पतंजलि योग दर्शन-राग, द्वेष तथा भय का भाव स्वाभाविक (patanjli yog darshan-raag dwesh aur bhay ka bhav)


सुखानुशयी रागः।।
हिन्दी में भावार्थ-
सुख के भाव के पीछे राग है।
दुःखानुशयी द्वेषः।।
हिन्दी में भावार्थ-
दुःख के भाव के पीछे रहने वाला भाव क्लेश है।
स्वरसवाह विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य स्वभाव में भय का भाव परंपरा से चला आ रहा है जिसे अभिनिवेश भी कहा जाता है तथा यह मूढ़ों की तरह विवेकशील पुरुष में भी रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर जीव की तरह मनुष्य में भी राग, द्वेष तथा भय का भाव समय के अनुसार चलता रहता है। जब मनुष्य सुख की अनुभूति करता है तब उसके अंदर राग पैदा होता है। जब दुःख देखता है तक उसके अंदर द्वेष पैदा होता है। मुत्यु तय है पर फिर भी हर मनुष्य उसके भय के साथ जीता है। सुख प्राप्त होने पर मनुष्य उसकी अनुभूति में इतना रम जाता है कि उसे बाकी संसार का बोध नहंी रहता। दुःख आने पर उसे अन्य सुखी लोगों के प्रति द्वेष भाव उत्पन्न होता है। दोनों ही एक तरह से विष की तरह हैं। राग प्रारंभिक रूप से अच्छा प्रतीत होता है पर एक समय के बाद आदमी अपने सुख से भी उकता जाता है। फिर उससे उत्पन्न विकार उसे त्रास देते हैं। आजकल सुख सुविधा के साधन बहुत हैं पर उनके इस्तेमाल से राजरोग भी पनप रहे हैं इससे हम इस बात को समझ सकते हैं।
आज हमारे समाज में चारों तरफ वैमनस्य का वातावरण है। इसका कारण यह है कि समाज में धन का असमान वितरण है। एक तरफ धनिक वर्ग अपने धन का प्रदर्शन करता है तो दूसरी तरफ जिन लोगों के पास धन का अभाव है वह धनिकों से नाखुश हैं। यह स्वाभाविक है। समाज का धनिक वर्ग दान और परोपकार की प्रवृत्तियों से रहित हो गया है इसने समाज में द्वेषभाव का निर्माण किया है।
आखिर महर्षि पतंजलि के इस सूत्र का आशय क्या है? जो व्यक्ति दृष्टा की तरह जीवन को देखेगा उसे यह बात समझ में आ सकती है। दूसरी स्थिति यह है कि जो मनुष्य इन सूत्रों को समझ लेगा कि इस देह के साथ राग, देष तथा भय की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से लगी हुई हैं वह दृष्टा भाव को प्राप्त होकर जीवन का आनंद प्राप्त करेगा।

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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