फंदेबाज लाया अखबार और बोला
‘बापू हम लोग बेकार में अपनी
व्यवस्था का मजाक उड़ाते
बिचारे अंग्रेज भी ऐसी ही
व्यवस्था में अपनी सांस फंसी पाते
देखो अखबार में लिखा
वहां भी दफ्तरों में कागज पर
अधिक होता काम
जमीन पर लगता है जाम
फाईलों अधिक चलती हैं
व्यवस्था में लगे लोगों के कारण
वहां भी जनता अपने हाथ मलती है
तसल्ली हो गयी है
जो दर्द हमें दे गये यहां पर अंग्रेज
उसके अहसास में खुद भी जले जाते’
सुनकर पहले गुस्से में उसे देखा
और फिर मुस्कराते हुए बोले महाकवि दीपक बापू
‘फिर काहे आजादी का जश्न मनाते
जब उनके पदचिन्हों पर ही चल कर खुश हो जाते
यह आजादी कितना भ्रम है
यह तुम्हें अब आया ज्ञान
ज्ञानियों ने तो पहले ही लिया था मान
अंग्रेज जाते जाते अपनी शिक्षा और संस्कृति
यहां अपने अग्रजों को सौंप गये थे
आजादी के नाम गुलामी का छुरा घौंप गये थे
पूर्वजों की तरह जो चला रहे हैं व्यवस्था
नहीं हैं उनके व्यवस्थापक होने की अवस्था
कदम कदम पर अंग्रेजियत का बोलाबाला है
हर घर में लगा अक्ल का ताला है
बिना पढ़े लिखो
साहब जैसा हमेशा दिखो
जो लिखो कोई पढ़कर समझे नहीं
समझे तो कुछ पूछने की हिमाकत करे नहीं
अपने मतलब से नियम बनाओ
खुद न चलो दूसरे को चलाओ
अंग्रेजी पढ़कर रोटी मिलेगी
इस पर चले हैं सब देश में
फिर भी घूम रहे हैं बेरोजगार के वेश में
अंग्रेजों बिना किताब के नियम पर चलते हैं
पर यहां चलने से पहले नियम बनते हैं
कागजों में हो गयी आदमी की जिंदगी
नौकर बनने के लिये कर रहे हैं
बड़े बड़े लोगों की बंदगी
आजादी एक नारा थी
सच में मिली कहां
शिखर पर बैठे पुतलों के चेहरे बदले
जमीन में खड़ा आदमी तो अभी भी
मुश्किलों में है वहां
जिस पर है पद, पैसे और प्रतिष्ठा की शक्ति
उसकी करते हैं सब गुलामों जैसी भक्ति
बन गये हैं जो खास आदमी
वह समझतें है जैसे गुलाम हैं सब उनके आम आदमी
सच पर पहरे बहुत हैं
जितना बाहर आने की करता हम छिपाते
कोई हंसे नहीं इसलिये
अपनी जुबान से स्वयं को आजाद बताते
अंग्रेज जो अंग्रेजियत छोड़े गये
उसके हम भी गुलाम है
पर फिर भी आजादी की जंग कहां शुरू कर पाते
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
टिप्पणियाँ
बहुत गहरा, तीखा और मारक कटाक्ष किया आपने
बहुत खूब.