सर्वशक्तिमान के दरबार से उस दिन जब मैं निकल रहा था तो मेरी नजर बरसात में भीगे पोस्टर पर चली गयी जो एक बंद दरवाजे पर चिपका हुआ था। उसे मैं पहले भी कई बार देख कर बिना पढ़े ही मूंह फेर चुका था पर आज ऐसे ही दृष्टि वहां चली गयी। उस पर लिखा था ‘समस्त धर्म प्रेमी बुद्धिजीवी भक्त जनों से निवेदन है कि अपने जूते चप्पल सीढि़यों के नीचे उतारकर दर्शन करने अंदर जायें।’
मैं दर्शन कर सीढियां उतरकर ही आया था और वहां चबूतरे के एकदम किनारे रखी अपनी चप्पल पहन रहा था। वह किनारा भी मुख्य दरबार से दूर था। अभी मुझे चबूतरे की सीढियां उतरकर अपनी साइकिल पर सवार होना था पर मैं सोच रहा था कि आखिर इसमें किन सीढियों के नीचे जूते उतारने का आग्रह का कहा गया है। वह जो मैं उतरकर आया हूं या वह जिनसे उतरने वाला हूं।
मुद्दा केवल यही नहीं था। बुद्धिजीवी शब्द ने थोड़ा परेशान कर दिया था और मैं उस व्यक्ति के बारे में सोचने लगा था जो मुझसे यह कंप्यूटर पर टाईप कराकर फ्लापी में ले गया था कि ‘अब मैं एक अन्य भक्त के घर से प्रिंट कराऊंगा।’
पूछने पर उसने बताया था कि मेरा प्रिंटर काम नहीं करता और उस दूसरे भक्त को हिंदी टाईप नहीं आती। मुझसे टाईप करवाने वाला आदमी भी मनमौजी किस्म का भक्त है और इसी कारण उससे एक अंतरंग परिचय स्थापित हो गया वह मुझे कभी बुद्धिजीवी साहब तो कभी इंजीनियर साहब कहकर बुलाता है। इंजीनियर इसलिये कि एक बार किसी का कंप्यूटर काम नहीं कर रहा था तो वह उसे दिखाने के लिये वह उसके ले गया था और वह मेरे हाथ से ठीक हो गया था क्योंकि उसमें ऐसी कोई खराबी नहीं थी जिसके लिये इंजीनियर की जरूरत होती। उनके यहां कंप्यूटर नया था और आपरेटिंग सिस्टम न समझने की वजह से वह परेशान हो रहे थे।
जो सूचना मैंने उसे टाईप करके दी थी उसमें बुद्धिजीवी शब्द नहीं था और इसका मतलब यह कि उसे बाद में जोड़ा गया। वैसे वह एक भक्त था पर दरबार के मुख्य सेवक के कहने पर अनेक प्रकार की सेवायें वह करता रहता और इसी कारण बहुत से लोग तो उसे उस दरबार का कर्ताधर्ता समझते थे। मैंने तय किया कि इस बार मिलने पर उसे खरी-खरी सुनाकर अपने दिल को तसल्ली दूंगा। मैं अभी थोड़ा दूर चला था कि वह आता दिखा और उसने दूर से हाथ हिलाकर अभिवादन करते हुए कहा-‘नमस्कार! बुद्धिजीवी साहब।’
जले पर नमक छिडकने जैसा उसका यह व्यवहार मुझे चिढ़ाने के लिये काफी था। मैंने उससे रुकने का इशारा किया और जाकर पूछा-‘यह बताओ। वह दरबार में तुमने नोटिस लगाया है। क्या यह वही है जो तुमने मुझसे टाईप कराया था।’
उसने कहा-‘हां बिल्कुल!
