मनुस्मृति-भोजन के लिये जाति या गौत्र के नाम का उपयोग उचित नहीं (bhojan prapt karne ke liye-manu smriti in hindi)


उपासते ये गृहस्थाः परपाकमबुद्धयः।
तेन ते प्रेत्य पशुतां व्रजन्त्यन्नांदिदायिजः।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनु महाराज के अनुसार जो निर्बुद्धि मनुष्य अच्छे खाने की लालच में दूसरे स्थान पर जाकर आतिथ्य सत्कार पाने का प्रयास करता है वह अगले जन्म में अन्न खिलाने वाले मनुष्यों के घर में पशु का रूप धारण कर रहता है।
न भोजनार्थ स्वे विप्र कुलगोत्रे निवेदयेत्।
भोजनार्थ हि ते शंसन्न्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी ज्ञानी आदमी को कहीं से खाना प्राप्त करने के लिये अपने कुल या जाति की सहायता नहीं लेना चाहिए। ऐसा करने वाला व्यक्ति वान्ताशी यानि उल्टी किए गऐ भोजन को खाने वाला माना जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की जीभ स्वाद के लालायित रहती है। जो ज्ञानी लोग भोजन को केवल पेट भरने के लिये मानते हैं वह तो हर प्रकार के भोजन में संतुष्ट हो जाते हैं पर पेट भरना ही जीवन मानते हैं वह अच्छे खाने के लिये इधर उधर मुंह मारते हैं। जीवन के लिये भोजन आवश्यक है पर कुछ लोग तो भोजन को ही जीवन मानकर उसके पीछे फिरते हैं। ऐसे लोग हमेशा भूखे रहते हैं और अपने घर के खाने को विष समझकर इधर उधर ताकते रहते हैं। एसे लोगों की बुद्धि अत्यंत निकृष्ट होती है।
भोजन हमें इस उद्देश्य से ग्रहण करना चाहिये कि उससे हमारे शरीर को नियमित ऊर्जा मिलती रहे। भोजन में ऐसे पदार्थ ग्रहण करना चाहिए जो भले ही स्वादिष्ट न हों पर सुपाच्य होना चाहिए। जीभ के स्वाद के चक्कर में अज्ञानी लोग ऐसे पदार्थ ग्रहण करते हैं जो पेट के लिए हानिकारक हैं। आजकल हम देख भी रहे है कि स्वादिष्ट पदार्थों के सेवन से बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है। इसलिये सुपाच्य पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए।
उसी तरह भोजन प्राप्त करने के लिऐ कभी अपने कुल या गौत्र का नहीं लेकर सदाशयी गृहस्थ की सद्भावना पर ही निर्भर रहना चाहिए। जो लोग अपने भोजन के लिये कुल या जाति का आसरा लेते हैं वह ऐसे ही होते हैं जैसे कि उल्टी का भोजन करने वाले पशु होते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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