आयु के अनुसार होता है मनोरंजन का स्वरूप-आलेख (age fector and entertainment-hindi article)


वह कौनसी संस्कृति और संस्कार है जिसके नष्ट होने का खतरा पैदा हो गया है जिसे बचाने के लिये इतने सारे बुद्धिजीवी लगे हुए हैं। सविता भाभी नाम की वेबसाईट और सच का सामना नाम का एक धारावाहिक इतने खतरनाक नहीं हो सकते कि वह भारतीय संस्कृति को नष्ट कर दें। भारतीयों की ताकत उनका ध्यान है जो वह अध्यात्मिक ज्ञान से अर्जित करते हैं। भारत के प्राचीन ग्रंथों में कहीं इसकी चर्चा नहीं है कि जुआ, अश्लीलता या यौन विषयों पर प्रतिबंध लगाया जाये।
हमारे प्राचीन ग्रंथ आत्मनियंत्रण का संदेश देते हैं पर यह अपेक्षा नहीं करते कि राज्य इसके लिये कार्यवाही करे। इन्हीं ग्रंथों में योग साधन, प्राणायम, ध्यान और मंत्रों की विधियां बतायी गयी हैं जिनसे शरीर और मन पर नियंत्रण रखा जा सकता है। इस देश के अधिकतर लोग आत्मनिंयत्रण के द्वारा ही जीवन व्यतीत करते हैं और इसी कारण ही भारतीय समाज विश्व का सबसे योग्य समाज भी माना जाता है। तीन प्रकार की प्रवृत्तियों के लोग-सात्विक, राजस और तामस-इस धरती पर हमेशा रहेंगे यह बात बिल्कुल स्पष्ट है। आचार विचार, रहन सहन, और खान पान के आधार आदमी की प्रवृत्तियां निर्धारित करती हैं और वह इन्हीं से पहचाना भी जाता है।
आदमी के अपराधों से निपटने का काम राज्य का है और सामान्य आदमी को स्वयं पर ही नियंत्रण रखना चाहिये। दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है या कह रहा है इससे अधिक आदमी अगर स्वयं पर ध्यान दे तो अच्छा है-यह हमारे ग्रंथों का स्पष्ट मत है।

समाज को संभालने का काम गुरु करें यह भी स्पष्ट मत है। फिर फिल्मों, धारावाहिकों, किताबों और वेबसाईटों का प्रभाव हमेशा क्षणिक रहता है उनमें इतनी ताकत नहीं है कि वह पूरा समाज बिगाड़ सकें-कम से कम भारतीय समाज इतना कमजोर नहीं है। यह समाज जीवन के सत्य और रहस्यों को जानता है जो समय समय पर महापुरुष इसे बता गये हैं। इसके बावजूद इस समाज को कमजोर मानने वाले भ्रम में हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह भ्रम उस बौद्धिक समाज को है जो शरीरिक श्रम से परे है। शारीरिक से परे आदमी को भय, आशांकायें और संदेह हमेशा घेरे रहते हैं। यही चंद लोग ऐसी फिल्मों, वेबसाईटों,धारवाहिकों और साहित्य से चिपका रहता है जो आदमी के मन में पहले सुख और बाद में संताप पैदा करता है। जो श्रम करने वाले लोग हैं ऐसा वैसा सब देखकर भूल जाते हैं पर बुद्धिजीवियों के चिंतन की सुई वहीं अटकी रहती है-यह तय करने में कि समाज इससे बिगड़ेगा कि बनेगा!
खासतौर से जिनकी उम्र बढ़ी हो गयी है या फिर जिनको समाज सुधारने का ठेका मिल गया है वह ऐसे सभी स्तोत्रों पर पर प्रतिबंध की मांग करते हैं जिनसे युवा मन विचलित होने की आशंका रहती है।