पर उसमें केवल भक्त शब्द था। तुमने उसमें बुद्धिजीवी शब्द क्यों जोड़ दिया। क्या वहां श्रमजीवी लोग नहीं आते हैं।’मैने पूछा
वह बोला-‘ आते हैं न साहब। वहां तो सभी प्रकार के लोग आते हैं।’
मैंने उससे कहा-‘फिर बुद्धिजीवी भक्तों को ही चप्पल सीढि़यों के नीचे उतारने को क्यों आग्रह किया है। क्या वह चप्पल पहनकर अंदर जाते हैं और श्रमजीवी लोग बाहर ही उतारते हैं।’
अरे, साहब आप भी क्या मामला लेकर बैठ गये।’ हम श्रमजीवी लोग तो सर्वशक्तिमान से डरते हैं इसलिये पहले ही चप्पल और जूते उतार देते हैं पर बुद्धिजीवी लोग तो चबूतरे तक चप्पल ले जाते हैं। वैसे यह तो सबके लिये लिखा गया है। बुद्धिजीवी तो प्रिंट करने वाले के यहां एक लड़का खड़ा था उसने जोड़ दिया। मैंने भी ध्यान नहीं दिया। आजकल तो सब बुद्धिजीवी हैं। श्रमजीवी भी बुद्धिजीवी होते हैं और कई बुद्धिजीवी भी कहने को ही हैं होते तो वह भी श्रमजीवी ही है। वैसे आप गुस्स तो नहीं हैं?’
मैंने हंसकर कहा-‘नहीं।’
तो उसने कहा-‘तब तो चिंता की कोई बात नहीं है।‘
मैंने कहा-‘पर चिंता की बात तो है। अब मैं इस विषय पर लेख लिखूंगा कि किस तरह तुमने बुद्धिजीवियों पर संदेह प्रकट किया है। इस मैं लेख लिखूंगा। बहुत सारे बुद्धिजीवी जो फुरसत मैं है विरोध में आंदोलन भी कर सकते हैं। इससे तो तुम्हारी बदनामी होगी। मैं नहीं जानता। मुझे तो लिखने से मतलब है।’
वह घबड़ा गया और बोला-‘साहब छोड़ो। आप भी इस बात को गंभीरता से क्यों लेते हैं। आप भी भक्त हैं और मैं भी। आपने भी सेवा की, मैंने भी की। कहां आप भक्ति में यह विषय लेकर बैठ गये। यह तो चलता ही रहता है।’
मैं हंसकर वहां से चला गया। अगले दिन सुबह स्कूटर से अपने काम पर जा रहा था वह रास्ते में इंतजार करता हुआ मिला। उसने मुझे आवाज दी-‘इंजीनियर साहब, रुकना जरा!’
मैं रुक गया तो वह मेरे पास आया और बोला-‘साहब! आप उस प्रसंग को आगे बढ़ाओ। कल मुख्य सेवक साहब को जब मैंने आपकी बात बताई तो वह खुश हो गये और बोले‘कि अगर वह बुद्धिजीवी साहब इस मामले में विवाद खड़ा करते हैं तो हमारी दरबार के लिये प्रसिद्धि का कारण बनेगा। दूर दूर से लोग इसे देखने आयेंगे। खूब चढ़ावा आयेगा। अरे, यह इलाका तो बहुत बड़ा पर्यटन का स्थान बन जायेगा। यहां के जो सेवक हैं सबकी पौबारह हो जायेगी। ढेर सारा चढ़ाया आयेगा तो हमें यहां दुकानें बनानी पड़ेंगी और उनमें से एक दुकान तुम्हें भी सस्ते दामों पर बेच दूंगा। फिर खूब कमाना। बस! अब उन जाकर उनसे कह देना कि इससे तो सर्वशक्तिमान की बहुत बड़ी सेवा हो जायेगी। वह तो सच्चे भक्त हैं और इसलिये तुम्हारी बात मान जायेंगे’। अब मैंने तो आपको उनका संदेश दे दिया आप भी कुछ करें तो अच्छा रहेगा।’
मैंने कहा-‘पर अब मेरा इस लिखने का कोई विचार नहीं है।’
वह बोला-‘कल तो आपने कहा था कि लिखेंगे।’
मैंने कहा-‘कल मैं बुद्धिजीवी था इसलिये लिखने की बात कर रहा था फिर तुम्हारे कहने पर विचार बदल दिया। अब मैं कोई ‘परबुद्धिजीवी’ नहीं हूं कि तुम्हारे कहने से इस पर लिखूं।’
वह देखता रहा गया और मैं चला गया। मैं तो मन ही मन खुश हो रहा था कि क्या झाड़ा। वैसे मुझे भी समझ में नहीं आता कि ‘परबुद्धिजीवी’ शब्द गलत था या सही।
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दीपक भारतदीप
टिप्पणियाँ
bahut joradar ab parabuddhijivi or budhdhijivi ke bare me . thanks