अब तो अपराध भी आधुनिक शिक्षा से संपन्न लोग कर रहे हैं।
जिन लोगों के शिक्षा प्राप्त नहीं की या कम शिक्षित हैं वह अब अपराध करने की बजाय अपने काम में लगे हैं और जिन्होंने अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त की और इस कारण उनको आधुनिक उपकरणों का भी ज्ञान है वही बम विस्फोट और अन्य आतंकवादी वारदातों में लिप्त हैं। इससे समझा जा सकता है कि उनके अपने आधुनिक ज्ञान का अहंकार किस बड़े पैमाने पर मौजूद है।
आदमी को अपने ज्ञान का अहंकार बहुत होता है पर जब वह आत्म मंथन करता है तब उसे पता लगता है कि वह तो अभी संपूर्ण ज्ञान से बहुत परे है। कई विषयों पर हमारे पास काम चलाऊ ज्ञान होता है और यह सोचकर इतराते हैं कि हम तो श्रेष्ठ हैं पर यह भ्रम तब टूट जाता है जब अपने से बड़ा ज्ञानी मिल जाता है। अपनी अज्ञानता के वश ही हम ऐसे अल्पज्ञानी या अज्ञानी लोगों की संगत करते हैं जिनके बारे में यह भ्रम हो जाता है वह सिद्ध हैं। ऐसे लोगों की संगत का परिणाम कभी दुखदाई भी होता है। क्योंकि वह अपने अज्ञान या अल्पज्ञान से हमें अपने मार्ग से भटका भी सकते हैं।

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भर्तृहरि नीति शतक-बदलाव दुनिया का स्वाभाविक नियम (badlav ka niyam-hindu dharma sandesh)


महाराज भर्तृहरि अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर कहते हैं 
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परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्

हिंदी में भावार्थ-परिवर्तन होते रहना संसार का नियम। जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु होना निश्चित है। जन्म लेना उसका ही सार्थक है जो अपने कुल की प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है अर्थात समस्त समाज के लिये ऐसे काम करता है जिससे सभी का हित होता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर आदमी को किसी से भय लगता है तो वह अपने आसपास परिवर्तन आने के  से। उसे लगता है कि कोई उसकी जगह लेगा और उसका असितत्व मिट जाएगा।  कहीं भाषा तो कहीं धर्म और कहीं क्षेत्र के विवाद आदमी के हृदय में व्याप्त इसी भय की भावना का दोहन करने की दृष्टि से उन समूहों  के प्रमुख  उपयोग करते हैं। कई लोगों के हृदय में ऐसे भाव आते है जैसे- अगर पास का मकान बिक गया तो लगता है कि पता नहीं कौन लोग वहां रहने आयेंगे और हमसे संबंध अच्छे रखेंगे कि नहीं। उसी तरह कई लोग स्थान परिवर्तन करते हुए भय से ग्रस्त होते हैं कि पता नहीं कि वहां किस तरह के लोग मिलेंगे। जाति के आधार पर किसी दूसरे जाति वाले का भय पैदा किया जाता है कि अमुक जाति का व्यक्ति अगर यहां आ गया तो हमारे लिए विपत्ति खड़ी कर सकता है। अपने क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र से आये व्यक्ति का भय पैदा किया जाता है कि अगर वह यहाँ जम गया तो हमारा अस्तित्व खत्म कर देगा। कहने का अभिप्राय यह है कि बदलाव इस दुनिया का स्वाभाविक नियम है। कुछ  बुद्धिजीवी समाज में बदलाव लाने के लिए प्रयत्नशील दीखते हैं। कोई जातिपति मिटा रहा है तो कोई गरीबी से लड़ रहा है कोई अन्याय के विरुद्ध अभियान चला रहा है, यह सब दिखावा है। प्रकृति समय के अनुसार स्वत: बदलाव लाती है और मनुष्य के बूते कुछ नहीं है सिवाय दिखावा करने के।
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भर्तृहरि नीति शतक-जीवन रूपी नदी में राग और अनुराग नाम के मगरमच्छ रहते हैं (jivan men rag aur anurag-hindu dharma sandesh)


आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङगाकुला
रामग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी।
मोहावर्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुङगचिन्तातटी
तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगश्वराः।।
हिन्दी में भावार्थ- आशा एक नदी की भांति इसमे हमारी कामनाओं के रूप में जल भरा रहता है और तृष्णा रूपी लहरें ऊपर उठतीं है। यह नदी राग और अनुराग जैसे भयावह मगरमच्छों से भरी हुई हैं। तर्क वितर्क रूपी पंछी इस पर डेरा डाले रहते हैं। इसकी एक ही लहर मनुष्य के धैर्य रूपी वृक्ष को उखाड़ फैंकती है। मोह माया व्यक्ति को अज्ञान के रसातल में खींच ले जाती हैं, जहा चिंता रूपी चट्टानों से टकराता हैं। इस जीवन रूपी नदी को कोई शुद्ध हृदय वाला कोई योगी तपस्या, साधना और ध्यान से शक्ति अर्जित कर परमात्मा से संपर्क जोड़कर ही सहजता से पार कर पाता है।
वर्तमान सन्दर्भ में सम्पादकीय व्याख्या- मनुष्य मन तो चंचल है और उसमें कामनायें, तृष्णायें, तथा इच्छाओं का अनंत भंडार भरा हुआ है जो उसमें से तीर की तरह निकलकर देहधारी को इधर उधर दौड़ाती हैं।  अपने लिये धन संपदा जुटाने के बावजूद मनुष्य कभी विश्राम नहीं पाता है। मुख्य बात संकल्प से जुड़ी है। मनुष्य जब अपने अंदर पाने का मोह पालता है तो उसकी राह भी ऐसे ही हो जाती है। वह ऐसी ऐसी गुफा में पहुंच जाता है जिसमें चलते हुए कहीं भी उसे विराम नहीं मिलता है।  इसके विपरीत जो संतोष और त्याग का संकल्प धारण करते हैं उनको कभी भी इस बात की चिंता नहीं रहती कि कोई वस्तु मिली कि नहीं। जो मिल गया ठीक है और वह अपना कर्म करते हुए भगवान भक्ति में लीन हो जाते हैं।  तत्वज्ञानी जानते हैं कि मनुष्य अपने मन के वशीभूत होकर इस संसार में विचरण करता है इसलिये पर अपने पर नियंत्रण करते हुए स्वयं के स्वामी बनकर जीवन व्यतीत करते हैं। इसके विपरीत जो मन की गति और स्वरूप को नहीं जानते वह उसके दास होकर विचरते हैं यह अलग बात है कि उनको अपने स्वतंत्र होने का भ्रम होता है जबकि अहंता, ममता और वासना उन पर शासन करती हैं। जिनके इशारे पर चलता हुआ मनुष्य अज्ञान की राह में बिता देता हैं और उसकी इच्छाऐं, कामनायें तथा तृष्णायें कभी शांत नहीं होती।

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