यह समस्या तो पूरे समाज में है। हर बुढ़े को आजकल के युवा असंयमित दिखते हैं तो हर बुढ़िया को युवती अहंकारी नजर आती है। बुढ़ापे में आदमी का अहंकार अधिक बढ़ जाता है और वह पुजना चाहता है। हम बरसों से सुन रहे हैं कि ‘जमाना बिगड़ गया है।’ हम छोटे थे तो समझते थे कि ‘वास्तव में जमाना बिगड़ गया होगा। अब देखते हैं तो सोचते हैं कि जमाना ठीक कब था। कहते हैं कि घोर कलियुग है पर बताईये सतयुग कब था? रावण त्रेतायुग में हुआ और कंस द्वापर में हुआ। अगर वह युग ठीक था तो फिर उनमें ऐसे दुराचारी कहां से आ गये? कुछ लोग कहते हैं कि उस समय आम आदमी में धर्म की भावना अधिक थी। अब क्या कम है? आम आदमी तो आज भी भला है-उसकी चर्चा अधिक नहीं होती यह अलग बात है। फिर आजकल के प्रचार माध्यम सनसनी फैलाने के लिये खलपात्रों में ही अच्छाई ढूंढते नजर आते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बुढ़ापे में जमाना सभी को भ्रष्ट नजर आता है।
जहां तक यौन और अश्लील साहित्य का सवाल है तो वह चालीस सालों से हम बिकते देख रहे हैं। वह बिकता भी खूब था। अनेक लोग पढ़ते थे पर फिर भी चालीस सालों में ऐसा नहीं लगता कि उससे जमाना बिगड़ गया। उम्र के हिसाब से आदमी चलता है। अनेक युवाओं ने ऐसा साहित्य पढ़ा पर अब उनमें से कई ऐसे भी हैं जो मंदिरों में दर्शन करने के लिये जाते हैं। युवा मन हिलोंरे मारता है। वह ऐसा देखना चाहता है जो नया हो। उस समय हर कोई हर युवा अपने हमउम्र विपरीत लैंगिक संपर्क बढ़ाना चाहता है। युवावस्था में विवाह होने पर जीवन साथी के प्रति दैहिक आकर्षण चरम पर पहुंच जाता है। समय के साथ वह कम होता जाता है पर प्रेम यथावत रहता है क्योंकि मन में तब एक स्वाभाविक प्रेम की ग्रंथि है जो एक दूसरे को बांधे रहती है। यह व्यक्तिगत संपर्क कभी समाज के लिये देखने की चीज नहीं होता बल्कि सभी लोग अपनी बात ढंके रहते हैं पर दूसरे के घर में झांकने की उनके अंदर एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो हर मनुष्य मनोरंजन पैदा करती है।
आदमी में मन है तो उसे मनोरंजन की आवश्यकता होती है। मनोरंजन का स्वरूप आयु के अनुसार तय होता है। युवावस्था में यौन विषय नवीनतम और आकर्षक लगता है तो अधेड़ावस्था में दौलत और शौहरत का नशा चढ़ जाता है। बुढ़ापे में जब शरीर के अंग शिथिल होते हैं तब सम्मान पाने का लोभ आदमी में पैदा होता है। ऐसे में आदमी दूसरे की निंदा और आत्मप्रवंचना कर अपने आपको दिलासा देता है कि वह अपना सम्मान बढ़ा रहा है। ऐसे में युवाओं के मनोरंजन के साधन उनको भारी तकलीफ देते हैं भले ही अपनी युवावस्था में वह भी उनमें लिप्त रहे हों।

कहने का तात्पर्य यह है कि अगर कोई व्यक्ति या समूह किसी दूसरे को हानि नहीं पहुंचा रहा है तो उसे अपनी आयु के अनुसार मनोरंजन प्राप्त करने का अधिकार है। यह समाज की एक सहज प्रक्रिया होना चाहिये। युवाओं के मन को किस प्रकार का मनोरंजन चाहिये यह तय करने का अधिकार उनको है न कि अधेड़ और बूूढ़े इसका निर्धारण करें। यहां यह भी याद रखने लायक बात है कि बड़ी आयु के लोग ही छोटी आयु के लोगों में संस्कार भरने का प्रयास करते हैं। इसलिये गुरु भी कहलाते हैं। यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह उनकी मन के पर्वत को मजबूत बनायें जिससे निकलने वाली मनोरंजन की नदी विषाक्त न हो भले ही वह यौन साहित्य वाले शहर से निकलती हो। इसकी बजाय उनको जबरन रोकने की चाहत एक मजाक ही है। सच तो यह है कि कभी कभी तो यह लगता है कि कुछ उत्पाद इसलिये ही लोकप्रिय हो जाते हैं कि उनका विरोध अधिक होता है। यह विरोध प्रायोजित लगता है। वेबसाईट पर प्रतिबंध और धारावाहिक के विरोध के बाद उनकी सार्वजनिक चर्चा अधिक होना इस बात का संदेह भी पैदा करती है। इस तरह के विरोध युवाओं की तरफ से नहीं होते जो इस बात का प्रमाण है कि वह उनके लिये मनोरंजन का साधन हैं पर वह इससे विचलित हो जायेंगे यह भी नहीं सोचना चाहिये। चलते रहना इस दुनियां का नियम है।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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